अधिगम के आकलन से क्या तात्पर्य है? - adhigam ke aakalan se kya taatpary hai?

सीखना या अधिगम (जर्मन: Gernen, अंग्रेज़ी: learning) एक व्यापक सतत् एवं जीवन पर्यन्त चलनेवाली महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। मनुष्य जन्म के उपरांत ही सीखना प्रारंभ कर देता है और जीवन भर कुछ न कुछ सीखता रहता है। धीरे-धीरे वह अपने को वातावरण से समायोजित करने का प्रयत्न करता है। इस समायोजन के दौरान वह अपने अनुभवों से अधिक लाभ उठाने का प्रयास करता है। इस प्रक्रिया को मनोविज्ञान में सीखना कहते हैं। जिस व्यक्ति में सीखने की जितनी अधिक शक्ति होती है, उतना ही उसके जीवन का विकास होता है। सीखने की प्रक्रिया में व्यक्ति अनेक क्रियाऐं एवं उपक्रियाऐं करता है। अतः सीखना किसी स्थिति के प्रति सक्रिय प्रतिक्रिया है।[1][2][3]

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उदाहरणार्थ - छोटे बालक के सामने जलता दीपक ले जानेपर वह दीपक की लौ को पकड़ने का प्रयास करता है। इस प्रयास में उसका हाथ जलने लगता है। वह हाथ को पीछे खींच लेता है। पुनः जब कभी उसके सामने दीपक लाया जाता है तो वह अपने पूर्व अनुभव के आधार पर लौ पकड़ने के लिए, हाथ नहीं बढ़ाता है, वरन् उससे दूर हो जाता है। इसीविचार को स्थिति के प्रति प्रतिक्रिया करना कहते हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि अनुभव के आधार पर बालक के स्वाभाविक व्यवहार में परिवर्तन हो जाता है।अधिगम का सर्वोत्तम सोपान अभिप्रेरणा है

अधिगम की परिभाषायें[संपादित करें]

  1. बुडवर्थ के अनुसार - ‘‘सीखना विकास की प्रक्रिया है।’’[4]
  2. B.F.स्किनर के अनुसार - ‘‘सीखना व्यवहार में उत्तरोत्तर सामंजस्य की प्रक्रिया है।’’[4]
  3. जे॰पी॰ गिलर्फड के अनुसार - ‘‘व्यवहार के कारण, व्यवहारमें परिवर्तन ही सीखना है।’’
  4. कालविन के अनुसार - ‘‘पहले से निर्मित व्यवहार में अनुभवों द्वारा हुए परिवर्तन को अधिगम कहते हैं।’’
क्रो एंड क्रो के अनुसार - सीखना एवं , ज्ञान  अभिवृत्तियों का अर्जन है ।

उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि सीखने के कारण व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन आता है, व्यवहार में यह परिवर्तन बाह्य एवं आंतरिक दोनों ही प्रकार का हो सकता है। अतः सीखना एक प्रक्रिया है जिसमें अनुभव एवं प्रषिक्षण द्वारा व्यवहार में स्थायी या अस्थाई परिवर्तन दिखाई देता है।

सीखने के नियम[संपादित करें]

अधिगम का अर्थ परिभाषा ओर 10 मुख्य सिद्धान्त जानने के लियेhttps://akstudyhub.com/%e0%a4%85%e0%a4%a7%e0%a4%97%e0%a4%ae-%e0%a4%95-%e0%a4%85%e0%a4%b0%e0%a4%a5%e0%a4%aa%e0%a4%b0%e0%a4%95%e0%a4%b0%e0%a4%b8%e0%a4%96%e0%a4%a8-%e0%a4%95-%e0%a4%b5%e0%a4%a7%e0%a4%af-%e0%a4%94%e0%a4%b0/[[चित्र:[[चित्र:|thumb|right|200px|]]|thumb|right|200px|]]

ई॰एल॰ थार्नडाइक अमेरिका का प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक हुआ है जिसने सीखने के कुछ नियमों की खोज की जिन्हें निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया गया है[5]–

