Show अमीर खुसरो का जन्म सन् 1253 ई. में आधुनिक एटा जिला के पटियाली गांव में हुआ था। उन्होंने अपने जीवन में लगभग 99 ग्रंथों की रचना की जिनमें से अधिकांश फारसी भाषा में थे। यद्यपि हिंदी भाषा में अभी तक उनकी कोई भी प्रामाणिक रचना प्राप्त नहीं हुई है परन्तु यह निर्विवाद सत्य है कि वे खड़ी बोली के प्रथम कवि थे। उनकी हिंदी कविताओं को बारह भागों - पहेलियाँ, मुकरियाँ, निस्बतें, दोसुखने, ढकोसला, गीत, कव्वाली, फारसी - हिंदी मिश्रितछन्द व गजल, फुटकल छन्द और ‘खालिकबारी’ में बांट सकते हैं। ‘खालिकबारी’ उनकी बहुचर्चित रचना है। अमीर खुसरो का जीवन परिचयअमीर खुसरो खड़ी बोली हिंदी के आदि कवि थे। अमीर खुसरो का जन्म 1255 ई. से 1324 ई. के बीच है। 2016 ई. में प्रदीप खुसरो द्वारा लिखित पुस्तक ‘अमीर खुसरो’ के अनुसार यह अवधि 1253 ई. से 1325 ई. तक है। अमीर खुसरो के पिता का नाम अमीर सैफुद्दीन महमूद था। मीर सैफुद्दीन महमूद तुर्किस्तान में लाचीन कबीले के सरदार थे। अमीर सैफुद्दीन उत्तर प्रदेश के एटा जिले में गंगा किनारे पटियाली नामक गाँव में बस गए। सैफुद्दीन के तीसरे बेटे का नाम था- अबुल हसन यमीनुद्दीन मुहम्मद। यही अबुल हसन अमीर खुसरो नाम से प्रसिद्ध हुए। अमीर खुसरो का वास्तविक नाम अबुल हसन यमीनुद्दीन मुहम्मद था। अमीर खुसरो के पिता ने उनका नाम रखा। लेकिन उनका खुसरो मशहूर हुआ और वे अमीर खुसरो नाम से ही प्रसिद्ध हो गए। उनकी माँ माया देवी उर्फ दौलत नाज़ या सय्यदा मुबारक बेगम राजस्थान के एक संपन्न हिंदू राजपूत परिवार से थी। पिता का नाम था- अमीर एमादुल्मुल्क रावत अजऱ्। सुलतान बलबन के युद्ध मंत्री एमादुल्मुल्क राजनीतिक दबाव के कारण नए-नए मुसलमान बने थे। इस्लाम ग्रहण करने के बावजूद उनके घर में हिंदू रीति-रिवाजों का संजीदगी से पालन होता था। उनके घर में गाने-बजाने का माहौल था। तात्पर्य यह है कि खुसरो के दिलो-दिमाग पर नाना के घराने और पिता के घराने का समन्वित प्रभाव पड़ा। अमीर खुसरो जब नौ वर्ष के थे तभी उनके पिता की मृत्यु हो गई। पिता की मौत के बाद नाना ने अमीर खुसरो की शिक्षा का उत्तरदायित्व निभाया। अमीर खुसरो की रचनाएँअमीर खुसरो की रचनाएँ इस प्रकार है-
अमीर खुसरो की हिंदी कविताअमीर खुसरो की हिंदी रचनाएँ हैं :
अमीर खुसरो की पहेलियाँअमीर खुसरो की पहेलियाँ के कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं :- एक नार वह दाँत दँतीली। पतली दुबली छैल छबीली।। एक थाल मोतियों से भरा, सबके सिर पर औंधा धरा। अमीर ख़ुसरो की हिंदी कविताअमीर खुसरो की हिंदी (हिंदवी) रचनाएँ हैं:
अमीर ख़ुसरो की भाषा और काव्य सौंदर्यअमीर खुसरो बहुभाषाविद थे। उनका फारसी, तुर्की और अरबी भाषा पर जबर्दस्त अधिकार था। खड़ी बोली के आदि प्रयोगकर्ता के रूप में उनकी ख्याति है। उन्होंने घोषणा की कि वे ऐसे भारतीय तुर्क हैं जिनकी मातृभाषा हिंदी है। अपने दीवान ‘गुर्र्तुलकमाल’ में उन्होंने कहा तुर्क-ए-हिंदुस्तानियम मन हिंदवी गोयम जवाब अर्थात ‘मैं हिंदुस्तानी तुर्क हूँ, मैं हिंदुस्तान की तूती हूँ अगर वास्तव में मुझसे कुछ पूछना चाहते हो तो हिंदवी भाषा में पूछो। मैं तुम्हें हिंदवी में अनुपम बातें बता सकूँगा। मेरे पास मिस्र की शक्कर नहीं कि अरबी में बात करूँ।’ यहाँ ‘हिंदवी’ से तात्पर्य तेरहवीं.चैदहवीं शताब्दी की उस भाषा या बोली से है, जो उस समय दिल्ली और उसके आस.पास के इलाकों के साथ हिंदुस्तान के कुछ अन्य इलाकों में भी बोली जाती थी। अमीर खुसरो की यह हिंदवी दरअसल खड़ी बोली है। इसकी जड़ें संस्कृत में थीं, पर दिल्ली तथा उसके आसपास की अनेक भाषाओं सहित अन्य अनेक भाषाओं के शब्द भी सहजता से शामिल हो गए थे। उन भाषाओं की पहचान जिन रूपों में की जा सकती हैं, वे हैं- ब्रजभाषा, राजस्थानी, अवधी, हरियाणवी, मुलतानी, लाहौरी(पंजाबी), सिंधी, गुजराती, मराठी, अपभ्रंश आदि। अमीर खुसरो ने अपनी हिंदवी रचनाओं मेंफ़ारसी, अरबी, तुर्की आदि के शब्दों का भी प्रयोग किया। अमीर खुसरो के दौर में दरबारी भाषाफ़ारसी थी। कर्मकांड की भाषा संस्कृत थी, लेकिन बोलचाल की भाषा अलग थी। खुसरो ने इसे हिंदवी’ कहा। उन्होंने इस ‘हिंदवी’ पद का दो अर्थों में प्रयोग किया, दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में बोली जाने वाली भाषा- खड़ी बोली और दूसरी ओर उनके समय हिंदुस्तान में बोली जाने वाली अन्य भाषाए ँ। उन्हो ंने भारत के अनेक हिस्सों का भ्रमण किया था, परिणाम यह हुआ कि वे अनेक भारतीय भाषाओं के संपर्क में आए। उन्होंने पहली बार भारतीय भाषाओं का सर्वेक्षण किया। ‘नूर सिपहर’ उस समय की हिंदुस्तानी भाषाओं का प्रामाणिक दस्तावेज ़ प्रस्तुत करती है। इसके अतिरिक्त अपने फारसी.हिंदी शब्दकोश ‘ख़ालिकबारी’ में बारह बार हिंदी शब्द का प्रयोग किया। अमीर खुसरो की विभिन्न रचनाओं में प्रयुक्त भाषा आखिर क्यों महत्वपूर्ण हैं? दरअसल उनकी भाषा लोक के करीब है। नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित पुस्तक ‘अमीर खुसरो’ में ब्रजरत्न दास ने ठीक ही दर्ज किया है, ‘‘खुसरो को हुए सात सौ वर्ष व्यतीत हो गए किंतु उनकी कविता की भाषा इतनी सजी सँवरी और कटी-छँटी हुई है कि वह वर्तमान भाषा से बहुत दूर नहीं अर्थात उतनी प्राचीन नहीं जान पड़ती। भाटों और चारणों की कविता एक विशेष प्रकार के ढाँचे में ढाली जाती थी। चाहे वह खुसरो के पहले की अथवा पीछे की हो तो भी वह वर्तमान भाषा से दूर और खुसरो की भाषा से भिन्न और कठिन जान पड़ती है। इसका कारण साहित्य के संप्रदाय की रूढि का अनुकरण ही है। चरणों की भाषा कविता की भाषा है, बोलचाल की भाषा नहीं। ब्रजभाषा के ‘अष्टछाप’ आदि कवियों की भाषा भी साहित्य, अलंकार और परंपरा के बंधन से, खुसरो के पीछे की होने पर भी उससे कठिन और भिन्न है। कारण केवल इतना ही है कि खुसरो ने सरल और स्वाभाविक भाषा को ही अपनाया है, बोलचाल की भाषा में लिखा है, किसी सांप्रदायिक बंधन में पड़कर नहीं।’’ खुसरो की भाषा के मिजाज़ अलग.अलग हैं। वे अभिधा की भाषा में कविता कहते हैं, साथ ही वे लक्षणा और व्यंजना की भाषा की मारक क्षमता का भी बेहतरीन उपयोग करते हैं। उनकी पहेलियों में लक्षणा के बेहतरीन उदाहरण मिल जाते हैं। उसी तरह उनके आध्यात्मिक दोहा/कव्वालियों में व्यंजना शब्द शक्ति की झलक मिलती है। अमीर खुसरो की भाषा और काव्य सौंदर्य की खूबियों के अनेक रंग हैं, जिन्हें देख कर यह समझ पाना मुश्किल हो जाता है कि यह खड़ी बोली हिंदी के बेहद आदिम रंग का आस्वाद है। |