Show शैशवावस्था इसका स्वरूप, महत्व एवं विशेषताएँ | बाल विकास एवं शिक्षा शास्त्र
बालक के जन्म के पश्चात 5 वर्ष की अवस्था शैशवकाल होती है। बालक की इस अवस्था को “बालक का निर्माण काल” माना जाता है। इसी अवस्था में बालक में भावी जीवन का निर्माण किया जा सकता है। शैशवावस्था की मुख्य विशेषताएँ- (1) शारीरिक विकास में तीव्रता- शैशवावस्था के प्रथम 3 वर्ष शिशु के शारीरिक विकास की तीव्रता को प्रदर्शित करते हैं। 3 वर्ष के पश्चात शारीरिक परिवर्तन की गति कुछ मंद पड़ जाती है। इस अवस्था में शिशु की इंद्रियों, कर्मेन्द्रियों, आंतरिक अंगों, मांस पेशियों आदि का क्रमिक विकास होता है। (2) मानसिक विकास में तीव्रता- शिशु की मानसिक क्रियाओं जैसे- ध्यान, स्मृति, कल्पना शक्ति, संवेदना और प्रत्यक्षीकरण आदि का विकास तीव्र गति से होता है। 3 वर्ष की अवस्था में शिशु की मानसिक शक्तियाँ कार्य करना प्रारंभ कर देती हैं। (3) सीखने की प्रक्रिया में तीव्रता- शिशु के सीखने की प्रक्रिया में बहुत तीव्रता होती है और वह अनेक आवश्यक बातों को सीख लेता है। (4) कल्पना की सजीवता- कल्पना की सजीवता का अर्थ कल्पनाशील बातों को वास्तविक मानना है। 4 वर्ष का बालक में कल्पना की सजीवता पाई जाती है। वह सत्य व असत्य में अंतर नहीं कर पाता है। फलस्वरूप असत्यभाषी जान पड़ता है। वह अपने शोध, प्रबंधन और अनेक कल्पनाएँ करने लगता है। इन 👇 प्रकरणों के बारे में भी जानें। (5) दूसरों पर निर्भरता- जन्म के तुरंत बाद शिशु कुछ समय तक बहुत ही असहाय स्थिति में रहता है। उसे भोजन और अन्य शारीरिक आवश्यकताओं के अलावा प्रेंम और सहानुभूति पाने के लिए भी दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। (6) आत्म प्रेंम की भावना- शिशु अपने माता-पिता, भाई-बहन, दादा-दादी आदि का प्रेंम प्राप्त करना चाहता है। किंतु साथ ही वह यह भी चाहता है कि प्रेंम उसके अलावा और किसी को न मिले। यदि किसी और के प्रति प्रेंम व्यक्त किया जाता है तो शिशु को उससे ईर्ष्या होने लगती है। इसके अतिरिक्त यह भी देखा जाता है कि वह स्वयं सुरक्षित रहना चाहता है। उदाहरण के लिए उसके बराबर के अन्य शिशु उसके साथ रहते हैं तो वह उन्हें कब धकेल दे या चोट पहुँचा दे इसका भरोसा नहीं किया जा सकता। इससे यह साबित होता है कि उसके भीतर आत्ममोह की भावना कूट-कूट कर भरी होती है। (7) नैतिकता का अभाव- शिशु को अच्छी-बुरी, उचित-अनुचित बातों का ज्ञान नहीं होता है। वह उन्हीं कार्यों को करना चाहता है जिसमें उसे आनंद आता है। (8) मूल प्रवृत्तियों पर आधारित व्यवहार- शिशु के अधिकांश व्यवहारों का आधार उसकी मूल प्रवृत्तियाँ होती हैं। जैसे कि यदि उसको भूख लगती है तो वह किसी भी वस्तु को अपने मुँह में डालने लगता है। यदि वह वस्तु उसके उससे छुड़ा ली जाती है तो वह रोने लगता है। (9) सामाजिकता की ओर अग्रसर- शिशु इस अवस्था के अंतिम चरण 4 से 5 वर्ष की उम्र में उसमें सामाजिक भावना का विकास होने लगता है। जैसे कि अपने हम उम्र के बालकों के साथ खेल खेलना, अपने भाई-बहनों के प्रति रक्षात्मक व्यवहार आदि इसी बात की ओर इंगित करते हैं। (10) रुचि या अरुचि प्रदर्शन- शिशु में दूसरे बालकों के प्रति रुचि या अरुचि उत्पन्न हो जाती है। बालक 1 वर्ष का होने के पूर्व ही अपने साथियों में रुचि व्यक्त करने लगता है। आरंभ में इस रुचि का स्वरूप अनिश्चित होता है परंतु शीघ्र ही यह अधिक निश्चित रूप धारण कर लेती है और रुचि एवं अरुचि के रूप में प्रकट होने लगती है। (11) संवेगों का प्रदर्शन- बालक में 2 वर्ष की अवस्था में संवेगों का विकास हो जाता है। बाल मनोवैज्ञानिकों ने शिशु के मुख्य चार संवेग बताये हैं। (1) भय (2) क्रोध (3) प्रेंम (4) पीड़ा। (12) काम भावना- बाल
मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि शिशु में काम प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है, किंतु वह वयस्कों की भॉति अपनी काम भावना को प्रकट नहीं कर पाता। शिशु का माता का स्तन पान करना, यौनांगों का स्पर्श आदि उसकी काम प्रवृति की ओर इंगित करते हैं। (13) दोहराव प्रवृत्ति- बालक अर्थात् शिशु में शब्दों एवं विभिन्न गतिविधियों को बार-बार पुनरावृति करने की प्रवृत्ति पाई जाती है। वह जो शब्द सुनता है या गतिविधि को देखता है तो वह उसे बार-बार दोहराता है। (14) जिज्ञासा की प्रधानता- शिशु में जिज्ञासा की प्रवृत्ति का बाहुल्य होता है। आपने देखा होगा कि शिशु अपने खिलौनों को उलट-पुलट कर देखता व उससे खेलता रहता है। कभी-कभी तो खिलौनों या अन्य वस्तुओं को तोड़-फोड़ कर उसके अंदर देखता है कि उसमें क्या है? कभी-कभी अपने से बड़ों से कई तरह के प्रश्न पूछता है। इन बातों से स्पष्ट है कि उसके अंदर जिज्ञासा की प्रवृत्ति कूट-कूट कर भरी होती है। (15) अनुकरण कर सीखने की प्रवृत्ति- शिशु के अंदर अनुकरण कर सीखने की प्रबल प्रवृत्ति पाई जाती है। अपने माता-पिता या भाई बहन को उनके कार्यों को देखकर वह भी उसी तरह के कार्य करने लगता है। जैसे शिशु के बड़े भाई या बहन पुस्तक पढ़ते हैं तो वह भी पुस्तक पढ़ने या लिखने की नकल करता है। (16) खेल प्रवृत्ति- शिशु में स्वभावतः खेल प्रवृत्ति पाई जाती है। वह अकेले या हम उम्र शिशुओं के साथ विभिन्न प्रकार के खेल दिन भर खेलते रहता है। वह चुपचाप बैठा नहीं रह सकता। खेल में उसे महान आनंद की अनुभूति होती है। इन 👇 प्रकरणों के बारे में भी जानें। शैशवावस्था का स्वरूप- बाल विकास के अध्ययन में यह बात महत्वपूर्ण है कि शैशवावस्था का स्वरूप कैसा होना चाहिए? यदि शैशवावस्था में बालक का परिवेश व आसपास का वातावरण उसके अनुकूल होता है तो विकास की दौड़ में वह शिशु निश्चित ही आगे होता है। अतः शैशवावस्था का स्वरूप कैसा हो इसका विवरण बिन्दुवार इस प्रकार है। (1) घर का
वातावरण शान्त, सुरक्षित और स्वस्थ होना चाहिए। शैशवावस्था का महत्व- शैशवावस्था में शिशु पूर्ण रूप से माता-पिता पर निर्भर रहता है उसका व्यवहार मूल प्रवृत्तियों पर आधारित होता है, जीवन के प्रथम 2
वर्षों में बालक अपने भविष्य के जीवन की आधारशिला रखता है। इस संदर्भ में गुडएनफ नामक विद्वान ने कहा है कि- “व्यक्ति का जितना भी मानसिक विकास होता है उसका आधा 3 वर्ष की आयु तक हो जाता है।” शैशवावस्था वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति को जो कुछ भी बनना होता है अर्थात उसका भावी जीवन किस ओर जाना है उसके आरंभ के चार पाँच वर्षों में ही निर्धारित हो जाता है। इसी संदर्भ में ऐडलर नामक विद्वान ने कहा है- “बालक के जन्म के कुछ माह बाद ही यह निश्चित किया जा सकता है कि जीवन में इसका क्या स्थान
है।” इन 👇 प्रकरणों के बारे में भी जानें। शैशवावस्था से संबंधित महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ- (1) शैशवावस्था में शारीरिक विकास की भाँति शिशु का गत्यात्मक विकास सिर से पैर की ओर और निकट से दूर के नियम कार्य करते हैं। इस तरह से शैशवावस्था बाल विकास की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण अवस्था मानी गई है। इस अवस्था में माता-पिता अर्थात शिशु के संरक्षक को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है। I hope the above information will be useful and important. Watch video for related information
Watch related information below बचपन में शारीरिक विकास से आप क्या समझते हैं?शारीरिक विकास मतलब बालक की शारीरिक संरचना एवं उसमें होने वाला परिवर्तन है। शारीरिक विकास के अंतर्गत बालक के शरीर का भार उसकी लंबाई उसकी हड्डियों का विकास एवं मजबूती आदि चीजों का विकास सम्मिलित है।
शारीरिक विकास का महत्व क्या है?बच्चों के अंदर स्वस्थ मानसिक विकास के समान ही स्वस्थ एवं सामान्य शारीरिक विकास का होना भी आवश्यक है। उत्तम शारीरिक विकास बालक के संपूर्ण व्यवहार, व्यक्तित्व एवं समायोजन को प्रभावित करता है । 2) बालक के भीतर विविध प्रकार की शारीरिक क्रियाओं का विकास भी उसकी मांसपेशियों की वृद्धि पर निर्भर करता है।
बच्चों का शारीरिक विकास कैसे होता है?बच्चे के विकास की शुरुआत तो माँ के पेट से होने लगता है, गर्भ टिकने के बाद शुरू के तीन महीनों में बच्चे का तेजी से विकास होता है। बच्चे के विकास पर ध्यान देने के लिए जरूरी है की हर महीने उसका वजन लिया जाय । वजन अगर बढ़ रहा है तो ठीक है अगर नहीं तो उसके खान-पान पर अधिक ध्यान देने की जरूरत पड़ेगी।
शारीरिक विकास कितने प्रकार के होते हैं?शारीरिक विकास के चार प्रमुख चरण. स्वास्थ्य. बाल स्वास्थ्य. शैशवावस्था : शारीरिक, पेशीय एवं स्नायविक विकास. शारीरिक विकास के चार प्रमुख चरण. |