  • (क) मुख्य नियम (Primary Laws)
  • 1. तत्परता का नियम
  • 2. अभ्यास का नियम
  • उपयोग का नियम
  • अनुप्रयोग का नियम
  • 3. प्रभाव का नियम
  • (ब) गौण नियम (Secondary Laws)
  • 1. बहु-अनुक्रिया का नियम
  • 2.मानसिक स्थिति का नियम
  • 3. आंशिक क्रिया का नियम
  • 4. समानता का नियम
  • 5. साहचर्य-परिर्वतन का नियम

मुख्य नियम[संपादित करें]

सीखने के मुख्य नियम तीन है जो इस प्रकार हैं -

1. तत्परता का नियम - इस नियम के अनुसार जब व्यक्ति किसी कार्य को करने के लिए पहले से तैयार रहता है तो वह कार्य उसे आनन्द देता है एवं शीघ्र ही सीख लेता है। इसके विपरीत जब व्यक्ति कार्य को करने के लिए तैयार नहीं रहता या सीखने की इच्छा नहीं होती हैतो वह झुंझला जाता है या क्रोधित होता है व सीखने की गति धीमी होती है।

2. अभ्यास का नियम - इस नियम के अनुसार व्यक्ति जिस क्रिया को बार-बार करता है उस शीघ्र ही सीख जाता है तथा जिस क्रिया को छोड़ देता है या बहुत समय तक नहीं करता उसे वह भूलने लगताहै। जैसे‘- गणित के प्रष्न हल करना, टाइप करना, साइकिल चलाना आदि। इसे उपयोग तथा अनुपयोग का नियम भी कहते हैं।

3. प्रभाव का नियम - इस नियम के अनुसार जीवन में जिस कार्य को करने पर व्यक्ति पर अच्छा प्रभाव पड़ता है या सुख का या संतोष मिलता है उन्हें वह सीखने का प्रयत्न करता है एवं जिन कार्यों को करने पर व्यक्ति पर बुरा प्रभाव पडता है उन्हें वह करना छोड़ देता है। इस नियम को सुख तथा दुःख या पुरस्कार तथा दण्ड का नियम भी कहा जाता है।

गौण नियम[संपादित करें]

1. बहु अनुक्रिया नियम - इस नियम के अनुसार व्यक्ति के सामने किसी नई समस्या के आने पर उसे सुलझाने के लिए वह विभिन्न प्रतिक्रियाओं के हल ढूढने का प्रयत्न करता है। वह प्रतिक्रियायें तब तक करता रहता है जब तक समस्या का सही हल न खोज ले और उसकी समस्यासुलझ नहीं जाती। इससे उसे संतोष मिलता है थार्नडाइक का प्रयत्न एवं भूल द्वारा सीखने का सिद्धान्त इसी नियम पर आधारित है।

2. मानसिक स्थिति या मनोवृत्ति का नियम - इस नियम के अनुसार जब आदमी सीखने के लिए मानसिक रूप से तैयार रहता है तो वह शीघ्र ही सीख लेता है। इसके विपरीत यदि व्यक्ति मानसिक रूप से किसी कार्य को सीखने के लिए तैयार नहीं रहता तो उस कार्य को वह सीख नहीं सकेगा।

3. आंशिक क्रिया का नियम - इस नियम के अनुसार व्यक्ति किसी समस्या को सुलझाने के लिए अनेक क्रियायें प्रयत्न एवं भूल के आधार पर करता है। वह अपनी अंतर्दृष्टि का उपयोग कर आंशिक क्रियाओं की सहायता से समस्या का हल ढूढ़ लेता है।

4. समानता का नियम - इस नियम के अनुसार किसी समस्या के प्रस्तुत होने पर व्यक्ति पूर्व अनुभव या परिस्थितियों में समानता पाये जाने पर उसके अनुभव स्वतः ही स्थानांतरित होकर सीखने में मदद​ करते हैं।

5. साहचर्य परिवर्तन का नियम - इस नियम के अनुसार व्यक्ति प्राप्त ज्ञान का उपयोग अन्य परिस्थिति में या सहचारी उद्दीपक वस्तु के प्रति भी करने लगता है। जैसे-कुत्ते के मुह से भोजन सामग्री को देख कर लार टपकरने लगती है। परन्तु कुछ समय के बाद भोजन के बर्तनको ही देख कर लार टपकने लगती है।

