चुम्मा दिवस कब मनाया जाता है?

भोपाल के एक शायर स्‍वर्गीय फज़ल ताबिश ने जि़ंदगी के फलसफे पर अच्‍छी बात की है- ‘न कर शुमार के हर शय गिनी नहीं जाती, ये जि़ंदगी है, हिसाबों में जी नहीं जाती’. शेर में जि़ंदगी की जगह दोस्‍ती को फिट कर के देखें तो दोस्‍ती के मायने समझ में आते हैं. सच्‍ची दोस्‍ती क्‍या है? एक ऐसा रिश्‍ता, ऐसा भावनात्‍मक लगाव जिसे करने और निभाने के पीछे कोई स्‍वार्थ न हो. मां-बाप, भाई-बहन और दूसरे रिश्‍ते दरअसल खून के रिश्‍ते होते हैं, जो हमें विरासत में मिलते हैं. सच है कि दोस्‍ती का रिश्‍ता खून के रिश्‍तों में शामिल नहीं है, लेकिन यह रिश्‍ता खून के रिश्‍तों से कम नहीं है. शर्त ये है कि यह रिश्‍ता सच्‍चाई और ईमानदारी नींव पर खड़ा हो. हिसाब-किताब यानि कैलकुलेशन के बाद बनाई गई दोस्‍ती, दोस्‍ती नहीं एक सौदा होती है.

दोस्‍ती की बात इसलिए, क्‍योंकि आज के दिन हमारे देश में ‘फ्रेंडशिप डे’ मनाया जा रहा है. दुनिया के दूसरे देशों में, खासतौर पर आफ्रीका के देशों में यह जुलाई के आखिरी दिन मनाया जाता है. ज‍बकि भारत में ‘दोस्‍ती’ के गीत’ अगस्‍त माह के पहले रविवार को गाए जाते हैं. सो जय-वीरू की आवाज़ में आवाज़ मिलाईए और गाईए ‘ये दोस्‍ती हम नहीं तोड़ेंगे.’

कुछ लोगों का मानना है कि बचपन के मित्र ही सच्‍चे दोस्‍त होते हैं. बाकी तो केलकुलेटेड फ्रेंड्स की श्रेणी में आते हैं. इससे कुछ हद तक ही सहमत हुआ जा सकता है. यह परिभाषा पुरानी हो गई है. ग्‍लोबलाईज़ेशन के इस दौर में उम्र के अलग-अलग पड़ाव पर नए लोग मिलते हैं, नए दोस्‍त बनते हैं. रूम शेयर करने वाले और साथ में काम करने वाले कलीग में से भी कुछ अच्‍छे दोस्‍त मिल जाते हैं. दोस्‍त कोई हो, चाहे वो बचपन में बना है या समझदारी की उम्र में, सच्‍ची दोस्‍ती की जरूरी शर्त – सेल्फिशनेश के कीटाणु बिलकुल न हों.


दोस्‍ती और दोस्‍त पर कलम चलाना शायरों का पसंदीदा शगल रहा है. इसे देखने का हर शायर का अपना अलग नज़रिया है. फिलॉसफी का तड़का इसे अलग उंचाई देता है. क़तील शिफ़ाई कहते हैं

‘यूं लगे दोस्‍त तिरा मुझसे ख़फा हो जाना,

जिस तरह फूल से खुश्‍बू का जुदा हो जाना’


एक और शायर कहते हैं ‘दोस्‍ती आम है, लेकिन ऐ दोस्‍त, दोस्‍त मिलता है, बड़ी मुश्किल से’

बशीर बद्र दोस्‍ती का फलसफ़ा यूं बताते हैं –

‘दुश्‍मनी जमकर करो , लेकिन ये गुंजाईश रहे,

जब कभी हम दोस्‍त हो जाएं, तो शर्मिन्‍दा न हों’


बड़े लोग कह गए हैं दोस्‍त सम्‍भलकर और सोच समझकर बनाना चाहिए. अहमद फ़राज़ इस बात को यूं कहते हैं ‘

‘तुम तकल्‍लुफ को भी इखलास समझते हो फराज़,

दोस्‍त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला’

इखलास यानि बिना गरज के मिलना और तकल्‍लुफ यानि फार्मेलिटी.


