Gujarat Board GSEB Hindi Textbook Std 9 Solutions Kshitij Chapter 8 एक कुत्ता और एक मैना Textbook Exercise Important Questions and Answers, Notes Pdf. Std 9 GSEB Hindi Solutions एक कुत्ता और एक मैना Textbook Questions and Answers प्रश्न-अभ्यास
प्रश्न 1. प्रश्न
2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. 3. पत्नी – लेकिन फिर भी इनको तो इतना खयाल होना चाहिए कि यह हमारा प्राइवेट घर है। 4. जब मैं इस कविता को पढ़ता हूँ तो उस मैना की करुण मूर्ति अत्यंत
साफ होकर सामने आ जाती है। कैसे मैंने देखकर भी नहीं देखा और किस प्रकार कवि की आँखें उस बेचारी के मर्मस्थल तक पहुँच गई, सोचता हूँ तो हैरान हो रहता हूँ। प्रश्न 5. गुरुदेव हर भाषाहीन प्राणी के मर्म को पहचान लेते थे, चाहे वह कुत्ता हो या मैना या फूल पत्ति। आज मनुष्य अत्यंत संवेदनहीन हो गया है जो मनुष्य को देखकर उनके दुःखों का पता नहीं लगा पाता। किन्तु गुरुदेव यानी कवि की मर्मभेदी दृष्टि भाषाहीन प्राणी की करुण दृष्टि को पहचान लेती है। रचना और अभिव्यक्ति प्रश्न 6. भाषा-अध्ययन प्रश्न 7. क. सकर्मक क्रियावाले वाक्य –
ख. अकर्मक क्रियावाले वाक्य –
प्रश्न 8. प्रश्न 9.
ii. अन् उपसर्गवाले शब्द –
GSEB Solutions Class 9 Hindi एक कुत्ता और एक मैना Important Questions and Answers अतिरिक्त लघूत्तरी प्रश्नोत्तर प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. अतिरिक्त दीर्घ उत्तरी प्रश्नोत्तर प्रश्न 1. गुरुदेव का पशु-पक्षी प्रेम भी अद्भुत था। शांतिनिकेतन में गुरुदेव के स्नेह का भागी वह कुत्ता श्रीनिकेतन में उन्हें खोजते-खोजते आ पहुँचा। गुरुदेव ने अपने इस कुत्ते पर आरोग्य में एक कविता भी लिखी है। मैना पक्षी के भीतर छिपे करुण भाव को भी गुरुदेव ने अपनी मर्मभेदी दृष्टि से परख लिया। उस पर भी गुरुदेव ने कविता लिस्नी है। अतः हम कह सकते हैं कि गुरुदेव प्रकृति से, पशु-पक्षियों से बेहद प्रेम करते थे। प्रश्न 2. प्रश्न 3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दिए गये विकल्पों में से चुनकर लिखिए : प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. अर्थबोध पर आधारित प्रश्न आज से कई वर्ष पहले गुरुदेव के मन में आया कि शांतिनिकेतन को छोड़कर कहीं अन्यत्र जाएँ। स्वास्थ्य बहुत अच्छा नहीं था। शायद इसलिए, या पता नहीं क्यों, तै पाया कि वे श्रीनिकेतन के पुराने तिमंजिले मकान में कुछ दिन रहें। शायद मौज में आकर ही उन्होंने यह निर्णय किया हो। वे सबसे ऊपर के तल्ले में रहने लगे। उन दिनों ऊपर तक पहुँचने के लिए लोहे की चक्करदार सीढ़ियाँ थीं, और वृद्ध और क्षीणवपु रविन्द्रनाथ के लिए उस पर चढ़ सकना असंभव था। फिर भी बड़ी कठिनाई से उन्हें वहाँ ले जाया जा.सका। प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. उन दिनों छुट्टियाँ थी। आश्रम के अधिकांश लोग बाहर चले गए थे। एक दिन हमने सपरिवार उनके ‘दर्शन’ की ठानी। दर्शन को मैं जो यहाँ विशेष रूप से दर्शनीय बनाकर लिख रहा हूँ, उसका कारण यह है कि गुरुदेव के पास जब कभी मैं जाता था तो. प्रायः वे यह कहकर मुस्करा देते थे कि ‘दर्शनार्थी हैं क्या ?’ शुरू-शुरू में मैं उनसे ऐसी बांग्ला में बात करता था, जो वस्तुतः हिन्दी-मुहावरों का अनुवाद हुआ करती थी। किसी बाहर के अतिथि को जब मैं उनके पास ले जाता था तो कहा करता था, ‘एक भद्न लोक आपनार दर्शनेर जन्य ऐसे छेन।’ यह बात हिन्दी में जितनी प्रचलित है, उतनी बॉम्ला में नहीं। इसलिए गुरुदेय जरा मुस्करा देते थे। बाद में मुझे मालूम हुआ कि मेरी यह भाषा बहुत अधिक पुस्तकीय है। प्रश्न 1. प्रश्न
2. प्रश्न 3. गुरुदेव वहाँ बड़े आनंद में थे। अकेले रहते थे। भीड़-भाड़ उतनी नहीं होती थी, जितनी शांतिनिकेतन में। जब हम लोग ऊपर गए तो गुरुदेव बाहर एक कुर्सी पर चुपचाप बैठे अस्तगामी सूर्य की ओर ध्यानस्तिमित नयनों से देख रहे थे। हम लोगों को देखकर मुस्कराए, बच्चों से जरा छेड़छाड़ की, कुशल प्रश्न पूछे और फिर चूप हो रहे। ठीक उसी समय उनका कुत्ता धीरे-धीरे ऊपर आया और उनके पैरों के पास खड़ा होकर पूँछ हिलाने लगा। गुरुदेव ने उसकी पीठ पर हाथ फेरा। वह आँखें मूंदकर अपने रोम-रोम से उस स्नेह-रस का अनुभव करने लगा। गुरुदेव ने हम लोगों की ओर देखकर कहा, “देखा तुमने, यह आ गए। कैसे इन्हें मालूम हुआ कि मैं यहाँ हूँ, आश्चर्य है ! और देखो, कितनी परितृप्ति इनके चेहरे पर दिखाई दे रही है।” प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. हम लोग उस कुत्ते के आनंद को देखने लगे। किसी ने उसे राह नहीं दिखाई थी, न उसे यह बताया था कि उसके स्नेह-दाता यहाँ से दो मील दूर हैं और फिर भी वह पहुँच गया। इसी कुत्ते को लक्ष्य करके उन्होंने ‘आरोग्य’ में इस भाव की एक कविता लिखी थी – ‘प्रतिदिन प्रातःकाल यह भक्त कुत्ता स्तब्ध होकर आसन के पास तब तक बैठा रहता है, जब तक अपने हाथों के स्पर्श से मैं इसका संग नहीं स्वीकार करता। इतनी-सी स्वीकृति पाकर ही उसके अंग-अंग में आनंद का प्रवाह बह उठता है। इस वाक्यहीन प्राणिलोक में सिर्फ यही एक जीव अच्छा-बुरा सबको भेदकर संपूर्ण मनुष्य को देख सका है। उस आनंद को देख्न सका है, जिसे प्राण दिया जा सकता है, जिसमें अहैतुक प्रेम ढाल दिया जा सकता है, जिसकी चेतना असीम चैतन्य लोक में राह दिखा सकती है। प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. मैं जब यह कविता पढ़ता हूँ तब मेरे सामने श्रीनिकेतन के तितल्ले पर की वह घटना प्रत्यक्ष-सी हो जाती है। वह आँख मूंदकर अपरिसीम आनंद, वह ‘मूक हृदय का प्राणपण आत्मनिवेदन’ मूर्तिमान हो जाता है। उस दिन मेरे लिए वह एक छोटी-सी घटना थी, आज वह विश्व की अनेक महिमाशाली घटनाओं की श्रेणी में बैठ गई है। एक आश्चर्य की बात और इस प्रसंग में उल्लेख की जा सकती है। जब गुरुदेव का चिताभस्म कलकत्ते (कोलकाता) से आश्रम में लाया गया, उस समय भी न जाने किस सहज बोथ के बल पर वह कुत्ता आश्रम के द्वार तक आया और चिताभस्म के साथ अन्यान्य आश्रमवासियों के साथ शांत गंभीर भाव से उत्तरायण तक गया। आचार्य क्षितिमोहन सेन सबके आगे थे। उन्होंने मुड़ो बताया कि वह चिताभस्म के कत्नश के पास थोड़ी देर चुपचाप बैठा भी रहा। प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. मैं चुपचाप