हम सीखते कैसे हैं?[संपादित करें]

सीखना चारों ओर के परिवेश से अनुकूलन में सहायता करता है। किसी विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में कुछ समय रहने के पश्चात् हम उस समाज के नियमों को समझ जाते हैं और यही हमसे अपेक्षित भी होता है। हम परिवार, समाज और अपने कार्यक्षेत्र के जिम्मे दार नागरिक एवं सदस्य बन जाते हैं। यह सब सीखने के कारण ही सम्भव है। हम विभिन्न प्रकार के कौशलों को अर्जित करने के लिये सीखने का ही प्रयोग करते हैं। परन्तु सबसे जटिल प्रश्न यह है कि हम सीखते कैसे हैं ?

मनोवैज्ञानिकों ने मानवों एवं पशुओं पर अनेक प्रकार के अध्ययनों द्वारा सीखने की प्रक्रिया को समझाने का प्रयास किया है। उन्हों ने कुछ विधियाँ इं गित की हैं जिनका उपयोग सरल एवं जटिल अनुक्रियाओं को अर्जित करने में हो ता है। सीखने के दो मूल प्रकार हैं - शास्त्रीय अनुबंधन और यांत्रिक या क्रियाप्रसूत अनुबंधन। इसके अतिरिक्त वाचिक या शाब्दिक सीखना, प्रेक्षण सीखना, कौशल सीखना, और प्रत्यय सीखना आदि अन्य प्रकार भी हैं।

शास्त्रीय अनुबंधन- साहचर्य के द्वारा सीखना[संपादित करें]

शास्त्रीय अनुबंधन को पॉवलव का सिद्धान्त भी कहा जाता है क्योंकि इसका आविष्कार एक रूसी वैज्ञानिक इवान पी. पॉवलव ने किया था जो उद्दीपन और अनुक्रिया के बीच सम्बन्धों का अध्ययन करने में रुचि रखते थे। उन्होने कुत्तों पर अध्ययन किये। एक कुत्ते को बांधकर रखा गया और प्रयोगशाला सहायक ने कुत्ते के सामने भोजन प्रस्तुत किया। पॉवलव ने पाया कि कुत्ते ने लार स्रावित करने की अनुक्रिया को सीख लिया था। उन्होंने अनुबन्धन की इस विधि पर विस्तार से अध्ययन किये।

पॉवलव ने कुत्ते पर क्रमबद्ध प्रयास किये जिसमें ध्वनि (घण्टी) और भोजन (शारीरिक रूप से महत्वपूर्ण उत्तेजना) को साथ में संलग्न किया गया। सीखने के इस प्रयास में ध्वनि (अनुबन्धित उत्तेजना) और भोजन (अनुबन्धित उत्तेजना) को साथ में सम्मिलित किया गया। ध्वनि प्रस्तुत करने का समय काफी कम था (उदाहरण 10 से ) और ध्वनि और भोजन प्रस्तुत करने के मध्य में करीब 2 से 3 सेकंड का अन्तर होता था।

शुरू के कुछ प्रयासों में कुत्ता भोजन प्रस्तुत होने पर लार स्रावित करता था। खाना देखते ही लार स्रावित होना एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है इसीलिए लार को अननुबन्धित अनुक्रिया कहा गया। बाद के प्रयासों में घंटी पहले बजाई गई उसके बाद खाना प्रस्तुत किया गया। घंटी और भोजन के एक साथ कुछ प्रयोगों के बाद कुत्ते ने अकेले घंटी के बजते ही लार स्रावित करना शुरू कर दिया था। ध्वनि को अनुबधित उत्तेजना कहा गया क्यों कि कुत्ते का अनुबन्धन ध्वनि के साथ हो गया और वह घंटी बजते ही लार स्रावित करने लगता था। घंटी के बजते ही लार का स्रावित हो जाना अनुबन्धित अनुक्रिया कहलाई।

