विवाह का अर्थ एवं समाज में इसका महत्व स्पष्ट कीजिए - vivaah ka arth evan samaaj mein isaka mahatv spasht keejie

विवाह जिसे शादी भी कहा जाता हैदो लोगों के बीच एक सामाजिक या धार्मिक मान्यता प्राप्त मिलन है जो उन लोगों के बीचसाथ ही उनके और किसी भी परिणामी जैविक या दत्तक बच्चों तथा समधियों के बीच अधिकारों और दायित्वों को स्थापित करता है। विवाह की परिभाषा न केवल संस्कृतियों और धर्मों के बीचबल्कि किसी भी संस्कृति और धर्म के इतिहास में भी दुनिया भर में बदलती है। आमतौर परयह मुख्य रूप से एक संस्थान है जिसमें पारस्परिक संबंधआमतौर पर यौनस्वीकार किए जाते हैं या संस्वीकृत होते हैं।

विवाह मानव-समाज की अत्यंत महत्वपूर्ण प्रथा या समाजशास्त्रीय संस्था है। यह समाज का निर्माण करने वाली सबसे छोटी इकाई- परिवार-का मूल है। यह मानव प्रजाति के सातत्य को बनाए रखने का प्रधान जीवशास्त्री माध्यम भी है।

  परिचय:- 'विवाहशब्द का प्रयोग मुख्य रूप से दो अर्थों में होता है। इसका पहला अर्थ वह क्रियासंस्कारविधि या पद्धति हैजिससे पति-पत्नी के 'स्थायी'-संबंध का निर्माण होता है। प्राचीन एवं मध्यकाल के धर्मशास्त्री तथा वर्तमान युग के समाजशास्त्रीसमाज द्वारा अनुमोदितपरिवार की स्थापना करनेवाली किसी भी पद्धति को विवाह मानते हैं। मनुस्मृति के टीकाकार मेधातिथि (३। २०) के शब्दों में विवाह एक निश्चित पद्धति से किया जाने वालाअनेक विधियों से संपन्न होने वाला तथा कन्या को पत्नी बनाने वाला संस्कार है। वैस्टरमार्क ने इसे एक या अधिक पुरुषों का एक या अधिक स्त्रियों के साथ ऐसा संबंध बताया हैजो इस संबंध को करने वाले दोनों पक्षों को तथा उनकी संतान को कुछ अधिकार एवं कर्तव्य प्रदान करता है।

विवाह का दूसरा अर्थ समाज में प्रचलित एवं स्वीकृत विधियों द्वारा स्थापित किया जानेवाला दांपत्य संबंध और पारिवारिक जीवन भी होता है। संस्कृत में पति का शब्दार्थ है : 'पालन ' तथा 'भार्याका अर्थ है 'भरणपोषण की जाने योग्य नारी'। संपत्ति का उत्तराधिकार अधिकांश समाजों में वैध विवाहों से उत्पन्न संतान को ही दिया जाता है।

      विवाह का उद्गम:- मानव-समाज में विवाह की संस्था के प्रादुर्भाव के बारे में 19वीं शताब्दी में वेखोफन (1815-80 ई.)मोर्गन तथा मैकलीनान  ने विभिन्न प्रमाणों के आधार पर इस मत का प्रतिपादन किया था कि मानव समाज की आदिम अवस्था में विवाह का कोई बंधन नहीं थासब नर-नारियों को यथेच्छित कामसुख का अधिकार था। महाभारत में पांडु ने अपनी पत्नी कुंती को नियोग के लिए प्रेरित करते हुए कहा था कि 'पुराने जमाने में विवाह की कोई प्रथा न थीस्त्री पुरुषों को यौन संबंध करने की पूरी स्वतंत्रता थी।कहा जाता हैभारत में श्वेतकेतु ने सर्वप्रथम विवाह की मर्यादा स्थापित की। चीनमिस्र और यूनान के प्राचीन साहित्य में भी कुछ ऐसे उल्लेख मिलते हैं। इनके आधार पर लार्ड एवबरीफिसोनहाविटटेलरस्पेंसरजिलनकोव लेवस्कीलिय्यर्ट और शुर्त्स आदि पश्चिमी विद्वानों ने विवाह की आदिम दशा कामचार (प्रामिसकुइटी) की अवस्था मानी। इसके बाद अंत में एक ही नारी के साथ पाणिग्रहण करने (मोनोगेमी) का नियम प्रचलित हुआ।

