विद्यापति बिरही नायिका से क्या कहते हैं - vidyaapati birahee naayika se kya kahate hain

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प्रकाराक 
सुस्तक-संडार, लहेरियासराय ( बिहार-्प्रान्त 


सवाधिकार सुरक्षित 


सुद्रक--रा० ना० लाल, विद्यापति प्रेस, लहेरियासरत्य 


विद्यापति की पदावली 


[ टिप्पणी-सहित | 
हा प 
श्रीरामदक्ष मसिरी्‌ 


बालचंद बिज्जावई-भाषा | दुहुु नहि लग्गई दुब्जन-हासा । 
ओ परमेसर हर-सिर सोहई। ह निश्चय नाअर-मन सोहई ए 
-विद्यापति-कृत 'कीतेन्लतः 


संशोधक 


कुमार गंगानन्द सिंह, एस. ए., एस्‌. एल. ए. 


 पुस्तक-मंडार, लहेरियासराय ओर पटना 


समपंण 


हिन्दी के उन सफल समालोचको” के कुशल करों में . 
लो श्रपने फतवे को श्रकात्य श्रौर अलंघनीय साबित फरने के लिये 
लिवरत्ता में दस रत्न घुसेड़ सकते हे, 
जो दिव! को श्रेष्ठ सिद्ध करते के लिये 'बिहारो' को, 
एवं बिहारी को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिये 
कितने अन्य कवियों की 
कीत्ति पर 


सफाई के साथ पर्दा डाल सकते हे, 
नो किसी विशेष फबि के श्रद्धालु समर्थको को 
नीचा दिखाने के लिये 
वास को झाकाश पर चढ़ा सकते हे 
तथा 
जो 'केशव' फो कवितः में तुलसी” की कविता से 
। श्रधिक काव्य-गुए पाते हें+- 
अभिनवजयदेव 
मेथिलकोकिल 


विद्यापति की पदावली 
ह का 
यह संक्षिप्त संकलन 
उनके नोसिख संकलधिता हारा 
सादर, सविनय ओर सभ्रय समर्पित ) 


मेथिल गेकि 
'फोफिल 
कोकिल की कत्लकंठता कितनी मधुर, कित्तनी सरस ओर कितनी 
हृदयन्याहिणी होती है, इसका परिचय इसीसे मिज्ञता है कि जब 
संस्कृत के सहृदय विद्वानों को कविकुल्लगुरु महर्षि वाल्मीकि की 
चंदना के लिये जिह्ला खोलनी पड़ी तब उन्होंने यही कहा-- 
कूजन्त रामरामेति गधुरं मधुराक्षरमप्‌ । 
आरुह्म कविता-शार्खा बन्दे वाल्मीकि-कोकिलम्‌ |! 
इस एक श्लोक ही सें जो समस्त गुण आदिकधि की रचनाओं 
में हैं, उन्नका व्यापक निरूपण है, थोड़े-से शब्दों मे ही बहुत-कुछ कह 
दिया गया है । इसी प्रकार भारती के वरपुत्र विद्यापति की लोको- 
त्तर रचनाओं का परिचय देने, उनके मसाघुये, प्रसाद, सरसता और 
मनोमुग्धकारिता की व्याख्या करने के लिये उनको मेथिल-कोकिल' 
कह देना ही पर्याप्त है। आप मेथिली भाषा-राकारजनी के राकेश 
ओर कविला-कामिती के कमतीय कानन्‍्त है। आपकी कोकिल-- 
काकल्ली-कल्ित मधुसयता, कोमल्ल-कान्त पदावली, भावुक-हृदय- 
विभीहिनी भावुकता, ओर नव-नव-भावोस्मेषिणी प्रतिभा देखकर 
चित्त विमुग्ध हो जाता है। आपके इन्हीं गुणों की आकर्षिणी शक्ति 
का यह प्रभाव है कि केवल मैथिलीभाषा को ही आपका गब, नहीं _ 
है, बंगभाषा और हिन्दी-भाषा-भाषी भी आपको अपनाने में 
' अपना गोरव सममते है, और आज भी हृदय से आपका अभि- 
नन्दन करते है । तीन-तीस प्रान्तों में समान भाव से समाहत होने 
का गुण यदि किसी कविता में है, तो आपकी ही कविता में है, 
अन्य किसी को कविता को आज तक यह महत्त्व नहीं प्राप्त हुआ । 
, खेद है, ऐसी अपूर्वे रचना का समुचित प्रचार अब तक, प्रत्येक 


प्रान्त में नहीं हुआ। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये यह संग्रह तैयार 
किया गया है। संग्रहकत्तों ने उनको उत्तमोत्तम रचना-कुसुमावत्ली 
में से सरस-से-सरस सुपनों के संग्रह करने में जिस मधुप-बृत्ति का 
परिचय दिया है, उसकी मूयसी प्रशंसा की जा सकती है। पाद- 
टिप्पणियाँ तो सोने मे सुगन्ध है। यदि आपलोगो ने इसका समुचित 
समादर किया तो अतीव सुन्दर आकार-प्रकार मे उक्त कविपुंगव 
की अधिकांश रचना आपक्ोगों के कर-कमलो में अर्पित की 
जावेगी । उस ससय मैं एक वृहत्‌ भूमिका-द्वारा इसी महान्‌ कवि 
की रचनाओ पर समुचित प्रकाश डालने की चेष्टा करूँगा । आज 
इन कतिपय पंक्तियो को लिखकर ही संतोष ग्रहण करता हूँ | 


हिन्दू-विध्ब विद्यालय, ( अयोध्यासिह उपाध्याय 
काशी ः 


९ 
द्वितीय संस्करण 

हिन्दी-भाषा के प्रेमियों ने जिस प्रकार विशद्यापति क्षी पदाधली 
के इस सचित्र-पटोक-संकखन के प्रथम संस्करण को अ्रपनाया है 
उसका भ्रतुभव कर सें नितान्‍्त सुखी हूं । आ्राज्ञ इस संकलन क्वा दूसरा 
। संस्करण प्रकाशित होने जा रहा है। इछ उपलक्ष सें सहदपण प्रकाशक 

| महोदय तथा संकलयिताजी को थे बधाई देता हों | 
!.. प्रकाशकजी के अनुरोध से बाध्य होकर संशोधन फरने की दृष्टि 
। से मेने इसकी पुनरातृत्ति, की । मुख्यतः: यह श्रीयुत नर्मेन्रनाथ गुप्त फे 
“संकलन पर अवलस्बित है । जब तक उस संकलन क्षी परीक्षा प्राचीन 
: हस्तलिखित प्रस्थों के सहारे न छी जाएगी छब तक्ष सूल पदों पर 
, कलम लगाना अ्रनुचित होगा | पर इसके लिये छितना अ्रवक्षाश चाहिये 
वह मुझे नहों सिल सका । इस संकलन की बड़ी भाँग है, श्रतएव 
श्रधिक दिनों तक इसे श्रप्रकाशित रखना भी उचित नहीं है । मूल पदों 
के पाठ को सेते ज्यों-का-त्यों रहने दिया है; वर्योकि इससे शुद्ध पाठ श्रढ 
तक पाठकों छो देखने का सौभाग्य नहीं हुआ है और वे इससे अधभ्यस्त सा 
हो गये है। बिना प्रमाण के इसमें यदि हेरफेर किया जाय तो "केसे ? 
हाँ, कई ध्यानों से मुझे सन्देह उत्पन्त हुए थे, पर उसका निराक्षरण 
ते तक नहों हो सकेगा जब तक हस्तलिखित प्राचीन पुस्तकों को में 

से देख गा | 

टीका से सेने जहाँ -तहाँ कुछ हेरफेर (केया हैं। धमक्वालीन साहित्य 
है अभाव के कारण विद्यापति की पदावली का श्रर्थ लपना सब स्थानों 
' में सवेधा विवाद-झून्य नहीं रह सकता | लोग समझते होंगे कि मेथिल 
इन सेबिलो पदों फो श्रच्छो तरह समझते होंगे | यद्यपि साधार एातया 
पहे ठीक है, पर सम्पुण तया नहीं | श्राधुनिक सेथिली विद्यापति के 


पा 


घनन्‍्यवाद 
इस पुस्तक के पदों के संकलन में मुझे नर्मेच्रताय गुप्त द्वारा 
सम्पादित और जह्टिस शारदाचरण मित्रा द्वारा प्रकाशित बेंगला 
(विद्यापतिर पदावली' से श्रधिक सहायता मिली है, अ्रत: इव सज्जनो 
का से श्रत्यन्त श्रनुग्रहीत हूं । 'विद्यापति का परिचर्या लिपने में उक्त 
पुस्तक, 'मैथिल होकिलश्ल॒ विद्यापति', 'हिस्दी श्रॉ८ तिरहुत' एवं मिथिली- 
दर्षश' से सहापता मिली है; ध्रतः इसके लेखक भी मेरे धन्यवाद फ्े 
पात्र हु | 
हिन्दू विश्वविद्यालय के श्रध्यापन एवं कविता-रचना से अपना 
प्रमल्य समय बचाकर इस छोटे-प्ले धंग्रह के लिये एक छोटी-किन्तु चोखी' 
भूमिका-लिख देने के लिये प० श्रयोध्यायजी का से चिर-ऋणो हूं । 
घुहदुवर बाबू शिवपुजनसहाय, श्रद्धय प० जनादंन भा, श्री 
जगदीइवर शोका, 'मैथिलो'-सम्पादक बाब छदितनारायएालाल दास, 
मित्रवर श्री रासदाथ 'सुसन' प्रिय विक्लल' 'आदि नें इंस संग्रह को 
उपयोगी बनाने में भरी सहायता को है; इसके अति से 


से श्रपत्ती हादिक 
कृतज्ञता प्रकट करता हू । 


सदसे श्रधिष्ट वन्‍्यवाद फे पात्र हे पुस्तक-संडारः के प्राएं बाव 
रामलोचनप्नारणजोी, जिनके उत्साह-दान से हो यह पुस्तक लिखी गई है 


ओर जिग्होंने इसे सुलल श्र सुन्दर बनाने सें कुछ भी उठा चहीं 
रबखा है । 


--श्रीवेनी पुरी 


विद्यापति का परिचय 


परएकए +#छ8ते6७ 0 $+9०७  5४७०परगपा] 8666607 .. 6 
पए०एशाध१8 फु0७एड व8 5प76  $0.. 9७ #6श876660. छा 
वाह. भाव ए]888प78. +#66 ६7७ 0 6. +प्रा। 6 
ताप एछप्राष्ठप्रा8, | 

“- 36 “?609]6? , [48॥07९. 
प्रस्तुत पुस्तक में विद्यापति के संबन्ध में जितनी जानने योग्य 
बातें हें उन सबका बहुत श्रच्छी तरह विवेचन किया गया हैं। 
यह संस्करण बहुत ही श्रच्छा निकला । पाद-टिप्पएियाँ बहुत ही 
उपयोगी है । इस संस्करण को उपयोगिता के विषय मैं हम केवल 
यही कह सकते हें कि हमारे “ एक मित्र; जो हिन्दी-साहित्य से 
सर्वथा विरक्त थे, इन पादटिप्पणियों की सहायता से “विद्यापति' 
का अध्ययन करके ही “हिन्दी-साहित्य' के उपासक बन गये । 


-“ साधुरी!ः (लखनऊ ) 


जन्सस्थान 


विद्यापति का जन्म दरभंगा जिले के “बेनीपद्दी? थाने के अन्तर्गत 
धवब्रिसपी! गाँव में हआ था। दरभंगे से जो रेलगाड़ी उत्तर-पश्चस का आर 
जाती हैं, उसका तीसरा स्टेशन 'कमतौल' है। कमतोल से लगभग चार 
मील पर यह गाँव है। विद्यापति के एूर्जज बहुत दिनों से यहाँ वास 
करते थे । इस गाँव का पहला नाम गढु-विसपी! था। इनका यह गाँव, 
इनके आश्रय-दाता राजा शिवासह का आर से; उपहार-स्वरूप मला 
था । इस दान का तातन्नपत्र भो ग्राप्त हुआ हैं। उस ताज्नपत्र का डे 
अंश यहाँ दिया जाता है-- 
स्वस्तिश्नागजरथपुरात समस्तग्रक्रियाविराजसानश्री सद्गरामेब्चरी वर- 
लव्धप्रसादभवानीभवभक्तिभावनापरायणरूपनारायण_ सहाराजापिराज- 
श्रीमडिछुवसिहदेवपादस्समरविजयिनो जरैल तप्पायां [बसपी! ग्रासमवा- 
स्तव्य सकललोकान्‌ भूकपकाँश्व समा[दशान्‍्त । ज्ञातुमस्तुभवताम्‌ | 
ग्रामौउ्यमस्मामिः सम्रक्रियाभिन वजयदैव सहाराजपाउत उक्कर शरीविद्या- 
पतिभ्यः गासनी कृत्य प्रदत्तो5तो व्यमेतेपाँ वचनकरा भूकप णादिकम्सकरि- 
प्यथेति ॥ ल० सं० २५३ श्रावण शादि ७ गुर | 
इनके गंज्ञघर बहुत दिनो तक इसी गांव मे बसते रहे । किन्तु 
इधर चार पुण्त पहले; वे इस गाँव को छुडिकर इसी जिले के 'सौराठः 
नामक गाँव में बस गये हैं। अंगरेजी राज्य है पहले तक वे लोग इस 
गाँव का उपभोग; लाखिराज के रूप मं) करते थे। किन्तु अगरेजी सरकार 
द्वारा से ( पेमाइश ) होने के समय इस गाँव का स्वत्व इनक उैंशघरो 
से छीन लिया गया। उस समय इनके जॉंशघरों ने जपना स्वत्व सछ 
करने के लिये उपयुक्त ताम्रपन्र पेश किया था| इस ताम्रपत्र के सम्बन्ध 
खूब विवाद चला। म्रिजसन साहब इसे जाली बताते 


में कुछ दिनों तक 
रहे । किन्‍त महामद्रोपाध्याय हरसाद जआखी तथा अन्य गंगोय अनु- 


संधान-कर्चाओं ने इस दान-पत्र को आमाणखिक माना हैं । 


विद्यापति 
(&%"*७.,“६-७> 


अप [ ही >> + 

४बिसपी” गाँव इनको दिवसिह ने अवश्य दिया था। विद्यापति के 

पुत्र सिद्ध, बिद्वेपी पंडित केशव मिश्र इसी दान की ओर लक्ष्य कर आते 
छुब्ध नगर-याचक! नाम से इनका उपहास किया करते थे । 


बंगाली नहीं, बिहारी 


इन्हें गंग-देशीय सिद्ध. करने के लिये भी कोशिश हुई थीं। 
बात यों है कि इनकी अधिकाँश रचनाएँ श्टंगार-रस से ओोत-प्ोत 
हैं। भारतीय शंगारी कवियों के प्रधान डपास्थ देव हं--राधाकृष्ण। 
संस्कृत और त्रज-साथा का ंगार-साहित्य राधाकृष्ण की केलि-क्रीडाओं 
से भरा पड़ा है। इन्होंने भी अपने पदों मे राधाकृष्ण की लीलाओं का 
वर्णन किया है और खूब किया है। इस विपय के ऐसे मधुर और 
कोमल पद भापा-साहित्य में कहीं अन्यत्र मिलना कठिन है । 
जिस समय बंगाल में चेतन्य महाप्रश्नु का आविभाव हुआ, उस 
समय इस कवि-कोकिल की काकली मिथिला की गली-गली को रसछ्ला- 
वित कर बंगाल के श्यासल व्योम मंडल को गुजा रहा था। चेतन्यदेव 
के कानों सें भी इसकी सधुर ध्वनि पड़ी। सुनते ही वे मंत्र-मुग्ध हो 
गये। थे हँढ-हँढुकर इनके पद गाने लगे। इनके अलोकिक पदों को 
गाते-गाते प्र मावेश में; वे मूचिछित हो जाते थे ! 
चैतन्यदेव भारत के अवतारी पुरुषों में हैं--ऐेसा सौभाग्य प्राप्त 
करना विद्यापति के लिये कितने गौरव की बात है ! 
चैत्तस्यदेव को शिष्य-परम्परा से ,विद्यापत्ति के पद गाने की प्रथा 
अनुदित बढती गई । यहीं नहीं, विद्यापति के ही अनुकरण पर क्ृप्ण 
दास, नरोत्तमदास) गोविन्ददास&, ज्ञानदास, श्र।निवास, नरहरिदास 
आदि जंगीय कवियों ने कविताएँ बनाना प्रारम्भ किया । 








# गोविन्दशास” मैथिल कवि थे। इनके पदों का सटिप्पण संग्र६ 
गोविन्द्गीतावली? नाम से 'पुस्तक-भंडार' द्वाराःप्रकाशित हो चुका है | 
ब्‌ 


परिचय 


(6७, “७-७४22 
बावू नगेन्द्रनाथध गुप्त लिखते हें--“विद्यापतिर जे रूप अनुकरण 
हइआंछुल, बोध हय कोन देशे कोन कविर तद्ध प हय नाइ। '' ताहॉाँरइ 


भसापा भॉगिया-चूरिया, गड़िया-गठिया, रूप-रस, छुन्दोबंघ, भाव-भंगी, 
शब्द; उत्प क्षा; उपसा, तॉहारइ पदावली हइ़ते लइ॒या लोकमनोमोंहन 
वैष्णवकाव्यसमूह सजित हइल ।? 

श्रीत्रेलोक्यनाथ भद्दाचा्य, एस्‌० ए०, बी० एल० ने जो लिखा था 
उसका भाव देखिश्रे--“'विद्यापति और चंडीदास की अतुलनीय प्रतिभा 
से समस्त गंग-साहित्य उज्ज्वल और सजोव हुआ है। वैष्णव गोविन्द- 
दास और ज्ञानठास से लेकर हिन्दू गंकिमचन्द्र ओर ब्राह्य रवीन्द्रनाथ 
ठाकुर तक सब ही उनलोगो की आभा से आलोकित हैं, और उनलोयगों 
का अनुकरण करके कविता-रचना में व्यस्त पाये जाते है |?” 

फल यह हआ कि विद्यापति बंगालियों के रगरग में अवेश कर गये । 
सैकड़ों वर्षों तक लगातार बंगालियो द्वारा गाये जाने के कारण इनके 
उंगदेशीय पदों का रूप भी ठेठ बँगला हो गया। अब तो बंगाली लोग 
यह सर्जथा भूल ही गये कि 'विद्यापति बंगाली नही, मैथिल्ञ थे! । 

बंगाली भाई अपनी कुशाप्र बुद्धि के लिये प्रसिद्ध है। उन लोगो 
ने इनका निवास-स्थान भी बंगाल ही में हँढ निकाला ! यही नहीं, 
“शिचसिह”ः नामक एक बंगाली राजा भी कहीं से 'टपक पडें--“रानी 
लखिमा देवी? भी मिल गई ! यों सब प्रकार से सिद्ध हो गया कि! 
विद्यापतति ठेठ बंगाली थे ! 

बेंगला १२८२ साल में ( स्वर्गीय ) राजकृप्ण सुखोपाध्याय ने पहले- 
पहल “बद्भादशन! नासक पत्र में यह प्रकाशित किया कि “विद्यापत्ति 
बंगाली नहीं, मैथिल थे” | इसके प्रमाण में उन्होने उपयुक्त ताम्रपन्र 
आदि पेश किये | फिर तो सारे बंगाल सें कोलाहल मच गया । विद्यापति 
पर बंगाली लोग इतने फिदा थे कि उनका अन्यदेशीय सिद्ध होना वे 
सुनना नहीं चाहते थे । 

उस समय एक प्रसिद्ध बेंगला-लेखक ने यह अन्दाज लड़ाया था कि 
विद्यापति बंगाली ही थे--पहले बंगाली लोग मिथिज्ञा में विद्याध्यय्नन को 


३ 


विद्यापति 


<७-“७ ७? 


जाते थे--सम्भव हें, विद्यापति यहाँ से विद्याध्ययन को गये हों और वहाँ 
अपनी प्रतिभा से राजा शिवसिह को प्रसन्न कर गाँव प्राप्त किया हों 
और बस गये हो । 


किन्तु थे सब गपोड़-बाजियाँ अब गलत साबित हो चुकी हैं । महामहों- 
पाध्याय हरपसाद शास्त्री, जस्टिस शारदाचरण मित्र; बोबू नगेन्‍द्र- 
नाथ गुप्त आदि सभी वंगीय विद्वानों ने यह कबूल कर लिया है कि थे 
मिथिला- निवासी थे और इन्होंने मैथिली सापा में कविता की है । 
हमें धन्यवाद देना चाहिये श्रेयुत ग्रिअसंन साहब को; जिन्होंने सबसे 
पहले विद्यापति का बिहारी होना सिद्ध किया था । 


जन्स-काल 


प्राचीन कवियों की तरह विद्यापति के जन्म और झत्यु के समय 
भी निश्चित नहीं हैं । किवदन्ती तथा स्फुट पदों के आधार पर ही इसकी 
विवेचना करना सम्म्रति संभव है। 

पता तो केवल इसी का लगता है कि लक्ष्मणाब्द २९३ या शकाब्द 

३२४ में देवसिह मरे थे, उसी साल शिवसिह राजगही पर बैठे थे, और 

राजगद्दी पर बेठने के छु. महीने के अन्दर उन्होंने विद्यापति को “बिसपी! 
गाँव उपहार में दिया था । 

शिवसिह के पिता देवसिह की झूत्यु के विषय में विद्यापति का एक 
पदु यो हे-- 
अनल रन्प्रं कर लक्खन नरवइ सक समुहं कर अर्गिनि ससी' | 
32523 छठि जेठा मिलिओ बार बेहप्पय जाहु छसी ॥ 
*बासह जू पुहुंस छड्टिअ अद्धासन सुरराय सरू | इत्यादि 


| त्तनठ सहाय हे व ६++ ४ ५ [माप + में 

 ब.बू ऋ्रज चर न्‍्द्न हाय ने अपने सशथिल-कोकिल विद्यापति! अंथ में 

लिखा है के 'पवसपत गाँव आाप्त करने के समय विच्ञापति की अवस्था 

कवर तस वप के थ --इसके पहले विद्यापति ने “कीत्तिलता? नाम की. 

उस्तक उख। थी। इस अकार सहायजा उसे १६ की अवस्था मे लिखी 
ड् 


परिचय 
(७७, *७-७७४० 


हुई बताते हैं। सहायजी का यह कथन अनुमान-विरुद्ध तथा ऐति- 
हासिक प्रमाणों से अ्रप॒त्य सिद्ध होता है । 

सबसे प्रधान कारण तो यह है कि शिवसिह गही पर बेठने के तीन 
वर्ष के बाद ही सुसलसानो से युद्ध करते हुए पराजित होकर किसी 
अज्ञात स्थान में चले गये; जहाँ ले वे पुन नहीं लोटे- सस्भवतः वे उसी 
युद्ध में मारे गये । इतिहास से यह & सिद्ध है, और स्वयं सहायजी ने 
भी इसे स्वीकार किया है। इससे तो यही सिद्ध होता है कि कुल तेईस 
चपे की अवस्था तक हा विद्यापति और शिव सिंह की संगति रही । 

विद्यापति के अ्रधिकाँश पदों में शिव्सिह का नाम है। क्‍या यह 
कभी सम्भव हो सकता है कि केवल तीन-चार वर्षो के अन्दर ही इतने 
पद लिखे गये हों ? अनुमान की बात जाने दीजिये, इतिहास भी इसके 
विरुद्ध है । 

सहायजी ने अपनी पुस्तक से लिखा है कि विद्यापति वचपन में 
अपने पिता “गणपति ठाकुर” के साथ राजा गणेश्वर के दरबार में आते- 
जाते थे। नेपाल- दरबार के पुस्तकालय मे विद्यापति रचित “कीतस्िलतए? » 
की पूरी पुस्तक महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्रीजी ने देखी थी और 
उसकी नकल भी उन्होंने करा ली थी । उस“कीत्ति-लता मे लिखा हुआ है 
कि २०२ लक्ष्सणाब्द में राजा गणेश्वर की झत्यु हुई थी। अतः राजा 
गणेश्वर की झत्यु के पहले तो विद्यापति का जन्म अवश्य हो गया 
होगा--वे ऐसी अवस्था के जरूर रहें होंगे कि दरबार में अपने पिता के 
साथ जा सके । २९२ लक्ष्मणाब्द सें यदि विद्यापति केवल २० वर्ष के थे, 
तो २५२ लक्ष्मणाब्द मे, वे राजा गणेश्वर के दरबार में केसे आ-जा सकते 
थे--डस समय तो उनका जन्म भो न हुआ होगा ! 





# मिथिला दर्पण? के रचयिता ने देवसिह के बाद शिवधिह का ४६ 
वर्षों तक राज करने की बात लिखी है। किन्तु 'मिथिलादपंश” का काल- 
निर्णय नितांव भ्रशुद्ध जान पढ़ता है। यहाँ तक कि उधमें दी हुई राजाश्रों 
की वंशावली भी अशुद्ध है ।--लेखक 


रण 


विद्यापति 
<8७,“७-७? 


बात यो है कि सहायजी को बाबू अ्रयोध्याप्रसाद खन्नी-लिखित 
धमेथिला-राज्य की बंशावली! ने धोखा दिया है। खन्नीजी के कथनाइसार 
शिवसिह के पिता देवसिह की झत्यु १४४६ इसचो से हुई था; जा 
लक्ष्मणाब्ठ २४७ होता है &। सहायजी ने स्वयं इसका खंडन एकेया हद; 
क्योकि विद्यापति के कथनानुसार लध्मणाब्द २९४ मे देवासह का रव्यु 
हुई था। यो खन्नीजी ने सहायजी के गणनानुसार ४६ वर्ष की भूल को ह# ! 


किन्तु एक जगह खत्नीजी के समय को रालत मानकर भा दूसरा 
जगह सहायजी ने उसे प्रामाणिक मान लिया है ! 'दुर्गाभक्ति-तरंगिणा? 
नामक पुस्तक विद्यापति ने राजा नरसिहदेव के समय में लिखना 
शुरू किया था; और उनके वाद के राजा धीरसिह्द के समय से समाप्त 
किया था। नरसिहदेंव का समय खन्नीजी ने १४७० ६० लिखा हैं। - 
सहायजी ने इस समय को प्रामाणिक मान लिया है ! 

जब १४७० ३० के वाद तक विद्यापति के जीवित रहने की बात 
स्वीकार कर लो गई; सब उनके जन्‍्म-संवत्‌ को आगे बढ़ाना 
सहायजा के लिये जरूरी था। किन्तु सोचना तों यह था कि जिस 
प्रकार देवासिह को झूत्यु के विषय से खन्नीजी ने ४६ वर्ष को भूल की है; 
वही ४६ वर्ष की भूल यहाँ भी की होगी | खन्नीजी की यह भूल भी 
इतिहास-सिद्ध है । 

स्वयं सहायजी ने अपनी पुस्तक के पृष्ठ २० से लिखा है कि नरसिह- 
देव के पुत्र धीरसिह के राजस्वकाल मे 'लेतु॒बंध” नामक प्राकृत-अंथ की 
“'सेतुदर्पणी? नामक टीका लिखी गई थी, जिसके अनुसार ३२१ लक्ष्मणाब्द 





# लेदमणाब्द श्रोर ईसवी सन्‌ के तारतम्य में भिन्न-भिन्न ऐतिहासिकों 
के मित्र-मिन्न मत हैं। सहायणी ने शिवसिह के राज्यारोहण काल (२६३ 


ल० स० ) को १४०० ई० माना है, 'हिस्ट्री आफ तिरहुत' के रचयिता ने 


इसे १४१२ ई० लिखा है, और मेरे हिसाच से यह १४०२ ई० पड़ता 
है देसक 


ध्‌ 


परिचय 
(४२»,*&#& 


में धीरसिह सिहासन पर विराजमान बतलाये गये है । ३२९१ लक्ष्मणाब्द 
१४२८ ४० में पड़ता है ७ । सोचने की बात है कि जब पुत्र १४२८ ४० में 
राजगद्दी पर बेठा था; तब उसका पिता १४७० में कैसे राजा हुआ ? बस; 
साफ प्रकट है कि खतन्नीजी ने यहाँ भी ४६ वर्ष को गलतो का है । 

१४७० में ४६ घटा देने पर १४२४ ६० में नरसिहदेव का राजा होना 
सिद्ध होता है । नरसिहदेव ने; सहायजी के ही कथनानुसार; एक हां 
चष तक राज किया था। सम्भव है, १४२८ में वे सर गये हो और १४२८ 

में उनके पुत्र धीरसिह राजगद्दी पर विराजमान रहे हों। 'सेतुद्पंणी' से 
भी यहीं पता चलता है । 

इसो ४६ वर्ष के फेर मे पड़कर जहाँ सहायजी ने केवल २० वर्ष को 
अ्रवस्था में शिवसिह और विद्यापति की भेंट कराकर तीन ही वर्षा में 
उनका चिरवियोग कराया; वहाँ. विद्यापत्ति की गताधिक वर्ष की अवस्था 
का भो अ्रम उन्हे हो गया था--जिसका आऔचित्य प्रमाणित करने के लिये 
आपने जमीन-आसमान का कुलावा मिलाया है, निजी और सार्वजनिक 
सब प्रमाणों को पेश किया है । 


सहायजी को एक और तिथि ने भा धोखा दिया है। आपने प्ृष्ट २३ 
मे लिखा है कि ३४५ लक्ष्मणाव्द मे इनके अपने हाथ से भागवत-पोथी 
की सकल करना सिद्ध होता है.। यह गलत है। नगेन्द्रनाथ गुप्त ने मथिल 
कविवर “चंदा झा? के साथ स्वयं 'तरोनी”? जाकर उस पुस्तक को देखा 
था । उस पुस्तक के अंत मे लिखा है-“शुभमस्तु सर्वाथगता ल्० सं० ३०९ 
श्रावण शुदि १५ कुजे राजाबनौली गआमे श्रोविद्यापतिलिपिरियमिति ।”? 
इस ३०९ को ही सहायजी ने श्रमवण ३४९ मान लिया है ! 

