By Rajesh Kumar at 2018-08-27 at 09:30 PM Show
विषय सूची: History of Modern India >> 1857 की क्रांति विस्तारपूर्वक >> 1857 के क्रांतिकारियों की सूची >>> ठाकुर सूरजमल ठाकुर सूरजमल डाकोर के ठाकुर सूरजमल ने लुणावाड़ा पर अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिए 1857 में लुणावाड़ा के राजा पर आक्रमण कर दिया। राजा ने ब्रितानियोें का सहारा लिया। सूरजमल गोधरा के पास पाल गांव के ठाकुर कानदास के पास गया उसने उसे आश्रय दिया। ब्रितानी सेना ने सारे गांव पर आक्रमण कर उसे फ़ूँक डाला। इसी तरह खानपुर, कानोरिया, दुबारा गांवों के लोगों को आग लगा कर जला दिया। पंचमहल के संखेड़ा के नायकदास ने भी विद्रोह का झंडा उठाया और रुपानायक तथा केवल बेट्स की सेना पर आक्रमण कर दिया। इसमें मुसलमानों ने साथ दिया। उन्होने चंपानेर और नरुकोट के बीच के प्रदेश को मुक्त कर दिया। ब्रितानियोें ने दो वर्षों के संघर्ष के पश्चात इन भीलों पर काबू पाया। भीलों, कोलियों और अन्य पिछड़ी जातियों की स्वतंत्रता की भावना की मशाल अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। सम्बन्धित महत्वपूर्ण लेख Thakur Surajmal Daakor Ke ne Lunnawada Par Apna Aadhipaty Sthapit Karne Liye 1857 Me Raja Aakramann Kar Diya British Ka Sahara Liya Godhra Paas Paal Village KaanDaas Gaya Usane Use Ashray Britani Sena Sare Foonk Dala Isi Tarah Khanpur Kanoria Dubara Ganvon Logon Ko Aag Laga Jala Panchamahal SanKheda NayakDaas Bhi Vidroh Jhanda Uthaya Aur Roopanayak Tatha Kewal Bates Ki Isme Musalmanon Sath Unhone Champaner NaruKot Beech Pradesh
महाराजा सूरजमल या सूजान सिंह (13 फरवरी 1707 – 25 दिसम्बर 1763) राजस्थान के भरतपुर के क्षत्रिय जाट राजा थे। उनका शासन जिन क्षेत्रों में था वे वर्तमान समय में भारत की राजधानी दिल्ली, उत्तर प्रदेश के आगरा, अलीगढ़, बुलन्दशहर, ग़ाज़ियाबाद, फ़िरोज़ाबाद, इटावा, हाथरस, एटा, मैनपुरी, मथुरा, मेरठ जिले; राजस्थान के भरतपुर, धौलपुर, अलवर, जिले; हरियाणा का गुरुग्राम, रोहतक, झज्जर, फरीदाबाद, रेवाड़ी, मेवात जिलों के अन्तर्गत हैं। राजा सूरज मल में वीरता, धीरता, गम्भीरता, उदारता, सतर्कता, दूरदर्शिता, सूझबूझ, चातुर्य और राजमर्मज्ञता का सुखद संगम सुशोभित था। मेल-मिलाप और सह-अस्तित्व तथा समावेशी सोच को आत्मसात करने वाली भारतीयता के वे सच्चे प्रतीक थे। राजा सूरज मल के समकालीन एक इतिहासकार ने उन्हें 'जाटों का प्लेटों' कहा है। इसी तरह एक आधुनिक इतिहासकार ने उनकी स्प्ष्ट दृष्टि और बुद्धिमत्ता को देखने हुए उनकी तुलना ओडिसस से की है।[1] सूरज मल के नेतृत्व में जाटों ने आगरा नगर की रक्षा करने वाली मुगल सेना (गैरिज़न) पर अधिकार कर कर लिया। २५ दिसम्बर १७६३ ई में दिल्ली के शाहदरा में मुगल सेना द्वारा घात लगाकर किए गए एक हमले में सूरजमल की मृत्यु हो गयी। उनकी मृत्यु के समय उनके अपने किलों पर तैनात सैनिकों के अलावा, उनके पास 25,000 पैदल सेना और 15,000 घुड़सवारों की सेना थी।