किंतु चार्ल्स डार्विन ने प्राणिशास्त्र के आधार पर विवाह के आदिम रूप की इस कल्पना का प्रबल खंडन कियायदि पुरुष यौन-संबंध के बाद पृथक् हो जाएगर्भावस्था में पत्नी की देखभाल न की जाएसंतान उत्पन्न होने पर उसके समर्थ एवं बड़ा होने तक उसका पोषण न किया जाए तो मानव जाति का अवश्यमेव उन्मूलन हो जाएगा। अत: आत्मसंरक्षण की दृष्टि से विवाह की संस्था की उत्पत्ति हुई है। यह केवल मानव समाज में ही नहींअपितु मनुष्य के पूर्वज समझे जानेवाले गोरिल्लाचिंपाजी आदि में भी पाई जाती हैं। अत: कामचार से विवाह के प्रादुर्भाव का मत अप्रामाणिक और अमान्य है।

     विवाह के विभिन्न पक्ष:- वैयक्तिक दृष्टि से विवाह पति-पत्नी की मैत्री और साझेदारी है। दोनों के सुखविकास और पूर्णता के लिए आवश्यक सेवासहयोगप्रेम और निःस्वार्थ त्याग के अनेक गुणों की शिक्षा वैवाहिक जीवन से मिलती है। नर-नारी की अनेक आकांक्षाएँ विवाह एवं संतान-प्राप्ति द्वारा पूर्ण होती हैं। उन्हें यह संतोष होता है कि उनके न रहने पर भी संतान उनका नाम और कुल की परंपरा अक्षुण्ण रखेगीउनकी संपत्ति की उत्तराधिकारिणी बनेगी तथा वृद्धावस्था में उन्हें अवलंब देगी। हिंदू समाज में वैदिक युग से यह विश्वास प्रचलित है कि पत्नी मनुष्य का आधा अंश है। पुरुष प्रकृति के बिना और शिव शक्ति के बिना अधूरा है।

विवाह एक धार्मिक संबंध है। प्राचीन यूनानरोमभारत आदि सभी सभ्य देशों में विवाह को धार्मिक बंधन एवं कर्तव्य समझा जाता था। वैदिक युग में यज्ञ करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य थाकिंतु यज्ञ पत्नी के बिना पूर्ण नहीं हो सकताअत: विवाह सबके लिए धार्मिक दृष्टि से आवश्यक था। पत्नी शब्द का अर्थ ही यज्ञ में साथ बैठने वाली स्त्री है। श्री राम का अश्वमेध यज्ञ पत्नी के बिना पूरा नहीं हो सका थाअत: उन्हें सीता की प्रतिमा स्थापित करनी पड़ी। यहूदियों की धर्मसंहिता के अनुसार विवाह से बचनेवाला व्यक्ति उनके धर्मग्रंथ के आदेशों का उल्लंघन करने के कारण हत्यारे जैसा अपराधी माना जाता था। विवाह का धार्मिक महत्व होने से ही अधिकांश समाजों में विवाह की विधि एक धार्मिक संस्कार मानी जाती रही है।

     मई, 1955 से लागू होनेवाले हिंदू विवाह कानून से पहले हिंदू समाज में धार्मिक संस्कार से संपन्न होनेवाला विवाह अविच्छेद्य (तलाक न होना) था। रोमन कैथोलिक चर्च इसे अब तक ऐसा धार्मिक बंधन समझता है। किंतु अब औद्योगिक क्रांति से उत्पन्न होनेवाले परिवर्तनों से तथा धार्मिक विश्वासों में आस्था शिथिल होने से विवाह के धार्मिक पक्ष का महत्व कम होने लगा है।

विवाह का आर्थिक पक्ष भी अब निर्बल होता जा रहा है। फिर भीपत्नी और बच्चों के पालनपोषण के आर्थिक व्यय को वहन करने का उत्तरदायित्व अभी तक प्रधान रूप से पति का माना जाता है। पति द्वारा उपार्जित धन पर उसकी पत्नी और वैध पुत्रों का ही अधिकार स्वीकार किया जाता है।