अरब यथार्थ बात सुनिये। वह इतिहास और जनश्रुति दोनों पर 
अवलस्बित है, और आपको युक्तियुक्त भी मारूम पड़ेगो । 

एशियाटिक सोसाइटी मे एक प्राचीन हस्तलिखित पोधी है, जो 

१३२२ दकाब्दु ( 5२९० लक्ष्मणाब्द ) की लिखी हुई है। वह पोधी 





# संहायज्ञी की गणना के अनुसार |--लेखक 


विद्यापति 
<#<% “७-४7 


शिवसिह की राजधानी “गजरथपुर” में विद्यापति की प्रेरणा से लिखी 
गई थी । दो ब्राह्मणों ने उसे लिखा था। उसमें विद्यापति को भसप्रक्रिय 
सदुपाध्याय ठक्कुर श्र! विद्यापति! लिखा है; शरीर शिवसिह का नाम 
धपहाराजा? की उपाधि से युक्त है । 


इससे दो बातों का पता चलता है। एक यह कि शिवसिह अपने 
पिता के जीवनकाल में ही “महाराजा” कहलाते थे। | माछम होता है; 
बुद्ध. पिता ने अपना शासन-भार पुत्र को ही साँप दिया था और जनता 
शिवसिह को ही अपना अधिपति सानती थी। ] दूसरी बात यह प्रकट 
होती है कि शिवसिह के सिहासनारोहण के' पहले से हो विद्यापति 
दरबार मे रहते थे। देवसिह के नाम से विद्यापति ने कुछ पद भी 
बनाये हैं । 


हाँ; तो यह सिद्ध है कि पिता की झत्यु के पहले से ही शिवसिह 
राज्य-शासन करते थे। मिथिला में यह जनश्रुति है. कि शिवसिह पचास 
चप की अवस्था में राजग्ी पर बैठे थे और विद्यापति उनसे दो वर्ष बड़े 


थ्रे। अभ्रतः शिवसिह के राज्यारोहण के समय विद्यापति की अवस्था 
ण२ वर्ष की थी । 


यदि यह जनश्रुति तथ्यपूर्ण सान ली जाय; ता आयः हम सत्य के 
रनेकट पहुँच सकेंगे; क्योंकि विद्यापति को उपयुक्त ताम्नपन्न में अभिनव 
जयदेंव” लिखा है। उस समय तक विद्यापति की की चारों ओर फेल 
गई रही होगी। इनकी कविता के साधु पर झुग्ध होकर लोग इन्हें 
अभिनव जयदेव”? कहने लगे थ्रे। इनकी कविता राजा के अन्तःपुर से 
लेकर गरीबों की फ्लोंपड्ियों तक में गज रही थी। राजसिहासन पर बैठने 
के समय शिवसिह अपने प्यारे सहचर विद्यापति को कैसे भूल सकते थे ? 
जिसकी कविता-सुधा का पान कर वे सस्त बने थे; जिसकी कविता उन्हें 
ओर उनकी सहर्धर्सिणी 'लखिमा? को अमर कर चुकी थीं, उसे वे कैसे 
कुद्ध पुरस्कार न देते १ अत्तः राजगढी पर बैठने के कुछ हीं! दिनों के बाद 
उन्होंने विद्यापति को 'विसपी! गाँव प्रदान किया ! 


"मम 


परिचय 
 ७>37<#% 


न [9 


बिसपी गाँव २९३ लक्ष्मणाब्द्‌ में विद्यापति को दिया गया था। 
उस ससय उनकी अवस्था लगभग ०२ वर्ष की होगी। अतः उनका 
जन्म २४१ लक्ष्मणावद में; या संवत्‌ १४०७ विक्रमोय ( ८ सन्‌ १३५० 
३० ) में, होना सम्भव है। 

इस कथन की पुष्टि पूर्वोक्त राजा गणेश्वरसिह के दरबार में विद्या- 
'पति के आने-जानेवाली बात से भी होती है। “कीत्तिलता? के अनुसार 
राजा गणेश्वर २८५२ लक्ष्मणाब्द मे परलोकवार्सी हुए थे। उस समय 
विद्यापति १०--११ वर्ष के रहे होगे। तभी तो इनके पिता इन्हें राज- 
दरबार में ले जाते थे । 


वंश-विवरण 


विद्यापति मैथिल ब्राह्मण थे। इनका मूल 'बिसइबारः ओर आस्पद 
ठाकुर? था। ६ 
मे 5 मे ० हे 6 [कप रे 
थिलों में पंजो-प्रथा का प्रचलन है। जितने मैथिल ब्राह्मण ओर 
३ न] हो ० 825. लिखे 
कण कायस्थ हैं, सभी के नाम; पुश्त-दर-पुश्त, एक पोथी मे लिखे हुए 
'है। इस पोथो को “पंजी? कहते हैं । 
पंजी से पता चलता है कि “गढ़्बिसपी” में कर्मादित्य जिपाडों 
नामक ब्राह्मण रहते थे। थे राजमंत्री थे | थे विद्यापति के वंश के आदि- 
|. पर किक कवि, 
पुरुष “विंष्णुशर्मा ठाकुर? के पोते थे । 
कर्मांदित्य के बाद इनके वंश में जितने महापुरुषों ने जन्म लिया; 
सभी तत्कालीन मिथिज्ञा के राजा के दरबार मे उच्च पदों पर काम करते 
रहें--कोई राजमंत्री थे, कोई राजपंडित--किसी को “महामहत्तक' का 
उपाधि प्राप्त हुईं, तो किसी को 'सान्घि-विश्नहिकः की । 
इनका वंश अपनी विद्वत्ता ओर बुद्धिमत्ता के कारण- उस समय 
साथला में बेजोड़ था। इनके वंश में कितने ही लेखक और कवि भी 
हो गये हैं । 
कर्मा दित्य के पोते वीरेश्वर ठाक्कर ने; जो नान्य-वंशी राजा शत्रुसिह 
हे ५९ 


विद्यापति 
<द७/“६#) 


एवं उनके पुत्र हरिसिहदेव & के राजसंत्री भी थे; 'छान्दोग्य-दद्यकमंपदति' 
की रचना की थी। श्रभी तक इसी पुस्तक के अनुसार बिहार में दुशकर्म 
किय्रे जाते हैं । 

वीरेश्वर के सोदर भाई धघीरेश्वर, जी विद्यापति के निज प्रपितामह 
थ्रे, 'महावात्तिकनैबन्धिक! नास से प्रख्यात थे। वीरेश्वर के पुत्र चण्डेश्वर 
ने 'कृत्य-चितामणि”, “विवादरत्नाकर'। “राजनीति-रत्नाकर! श्रादि 
सपघतरत्नाकरो की रचना की थी। “राजनीति-रत्नाकरः एक श्रत्यन्त 
बहुमूल्य ग्रन्थ है। आचीन भारतीय राजनोति पर इससे बहुत-कुछ 
प्रकाश पड़ता है । वे उपयुक्त हरिसिहदेव के मंत्रों एवं महामतक सान्धि- 
विग्हिक थे । 

विद्यापति के पिता पण्डित गणपति ठाकुर भो राजमंत्रो थे। वे एक 
अच्छे कवि थे। उन्होंने गंगासक्ति-तरज्ञिणी, नाम की एक पुस्तक की 
रचना को थी। 


। 

या देखा जाता है कि विद्यापति का वंश सरस्वती का अपूर्व कृपापात्न 
रहा है। जिस अकार इनके पूव॑जो ने राज्यकर्म मे अपनी अपू्व चातुरी 
दिखलाई थी; उसी प्रकार सरस्वती-सेवा मे भी थे लोग पीछे नही रहे है । 
ऐसे प्रतिभावान, कुल्त मे उत्पन्न होकर विद्यापत्ति ने जो ऊुछ काव्य- 
कुशलता दिखलाई है, वह स्वाभाविक ही है । 


प्रारम्मिक जीवन 


विद्यापति के पिता गणपति ठाकुर राजा गणेश्वर के समापंडित थे । 
इनकी माता का नाम था हाौसिनी देवी? । 


वह पिता धन्य है; जिसे ऐसा पुश्नरल्ल प्राप्त हुआ था। वह मात्ता भी 
धन्य है, जिसने ऐसे पुरुषरल्न को अपने गर्भ में धारण किया था। बिसपी 





कक # इरिसिंहदेव शिवसिंह से बहुत पहले प्रसिद्ध 'सिमरॉव गढ़? के 
अ्रधिषति थे । उन्होंने नेपाल को नीता था [--लेखक, 
१० 


परिचय 
<92७.,८७<७., 


गाँव का भत्येक कणा पुण्यसय और धन्य है, जहाँ ऐसे कविकोकिज्ञ ने 
अपना जीवन व्यत्तीत किया था । 


कहा जाता है, गणपति ठाकुर ने कपिलेश्वर महादेव की आराधना 
करके विद्यापति-सा पुत्र-रत्न प्राप्त किया था । 


विद्यापति ने सुप्रसिद्ध हरिसिश्र से विद्याध्ययन किया था और उनके. 
भतीजे सुख्यात पक्षघधर सिश्र इनके सहपाठी थे। विद्यापति अपने पिता 
के साथ राजा गणेश्वर के दरबार मे बचपन से ही आया-जाया करते थे। 

गणेश्वर के बाद कीत्तिसिह राजा हुए। विद्यापति उनके दरबार मे 
आने-जाने छगे। प्रारस्भ से ही इनसे प्रतिभा की रूलक दीख पड़ती थी । 
कीत्तिसिह के दरबार मे; मालूस होता है, थे कुछ श्रधिक काल तक रहे 
होगे, क्योंकि कीसिसिह के नाम पर ही इन्होंने अपना पहला अन्य 
“कोत्तलता? रचा था। यह पूरा ग्रन्थ नैपाल के राज-पुस्तकालय में है ! 
(साथला सें इस ग्रन्थ का केवल फुटकर अंश मिलता है। 

'कीप्तलता? कवि की तरुण वयस की रचना है । इसकी भाषा संस्क्रतत 
प्राकृत-मिश्रित मैथिली है। कवि ने इस भाषा का नामकरण “अवहद् 
भाषा किया है। “कीतिलत! के प्रथम पहलव मे कवि ने स्वयं कहा हैं-- 

देसिल बअना सब जन मिद्ठा। 
ते तेसन जम्पओ अवहडा॥ 

देशी भाषा सबको सीठी लगती है, यही जानकर मैंने अ्वहद्द भाषा 
में इसकी रचना की है |! 

किन्तु इस पुस्तक की रचना के समय; मारूम होता है, कवि अपनी 
काव्य-कुशलता के लिये बहुत प्रसिद्ध हो गये थे । इनकी भाषा पर सभी 
मुग्ध थे। इनका प्रतिहवन्द्दी उसी अवस्था में कोई नहीं था | थे अ्भिसान 
के साथ इस पुस्तक के प्रथम पललव में लिखते हैं-- 

बालचन्द बिज्ञावईइ भाषा। दुहु नहि लग्गइ दुज्भन हासा॥। 
आओ परमेसर हर-सिर सोहइ । इ निश्चय नायर-मन सोहइ ॥ 
११ 


विद्यापति 
<&9७,“ ७०७2 


“बाल-चन्द्रसा और विद्यापति की भाषा--इन दोनो पर दुष्टों की 
हँसी लग नहीं सकती । वह (बालचंद्रमा) देवता के रूप में शिव के सिर 
पर सोहता है और यह ( विद्यपति की भाषा ) निश्चय-पूत्रंक नागरों 
का--सुचतुर भाषा-पंडितों का--मन मोहती है |? 

इस पद के एक-एक दब्द से कवि का अभिमान टपकता है ! “जयदेव” 
के समान इन्हें भी अपनी भाषा पर नाज था। वात भा 
ठीक है। हस दावे के साथ कह सकते हैं कि भाषा की मिठास ओर 
कोमलता को दृष्टि से तो इनका कोई भो अतिद्व॑द्वी हिन्दी-साहित्य में 
नहीं है। 


कोततिसिंह के बाद शिवसिह के पिता देवसिह राजा हुए | देवसिंह 
के समय में राज्यशासन का भार शिवसिह के ही कंधों पर था। उसी 
अवसर पर विद्यापति और शिवसिह में घनिष्टता हुईं। तब से विद्यापति 
शिवसिह के अन्तिम समय तक उन्ही के पास रहें । 


संस्कृत-रचनाएँ 

इससे सन्‍्देह नहीं कि संस्कृत-साहित्य का विद्यापति ने पूरी तरह 
से अनुशीलन किया था । इसका अमाण इनको लिखी हुई संस्कृत की 
अनेकानेक पोथियों है । 

प्रथम रचना उपयुक्त “कीत्िलता? है। 

दूसरों पोथी “भू-परिक्रमा? है। यह राजा देवसिद्ठ को आज्ञा से 
लिखी गई थो । इसमें नैतिक शिक्षा से भरी कहानियाँ हैं। इसीका 
चहद्‌ रूप 'धुरुप-परीक्षा” है । ह 


_ तोसरी पोथो है---/पुरुष-परीक्षा? । मालूम होता है; यह उस समय 
की रचना है जब इनके मस्तिष्क का पूरा विकास हो खुका था। यह 
राजा शिवसिह को जाज्ञा से, उन्हीं के राजत्वकाल मे, लिखी गई थी । 
इसम लालेत कथाओं के रूप में धार्मिक एवं राजनीतिक विषयों का 
वर्णन है। इसमें भी कवि ने शद्वार-रस के परदे में राजनीति और घर्म 
हि पे दी है। इस पुस्तक का बहुत मान है। १ «३० इसवोी में 

र 


परिचय 


<&#-७,“*%-७४- 

इसका अंगरेजी में अनुवाद हुआ था। यह अनुवाद) लाडबिशप टर्नर 
के परामश से, राजा कालीक्ृष्ण बहाहुर ने किया था। फोर्टविलियम- 
कालेज में पहले यह पाखण्य पुस्तक का तरह पढ़ाई जाती थी। उक्त 
कालेज के बद़साषा के अध्यापक हरप्रसाद राय ने १८१५ ६० में इसका 
भाषानुवाद किया था। # 

चौथी पुरुतक “कार्त्ति-पताका”? है । इसमें मैथिली भाषा से लिखी 
गईं प्र म-सम्बन्धी कविताएं हैं । 

पाँचवीं 'लिखनावली? है, जिसमे संस्कृत मे पत्रव्यवहार करने की 
रीति वर्णित है। यह रजाबनोली के अधिपति पुरादित्य” के लिये, 
२९५ लक्ष्मणाब्द में, लिखी गई थी । इसी रजाबनौोली में विद्यापति ने 
३०० लक्ष्मणाब्द्‌ में अपने हाथ से “भागवत” लिखकर समाप्त की थी । 

छुठी पुस्तक “शैव-सर्वस्व-सार! है। यह शिवसिह की खझत्यु के बहुत 
दिनों के बादू, रानी विश्वासदेंवो के समय में, लिखी गई थी। इसमें 
भवसिह से छेकर विश्वासदेवी तक के समय के राजाओं की कीचि-कथा 
है एवं शिव की पूजा को विधि लिखी हुई है । 

सातवीं पुस्तक “गंगा-वाक्यावलि? है, जो विश्वासदेवी के ही लिये 
लिखी गई थी । 

आठवीं पुस्तक है - 'दान-वाक्यावलि? । यह राजा नरसिह देव की 
स्त्री 'वीरमती? को समर्पित की गई है । 


नवीं पुस्तक दुर्गाभक्ति-तरं गिणी! दुर्गा-पूजा के प्रसाण और प्रयोग 
पर लिखी गई है। इसका निर्माण नरसिहदेव के कहने से हुआ था। 
धीरसिह के समय में यह पूरी हुईं थी। इसमें धीरसिह के भाई मेरवसिह 
और घन्द्रसिह के भी नाम आये हैं। 





& पुरुष परीक्षा? का शुद्ध हिन्दी-अनुवाद 'पुस्तक-मंडार” से एक 
रुपये मे मिल सकता है |- प्रकाशक 
१३ 


विद्यापति 


<&#5७.६-€ 
इनके अतिरिक्त विभाग-सार ( स्छति-अंथ ); वर्षकृत्य ओर गया- 
पत्तन नामक संस्कृत-पुस्तकें भी इन्हीं को हैं । 
अबतक मिश्रिला में खोज का काम कुछ नहीं हुआ है। बह दे, 
इनकी लिखी ओर भी संस्क्रत-पुस्तके हों, जो अभी तक छिपी पड़ी होंगी; 
क्योंकि थे दीधजीवी युरुष थे । किन्तु केवल उपयुक्त पुस्तकों के देखने 
से ही इनके प्रगाढ़ पांडित्य का परिचय मिलता है । 


हिन्दी के लिये तो यह नितान्त गोरव की बात है कि उसका एक 
प्रथम श्रेणी का कवि संस्कृत-साहित्य में भो अपना खास स्थान 
रखता है। 


लउपाधियाँ 


हिन्दी में आजकल प्रत्येक कवि अपना एक-एक उपनाम रखता है | 
किन्तु प्राचीन हिन्दी-कवियों में भी उपनाम देखे जाते है। हॉ, आजकल 
के उपनाम और प्राचीन ससय के उयनास से एक गहरा भेद है। कोई 
राजा या प्रसिद व्यक्ति; कवि को काव्य-कुशलता देखकर उसी के 
अनुसार; उपाधि-पदान करता था । वहीं उपाधि कवि का उपनाम 
होती थी। प्राचीन हिन्दी-कवियों में बहारो!, 'सूषण” आदि जो 
उपनाम देखे जाते है, वे सब राज-प्रदच उपाधियाँ हैं । 


विद्यापति को भी कई उपाधियाँ प्राप्त हुईं थी। “अभिनव जयदेव? 

ञ चल ९८२ रे है रे 

की उपाधि तो स्वग्रसिद्धु है। 'बिसपी! गाँव का जो ताप्नपत्र है, उसमे 
भो विद्यापति “अभिनव जयथदेव” कहे गये है। मारूस होता है, यह 


उपाधि स्वयं शिवसिह ने दी थी। विद्यापति इस उपाधि के स्वथा 
योग्य भी थे । 


हे जिस प्रकार संस्कृत-साहित्य में; मधुर श्यद्वर वर्णत में; जयदेव का 
जोड़ नही है; उसी प्रकार इस विषय में विद्यापति भो भाषा-साहित्य 
मे अपना जोड़ नहीं रखते । डक्‍त उपनाम से इन्होने कुछ कविताएँ 
भी की हैं । एक पद थों है--- 
१७ 


परिचय 
<# २०७, ६-७7 
सुकवि नवजयदेव भनिशञ रे ।' ' 
देवसिंह नरेन्दनन्दन । 
सेतु नरवइ कुलनिकन्दन । 
सिह सम सिवसिह राया । 
,. सकल गुनक निधान गनिश्र रे ॥ 
इनकी दूसरी उपाधि “कविशेखर' है। इस नाम से भी इनकी बहुत- 
सी रचनाएँ है । न मालूम, यह उपाधि किसने दी थों। “बिसपी! ग्रास 
के दानपत्र मे यह उपाधि नहीं है । 
कविकंछहार और कविरंजन--इन दो नामों से भी इनकी अधिक 
कविताएं हैं। 
. दशावधान ओर पंचानन को उपाधियों भी इनकी कही जाती है । 
कुछ कविताएँ चम्पत्ति वा विद्यापति चम्पई नाम से भी है। 


“दुशावधान! नाम से कुछ कविताएँ भो हैं। यह उपाधि; कहा जाता 
है, दिल्लीश्वर ने दी थो। 


धरमम-सम्प्र दाय 


इनकी कविताएं विशेषतः राधाकृष्ण-विपयक हैं। श्रत+ लोगो की 
धारणा है कि वैष्णव रहे होंगे । बंगाल सें भी पहले यही धारणा थी । 
बाबू तजनन्दन सहाय ने अपने समपंण्यपत्र सें इन्हे “वैष्णव-कवि- 
चूडामणि! लिखा है | किन्तु जनश्रुति और प्रमाण इसके विरुद्ध हैं । 

बात यों है कि थे श्यद्ञरिक कवि थे। श्यज्वार के आराध्य देव 
श्रीकृष्णजा ठहरे । अतः श्यड्रारिक वर्णन में राधाकृष्ण के रास-विजल्ञास 
का हो सहारा लिया जाता है। सभी भारतीय श्थ्गारिक कवियों ने इसी 
युगल मूर्ति को लक्ष्य कर ंगारिक रचनाएँ की हैं । 


432. 


किन्तु इसी से किसी कवि को वैष्णव मान लेना ठीक नहीं। इनके 
/ पिता शेव थे। शिव की उपासना के बाद ही उन्होंने यह पुत्ररत्न प्राप्त 


९4 


विद्यापति 
<629७.“८६-४2 


किया था । ऐसी अवस्था में इनका शेव होना बहुत सम्भव है। जनश्रुति 
भी ऐसी ही है। यही नहीं, इनका पद्‌ यो है-- 
आन चान गन हरि कमलासन 
सब परिहरि हम देवा। 
भक्त-बछल प्रभ्न॒ बान महेसर ' 
जानि कएलि तुआ सेवा ॥ 


“कोई चन्द्र की पूजा करते हैं । कोई विष्णु की पूजा करते हैं । किन्तु 
मैने सबको छोड दिया। हे वाण-सहेश्वर; भकक्‍तवत्सल जानकर मैंने 
तुम्हारी ही लेवा की ।?? 


थे वाण-महेश्वर कौन हैं ? “बिसपी? से उत्तर “भेड्वा! नासक एक 


गाँव मे श्राज भी वाणेश्वर-महादेव है । कहते है कि थे इसी महादेव की 
उपासना! करते थे । 


वही नहीं, इनके बनाये हुए अनेकानेक शिवगीत या नचारियाँ है, 
जो मिथिला से इनकी पदावली से भी अधिक प्रसिद्ध है। मिथिला में 
इनकी पदावली तो विश्षेषतः खियों म अचलित है। अधिकतर स्त्रियाँ 
ही इनके पद गाती है। पुरुषों मे तो नचारियाँ ही प्रसिद्ध है। तीथे- 
स्थानों को जाती हुई कुंड-की-छुंड कोकिलकंठी रसरणियाँ जिस प्रकार 
इनके मधुर पद गाती-म्रूमती जाती हैं, उसी अकार तीथेयात्नी पुरुष केः 
झुुंड वे प्रेस से नचारियों गाते हैं । 

कहते है, स्वयं महादेवजी इनकी भक्ति पर सुग्ध थे। 

एक दिन एक अपरिचित आदमी इनके निकट आया; और इनकी 
नोकरी करने की अनुमति माँगी । इन्होंने उसे रख लिया । उसका नाम 
“'उगना? था--क्ोई-कोई “उद्बना? भी कहते है। “उगना? के रूप मे स्वयं 
महादेवजी थे । 

“डगना? इनके यहाँ रहने लगा। वह सदा इनकी सेवा में लीन 
रहता। एक दिन उसके साथ थे कहीं जा रहे थे. रास्ते मे इन्हें प्यास 


१६ 


परिचय 
दब ००१७) 

लगी। उससे कहा। वह चल पड़ा। थोड़ो ही देर में वह एक लोटा 
पानी लेकर लोटा । थे उसे पीने लगे । 

किन्तु, पीने पर इन्हे मालूम हुआ कि यह पानी गंगा का है। 
पुद्ा--““उगना, यह पानी कहाँ से लाया है ९?! 

“उगना? ने कहा--““निकट के ही कु से !!! 

इन्होंने कहा--“यह जल कुए का हो नहीं सकता; यह तो 
गंगाजल है ।” 

बहुत कहने-सुनने पर भी जब इनको सन्तोष न हुआ; तब “उगना! 
ने अपना यथार्थ रूप प्रकट किया। स्वयं महादेव “डगना” के रूप मे 
थे | यह पानी उन्हीं की जटा का था ! 

उस जगह, निकट में, कोई कुआ या तालाब न पाकर महादेव ने 
ख्रपनी जटा से पानी छेकर इन्हें दिया था। महादेव ने कहा--“देखो, 
तुम मेरे पूर्ण भक्त हो। मैं तुमसे अलग नहीं रहना चाहता। किन्तु 
ग्रतिज्ञा करो कि तुम कभी यह बात किसी से न कहोंगे। खबरदार, 
जिस दिन यह बात प्रकट करोंगे, उसी दिन में अन्तद्धांन हो जाऊँगा ।?* 

“उगना? इनके पास रहने लगा । किन्तु थे अब उसे कभी कोई नीच 
काम करने को न कहते। एक दिन इनको स्त्री ने उससे कुछ लाने के 
लिये कहा । उसके लाने मे देर हुई । ब्राह्मयणी बिगड़ पड़ी। ज्योंही वह 
निकट आया; एक चैला लेकर हूट पड़ी । यह देखकर थे चिह्ला उठे-- 
“हा-हा ! यह क्या कर रही हो ? साक्षात्‌ शिव पर प्रहार !!”? 

उसी क्षण “उगना” अन्तर्ान हो गया। विद्यापति पागल होकर 
गाने लगे- - 


उगना रे मोर कतए गेला | 
कतए गेला सिव कीदहु भेला ॥ 
भॉग नहि. बढुआ रुसि बैसलाह। 
जोहि हेरि आनि देल हँसि उठलाह।॥ 
रे ९७ 


विद्यापति 


<०*<४-“&७7 
जे मोर कहता उगना उदेस। 
ताहि देवओं कर केंगना बेस ॥| 
नन्‍्दन-बन में भेटल महेस। 
गौरि मन हरखित मेटल कल्लेस ! 
विद्यापति भत उगना सों काज | 
नहि हितकर सोर त्रिक्नुवन राज ॥ न्‍ 
इस तरह के कई पद है । 
यद्ाप हस ना(एइन क्वाद के वैज्ञानिक युग स्‌ इस कथा पर लागा का 
विश्वास न जमेगा . फिन्‍्तु रेसी घटनाओं से आचीन सारतीय इतिहास 
भरा पड़ा है। इन सब बातों से यही सिद्ध होता है कि थे वैष्णव नहीं; 
अब थे। हाँ, यह वात निस्सन्देह सत्य है कि थे आज-कल के शवों की 


तरह विण्णुद्रोही नहीं थे। थे शिव और विष्णु को एक हो रूप की दी 
कलाएँ मानवे थे। इनका यह पद्म है--- 


भल हरि भल हर भल तुआझ कला | 


खन पित बसन खनहि बघछला ।--इत्यादि 

साथ-ही-साथ; देंवियों--खासकर “हर्गाः--की स्तुत्ति जो इन्होंने 
की है, उससे इनके शाक्‍त होने के विषय में जरा भी सन्देह नहीं हो 
सकता । इनको आलोचना करने पर ऐसा हो विश्वास दृढ होता है कि 
शआ्राधुनिक मेथज्ञों की तरह थे शिव, विष्णु तथा चंडी--तीनों--कों 
मानते थे; पर किसो पुक विशेष सम्प्रदाय के अनुयायी नहीं थे । 

यदि जाप आज सैथिल्ञों के सिर का चन्दन देखेंगे तो बात स्पष्ट हो 
जायगी। दे एक ही स(थ भस्मल्निएुंड भो घारण करते हैं, श्रीखण्ड-चन्दन 
भी आर सिन्पुर-दिन्दु भी उपयुक्त तीनों देवताओं की थे तोनों निशा- 
नियों है वे तीनों को समान आदर को दृष्टि से देखते हैं; पर किसी एक 
सम्प्रदाय के नहीं हैं । 


श्प 


परिचय 
(७9७. “७५७:7 


आश्रयदाता शिवसिंह 


इनके प्रधान आश्रयदाता राजा शिवसिह थे । उन्ही को छुत्न-च्छाया मे 
रहकर इन्होंने अपने अधिकाँश पदों की रचना की थों। जिस प्रकार 
(शवसिह ने प्रचुर सम्पत्ति देकर इन्हें सांसारिक ऋंझटो से मुक्त कर 
दिया था, उसी प्रकार बदले में इन्होंने उत्तका और उनकी 'धमपत्नी 
'लखिमा देवी? का नाम अपने पदो में देकर उन्हें अजर-अमर बना दिया 
है। शिवसिह का भोतिक दान तो थोड़े ही दिनो में विलीन हो गया; 
किन्तु इन्होंने जो उन्हें यश का दान दिया वह अनन्त काल तक संसार 
मेँ विद्यमान रहेगा। 

ये शिवसिह कोन थे * 

मिथिला के नवीन युग के शासकों में 'सिमरॉबः ओर “सुगाँव? 
राजघराने अधिक प्रसिद्ध हैं। राजा शिवसिह 'सुगॉव”-राजघराने मे हुए 
थे। “सुगॉव-राजघराने' के पहले 'सिमराँव!-राजवराने के लोग शासन 
करते थे। उनकी राजधानी “सिमराँव- गढ़? में थोी--जों वत्तमान चम्पा- 
रण जिले मे है । 

सिमराँव के राजा क्षश्चिय थे। इस राज्य के संस्थापक नान्‍्यदेव थे । 
इसी राजकुज्ञ में सुमसिद्ध हरिसिहदेव हुए थे जिन्होंने नेपाल-विंजय किया 
था। हरिसिहदेव के मंत्री विद्यापति के पूवंज चंडेश्वर थे और उनके 
राजपंडित कामेश्वर ठाकुर । 

कहा जाता है कि एक समय हरिसिहदेव ने एक बृहदू- यज्ञानुष्ठान 
पिया था। किन्तु अन्य राजाओं द्वारा यज्ञ अष्ट कर दिया गया; जिससे 
विरक्त होकर वे-जंगल में चले गये । 

इसी समय सुअवसर पाकर [देल्ली के बादशाह ने मिथिला पर 
चढ़ाई की । मिथिला सें उस समय अराजकत्ता फेल रही थो। थदिरज्लीश्वर 
का चिर मनोरथ पुरा हुआ--मिथिला का शासन-सूत्र मुसलमानों के 
हाथ आया । 


१९ 


विद्यापतति 


इस अवसर पर राजपंडित कामेश्वर ठाकुर ने बादशाह से भेंट की । 
बादआह७ उनके गुर से अत्यन्त संतुष्ट हुए--उनके अस्दीकार करने पर 
भी उन्ही को मिथिल्ता-प्रदेश का आसक नियुक्त किया | तभी से मिथिला 
का आसन ब्राह्मणों के हाथ आया । 


कामेश्वर ठाकुर 'ओयनवार” ब्राह्मण थे । उनके पुवंपुरुष पं॑० ओयन 
ठाकुर ने किसी राजा से--सम्भवत्तः नानन्‍्यदेव से--/ओयनी! नामक गाँव 
उपहार में पाया था। “ओयनी! ( बैनी ) गाँव दरभंगा जिले में पूसा-रोंड 
स्टेशन के निकट है। ओयनी' गाँव मे बसने के कारण इस वंश को 
धओयनवार गंश' कहते है । 
ओयनवार-वंश के सबसे प्रथम राजा यही कामेश्वर ठाकुर हुए। उनके 
बाद उनके पुत्र भोगेश्वर, और भोगेश्वर के बाद उनके पुत्र गणेश्वर, राजा 
हुए। गगेश्वर के दो बेटे श्रे-वीरसिहदेव और कीत्तिसिह । इन्हीं कीत्तिसिह 
के दरबार से विद्यापति ने कौत्तिलता का निर्माण क्रिया था। कीसिसिह 


ओर उनके भाई वोरसिह निःसन्तान मरे, तब भोगेश्वर के भाई 
भवसिह के बेटे देवसिह राजा हुए । 


राजा शिवसिह महाराज देवासह के पुत्र थे। उनकी राजधानी 
“गजरथपुर! नामक नगर में बारमती नदी के किनारे थो । 


यह गजरथपुर कहा है. ? दरभंगे से ४-५ मील पूव्व-दक्षिण कोने पर , 
“सिवईसिहपुर! नासक एक गाँव है । लोगो का कहना है, उसी का दूसरा 
नाम गजरथपुर था। वहाँ जाकर पत्ता लगाने पर एक वृद्ध ब्राह्मण से 
मारूस हुआ कि यही शिवसिह को राजधानी थी--इधर भो उस गढ़ 
को खोदने से कभो-क्ो सोना-चाँदी द्वव्य मिलते थे, किन्तु अब 
गदु का कही पता नही हैं-जहों पहले गढ़ था, वहाँ अब खेत लहरा 
रहे हे । हे 

कउस समय तुगरलक-वशं) पठान-सम्राट गयासुदरन का राज्यकाज 
था +-- लेखक | 


४००१० 
न 4 


परिचय 
<#४<७.“७:७? 