दोस्‍ती निभाने वाले दोस्‍त भी होते हैं और पीठ में छुरा भोंकने वाले भी. शायरा परवीन श़ाकिर बड़े मार्के की बात कहती हैं-

‘दुश्‍मनों के साथ मेरे दोस्‍त भी आज़ाद हैं,

देखना है खींचता है मुझ पे, पहला तीर कौन’


दोस्‍ती पर शायरी हो और ग़ालिब कोई शेर न कहे, ऐसा कैसे हो सकता है. और जब ग़ालिब कहेंगे तो उनका अंदाज़ तो सबसे अलग होगा ही; ज्ञान बांटने वाले दोस्‍तों से खासे ख़फ़ा गा़लिब कह रहे हैं –

‘ये कहां की दोस्‍ती है कि बने हैं दोस्‍त नासेह,

कोई चारासाज़ होता कोई ग़म-गुसार होता’.

यहां नासेह यानि उपदेशक, चारासाज़-चिकित्‍सक और ग़म-गुसार यानि हमदर्द.


कतील शिफ़ाई का एक और शेर का जि़क्र किए बिना दिल नहीं मान रहा. ये उनके ऊपर वाले शेर से उलट बात कहता है. यहां कमीं-गाह का अर्थ है घात लगाकर मारने का गुप्‍त स्‍थान.

‘देखा जो खाके तीर, कमीं-गाह की तरफ,

अपने ही दोस्‍तों से मुलाकात हो गई’ .

दोस्‍ती की बात हो तो फिल्‍मकार कैसे पीछे रह सकते हैं. भावना की चाशनी में डूबी फिल्‍म बनाने वालों के लिए इश्‍क, प्‍यार और मोहब्‍बत के बाद दोस्‍ती ही वो विषय है जो उन्‍हें सबसे ज्‍यादा लुभाता है. फिर चाहे वो ‘शोले’ की कभी न टूटने वाली दोस्‍ती हो या फिर फिल्‍म दोस्‍ती के दो अपाहिज दोस्‍तों की कहानी जिसमें दौनों एक दूसरे का सहारा बनते हैं. दोस्‍ती 1984 की ब्‍लैक एण्‍ड व्‍हाईट फिल्‍म है. सत्‍येन बोस द्वारा निर्देशित यह फिल्‍म राजश्री प्रोडक्‍शन के बैनर तले ताराचंद बड़जात्‍या ने बनाई थी. यह साल की सुपर-डुपर हिट फिल्‍म थी. यह उस दौर की फिल्‍म है जब इसमें फरीदा जलाल ने बेबी फरीदा के नाम से बाल कलाकार के रूप में काम किया था और संजय खान की यह पहली फिल्‍म थी. दिलचस्‍प बात यह थी कि इस फिल्‍म से रातों रात सुपर स्‍टार बन जाने वाले नवोदित मुख्‍य कलाकार सुशील कुमार सोमाया और सुधीर कुमार सावंत इस फिल्‍म को करने के बाद ऐसे लापता हुए कि दूसरी किसी फिल्‍म में नज़र ही नहीं आए. उनके ग़ायब होने पर एक तगड़ी खबर उन दिनों फिज़ाओं में यह फैली कि दौनों एक एक्‍सीडेंट में मारे गए हैं. कहा यह भी गया है कि इसके पीछे उस दौर के सुपर स्‍टार दिलीप कुमार का हाथ है. बाद में ये खबर कोरी अफवाह साबित हुई. सुधीर कुमार तो फिल्‍मी लाईन छोड़कर एयर इंडिया में केबिन मेनेजर की नौकरी करने लगे. सुधीर सावंत ने जरूर साउथ इंडियन सहित कुछ फिल्‍में कीं मगर असफल रहे. एक बार इंटरव्‍यु में सुधीर ने कहा था कि ‘मैं आज तक नहीं समझ पाया कि यह अफवाह क्‍यों उड़ाई गई और इससे किसी को क्‍या मिला?’

परदे पर ‘बने चाहे दुश्‍मन ज़माना हमारा, सलामत रहे दोस्‍ताना हमारा’ गीत गाने वाले शत्रु और अमिताभ की रियल जिंदगी में भले ही पक्‍की दोस्‍ती न रही हो लेकिन ‘दोस्‍ताना’ फिल्‍म उनकी स्‍क्रीन की दोस्‍ती को खूबसूरत तरीके से पेश करती है. इसी तरह वीरू और जय यानि अमिताभ-धर्मेंन्‍द्र की दोस्‍ती ने ‘शोले’ की सफलता में बड़ा योग दिया था. ‘आनंद’ में बाबू मोशाय राजेश खन्‍ना के केंसर से लड़ने की कहानी थी. इसमें अमिताभ दोस्‍त की भूमिका में थे. इसी तरह ‘नमकहराम’ में भी दौनों की दोस्‍ती ने फिल्‍म को सफल बनाया था. ‘जंज़ीर’ में अमिताभ और प्राण की दोस्‍ती की कहानी है. बाकी फिल्‍मों और जंज़ीर में ये फर्क है कि इसमें अमिताभ लीड रोल में है और यह अमिताभ के केरियर को ऊंचाई पर ले जाने वाली मूवी है. जबकि आनंद और नमक हराम में अमित सेकंड लीड में थे. शोले में भी धर्मेन्‍द्र ही ऊपर थे. दोस्‍ताना में दौनों बराबर. इसी तरह हेराफेरी में अमिताभ और विनोद खन्‍ना की दोस्‍ती है. तो इतनी ताकत है दोस्‍ती में कि अमिताभ को सुपर स्‍टार बना दिया.