यह पाया गया है कि हर प्रयास में अगर घंटी (अनुबन्धित उत्तेजना) तो बजाई जाती है परन्तु भोजन प्रस्तुत नहीं किया जाता तो अनुबन्धन का विलोप हो जाता है। अर्थात् घंटी के बजने से कोई भी लार स्रावित नहीं होगी और यदि कई प्रयासों में लगातर ऐसा ही किया जाता है तो विलोपन की स्थिति आ जाती है।

यह भी पाया गया है कि विलोपन के कुछ अन्तराल के पश्चात् यदि घंटी बिना भोजन के बजाई जाती है तो कुत्ता केवल कुछ प्रयासों तक फिर से लार गिरायेगा। विलोप के बाद अनुबन्धित अनुक्रिया की इस स्थिति को स्वतः परिवर्तित (स्पॉन्टेनियस रिकवरी) कहते हैंं।

क्रियाप्रसूत अनुबन्धन- पुनर्बलन के द्वारा सीखना[संपादित करें]

अगर कोई बच्चा समय से अपना गृहकार्य कर लेता है तो उसके माता-पिता उसकी प्रशंसा करते हैं तो उसको सकारात्मक पुनर्बलन मिलता जिससे बच्चा उस कार्य को करना सीख जाता है। लेकिन अगर बच्चा कोई प्लेट तोड़ देता है तो उसे डांटा जाता है या उसे सजा दी जाती है तो बालक को नकरात्मक पुनर्बलन मिलता है जिससे बालक उस कार्य को नहीं करता है । इस प्रकार के अनुबन्धन को नैमित्तिक अनुबन्धन या क्रियाप्रसूत अनुबन्धन कहते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि हम वह व्यवहार करना सीख जाते हैं जिसमें परिणाम सकारात्मक होते हैं और हम वह व्यवहार करना छोड़ देते हैं जो हमें नकारात्मक परिणाम देता है।

व्यावहारिक अनुबन्धन सीखने की वह विधि है जिसमें प्राणी उस व्यवहार को दोहराते हैं जिसका परिणाम सकारात्मक होता है और उस व्यवहार से बचता है जिसका परिणाम नकारात्मक होता है। बी.एफ. स्किनर ऐ से सर्वाधिक प्रभावशाली वैज्ञानिक हैं जो सीखने में क्रियाप्रसूत अनुबन्धन की भूमिका के सबसे ज्यादा पक्षधर रहे हैं। उन्होंने चूहों पर इस अनुबन्धन का प्रयोग करने के लिए डिब्बे का निर्माण किया जिसे स्किनर बाक्स कहा जाता है।

इस डब्बे की सामने की दीवार में एक लीवर लगा हुआ था। लीवर को दबाना ही वह अनुक्रिया थी जो चूहे को सीखनी थी। एक भूखे चूहे को इस डब्बे के अन्दर रखा गया, और उसने अन्दर जाते ही विभिन्न प्रकार की क्रियायें करनी शुरू कर दीं। कुछ देर बाद अचानक उसने वह लीवर दबा दिया जिससे उसके सामने रखी प्लेट में खाना आकर गिर गया। और चूहे ने वह खाना खा लिया। भोजन खाने के बाद चूहे ने पिंजरे में दुबारा क्रियायें करनी शुरू कर दी। कुछ गतिविधि के बाद उससे वह लीवर दुबारा दब गया और पुनः उसके सामने भोजन का टुकड़ा (पुरस्कार) गिर गया। शनैः-शनैः चूहा सारी अनियमित गतिविधियाँ बन्द करके सिर्फ लीवर के चारों तरफ ही विशिष्ट गतिविधियाँ करने लगा। अन्त में चूहा यह सीख जाता है कि लीवर को दबाने पर उसके सामने भोजन गिराया जाता है जो कि उसके लिये सन्तुष्टि प्रदान करने वाला परिणाम था। दूसरे शब्दों में चूहे द्वारा लीवर को दबाना भोजन (पुनर्बलन) प्रदान करने वाला निमित्त (साधन) बन जाता है। चूहे द्वारा की गयी अनुक्रिया (लीवर को दबाना) पुनर्बलित थी जिससे चूहे ने इस व्यवहार को उपार्जित कर लिया या सीख लिया। भोजन प्राप्त करने में लीवर ने चूहे के लिए एक निमित्त (साधन) की भूमिका निभाई जिससे चूहे को सन्तुष्टि (सकारात्मक पुनर्बलन) प्राप्त हुई और इसलिये इस तरह के सीखने को यांत्रिक अनुबंधन भी कहा जाता है। इसे क्रियाप्रसूत अनुबन्धन (आपरेन्ट अनुबन्धन) भी कहा जाता है क्यों कि चूहे या किसी प्राणी द्वारा किया गया व्यवहार वातावरण पर की गई क्रिया है।