शिवसिह के प्रति विद्यापति की इतनी अनुग्क्ति देखकर, मालूम 
होता है, वे बड़े ही रसिक ओर काव्यमर्मश& पुरुष थे । विद्यापति के 
पदों में उनके नाम के साथ-साथ उनकी प्राशप्रिया महारानी लखिसा 
देवी का भी नाम है । इस प्रकार रानी का नाम पदों में देने से लोगो ने 
उलटा-सीचा बहुत-कुछ अनुमान किया है। किन्तु यथाथ बात तो यो है 
कि विद्यापति ने जहाँ कहीं किसी राजा का नाम दिया है, वहाँ साथ- 
ही-साथ साधारणतया उसकी रानी का भी नास दिया है। 
शिवसिह ओर लखिमा देवी के नाम पदों में होने के विफ्य में 
मिथिला में यह पअ्वाद है कि विद्यार्पतत जिन पदों की रचना करते थे, 
चे सब राजा के शअ्रन्तःपुर मे गाये जाते थे। राजा-रानी दोनों अन्तःपुर 
में एकत्र बेठते, उनके चारो ओर खसियों आ बैठती । उस समय “क्वेटी? 
( चेरी । नाम को गायिकाओं की श्रेणी राजा और रानी की भणिता 
से युक्ष विद्यापति के पद साने रूगती । 
क्रेटी? खियाँ गान-विद्या से निपुणा होंती थी। वे महरू में किसी 
कास के लिये नियुक्त को जाती थी । 
इनके पर्दों मु लखिमा के अ्रतिरिक्‍त शिवसिह वी अन्य रानियों के 
भी नाम जाये हैं। सम्भवत लखिमादेवी ही पटराना रही हो, या उन्हीं 
पर गाज़ा की सबसे अधिक आसक्त रहो हो । 
शिवसिह जिस प्रकार कलाबविद थे, उसी प्रकार वीर योद्धा भी थे । 
उनको यह बात बहुत अखरतो रही कि यवनों के वे अधीन हैं ! पिता के 
जीवन में ही एक बार उन्होंने दिल्‍ली 'कर! भेजना बन्द कर दिया5 
जिसपर सुसलमानी फॉज मिथिला जाई। देव-दुचिपाक से शिर्वासह केद 
# विद्यापति के ही समान श्रन्य कितने कवि भी शिवर्सि्न के दरबार में 
थे। कहते हई कि उन्हीं में से एक उमापति थे, जो 'पारिणात हरण? ओर 
'इक्मिग्ी-परिणय नामक भाषा नाटकों के रचयिता कद्दे नाते है। लोग 
पहले इन दोनों नाटकों के रचयिता विद्यापति को ही मानते थे , -- लेखक 


२१ 


विद्यापति 
<&6७,“८६&<०७> 


करके दिल्ली ले जाये गये । देवसिह ने श्रधीनता स्वीकार कर अपना 
राज्य तो प्राप्त कर लिया, किन्तु पुन्रशोक से पीड़ित रहने लगे । 

इधर विद्यापति को भी शिवसिह के बिना चेन कहां ? लखेमा को 
दशा का क्‍या पूछना ! तब थे अपनी जान पर खेलकर शिवसिह का उद्धार 
करने पर तुल गये । दिल्‍्ला पहुँचे। वहाँ जाकर अपना परिचय [दया । 
सुलतान ने हुकुस दिया - अगर आयर हों; तो कुछ करामात (देखाओं। 
इन्होंने कहा कि से अ्रदष्टठ का दृष्टयत वर्णन कर सकता हँ। सुलतान ने 
एक सद्चः्ण्नाता सुन्दरी का वर्णन करने को कहा । थे गाने लगे - 


कामिनी करए सनाने । 


हेरित॒हि हृदय हनए पेंचबाने ।--आदि 
सुलतान को इससे भी संतुष्टि नहीं हुई । विद्यापति एक काठ के संदूक 
में बंद किये गये और वह संदूक कु ए मे लटका दिया गया। ऊपर एक 
सुन्दरी स्त्री आग फूकतती हुई खड़ी की गई। तब इनसे कहा गया कि 
कपर जो कुछ है उसका दर्णन करो । थे संदूक के अन्दर से गाने लगे-- 
सजनी निहुरि फुछु आगि। 
तोहर कमल भमर मोर देखल 
मदन ऊठल जागि। 
जो तोहे भामिनि भवन जएबह 
ऐबह कोनह बेछा। 
जों ए संकट सो जी बाँचत 
होयत लोचन मेला ॥ 
बादणाह शअ्रत्यन्त अ्रसन्न हुआ । राजा शिवसिह छोड दिये गये । तब 
इन्होंने निम्नल्लिखित पद कहा-- 
भन विद्यापति चाहथि जे विधि 
2 करथि से से लीला । 


+ 


णश्ज 


७ 


परिचय 


राजा सिवसिह बँधन मोचल 


तखन सुक्रबवि जीला ॥ 
राजा शिवसिह की दानशीलता की कहानियाँ श्रभी तक मिथिला मे 
प्रचलित हैं। उन्होने अ्रपने पिता का तुलादान कराया था। कितने ही 
तालाब खुद॒वाये थे। प्राचीन कमला नदी के किनारे 'लहेरा? नामक गाँव 
में घोड़दौड” नामक एक तालाव खुदवाया था। कहते है; उन्होंने वहाँ 
अ्रपना निवासस्थान भा बनाया था । उसका भग्नावशेषप अभी तक 
पाया जाता है। सधुबनो ( दरभंगा ) से दक्षिण 'पतौलः नामक गाँव में 
उनका खुद्वाया हुआ एक तालाब है, जिसके विपय से यह कहावत 
प्रसिद्ध है - 
पोखरि रजोखरि और सब पोखरा । 
राजा सिवर्सिंह ओर सब छोकरा ॥ 
वे बहुत दिनों तक युवराज के रूप से कार्य करते रहे, किन्तु प्रजा 
उन्हें ही अपना राजा समझती थी। देवसिह तो नाम-साजत्र के राजा थे । 
युवराजावस्था से हा शिवसिह “महाराज' कहे जाते थे । 
ल० २९५३ में देवसिह की झूत्यु हुई। ठाक उसी समय दिल्लीश्वर ने 
भी मिथिला पर चढ़ाई कर दी | दिग्ल श्वर के साथ बंगाल के नवाब भी 
थ्रे। शिवसिह के लिये बड़े संकट का समय था। एक ओर पिता का 
श्राद्मदि कर्म, दुसरी ओर युद्ध का आ्रायोजन ! 
विद्यापति ने प्राकृत मिश्रित एक पद से शिवसिह की इस विजय की 
चर्चा था की है-- 
अनल रंध्र कर लक्खन नरबइ, सक समुद्दध कर अग्रिन ससी ! 
चैत कारि छठि जेठा मिलिओ, बार बेहप्पय जाहु ल्सी ॥ 
देवसिंह जू पुहमी छड्डिआ अद्भासन सुरराण सरू। 
दुहु सुरतान नीदे अब सोअओ तपन हीन जग तिमिर भरु ।। 
देखहु ओ प्रथिवी के राजा, पोौरुस मार पुन्न बलिओ। 
सत बल्ले गंगा मिलिआ कलेवर, देवसिह सुरपुर चलिओ ॥ 
२३ 


विद्यापति 
<9<9,“&७:७० 


एकदिस सकल जवन वल चलिओ, ओकादिस से जमराए च | 
दूअओ दलूटिे मनोरथ पुरओ, गरुअ दाप सिव्सिघ करू ।॥। 
सुरतरु कुसुम घालि दिसि पूरिओ, दुन्दुभिसुन्दर साद धरू | 
बीर छत्त देखन को कारन, सुरगन सते गगन भरू॥ 
आरम्मिए अनन्‍्तेट्टि महामख, राजसूअ असमेध जहाँ । 
पंडित घर अचार बर बानिज, जाचक काँ घर दान कहाँ॥ 
विज्ञावइ कविवर यहु गावय, मानव मन आनन्द भओ। 
सिंहासन सिवसिह बइठ्‌ठो, उच्छवे बेरस बिसरि गओ ॥। 
शिवसिह ने राजगह्टी पर बैठते ही उनको बिसपी गाँव उपहार से दे 
दिया। राज्यारोहण के तीनही वर्ष बाद पुनः यवन-सेना मिथिला 
पर आ चढ़ी। पहलों बार पराजित होने के कारण स्वभावतः बादाह 
ने बड़ी तैयारी को थी। शिवसिह दूरदर्शी थ्रे; भविष्य समझ गये। 
किन्तु तो भी श्रधीनता स्वीकार करना उन्‍हें वापसन्द हुआ। उन्होंने 
अपनों स्त्रियों को; विद्यापति के साथ; अपने मित्र राजा पुरादित्य के 
पास '“रजा-बनोली? ( नैपाल-तराई ) भेज दिया। 


राजा पुरादित्य द्रोणवार-कुल के ब्राह्मण थे। बड़े ही. प्रताप-शाली 
थे। अपने बाहुबल् से सपघरी-परगना जीतकर उससें अपना राज्य 
स्थापित किया थ्रा। विद्यापति अपनी (लिखनावली? में लिखते हैं-- 
जित्वा शत्रुकुल तदीय वसुमियेंनार्थिनस्तर्पिता । 
दोदपौजित सप्तरीजनपदे राज्यस्थितिः कारिता । 
संग्रामेउजुन भूपतिर्विनिहतो वन्धोनृशंसायित: । 
तेनेये लिखनावली नृपपुरादित्येत निर्मापिता॥ 


शिवसिह, सेना के साथ, वादशाह से जा भिद्टे । चे शाही सेना का 


व्यूह भेदकर बादशाह के लिकट पहुँच गये और अपनी तलवार से उसका 
एरखाण उदाते हुए फिर बाहर निकल आये। उनकी चीरता पर 
२५ 


परिचय 
<&-७,“७-५९:० 
'बाइआह मुग्ध हो गया ।| यवन-सेना उनके पाछे ठोड़ी, तो बादशाह ने 
-मना कर दिया। 
शिवसिह वहाँ से नेपाल की श्लोर जंगल मे चले गये ओर पुनः अपने 
राज्य में न लोटे । कोई-कोई कहते हैं, वे मारे गये । 
डनको सत्यु--अथवा पलायन--क्रे बाद; सारूस होता है, विद्यापति 
बहत दिनों तक लखिसा देवी& के साथ रजाबनौली में ही रहे; क्योकि 
-यही पर २९९ लक्ष्मणाब्द में यहों के राजा पुरादिष्य के लिये इन्होंने 
“लिखनावजी!? लिखी । यही नहीं, ३०९ लक्ष्मणाब्द में इन्होंने स्वलिखित 
भागवत्त की ऐोथी भी यही समाप्त को । 
ल्खनावला? “के बाद इन्होंने शिवसिहके भाई प्मसह की स्त्री 
विश्वासदेवी के लिशरे दो ग्रन्थ जिखे। इन दोनों ग्रन्थों में समय नहीं 
डिये गये है। 
पञ्मसिह के उत्तराधिकारी हरिसिंह के लिये इन्होंने “विभागसार? की 
रचना की थी । उनकी स्त्री धीरमती के लिये “दानवाक्यावली! लिखी थी । 
इनको अन्तिम रचना “दुर्गा-भक्ति-तरंगिणी! है। यह नरसिहदेव के 
समय में प्रारम्भ को गई था ओऔए चीर्रासह के राजत्वकाल में समाप्त 
हुईं थी । 
धीरसिह का समय- 'सेतुदर्पिणीः के अनुसार, ३२१ लक्ष्मणाब्ठ है। 
अतएवं+ इस समय तक; अथांत्‌ संवत्‌ १४८७ चि० या १४३० (३० तक 
“इनका जीवित रहना सब प्रकार से सिद्ध है। 
#लखिमा देवी की विद्वत्ता, चतुग्ता श्री: प्रत्युतन्नमतित्व की अ्रनेक 
जनश्रुतियाँ मियलि पें प्रचलित हैं| किसी-किसी ऐतिहासि के मत से उन्होंने 
-शिवसिह के बाद ६ वर्ष तक राज भी किया था | किन्तु स्वयं विद्यापति ने 


कहीं भी इसकी और इशारा तक नहीं किया है। अतः: यह बात 


अ्प्रामाणिक मालूम होती है । लेखक 
- 4 हिस्ट्री ग्राफ तिरहुत' में १२१ लक्ष्मणाब्द को १४२९ 
“६० लिखा है | --लैखक 


श्र 


विद्यापति 
#७..“६४2 


सत्यु-काल 


३२१ लक्ष्मणात्द तक इनका जीवित रहना सिद्ध होता है । धीरसिह 
के बाद के किसी गाजा के नास से [. ।लखी गई इनको कोड पुस्तक नहा 
मिलती है। इससे अनुमान होता है कि 'बीरसिह के राजत्वकाल में हीं 
या उनके थोड़े ही दिनो के वाह इनकी रझूत्यु हो गह। इनका एक 
पदयो हे 


2] 


2! 


सपन देखल हम सिवर्सिघ भूप । 

बतिस वरस पर सामर रूप ॥ 

बहुत देखल गुरुजन प्राचीन । 

आब भेलहुँ हम आयुविहीन॥ 

सिमटु सिसदु निअ लोचन नीर। 

ककरहु काल न राखथि थीर॥ 

विद्यापति सुगतिक प्रस्ताव । 

त्याग के करुणा रसक सुभाव ॥ 
इससे पत्ता चलता है कि शिर्वासह् के झूत्यु के बत्तीस वर्ष बाद 
विद्यापति ने उन्हें स्वप्न में देखा था। ऐसी ग्राचीन धारणा हैं के 
“बहुत (नो पर यदि अपना कोई छत ग्रेस-पात्र सलिन वेश सें दीख पड़े 


तो झूत्यु पनकट ससकनाो चाहथे!। यहां भाव वड़े हो कारानक शबदी स 
डपयु के पढठ से बस्खत है । 











£ विद्यावति के एक पद में 'कठदलन नारायण सुन्दर तु 
रगिनि पए होई! ऐसी भमझण्ता है। मैंने श्रमवश पहले ईंत 'कंश- 
दलन-नारायण? को 'कंप-नारायणा नामक मथिला का राजा 
समझा या। एक तो नाम में ही भेद दे, दमरे राधा का वर्णन है. अ्रतः 


वहों कृष्ण अर्थ है । कठ नारायण? विद्यापति की मृत्यु के बहुत पश्चात्‌ 
राजा हुए, थे |--ल्लेखक 


५ 
२६ 


, परिचय 
(&७.“8>42 
शिवसिह २९६ लथ्मणाब्द में मरे थे अतः ३२८ लक्ष्मयाप्द मे 
विद्यापति ने उक्त स्वप्न देखा होगा; जो विक्रमीय संचत १४५४ होता 
है। यदि हम इस स्वप्न के तीन वर्ष के बाद इनफी झत्यु सान कें, तो थे 
नब्बे वर्ष की अवस्था से; संवत्‌ १४९७ वि० में (या १४४० इसवीस , 
मरे थे। श्रोनगेन्द्रनाथ गुप्त ने भा इसो समय को प्रामाणिक माना है । 
उस समय थे बूढ़ें हो चले थे। जनन्‍्म-भर श्टेंगार-रचना में 
व्यस्त रहने के कारण अन्तिम ससय मे संसार से इन्हें विरक्तित 
हो गईटे थी। इन्हें अपना भविष्य अ्रन्वकारमय प्रतोत्त होता था - 
निराशा की काली घटाने इनके हृदय-व्योम को आच्छादित कर लिया 
था। थे अत्यन्त करुण-स्वर मे गाते है-- 
तातल सैकत बारि-बँद सम, सुत मित रमणि समाज । 
तोहें बिसरि सन ताहि समप्पिनु अब मभु हब कौन काज ॥ 
माधव, हम परिनाम निरासा। 
तुह॒ जगतारन दीन दयामय अतए तोहर बिसबासा ॥ 
आध जनम हम नींद गमायनु जरा सिसु कत दिन गेला। 
निधुबन रसनि रभसरंग मातनु तोहे भमजब कओन बेला ॥। 
इन्होंने अपनी कविता-रचना द्वारा प्रचुर सम्पत्ति ग्राप्त की थी । वृद्धा- 
वस्था में इस धन को देख-देखकर कहते है-- 
जतन जतेक धन पापे बटोरछ मिल्ति-मिलि परिजन खाए । 
मरनक बेरि हरि ,कोई न पूछए करम संग चलि जाए। 
ए हरि बन्दों तुआ पद नाय | 
तुआ पद्‌ परिहरि पाप-पयोनिधि पारक कओन उपाय ॥ 
जावत जनम नहि तुआअ पद सेबिनु जुबती सतिमय मेंलि। 
अमृत तजि किए हलाहल पीअनु सम्पद अपदहि भेत्रि ॥ 
थे अपनी उमर की ओर लक्ष्य कर कहते हैं-- 
 बयस, कतह चल गेला । 
तोहें सेवइत जनम बहल, तइओ न अपन सेला ॥ 
नर 


विद्यापति 
8 5 की 

बयस, तुम कहाँ चल गथे । तुम्हें सेवते हुए श्रपना जन्म चिता दिया; 
पकेन्तु तुस अपने न 

कहा जाता है, अपना रझूय्यु-समय निकट आया जान थे अपने घर के 
लागा स पचरदा लेकर गंगा-सेवन को उलले। गंगा-सेवन की प्रथा मिथिला 
म श्रद्यावाध प्रचुरता से प्रचालत है। गंगाल्‍यात्रा के अ्रवदसर पर इन्होंने 
अपन पुत्र का बहुत-छुठु उपदेश दया । कहा--'बेटा, प्रजारंजन कर ना; 
आताथ-सत्कार से कभो न चूकना; दूसरे की स्त्री को माता के 
तुल्य जानना ।!! 

पश्चात्‌ थे अपनी कुल-देवी विश्वेश्वरी के निकट गये । देवी से जाने 
का अनुमाते सोंगा। कहा--/मों, अब गंगा जा रहा हैं। जन्म-भर शिव 
को आराधना की । अब बिदा दो ।!! 

धर पर सभा को सन्तोप दे, पालकी पर चढकर गंगा को ओर चले | 
गह से जब गंगा से कुछ दूर पर ही थे; तव अपनी पालकी रखवा दी | 
एक आभसाना सक्‍त की तरह कहा- “में इतनों दर से मेया के निकट 
आया; क्या सेया मेरे लिये दो कोस आगे नहीं बढ आधवेगो ९” 

रात बीता। दूसरे हो दिन लोग दृश्य देखकर अवाक्‌ रह गये । गंगा 
अपना धारा छोड, दो कोस की दूरी पर, पहुंच गई थी !! 

आज तक उस स्थान पर गंगा की घारा टेढ़ी नजर आती है। उस 
स्थान का नास्त “मऊ बाजितपुर! है। यह दरभंगा जिले में है। यहीं 
“इनकी रूत्यु हुई ! 

इनका 'चता पर एक शिव-सन्दिर को स्थापना की गई । यह शिव- 


दर आजतक विद्यमान है। इनकी खत्यु-तिेथि के विषय में एक पढ 
अचलित है। 


विद्यापतिक आयु अबसान | 

कातिक धवल त्रयोदसि जान | 
इतक अनुसार इनकी रूत्यु कार्तिक शुक्ला उय्यो दी को हुई । 
उठ दाथ प्रामाणक समक्त पड़ती है। कात्तिक महोने में गगा-सेवन करने 
का; हहन्दू-शासत्र के अनुसार, बड़ा महत्व है। इनका झत्यु गंगा-तट पर 
रद ह ह 


परिचय 
8७, ७७. - 


हुई थी--जब कि थे गंगा-सेवन करने गये थे। अत+ इस तिथि को अग्रा- 
माणिक मानने का कोई कारण नही । 


हस्ताक्षर 

विद्यापति, प्राचीन हिन्दी-कवि चन्द बरदाई को छोड़कर, सभी 
प्रसिद्ध हिन्दी-कवियों से पहले हुए थे । इनके हाथ की लिखी हुईं इनकी 
निजी रचना--पदावली या संस्कृत-पोथियाँ--नहीं याद जाती। हॉ, 
एक “सटीक भागवत” की पोथों इनके हाथ की लिखी अवश्य पाई जाती 
ह। यह पुस्तक दरभंगे से बारह कोॉस दूर “तरोनो! नामक गाँव मे 
जयनारायण का की विधवा पत्नी के पास सुरक्षित है। द्रभंगा-जिले की 
पंडितमंडली का पूरा विश्वास है; और जनश्रुति से भी यह सिद्ध है कि 
यह विद्यापति के हाथ से लिखी गई थों । यह ताल-पत्र पर लिखी हुईं 
है। प्रत्येक पत्र की लम्बाई दो फीट और डेढ़ इंच तथा चौंडाई सवा दो 
इंच के लगभग है। पत्र की संख्या ०७६ है. । पत्र के दोनो ओर लिखावट 
है। प्रत्येक पृष्ठ में छुः पंत्तियाँ है। लिपि स्पष्ट, अस्‍रक्षर की आकृति बड़ो, 
प्रत्येक अक्षर अलग-घलग; विराम और विभाग का चिह्न सव्ेत्र 
विद्यमान । लिखावट सुन्दर; कही भी एक अशुद्धि श्रथत्रा लिपिदोष 
नहीं । रोशनाई प्रायः सर्वत्र स्वच्छु। अन्तिम पन्न काष्ठट के वेष्टन घषण 
औौर बन्धन के कारण जीएं हो गया है और लिखावट भी अस्पष्ट हो 
गई है। ग्रन्थ के शेष में लिखा हैे-- 


“जुभमस्तु॒ सर्व्वार्थंगता संख्या ल० सं० ३०६ श्रावणशक्क 
१४ कुजे रजाबनौलीग्रामे श्रीविद्यापतिलिपिरियमिति |” 


्रन्तिम दो अक्षर “मिति' पत्रांश से छिन्न हो गया है । “रजाबनौली!” 
गाँव दरभंगे से श्रायः १७ कोस उत्तर है। शिवसिह २५३ लक्ष्मणाब्द मे 
ज्यासन पर बैठे थे। डनकी म्॒त्यु उसके तीसरे साल हुई थी। इस 
तरह उनको मृत्यु के तेरह साल बाद की यह पोथी है. । 
मालूम होता है, शिवसिह की रत्यु के बाद इनका जी सांसारिक 
कार्यों से उचट गया था--क्रम-ले-कम श्थैगारिक रचनाओ की ओर से । 


२५ 


विद्यापति 
८3, ७-१० 


सिन्र-विय्याग दान पर एसा हाना सम्नव भा है | डसी दशोकातस्था स$ 
अपने [चत्त का शानन्‍्त के [ल्थं, इन्हान यह कष्ट कर काय ग्रूरम्सभ क्रया 
दी ती आश्रय नहा । 


परिवार 


इनके बेटे का नाम “हरएति' था। इनके एक पढ से डनका नाम 
आया है। इनके एक कन्या भी थी। मिथिला में यह प्रवाद है कि 
इनकी लड़की का नास 'दुलही? था। इन्होंने कितने पद ऐसे वनाथे 
जिनसे पति-गाह-गमन के समय कन्या को डपठेश दिया गया है । उन 
पदों से हुलही!? शब्द आया है। कहते हैं; थे पद इन्होंने श्रयनों पुत्री 
को ही सस्वोधित कर लिखे थ्रे । 


“दुलही? का अर्थ नववधू सी होता है। न मालूम: क्या रहस्थ है ? 
मेथिला के एफ बुद्ध बाह्मयरा के घर मे एक पद प्राप्त हआ है, जिससे 
सेद्र होता है कि इनकी लड़की का नास 'दलदी? था। अन्तिम काल 
मे थे कहते ह--- 

दुलल्‍्लहि, तोहर कतय छथि साऐ। 
कहुन॒ ओ आबथु एखन नहाए॥ 
“'दुलही? तुम्हारी माँ कहाँ हैं? कहों न; वे इस समय स्नान 
कर आाव 7 
दरभगे के वर्तमान राजवरने से “नरपतति ठाकुर! नामक राजा हो 
गये हैं। उनके दरबार में ववोचन! नामक एक क्रवि थे। लोचन ने 
+रागत्तर गिणी? नामक एक पुस्तक का संकलन किया था । उसमे उसने 
विद्यापत्ति के वहुतत-ले पद रबखे हैं । 
रागतरंगिनी में एक्र कविता “चन्द्रकला? नामक एक रमणी कीं 
ब्रनाई हुई पाई जाता है। लोचन ने इस कविना पर टिप्पणी की है -- 
“इत्तश्रा(5च्यापातेपुत्नतध्वाः? । इससे मारूम होता हैं, “चन्द्रक्ला' 
वदच्यपृत का पताहू थ।। यहाँ पर चन्द्रकला की उस काचता को उद्दशत 
ऋरन का लाभ दम सवरण नहा कर सझते-- 


शेण 


परिचय 
(७७, “७:४० 


स्निग्ध कुश्चित कोमलं कच गंडमंडित कोमलम । 
अधर बिम्ब समान सुन्दर शग्द्चन्द्रान्‍्भ'ननम्‌ |। 
जय कम्बु कंठ विशाल लो चन सा रमुज्ज्वल सोरभम्‌ । 
बाहुवल्लि सृणाल पंकज हार शोमित ते शुभम ॥ 
शोसय सुन्दरि मम हृदयम्‌। 
गदगद हास सुदति निपुणम्‌।। 
डर पीन कठिन विशाल कोमल याति युग्म निरंतरम्‌ । 
श्रोफला कमला विचित्र विधातु निर्मेल कुच वरम्‌ | 
ज्यासा सुवेषा त्रिवलि रेखा जघनभार विलम्बिते । 
मत्तगज-कर जघन युगवर गमन गति बरटा-जिते ॥ 
सुललित सनन्‍्द गमन करई। 
जनि पति संग वरटा भमई | 

अतिरूप योवन प्रथम सम्भव कि वृथा कथया प्रिये । 

' तेजह रूप-विसोह् पग्हिरि शोक चिन्तित चिन्तये ॥ 
डपयात मदन-व्याधि दु,.सह दृहए पावक से बनम। 
पवन दिसे दिसे दृहए पावक युग्मदारज सम्परम्‌ | 

इ्यामा सबन्दिते। 
अति समय गीत सुशोभिते ॥ 
आत्म दान समान सुन्दरि धार वर्षति सिद्तये। 
सिद्चवह सुन्दरि मस हृदयम्‌। 
अधर-सुधा मधुपानमसियम्‌ ॥ 
चन्द्र. कवि जयदेब मुद्रित मान तेज तोहेँ राधिके। 
वचन मम धर कृष्णुमनुसर ,किन्मु कामकत्ना शुभे। ' 
चन्द्रकला हे वचन करसी। 
मानिनि माधवसनुसरसी ॥ 
३१ 


विद्यापति 


“७:८४. ८७४२७, 


सहपाठी पक्षधर सिश्र 


पक्षधर मिश्र मिथिला के प्रकांड विद्वान हो गये हैं। वे विद्या- 
पति के सहपाठी थे। इन्होंने 'बिसपी! गाँव में एक अतिथिशाला बनवा 
रकखा थ.। प्रतिदिन भोजन के पश्चात्‌ थ्रे स्वयं अतिथिशाला में जाते 
ओर अतिश्रियों से वार्त्तालाप करते । 


प्रवाद है कि एक दिन जब ये अतिथिशाला मे गये तब सभ। अतिथि 
इनकी अ्र+यथना से खड़े हो गये। केवल कोने से एक अत्यन्त कृष्म पुरुष 
त्रेठा ही रहा । इनके पूछताछ करन पर मालूम हुआ कि उसने भोजन: 


नहीं किय्रा है। उस पुरुष की दुर्बलता पर इनके मुख से सहसा 
निकल गया-- 


“प्राघुणो घुणबत्‌ कोणे सूच्रमत्वान्नोपलक्षित: /? 

“पर के कोने से सूक्ष्म कीट-( घुन )-बतच अतिथि सृक्ष्मतावशतः नही 
दास पड़े ॥) 

बैठे हुये पुरुष ने तुरत उस श्लोक की पूर्ति करते हुए उच्चतर दिया-- 

.“नहिं स्थूल्धिय: पुंसः सूच््मे दृष्टि: प्राययते ॥”? * 

'स्थूलब्ुद्धि पुरुष को सूक्ष्म पदार्थ नहीं दीख पड़ता ।? 

बोला सुनते ही थे अपने सहपाठी को पहचान गये। उन्हें आदर- 
पूवक अपने घर ले आये। पक्षधर मिश्र सस्भवतः इनसे कुछ छोटे थे ॥ 


उनके स्वहस्त लिखित एक “विष्णुपुराण' से ३४५ लक्ष्मणाब्द॒लिग्बा 
हुआ है । 


हु 


विद्वेषी केशव सिश्र 
बड़े लोगो के अति उनके शड़ोस- 
यह बात स्वयंसिद्ध है । इनके भी 
थे। शिव ी पूजा करते समय; भा 
गाते, ये नाचने तक लगते थे । 
में चिदाते थे । ३ 
हर - 


उड़ोसवाले सदा द्वेष-भाव रखते हैं, 
कुछ लोग विद्वेषी थ्रे। थे शिवभक्‍त 
वावेश से, ज़िज प्रणीत्त नचारी याते- 
इसी कारण कुछ लोग इन्हें “नत्तेक' नाम 


परिचय 
<8७,“७७7 


ऐसा प्रवाद है, इनके एक और प्रसिद्ध जिह्देपी हो गये हैं, जिनका 
नाम है, केशव मिश्र! । उनका समय ४७३ लक्ष्मणाब्द हे अर्थात इनके 
लगभग सो वर्ष पश्चात्‌ । 

मिश्रजी असिद्ध शाक्‍त थे। “द्वेत-परिशिष्ट” नामक स्वरचित्त ग्रन्थ 
मे उन्होंने 'देवीमागवत' को प्रामाणिक ग्रन्थ प्रतिपादित किया है। 

विद्यापति ने अपने हाथ से श्रीमकद्वागवत लिखा था; इसलिये 
सिश्रजों इनसे चिद॒-से गये थे । वे इनका “अतिल॒ब्ध नगरयाचक! नास 
से उपहास करते थे । इन्होंने 'बिसपी!? गाँव डपहार-रूप में ग्रहण किया 
था--इसीलिये थे “नगरयाचकः? थे ! ह्वेप का कोई ठिकाना है ! 

मिश्रजी शिवसिह के कुल को दौहिन्न-संतान थे--राजकुटुम्ब के 
पुरुष थे। अतएव ऐसी उद्दडता--ऐसी विट्ठेषज्लुडि--स्वाभाविक 
भी हे! 