दूसरे भी अनेक कलाकार और फिल्‍में दोस्‍ती के सहारे ही सफलता की सीढि़यों पर चढ़े हैं. आमिर खान की दो फिल्‍में दोस्‍ती के चलते सुपर हिट हुईं हैं – दिल चाहता है और थ्री इडियट. दौनों में तीन दोस्‍तों की कहानी है. इडियट शिक्षा व्‍यवस्‍था पर सार्थक टिप्‍पणी करती है. ‘जि़ंदगी न मिलेगी दोबारा’ दोस्‍ती पर दार्शनिक अंदाज़ में बात करती है. ‘रॉक आन’ चार दोस्‍तों की कहानी है. सर्किट तो याद है ना आपको. इतना कहना ही काफी है ‘मुन्‍ना भाई एमबीबीएस’ और ‘लगे रहो मुन्‍ना भाई’ की बात करने के लिए. संजय दत्‍त और अरशद वारसी की तो पहचान ही मुन्‍ना भाई और सर्किट के रूप में हो गई है. जॉन, अभिषेक और प्रियंका की ‘दोस्‍ताना’ गे जैसे बोल्‍ड विषय पर केन्द्रित है.

हिंदुस्‍तान में फ्रेंडशिप डे और फ्रेंडशिप बैंड को लोकप्रिय बनाने वाली फिल्‍म ‘कुछ कुछ होता है’ भी काजोल और शाहरूख की दोस्‍ती पर आधारित है. आधी फिल्‍म के बाद दौनों में रोमांस होता है. ‘रंग दे बासंती’ अन्‍याय के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले नौजवानों की कहानी है. ‘हाथी मेरे साथी’ राजेश खन्‍ना की हाथी के साथ तगड़ी फ्रेंडशिप के चलते बॉक्‍स आफिस पर सफल हुई थी. ‘मुझसे दोस्‍ती करोगे’ ‘ये जवानी है दीवानी’ काई पो चे’, ‘फुकरे’ और ‘छिछोरे’ की सफलता में फ्रेंडशिप के तड़के का ही हाथ था.

जैसा हमने ऊपर कहा भावना-प्रधान फिल्‍में इश्‍क-प्‍यार और दोस्‍ती के इर्दगिर्द बुनी जाती हैं. सवाल है ‘इश्‍क और दोस्‍ती में फर्क क्‍या है ? किसी ने खूब कहा है ‘प्रेमी कहता है तुम्‍हें कुछ हुआ तो जि़ंदा नहीं रहूंगा. दूसरी तरफ दोस्‍त कहता है जब तक मैं जि़ंदा हूं, तुम्‍हें कुछ नहीं होने दूंगा.’ किसी और ने कहा है और सौ टका सही कहा है ‘दोस्‍ती में कभी कोई रूल नहीं होता और ये सिखाने के लिये कोई स्‍कूल भी नहीं होता.’

स्‍कूल ने भले न सिखाया हो, लेकिन बचपन ने जरूर सिखाया है ‘दो उंगली जोड़ लो तो दोस्‍ती हो जाती है, पक्‍की दोस्‍ती. कानी (कनिष्‍का) उंगली दिखा दो तो कट्टी.’ दुनिया भर में यहां, वहां, जहां भी नज़र डालो दुश्‍मनी का ही बोलबाला दिखाई दे रहा है. वक्‍त का तकाज़ा है कि ‘कट्टी’ करने वाली कानी उंगली को समेट कर जेब में गहरे दफन कर दो और सच्‍ची दोस्‍ती कराने वाली, जोड़ने वाली दो उंगलियों को आगे बढ़ाओ ‘ये कट्टी का नहीं दोस्‍ती का वक्‍त है’.


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)

ब्लॉगर के बारे में

चुम्मा दिवस कब मनाया जाता है?

शकील खानफिल्म और कला समीक्षक

फिल्म और कला समीक्षक तथा स्वतंत्र पत्रकार हैं. लेखक और निर्देशक हैं. एक फीचर फिल्म लिखी है. एक सीरियल सहित अनेक डाक्युमेंट्री और टेलीफिल्म्स लिखी और निर्देशित की हैं.

और भी पढ़ें