पुनर्बलन और प्रेक्षण द्वारा सीखना[संपादित करें]

मानव द्वारा सीखे हुए अधिकांशत व्यवहार की व्याख्या हम क्रियाप्रसूत अनुबन्धन के सहयोग से कर सकते हैं। उदाहरणार्थ माता-पिता और दूसरे अधिकारी बालक के हर आक्रामक व्यवहार को दंडित और अच्छे व्यवहार को पुरस्कृत करते हैं। क्रियाप्रसूत अनुबन्धन में पुनर्बलन की निर्णायक भूमिका है। यह नकारात्मक या सकारात्मक हो सकता है। आइये पुनर्बलन के दोनों प्रकारों को समझने का प्रयत्न करते हैं।

सकारात्मक पुनर्बलन[संपादित करें]

ऐसी कोई क्रिया जो अनुक्रिया की संख्या में वृद्धि करती है पुनर्बलन कहलाती है। हमने स्किनर के प्रयोग में देखा कि चूहा बार-बार लीवर दबाने की अनुक्रिया करता है और भोजन प्राप्त कर लेता है। इसे सकारात्मक पुनर्बलन कहते हैं। इस प्रकार एक सकारात्मक पुनर्बलन या पुरस्कार (उदाहरणार्थ भोजन, यौन सुख आदि) वह प्रवृत्ति है जिससे उस विशिष्ट व्यवहार के प्रभाव को बल मिलता है। सकारात्मक पुनर्बलन वह कोई भी उद्दीपन है जिसके माध्यम से उस विशिष्ट अनुक्रिया को आगे जाने का बल मिलता है। (उदाहरण-भोजन, लीवर के दबाने को बल प्रदान करता है।

नकारात्मक पुनर्बलन[संपादित करें]

नकारात्मक पुनर्बलन द्वारा एक बिल्कुल भिन्न प्रकार से अनुक्रिया की संख्या में वृद्धि की जाती है। मान लीजिए स्किनर बाक्स के अन्दर चू हे के पंजों पर प्रत्येक सेकेन्ड पर विद्युत आघात दिया जाता है। जैसे ही चूहा लीवर दबाता है विद्युत आघात दस सेकेन्ड के लिए रोक दिया जाता है। इससे चूहे की अनुक्रिया की संख्या में वृद्धि हो जाती है। इस विधि को नकारात्मक पुनर्बलन कहा जाता है जिसमें प्रतिकूल उद्दीपन का प्रयोग किया जाता है। (उदाहरण- गर्मी, विद्युत आघात, तेजी से दौड़ना आदि)। ‘नकारात्मक’ शब्द पुनर्बलन की प्रकृति को बताता है (विमुखी उद्दीपन)। यह पुनर्बलन है क्यों कि यह अनुक्रियाओं की संख्या में वृद्धि करता है। इस विधि को ‘पलायन’ अधिगम कहा गया क्योंकि चूहा अगर लीवर को दबाता है तो आघात से बच सकता है। दूसरे तरह के नकारात्मक पुनर्बलन के परिणाम स्वरूप जो अनुबन्धन हो ता है उसे बचाव द्वारा (अवॉयडेन्स) सीखना कहा गया जिसमें चूहा लीवर दबाकर आघात से बच सकता है। पलायन या बचाव द्वारा सीखने में नकारात्मक पुनर्बलन का प्रयोग किया जाता है और प्राणी पलायन या बचाव द्वारा इससे बच जाता है।