३३ 


पदावली 


यद्यपि इन्होने लगभग एक दर्जन संस्कृत-प्रन्थो का निर्माण किया 
था; तथापि इनकी प्रसिद्धि का खास कारण है इनकी 'पदावली' । 

गाने योग्य छुन्द 'पद” कहे जाते हैं। इन्होंने जितने छुन्द बनायें, 
सभी संगीत के सुर-लय से बंधे हुए हैं। इन्होंने कविता में जयदेव को 
आदर्श साना है--लोग इन्हें अभिनव जयदेव”! कहते भी थे। अतः, 
जयदेव के ही समान, थे संगीत-पूर्ण कोंमल-कान्त पदावली में श्ंगारिक 
ग्चना करते थे । 

राजा नरपति ठाकुर के दरबारी कवि “लोचन' ने अपनी “राग- 
तरंगिणी! में लिखा है कि “सुमति! नामक एक कलाबिद कायस्थ कत्थक 
के लड़के "जयत? को राजा शिवसिह ने विद्यापति के निकट रख दिया था- 
विद्यापति पद तेयार करते थे, जयत डसका “सुर! ठीक करता था-- 


सुमतिसुतोद्यजन्मा जयत: शिवसिंहदेवेन । 
पंडितवरकविशेखर विद्यापतये तु सनन्‍्न्‍्यस्तः || 


विना संगीत का मर्म जाने संगीतमय पदों को रचना नहीं की जा 
सकता। साल होता है, थे स्वयं भी गान-विद्या में पारंसत थे । 
इनके पढ़ी में कहीं-कही छन्दोमंय-सा दढीख पड़ता है। किन्तु, 
दास के पढ़ा में भी यही वात पाई जाती है। पर संगीत के सुर-लय 
के अनुसार जो पद बनाये जाते है, उनसे ध्वनि? का हो विचार किया 
जाता है--अ्रक्षर और सात्रा का नहीं। इसीलिये संगीत से अपरिचित 
व्याक्तयों को इनके पदों से छुन्दो भंग का आभास मिल जाता है । 
0 
पदावली का रूप 
इन्होंने कितने पद बनाये थे गी अ्रभी ं 
! ! इसका भी श्रभ्मी तक पूरा पता नहीं 


चलता है। श्री नगेन्द्रनाथ जप ने ९४५ पढ़ों का संग्रह प्रकाशित किया 
३४ 


परिचय 
<#७, “७-9 


था। बाबू ब्रजनन्दनसहायजी का संग्रह इससे बहुत छोटा है, तथापि 
उसमें कुछ ऐसे पद है, जो नगेन्द्रनाथ गुप्तवाले संस्करण में नहीं है। 
सहायजी के नथे पदों मे नचारियो की ही प्रधानता है । 
किन्तु अमीतक इनके वहुत-सले अनूठे पद अग्रकाशित 
की स्त्रयाँ जिन पदों को विवाह के अवसर पर गार्त 
बहुत-सी नचारियों का; श्रभी संकलन नहीं हुआ है । 
पदावलो के प्राचीन संस्करणों को देखने से पता चलता है कि इन्होने 
पदों की रचना विपय-विभाग के अनुसार नहीं की थी। “बिहारी? के ही 
समान थे भी, जब्च उमंग में आते थे, रचना कर डालते थे । पीछे लोगो 
ने उनका अलग-अलग विभाग कर सजा लिया । 
रे रा 
पदावली की हस्तलिखित पोधियाँ 
यों तो इनके अधिकांश पद कोगो को कंठस्थ ही है और उन्ही का 
संग्रह 'पदकहपतरु' आदि बँगला के ग्राचीन संग्रह-अ्र्थों मे है, किन्तु हाल 


मे तीन प्राचीन हस्तलिखित अंथ मिले हैं जिनसे इनके कितने नवीन पद 
प्राप्त हुए है; एवं पदावली की प्रामाणिकता का पूरा पता चला है । 


उन ग्रन्थों मे सबसे प्राचीन और प्रामाणिक तालपन्र पर लिखी हुई 
एक पोथी है। यह पोथी भी विद्यापति-लिखित भागवत? के साथ 
5तरौनी? ग्राम के उन्ही स्वर्गीय पंडितजी के घर मे सुरक्षित पाई गई है । 
कहा जाता है कि विद्यापति के प्पोत्र ने इसे लिखा था । इस पोथी की 
लिखावट और इसके तालपन्न को देखने से मालूम होता है कि कम-से-कम 
तीन सौ वर्षा का यह प्राचीन है। लापरवबाई से रखने के कारण यह 
पोथी जीण॑-शोण हो गई है । पहला और दूसरा पत्र गायब है। फिर 
नवाँ नहीं है। इसके बाद 4१ से छेकर ९९,पत्र तक एकदम नहीं हैं। १०३ 
नम्बर का पत्र भी गायब है। १३२ पत्र के वाद का कुछ भी अंश नहीं 
मिलता । सम्पुर्ण पोथी न होने के कारण यह पता नहीं चल्तता कि यह 
कब लिखी गई, किसने इसे लिखा और कुल कितने पद इसमें थे। इस 
योथी में लगभग ३५० पढ बचे हुए हैं । 


है। मिथिला 
डउनक 


ही 
च्भे 
है उनका; तथा 


24 


विद्यापति 
<#<%. “&:- 
दूसरी पोथी नैपाज्ष में पाई गई है। महामहोपाध्याय हम्पसाद 
आख्ी ने प्रथम-प्रथम इसे नैपाल-दरबार के पुस्तकालय में देखा था। 
यह पोथी बहुत सुरक्षित है, किन्तु इस पोथी की भाषा में नैपाल-तराई 
( मोरँंग ) की बोलों की छाप स्पष्ट दीख पड़ती है। मालूम होंता हैं 
इसे किसी मोरंग-निवासी ने लोगों से सुनकर लिखा था; जिससे ऐसी 
गलती हुई है। का थी से लगभग ३०० पद हैं।_ हि 
तीसरी पोथी है पुर्वोक्त रागतर गिणाो । इसम लोचन ने रवेद्यापत्ते 
के बहुत-ले पढ रखे हैं। प्रत्येक पद्‌ के राग का निर्णय भी किया है। 
छुन्ढ के नियम और मात्राओं की संख्या भी दी है। यह ढाई सौ वर्ष की 
प्राचीन पोथी है । क्ोचन ने लिखा है--“अपअद भाषा की रचना प्रथम- 
प्रथम विद्यापति ने ही की! । 
पदावली की भाषा 
पदावली की साधा भा अ्रवतक विवाद-ग्रस्त रही है । बंगाली लोग 
इनको बँगला का प्रथम कवि या घगभाषा का प्रवर्तक मानते हैं । इसी 
लिये उनल्ोगों ने इनको बंगाली सिद्ध करने की भी चेष्टा की थी । किन्तु 
अब तो यह सब प्रकार सिद्ध हो गया कि थे मैथिल थे । 
मैथिलों की एक खास बोली हे--“मैथिली? । विद्यापति भी मैथिल 
थे; अतः मैथिल लोग इन्हें श्रपनी बोली सैथित्री का प्रथम कवि मानते 
है। सचम्रुच यही ठीक है । 
किन्तु ग्रह मैथिली बोली किस भाषा की शाखा है--वंगभाषा की 
या हिन्दी-भाषा की ? बाबू नभेन्द्रनाथ गुप्त ने मैथिली को ब्रज-बोली 
(या हिन्दी ) की एक शाखा माना है । 
गुप्तजों “प्राच्य-विद्या-महाणंव” कहे जाते है'। उन्तका निर्णय अधिक 
मुल्य रखता है | हमारी राय भी उनसे मिलती है। 
मिथिला बंग-देश से सटी हुई है। विद्यापत्ति का जन्म दरभंगे में 
हुआ था; जो द्वारवंग या “बंगाल का द्वार! है। इसलिये मैथिली पर 
वंगभाषा का प्रभाद जरूर पड़ा है। यदि हम कह सक॑, तो कह सकते हैं 


कि मैथिली का शरीर हिन्दी का है, और उसकी पोशाक बँगला की ४ 
रेद्‌ 


परिचय 
<8<७, “६-४2 


जिस प्रकार कोई हिन्दुस्तानी, अंगरेजीं पोशाक पहनकर, अंगरेज नहीं 
बन जा सकता; उसी अकार मैथिली भी हिन्दी को छोड़कर चंगसाषा 
की नहीं हो सचछ्ती । हाँ, वंगभाषा के संसर्ग ले इसमे मिठास अवश्य 
आा गई है। 

पदावली की भाषा आज-कल की मैथिली से कुछ भिन्न है। यह 
स्वाभाषिक भो है। विद्यापति को हुए पाँच सौ वर्ष बीते । इन पाँच सो 
वर्षो मे भाषा में कुछु-न-कुछ परिवर्तन होना बहुत सम्भव है। 

कुछ सेथिल महाशय इन पदों की भाषा को तोड़-फोड्कर श्राज-कत्त 
की मैथिलो-बोली से मिलाने का अनुचित प्रयत्न करते हैं। किन्तु क्या 
ये समझने की चेष्टा करेंगे कि ऐसा करके वे इनकी स्वर्गीय आत्मा को 
कितना कष्ट पहुँचा रहें है ! 

इनकी भाषा की दुर्दशा भी खूब हुई है! बंगालियों ने उसे ठेड 
बंगला का रूप दे दिया है, मोरंगवालो ने सोरँग का रंग चढ़ाया है; बालू 
अजनन्दनसहायजी ने उसपर भोजपुरी की कई की है, ओर जाज-कल 
के मैथिल उंसपर आधुनिक मैथिज्ञी का गैगन चढ़ा रहे हैं! भगवान 
इनकी कोसलकान्त पदावली की रक्षा कर ! 


पदावली की विशेषता 


इनको पदाचली अपना खास स्वरूप, अपना खास रंग-ढंग रखती 
है। वह कही भी रहे; आप उसे कितनों की कविताओं में छिपाकर 
रखिये, वह स्वयं चिल्ला उठेगी--मैं हिन्दीकोंकिल की काकली हूँ । जिस 
अकार हजारों पक्षियों के कलरध को चीरती हुई कोंकिल की काकली 
आकाश-पाताल को रसडझ्ावित और श्रपना स्वतंत्र अस्तित्व प्रकट करती 
है, उसी प्रकार इनकी कविता भी अपना परिचय आप देती है । 

'बंगाल के “यद्योहर! ( 08४58076 ) जिले में बसंतराय नामक एक 
कवि हो गये हैं । विद्यापति के पदों का प्रचार देखकर उन्होंने भी विद्या- 
पति के नाम से कविता करना प्रारम्भ कर दिया था। किन्तु वे अ्रपनी 
कविताएँ इनकी कविता में न सटपा सके ! 


३७ 


विद्यापति 
<&&६&४/-९७:-८० 


इनको भाषा इनकी खास अपनी भाषा है, इनको कि कल 
इनकी खास वर्णन-प्रणाली हे, इनके भाव स्वयं इनके हो ह। के 
पदावली पर “खास” को मुहर लगी हुई है। बंगाल के सैकड़ों कवियों 
ने इनके अनुकरण पर कविताएँ कीं, किन्तु कोई भी इनकी छाया न 
छू सके। 5 हि 

थे एक अजीव कवि हो गये हैं । राजा की गगनचुम्बी श्रद्धालिका से 
लेकर गरीवो को हूटी हुई फूस की कोपड़ी तक से इनके पदों का आदर 
है। भूतनाथ के सन्दिर और “कोहबर-घर? में इनके पढो का सामान्य 
रूप से सम्मान है । 

कोई मिथिला में जाकर तमाशा देखे । एक शिवपुजारी, डमरू हाथ 
में लिये, त्रिपुंड्‌ रमाये, जिस प्रकार 'कखन हरब दुख सोर हे भोलानाथ! 
गाते-गाते तन्‍्मय होकर अपने-आपको भूल जाता है, ५ उसी प्रकार नव- 
वधू को कोहबर मे ले जाती हुई कलकंठी कामिनियाँ “सुन्दरि चलॉलईड 
पहु-घर ना; जाइतहि लागु परम डर ना! गाकर नव वर-वधृ के हृदयों 
को एक अव्यक्त आनन्द-स्रोत मे डुबो देती हैं। जिस प्रकार नवयुवक 
'ससन-परस खसु अम्बर रे देखलि धनि देह” पढ़ता हुआ एक अधुर 
कल्पना से रोमांचित हो जाता हैं उसी प्रकार एक वृद्ध 'तातल संकत 
बारिबुन्द सम सुत मित रसनि ससाज; तोहे बिसारि सन तोंहि सम- 
प्पिलु अब मर हव कोन काज; माधव, हम परिनास निरासा” गाता हुआ 
अपने नयनों से शत-शत अश्नविन्दु गिराने लगता है । 

विह्वृह्दर स्ियस न का यह कहना कितना सत्य है-- 


फीरशा जला $986 छिप ० सिंएवंपकऋछछ/07 75 8९६. 
तर60 ०७९१ छाते (0 ॥ फऋ्न8978, 8०6 उ7 599६ 73607 07९ 
06 “886998 07 €ज्ञा४,&म0०७१? ४४68 #एागत8 0 रल8३78१8 [09७ 
8 €297 05, 50] $06 0ए6 90776 [07: 80ग्र्ठ8 0 ५१6६8 0७४7 ॥7 
जाला ४6 कलह ता फ्तश्का4॥. & पकते।॥& . छा) उछए27 


पफांछाठ)6१ ** 
0 » ॥५ न ५९ आप ८ 
“हिन्दू-घर्म के सू्े का अस्त भले हो हो जाय--वह समय भी आ 
जाय जब राधा ओर कृष्ण से मनुष्यों का विज्चास और श्रद्धा न रहे; 
द््८ 


परिचय 
(6७25७, “७-७7 


और कृष्ण के प्रेम की स्तुतियों के लिये; जो,इहलोक में हमारे अस्तित्व के 
रोग की दवा है, अनुराग जाता रहे, तो भो विद्यापति के गान के लिय्रे-- 
जसमे राधा ओर कृष्ण का उल्लेख हे--लोगों का प्रम कभी कम न 


होगा ।7 

डाक्टर अियर्सन के कथन का ग्रमाण बगाक्ष से जाकर देखिये । 
सहख-सहसखर हिन्दू आज तक विद्यापति के राधाकृष्ण-विषयक पढो का 
कीतेन करते हुए अपने-आपको भूल जाते हैं । 


एक जगह पुनः आप (लूखते ह--**7%6 8४0जाएडु 87288 0 
ए१११एफ७का 878 ए6७१९ 07 ॥96 (6७ए०फए+ रि76प शा 8 776 
0 $096 08887 एछ7+$ 0ए। ४06 क्रपराा 8९75प00प57888 88 $08 
50788 07 ॥96 50]7007 +06 (४7078080 [0772868 ” 


“जिस प्रकार खीष्ट पादरी साज्मन के गान गाते है; उसी प्रकार 
भक्त हिन्दू विद्यापति के अनूठे पदो को पढ़ते है ।” 

इनकी उपमाएँ अनूठी ओर अछूती है । इनकी उद्प्रेक्षाएँ कल्पना के 
उत्कृष्ट विकास के उदाहरण है। रूपक का इन्होंने रूप खड़ा कर दिया 
है। स्वभावोक्ति से इनका सारा रचनाएँ ओत-प्रोत है। श्रत्यनुप्रास 
इनके पदों का स्वाभाविक आभूषण है | प्रधान काव्यगुण--प्रसादु और 
माधुय-- इनके पढ-पढ से टपकते है। 

प्रकृति-चर्णन से तो इन्होंने कमाल किया है--इनका वसंत और 
पावस का वर्णन पढ़कर मन्न-मुग्ध हो जाना पड़ता है। इनके वसंत 
झोर पावस में मिश्रिल्षा की खास छाप है । वसंत से मिथिला की शस्य- 
श्यामला भूमि अलंकृत और दर्शनीय हो जाती है। पावस में, हिमालय 
लिकट होने के कारण, यहाँ बिजलियाँ जोर से कड़कती है--प्रायः कुल्षि- 
शपात होता है। इन्होने इसका बड़ा ही अपूर्वे वर्णन किया है । 

इनका मिलन और विरह का वर्णन भी देखने योग्य है। हिन्दी- 
कवियों के विरह-वर्ण न में, 'धनआनन्दः आदि दो-चार को छोड़कर, हृदय- 
वेदुना का सूक्ष्म विश्छेषण प्रायः नही देखा जाता । विद्यापति का विरह- 
वर्णन प्र मिका के हृदय की तस्वीर है--उसमे बेदना है, व्याकुलता है, 


प्रियतमा के प्रियतम के प्रति तल्लीनता है, कोरी हाय-हाय वहाँ नहीं है ! 


क्र 


३५ 


विद्यापति की पदावली 
[ टिप्पणी-सहित ] 


वन्दना ८४ 
[१] 


नन्‍्दक नन्‍्दन कदम्बक तरु-तर 
घिरे घिरे मुरल्नि बजाब | ९ ऐ 
' समय संकेत - निकेतन बइसल 
बेरि* बवेरि बोलि पुठावु॥२)॥ 
सामरि,. तोरा छागि 
अनुखन विकल  मुरारि॥३॥ 
जमुनाक तिर उपबन उदवेगल 
फिरि फिरे ततहि निहारि॥&७।॥।. 
गोरस बेचए अबइत जाइत 
जनि जनि पुद्ठ बनमारि ॥५॥ 





१--ननन्‍्दक ननन्‍्दन ०नन्द के बेटे, श्रीकृष्ण । तर"तले, नीचे | 
२-सँकेत-निकेतन 5 मिलने का निर्दिष्ट स्थान। बइसल « बेठे हुए । 
बेरि बेरि > बार-बार | (संकेत-स्थान में बेठकर मसिलन का समय आया 
जान) बार बार बुला रहे है ( वंशी मे पुकार रहे है )--“नामसमेतम कृत- 
संकेतम्‌ वादयते मझदुवेणुम!!--गीतगोविन्द । ३--सामरि 5 श्यामा, 
सुन्दरी;-शीते सुखोप्णसवोगी ग्रीप्से च सुखशीतला । तप्तकाड्वनवर्णाभा 
सा स्त्री श्यामेतिकथ्यते ॥!? तोराल्ागि ८तुम्हारे वास्ते। अनुखन-- 


४--५ तिर तट | उद॒बेगल ८ उद्विन्न हुआ, प्याकुल । ततहि ८ उसी 
तरफ । जनि जनि न प्रत्येक स्त्री से (पुठिलग जन; स्त्री० जनि) यमुना के 
किनारे डपवन में ( अमण करते हुए ) व्याकुल्त होकर पुनः-पुना डसा 


३ 


विद्यापति 
<#७<२%.“६:<४> 


तोंहे मतिमान, सुमति, मधुसूदन 
बचन सुनह किछु मोर | 
भनड विद्यापति सुन बरजोवति 
बन्दह नन्‍्द-किसीरा ॥७॥ 
[२] 
राधा की वन्दना 


. देख देख राधा रूप अपार । 
अपुरुष के बिहि आनि मिज्नाओल 
खिति-तल॒ लावनि-सार ॥२॥ 
अंगहि अंग अनेंग मुरछायत 
हेरए. पड़ए अथीर । 
सनसथ कोटिन्‍्सथन करू जे जन 
से हेरि महि-मधि गीर ॥9॥ 








ओर ( तुम्हारे आयमन-पथ को ओर ) देखते हैं, और दूध-दही बेचने को 
आाने-जानेबाली प्रत्येक रमणी से चनसाली श्रीकृष्ण ( तुम्हारे विषय में ) 
पुछुते हैं। ६--सतिमान >अनुरक्त । हे सुमति ! मेरी कुछ बाते सुनों; 
मधुसूदन तुमपर अनुरक्‍त हैं। ७--भनइ ८ कहते है । जौवति >युवती । 
बन्दह--वंदना करों | 


अफन लक म-दकलपमा पेस-ममन«नव्नल»आ 


“ते सुकृती रस-सिद्धू कवि, बंदुनीय जग माहि ! 
जिनके सुजस-सरीर कहेँ, जरा सरन-भय नाहि ॥? 
ञ्र के | | आ को 009. 
२--अपुरुब + अपूर्व । बि्ठि 5 विधि, ब्रह्मा | आनि मिलाओल र ला 
(आते $ कर पे ५ 
मिलाया; रच दिखाया। खिति >क्षित्ति, पृथ्वी। लावनि-लावण्य । 
इ--अनग>-कामदेव । हेरए «देखकर | अथीर ७ अस्थिर, चंचल | ४-- 


मनमथ + कामदेव । मधि 5 में ; जो करोड़ों कामदेवों का ( अपने सौंदर्य 
डे 


बन्द्ना 


“ढ०७४७72.७४२.- 


कत कत लखिमी चरन-तल नेओछए 
रंगनि हेरि बिभोरि ॥५७ 

करू अभिलाख मनहि. परदपंकजञ्ञ 
अहोनिसि कोर अगोरि ॥8॥ 


[३] 
देवी-वंदना 
जय जय भैरत्रि असुर-भयाउनि 
£) पसुपति-भामिनि माया ॥५) 
सहज सुम॒ति बर दिअओ गोसार्डान 
अनुगति गति तुअ पाया ॥२॥ 
बासर-रैनि सबासन सोमित 
चरन, चन्द्रमनि चूड़ा ॥३५ 


कतञओ्रोक दैत्य मारि मुँह मेलल, बे 
कतओ डगिल कैल कूड़ा ॥शा 


से ) मथन करते हैं, (वह श्रीकृष्ण भी) जिसे देखकर (मूच्छित हो) पृथ्वी 
पर गिर पढ़ते हैं। ५-लखिमी ८ लक्ष्मी। नेओछुए ८ नन्‍्योछावर करते हैं। 
रंगिनि ८सुन्दरी । बिभोरि> बेसुध होकर। ६-अहो निसि > अहर्निश 
दि्नि-रात । कोर गोद । अगोरि ( मेथिली ) ८ यत्र-पूवंक रखना । मन 
में अमिलापा होती है कि इस पद-कप्तल को रात-दिन गोदी में 
अगोरकर” रक्ख | 


२--दिआओ ८ दो । गाोसाउनि 55 गोस्वामिनी, भगवती । 
पाया * पैर । ३--बासर 5 दिन। रैनि » रात । सबासन « शवासन -- मुर्देड 
पर आसन | चन्द्रमनि 5 चन्द्रकान्तम णि । चूड़ा >सिर । ४-कतश्रोक + 
प्‌ 


विद्यापति 
८9७,“ ६-.७> 


सामर बरन, नयन अनुरंजित, 
जलद-जोग फुल कोका | 

कट कट बिकट ओठ-पुट पॉड़रि 
लिचुर-फेन डठ . फोका ॥॥६॥ 

घन घन घनए घुघुर कतत वाजय, 
हल हन कर तुआ काता। 

बिद्यापति कवि तुझ पद सेवक, 
पुत्र॒ ब्िसर जनि माता ॥०५॥ 


ओर ४०४-+ई---+- कज+-+-न के पल ००+ 3 5 
कितना हा । मेल +- रकक्‍्खा । कूड़ा केज्न 
रंगा हुआ, लाल। जलद-जोग फूल 


पॉडरि ७ एक लाल फूल | फोका ८ 


्‌ 


ज-+++--......... 


_ लि 

“>चूर-चूर कर दिया। अनुर जित + 
कोंका > बादल मे कमल फूले हों । 

डर्छुद | ७--काता «» कत्ता, कटार । 


/> 
वय,-सानत्ध <- 


वय:-सन्धि 
“६.#: “४५७० 


. [४] 
सैसब जौबन दुहूमिल्ति गेल। 
स्वत के पथ दुहु लोचन लेल ॥१५॥ 
यचन क चातुरि लहु - लहु हास। 
धरतिये चाँद कएल  परगास ॥४॥ 


मुकुर लई अय करई सिंगार। 
सखि पूछट् कइसे सुरत - विहार ॥६॥ 
निरजन उरज हेरह कत बेरि।! 
हसइ से अपन पयोधर हेरि॥<-॥ 
पद्दित बदरि - सम पुन नवरंग | 
दिन-दिन अनेंग अगोरल अंग ।॥१०)। 
() साधव पेखल  अपुरुष वाला। 
सेसव जोबन दुहु एक भेल्ा॥११॥ 
विद्याति कह तुह झगेआनि। 
दुहु एक जोग ह॒ुइ के कह सयानि॥१४७॥ 


१--सेसव < शिशुता, बचपत । जौवन -- जवानी । २--दोनो 
अ्रांखों ने कानों की राहु पकड़ी८- कटाक्ष करना प्रारश्भ किया | ३-लहु- 
लघु, मंद । हास ८ हँसी । ४--परगास -८ प्रकाश । ५-मुकर--भाईना । 
६--सुरत-बिहार -- काम-कीड़ा । ७--निरजन ८८ एकान्त में । उरज -- 
पयोधर ८ स्तन । हेरइ ० देखती है । “स्मितं किचिद्ृक्त सरलतरलो 
इष्टिविभवः । परिस्पन्दो वाचामपि नवविलौसोक्तिसरसः । गतीना- 
मारम्भ: । किसलयितलीलापरिकरः । स्पृशस्त्यास्तारुण्य॑ किमिह न हि 
 रफ्य मगदशः ॥” ६--इदरि- बेर का फल । नवरंग ८ सारंगी, नीबू 


ह.। &. 


विद्यापति 
“6५2० ४२२, 
ः [४] 


सेसव जौवन दरसन भेल 
दुहु दल-बले दनन्‍्द. परि गेल ॥५॥ 
कबहु बॉधय कच कबहु बिथारि। 
कबहु कॉपय अँग कवहु उघारि।७॥। 
अति थिर नयन अधिर किछु भेल। 
उरज - उदय - थल्ल ल्ञालिस देल ॥६॥ 
चंचल चरन, चित चंचल सात्त | 
जागल मसनसिज मुदित नयान॥॥८। | 
विद्यापति-. कह सुतनु॒ बर कान। -“ 
:“” घेरणज धरह  भमिलायब आन ॥१०॥ 





कुच, पहले बेर के समान छोटे थे, पुनः नारंगी-से हुए। १०--पअ्रनेंग 5 
कासदेव । श्रगोरल-पहरा दिया। ११ “पेखल ८ देखा । श्रपुरुष--अपूर्व । 
३९--भेला - भया, हुआ । ३४-..के कह -- कोन कहता है ? 


- दिन्द> इन्द्र -युद्ध । परि गेल जसड़ गया, शुरू हो गया, ठव 

शया । दोनो ( शैक्षव श्रौर यौवन ) के सेध्यबल में इन्द्र युद्ध छिड़ गया 
भ | 

रे-क व >केश । वियारि- खोल देना | ४-..अ्रेंग -- देह, (यहाँ 

छाती )। ४--अधिर « चंचल । ६०-उरज - कुच । उदययल--- 

उगने का स्थान । देल -- दिया | कुचो के उत्तपत्त होने के स्थान में. 

. लालिमा छा गई । ७--भान ८० मालूम होना | देर चंचल थे ही, श्रब 


१० 


वय:सन्धि 
ही आओ 


[६ । 


सेसव. लोीवन. दर्शन भेल | 

दुहु पथ हेरइत सनसिज गेल॥श। 
मदत के भाव पहिल परचार | 
सिन जन देल भिन्न अधिकार।ह। --- 

कंटि के गौरव पाश्ोल नितसम्व। 

एक के खीन अओक अवलम्ब॥१॥ 
प्रटभध हास अब गोपत भेल । 
उरज प्रगट अब तन्हिक लेल ॥८॥ 

चरन चपल गति -लोचन पात्र । 

लोचन क धेरज पदतल जाव ॥१०॥ 
नव कविसेखर कवि कहइत पार । 
भिन भिन राज़ भिन्न बेवहार ॥१२॥| 


२--मनप्तिज न काम । दोनो को राह में देखते हुए कामदेव से 
(बाला के शरोर में) बसव किया | ३--पहिल परचार > प्रथम प्रचारित 
हुआ । ५--हूटि कफ "कसर का। गोरव >गुरुता। नितम्ब--चूतड़ । 
६--खीन ++ क्षीणा, पतला । अशग्नोक ८ श्रन्य का ८ दूसरे का | ७, ८-- 
गोपत <-< गुप्त । तन्हिक ८ उसका । प्रक्रट हँसो श्रव गुप्त हुई श्रौर उसकी 
प्रकटता श्रव॒कु््चों ने ले ली। १०--घरज > घीरता। “काव्यप्रकाश' 
में कहा है-भोणीबन्धस्त्यजति तनुतां सेवते सध्य भाग: । पद्भ्यां सुक्तास्त- 
रलगतयः सश्चितालोचनाश्याम्‌ | वक्षशत्राप्त॑ फुचसचिवतामद्वितीयन्तु 
वक्‍त्रमु । सदगाज्ाएां गुणविनिसयः कल्पितो यौवतेव । १६१--तढ 
कविसेखर ८ विद्यापति का उपनास । ह 


श१ ' 


बिद्यापति 
बट) हि 22 
[७ |] 


किछु किछु उतपति अंकुर भेल । 
चरन-चपल-गति लोचन लेल ॥४-॥ 
अब सब खन रह आँचर हात। 
लाजे सखिगन न पुछुएण बात ॥शा 
कि कहब साधव बयस क संधि । 
हेरइत सनसिज मन रहु बंधि॥6॥ 
तइअओ्रो काम हृदय अनुपाम । 
रोपल घट ऊचतल  कए ठाम ॥८५॥ 
सुनइत रस-कथा थापए चीव। 
जइसे कुरंगिनी सुनए सेंगीत ॥श्ना 
सेसव जोवन उपज्जन्ल॒ बाद । 
_. केओ न मानए जय अवसाब ॥१२॥ 
बिद्यापति कौतुक बक्िहारि । 
सेसव से तनु छोड़नहि पारि ॥१७॥ 





१--श्रंकुर ८ कुचों के अंकुरे। ३--खन “क्षण । हातल्‍-हाथ। 
५-७ माधव ! वयः-सन्धि (की बाते ) क्या कहँ---देखते ही कामदेव का . 
सन भी बंध गया । ७-८ तथापि ( बस्दो होने पर भी ) काम ने उसके 
अनूपन हृदय पर घट स्थापित कर उस स्थान को ऊँचा कर दिया। 
६--थापए ८ स्थापित करती हैं। १०-- कुरंगिनी 5 हरिणी । १(-- 
उपजल बाद > होड़ मची । १२--केश्नो - कोई । अवसाद -< पराजय ६ 
१४--शेशव को उसका दरीर छोड़ना ही पड़ेगा । 
श्र 


वय:-सन्धि 
श्€ ३ 


[८] "- 
पद्धिल बदरि कुच पुन नवरंग। 
दित दिन वादए पिड़ए पअनंग॥।-।॥ 
से पुन भए गेल बचीजकपोर | 
अब कुच बादल सिरिफल जोर ॥४५॥ 
भाघव पेखल  रसनि संधान। 
घाटहि भेटल करत  सिनान ॥६॥ “ए: 
तनसुक सुबसन  हिरदय लागि। 
जे पुरुष देखब तेकर भागि ॥८॥ 


उर॒ हिल्लोलित चाँचर केस | 
चामर मॉपल कनक  महेस ॥१०॥ 

भनह बिदय्यापति सुनह भुरारि। 

सुपुरुष विलसए से बरनारि ॥११५॥ 

रै>बदरि-- देश (फनत) | नवरंग--तारंगो। ६-पिडए-पीड़ा देता 

है । ३-भी मफपोर--जीजपुर, बड़ा (टाभ) नीयू ; जेसे बीज क्रमशः बढ़ते- 
बढ़ते पोर (वृक्ष की सुटाई और गाँ5) बनता हैं उसी तरह कुच भी दृढ़ 
झोर सोटे हो चले । ४-सिरिफल--भ्रीफल, चेल। १-४, एक संह्कृत एणोक 
है-- उदसभेद॑प्रतिपचपक्वबदरीभाव॑ समेता कमात्‌ | पुन्नागाकृतिसाप्म 
बगपदबीमारह् विल्वश्रियम्‌ || लब्ध्बा पालफलोपसां छल ललितासासाध् 
भूकोधुना।  चंचत्‌ कांचनकुम्भजम्भनमिसावस्या: ' स्तनों विश्वतः || 
प्--पेखल--ेखा | सिनान-स्वान । तनसुक-एक प्रकार का सहीत 
कपड़ा | हिल्लोलित--मूलता हुआ | चाँचर- चंचल । ६-१०--हगय 
पर ऋाँझरो से बने हुए घाल डोल रहे हैं, मानो सोने के सहादेश को 
अेंबर से दक दिया हो | १२--बिलसएं--विलास करें । 





१३ 


जता 


विद्योपति 
“६2६4 


[९] 
खने खन नयन कोन  असुराई। 
खने खन बसन धूलि तनु भरई ॥२॥ 
- खने खन  दसन-छटा छुट. हास । 
खने खन अधर आगे गहु बास॥छा 
चरडकि चलए खने खन चलुमन्द | 
मनसथ-पाठ ” पहिल अनुबन्ध ॥६॥ श 
. _ हिरंदय-मुकुल हेरि हेरि 'थोर। . 
| खने आँचर दए खने होए भोर ॥८॥ 
बाला सेसव तारुन. भेट। 
शेखर ना पारिआ जेठ कनेठ।,श्०। ह 
>- विद्यापति . कह सुन “बर कान | 
तरुनिम सैसब् चिन्ह! न जान ॥ श्श। 


न्‍ध्यााा 8... अमदा;ल्‍क- कामकाज, 





१--खने खन- क्षए-क्षणा। कए-क्षए से आंखें कोए का 
अनुसरण करती हे--कटाक्ष करती है। २--क्षए-क्षण में अस्तब्यस्त 
सत्र ( चंचल धूलि में गिरकर) शरीर को धूलि से चरते है । 
रै--इसन - दांत । हास -- हेंसी । ४... अधर - होंढड.3 बास -- वस्त्र । 
६--अ्रनुबन्ध-भू मिका ॥ ,४-हिरदय-सुकुछ--हवम॒ की कलो, 
ऊव। ६-- भोर-भूल जाना ) ६-१०--तारुन > तरुएाई, जवानों । 
कनेठ--कनिष्ठ-छोटा । बाला के शरीर में बचपन और जबानी 
- की भेंठ हुई हे--मुकाब ला हुआ हें। इस दोनों से कोन बड़ा झोर' 
कौन छोटा ( कौन निर्बल और कौन सबल ) है, बह जात नहीं पड़ता । 
(१-- छाम--काल्हू, कृष्ण । ९ तसनिम-जवानो।, 
१४ ह 


न खशिख ' 


पीन 
मेरु 


मुख 
फूलक्षि 


भर्ठेंह 
सद्त्त 


नखशिख 
कक. 8. 