      विवाह का एक कानूनी या विधिक पक्ष भी है। किसी भी मानव समाज में नर-नारी को उस समय तक दांपत्य जीवन बिताने और संतान उत्पन्न करने का अधिकार नहीं दिया जाताजब तक इसके लिए समाज की स्वीकृति न हो। यह स्वीकृति धार्मिक कर्मकांड को अथवा कानून द्वारा निश्चित विधियों को पूरा करने से तथा विवाह से उत्पन्न होनेवाले दायित्वों को स्वीकार करने से प्राप्त होती है। अनेक आधुनिक समाजों में विवाह को वर-वधू की सहमति से होनेवाला विशुद्ध कानूनी अनुबंध समझा जाता है। किंतु यह स्मरण रखना चाहिए कि यह अन्य सभी प्रकार के अनुबंधों या संविदाओं से भिन्न है क्योंकि उनमें अनुबंध करनेवाले व्यक्ति इसकी शर्तें तय करते हैंकिंतु विवाह के कर्तव्य और दायित्व वरवधू की इच्छा पर अवलंबित नहीं हैंवे समाज की रूढ़िपरंपरा और कानून द्वारा निश्चित होते हैं।

      विवाह का समाजिक और नैतिक पक्ष भी महत्वपूर्ण है। विवाह से उत्पन्न होनेवाली संतति परिवार में रहते हुए ही समुचित विकास और प्रशिक्षण प्राप्त करके समाज का उपयोगी अंग बनती हैबालक को किसी समाज के आदर्शों के अनुरूप ढालने का तथा उसके चरित्र-निर्माण का प्रधान साधन परिवार है। यह निर्विवाद है कि बालक का समुचित विकास परिवार में ही संभव है। प्रत्येक समाज विवाह द्वारा मनुष्य की उद्दाम एवं उच्छृंखल यौन भावनाओं पर अंकुश लगाकर उसे नियंत्रित करता है और समाज में नैतिकता की रक्षा करता है।

किसी भी समाज में मनुष्य विवाह करने के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्र नहीं है। उसे इस विषय में कई प्रकार के नियमों का पालन करना पड़ता है। ये नियम प्रधान रूप से निम्नलिखित बातों के संबंध में होते हैं-

(१) वर-वधू के चुनाव के नियम,

(२) पत्नी प्राप्त करने के नियम,

(३) विवाह संस्कार की विधियाँ,

(४) विवाह के विभिन्न रूप

(५) विवाह की अवधि के नियम।

     वर-वधू चुनने के नियम:- अंतर्विवाह

लगभग सभी समाजों में वधू चुनने के संबंध में दो प्रकार के नियम होते हैं। पहले प्रकार के नियम अंतर्विवाह विषयक (एंडोगेमस) होते हैं। इनके अनुसार एक विशिष्ट वर्ग के व्यक्तियों को उसी वर्ग के अंदर रहनेवाले व्यक्तियों में से ही वधू को चुनना पड़ता है। वे उस वर्ग से बाहर के किसी व्यक्ति के साथ विवाह नहीं कर सकते। दूसरे प्रकार के (बहिर्विवाही) नियमों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को एक विशिष्ट समूह से बाहर के व्यक्तियों के साथ हीविवाह करना पड़ता है। ये दोनों नियम ऊपर से परस्परविरोधी होते हुए भी वास्तव में ऐसे नहीं हैंक्योंकि इनका संबंध विभिन्न प्रकार के समूहों से होता है। इन्हें वृत्तों के उदाहरण से भली भाँति समझा जा सकता है। प्रत्येक समाज में एक विशाल बाहरी वृत्त होता है। इस वृत्त से बाहर किसी व्यक्ति के साथ वैवाहिक संबंध वर्जित होता हैकिंतु इस बड़े वृत्त के भीतर अनेक छोटे छोटे समूहों के अनेक वृत्त होते हैंप्रत्येक व्यक्ति को इस छोटे वृत्त के समूह के बाहरकिंतु बड़े वृत्त के भीतर ही विद्यमान किसी अन्य समूह के व्यक्ति के साथ विवाह करना पड़ता है। हिंदू समाज में इस प्रकार का विशाल वृत्त जाति का है और छोटे वृत्त विभिन्न गोत्रों के हैं।