सुनता जा रहा था। गुरुदेव ने बातचीत के सिलसिले में एक बार कहा, “अच्छा साहब, आश्रम के कौए क्या हो गए ? उनकी आवाज़ सुनाई ही नहीं देती ?” न तो मेरे साथी उन अध्यापक महाशय को यह खबर थी और न मुझे ही। बाद में मैंने लक्ष्य किया कि सचमुच कई दिनों से आश्रम में कौए नहीं दिख रहे हैं। मैंने तब तक कौओं को सर्वव्यापक पक्षी ही समझ रखा था। अचानक उस दिन मालूम हुआ कि ये भले आदमी भी कभी-कभी प्रवास को चले जाते हैं या चले जाने को बाध्य होते हैं। एक लेखक ने कौओं की आधुनिक साहित्यिकों से उपमा दी है, क्योंकि इनका मोटो है ‘मिसचिफ फार मिसचिफ सेक’ (शरारत के लिए ही शरारत)। तो क्या कौओं का प्रवास भी किसी शरारत के उद्देश्य से ही था ? प्रायः एक सप्ताह के बाद बहुत कौए दिखाई दिए। प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. गुरुदेव ने अगर कह न दिया होता तो मुझे उसका करुण-भाय एकदम नहीं दिखता। मेरा अनुमान था कि मैना करुण भाव दिखानेवाला पक्षी है ही नहीं। वह दूसरों पर अनुकंपा ही दिखाया करती है। तीन-चार वर्ष से मैं एक नए मकान में रहने लगा हूँ मकान के निर्माताओं ने दीवारों में चारों ओर एक-एक सुराख्न छोड़ रही है। यह कोई आधुनिक वैज्ञानिक खतरे का समाधान होगा। सो, एक मैना-दंपत्ति नियमित भाव से प्रतिवर्ष यहाँ गृहस्थी जमाया करते हैं, तिनके और चिथड़ों का अंबार लगा देते हैं। भलेमानस गोबर के टुकड़े तक ले आना नहीं भूलते। हैरान होकर हम सुराणों में ईंटें भर देते हैं, परंतु चे खाली बची जगह का भी उपयोग कर लेते हैं। प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. सो, इस प्रकार की मैना कभी करुण हो सकती है, यह मेरा विश्वास ही नहीं था। गुरुदेव की बात पर मैंने ध्यान से देखा तो मालूम हुआ कि सचमुच ही उसके मुख पर एक करुण भाव है। शायह यह विधुर पति था, जो पिछली स्वयंवर-सभा के युद्ध में आहत और परास्त हो गया था। या विधवा पत्नी है, जो पिछले बिड़ाल के आक्रमण के समय पति को खोकर युद्ध में ईषत् चोट खाकर एकांत विहार कर रही है। हाय, क्यों इसकी ऐसी दशा है ! शायद इसी मैना को लक्ष्य करके गुरुदेव ने बाद में एक कविता लिखी थी। प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. एक कुत्ता और एक मैना Summary in Hindiद्विवेदी जी का जन्म सन् 1907 ई. में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के दुबे का छपरा नामक गाँव में हुआ था। उन्होंने बनारस तथा पंजाब विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के प्रोफेसर के रूप में कार्य किया। वे शांतिनिकेतन के हिन्दी भवन के निर्देशक भी रहे। उनके समग्र साहित्य पर इतिहास, संस्कृति एवं दर्शन के गहन अध्ययन की छाप है। उनके व्यक्तित्व के कई पहलू हैं। उन्होंने काशी में साहित्य, ज्योतिष और संस्कृत का अध्ययन कर आचार्य की उपाधि प्राप्त की थी। द्विवेदी जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार है। वे शुक्लोत्तर युग के एक श्रेष्ठ निबंधकार, उपन्यासकार, समालोचक, इतिहासलेखक और प्रखर शोधार्थी के रूप में जाने जाते हैं। अशोक के फूल, कल्पलता, विचार प्रवाह और कुटज उनके निबंध संग्रह हैं। बाणभट्ट की आत्मकथा, अनामदास का पोथा, पुनर्नवा और चारुचंद्रलेख उनके महत्त्वपूर्ण उपन्यास हैं। ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ तथा ‘कबीर’ इतिहास और आलोचना विषयक उत्कृष्ट ग्रंथ हैं। उनकी मृत्यु सन् 1979 ई. में हुई थी। द्विवेदी जी ने साहित्य की अनेक विद्याओं में सर्वश्रेष्ठ रचनाएँ प्रदान की हैं। इनके ललित निबंध उल्लेखनीय हैं। गंभीर व जटिल दर्शनप्रधान बातों को सहज व सरल भाषा में प्रस्तुत करना इनकी विशेषता है। अपनी संस्कृतनिष्ट हिन्दी के द्वारा शारख-जान, परंपरा के बोध और लोकजीवन के अनुभव का चित्रण बखूबी किया है। प्रस्तुत पाठ ‘एक कुत्ता और एक मैना’ के माध्यम से गुरुदेव का पशु-पक्षियों के प्रति मानवीय प्रेम प्रकट करता है। इसमें पशुपक्षियों द्वारा प्राप्त प्रेम, भक्ति, विनोद, करुणा जैसे मानवीय भावों की भी अभिव्यक्ति हुई है। लेखक ने गुरुदेव के साथ बिताये अपने सुखद पलों को भी साझा किया। इस निबंध द्वारा गुरुदेव के पशु-पक्षियों के प्रेम की एक झलक मिलती हैं। पशु-पक्षियों में भी मानवीय गुण होते हैं, कुत्ता और मैना की गुरुदेव के प्रति संवेदनाएँ इस बात का प्रमाण देती हैं। पाठ का सार : गुरुदेव का शांतिनिकेतन छोड़ श्रीनिकेतन में आना : लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी के मुताबिक शांतिनिकेतन में रह रहे गुरुदेव को शांतिनिकेतन छोड़कर कहीं और रहने का विचार आया। संभवतः उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था इसलिए उन्होंने ऐसा सोचा हो। वे श्रीनिकेतन के तीसरे तल्ले पर आकर रहने लगे। गुरुदेव का स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण उन्हें लोहे की घुमावदार सीढ़ियों के सहारे बमुश्किल चढ़ाया गया। अवकाश में गुरुदेव से लेखक की मुलाकात : उन दिनों शांतिनिकेतन में छुट्टियाँ थीं। आश्रम के अधिकांश लोग बाहर चले गये थे। एक दिन लेखाक सपरिवार उनके घर मुलाकात करने पहुँच गये। गुरुदेव प्रायः यह कहकर मुस्कुरा देते थे कि दर्शनार्थी हैं क्या ? लेखक उस समय जो बांग्ला भाषा में बोलते थे वह पुस्तकीय भाषा होती थी। लेखक जब गुरुदेव के समक्ष असमय पहुँचते तो वे कहते कि दर्शनार्थी लेकर आए हो क्या ? गुरुदेव असमय पहुँचनेवाली दर्शनार्थी से थोड़ा परेशान हो उठते थे। हमारे यहाँ के लोग दूसरों के समय-असमय, स्थान-अस्थान, अवस्था-अनवस्था की परवाह नहीं करते। श्रीनिकेतन में गुरुदेव और उनका कुत्ता : गुरुदेव श्रीनिकेतन में बड़े आनंद से अकेले रहते थे। जब लेखक उनसे मिलने गया तो वे अस्तगामी सूर्य की ओर ध्यान स्तिमित नयनों से देख रहे थे। लेखक और उनके परिवार को देखकर ये मुस्कराए, कुशल-क्षेम पूछा और फिर चुप हो गये। ठीक उसी समय उनका कुत्ता धीरे-धीरे ऊपर आया और उनके पैरों के पास खड़ा होकर पूँछ हिलाने लगा। गुरुदेव ने उसकी पीठ पर हाथ फेरा और वह आँखें मूंदकर अपने रोम-रोम में उस स्नेह-रस का अनुभव करने लगा। गुरुदेव के स्नेह का सद्भागी कुत्ता : शांतिनिकेतन में रहनेवाला कुत्ता गुरुदेव को खोजते-खोजते श्रीनिकेतन आ पहुँचा था। किसीने उसको राह नहीं दिखाई थी। इस कुत्ते को लक्ष्य करके गुरुदेव ने ‘आरोग्य’ में कविता लिखी थी। जिसका भाव यह था कि ‘प्रतिदिन प्रातःकाल यह कुत्ता सब्ध होकर तब तक बैठा रहता था जब तक गुरुदेव अपने हाथों का स्पर्श देकर उसका संग स्वीकार नहीं करते थे।’ इस प्राणिलोक में कुत्ता ही संपूर्ण मनुष्य को देख सकता है। इसके मूक हृदय का प्राणमय आत्मनिवेदन अपनी दीनता बताता रहता है। लेखक कहते हैं कि इसकी भाषाहीन दृष्टि की करुण व्याकुलता मुझे इस सृष्टि में मनुष्य का सच्चा परिचय देती हैं। अन्त समय में भी कुत्ते ने निभाया साथ : जब गुरुदेव का चिताभस्म कलकत्ते से शांतिनिकेतन आश्रम में लाया गया, उस समय भी यह कुत्ता न जाने किस सहज बोध के बल पर वह कुत्ता आश्रम के द्वार तक आया और चिताभस्म के साथ अन्य आश्रमवासियों के साथ शांत गंभीर भाव से उत्तरायण तक गया। वह कुत्ता चिताभस्म के कलश के पास थोड़ी देर बैठा रहा। एक अन्य अविस्मरणीय घटना : यह घटना उन दिनों की है जब लेखक नये-नये शांतिनिकेतन में आये थे। वे एक अन्य अध्यापक के साथ बगीचे में टहल रहे थे। गुरुदेव एक-एक फूल पत्ते को ध्यान से देखते जाते थे। तभी उन्होंने पूछा कि यहाँ के कौऔं को क्या हो गया ? उनकी आवाज सुनाई ही नहीं देती ? तब लेखक और अध्यापक महाशय को इस बात का बोध हुआ कि सच में कौए नहीं दिख रहे हैं। तब लेखक को पता चला कि कौए भी कभी-कभी प्रवास पर चले जाते हैं। एकाध सप्ताह के बाद वे कौए वापस आ गये। गुरुदेव की दृष्टि करुण मैना पर : अन्य एक बार लेखक सवेरे गुरुदेव के पास थे। उस समय एक लंगड़ी मैना फुदक रही थी। गुरुदेव ने कहा “देखते हो, यह यूथभ्रष्ट है। रोज फुदकती है, ठीक यहीं आकर। मुझे इसकी चाल में करुणभाव दिखाई देता है। लेखक कहते हैं कि यदि यह बात गुरुदेव ने नहीं बताई होती तो मुझे पता ही नहीं चलता। लेखक का अनुमान था कि मैना करुणभाव दिखानेवाला पक्षी नहीं है। वह दूसरों पर अनुकंपा ही दिखाया करती है। तीन वर्ष पूर्व लेखक जिस मकान में रहते थें वहाँ भी मैना दम्पत्ति का निवास था, अपनी कोलाहल से उन्होंने उस मकान को गुलजार किया था। गुरुदेव ने जिन मैना का वर्णन किया है या तो वह विधुर पति था या विधवा पत्नी, जो पिछले बिड़ाल के आक्रमण के समय पति/पत्नी को खोकर युद्ध में ईषत् चोट खाकर एकांत में बिहार कर रही थी। उस मैना को लक्ष्य में करके गुरुदेव ने एक कविता लिखी थी। गुरुदेव द्वारा मैना पर लिखी गई कविता : गुरुदेव ने इस मैना पर जो कविता लिखी इसका सार कुछ इस प्रकार है -“उस मैना को क्या हो गया है, यही सोचता हूँ। क्यों वह दल से अलग होकर रहती है ? पहले दिन देखा था सेमर के पेड़ के नीचे मेरे बगीचे में। जान पड़ा जैसे एक पैर से लैंगड़ा रही हो। उसके बाद उसे रोज सवेरे देखता हूँ – संगीहीन होकर कीड़ों का शिकार करती फिरती है, मुझसे जरा भी नहीं डरती। क्यों है ऐसी दशा इसकी ? आदि।’ लेखक जब भी इस कविता को पढ़ते हैं उस मैना की करुणमूर्ति अत्यंत साफ होकर सामने आ जाती है। लेखक को मैना में करुण भाव नजर नहीं आया। जबकि गुरुदेव ने मैना के मर्म को जान लिया। यह फर्क था गुरुदेव और लेखक में। शब्दार्थ व टिप्पणी
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