[ १० | 
पयोधर दूबरि. गता। 

उपजल. कनक - लता॥र॥ 

ए कान्हु ए कान्हु तोरि दोहाई। 
अति अपूरब देखलि साई॥४॥ 
मनोहर अधर  रसगे। 

मधघुरी कमल संगे॥॥॥ 

लोचन - जुगल . भ्रृंग. अकारे। 

मधु के मातल उड़ए न पारे ॥५॥ 

के कथा पूछ जनू। 

जोड़ल. काजर - घनू ॥१०॥। 

सन बिद्यापति दूतिबचने । 

एत सुनि कान्हु कएल गमने ॥१२॥ 


१-२, पीन«पुष्ठ । पयोधर -5 फुच गता>-गात, छरीर | सेरु ८ 


सुमेर पर्वेत | दुबली ( तग्वी ) के शरीर में पुष्ठ फुच है मानों सोने की लता 
६ बेह ) में सुमेद पर्वत ( कुच ) उत्पन्न हुआ हो । ४--प्रपुरुव ८ , 
प्पुर्य । साई ८ उसे । ५-६, श्रधर--श्रोष्ठ । रंगे -- रंगे हुए, लाल । 
सधुरी -+ एक तरह का सुन्दर लाल फूल जो मिथिला में विशेष होता 
: है। सुखर सुझ पर रंगीन ( लाल ) झ्रधर है, मानो कमल के फूल 
को साथ मधुरी फूली हो । ७-८--भूग भोरा। मथु क सातल >मधु 
घचीकर मस्त बना । ( उसे झुख-कमल में ) दोनों, लोचन भोरे- के 
- समान है जो ( मुख्द-कमल का) मधु पीकर मस्त होगे से उड़ 
नहीं सकते । 


१७ 


विद्यापति 
28-७7 ६:७० 


2 | 


कि आरे ! नव जौवन अभिराप्ता | 
जत देखल तत कहए न पारिञअ ह 


छओ अनुपम एक ठामा॥२ | 
हरिन इन्दु अरविन्द करितति ह्ेम 

पिक लूभाल..... शअनुमानी 
भयन बदन परिसल गति तन रुचि 

अओ अति सुललित वानी ॥४॥ 
ऊँच हुए परसि चिकुर फुजि पसरल 

ता अरुभायल हारा | 
जि सुमेरु- ऊपर भिल्ि ऊगल हु 

” चाँद बिहिेनु सब तारा ॥६॥ ैरनसनल कक िगगी. 


. ३) अहा, कैसी सुन्दर नई जवानी हैं ! ज॑सा देखा, बसा कह 
नहीं सकता, छ; अनुपय ( पदार्थ ) एक ही स्थान पर है । ३-- इम्दु ज्ू 
चन्द्र । श्ररविन्द - कसल । करिति -- हथिनी । हेम ७» सोना । ( पिक 
कोयल । ४-...रिमल - सुगन्धि । तनु रुचि - शत्तेर की कान्ति । हरिन, 
“दे, कमल, हथिती, सोना, कोयल----डे छः क्रमश: आँख, सुख, शरीर 
की सुगन्धि, मस्तानी पाल, शरीर की कान्ति और भीठी बोली के उपभान 
है। ५--६, चिकुर -केश । फुजि - खुलकर । बिहिनु- विहीन 7 
दोनों कुचों से स्पर्श करते हुए केश जलकर छिटके हुए हे जिनसे 
( सुक्ता को ) माला उरभो हुई है, मानों, सुमे् पर्वत पर चन्द्रमा को 

छोड़कर ( क्योंकि: क्रेश रूपी प्रंधकार भी है! ) सब तारे मिलकर: 
'डग्रे हे । ७--लोल॑ - चल । कपोल > गाल । अधर - ओोष्ठ - ः 
श्८ ह 


नखशिख 


“57-४2 
लोल कपोल ललित मनि-कुंडल 
.. अधर विस्व अध जाई। 
भौंह भ्रमर, नासापुट सुन्दर 
से देखि कीर लजाई ॥८॥ 
भन्‌इ विद्यापति से वर नागरि 
आन न पावए कोई। 
कंसदलन नारायन खुन्दर 
तसु रंगिनी पए होई ॥॥१०॥ 
-बिस्‍्व ८० विस्बफल ( लाल होता है )। भध - भपः, नीचे । अ्रधरविस्द 
- अ्रंध जाई-श्रोष्ठ की लालिमा देख विस्वफल नीचे जाता है ८ हीच 
मालूम होता हे। 5 अमर भौरा । भौहअ्रमर-८ भौहे | अपर के _ | 
समान, काली है । चासापुद >नाफ । कीर ८ सुग्गा | १०--कैसदलन 
नारायण + ( १ ) मिथिला के राजा ( २) श्रीकृष्ण | तसु छ उसका | 
रंगिती रू स्त्री । * 














शक .->५+-मननन-- 39० 





४हृदक को दिल में दे जगह क्रकबर' 
इल्म, से शायरी नहीं पाती 
१६. - 


नियापति! 
८2 छछ 
(६ (२) 


माधव की कहव सुन्दरि रुपे। 
कतेक जतन बिहि आनि समारत् 
देखल नयन सरूपे ॥२॥ 
पलल्‍लब-राज चरन-जुग सोमित 
गति गजराज क भाने। 
कनक-कदलि पर सिंह समारल 
तापर मेरु समाने ॥५॥ 
सेरु ऊपर ठुद कमल फुलायल 
न।ल बिना रुचि पाई। 
मनि-मय हार घार बहु सुरसरि 
तश्रो नहि कमल सुखाई ॥६॥ 


जल लक लक 


( नोट---अ्रदुभुत एक अप बाग” झीष॑क सूरदास का-एक 
भसिद्ध पद्य है। लाहित्य-संसार में उसकी बड़ी प्रशंसा होती है । सूरदास 


से डेढ़ सो घर्ष पहले रची गई यह कविता पढ़कर, पाठक, विद्यापति, 
फी प्रतिभा का प्रन्दाजा लगावे' | ) 


(--कौ- दया । २-.बिहि 
३ई--पल्ल वराज -- कमल । 
' थम ( जाँघ को उपभा )' 
( उभड़ी दुई छाती ) । 
कुच )। नाल -- डंटी । रुचि -- 
रूपी गंगा . को घारा बह्‌ 
“( विना नाल के भी दोनों 

म्२्० 


ह- विधि, ब्रह्मा । सरूषे ् सत्य प्रत्यक्ष । 
+--अनक-कदली---सोने के केले का 
सिह ८ ( कटि की उपमरा ) । मेर पहाड़ 
४“जुद कमरल८> दो कसल ( दोनों 
शोभा। ६--( क्ुचों पर ) मणि साला 
रही है, इसीसे--उसके ख्रोत में 
अच रूरी ) कमल नहीं मुरखाते। 


नखशिखः 
4#+# "६:७१? 


अधर बिम्ब सन, दशन दाडढ़िम-चिजु 
रवि ससि उगथिक पासे। 

राहु दूर बस नियरो न आबथि 
ते नहि करथि गरासे ॥८॥,- 


का ;५ अर +क नर 


सारंग तसु. समधाने । 
सारंग ऊपर डग़ल दस साररेंग 
केलि करथि मधुपाने ॥१०॥ 

- भनह बिद्यापति सुन बर जौयत्ति 
एहन जगत नहि आने । 
राजा सिवसिघ रूपनरायन-- 
लखिमा देह पति भाने ॥१२॥ 





' ,७--अधर--प्रोष्ठ । विम्वफल । सन्-ऐसा। दसव-दाँत । दाड़िभ-- 

' झ्रनार । बिजुल्बीज, दाना । रबि ससि उगधिक पासे-ससुर्य-चन्द्र एक 
साथ उसे हे ( चन्द्रमा ऐसे मुख में बाल सुर्य-सा लाल सिदुर है )। ८ 
राहु-( केश की उपया ).) नियरो- निकट । &६--सारेंग--( १) 
हरिएा। सारंग--(२) ,कोयल | सारंग--(३) कासदेण । सारंग तथु 
समधाने--उसके संघात में-कटाक्ष मे--क्ाम बसता हैँ । १०-सारेंग८ 
(४) कसल ( ललाट )। दस-( यहाँ बहुबाची ) + सारेंग-( ५ ) 
ज्ोरा ( केशों के लटके हुए गुच्छे )। मधुपाने - रस पीकर । ,सुखरूपी) 
कमल पर भोौरे ( रूपी ल्ं लठकी ) है, जो मधुपान कर केलि कर 
रहे है । एहन--ऐसा । आने-दूसरा । 


२१ 


विद्यापति 


“६-७० ८६५ 


.( १३ ) 


जुगल सैल-सम हिमकर , देखल 
एक कमल दुइ जोति रे॥१॥। - 


फुशलि मधुरि फुल स्िदुर लोटाएल 
पति बइसलि गजनमोति रे। 
आज देखल जति के पतिआएत 
अपुरुष विहि निरमान रे ॥१॥ 
विपरित कतक-कदलि-तर सोभित 
थल-पंकज॒ के रूप रे। * 
तथहु॒ मनोहर बाजन बाजए 
क्‍ जनिजागे मनसिज भूप रे ॥५॥ 
सन बिद्यापति पूरब पुन तह 
. ऐसनि भजए रखससन्त रे। 
बुझल सकल रस - नृप सिवसिघ 
लखिमसा देइ कर कन्त रे ॥७॥ 
१--जुगल सेलप्य्शे पहाड़ (कुच्रों की उपमा)। पिमन्सीमा सें,. 
निकट । हिमकरणथ्चस्रमा (मुख फी उपमा) । फसल-(मुख की उपभा) । 
दुइ जोति--त्े ज्योतिषां ( दो आँखें ) । २-मधुरि फूल--एक तरह का 
लाल फूल । फुली हुई मघुरी ( फूल ) सिंदूर पर लोठती है ऋोर, दाँत 
क्या हैँ, गजमु'क्ताश्ने की पंक्ति बेठी है। ४--विपरित-उलठटा । कनकछ 
कदलि-(जाँघ की उपसा )। थल पकज--म्यल कमल (पैरों की उपसा)। 
४--वथहुनूवहाँ भी । सनसिज ८ कामदेव । 
ऐसनि -- ऐसा ( रसमंत - रसबती, सुरसिका । 


कल्क 
क्र 
हि 


६०---पुनन्य्युण्य । 


हि 


[ १४ |] 


चाँद-सार लए मुख घटना करू 
लोचन . चकित चकोरे 
अमसिय धोय आऑँचर्र धनि पोछलि 
दह दिसि भेल उंजोरे ॥२॥ 
कासिनि कोने गढ़ली | 
रूप,सरुप मोर्य कहइत असँभव 
लोचन . लागि रहली ॥४॥ 
गुरु नितम्ब भरे चलए न पारए 
मार-खानि खीनि निमाई। 
भागि जइत सनसिज धरि राखलि 
त्रिबलि लता अरुमाई ॥६॥ 


भनइ बिद्यापति अद्युत कोौतुक: 


-: ई सब वचन  सरूपे। 
रूपनारायन ई रस जानथि 
सिवसिंघ मिथिला भूपे ॥८॥ 


नखशिख 


“४2-७७ 


१--२, चन्द्रमा का सार भाग लेकर ( विधाता ने राधा के ) मुख 
की रचना की, ( जिसे देखते ही चक्तोर की श्राँखे' चकित हुई । बाला ने 
( श्रपने मुख-चन्द्र को ) अचल से पोछकर जो श्रमुत धो बहाया, वही 
(चॉदनी के रूप में) दशों दिशाओं में प्रकाशित हुआ। । ३-कोने--क्षिसने .। 
शढ़ली ८ गढ़ा, रचा । ४५--भरे ८ भार से । साक्त खामि < सध्य भाग से 
(कटि) | खीनि८ क्षीएा, पतली । निमाई- निर्माएं की । ६--त्रिबली- 
लता८ त्रिबली ८ पेंट में पड़ी तीन रेखाएं । 


२३ 


विद्यापति 
“59% १-७ 


[ १४ | 


सुधामुखि के बिद्दधि निरमित्न वाला | 
अपरुष रूप. सनोभवमंगल 
त्रिभुवत विजयी माला ॥शा। 
सुन्दर बदन चारु अरु लोचन 
काजर-रंजित भेला । 
कनक-कसल  मसाशझ्च काल-भुजंगिनि 
स्रीयुत खंजन खेला ॥५॥ 


नाभि-विवर सय्य॑ ल्ोम-लतावलि 
भुजगि निसास-पियासा 
नासा खगपति-चंचु. भरम-भय 
कुच-गिरि-संधि निवासा ॥६॥ 











१-० के विहि> किस विधाता ने। निरसिल> निर्माए किया हे 
२--मतोभव-मंगल < कामदेव का शुभ स्वरूप--“सनोभवमततंगलकल स- 
सहोदरे”- गीतगोविन्द । त्रिसुदन विजयी साल तीनो सुतनों को पराजित 
करनेवाली माला के समान | ३--४ बदल -- मुखड़ा । भेला हुआ । 
पाक मध्य में । ज्ोयुत > सुन्दर । सुन्दर मुख में सुन्दर काजल लगी 
आँखे है, मानों सोने के कमल ( झुख ) से काल-सपिणछी (अंजन) कीड़ा 
कर रही हो | अ्रथवा सानो फाल भुजगिनी रूपी आँखे कनक कमलखरूपी 
मुख के वीक सुन्दर ( ज्नीयुत ) खंजन की तरह खेल रही हो | ५-- ६, 
विवर -- बिल, छेद । से - से । लोम - लतावली - ब(ल-रूपी लताएं, ह 
पंक्तिबद्ध बाल | भुझगि - सपिणी । निसासझर्साँस । खगपति - गददड़ 
चंचुलचोच । नाभी रूपी बिल से पंक्तिबद्ध बाल-रूपी सपिणी ( नायिका 
२४ 





न 


नल 


नंखशिख 
ेल्‍ “७०.2०“७२० 
तिन बान मदन सेज॑ल तिन भ्रुवने 
- “ अबधि रहल द्ओ बाने । 
बिधि, बड़ दारुन बध्रए -रसिकजन 
सोंपल तोहर -नयाने .॥८॥ 
 भनईइ विद्यापति सुन बर जोौबति 
» इंह रस केओ पए जाने । 
, राजा सिवसिंघ रूपनरायन ![! 
- लखिमा. देह रमसाने ॥श्णा | 


। 


सुगंधित ) साँसों की प्यास में (श्रागे बढ़ी), किन्तु नुकीली नाक को 
गरुड़ की चोंच समभकर डर से कुच रूपी ( दो ) पव॑तों के बीच के 
(संकीए) मिलन-स्थान में श्रा बसी। :७. ८ तिन-तीन । तेजलः 
छोड़ा । अ्रवधि--अवशिष्ट, बाकी । रहल-रहा । दओ्ओो-दो । बधए-- 
बधने को, हत्या करने को तोहारण्तुम्हारे॥ नयान>पश्राँखें ॥ कामदेव 
को पंचवाए कहते हैं, सो सदन ने श्रपत्ते ( पाँच वाएंों में से) तीन बाए 
तो तीनों लोकों में छोड़े, शेष. उसके दो बाए रह गये । ब्रह्मा बड़ा ही ' 
निष्ठर है, (उन बचे हुए दो बाएं को) रसिकों की हत्या करने के लिये 


. तुम्हारे नयनों को सौंप दिया.) ६->इह रस केश्रो पय जाने-पह रस कोई 


कोई ही जानता हैं । १०--दिइ--देवी । रमाने--रमएा, पति । 


आ] 


- “हदय-सिधु समति सीप समाना। स्वाती सारद कहाँह सुजाना ।, 
जो बरसे बर बारि-विचारू। होंहि 'कबित'र्नवतामनि चारूं | 


की “२& 
०3 


त्रद्ञापति 
“22 9%-४ 


१--तागरि--तगर-निदासिवो;. सुचतुरा। पझागरिंन्प्रग्रगण्या 
ए--सरनिल्‍समान निरसस्मोल आनि-लाकर बनाथा। ३>-जकॉ८- 
ऐसा | ४--जिनकर -- जिसकी । एहनि-ऐसी ।॥ ५---चिक्र केश ६ ६- 


७->-केहरि-र्ससह । अभ्रछि--(अस्ति) 
हूं। श्रम्शज--कमल -। धारिप-धारए करो, समको। ४-अवधरि८ 


तापर-उसपर । भमरा--भौरत | 


निरश्रएष । 
२६ 


४:१६ ;] 
जाइत दैखलि पथ नांगरि सजनि गे 
आगरि 'सुबुधि सेयानि । 
कनक“लता संनि छु््दीरे सजनि गे 
बिट्टि निर्माओल आतति।।र॥ 
हस्ति-गमन जक्नाँ चलइत सजनि गे 
' देखइत राजन्कुमांरि ।. 
जिसकर एडमि सोद्दांगिनि सजंनि गे 
'पाओल -पदासर्थ चारि :॥४॥ 


-नोल ' बसन तन पेरल खजनी े 


सिर लेल विकुर सँभारि । 


ततापर 'भमेरा पिवए रस सजनि-गे 


'बइसल -पोँखि 'पसारि ॥9॥॥ 


“केहरि सम कटि-गुन अछि सजनि मे 


लोचन अम्बुज॒ धारि । 


'विद्यापति कंवि गाओल सजनि गे 


गुन पाओल अवधारि ॥ए८।। 


जिन-नन नमन नमन भी भी भनी भी भी क्‍क्‍ा-++++४+-क्‍+++_ 


| १७] 


चिकुर - निकर तम “सम 
 पुनु आनन पुनिम ससी। 
नयन - पंकज -के. पतिआओत 
एक ठाम रह बसी ॥२॥ 
आज मोये देखलि बारा। 
लुबंध मानस, चालक  मयन 


कर की परकारा ॥७॥१ 


सहज उुन्दर गोर कलेबर 
पीन . पयोधर सिरी । 
ऋनक-लता अति. विपरित 
फरल . जुगल - गिरी ॥६॥ 
भन विद्यापति बिहे क घटन 
. के न अदभुत जान। 
राय सिच्रसिंघ रूपनरायन 
लखिमा देह रमान ॥८॥ 


नसखशिर 
ही. 8 


१--२- शिकुर तिकर>केदा समूह । पुत्तिसल्‍्पूछ्ििता का। 


ठाम०स्थान । कैश समूह भ्रंघकार के समान है, फिर, मुख पूणिमा के 
चन्द्र के, समान और नयन कमल के € समान )७>कोन विश्वास करेगा 
६ कि ये सब परस्पर-विरोधी पदार्थ ) एक स्थान पर बसते हैं। भोयें- 
सेंने 4 बारा-वबाला। ४०«लुबृध-लुब्ध, भ्रनुरकत । चालक £ संचालन 
करनेवाला | सयन--क्याम । की परकार। ८ किस प्रकार। -५-- धिरे+ 


शरे, शोभायुक्त । ६०-फ (ल ८ फला | ७००»घटन >- सृष्टि । 


ब्छ 


विद्यापति 
कल ८5%, 


[ (८ ] 


सजनी, अपरुप पेखल रामा। , 
कनक - लता '“अवल्मम्बन  ऊअल 

हरिन - हीन हिसधासा शी : 
नयन-नलिनि _ दओ 'अंजन - रंजंइ 

भाह बिभंग - बिल्ञासा। 


चकित” चकीर - जोर बिधि वाँधल 


१०-अपरुप ८ अ्रंपूर्व । पे खल्र -+ देखा । रामा-सुन्दरी । २--कनक- 
की लता (देह)। अमग्नल"उदित हुआ । हरिन-हीन हिसधामा 
_+निष्कलंक चन्द्र ( मुख )।7 ३--नलिनी ८ कमसलितो । दक्कं-- दो 3 
मोह विभग-विलासा ८ कुदिल कदीली भौंहों--भवों--में भाव-भंगी ५ 
जोड़ा | बँधल->-बॉघा है । पास-पांस में, रस्सी से । ५-६ 
गिरिवर गरुआ> पहाड़ के ऐसे भारी । पयोधर - कफुच | गिम - भौव | 
कण्ठ | गजमोतिक ८ गजमुक्ता की । कम्बु--शख।) कन्क - सोना । पहाड़ 


लता->सोने 


४-जोर ८८ 


शर्ट 


केबल काजर पासा॥श। 
गिरिवर-रंसआ -:“प्रयोधर-परसित - 
गिम गज-मोति के हारा ॥: 
कास .कम्बु, सरि कुनक - सम्सु परि - 
'ढारत - सुरसरि- घारा ॥६॥ 
पएसि - पयाग , - जाय >सत जागइ 
सोइ - पाबए : बहुभागी। 
'बिद्यापत्ति कह गोछुल-नायक 
गोपी जन अतल्ुरागी ॥५ा 





नखशिख 
८७% 4४% 


[१६ | 
कनक-लता.. अरबिन्दा । 
दमना माँक उगल जनि चन्दा ॥२॥ 
केहु कहे सेबल छपला । , 
केहु बोले नहि नहि मेघे ऋपला ॥४॥ 
-केहु कहे भसमएण भमरा । 
फेह बोले नहि नहि चरए चकोरा॥ ६॥ 
संसय परल सब देखी । 
केहु बोलए ताहि जुगुति बिसेखी ॥८॥ 
भनह बिद्यापति गावे । 
बड़ पुन गुनमति पुन्तमत पावे ॥१०॥ 





ऐसे उत्तंग कुचों को स्पर्श करती हुई गले में गजमुक्ताओं की माला' है, 
-मानों, कामदेव शंख (कण्ठ) में भरकर, सोने के महादेव (कुचों) पर गंगा 
की धारा (माला) ढार रहा हो ७--पएसि ८ पैठकर, जाकर ॥ पयाग--- 
प्रयाग में । जाग -- यज्ञ | सत -- शत, सो । (जो) प्रयाग में जाकर सेकड़ों 
, यज्ञ करे, वही बहुभाग्यशाली- (इस रमएणी को) प्राप्त करे । 


च 

- १-२, दसना ८ प्रोएलता । माँझ-में । उगल८८ उद्दित हुआ । 
जनि--मानों | सोने की लता पर कमल खिला हैः या. द्रोए-लता पर 
ब्न्द्रमो उगा है । ३--केहु ८ कोई । कहै--कहता है । सैबल - शैवल; 
सेंवार। छपला--छिपा हुआा। ४---५, ऋपला-ढ पा हुआ । ५-भमएऐ भसराः 
- आभौरा अमए कर रहा है। ६--चरए ८ घर रहा है, दाना चुग रहा है। 
७--परलम्य्पड़ गधा। १०--प्रुव ८प्रुण्य से॥। पुनम्तत ८ पुण्यवंत्त । 


“२५ 


विद्यापति 
<4%,.८०"<७:, 


[२० | 


कबरी-भय चामरि. गिरि-कन्द्र 
सुख-सय «चाँद अकासे । 

हरिन नयन-भय, सर-भय कोकिल 
गति-सय गज बनबासे शा 


सुन्दरि, किए मोहि सेभासि न जासि । 
तुआ डर इह सब दृरहि पत्लायल 
तुहँ पुन काहि. डरासि ॥श। 
कुच-सय कसमल-कोरक जल मुदि रहु 
घट* परबेस  हुतासे । 
दाड़िस सिरिफल गगन बास कर 
सम्भु गरतल “कर ग्रासे ॥क्षा 
भुज॒ भय पंक मनाल नुकाएल 
कर-भय किसलय काॉँपे । 
कबि-सेखर भन कत कत “ऐसन 
कहन मदन परतापे ॥णा 





१०-कवरी -- केश $ चामरि -- चेवरवली गो । २--पर ८ स्वर, 
बोली १ ३--किए-जरयों । सेभासि-बातखीत करके । जासि--जाती है | 
सुखरी, क्यों मुझसे बातें नहीं कर जाती ? ४--पलायल--भाग गया। 
५--कमल-कोरक-कृमल की कली । घट परबेस हुतासे-घड़ा श्रग्नि में 
प्रेश करता है।॥ ६--दाड़िस-पप्रवार। सिरिफल-बैल । गगन -- 
आकाश । सस्भु ८ शिव । गरल८ विष । ६-मुनाल बू कमल-ताल । 





नशायल > छिप गया । कर-- हाथ । किसलय--नथोन पसा । 


३५ 


3 िएर, 


नखशिखे 
कप 
[२१ 
रामा, अधिक चंगिम सेल। 


- कृतने जतन कत अदबुद, बिहि बिहि तोहि देल॥श। 


सुन्दर बदन सिंदुर-बिन्दु सामर चखचिकुर भार। 
जनि रबि-ससि संगहि ऊगल पाछ कय अंधकार ॥७॥ 
चंचल लोचन' बाँक निहारए अजन शोभा पाय । 
जनि इन्दीबर पवन-पेलल अलि भरे उल्नटाय ॥६॥ 


उनत उरोज चिर भरपांबए पुत्र पुनु दरसाए। 
जइयो जतने गोअए चाहए हिमगिरि न सुकाय ॥८॥ 


एहनि सुन्दरि गुनक आगरि पुरे पुनसमत पाच। 
ई रस बिन्दक रूपनरायन कबि बिद्यापति गाव ॥१०। 


१--रासा ८ सुन्दरि | चंगिस छ शोभामयों । भेल ८ हुई। २-- 
:.. कतने-- कितना । कत 5 कितना अदब॒द ८८ भ्रदूभूत | बिहि-विधि, 
. ब्रह्मा । बिहि-विधि, प्रकार ठंग। भ्रथवा बिहि-बिहि--चुन-चुनकर | देल-- 
दिया। ३-“अदत -- मुख । सासर ८८ फाला । चिकुर ८ कैश। ४--ऊगल ८- 
उद्धित हुप्ना । पाछु-- पीछे । कए करके (| ५---बाँक -- तिरछा । निहारए 
८ देखती हैँ । ६-इम्दीबर -- कमल । पवन-पेलल--पवन द्वारा श्राग्दो लित 
,झ्लि भरे" भोरे के भार से॥ उलठय 5 उलठ रहा हो ॥ ७ ' उनत-- 
उन्नत उभड़े हुऐं। उदरोज-कुच । चिर--चीर से, सारी से । म-- 
जाइश्रो-पशपि । जतते--यत्त से। गोश्नए-गोपन करना छिपाना ॥ 
हिस-अफं, साड़ों ॥ गिरि-पहाड़ (कुच)। श्रथवा हिमगिरि-हिसा- 
सय-पहाड़' (झुच) !!' मुराय--छपना | ७--एहनि-ऐसी. ॥ पुरे 

पुष्य से हो । पुनमतथ्पपुण्यवन्त,। १०-“-ब्रिन्वक -- जाता | 
ह ह ३ $। 


विद्यापति 
<9७, ८७-२७, 


'सिरि-- श्री, शोभा ६--माक खीतसि-- बीच 


रेर्‌ 


सहज असन सुख दरस हृदय सुख 
लोचक तरत्त तरद्ग | 
अकास पताल बस सेओ कइसे भेल अस 
- चाँद सरोरुह सँग ॥२।॥ 
बिहि निरमलि रामा दोसर लछि समा 
भल्र तुल्ाएल निरमान ॥३२॥ 
कुच-मंडल सिरि हेरि कनक-गिरि 
'लाजे द्गन्तर गेत्न | 
केओ अइसन कह सेओ न जुगुति सह 
अचल सचल कइसे भेल ॥५॥ 
भाक-खीनि ततु भरे भौगि जाय जनु 
विधि अनुसए भेत् साजि | 
नील पटोर आनि अति से सुदढ जानि 
जतन सिरिजु रोमराजि ॥७॥ 
भन कब विद्यांपति काम-रसनि रति 
कोौतुक बुक रसमन्त ॥ 
सिर सिबसिंघ राड पुरुख सुकृत पाउ 
ह पर 253904 00 + मी देइ रानि कन्त ॥धो। 


'> जक्ष्मी'। तुलाएल » तुल्य हुआ, समान हुआ! | ४--- 
प्‌ से” पतलो (कि) | भरे-- 
_ई | जाये। अनुसए -- भ्राइ का |, ७---पदोर -< 
+ बनाया | रोमराज़ि -- केश-समूह | ता 


खद्य; -सनाता : 


, [ २३ | 


कांमिनि करए सन्ताने। 

हेरितद्दि हँदय.. हनए पँचबाने ॥२॥ 
चिकुर गरण जलधघारा। 

जनि मुख-ससि डर रोआए अँघारा ॥४॥ 
कुच-जुग चार चकेया । 

निश्र कुल मिलिझ आति कोन देवा ॥६॥ 
ते संका भ्रुज-पासे-- 

बॉँधि घएल उड़ि जाएत अकासे ॥८॥७ 
तितल बसन तनु लागू। 

मुनिहु के मानस मनसमथ जागू॥१०॥ 
भनह बिद्यापति गावे। 

गुनमति धनि पुनमत जन पावे ॥१श॥ 





सदभ्सस्‍्नाताःः 
68-42“ %-4? 