  पत्नी-प्राप्ति की विधियाँ:-

अंतर्विवाह और बहिर्विवाह के नियमों का पालन करते हुए वधू को प्राप्त करने की विधियों के संबंध में मानव समाज में बड़ा वैविध्य दृष्टिगोचर होता है। भार्याप्राप्ति की विभिन्न विधियों को अपहरणक्रय और सहमति के तीन बड़े वर्गों में बाँटा जा सकता है। अपहरण की विधि का तात्पर्य पत्नी की तथा उसके संबंधियों की इच्छा के बिना उसपर बलपूर्वक अधिकार करना है। इसे भारतीय धर्मशास्त्र में राक्षस और पैशाच विवाहों का नाम दिया गया है। यह आज तक कई वन्य जातियों में पाई जाती है। उड़ीसा की भुइयाँ जनजाति के बारे में कहा जाता है कि यदि किसी युवक का युवती से प्रेम होकिंतु युवती अथवा उसके मातापिता उस विवाह के लिए सहमत न हों तो युवक अपनी मित्रमंडली की सहायता से अपनी प्रेमिका का अपहरण कर लेता है और इससे प्राय: भीषण लड़ाइयाँ होती हैं। संथालमुंडाभूमिजगोंडभील और नागा आदि आरण्यक जातियों में यह प्रथा पाई जाती है। अन्य देशों और जातियों में भी इसका प्रचलन मिलता है।

   पत्नीप्राप्ति का दूसरा साधन क्रय विवाह अर्थात् पैसा देकर लड़की को खरीदना है। हिंदू शास्त्रों की परिभाषा के अनुसार इसे असुर विवाह कहा जाता है। भारत की संथालहोओराँवखड़ियागोंडभील आदि जातियों में कन्या के मातापिता को कन्याशुल्क (ब्राइड प्राइस) देकर पत्नी प्राप्त करने की परिपाटी है। हिंदू समाज के उच्च वर्ग में लड़कों का महत्व होने से उनके मातापिता कन्या के मातापिता से दहेज रूप में धन प्राप्त करते हैंकिंतु निम्न वर्ग में वन्य जातियों में कन्या का आर्थिक महत्व होने के कारण कन्या का पिता वर से अथवा वर के मातापिता से कन्या देने के बदले में धनराशि प्राप्त करता है। यदि वर धनराशि देने में असमर्थ होता है तो वह श्वशुर के यहाँ सेवा करके कन्याशुल्क प्रदान करता है। गोंडों और बैगा लोगों में श्वशुर के यहाँ इस प्रकार तीन से पाँच वर्ष तक नौकरी तथा कड़ी मेहनत करने के बाद पत्नी प्राप्त होती है। इसे सेवा विवाह भी कहा जाता है।

पत्नी-प्राप्ति का तीसरा साधन वरवधू के माता-पिता की सहमति से व्यवस्थित किया जानेवाला विवाह है। इस शताब्दी के आरंभ तक हिंदू समाज में बाल विवाह की प्रथा प्रचलित होने के कारण सभी विवाह इसी प्रकार के होते थेअब भी यद्यपि शिक्षा के प्रसार तथा आर्थिक स्वावलंबन के कारण वरवधू की सहमति से होनेवाले प्रणय अथवा गंधर्व विवाहों की संख्या बढ़ रही हैतथापि अधिकतर विवाह अब भी मातापिता की सहमति से होते हैं।