पुनर्बलन की अनुसूची

हम कैसे सही अनुक्रियाओं को पुनर्बलित कर सकते हैं? यह निरन्तर या आंशिक पुनर्बलन के प्रयोग से हो सकता है। निरन्तर पुनर्बलन में प्रत्ये क उचित अनुक्रिया को पुनर्बलित किया जाता है। उदाहरण के लिये जितनी बार भी चूहा लीवर दबाता है उसे उतनी ही बार प्लेट में भोजन (पुनर्बलन) प्रस्तुत किया जाता है। वैकल्पिक तौर पर अनुक्रियाओं को कभी आंशिक या कभी रुकावट के साथ पुनर्बलित किया जाता है। निरन्तर पुनर्बलन के मिलने से नये व्यवहार स्थापित करने या सुदृढ़ करने में बहुत सहायता मिलती है। दूसरी तरफ आंशिक पुनर्बलन सीखे हुये व्यवहार को बनाये रखने में अधिक शक्तिशाली है।

प्रेक्षणात्मक (ऑब्ज़रवेशनल) अधिगम प्रतिरूपण[संपादित करें]

प्रेक्षण द्वारा सीखना तृतीय मुख्य विधि है जिसके द्वारा हम सीख सकते हैं। दूसरों के व्यवहार को देखकर उनके कौशलों को अपना लेना बहुत ही सामान्य बात है। यह दिन-प्रतिदिन के जीवन का एक हिस्सा है। प्रेक्षण द्वारा सीखना किसी विशिष्ट वातावरण में उपयुक्त आदर्श के विद्यमान रहने पर निर्भर करता है। बालक ऐसे व्यक्ति को जिसे वह अपना आदर्श मानता है, कोई कार्य करते देखता है तो वह उस व्यवहार को अपने में समाहित कर लेता है। उदाहरण के लिये नवयुवक दूसरों (अपने आदर्श) के आक्रामक व्यवहार को देखकर फौरन ही वह व्यवहार सीख जाते हैं। जब बच्चे टी.वी. में हिंसा की घटना देखते हैं तो वह भी उस व्यवहार को सीखने का प्रयास करते हैं। यद्यपि प्रेक्षण विधि अनुकरण विधि से कहीं ज्यादा जटिल विधि है। बच्चे इस विधि द्वारा सूचनाओं और विभिन्न कौशलों को सीख तो जाते हैं परन्तु उसका प्रयोग नहीं कर पाते हैं। मनुष्य, विशेष तौर पर युवक ज्यादातर सकारात्मक विधि से प्रभावित किये जा सकते हैं अगर उनके आदर्श उपयुक्त हों।

वाचिक अथवा शाब्दिक सीखना[संपादित करें]

आप इस पाठ को पढ़ कर सीखने की अवधारणा को समझने का प्रयास कर रहे हैं, यह वाचिक सीखने द्वारा ही सम्भव हो पा रहा है। आपने भाषा सीखी हुई है। संसार के विभिन्न भागों में लोग विभिन्न भाषाओं को सीखते हैं। भाषा को सीखने की प्रक्रिया को शाब्दिक या वाचिक सीखना कहा जाता है। जब आप अपनी बाल्यावस्था को याद करते हैं तो आप पाते हैं कि आपने भाषा सीखने की शुरूआत अक्षरों को पहचानने से की थी। फिर शब्द सीखे और उसके बाद वाक्य। जब आप विदे शी भाषा सीखते हैं तो आप युगल शब्दों का प्रयो ग करते हैं। मनोवैज्ञानिकों के अध्ययन का विषय है कि क्रमिक सीखने और युग्मित सहचर सीखने में किन विधियों का प्रयोग किया जाता है।

संप्रत्ययों को सीखना[संपादित करें]

संप्रत्ययों को सीखना घटनाओं और वस्तुओं की श्रेणियों को विकसित करने के सम्बन्ध में है। यह हमारे जीवन के लिये बहुत महत्वपू र्ण है कि हम वस्तुओं के मध्य किसी कसौटी के आधार पर अन्तर करें। उदाहरणार्थ बालक, बालिका, फल और फर्नीचर संप्रत्यय की श्रेणी में आते हैं।