. २--हेरितहि ८ देखते ही । हनए-मारती है । पंचबाने -- कासदेव । 

के वाप्‌ु । ३, ४--चिकुर-- केश । गरए - पिरती है। जनि > मानों 

' शेश्रए - रोता है | प्रंघारा -- अंधकार । केशों से जल की धारा गिर रही 

है, सानों (सुखं-कूपो) चला के डर से ( केश रूपी ) अंधकार रो रहा 
हो | ६--विश्न-- निल । सिलिश्र- सिलने को। झानि कोन 
आझाति देव -: किसने ला दिया हे । ७, ८प--कहीं थे कुच्-रूपी अरकेवा 
आकाश में द उड़े जायें, इसौ बांका से अपनी भुजाओं से उन्हें 
_ हैं। €--तितल्र ८८ भोंगा हुआ । १०--मानस ८ सन । सनसथ--कार्लदेण । 
अनि -- रपएौ । १२--मर्त -- पुर॒ष । 


देश[--कोन 


बाँध रक्‍खा 


शेर 


विद्यापति 
+#9 “७:७9 
[२४ ] 


आजु मर्ु सुभ दिन भेला। 
कामिनि पेखत्न " सनान के बेला ॥२॥ 
चिकुर गरए « जलधारा। का 
मेह बरिस जन्न मोतिम हारा॥श। 
बदन पोंछल . परचूरे। .. 
साजि धएल जनि कनक - मुकूरे ॥६॥ 
तेंड उद्सल  कुच-जोरा । 5 
पलट बेसाओल कनक - कटोरा ॥ण। 
निबि - बंध करल उडदेस। 
विद्यापति कह: मनोरथ सेस ॥१०॥ 





मश्ु८ू मेरा । भेला- हुआ । २--पेखल --देखा। बेला: - 
/ सम्रथ। ३, ४--चिकुर- केश । गरए - गिरती है ।--( काले ) केशों 
से ( उक्बल ) जल की धारा ग्रिर रही है,. भानों बादल ( क्षेश )-सोती 
की माला ( जलधारा ) की वर्षा क्र रहे हो। ४--बंदन न्मुख॥ 
पोंदल -पोंछा, परिप्तान्िित किया। परचूरे - प्रचुर ॒रूप से, , भ्रच्छी - 
तरह । ६--माजि घएल -- समाँजकर रख दिया, साफ कर रख दिया | 
कनक मुक्रे - सोने का दर्पण । ७--तेंइ-उससे--( झुख घोते समय )५ 
उदसल « उकस गया। प्रकट हुआ । जोरा -- जोड़ा, युगल । ८--पलटि८ - 
उलठकर । वेसाओ्रोल -- बिठला दिया, रख दिया। ६--निवि८- कोंचा, , 
फुफनी । करल- किया |-उदेस -- शिथिल । १० ः 


>चेस-य्सम्ताप्त4 *-. 
३६ जी 


सद्यःस्नाता 
पु 4४९४-४2 
. २४ ] हे 
|। 
जाइत, पेखल नहांएलि- गोरी |: _ 
कति सय रूप धनि.आनलि ज्ोरी ॥२॥ 
केस -निंगारइत बह, जल-धारा | 
-*  चमर-गरए जनि मोठिम-हारा ॥9॥ 
अलकदि तीतल .ते झति सीभा। * 
अलिकुल कमल वेढल मधुलोभा ॥॥॥ 
नोर निरंजन “लोचन राता । 
सिंदुर मडित जि पंकज-पाता ॥5॥ 
_सजल चीर रह पयोधर-स्रीसा । 
केनक-बेल' जनि पढ़े गेल हीमा ॥!०॥ 
ओ,नुकि कस्तंहि चाहि किए देहा । 
अबहि छोड़ब-.मोहि. त्तेजब नेहा ॥१२॥ 
 ऐसन रस.: नहि - पाओब- आरा 4 
इथे ज्ञागि रोइ: गगरएण जलघारा॥?१श। 
- बिद्यापति'.-कह सुन॒ह मभुरारि। 
-बसन लागल * भाव- रूप निहारि ॥१६॥ 





२-क्ति स्ये <: कहाँ से । श्रानलि चोरी -- चुरा .लाई। ३-निगार-- 


इत-गारते समय: “पानी निचोड़ते समय । ४-चमर“-चँँवरं से । 
भ्०भ्रलक “: केश । तीतल ८ भींगा हुआ । ते-“इससे ।  ६-श्रलि- 
- कुल <- अमर-नाए । बेढ़ल ८ घेर लिया ।“७-पानी में स्ताव करने के 
कारण झांखे अ्रंजन-हीच श्रौर लाल हो गई है । ८ पंकज-पाता 7 कमल 
का पेस्ता। &-परयोधर-सीसा-- कुचों पर । १००-कनक-बेल -- सोने का 


७ 


“विद्यापति 
-*+9 ७८४ 
[१६ ] 


नहाइ उठल तीर राइ कमलमुखि 
समुख हेरल बर कान । 

गुरुजन संग लाज धनि नतन-मुखि 
कइसन देरव बयान ॥र॥। 


सखि हे, अपरुब चातुरि गोरि। 
सब जन तेजि कए अगशुसंरि संचरि 
आड़ बदन तेँहि फेरिआश। 
तेंहि पुन मोति-हार तोरि फेंकल 
कहदइत हार डुंटि गेल। 
सब जन- एक-एक चुनि 'संचरु 
स्थास-दरस थनि लेलक्षा 
नयन-चवकोर कान्हु-मुख ससि-बर 
कएल. अमिय-रस-पान । 
दुहु दुडु दरसन रसहु पसारब 
कवि बिद्यापति भान॥द॥ 


- बिल्‍द फल । पड़ि गेल<पड़ गया । होसाल-झवर्फ । ११-भो-ब्ह 
(वस्त्र) । जुक्कि करतहि चाहि-छिपाना चाहता है । किए-'क्यों। 
१ ३-ऐसन>-ऐसा । श्रारा--अन्यत्न ॥ १४--इथे--हसलिये । 

१-राइनराधा । हेरल-देखा । कान -८ कृषण ॥ ३-नत>तीचे । 
बयान->बदन, मुख | ४-अ्रगुतरि-अग्रसर, -आ्रागे | संचरि--जाकर । - 
आड़  शोट । ४-तोरि फ्रेंकल «तोड़कर फेंक दिया। टुष्टि गेल -- दूट - 
गया ॥ ६-लेल + लिया । ७०-कएल£ किया । अमिय --अझंमृत | 
८ 


पर 


प्रम-प्रसंग 


प्रेम-प्रसंग 
'%७7“८६७४7 


श्रीकृष्ण का प्रेम 
हम 


पथ-गति नयन मिलल राधा कान । 
'दुहु मन मनसिज पूरल संघान ॥२॥ 
दुहु मुख हेरइत दुहु भेल भोर। 
समय न वूकय अचतुर चोर ॥४॥ 
बिदुगधि संगिनी सब रस जान। 
कुटिल नयन कएलहि समघान ॥६॥ 
ः चलल राज-पथ दुहु उरमाई। 
कह कब्र - सेखर दुह् चतुराई॥८॥ 








१--२, पथगति -- राह में जाते हुए। कान ८ कृष्णा। मन- 
सिज-- कामदेव | पुरत -- पुरा किया । संघान--वाए। का संचालन । 
पथ में' जाते- हुए राधा कृष्ण दोनों श्रॉखों से मिले--एक दृसरैको 
देखा । दोनों के मन मे' कामदेव से अपने वाए का संचालन किया--- 
दोनों के हृदय मे' काम का संचार हुआ । ३--हैरइत --देखते ही । 
भेल भोर-- वेसुध हुए । ४--प्रमय-न बूभए -- श्रवसर नहीं सम्रकतता १ 

- ४०“बिंदगधि--विरग्ध, सुरसिका। ६--कुटिल नयन्-टेढ़ी वितवन 
से->इशारे से। कएलकछ्लि --कर दिया । समधान -- सावधान ॥ ७-०-+- 
उरभाई-उलफकर॥ | के 





.. » “थिरन घरत चिता करत, चहत-त नेकहु सोर । 
दूं ढत हे सुबरन सदा, कवि व्यभिचारी चोर ||” 
कर . ४१ 


बिद्यापति 


*&७7“६४7 
[ २८ | 
सजनी, भल कए पेखल न भेल। 
भेघ-माल सर्य॑ तड़ित-लता जनि 
हिरदय सेल दई गेल ॥१॥ 
अआरध आऑचर खसि आध बदन हसे 
आधहि नयन तरख्ढ। 
आध डउरज हेरि आध आँचर भरि 
तबधरि दगधे अनन्ज ॥श॥ 
एके तनु गोरा कनक कटोरा 
अतनु काँचला उपास | 
हार हारत मन जनि बूमि ऐसन 
फाँस पसारल कास ॥६॥ 
द्सन सुकुता पीँति अधर सिलायल 
मद सदु कहतहि भासा। 
बिद्यापति कह अतए से दुख रह 
हेरि हेरि न पुरल आसा ॥८॥ ः 
(--भल कए-:श्रच्छी तरह। पेखल न भेल देख न सका। 
२-सपें - संग से, साथ में । तड़ित-लता -- बिजली । जति-- मानों । 
३--जयव-तरज़ू -- कटाक्ष ॥ ४--उरज -- कुच । तबधरि-:तब से | 
दगधे - जलाता हैं। अनंग-- काम । ५--क्रनक कठोरा “: सोने का 
ऋटोरा ( कुच )। अतनु ८ कामदेव । एक तो घारीर भौरवर्ण हैँ और 
उस पर से ( फुच ) सानो- सदन ( अतनु ) सोने के कटोरे से कोब 
( बलपृव्वंक भर ) दिया गया .है, ऐसा प्रतीत होता है। ६--जत्ति 
चूकि ऐसन -:ऐ ता समक पड़ता है मानो“ "“॥ ए--दसन -: दाँत ६ 
अधर ८ शोठ । भासा -- भाषा, वचन | ८ पझ्त्तए 5८ इतना ही तो। 
श्र ह 





प्रेम-प्रसंग 
हक ७०.० 2 । 


[ २६ ] 

ससन - परस खसु अम्बर रे 

देखल धनि देह। 
नव जलधर - तर संचर रे 

जमि बिजुरी - रेह ॥२॥ 
आज देखल घनि जाइत रे 

मोहि उपजल रह्ढ। 
कन्तक - लता जनि संचर रे 

महि निर अवल्मम्ब ॥श॥। 
ता पुन अपरुब देखल रे ' 

कुच -जुग अरबिन्द | 
बिगसित नहि किछु कारन रे 

सोझ्ी मुख - चन्द ॥६।॥ 
बिद्यापति कवि गाओबल् रे 

रस बूक रसमन्त | 
देवसिंह नृप नागर रे 

हासिनि देइ कनन्‍्त | ०॥ 
१-- ससन “: हवसन, पचन । परस -- ८पर्श से । खसु -- गिर पड़ा । 
 अ्म्बर - कपड़ा, श्रंचल । देख -- देखा | धनि -- बाला | २--जलधर -८< 
बादल ।' तर-तले, नीचे। जनि>मानो । रेह-रेखा ॥ ३-- 
'जाइत -- जाती हुई। रंग-:प्रेम ॥ ४--संचर--जा रही है। मिर 
अवलस्ब -- विना अ्रवलम्ब का। ४--ता-उसपर भी | पुन पुनः ॥ 
जुग-+दो । अरबिच्द ८ कमल।  ६--विग्र्तित ८ खिला हुआ | 
 सोक्ाा- सम्मुख । 





धरे 


विद्यापति 
कक गज आम भी 0। 


[ ३० | 


अलखित हस हेरि विहुसलि थोर। 
जनि रयनी भेल चाँद इजोर ॥२॥ 
कुटिल कटाख ल्ञाट पड़े गेल । 
मधुकर - डम्बर अम्बर लेल॥शा 
काहिक सुन्दरि के ताहि जान। 
आकुल्ल कए गेल हमर परान ॥६॥ 
लीला कमल भमर धघरु बारि। 
चमकि चललि गोरि चकित निहारि ॥श॥ 
ते भेल चेकत पयोधर सोस | | 
कनक-कमत् हेरि काहिल लोभ ॥१०॥ 
आध चुकाएल आध डउदास |! 
कुच कुम्से कहि गेल अप्पन आस ॥१२॥ 
से अब अमिल निधि दए गेत् सेंदेस | 
किछु नहि रखलन्हि रस परिसेस ॥१छ। ु 
भनइ विद्यापति दुहु सन जागु। | 
बिसम कुसुम सर काहु जनु ल्ञागु ॥१ ३ 
-अलखित > अलक्ष्य रूप से--विना दूसरे के देखे । हेरि-- 
देख कर । बिहुसलि -- मुस्कुराई | २७--रथनी -- रजनी;रात | इंजोर -- 
उगाला | ५---काहिक -- किसकी । दे --कौन | ७--वरु वारि-निवारण 
करं--कोतुक से भ्रमर को कप्तल से निवारण कर ६-ते -5इससे | 
बेकत -- व्यक्त, प्रकट | ६१, १९---तकाएल - छिपा हुआ | उदाघ-: - 
तेकट | कुम्भ >घड़ा। आधा छिपा और आवा प्रकट कुछ-क्ुम्भ 
- (दिखाकर) बह श्रपनी आशा कह गई ( कि सिलू गी) (३०-असिल -- 
४ 


जज | 
प्रस-प्रसग 


“की ६-42 


( ३१ ) 


अस्बर बिघठु अकामिक कामिति है 
कर कुच माँप सुछन्दा । ह 
क्‌नक - सम्धु सम अनुपम छुन्दर 
ढुइई पंकज दस चन्दा ॥२॥ 
.. कत -रूप कहूब बुकाई । 
मन मोर चंचल लोचन बिकल्ल भेल 
को नहि. अनइंत जाई ॥श॥। 
आड़े बदन कैड सधुर हांस दुए 
... झुन्दरि रहें सिर नाई । 
अझधा कमल कान्ति नहि.. पूरण 
- हेरइत जुग बह्धिः जाई ॥६॥ 
. भनइ बिद्यापति खुठ जोबति 
पुहबची. नव पेंचबाने । 
राजा सिवर्सिघ रूपनरायन 
लखिमा . देई रमसाने ।८॥ 
० 2 ललनल 
- अ्रप्नाप्य | विधि खजाना । ६ ४-...परिसेस ८ परिशेष, बाकी | १५६००” 
' बिसम-- विबस, कठोर । फुंसुम- सर २ कामदेव का शर |. | 


जन 


-. >--अम्बर -- वस्त्र, अचल । बिघटु ८ हट गया | ग्रकासिक -८ 
झ्रकस्मात ॥ कर--हाव। फॉपु-ढठक लिया । चुद -- सुन्दर | 
ख्रकस्मात_ पअंचल हट गया; ( तब ) कामिनी में अपने दोनो हृश्थ 
से सुन्दर कुचो को ढच्ठ लिया ॥ २--कनक-सम्सु ८ सोने के महादेव 


०24 


विद्यापति 
“8-४7 “घ>82 


( रे२ ) 
गेलि कामिनि गजहु गासिनि 
बिहसि पलटिे निहारि। 
इन्द्रजालक. कुसुम - सायक 
कुहकि भेज बर नारि॥श। 
जोरि भुज जुग मोरि वेढ़ल 
ततहि बदच सुछन्द | 
दाम - चम्पक कास पूजल 
जइसे सारद चन्द ॥४॥ 


8 अ अट  ट 
( कुच ) | दुइ पंकज--दो कमल ( दोनों हाथ )। दस चअंदा-॑दल 
चन्द्रमा ( दस अंगुलियाँ ) | ३---कंत -- कितना | ४--श्रनइत - श्रच्यत्र, 
दूसरी जगह । (--आढ़ ८ श्रोटठद | ६-+अ्रश्नोंघा-उलटकर रकखा हुआ | 
जुग बहि गई -- युग बीत जाते है । ७--पुहवी -- झथ्वी | नच -- नवीन | 
पंचबाने -- कामदेव | ८--रमपे -- स्मएण, पति । 


१--गेलि ८ गई । गजहु॒ गामिनि८ हाथी के समान मस्तानी चाल ' 
वाली । बिह॒सि - मुस्कुराकर । निहारि> देखकर । २--इन्द्रजालक <- 
ऐन्द्रजालिक, जादू भरा। कुसुमसायक -- कामदेव । कुहुकि ८ मायाविनी नटी 
भेलि ८ हुई । मानो वह श्रेष्ठनारी काम ऐन्द्रजालिक की मायाविनी नटी 
हो । श्र्थात्‌ उसकी हँसी ने श्रदूसुत घमत्कार का अनुभव करावा। ३-- 
४, मोरि>मोड़कर | बेढ़ल्य --घेरा | ततहि> वहीं | बदन ८ मुख | 
दास -- रस्सी ( माला ) चम्पक- चम्पे की | जइसे - जैंसे | सुछन्द -- , 
सुन्दर। दोनों हाथो को छड़कर उनसे अपना सुन्दर मुख लपेट लिया, भानो 


कामदेव ने चस्पे की माल्य (हाथ) से शरद-चम्द्र (मुख) की पूजा की हो। 
४६ 


५ 


के प्रेम-प्रसंग 


उरहि अंचल माँपि चंचल के 
झाध पयोधर. छेरु। 
पौन पराभव सरद-धन जनि 
बेकत कएल सुमेरु॥ ९॥ 
पुनहि दरसन जीव जुड़ाण्ब 
टुटत बिरह के ओर । 
चरन जाबक ह्म्द्य पाबक 
दहइ सब अँग मोर॥ ८ | 
भन बिद्यापति सुनह जद॒पति 
चित्त थिर नहि. होय। 
से जे , रमनि परस गुनसनि 
3 कए सिलब तोय ॥१९०॥| 
४, ५--उरहिं -- दक्ष:स्थल को । फऊापि ८ ढे ककर । परयोधर-स्तन, 
कुच + हेरू-- देखती है। पौत-पवन, वी! पराभव ८ हारकर | 
जनि--सानों । चेकत -+ व्यवत, प्रकट । केएल किया | सुमेरु ८ पर्वत 
वक्षःस्थल को चंचल अंचल से ढाँककर आधे कुच को देखती है, मानों पवन 
से हारकर शरद के भसेघ ( अचल ) ने सुमेर को ( कुच ) प्रकट किया 
हो--जिंस भरकर परत के भोंके से सेघ हट जाने पर सुमेह देख पड़ता 
है उसी प्रकार “| ७-जीव प्राए[। जुड़ाएब -- शीतल होगे। शोर-सीमा। 
८घ--जाबक ८+ महावर । पावक्ष -- श्राग | दहइ -- जलता है । उसके पर के 
महावर (मेरे) हृदय मे' श्राग (लगा रहा) है जिससे सेरे सब अंग जल रहे 
है । १०-से ल वह । पुनु ८ पुण्य, पुनः | मिलव ८ मिलेगी । तोय -- तुम्हे । 
52 


विद्यापति 
न» हि 5.0 ड 
(३३) 
सहजहि आनन सुन्दर रे 


भोंह. सुरेखलि आँखि। 
पंकज मधु-पिबि सधुकर रे 


उड़ण पसारल पाँखि॥ २॥ 
वतहिं धाओल दुह्ठु लोचन रे. 
जतहि गेलि बर नारि। 
आसा-लुबुधल न तेजए रे 
कृपन क पाछु मिखारि ॥७॥ 
इंगित नयन तरंगिंत रे 
बाम भेंझोह सेल संग। 
तझन - जानल तेसर रे 
गुपुत मनोभव ' रंग॥ ६ ॥ 
६-भानन -+ मुख। भौंह सुरेखलि -- भौंहो हारा श्रल्छी तरह चित्रित 
की गई, सुन्दर बनाई गई | २-पंकज -- कमल (मुख) । संधु-- पुष्परस | 
पिवि८ पीकर । भवुकर ० भोर। (नयन उड़उ्‌ -- उड़ने -को । पसारल -- 
पसार दिया, फेला दिया । पाँखि -- पंख, पर, (भोंह) । ततहि>वहाँ। 
धाश्नोल -- दौड़ गया । जतहि जहाँ। भेलि>गई ॥ ४--आ्रासा-लुबधल-- 
आशा से लुब्ध हुश्ना, चूर' हआ। आशा भे चूर भिखारी जिस प्रकार कृपए 
(सम) का पीछा भो-तहीं छोड़ता । ५--इंगित -- इशारेसे युक्त | तरंगित- 
नचल। बाघ > बाई । भेंश्रोह भेल भग -- भौंह संग हुई--भर् ठेढ़ी कीं। - 
६ तखन -- उस समय | तेसर 5: तीसरा व्यक्ति] सनोभव # कास- 
ठप 


प्रेम-प्रसंग 
या 8 


चन्दन चरचु परयोधर रे 
ग्रिमस गज मुकुताहार। 

भसम भरल जनि संकर रे 
. सिर सुरखरि जलघार ॥८॥।॥ 

वबाम चरन अगुसारल रे 
दाहिन तेजइत. ल्ाज | 

तखन मदन सर पूरल रे 
गति गंजएण गजराज ॥१०। 

आज जाइत पथ देखलि रे 
रूप रहल मन लागि। 

तेहि खन सर्ये गुन गौरव रे 
घधेरणज गेज्ल भागि ॥१९॥ 





देव | ७--वरचु ८: चचित किया। पयोधर ८ फरुच, स्तव | ग्रिम ८८ 
गले में | भरल ८ भरा हुआ | पुरसरि८>- गंगा | कुच धन्दत से चचत 
- है, जिसपर गजसुकताश्रो की माला ( कूल रही ) है, मानों भस्म का लेप 
किये हुए महादेव के सिर पर गंगा की धारा ( बह रही ) हो । ६-- 
अगुत्तारल - श्रग्नरर क्षिया, श्रागें किया | दाहिन तेजइत लाज ८ दाहिने 
पेर को श्रागे रखते लज्जा होती हैं। १०--तखन - उस ससय ६ 
सदन --कासदेव | गति >-चाल। गंजए-पराजित फरती है। 
गजराज -- हाथी | ११--छप रहल मन लागि-- रूप सन से लग रहा 
है--सौंदर्य हृदय में बैठ गया । खन --क्षणा | से - से | गेल - गये । 
| घ्६ 


विद्यापति 
*&.९:“६-८७2 


रूप लागि सन धाओज् रे 
कुच-कंचन-गिरि साधि ! 

ते अपराधें मनोभव रे 
_ ततहि धएल्न जनि बाँघि ॥१४॥. 

बिद्यापति कवि गाओंल रे 
रस बुझा रसमंत । 

रूपनरायन नागर. रे 
लखिमा देह. कंत ॥१६॥ 





१३, १४--लागि - लिये | कुच-क्चन-गिरि साँधि-- स्तन रूपी दो 
सोने के पहाड़ो के संधि-स्थान में-बीच में । तें -- उस | बांघि घष्ठल -- 
बाँध रख्खा | रूप फे लिये--सौदयं के लोभ में मेरा मन उसके कुच 
रूपी दो पहाड़ो के बीच से जा दोड़ा, मानों, इसी श्रपराध से” कामदेव 
ने उसे यहीं बाँध रक्‍खा। १४--बुभ-बूभो, समझो | 
रसमन्त -- रसिक । 


है सज्जना: श्एणुत सहचनाः समत्ताः, 
स्वर्ग सुधाउस्ति सुलभा न तु सा भवस्दिः । 
कुर्मेस्तदत्र भवतासुपकारकारी 
काव्यामृत पिबत तत्‌ परभावरेण ||” 


प्रेम-प्रसंग . 
“७४. “०७-७2 
( र४ ) 
पथ-गति पेखल मो राधा । 
तखनुक भाव परान पछ पीड़लि 
रहल कुमुद-निधि साथा ॥४॥। 
ननुआ नयन नलिनि जनि अनुपम 
चंक. निहार्‌इ थोरा। 
जमि संखल में खगबर बॉधल 
दीठि लुकायल मोरा ॥9॥ 
आध बदन ससि विहसि देखाओलि 
आध पीहलि निअ वाहू। 
किकछु एक भाग बल्लाहक मॉपल 
____ किक गरालल राह हो -उका गरासल राह ॥९॥ 
१,९-पथ गति-पथ में जाती हुई । पेखल ८ देखा | मो में । 
तखनुक -+ उस ससव्‌ का। परान पए>-प्राए भी। पीड़लि न पीडित 
क्रिया । रहल रह गया, कुमुद-निधि ८ कुमुद का सर्वस्व ( चन्द्र ) । 
साधान साथ, इच्छा । मैने राह में जाती हुई राधा को देख।। उत् 
समय की उसकी भाषभगी ने प्राणो तक को पीड़ित किया, उस चन्द्र 
. ( भुख ) को देखने को साथ बनी ही रह गई। ३- ननुश्ना ८सुच्दर । . 
तलिनि- कसलिनी । जनि८ समान | बंक८ टेढ़ा । निहारई-- देखती 
है । ४--ख खल ८ श्व खला, जंजीर । खंगवर ८ पक्षिश्रेष्ठी) खजर। 
बॉधल क्लबॉधघा । चुकाएल ८ छिंए गथा। प्ू--बदन-स सि ८5 मुखरूपी 
चर्मा । देखाश्रोलि -- दिखलाई । पीलहि ढाँप लिया । निश्न -- निज । 
बाहु ८ वाह से, शुजा से । ६--भॉपल ८ ढॉप दिया। बलाहक ++ मेघ । 


४९ 


“विद्यापति 
>“&:<27 “६७४72 
कर-जुग पिहित पयोधर-अंचल 
चंचल देखि चित भेला। 
हेम कमत् जनि अरुनित चंचल 
मिहिर-तरे निन्‍्दर गेला ॥८॥ 
भनई विद्यापति सुनहु सधुरपति 
हह रस केह पए वाघा। 
हास दरस रस सबहु बुझाण्ल 
नाल कमल दुइ आधा ॥श्गा 





“गरासल--ग्रस लिया। ७,८5-पिहित -आशृत, ढेंगा | पयोवर ८ 
स्तन । श्रंचल -- विभाग, तट । हेव सै सोना । जनि ऋ मानो । श्ररुनित ८८ : 

“छालिसा-युक्त | तरे८ नोचे । सिहिर ८सुर्य - । निरदा गेलालस्सो रहा। 

“दोनों हाथों से ढके हुए स्तनों के तट-भाग देखकर चित्त चश्चल ही 

- गया, मानों, सोने के कमल ( दोनों कुच ) लालिसा-युक्त चंचल 
सूर्य ( लाल हथेली ) के नीचे सो रहे हों॥ ६, १०--सुनह ८ सुमो । 
पघुरपति> मथुरा-पति । इह८>-यहु । केह ८5फोन । हास ८ हँसी । -_ 
दरस-दशेन । बुझ'एल >बूक पढ़ा, सालूम हुश्ला | नाल-- कमस 
की ) डंदी | हे मधुरापति श्रीकृष्ण, ( तुम्हारे ) इस रस सें कौन बाघा 
देगा ? तुन्हारी पारस्परिक हंसी श्रोर दर्शन के रस से ही सबको मालूम 
हो गया कि मुणाल और कसल ( तुम्हारे हाथ रूपी स्ेझाल और उसके 

“कुच रूपी कमल ) ये दोनों ( एक ही पदार्थ ) के दो भाग हें--प्र्थात्‌ 
उसके कुच के लिये तुम्हारे हाथ ही उपयुक्त हे । 


प्रमप्रसंग- 
(75% ७, . 