       एकविवाह की प्रथा मानव समाज में सबसे अधिक प्रचलित और सामान्य परिपाटी है। जिन समाजों में बहुभार्यता की प्रथा हैउनमें भी यह प्रथा प्रचलित है क्योंकि बहुभार्यता की प्रथा का पालन प्रत्येक समाज में बहुत थोड़े व्यक्ति ही करते हैं। उदाहरणार्थ ग्रीनलैंड वासियों को बहुभार्यतावादी समाज कहा जाता हैकिंतु क्राँज को इस प्रदेश में २० में से एक पुरुष ही दो स्त्रियों से विवाह करनेवाला मिला याने वहाँ केवल पाँच प्रतिशत पुरुष अनेक स्त्रियों से विवाह के नियम का पालन करनेवाले थे। एकविवाह की व्यवस्था का प्रचलन सबसे अधिक होने का बड़ा कारण यह है कि अधिकांश समाजों में स्त्री पुरुषों की संख्या का अनुपात लगभग समान होता है और एक विवाह की व्यवस्था अधिकतम नरनारियों के लिए जीवनसाथी प्रस्तुत करती है। युद्धकन्यावध की दारुण प्रथा तथा काम धंधों की जोखिम स्त्रीपुरुषों की संख्या के संतुलन को कुछ हद तक बिगाड़ देते हैंकिंतु प्राय: यह संतुलन बना रहता है और एकविवाह की व्यवस्था में सहायक होता हैक्योंकि यह अधिकतम व्यक्तियों का विवाह का अवसर प्रदान करता है। सभ्यता की उन्नति एवं प्रगति के साथ कई कारणों से यह प्रथा अधिक प्रचलित होने लगती है : पहला कारण यह होता है कि बड़ा परिवार आर्थिक दृष्टि से बोझ बन जाता है। घरेलू पशुओंनवीन औजारों तथा मशीनों के आविष्कार के कारण पत्नी की मजदूर के रूप में काम करने की उपयोगिता कम हो जाती है। संतान की प्रबल आकांक्षा में क्षीणता आना तथा सामाजिक गरिमा और प्रतिष्ठा के नए मानदंडों का विकास होना भी इसमें सहायक होता है। इसके अतिरिक्त स्त्रियों के प्रति सम्मान की भावना का विकासस्त्रियों की उच्च शिक्षा और दांपत्य प्रेम के नवीन आदर्श का विकास तथा सौतन के झगड़ों से छुटकारा भी एकविवाह तो समाज में लोकप्रिय बनाते हैं। पश्चिमी जगत में आजकल एकविवाह का नियम सार्वभौम है। हिंदू समाज में संतानप्राप्ति आदि के उद्देश्य पूर्ण करने के लिए प्राचीन शास्त्रकारों ने पुरुषों को बहुविवाह की अनुमति दी थी किंतु 1955 के हिंदू विवाह कानून ने इस पुरानी व्यवस्था का अंत करते हुए एकविवाह के नियम को आवश्यक बना दिया है।

       वैवाहिक विधियाँ:- लगभग सभी समाजों में विवाह का संस्कार कुछ विशिष्ट विधियों के साथ संपन्न किया जाता है। यह नरनारी के पति-पत्नी बनने की घोषणा करता हैसंबंधियों को संस्कार के समारोह में बुलाकर उन्हें इस नवीन दांपत्य संबंध का साक्षी बताया जाता हैधार्मिक विधियों द्वारा उसे कानूनी मान्यता और सामाजिक सहमति प्रदान की जाती है। वैवाहिक विधियों का प्रधान उद्देश्य नवीन संबंध का विज्ञापन करनाइसे सुखमय बनाना तथा नानाप्रकार के अनिष्टों से इसकी रक्षा करना है। विवाह संस्कार की विधियों में विस्मयावह वैविध्य है। किंतु इन्हें चार बड़े वर्गों में विभक्त किया जा सकता है।

पहले वर्ग में वर वधू की स्थिति में आनेवाले परिवर्तन को सूचित करनेवाली विधियाँ हैं। विवाह में कन्यादान कन्या के पिता से पति के नियंत्रण में जाने की स्थिति को द्योतित करता है। इंग्लैंडपैलेस्टाइनजावाचीन में वधू को नए घर की देहली में प्रवेश के समय उठाकर ले जाना वधूद्वारा घर के परिवर्तन को महत्वपूर्ण बनाना है। स्काटलैंड में वधू के पीछे पुराना जूता यह सूचित करने के लिए फेंका जाता है कि अब पिता का उसपर कोई अधिकार नहीं रहा।

दूसरे वर्ग की विधियों का उद्देश्य दुष्प्रभावों को दूर करना है। यूरोप और अफ्रीका में विवाह के समय दुष्टात्माओं को मार भगाने के लिए बाण फेंके जाते हैं और बंदूके छोड़ी जाती हैं। दुष्टात्माओं का निवासस्थान अंधकारपूर्ण स्थान होते हैं और विवाह में अग्नि के प्रयोग से इनका विद्रावण किया जाता है। विवाह के समय वर द्वारा तलवार आदि का धारणइंग्लैंड में वधू द्वारा दुष्टात्माओं को भगाने में समर्थ समझी जानेवाली घोड़े की नाल ले जाने की विधि का कारण भी यही समझा जाता है। 