[2] महाराजा सूरज मल के शासन मे जाट साम्राज्य गोवर्धन में सूरज मल का चित्र जिसे विलियम हेनरी बेकर ने १८१८६० में बनाया था। भरतपुर जहां स्थित है, वह इलाका सोघरिया जाट सरदार रुस्तम के अधिकार में था। यहां पर सन 1733 में भरतपुर नगर की नींव डाली गई। सन 1732 में बदनसिंह ने अपने 25 वर्षीय पुत्र सूरजमल को डीग के दक्षिण-पश्चिम में स्थित सोघर गांव के सोघरियों पर आक्रमण करने के लिए भेजा। सूरजमल ने सोघर को जीत लिया। वहाँ राजधानी बनाने के लिए किले का निर्माण शुरू कर दिया। भरतपुर में स्थित यह किला लोहागढ़ किला ( Iron fort ) के नाम से जाना जाता है। यह देश का एकमात्र किला है, जो विभिन्न आक्रमणों के बावजूद हमेशा अजेय व अभेद्य रहा। बदन सिंह और सूरजमल यहां सन 1753 में आकर रहने लगे।[कृपया उद्धरण जोड़ें] भरतपुर के किले का निर्माण-कार्य शुरू करने के कुछ समय बाद बदनसिंह की आंखों की ज्योति क्षीण होने लगी। अतः उसने विवश होकर राजकाज अपने योग्य और विश्वासपात्र पुत्र सूरजमल को सौंप दिया। वस्तुतः बदनसिंह के समय भी शासन की असली बागडोर सूरजमल के हाथ में रही।[कृपया उद्धरण जोड़ें] मुगलों, मराठों व राजपूतों से गठबंधन का शिकार हुए बिना ही सूरजमल ने अपनी धाक स्थापित की। घनघोर संकटों की स्थितियों में भी राजनीतिक तथा सैनिक दृष्टि से पथभ्रांत होने से बचता रहा। बहुत कम विकल्प होने के बावजूद उसने कभी गलत या कमजोर चाल नहीं चली। उसने यत्न किया कि संघर्ष का पथ अपनाने से पहले सब शांतिपूर्ण उपायों को अवश्य आज़माया जाए।[कृपया उद्धरण जोड़ें] नवजात जाट राज्य की रक्षा करने और उसे सुरक्षित बनाए रखने के लिए उसने साहस तथा सूझबूझ का परिचय दिया।[कृपया उद्धरण जोड़ें] उत्पत्ति और पूर्वज[संपादित करें]भरतपुर वंश के पूर्वज श्रीकृष्ण वंश के यदुवंशी कुल के क्षत्रिय जाट थे, गांव सिनसिनी पर आधारित, उन्होंने सिनसिनवार को अपने गोत्र के रूप में बनाया। इस गोत्र से संबंधित एक यदुवंशी पूर्वज, जिसका नाम बृज राज था, ने अपने नाम के बाद बृज नामक क्षेत्र पर शासन किया । ये लोग द्वारका से घर लौटे थे और इनकी राजधानी राजा बृजराज की 64वीं पीढ़ी में मथुरा।[3][4][5] शक्ति का उदय[संपादित करें]महाराजा सूरजमल राजनीतिकुशल, दूरदर्शी, सुन्दर, सुडौल और स्वस्थ थे। उन्होने जयपुर के महाराजा जयसिंह से भी दोस्ती बना ली थी। २१ सितम्बर १७४३ को जयसिंह की मौत हो गई और उसके तुरन्त बाद उसके बेटों ईश्वरी सिंह और माधोसिंह में गद्दी के लिये झगड़ा हुआ। महाराजा सूरजमल बड़े बेटे ईश्वरी सिंह के पक्ष में थे जबकि उदयपुर के महाराणा जगत सिंह, माधोसिंह के पक्ष में थे। बाद में जहाजपुर में दोनों भाईयों में युद्ध हुआ और मार्च १७४७ में ईश्वरी सिंह की जीत हुई। एक साल बाद मई १७४८ में पेशवाओं ने ईश्वरी सिंह पर दबाव डाला कि वो माधो सिंह को चार परगना सौंप दे। फिर मराठे, सिसोदिया, राठौड़ वगैरा सात राजाओं की फौजें माधोसिंह के साथ हो गई और ईश्वरीसिंह अकेला पड़ गये। मई १७५३ में महाराजा सूरजमल ने फिरोजशाह कोटला पर कब्जा कर लिया। दिल्ली के नवाब गाजी-उद-दीन ने फिर मराठों को सूरजमल के खिलाफ भड़काया और फिर मराठों ने जनवरी १७५४ से मई १७५४ तक भरतपुर जिले में सूरजमल के कुम्हेर किले को घेरे रखा। मराठे किले पर कब्जा नहीं पर पाए और उस लड़ाई में मल्हारराव होल्कर का बेटा खांडे राव होल्कर मारा गया। मराठों ने सूरजमल की जान लेने की ठान ली थी पर महारानी किशोरी ने सिंधियाओं की मदद से