( ३४ ) 
जहाँ-जहाँ पग-जुग घरई | तहिं-तहि सरोरुह झरई॥२॥ 
जहाँ-जहाँ कज़कत अग | तहि-तहि विजुरि-तरंग ॥७॥ 
कि हेरल अपरुत्र गोरि। पइठल हिय सधि मोरि॥६॥ 
जहा-जहाँ नयन विकास । तहि-तहि. कमक्ष-प्रकास ॥८॥ 
जहाँ लहु हास संचार | तहिं-तहिं. अमिय-बिकार ॥१०॥ 
जहाँ जहाँ कुटिल कठटाख | ततहिं. मदन-सर लाख ॥१२॥ . 
हेरइलत से धघनि थोर | अब तिन भशुवन अगोर। १.॥ 
पुनु किए दरसन पात्र | अब मोहे इत दुख जाब ॥१६॥ 
बिद्यापति कह जाति | तुआ गुन देहब आनि ॥१८॥ 
१, २--पग जुग |दोनों पेर। धरई-घरती है, रखती है । 
तेंहि-- वहां । सरोक्ह - कम । भरई > भड़ते है। ३, ४-- भल- 
कत -- भलफते है, चमकते हे । श्रंग--शरीर | बिज्ञरि-तरंग--बिजली 
का चंचन् प्रकाश । ५, ६--कि ८ क्या । हेरत्र देखा । गोरि-और- 
बदना, सुन्दरी । पहुठलल ८ पैठ गई, घुस गई ५ हिय-मधि ८ हृदय से । 
सोरि - सेरे। ६, १०--लहु ८ लघु, मंद | हास ८ हेँसी। श्रसिय-प्रस्त । 
११, १२--कुटोण > टेढ़े ॥+ फ्टाखल्‍कटाक्ष ५ ततहिनल्‍झबचहाँ ही। 
मदन-हामदेव । सरण्झवाए । १३, १४--हेरइत--देखते ही । से: 
वहू्‌। धनि-बाला, सुन्दरी। श्रगोरप्रतीक्षा करता। १५, १६-- 
पुनुझपुत 53 किएव्क्‍या)। १६--अ्रब से इसी दुःख से सखूगा। 
१८-- तुश्न-तुम्हारे | देहब झानि ला दू गा। 


हर आकभाकामक गयहामकान ड्रकादााल्‍कापनमा, 


३० 


'विद्यापति 
“७8७7 ७४७, 


राधा का प्र 
(३६ ) 


ए सखि पेखलि एक अपरूप | 
सुनइत सानबि सपन-सरूप ॥ २॥ 
कमल जुगल पर चाँद क माला। ' 
तापर उपजल तरुन तमाला ॥ 9 ॥ 
तापर वेदृलि विजुरी - लता | 
कालिन्दी तट धीरे चलि जाता ॥ ६॥ 
साखा - सिखर सुधाकर पाँति। 
ताहि नव पल्लब अरुनक भाँति || ८॥ 
विसल विम्वफल जुगल विकास | 
तापर कीर थीर करू वास ॥१०॥ 
तापर - चंचल  खंजन - जोर | " 
तापर सॉपिनि भकाँपल मोर ॥१श॥। 
ए सखि रंगिनि कहल निसान। 
हेरइत पुनि मोर हरल ग्रिआान ॥१७॥ 
कबि विद्यापति एह. रख भान | 
उर्ुरुख मरस तुह भसल जान ।.१६॥ 
.. ३--कमल छुयल- दो पैर । चाँद क माला-तलो को पिया 2.7 
तरुत तमाल-काला दारीर। ५--चेडलि-लिपटी हुई । विजुरी- 
लतान्पीतास्बर | ७--साखा-सिखर-तमालरूपी . शंसर की 
शाखा-रूपी घाहुओ के श्रग्न भाग से । सुधाकर-पॉति-चखों की 
पंकित । ८-नव पललब-हथेली | श्ररुतक साँति लाल । 
झट 


न 


*0 


ना, 


8६---बिम्बफुल ८८ 


१--की लागि ८: फिंसलिये । निर्मिष 
आधी अ्रॉँखों से, कतखियों से | २--मरस -- 
बिषम -: कठोर | ३- बिरस -- रसहीन । बासी 


[३७ ] 


की लागि कौतुक देखलों सखि 
तनिमिष लोचन आध 
सोर मसन-सग सरम  वेधल 
विपम बान वेआघ ॥श॥। 
गोरस विरस वासी बिसेखल 
छिकहु छाइल गेह। 
मुरली धुनि सुन भो मन मोहल 
विकहु सेल सन्देह ॥४॥ 


तीर तरंगिनि कदस्व - कानन - 


मनिकट जमुना बाद । 
उल्नटि. हेरइत उलटिे. परलओं 
चरन चीरल” कॉँट ॥६॥ 
सुकृति सफल. झुनह सुन्दरि 
बिद्यापति भन सार। 
कंसदुल्नन गुपाल सुन्दर 
मिज्ञल नन्दकुमार ॥८5८॥ 


कप |.4 
प्रस-प्रसग 


हा आआ 


श्रोष्ठ। १०--कीर नाक । २ १--खंजन जोर -- 
आँखों का जोड़ा | साँपिनि >-केश्म | मोर-- मोर मुकुट | 


“एक क्षण | लोचन आधघ -- 
हृदय का भीतरी भाग | 
सी ' बिसेखल -- विशेषतः 
बासी | छिकहु -- छीकने पर भी | प--तरंगिनि -- नेदी । 


- आम 


विद्यापति 
इ,८२», 


[ रे८ | 


अवनत आनन कए हम रहलिहँ 
बारत लोचन - चोर । 
पिया मुख - रुचि पिवए. धाओल 
जनि से चाँद चकोर ॥२॥ 
ततहु सर्य हूठ हटि मो मानल 
धएल चरनन राखि। 
मधुप मातत्न छड़ए न पारए 
तइअओ पसारण पाँखि ॥४७॥ 
2, २९ अवनत > मीचे । श्रानन सुख | बारल--तिवारएा किया | 
शोक रदखा । - मुख-रुचि -८मुख को शोसा। पिबए“>पौने के लिये।॥ 
चघाओल -- दौड़ पढा। जनि--भानों | से-वह। मैंने अपने मख को 
सोचे कर लिया और नयन-रूपोी चओोरों को ( उत्तकी शोर जाते से ) 
रोक दिया; किस्तु प्रीतस के सुख की शोभा का पान करने के लिपे वे - 
दोड़ पड़े, जिस प्रकार चाँद की श्रोर चकोर दौंड़ते हे | ३, ४ | ततहु-- . 
चहाँ | सये - से । हुटि-- हटाकर । मो > मे | झानल-- लाया । घर्ल : 
. शाखि >धर रखा । मधुप--भौरा। सातल -मत्त बना, पागल | 
उड़ए न पारए ”8हीं उड़ सकता। तइश्नप्नो -- तो भी | पार ए -- 
'यसारता है । वहाँ से--मुख की ओर से--मैं ( श्राँखों को ) हठ 
यूवेक्ष रोककर हटा लाई और अपने चरणों परः घर रक्‍्वा-लीचे की ओर 
देखने लगी । (किन्तु जिस प्रकार) सथु पीकर सतत ढना भौरा नहीं उड़ 
- ऑदि, > 


नर 


है 
न 


प्रेम-प्रसंगे 
हु 
माधव बोलल . मधुर बानी - 
से सुनि मुँदु मोय कान। 
ताहि. अवसर ठाम बाम मेल 
... घरि धनू पंचबान ॥॥॥ ह 
तनु पसेब पसाहनि भासलि 
पुलक तइसन जाग॒ु। 
चूनि _चूनि भए काँचुअ - फाटलि 
. बाहु बलआ भाँगु ॥णा। " 
भनबिद्यापति कम्पित कर हो .- 
.._ बोलल बोल न जाय 
राजा सिबसिघ रूपनरायन 
- साम सुन्दर काय ॥१०॥ 
_______. ?ौऔौखल््श्््त-+ 7, ---+__फऊऋ्रजज--|--यएण 
. सकता तोभी पंख पसारता है उसी तरहे मेरी आँखे बराबर उस और जाने 
लगी) १--पुंढु--मूंद लिया। ठाम-जगह। बान भेल ८ विरुद्ध 
« हुआ, बरी हुआ्ाा। पंच्रवान-- कामदेव । ६--उसी समय उसी जगंह 
कामदेव धनुष धारणा कर सेरा बैरी हुआ--मुंझपर बाणों की बोछार 
करने लगा । ७--पसेब -- पसीना | पसाहनि- प्रसाधनी, ललाट पर 
को सजावट, अंगेराग | भासलि ८ देह गया, थो गया। पुलक-८ 
- रोमांच | तइसन “उसी प्रकार | ८--चूंनि चूनि भए-खंड-खंड 
होकर” ,चिथड़े-चियड़े होकर ।- काँखुओ - कंचुकी, चोली । बलओा-- 
चूड़ी । भांगु--फूट गई । [प्रेमातिरेक से शरीर फूल उठा, ज्ञित कारण 
चोली फट गई झौर चूड़ियाँ फूट गई । |] --क्ष्पित कर हो - हाथ 
कफाँप रहे हैं। बोलल बोल न जय -- बात कही नहीं जाती । 


॥| 


७ 


8 


विद्यापति 
९७७, ८-<७५ 
[ ३९ ] 
सामर  छुन्दर ए बाद आएत 
तें मोरि लागलि आखि | 
आरति आँचर साजि न भेत्ते 
सब सखीजन साखि ॥२५॥ 
कहहि मो सखि कहहि मो 
कत तकर अधिबास | 
दूरहु दूशुन एड़ि मे आबओं 
पुनू दरसन आस ॥: । 
कि मोरा जीवन कि मोरा जौबन 
कि मोरा चतुरपने। 








(“पड वाट-इस रास्ते | ते ऊइसी कारण | २--आ्रारति -- 
आत्तावस्था से, व्याकुलता से । साखि -- साक्षी, गबाह। व्याकुलता 
सें->-प्रेमावेश से--मे श्रांचल को संभाल भो न सकी-अपने कुचों को 
सली-भाँति ढक भी न सकी, इस बात को गवाह सभी सखियाँ है। ३, 
,४--मो -- सम रसे | कत >फहाँ| तकर - उसका ! अधिवास ८ निवास- 
स्थान । हूरहु हृगुत - दुगुनी दूरी ॥ एड़ि -- प्रतिकनएं फर | श्रावओ -- 
आती हूँ | पुन्‌ -- पुचः। बहो, ऐ मेरी सखी, कहो, उसका निवाछ-स्थान 
कह है ? दुगुनी दूरी । (होने पर भी उसे) अतिक्रम कर मे पुनः दर्शन 
पाने की श्राज्ञा में यहाँ श्राती हैं । ५, ६--मरुदलि -- मच्छित | 
अछझओं --हं | मेरी जिन्दगी क्या, जवानी कया शौर चतुराई दया-- 
वे सब ,मिथ्या है| काम के वाणं से मे मृच्छित हो और 
अप 


रे 


8. । 
प्रस-प्रसग 


< ३० <&"७७ 
_मदन-बानच मुरुछलि अछओं 
सहओं जीव अपने ॥श॥ 
आध पद घरइत मोए देखल 
नागर-जन समाज 
कठिन हिरदय भेदि न भले 
जाओ रसातल लाज ॥-॥ 
सुरपत्ति-पाए लोचन मागओं 
गरुड मागओं पाँखि। 
सन्‍द के नन्‍्दन हों देखि खऋबओं 
मत मनोरथ राखि ॥१०॥ 


कक ंंं+--++++++ 


( उसकी मामिक पीड़ा ) श्रपने प्राणो में सह रही हूँ । ७.८० नागर 
जन -- घतुर लोग | भेदि 5४ छेंदना, पिदीएँ होना । कृष्ण फी ओर 
ख्राधा पा रखते--प्रेमावेश में उनकी श्रोर एक पैर बढ़ाते हीं-- मुझे 
समाज के चतुर लोगो ने देख दिया | पर, मेरा कठिन हृदय फढ नहीं 
गया, लज्गा पाताल में घेंस गई । &--सुरपति -+ इन्द्र | पाए चरए 
में | पाँखि पंख | इन्द्र के चरणों में में उनसे सहर लोचन माँगतः 
हूँ, गरुड़ से पंख माँगता हूँ ' $०--डेखि श्रबश्नों - देख श्राऊं । 


अान्‍मवाह. आकककाक तरावाकमक 


- 70९४7 8 $8॥ जाए छह पाल एथी गा 
$9९ 9806४ 782४४५ 04 $76 ए070, “--97९॥/६६ 
४९ 


विद्यापति 
कक ४5७५ 


( ४० ) 
कानु हेरत्र छल मन बड़ साथ | 
कानु हेरइत भेल अत परमाद ॥२॥ 
तत्रधरि अ्रबुधि मुगुधि हम नारि। 
कि कहि कि सुनि किछ बुमिए न पारि ॥श। 
साओन-घन सम झर दु नयान | 
अबिरत धस धस करए परान ॥६॥॥ 
को लागि सजनी दरसन भत्र । 
रभसे अपत जिंड पर हथ देल ॥-)॥ 
ना जानू किए करू सोहन-चोर | 
हेरइत प्रान हरि लेई गेल मोर ॥१०॥ 
अत सब आदर गेल दरसाइ। 
जत बविसरिणए तत बिसर न जाइ॥श्शा 
विद्यापति कह सुन बर नारि। 
- घैरज धरु चिंत मिलव मुरारि॥१७॥ 





१---कानु ८ कृष्ण | हेरब देखना | छल ८ था। साध - इच्छा । 
२-- अत -- इतना । परमाद -८ प्रमाद, श्रापत्ति | ३--तबधरि - तबसे। 
सुगुवि -- मुर्धा | ४--कि -- बया ।'छुभिए न पारि-: नहीं समझ सकती | 
५-साओ्रोत घन -: क्षावण का सेघ | नयान ८ नयत, श्रॉ् |) ६-- 
अधिरत < हरदम । घस धस करए - धक-धक करता ८--रभप्ते -- 
कौतुक में ही। पर हथ - दूसरे के हाथ मे । €--किय -: क्या । २२-- 
 ग्रेज्ष दरसाई-- दिखला गया, बतला गया! २२--जत >- जितना |. - 
बिपरिए - भूलिये ५ बिसर न जाइ ८ नहीं भूलता । 


६० ः 


प्रेम-प्रसंग 
<#<७..<८7 ७ 
[ ४१ ] 
कि कहव हे सखि इह' दुख ओर । 
चाँसि-निसास-गरल तसु भोर ।४॥ 
हठ सर्य पहसए खस्रवनक साभ 
ताहि खनबिगरलित तन मन ल्ञाज ॥४॥ 


बिपुल पुलक परिपूरएण देह । 
नयन न हेरि हेरण जन केह ॥६॥ 
गुरु-जन समुखहि साव तरंग । 
| जतनहि बसन माँपि सब अंग ॥८॥ 
लहु-लहु चरण चलिए ग्रह माझ। 
आजु दइब विहि राखल लाज ॥१०॥ हे है 


- तनु- सन बिबस खसए निरबि-बंध | 
कि कहब बिद्यापति रहु धन्द ॥१२॥ 


 ३--कि८ कया । २--वाँसि मनिसास-गरल >“वबंशों के निःदवास 
के विष से---बंशी की श्रावाज की सादक्ृता से | तबु भोर८ शरीर 
बेंसुध है। २--ह० सेंय८- हृठपुर्थंक । पहसए-पेठता है। खबनक-- 
कानों के। साभम्झ्मप्य, में | ४--ताहि खनज८-उसी समय । बिग- 
लित-दूर हुई, जाती रही। ४--बिपुल- श्रधिक्र, अ्रसंख्य | 
'पुलक-- रोमांच । ६--प्रांखों से उस झोर--कृष्णा ही श्ोर--नहीं 
देखती है कि कहीं कोई ऐसा करते देख न ले | ७--गुरुजन-अपने 
से श्रेष्ठ व्यक्ति | भाव तरंगंज भावना को लहर। &--लहु-लहु -- 
घीरे-घधीरे | बइब बिहि८देव कब्रह्मा | ११--लसए- गिर पढ़ता . 
हैं। २--घन्द-- फिक्र | है 


६१ 


विद्यापति 


“&:67 “6:४7 
[ ४२ | 

कत न बेदन मोहि देखसि मदना। 

हर नहिं बल्ला मोहि जुबति जना ॥*९॥ 
बिझ्लुति-मूषन नहि. चानन क रेनू। 
बघछाल नहि मोरा नेतक बसनू ॥४॥ 

नहि समोरा जटाभार चिकुर क बेनी । 

सुरसरि नहि मोरा कुसुम क खेतों ॥३॥ 
चाँद क बिन्दु मोरा नहि इन्दु छोटा । 
लत्लाट पाबक नहि सिन्दुर क फोटा | ८। 

नहि ,मोरा कालकूट मसगसद चारु 

फ्नपति सहि सोरा मुकुता-हारु ॥१०॥ हे 
भनई बविद्यापति सुन देब कामा। 
एक पए दूखन नाम मोरा बासा ॥१श॥ा 





अरे क्षामदेव ! मुस्पे इतनी वेदवा सत दो, से महादेव नहीं. बरत 
युदती हू । ( छरोर मे लगे ) ये विभूति के भूषण (लेप) नहीं, वरन्‌ 
चन्दन के रेए! है, यह बाघछाला नहीं, बरन्‌ मेरी खुनरो ( तेतक बच्चन ) 
हैं ( सिर पर ) यह जठा का भार नहीं, चरन्‌ केशो की गूंथी हुई वेणी 
है। गड्भा नही, घरन्‌ देणी पे गूंथें गे ( उजले ) फूलो की कतार हु | 
(कपास पर) घन्दव की वे दी प्रथवा माँगटो का है | द्वितीया का घचच्धमा(इच्दू 
छोटा नहीं | ललाट में (तृतीय नेन्न की)अश्रग्वि नहीं, सिद्दृर का दीक्षा है । 
यह दिष नहीं, दिएुक पर घुन्दर ( काला ) मगधद हैं | ( गले में ) 


4 नहीं, किन्तु मेरी मुक्ताप्रों की माला है | चिल्यापति कहते है, - 
प्‌ 


प्रेम-प्रस॑ग 
५४, ६४६-४7 


( ४३ ) 
मनसथ तोहे की कहब अनेक | 


दिठि अपराध परान पए पीड़सि 
ते तुअ कौन बिबेक।२॥ 

दाहिनलि,. नयन पिसुध गन बारल 
परिजन वामहि आध 

आध  नयन-कोने जब हरि पेखल 
ते भेल अत परमाद।,४॥ 

पुर्बाहिर. पथ करत  ,गतागत 
के. नहि हेरत कान। 

तोहर  कुसुम-सर कतहु न संचर 
हमर हृदय पंचबान | का 

हे कामदेव, सुनो, मुझमें दोष है तो केवल एक यही, कि सेरा नाम 
बा ( रसणी ) है [ जो महादेव के 'बापदेव वास से मिलता है | 

१,२, मनमथ -- कामदेव | दिठि -- दृष्टि, चजर । पीड़सि -: पीड़ा देते 


हो | ३,४-पिसुन -- वुष्ट | बारल -- सता किया | परिज३-- घर के लोग 
: पेरमाद -- प्रयाद, ऋभ्ट | दहिने नेत्र को दृुष्ठों के कारण सवा करना 





पड़ा-दहिने नेत्र से दुष्ठों के डर से नहीं देखती --परियार बालों के 


' कारण बाये नेत्र के ज्राधे को निवारण किया | रह गया बाये' चेन 


: “का ध्राधा भता-सो झाधे चेच्र से ही--बाये नेत्र फे कटाक्ष से ही->जब 


कृष्णा को देखा तो इतना पागलपंतस मुझे झा गया। ५-पथ -: राह |करत 
. गत्तागत - ग्राते-जाते । कान <- कृष्ण । ६-कुसुम सर“: फूलों के वाण । 
पंचबान “5 कासदे4_्ष के पाँच दर | 


हा 


# 


विद्यापति 
“७७८७-७० 


( ४४ ) 
एक दिन हेरि हेरि हँसि हँसि जाय। 
अरु दिन नाम घए मुरत्लि वजाय॥२॥ 
आजु अति नियरे' करल परिहास। 
न जानिए गोकुल ककर बिलास ॥श॥ 
साजनि . ओ . नागर-सामराज । 
मूल बिचु परधन माँग बेआज ॥६॥ 
परिचय नहिं देखि झ्रानक काज। 
न करए संभ्रम न करए लाज।४॥ 
अपन निहारि निदारि तनु मोर । 
देइ आलिंगने भए बिभोर ॥१०॥ 
: खन खन बेदगधि कला अनुपास | 
अधिक उदार देखिआ परिनास ॥१२॥ 
बिद्यापति कह आरति ओर | 
, बुमिओ न बूकए इए रस भोर ॥१४॥ 


- 6 पे ट-भौर, प्रन्य || ३-नियरे-- निकट । परिहास-हंसो, 
मजाक । कर -- फिसका | १,३६-वागर सामराज -- चतुरों का सम्राट | 
मुझ - मूलबत | सक्ति, वह चतुरों का वावशाह है, देखो तो, दूसरे की 
सम्पत्ति पश विता मूल-धन के सुर माँगता है ( एक तो घन दूसरे का; 
उसमें भी पक्-घन गायब, फिर सुद्र फंसे ! / ७--हसरे का काम देख- 
कर भी नहीं परिचय रुसरता- “नहीं समकता ८- संश्रम >बढर। ११... 
भति-क्षण धनुपम विदशघतापुएँ कला ( दिखाता है ) ९४-... यह रख में 
वेसुध ( कृष्ण ) समभशर भी न ही उम्रता | हे | 

६७ ; 


(पूँन्वक 


[७6 . 


द्त्ती 


<#२२/८७४७/- 


कृष्ण की दूती 
आर) 


धत्ति घ्ि स्मति जनम धनि तोर । 
सव जन कान्हू कानद करि. भूरण 
से तुझश्न भाव बिभोर ॥ २ ॥ 

. चातक चाहि. तिआसल भम्बुद 
चकोर चादि रहु चन्दा। 

तरु, लतिका ' अबतस्बन किए 

. मु मन लागल घन्दा ॥ 
केस पस्तारि जबे टुऑँ राखलि 
डर पर अम्वर आधा | 


8 8 5-८ 2 लक कफ की पट कलर 2 5 पलपल लक 


7 


_१--धतिऊ धन्य रज्षमि -- रमणो, स्त्री | तोर ८ तुम्हा ज। इ-जन ८ 
प्रादमो | कान्‍्हु -- ऋष्ण | ऋूरए » जलते, व्याफुलहोते । से - वह | तुश्न +- 
तुम्हारे। बिभोर-बेंसुध | रे ,४--चातक-पपोहा ) चाहि--देखना । 
तिप्रासल ८ कृवित प्यसा | अम्वुद -+ बादल [तर ८ वृक्ष | लतिका -- लता । 
',, करिए --कर रहाहे। मर्ू> मेरे । लागल -हछूगां धन्दा-सन्देह । 

( कैसी विचित्रता है |! ) ठुषित सेघ झ्ाज पपीहे को झ्ोर देख रहा ह, 
चन्द्रमा चकोर को देखता है और दक्ष लतिक्षा का अवकस्थन कद रहा है; 
( इम विरोधी बातों को देख ) मेरे सत में संशय हो रहा हैं ।[ कवि का 
तांत्पयें यह है वि जेसो व्याफुलदा झाज तुमर्मे होनी चाहिये थी, वह 
श्रोकृष्ण में है। ] ५. पसारि-पसाएकर, खोलक्षर ! राखलि--रकखा । 


६४ 


हि 


विद्यापति 
4२७," ७- ७ 
से सब सुमिरि बान्‍्हु भेल आाकुत्त 
कह धतन्ति इथे कि समाधा ॥६|| 
इंसइत कब तुह्द दसन देव्ाएश्ष 
करे कर ज़ोरदि मोर। 
अलखित दिठि कब हृदय पसारलि 
पुन्ु हेरि सखि ,कर कोर ॥ ८॥ 
एतहु निदेस कहक्ष तोहे सुन्दर 
जासि तोहे करह विधान | 


हंदेय-पुतलि तुह्ू से सून कलेबर 
कवि त्रिद्यापति भान ॥१०॥। “न 


'उर > छाती, वक्षःस्पल | भ्रम्व र -- वस्त्र, -अ्रचल | इनसे 5 वह | भेस > 
- कै । इथे - इसका | घनि > बाले | समाधा > निवारण । ७,८-दसन 
सदाँत करे कर जोर हि मोर"हाथ से हाथ जोड़कर मुड़ती हुई | 
भलखिते -- भ्रवक्षय रूप से, विता देखे | पुन-- पुनः | हैर -- देखकर | 
कर कोर- कोर कर - फोड़ से क ना-रखना, झालिंगन करता | हाथ : 
से हाथ जोड़ कर< (श्रंगड़ाइय! लेतो हैई ) कब- तुमने पोछें को झोर मुड- ह 
कर, हँसतो हुई, श्र ने दांतों को घटा दिखाई, एवम्‌ चलक्ष्य दृष्टि छे 
. कब उनके हृदय को प्रधारित कर, पुनः उनको शोर देखकर, सखी का 
, आलियत किया | ५ एतहु + इतना । निदे8-- इसारा | कह -: (मैने) 
कहा | तोहे- पुम्हे । जानि -- जानकर । करह > कते । विधान -_ 
उपचार | १०-... हंपय-उत्तलि - हृदय की पुत्तली, आए से - वह ( कृष्णा)। 
अन-शून्य । कलेवर-- शरीर। भान-_ कहता है | | 


प्ठ 


[ ४६ ]] | 
सुन सुन ए सश्वि कदए न होए। 
राहि राहि वघए तन मन खोए ॥ २१५ 
कहदत नाम पेम भए भोर ! 
पुलक कम्प तनु घरमहि नोर ॥ ४ !॥। 
गदनाद भाखि कहए बर-कान | 
राहि दरप्त बिन निकम परान। ६॥ 
जन नहि हेरब तकर से मुख |. 
तब जिड-भार धरत्र कोन सुख ॥८॥| 
तुह त्रितु भान इथे नहि कोइ | 
बिसरएण चाह बिसारिे नहि होइ ॥ १०॥ 
भनइई बिद्यापति नाहि बिबाद। 
पूरव तोहर सब मन साध | १२ ॥ 
- १-शहुए ते डोय-- कहा नहीं लाता । २-राहिल्‍राघा । फर-शर के 
छहुकर । खोए--खोता, भुता देता। ३--प्रेत्त -प्रेस | भोर -- बेसुध | - 
४- पुलक “रोमांच | घश्महि ८ पसीना भी | नोर -- धाँसू | छरीर रोघांच 
होकर कॉँपने लग है, पश्चीता होता है भोर श्रांसू प्रवाहित होने लणते 
है। ५--गदगद ८ रुंधे हुए केंठ से | भादि-- कहना । क्राव- कृष्णा | , 
६-निकसे -- मिकलतर हैँ | ७-पशर < उतका | से >5चह | ८-घधरब ८८ 
घराँगा ' ६-आाब + दूलरा | इथे + यहाँ; तुम्हारे ता यहाँ दुहरा कोई 
तहीं--तुम्हे” छोड़ :र कृष्ण श्रम्य किसी को प्यार नहीं करते | १०-- 
बिसरएं > वित्मरण होना, भूव जाना । १ १- बिबाद- कलह | १९-पुरव 
पुरी होगी | सन साथ > सतःकापता । 








६९. 


पविद्यापति 
६6.7० ७7 


[ ४७ | 
कंकट साम कुछुम परगास | 
भमर बिकल्न नद्विं पाषए पास ॥२॥। 
भमरा सेल घुरण सबे ठाम | 
तोहे बिनु मालति नहिं जिसराम | ४ | 
रखमति मालनि पुन पुन देखि | 
पिबए चाह मधु जीव छपेखि ॥ ६।' « 
उ मधुनीबी ताँग मधुरासि । 
साँचि धर्रात् मधुमने न जलासि | ८।। 
अपनेहु मने गुनि बुक अबगाहि। 
तसु दूधन बंध लागत काहि॥ १०॥ 
भनद्दि “विद्यापति तों पय जीब। 
अथर सुधारख जो पथ पीब ॥ १२५॥ 





5 कम मर लीजक म 
१-परगास > प्रकाश | २-पाएब > पाता है, जा सकता है ३ भमरा 
-( माघव ) ४-माखति ( राधा) ६-जौब उपेस्--जोवस फो उपेक्षा करके. 
धर्चात्‌ मरेगे या भोवेगे इसका कुछ भो ख्याल व करके | ८--प्रंघि 
धघरसि--5ंवित करके रक्खः है | ६-भप्रवणहि -- डूबकर श्रर्यात्‌ इस बात 
को श्रपते सन सें भी मोति सोंचो समभो | ११-ं पथ जोब - तबजी 


सकता है। १२--प्रों पथ पीव - यदि वह पी सके | 
छठ 


दुतो 
“9 *“<६<&7 


( ४८ ) 
झाजु दम पेखल कालिन्दी कूले । 
तुआ बिन्तु माघव विलुठए घूले ॥!॥ 
कत सत रमति मनहि नहिं आते 
किए विप दाइ-समय जल्य दाने ॥8॥ 
मदन-प्ुंगसम. दंखल कान । 
बिनहि अमिय-रस कि करबव श्रान ॥ह।। 
कुल्बति घरम कांच समतूल | 
मदन दक्ताल भेक्ष अनुकूल ।प। 
आझानल वेखि नीलसति हार। 
से तुहुं पहिरबि करि ध्भिष्वार ॥१०॥ 
तीक्ष निचोल ऋँगवि निज देह । 
जति घन भीतर दामिनि-रेह ॥१२। 
' वौोदिक चतुर सखी चलु संग। 
अजु निकुज करद्व रख-रंग ॥१४॥ 
१-पेखल > देखा | शाछिन्दी -- यमुना । कूँछे - 7 इक्ष | शापक्षित्ी > यमुना । कूछे - छितारे में , २-विलु 
50 > छोट रहे है । २० कत + (तने | सत+ छी | श्लाने > लाता हैं ४- 
विष की ज्वाला के समय जल के दान से क्‍्या- विष वी ज्वाला फही 
पानी से शान्त होही है ? १-भुजंगम ८ सर्प | दसल ८ काटा । काव -- 
कृष्ण | ६-प्रमिम्न > म्मुत | कि करव ८ दया परेगा । शान - अन्य | 
८-समतूल :: समान । १० से न वह ) झमिसार >गप्त मिलन, प्रियतम 
के पाध गधत। २१-निशोल ८ धोली । १२-धन +- मेष | वासिति ८ 
, बिजली । रेह-रेखा । घौदिक ८ चारों ओर | 
न्‍ ह हा 


विद्यापति 
*&-+#72 8७. 