तीसरे वर्ग में उर्वरता की प्रतीक और संतानसमृद्धि की कामना को सूचित करनेवाली विधियाँ आती हैं। भारतचीनमलाया में वधू पर चावलअनाज तथा फल डालने की विधियाँ प्रचलित हैं। जिस प्रकार अन्न का एक दाना बीसियों नए दानें पैदा करता हैउसी प्रकार वधू से प्रचुर संख्या में संतान उत्पन्न करने की आशा रखी जाती है। स्लाव देशों में वधू की गोद में इसी उद्देश्य से लड़का बैठाया जाता है।

चौथे वर्ग की विधियाँ वर वधू की एकता और अभिन्नता को सूचित करती हैं। दक्षिणी सेलीबीज में वरवधू के वस्त्रों को सीकर उनपर एक कपड़ा डाल दिया जाता है। भारत और ईरान में प्रचलित ग्रंथिबंधन की पद्धति का भी यही उद्देश्य है।

      विवाह की अवधि तथा तलाक

इस विषय में मानव समाज के विभिन्न भागों में बड़ा वैविध्य दृष्टिगोचर होता है। वेस्टरमार्क के मतानुसार सभ्यता के निम्न स्तर में रहने वालीआखेट तथा आरंभिक कृषि से जीवनयापन करनेवालीश्रीलंका की बेद्दा तथा अंडेमान आदिवासी जातियों में विवाह के बाद पतिपत्नी मृत्यु पर्यत इकट्ठा रहते हैं और इनमें तलाक नहीं होता। जिन समाजों में विवाह को धार्मिक संस्कार माना जाता हैउनमें प्राय: विवाह अविच्छेद्य संबंध माना जाता है। हिंदू एवं रोमन कैथोलिक इसाई समाज इसके सुंदर उदाहरण है। किंतु विवाहविच्छेद या तलाक के नियमों के संबंध में अत्यधिक भिन्नता होने पर भी कुछ मौलिक सिद्धांतों में समानता है। तलाक का मुख्य आधार व्यभिचार है क्योंकि यह वैवाहिक जीवन के मूल पर ही कुठाराघात करनेवाला है। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य कारण भी है।

विवाह का सामाजिक महत्व क्या है?

विवाह का एक सबसे बड़ा महत्व यह भी है कि, यह व्यक्ति पर सामाजिक नियंत्रण स्थापित करता है। विवाह के बाद व्यक्ति समाज के प्रचलित नियमों का कठोरता से पालन करता है तथा वह अपने आचार विचार सामाजिक मान्यताओं के दायरे में रखता है।

विवाह का क्या महत्व है?

विवाह, जिसे शादी भी कहा जाता है, दो लोगों के बीच एक सामाजिक या धार्मिक मान्यता प्राप्त मिलन है जो उन लोगों के बीच, साथ ही उनके और किसी भी परिणामी जैविक या दत्तक बच्चों तथा समधियों के बीच अधिकारों और दायित्वों को स्थापित करता है। एक विवाह के समारोह को विवाह उत्सव (वेडिंग) कहते है।

विवाह से आप क्या समझते हैं विवाह के उद्देश्य क्या है?

विवाह का शाब्दिक अर्थ है, 'वधू को वर के घर ले जाना । ' • विवाह स्त्री-पुरुष के पारिवारिक जीवन में प्रवेश करने की संस्था है। मरडॉक के अनुसार सभी समाजों में विवाह के तीन उद्देश्य हैं - यौन संतुष्टि, आर्थिक सहयोग, संतानों का समाजीकरण एवं लालन-पालन। हिन्दू धर्म में विवाह को एक संस्कार माना गया है।

हिन्दू विवाह का शाब्दिक अर्थ क्या है?

हिंदू धर्म में विवाह को सोलह संस्कारों में से एक संस्कार माना गया है। विवाह = वि + वाह, अत: इसका शाब्दिक अर्थ है - विशेष रूप से (उत्तरदायित्व का) वहन करना। पाणिग्रहण संस्कार को सामान्य रूप से हिंदू विवाह के नाम से जाना जाता है।