संप्रत्यय के अन्तर्गत एक साथ बहुत सी वस्तुएँ आतीं हैं। विभिन्न प्रकार की श्रेणियों का प्रयोग अथवा वर्गों के नाम हमें संप्रेषण और विभिन्न कार्यकलाप करने में मदद करते हैं। संप्रत्यय प्राकृतिक अथवा कृत्रिम हो सकते हैं। वे मूर्त या अमूर्त हो सकते हैं। स्वतंत्रता, प्रेम और लोकतंत्र अमूर्त संप्रत्यय के उदाहरण हैं। गाय, मेज, बालक, बालिका, सन्तरा तथा गुलाब आदि मूर्त संप्रत्यय के उदाहरण हैं। किसी विचार को सीखते समय हम सभी प्रकार की उत्तेजनाआें के लिये एक ही तरह की अनुक्रिया करते हैं। किसी संप्रत्यय को सीखते समय हम किसी विशिष्ट श्रेणी के विभिन्न उद्दीपनों के लिये एक ही तरह की अनुक्रिया करते हैं। इस प्रकार हम सभी प्रकार की मेजों के लिये मात्र मेज शब्द अथवा सब प्रकार के बालकों के लिये मात्र बालक शब्द का प्रयोग करते हैं। वस्तुतः सभी प्रकार का उच्च श्रेणी का सीखना आवश्यक रूप से संप्रत्यय सीखने को समाहित करता है। संप्रत्यय विश्व की जटिलताओं को कम करने में मदद करते हैं।

कौशलों का सीखना[संपादित करें]

सीखने का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र अपने में विभिन्न प्रकार के कौशलों के उपार्जन को समाहित करता है जैसे - साइकिल चलाना, लेखन, कार चलाना, हवाई जहाज चलाना, समूह का नेतृत्व करना, दूसरों को प्रोत्साहित करना आदि। इन सभी कार्यो के लिये हमें कौशल की आवश्यकता पड़ती है। वे लोग जो इस प्रकार के कौशलों को सीखने के योग्य हैं उनको जीवन में विभिन्न अवसर प्राप्त होते हैं। एक बार इन कौशलों का उपार्जन हो जाये तो वह उसमें और अधिक वृद्धि कर सकते हैं। एक बार इन कौशलों को सीख जाने पर यह स्वचालित हो जाते हैं और व्यक्ति इन्हें आराम और सुविधापूर्वक कर सकता है। परिणामस्वरूप लोग कार्य को स्वेच्छानुसार करते हैं और एक ही समय में एक से ज्यादा कार्य कर सकते हैं। (उदाहरणार्थ- कार चलाते समय लोगों से बातें करना)

प्रशिक्षण का स्थानान्तरण[संपादित करें]

यह एक रुचिकर तथ्य है कि किसी एक कार्य का सीखना उस विशिष्ट कार्य तक ही सीमित नहीं रह जाता है। सीखे हुये कार्य का प्रयोग दू सरी परिस्थितियों में भी किया जा सकता है। किसी व्यक्ति के ज्ञान के उपयोग करने की क्षमता, कौशलों और किसी भी तरह का सीखना बहुत सराहनीय है। अगर एक बालक गुणा या भाग सीखता है तो वह इसका उपयोग न सिर्फ कक्षा में करता है बल्कि आवश्यकता पड़ने पर बाजार और घर में भी करता है। प्रशिक्षण का स्थानान्तरण उस प्रक्रिया को इंगित करता है जिसमें वह पहले सीखे हुये व्यवहार का नई परिस्थिति में उपयोग करता है। सकारात्मक पूर्व का सीखा हुआ दूसरी बार सीखने में सहायक होता है तो यह सकारात्मक स्थानान्तरण है। और अगर पूर्व सीखना दूसरे सीखने में बाधक है तो वह नकारात्मक स्थानान्तरण है। यह शून्य भी हो सकता है यदि पूर्व का सीखना बाद के सीखने में न सहायक हो ता है और न बाधक।