मराठाओं और सूरजमल में संधि करवा दी। वेंदेल के अनुसार जर्जर मुगल-सत्ता की इसी कालावधि में जाट-शक्ति उत्तरी भारत में प्रबल शक्ति के रूप में उभरकर सामने आई। सवाई जयसिंह की मृत्यु के बाद सन् १७४८ के उत्तराधिकार युद्ध में मराठों और राजपूतों सहित सात राजाओं की शक्ति के विरुद्ध कमजोर परन्तु सही पक्ष को विजयश्री दिलाकर सूरजमल ने जाट-शक्ति की श्रेष्ठता सिद्ध की। उसी समय मुगलों का कोई भी अभियान ऐसा नहीं था जिसमें जाट-शक्ति को सहयोग के लिए आमंत्रित न किया गया हो। वजीर सफदरजंग तो पूर्णरूप से अपने मित्र सूरजमल की शक्ति पर अवलम्बित था। अपदस्थ वजीर सफदरजंग के शत्रु मीरबख्शी गाजीउद्दीन खां के नेतृत्व में मुगल-राजपूतों की सम्मिलित शक्ति सन् 1754 में सूरजमल के छोटे किले कुम्हेर तक को भी नहीं जीत पाई। सन् 1757 में नजीबुद्दौला द्वारा आमंत्रित अब्दाली भी अपने अमानवीय नरसंहार से सूरजमल की शक्ति को ध्वस्त नहीं कर सका। देशद्रोही नजीब ने उस समय वजीर गाजीउद्दीन खां और मराठों के कोप से बचने के लिए अब्दाली को हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने के लिए सन् 1759 में पुनः आमंत्रित किया था। पानीपत के अंतिम युद्ध से पूर्व बरारी घाट के युद्ध में मराठों की प्रथम पराजय के बाद सूरजमल के कट्टर शत्रु वजीर गाजीउद्दीनखां ने भी भागकर जाटों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था। वेंदेल के अनुसार 'मुगल अहंकार की इतनी कठोर और इतनी सटीक पराजय इससे पहले कभी नहीं हुई थी'। वस्तुतः मुगल सत्ता का गर्वीला और भयावह दैत्य धराशायी हो चुका था जिसके अवशेषों पर महाराजा सूरजमल के नेतृत्व में विलास और आडंबर से दूर, कर्मण्य, शौर्यपरायण, निर्बल की सहायक, शरणागत की रक्षा, प्रजावत्सल, हिन्दू अखंडता की प्रतीक, राष्ट्रवादी जाट-सत्ता की स्थापना हुई।[6] मराठों से मतभेद[संपादित करें]बाद में 1760 में सदाशिव राव भाऊ और सूरजमल में कुछ बातों पर अनबन हुई थी। मथुरा की नबी मस्जिद को देखकर भाऊ ने गुस्से में कहा - सूरजमल जी, मथुरा इतने दिन से आपके कब्जे में है, फिर इस मस्जिद को आपने कैसे छोड़ दिया? सूरजमल ने जवाब दिया - अगर मुझे यकीन होता कि मैं सारी उम्र इस इलाके का बादशाह रहूंगा तो शायद मैं इस मस्जिद को गिरवा देता, पर क्या फायदा? कल मुसलमान आकर हमारे मंदिरों को गिरवायें और वहीं पर मस्जिदें बनवा दें तो आपको अच्छा लगेगा? बाद में फिर भाऊ ने लाल किले के दीवाने-खास की छत को गिरवाने का हुक्म दिया था, यह सोच कर कि इस सोने को बेचकर अपने सैनिकों की तनख्वाह दे दूंगा। इस पर भी सूरजमल ने उसे मना किया, यहां तक कहा कि मेरे से पांच लाख रुपये ले लो, पर इसे मत तोड़ो, आखिर नादिरशाह ने भी इस छत को बख्श दिया था। पर भाऊ नहीं माने - जब छत का सोना तोड़ा गया तो वह मुश्किल से तीन लाख रुपये का निकला। सूरजमल की कई बातों को भाऊ ने नहीं माना और यह भी कहा बताते हैं - मैं इतनी दूर दक्षिण से आपकी ताकत के भरोसे पर यहां नहीं आया हूं।