है। एक अच्छा विद्यार्थी सीखने के हर मौके को एक अच्छा अवसर मानकर उसका उपयोग करता है। सीखने की पूर्व उल्लिखित विभिन्न विधियाँ या प्रकार सीखने के बारे में कुछ मूल विचार प्रकट करते हैं। व्यक्तित्व, रुचि या अभिवृत्तियों में आने वाले परिवर्तन सीखने के कतिपय प्रकारों के परिणामस्वरूप हो ते हैं। यह बदलाव एक जटिल प्रक्रिया के साथ होते हैं। सीखने में उन्नति के साथ आप में सीखने की क्षमता विकसित हो ती है। अगर आप सीखते हैं तो आप एक बेहतर व्यक्ति, कार्यशैली में लचीले और सत्य को सराहने की निपुणता वाले बन जाते हैं।

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • अधिगम के नियम - थार्नडाइक का अधिगम का नियम Archived 2019-11-23 at the Wayback Machine

• थार्नडाइक का सीखने का सिद्धांत Archived 2019-11-23 at the Wayback Machine

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. अरुण कुमार सिंह (2008). "मनोविज्ञान में प्रयोग एवं परियोजना". मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स. पृ॰ 22. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 8120833228. मूल से 19 अप्रैल 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 18 अप्रैल 2014.
  2. डॉ॰ मुहम्मद सुलैमान (2007). "उच्चतर शिक्षा मनोविज्ञान". पृ॰ ३०४. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 8120824180. मूल से 19 अप्रैल 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 18 अप्रैल 2014.
  3. एस॰के॰ मंगल (२०१०). "शिक्षा मनोविज्ञान". पीएचआई लर्निंग प्राइवेट लिमिटेड. पृ॰ २०९. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788120332805. मूल से 19 अप्रैल 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 18 अप्रैल 2014.
  4. ↑ अ आ एस॰के॰ मंगल (२०१०). "शिक्षा मनोविज्ञान". पीएचआई लर्निंग प्राइवेट लिमिटेड. पृ॰ २१०. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788120332805. मूल से 19 अप्रैल 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 18 अप्रैल 2014.
  5. बद्रीलाल गुप्ता (2012). सीखने की विधियाँ. कॉन्सेप्ट पब्लिशिंग कम्पनी. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 8180697479. मूल से 19 अप्रैल 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 18 अप्रैल 2014.

अधिगम का आकलन से क्या तात्पर्य है?

अधिगम के लिए आकलन, इसे शिक्षार्थी के ज्ञान, समझ, कौशल और मूल्यों को विकसित करने के लिए एक उपकरण के रूप में उपयोग करने में मदद करता है जिसे वे अपने व्यवहार में प्रतिबिंबित करने में सक्षम होते हैं। यह छात्रों की क्षमताओं, आवश्यकताओं और त्रुटियों को ध्यान में रखता है

आकलन से आप क्या समझते हैं अधिगम के आकलन एवं अधिगम के लिए आकलन में अंतर स्पष्ट कीजिए?

अधिगम के लिए आकलन विद्यार्थी कैसे सीखते हैं पर केन्द्रित है। अधिगम के लिए आकलन संवेदनशील एवं रचनावादी है। अधिगम के लिए आकलन विद्यार्थियों की अभिप्रेरणा में वृद्धि करने में सहायक है • अधिगम के लिए आकलन विद्यार्थियों में लक्ष्य एवं मानदंड की समझ विकसित करता है।

अधिगम में आकलन कितने प्रकार के होते हैं?

आकलन के प्रकार (Types of Assessment).
निर्माणात्मक\ रचनात्मक आकलन (Formative Assessment).
योगात्मक\ संकलनात्मक आकलन (Summative Assessment).
निदानात्मक आकलन (Diagnostic Assessment).

अधिगम से क्या तात्पर्य है?

सीखना या अधिगम (जर्मन: Gernen, अंग्रेज़ी: learning) एक व्यापक सतत् एवं जीवन पर्यन्त चलनेवाली महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। मनुष्य जन्म के उपरांत ही सीखना प्रारंभ कर देता है और जीवन भर कुछ न कुछ सीखता रहता है। धीरे-धीरे वह अपने को वातावरण से समायोजित करने का प्रयत्न करता है।