[तथ्य वांछित] महाराजा सूरजमल की उदारता[संपादित करें]14 जनवरी 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई मराठों और अहमदशाह अब्दाली के बीच हुई। मराठों के एक लाख सैनिकों में से आधे से ज्यादा मारे गए। मराठों के पास न तो पूरा राशन था और न ही इस इलाके का उन्हें भेद था, कई-कई दिन के भूखे सैनिक क्या युद्ध करते ? अगर सदाशिव राव महाराजा सूरजमल से छोटी-सी बात पर तकरार न करके उसे भी इस जंग में साझीदार बनाता, तो आज भारत की तस्वीर और ही होती। महाराजा सूरजमल ने फिर भी दोस्ती का हक अदा किया। तीस-चालीस हजार मराठे युद्ध के बाद जब वापस जाने लगे तो सूरजमल के इलाके में पहुंचते-पहुंचते उनका बुरा हाल हो गया था। जख्मी हालत में, भूखे-प्यासे वे सब मरने के कगार पर थे और ऊपर से भयंकर सर्दी में भी मरे, आधों के पास तो ऊनी कपड़े भी नहीं थे। 6 महीने तक सूरजमल नें उन्हें भरतपुर में रक्खा, उनकी दवा-दारू करवाई और भोजन और कपड़े का इंतजाम किया। महारानी किशोरी ने भी जनता से अपील करके अनाज आदि इक्ट्ठा किया। सुना है कि कोई बीस लाख रुपये उनकी सेवा-पानी में खर्च हुए। जाते हुए हर आदमी को एक रुपया, एक सेर अनाज और कुछ कपड़े आदि भी दिये ताकि रास्ते का खर्च निकाल सकें। कुछ मराठे सैनिक लड़ाई से पहले अपने परिवार को भी लाए थे और उन्हें हरयाणा के गांवों में छोड़ गए थे। उनकी मौत के बाद उनकी विधवाएं वापस नहीं गईं। बाद में वे परिवार हरयाणा की संस्कृति में रम गए। महाराष्ट्र में 'डांगे' भी जाटवंश के ही बताये जाते हैं और हरियाणा में 'डांगी' भी उन्हीं की शाखा है।[कृपया उद्धरण जोड़ें] मराठों के पतन के बाद महाराजा सूरजमल ने गाजियाबाद, रोहतक, झज्जर के इलाके भी जीते। 1763 में फरुखनगर पर भी कब्जा किया। वीरों की सेज युद्धभूमि ही है। 25 दिसम्बर 1763 को युद्ध मे नवाब नजीबुदौला ने धोखे से महाराजा सूरजमल की हत्या कर दी। इस तरह महाराज वीरगति को प्राप्त हुए।[कृपया उद्धरण जोड़ें] इन्हें भी देखें[संपादित करें]
सन्दर्भ[संपादित करें]
ठाकुर सूरजमल का केंद्र कहाँ था?भरतपुर जहां स्थित है, वह इलाका सोघरिया जाट सरदार रुस्तम के अधिकार में था। यहां पर सन 1733 में भरतपुर नगर की नींव डाली गई। सन 1732 में बदनसिंह ने अपने 25 वर्षीय पुत्र सूरजमल को डीग के दक्षिण-पश्चिम में स्थित सोघर गांव के सोघरियों पर आक्रमण करने के लिए भेजा। सूरजमल ने सोघर को जीत लिया।
1857 के स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी ठाकुर सूरजमल का केन्द्र कहाँ था ?( A बिहार C पंजाब B कर्नाटक D राजस्थान?1857 के स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी ठाकुर सूरजमल का केंद्र राजस्थान था। ठाकुर सूरजमल डाकोर के रहने वाले थे। उन्होंने लुनावाणा पर अपना कब्जा करने के लिए 1857 में लुनावाणा के राजा पर हमला कर दिया था। राजा ने अंग्रेजों की मदद ली लेकिन सूरजमल ने ठाकुर कानदास के यहाँ शरण ली।
1857 की क्रांति का दूसरा नाम क्या था?१८५७ का भारतीय विद्रोह, जिसे प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, सिपाही विद्रोह और भारतीय विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक सशस्त्र विद्रोह था।
1857 की क्रांति की शुरुआत कहाँ से हुई थी?इस क्रांति की शुरुआत 10 मई... 1857 का संग्राम ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक बड़ी और अहम घटना थी। इस क्रांति की शुरुआत 10 मई, 1857 ई. को मेरठ से हुई, जो धीरे-धीरे कानपुर, बरेली, झांसी, दिल्ली, अवध आदि स्थानों पर फैल गई।
|