(४९ ) 
आज पेस्लल नन्‍्द-किसोर । 
केलि-विज्ञास सबहु॒ अब तेन्नल 
अद्द निसि रहत बिभोर॥१५॥ 
जब धरि चक्रित बिलोकि विपिन-तट 
पतल्नटि आओलजि मुख मोरि। 
तबधरि सदन मोहन तह कानन 
लुटइ धीरज पुनि छोरि।४॥ 
पुत्ु फिरे स्लोह नयन जदि हेराब 
पाओोब. चेंतन नाह। 
भुजंगिनि दंधि पुनहि, जदि -दंसए 
तबहि ब्रश्नय विष जाह ।६॥ 
अब  सुभ खन घनि सनिमय भूपन 
भूषित तनु अनुपाम | 
अमिश्वरु बत्लभ हृदय बिराजहु 
जनि मनि 5 आन काननादो कांचन-दाम ।८॥ | 
२- प्रह विद्धि - दिन-रात्त । बिभोर + बेसुध | ३-जब धार > जवधे। 
डे-तब घरि--तबसे | लुट॒इ - लोठते है। ४--पाश्नोब चेतन -- चेतना 
पाये, सु में ्रायेंगे। नाह- नाथ ( कृष्णा )। ६० भुज्नंगिनि ८. 
सॉँपित | दंसि काटकर | तवहि समय -- उ९ तमय-- उसी हालत में ० 
जाह > नाता हैं | ८ श्रश्चिषर > भभ्िएा ₹ करो--पुप्त मिलन-स्थान से _ 


जा सिलो | इल्लम - प्यारा, विद्यापति का उपनाम | जनि महि क्रांचन- 


दाम > जैसे सोने के घाये में मएियों को साला पिरोई गई हो | 
छ२्‌ 


* (४०) 

ब्रभ्म सिरिफता गरब गम ओलह 
जो गुनन्‍्गाहक आवे। 

गेल जीवन पुनु पल्नटि न ग्मावए 
केबत रह पछताबे ॥ २॥ 

सुन्दरि, बचन करह समधाने ॥ 


तोहि सनि नारि दिवस दस अछलिहं 
ऐसन उपजु सोहि भाने ॥४॥ 
जौबन रूप ताबेघरि छाजत 
जाबे मदन अधिकारी। 
दिन दस गेल्ले सक्षि खेहओ पराएत 
सकल जगत परिचारी ४६॥ 
बिद्यापति कह जुधषति लाख लक 
पड़ल पयोधर-तूले । 
दिन-दिन आगे खखि ऐसनि होएबहइ 
घोसिमि घोर क मूले ॥ ८।। 
१-«सिटिफल-भ्ीफल, बेल(कुच) । गमश्रोलह>-गेंवा विया, खो 
| । २-जौं->मदततर | प्ावे 5 भ्रावा है। ऐे-करह सम्रधाने-तमंधान 
) बिंचार फरो। ४-परिजत्तमान । अछलिहु--मे भी थी। भाने-- 
ह्त ४-छात्रत-शोभता है। ६-ोजे-डजाने पर | सेह्नो-वह 
४#प्राएतप्टमागेगा । ७-प्रयोधर-तुले-कुच तशाजू पर है । छ--श्र गे 
प्र सखि । होएब--हों जाओगी । घोसिनि-्तयालिन । घोरम- 
| मूले--मूल्य की । न 
७३ 
से 


बिद्यापति 
*छ.#> “6३० 


. ६४१) .. 
धनि कम्रलिनि सुन हितबानि। 
प्रेस करनि जब सुपुरुष जानि ॥२॥ 
सुज़्न॑ क प्रेस प्रेस - समतूल | 
दृहइत कनक प्गुन,हीय मूल ॥ ४ ॥ 
ढुटश्त नहि डुठ प्रम- अर दूभूत | - 
जइसन बद़ए घ॒त्राज्ञ कसुत। | ६॥ 
सबहु सतंगज- मोति नहि.मानि | 
सकल कंठ नहिं कोइहलतब्बाति ८ | 
सकल समय नहिं रीतु वर्रूत। - 
सफल पुरुष-नारि 'नहिं - गुनबन्त ॥ १० |! 
सनहइ ब्थिापति सुन बर नारि। 
प्रम क रीत अब बुकह ब्रिचारि ॥ १२ ॥ 





९--भ्ति > वाला । कर्मलिती -- एछ्चिनो जाति की स्त्री | बाने-- 
चाएी, बात | २-जब प्रेस करो तो सुपात्र ही जानकर | ३-प्रुजच॒ क- 
सज्जन क्षा | हेस-गोना । समतुल-प्र्लात्र | ४-इरहहुतं-जलते पर । 
कपक-पोचा । द्विगननदी गुण । सरू--पहध । ६--नइसन--जिस प्रकार 
बढ़व-्जड्ता है । सुनाल क्रा> सुणाल पा, कश्रल क्षौ-डंटो का | सृतर 
सु, धापषा, भीतर का रेशा। ७--मतगर--हांथी । सोति--पुरछे। | 
म- शीदल बानि+ गोयख की प्वाक्तल़ी | २०-हभी स्त्रिवाँ और पुररदोगि 
वन्त ही नहीं होते । “बाघ की एक कहावत इसी भाव की है-+ « 
सदा न दागा बुलबुल दोले, धर्दा द बाप बहारा। 
स्द्य न ज्वाती रहती यादें, ए 
ज्ष्ट 


का + ०7 


ये ने शहदत यारा | 


द्ती 


“528७० 


( ४ ) 
राघा की दूती 
सुठु मनसोहन कि कब तोय । 
मुएुधिनि रमनी तु लागि रोय ॥१॥ 
लिसि-दिन जागि जपय तुआ साम | 
थरूथर कॉपि पढ़एण सोइ ठाम ॥॥४। 
लामिमि आप अधिक जब द्ोह। 
बिग़लित लाज उठ तन रोइ ॥६॥ 
सच्िगन जत परवोवथ जाय । 
तापिनि ताय ततदि तध ताथ ॥5॥ 
कह कविसेखर ताक उपाय | 
रचइत तश्डि रधनि ब्रट्टि जाय ॥5०)।। 
दिल अनि मि कक कक लय लत किन पक “एम इकए 
१--क्रि--वंसा ) फेहढे-: फ्रहूँ ॥ तोष बुक ।२०- मुगुधिनि ८ 
श्घा, प्रेपासदता । रमसति -रमएफी, स्त्री । ठुन्न ग्राति ८ वैेरे लिए 
रोय > रोतो है॥ ४ - पड़ए ८ (गिर) पड़ती है । ठाम > जगह ।४-जब 
रात झ्रापी से अधिक बोत जाती हैं। ६-विंगलिध छाज ८ जाए 8रहित 
होकर । उठए तब रोह्८तब रो उठती हैं। ७ - जत ८ जितनी ! 
परबोषए > प्रबोध फरही है,प्रमझाती है । ८-वापिनि ८ ज्वाला से जली 
हुई। ताप ८ ज्वाला से । 6तहिं तत 5 उतना-ही-उतना | ताय-- जन्नती 
है। (वह बिरह-न्वाजा से ) जशी हुई बाला ज्याधा हे और भी 
झषिकाधिक बलतो है। ६-ताक ८८ उसका [ ०--अहिंलान -+ बह जाती 
- है, बोत जाती है । ः 
ण्श 


विद्यापति 
#6227<&9८22 


२-जर्जर > जर्जर, अत्यन्त क्षोए | भाशिती -- स्त्रो। श्रन्त -+मीतर । 
बढ़ल -- घढ़ गया ॥ तसु ८ घसी प्रक्ीर। ई--निर6 -- रसंहीन, उदास | 
कर हथ | शवलम्वह - झवजध्वद फरफे [मार -- सध्य | बदप्चणि 
ठेंढों | गौद- छिपाकर |] ४--प्रयन क्ष नी र-श्रॉसू | भीर ८ स्थिरता-। 
पर्म क्षपा, हृदय के भाव । कुहु-ससि + प्रा बाध्या का 
चंद्र ।६-उ5ए ८ पारर--३5 नहीं सझती | पुञ्दी पर वह बारुत स्वय - उठ 
नहीं सरूुती, (संखिणं) उस दीता को भुझा पकूडकर (घरती पर से) 


४-एरमस के धोल ८ 


७६ 


( ४३) 


माधव ! कि रुद्दव से विपरोत | 
तनु भेल जरकर भाभिती अन्तः 
खिल बादख तु प्रीत ॥२। 
निरप कमल-मुख कर अग्रल॒स्त्रर 
सखखि माफ बहुसल्नि ग्रोह। 
नसग्नन छा नीर थीर नहि बॉबइ 
पंक कयल महि रोइ॥श॥ 
सरसम के बोल, बयन नईद्िं वबोलय 
ठनु भेक्ष छुहुससि खीना। 
ऊझर्थात उपर घनि छटए ने पारइ 
घएलि शुशा घरि दीना ।$॥- 
त्दत कनक ज्ञानि काजर भेक तसु 
अति भेल बिरह - हुतासे । 
कनि , बिद्यापति सन अभिलासत 
कान्हु चललइ तसु पाणे ॥ढ। 





. इती 


(४४ ) 


ल्ोटइ घरनि, धरनि घरि सोाइ। 
खने खन सोस खने खन रोइ॥शा 
खने खन सुरछुइ कंठ परान। 
.  इथि पर की गति देव से जानताष्ट। 
हे हरि पेखलों से बर नारि। 
न जीवबइ बिन्नु कर-परसख तोहारि ॥६॥ 
. केओ केओ जपय बेद विठि जानि। 
केझो नत्र ग्रह पुञ जाविश् धानि॥_ 
केओकेझो कर घरि धातु विचारि। 
तिरह-बिखिन कोइ रूखए ने पारि ॥१०॥ 


उठाती हैं। ७-तप्त- तप्त, तपायें हुए। कक - सोता। जनि ८८ 
-समान । हुतासे ८ प्र्ति | ४--तदु < उसके | 
-१--छोटइ < लोडतो है । धरनि८ पृथ्वी | सोह-: गह , ३--खने- - 
खन- क्षए-प्षण् में | पस -: उससे लेवी हैँ। रोइ - रोठी है| ३--क्ष ए- 
क्षण में चह मरिछित हो जाती है धौर प्राए कठ तक पले पाते हैं ( मृत- 
प्राय हो जाती है) | ४-एथि -- इसके | प९-- बाद | फी>फ्शा | से -८ 
वह | ५- पेकलौं-- सेने ) देखा। ६-जीवइ-- मोथेगी | क्करवरप -- 
'हाथ का स्पर्श |/ ७-क्रेशो - कोई | दिठि ” मजर छग्रता | उ-पुश्न -- 
पुनता है| जोतिश्र ८ ज्योतिषि ) प्राति-ले शाकर, बुछाफर | ६- 
धातु नाड़ी | १०-थिरहु-बिखित्र -:विरह-विक्षीएा, दिरह से क्षीण 
हुईै। जखए न पारि-हयख वहीं सकता | 
७5७ 


विद्यापति 


<&25छ. ८9% 


चछ 


( ४४ ) 
अधिरक् नयन गरण ज़क्नधार 
नब-्जजल॒ बिंदु खसहए के पार ।२॥ 
कि कहच सजनी तकर कहिती | 
कहए न पारिअ देखक्लि जहिनी ॥ ४ | 
कुच-जुग ऊपर आनन  देझू। 
चाँद राहु डर चहल सुमेर ॥ ६ ॥ 
अन्लि अनल बस मलयज बीस । 
जेहु छल्न॑ सीतल झेहु भेज्न तोख ॥ ८१।। 


चॉइ छताबए खबिता हु जीति 
नहि. जीक्षन एकमत सेल तीति॥ १० | 


किछु उपचार मान नहिं आन। 

ताहि. वेआधि भेषज पंचबान । ३२॥। 
तुआ दरसस बिसु तिलओ न जोब | ह् 
जइओझी. कलामति पीड्ख पी ॥ [४॥ 





५१--प्रविरल >: छगातर । गरए--गिरता है। २-नथ-जल धिन्दु -८ 
नवीन जल के कण, आँसू | ३--तकर ८ उसहा | कहिनो -- कहातो' । 
 ४-जहिनी -- जैसो | ५--आवन -- मुख | ७--अनिल - घायु । श्रतल-८ 
श्राय | चम - घन फरता है,'उगल ता है | महयज -- चन्‍्दत । बीख -८ - 
विष । प-छत-था। तोख ८ तोक्षण | €-सब्ताहु --सुर्थ से भी | जीरि 
जसे, जीतकर, बढकर |) १०--एक्म्त भेल तीनि -- तीमों ( वाए , चन्दत, 
छत्द्र ) एकलत हुए । ११--उपचार “८ ओौषघा दि, । १२-- भेष ज -- दव१ 
. पेंचदान -- कामदेव। १३१--तितुओ - तिकृषमात्र भी, एक क्षण भी. 

धर ' 


दुतीं 


द# 8, ८४७ ८४७ 
( ४६ ) 
साखे. सझुअर कोटिदि क्ता 
जुअति कत न लेख।' 
' सब फूल मधु मधुर नहीं 
फूलहु फूल बिस्ुख ॥२॥ 
जे फुल भमर निनन्‍्दहु सुमर 
बासि न मिसरए पार। 
ज्ञाहि सघुकर उड़ि जड़ि पढ़, 
सेहे संसार क सार ॥७॥ 
सरदार, अदहु बचन सुत्र। 
सबे परेहरें तोहि इछ हरि 
किए अल आपु सराहहि पुत्र॥६॥ 
जीब--जीयेगी । १ै४--पौ यूश्च--पो पूष--्रमृत 
२, २>्तरश्॒र >तस्वर, दु्धेश्रेष्ठ | कत 5क्रिक्षता। सम लेख-८ 
संख्या नहीं, ऋतंख्य । सघुन्पुष्परस। सधुर ज्मीठा | छाणों ,पड़ हे, 
करोड़ो लताएं है, (यों ही ) कितनी युवतियाँ है ( जिनकी ) गिदत्ती 
नहीं | किन्तु सभी फूलों का रस सीठा नहीं होता--फूलों में भी कोई 
._- विशेष फूल होते है। ३--जेंडजिछ | भसर --भौरा । मिन्हहु--दीस्व सें 
भी । सुमर-<व्मरण फरता हे | बाधिज: गंध | न बित्तपएएं पार॑नहों 
विस्परषण कर सकता, हीं भूल सकता ४--सरधुकर--भौरा । पर८ 
पड़ना, बेठदा। से हेजयही । जिसवर भोंरा उड़ उड़कर मेंठे यही 
(६ फूल ) ससार का सार हे-संसार में खिलता उसी का सार्थक है । 
६.5 ह / 





छु & 


विद्यापति 
७७९? ध 
तोहरे चिन्ता तोहरे कथा 
सेजहु तोहरे भाव। 
सपनहु हरि पृनु पुत्र कए 
लए उठए तोर नाब॥|.८.। 
आलिगन . दुए पाछ्ुु निद्ारए 
तोहि बिनु सुन कोर 
अकथ कथा आपु अबथा 
नयन तेजए नोर ।'१०० 
राहि राही जाहि सूँई सुत्रि 
ततहि धअप्पए कान। 
सिरि सिय्सिघ इ॒ रस लजिानए 
कबि विद्यापति भान् ॥११॥ 


२--छुन - सुधों | ६--प्रबे 5 पबझो | परिहरि:- छोड़कर | इछ-- | 
इच्छ! छरता है। श्राप-प्रगतो । सराहुहि >सराहुना करो | पुर -< 

पुण्य | ४---तोहरे - तुम्हारा | सेजहें -- शय्या पर भी । घाव -- चाहना | 
८-धपनहु -- सपने सें भी | पुत्र पुन क्षए--बारस्वार | लए उ6ए-- ले 
उठते है | नाव-नास । बए--,ेते है'। पाछु-पीछे । निहारए-- 
देखते है । सुम -- शुन्‍्य, खाली । फोर--गोद । १०--अक्षथ -- न कहने 
वोग्य । श्रापु-- प्रपो । श्रवथा-८ प्रवस्था. । नोर -- भ्रस्‌ू। ११-- 
राहि- राघा । श्रप्पए-- त्रपंश करते है । १३--भाग -- कहते है 





+8 ७०४६ 48 8 एथॉग्राह+ 0/ 50प 7 
क्त्0 


शक.“ 2:2 
( ४७ ) 
खासायें मन्दिर निसि गमान३८४८ 
. सुख न॒ सूत संयान । 
जख्म जतए  जाद्दि निहारए 
तादि तादि तोहिं भान ।॥रो। 
मालति ? सफक्न जीवन तोर। 
तोर. बिरे.. सुञअन भूम्मए 
जेज्ञ मघुकर भोर ॥४॥ 
जातकि शेतकि कंत न 'भअछड 
सबदि रस समान । 
. सपनहू. नहि.. तादि निद्दारए 
सधू कि करत पानौशी . 
जन उपचन कुंन कुटी रद्ि 
सबहि तोहि निरूप । 





3 ट लकटय अंक कल न वर सर मम स्कटपि  क न पतन 
(-पखाधे ८ भाशा ' में | गताबए -: बिताता है | सूत - तोता हूँ | 
सेयारइ--तयत पर, दिछाचत । २-जजत्‌--जय । जतए--गहाँ [ 
जाहि- जसे । निदहारए-रेखता है । कुछ छहाँ जिपमते देखता हैँ, 
उसे उसे हो तुम्हे' भाव करता हे--अमपक् घी |झो तुम्हें ही तमक्तां 

- है! ।इ-भुप्रनरमृवन, संत्तार |] भंम्मए>असछफ फरते। मधुकर८ 

: भौंरा। सोर-विभोर, ष्याफुल या प्रातःझछोल । ५-जातक्षिसपारिजात । 
कंत-डितना है श्रछए-ह' | ६-स्वप्न में भी उन्हे देखता तक नहीं, 
फिर उतरा मधु क्यों रान छरने बला। ७-हबहि-प्भी स्थानों मे [ .- 
निरूए--निरुपज़ करता हे । न. ह 


पर 


विद्यापति 


“६-७7 “४2 |; 
तोहि बिनु पुत्ु पुन मुक्छए 

 अइसन प्रेम स्रूप ।८॥ 
साहर नथ्रह स्त्रभ्भ॒ न॒सहठ 

गुजरि गीत न गाब । 
चेतत पापु चिब्ताए आकुक्ष 

हरख सबे सोहाब ॥णा 

जकर॒ ह्रदय जतहिं रतत्त 

से घसि ततहीं जाए । 
जइशो जतने. बाँघधि.. निरयोधिआ 

निम्न नीर थिराए ॥१०॥ 
हूं रस राय सिवर्सिंघ जानए 

कबि वियापति. खान | 
रानि लखिंमा - देश वल्खभ 

सकल गुननिधान ॥श्श। 

य--पुनु पुनु ,व्युनु: पुनःचारबार | मुरछए-प्डिछेत होता हे । 
आअह्सन--द्त प्रकार का । ६-साहर--लहकाए, शाह वश्र-वया, 
नव कुसुधित फूल । सठश्स-प्तौरभ सुगंगध | गुजरित्-गु जार क्र्के | 
गाउन्गाता है। १०-चेदन-“चेतम्य, जीव | पापु-पापी सिन्ताएं-- 
बचिस्ता से। हरख सं घोहाव-प्रामन्‍्द से ही छब फझुछ छुहाता है | 
११५-जकछर-जिसका । ततहि--हहाँ । रतख्ञप्रमुश्कत हुआ | 
सेलरह । -धर्तिजघुफषकर । सतहिच्चहाँ ही। १२-शहशक्रो-- 
सद्यवि | निशेधिप्र--रोक श्छियें | दिमत्॑+दीडों जगह | सीर 

गती * थिशए-स्थिर होता है । 
घर 


नोक-माक | 


नोक-भोंकः 


*-2:/७७४> 
( शें८ ) ह 
कर धर करू महे, पररे 
देव में अपरुब द्वारे, कश्हैया | ९ 
ख्रखि सब तेजि चलि गेल्ी । 
नजानू कोन पथ भेली, कन्हैया | ॥ . 
इम न जाएब तुझ पासे। 
जाएव झ्ौीघट घाठे, कन्हैया।॥३॥ 
विद्यापति. एट्री भाते। 
मा गूजरि भरजु भगवाने, कन्हैया।८। 


१-- कर--हाथ | धसुूू--घधरकर । करुनह्रों । पारेन्उस पाए 
२३--रेशबनदू गी ॥ मेंस | हारेन्मालर । हे - तेज्ज-छोड़फर । 
' बलि गेली-यजली राई । इन्‍न जॉनल्नल सालूम | कोत पथ भेली- - 
फिस रास्ते गई ? ५-जाएंब--जाउंँयी ।+तुप्नज्तेरे । पासे--मनिक्कठ । 
६-- झश्रौधट घःटे-जिस घाट से कोई श्राता जता न हो । ७ एहो-यह | - 

भान-ऊहहते हैं| ८+जुजरिव्वाला, योपी | कि 

: « इस पद में प्रेमिका फे हृदय का छासा चित्र बिशमान है। छहाँएक 
.-प्रोर कहती हे-हप ने जाएद तुश् पासे तो दूधरोी शोर म हु से तिकलता 
हें-/जाएब श्रोषट घाटे--याते गा रही हे निश्चिन्त स्थ!न सें ही अथ। 
घलो, उस एकास्त स्थ'न में क॑लि-क्रीड़ा करे । यो हो इसके श्रन्य पदों मे 
सो झ्ंपुर्व बारंक भाव विद्यमान है । रसिफ पाठक्ष यौर करें ! 





५» 70699 88 807 धपाम्ए्ट तीर॥6 9 ,-22८0%. . 
५ प्र 


अविद्यापति 
- <&२६५, “कम? 


( ४६ ) 
कुंअ-भवन सर्यं निकप्चलि रे 
रोकल  गिरिधारी | 
एकटि नगर चस्र माधव हे 
जनि कर बटमारी ॥श। 
छाडु कन्हैया मोर आँषर रे 
फादत नब - सारी। 
अपतजसलस होएत जगत भरि हे 
जनि करिश्य उघारी ॥४॥ 
संत क सखि अगुश्माइलि रे 
हम एकसरि सारी। 
दामिनि ग्राए तुलाएल हे 
“एक राति अधारी ॥६॥ 
भनदिं. बविद्यापति गाओत्न रे 
सुतु शुन्मतिं सारी। 
क संग किछु डर नहि हे 
तोंह परम गमारी ॥८॥. 


42 


हे 


जीना +त 


१--पर्ये->वे. । विकेसष्टि-तिकली । रोकक-रोसदिया |२-- 
बस-रहुते «हों । अनि>सत । बढ्मारी-४छेती, राहुशनी ३-- 
सद-सासेज्ववीत साड़ी । उषधारोस-नस्स 4 ए--४ंग फ्-पाथ की । 
'अगुश्लाइन्िि--आगे गई । एकसरि-प्रसकेशी | ६--दासिनि आए तुला । 

बिजली भी घमहझने लगो--मेघ छा गाय | श्लेबारी-पघेरीं, कृष्णा- 
"पक्ष की | ८-हरिक-भोकृष्ण के। गमारो “पेंदरी, बेबकूफ । 


हर 


न-&<2: “६-७7 
( ६०-) 
लुत्म शुन गौरब सोज्न सोभाब । 
मुनि कए चडुल्िहुँ तोहरि नाव ॥३॥ 
: _ हठ न करिअ कान्हु कर मोद्धि पार । 
सत्र तहें बड़ थिक्र पर-इपक्रार ॥४॥ 
आईलि सखि सब साथ हमारा - 
से सब भेत्ति तिकदि विधि पार॥रै॥ 
हमरा. भेल् बान्हे वोहरोअ आप । 
जे अंगिरित्ष ता न होइआ उदास ०) 
. मल सुन्‍्द जानि करिष परिनास । 
जस आपस दुइ रहत ५ .ठाम १०॥ 
हम -अबला केत कंहंन अनेक | 
, आइति पढ़के वुमिआ जिवेक ॥(२॥। 
लोह पर नागर हम पर तार 
काँप हृदय तुआ प्रकृति ज्िचारि ॥१४)। 
ह भनह विद्याण्ति गाबे। । 
राज सित्रिंघ सगनरात्त ई रख सकज़ से पावे ॥१३॥ 








__ | किये 

ए--पुलिएऐल्‍्टयुवकर | “तर तहँं-मदसे ! थिदज्नहु । 
-६-“भेलिस्डुई । जिकहि वि्िस्म्रच्छी तरह ले । ब्नेन्ट्तों छुछ। , 
परषिरिश्ष- झ्पोरार फरता । तानउसपे । होहप्र उदास-उ दासीत 
हीना, सुझरता १ ११--ऋतलछितना । ११--शाईत पड़लेल्स। पड़ने 
पर हो, प्रदशर झाते पर ही । पुक्तिश् दिश्वेक--पान की परख होती हैं । 
१३-+पर नागर >भस्य पुरुष | रै४-- प्रकृतिन्ध्वभाव । 


पछ 


विद्यापति 
०,८४० 


( ६१) 
नाव छोलाव धहीरे 


ज्ञिबदत न पाओोब तीरे 
कक खर नीरे लो! 


खेबा न लेआए मोले 
हँसि हँस को दहू बोले | 
जिय डोलें को ॥ २॥। 
किए बिके ऐलिहु आपे 
बेदजिह मोहि बढ़ सापे 
मोरे पापे लो 
करितहँ. पर - उप्हासे 
परिक्षितुँ तन्दि विधि-फॉसे : 
नहि आखछे तो।॥ ४ |: 
न चूस अचुक गोआएरी 
स्ति रहु देव झुरणे 
नहिं. गारी को। 
कवि विद्यापति भाने 
- सूप सिवसिंध रस जाते 
; नव कान्‍्हे को।॥ ६ ॥ 


१--जिवइत--जीती हुईं । खर नीरे-: तीदण धारा। २०शीले < 
सूल्य में, - रुपैये-पेले में । को दहु-न जाते क्या ३--किए--शयाँ 
शेलिहुछ में आई बेढ़लिहु ८ शा घेरा । ४--तन्हि ८ उसी से । ५-- 


गोझआरि्वालिन । गारील्‍थासी । ६--तर-नवौन, 
पर 


युवक । 


सखी-शिक्षा 
(७ पक 


राधी को शिक्षा 
' ६ हरे ) 
प्रथमहि अलक , विलक लेब साजि । 
चंचल लोचन काजर आजि ॥ *॥। 
- जाएब बसन आँग लेब गोए। 
.. दूरहि इृदच ते झरवित हो २॥ ४ ॥ 
' मोरि घोलव सखि रहत्र लजा: | 
-कुटिक्ष नर्यन. देव मरने जंगाए ॥ ६॥ 
| आँपब छुच दरखाओब 'आध। 
.... खन-खन सुरढ़ करत निबि-बाँध || ८ 
मान करपए किछ दरसत भर | 
रस राखब तें पु पुत्त आंत १० ॥ 
, हम कि सिखा श्ोबि अओ रस-रंग । 
झपनहि गुर भए कहत 'अनंग ।ररे। ' 
अनइ विद्यात्ति £ रस गा । 
नागरि कामिनि भाव छुकाओ ॥१४॥ 


ह १ >पझलक्क- कह | तिलझपन दीका। -+--२-- उप सबब सेक्। बेबो | लेबत लेना. ॥ छेब ८ लेना ॥ २-आँजि-- 
लगा बेता। . रैशासनलकपड़ा । झ्लग-अंग । छेव गोए-छिपा 


लेना. ४-तें +इससे । झरधित>- भावित, चाहक। श-मुख 


'.._- मोडकर बाते करना झोर बार-बार लज्जित होना | मू--कुटिस -- टेढ़ । 


- कपय--ढोंकना। तिबि-दाष सीबी का वन्धन) ६०“-मातर फरने के 
कुछ भणत प्रकट करना) २ _प्श्नो--और । १२-परनंग--कामदेव | 
4४--तागरि-कामिनिर-छुचठुरा सन्नी ॥ 

ध्श्ः 


रु 


विद्यापति 
45७. 7 ७.. 


( ६३ ) 
प्रथम सुन्दरि, कुटिल कटाख। . 
जब, जोख नागर दे दस ज्ञाख॥ २ ॥ 


केशो दे हास खुधा सम नीक। 
. अइसन परहूोक तश्सन बीक ॥ ७ ॥ 
सुतु - सुन्दों। नव मसदन-पसार । 
जमनि गोपह आश्रोब॑ वनिजा। ॥ ६॥ 


रोस दरस रस राखनब गोए | 
घएले. रतन अधेक मूले होए ॥८॥ 
भलाह-न हृदय बुमाओब दाहीं। 
आरति -गाहक महँग वेस्राइ ॥ १०॥ 
भनई विद्यापति सुनहु सयातरि। 
,. सुद्त बचन राखब दिय आनि ॥ १२॥ 
जिसके ( मूल-दप में ) नागर दस लाख प्राए तौलशर देगा; ३-.... 
केश्ो -कोई | हासं-हँसों। नीक-प्रच्छा ४--परहों छ -- बोहनी । 
ओह - बिक्री होती है। ,५--मदन-पसार -- कामदेव की टृक्चान । ६-- - 
ग्रोपह-छिपाओं बलिजार-व्यापारी | ७ ८--रोष प्रकटक्र र प्रेस _ 
दिपाये रखना, क्योंकि घरे हुए रत्त की कीनत अधिक होती है । ६-- 
भलहिन-भ्रच्छी , त्तरह । १०-आरति>-आ्ार्स श्राग्रहुएण । सहँग-- 


महंगा | वसाह-- छरोद करता है। .१२-.- तुहित--सुहद, मित्र 
हिंय: हुदय- | ० | 


ही छा 





सखी शिक्षा 
“ढ&-07“%5-#9 


( ६४ 9) 
... सुतरु सुनु ७ सल््षि वचन विस्तेस । 
-. आजु दम देव तोहे उादेख ॥र॥। 
पदिलहि - वै+बि. सयनक-सीस । द 
- हेरइत विया सुर सोड्लि गीस ॥४॥ - 
परमइत दुह्ुु कर बारबि पाति । 
सौन रहबि पहु करइत बानि।क्षी ८ 
जब हम सॉपब करे कर आपि ! 
साथस घरबि, उलटि मोह कॉपि !न। ' 
बिद्य पति कंत इंह रस ठाठ । 


नर भए गुरु काम सिखाओब पाठ ॥१०॥ 





.. इननययान्‍्ननसीमन्न्गय्या की एश झोर। ४--गीमन्शीवा, गर- 
“बन | झब प्रतम सुख देखने लगें तद झपनों गरदत ( दूसरों शोर ) सोड़ 
- छेवा.. ५-०परसइत-स्पणे फदते। के न्‍्तही। । बारबिन्झवारण 
., करता, सता छरना। परमिस्टदाय । जब दे ऋंप-स्प्श करते लगे दे 
| दोनों हाथों से उनके हाथ फो रोशना । ६-- पहुन्प्रभु प्रीतवम । क्षरद्त 
बाहिसे इतदीत छरते सबर। - ७तय ॑शरेलदाय में। करनहावा 
श्राउि-प्रयेश कर । साधव8--भय | जब मैं उपके हथ में तुम्हारा हाथ 
- _अपेण फर ठुम्हे सोदूगी,छो तुस संश्रम उलठकर फाँपते हुए मुझे पकड़ना 
€-- रंस-ठाठ प्+ रुछ की रोति | १०--कणए-शेरुर । 


न्‍सममवजममममा-इाम्कााभरामक पापा 
न 


८रसात्मक घाव काव्यत/-याहिंत्यदर्षण 
९३ 


विद्यापति 
5७:४2 ५%262 


( ६४ ) 
परिहर, (ए. सखी, तोहे परनाम, 
हम नह जाएब से पिशझानठास ॥२॥ 
बचन-चातुरि हम किछु नहिं जान । 
इंगित नल बृकिण न जानिए मान ॥६॥ 
सहवरि मिल्ती बनाबए भेस। 
माँवए.. न जानिए' अप्यन केस ॥क्षो 
कश््‌ च्ठि सुनिए सुरत कक बात | 
कइसे मिलब हम मसाधव साथ ॥गा 


से बर सागर रखिक्र सुजात। ु 
हम अबला अति अज्ञप गेआन ॥णे ४ 


. बिद्यायत्ति कह कि बोतक्षब लोए। , 
आजुक मीलल समुचित होए ॥११॥ 


१-९ सखि, (इन बातों फो ) छोड़ो, में तुम्हें पणाल करती हूं 


3 


२--ठाम-स्थान | ४--इंगितरइक्षारा। ते से, इशारा, तमती हूँ 
घोर थे भाव फरता जावतीं हूँ। ६--पहुचरि-छखियाँ। बनावए 
भेस-भेष बनाती हँ--लेश श्यृंगार कर देती है। ६-प्रण्न - श्रपना | 


७-सुरत के 


बात--क्ास-भोडा की बाते! | ८--कइसे-क्षिप्त प्रकार | 


&६--“नागर--चतुल | ३८--प्रल०-श्चल्य थोड़श। ११--तोए-सुम्हे' । 
२२-प्राज् 8-ग्राज का | पिलए्"भिलतसा 


श््डं 


शेर दर धरुत्ा - है बही हसरता 
सुठ्ते ही दिल में जो उतर जापे। 


सखी-शिक्षा 
-. (#कषाफक 
( ६६ ) 
काहे डरसि सखि -चलु. हम संग । 
मधत॒ नहिं परसब तुझे “अंग ॥श . 

. इह स्‍जनी फुलाक/लन माम [ 

“है एक फिरत साजि बहु साज ॥४॥ 
कुपुम के. घोर घलुष घरिपाकईी।, 
 मारत सर बाला जननन्‍्जानि शी. 

. छतण चक्षह सखि भीतर कुज | 
.... जहाँ. रह हरी महावद् पुंज ॥८॥ 
एत कह आनल धनिहरेपास। ; 
पुर बह्लभ _ सुखन्मिल्ञाख ॥९०॥ 


$ ३ 


58 अप जल बन पक टन नस नकद कट पल 


|. --कहे-किसलिये .। इरसिल्डरती है । २--परसब-पर्दा 
करेंगे ॥ ३ ६-रजनीं-न्शत | फुल-कानन- पुष्पन्चद ) साझन्में | 
के. के-्टक्रौत । एकं्डआओकेले । अडुम कन्‍्त फूजों का। धनुष-- धनुष । 
पति < हाथ | इस रात में, पुष्प वन में, यों नाता प्रकार श्वज्ञार फरके * 

. कोन धकेली घूमती है ? (अरी, कया तुम्हें मालूर नही छि)फूलों का 
_.. कठोर घनुष हाथ में घरकर (कामदेव-छूपी तीरच्दाज) बाला स्त्रियों फो | 
खोज-सोजशर बाण मारता है !। ७--अतएनल्ग्रतरप, 


0 3 कक के इसलिये । 
- ८घ-- हरी-शीकृष्णए. । महावल पुज-बढ़े घलशाली | 


भहावलपुंज 'कहुद्र 
सखो घैयें देती है कि श्रीकृष्ण तुम्हे काम के बाण की चोट-से बचायें गे । 
६-. एतेइतना  ॥ आमनलख-लाई । धर्िल्‍्वाला। पास निकठ | 
१०-पूरलत्यूरा हुआ बललभ-विद्यापति का उपनाम । 


>ह 


९५ 


विद्यापति 
“७९:६4 


६ ६७ ) 
- परिहर मन किल्लु न कर सरास। 
साधस नहि कर चजत्ञ पिय पास॥सा। 
दुर॒ कर दुरमति कहज्ञम तोए। 
बितु. दुख सूख कबहु नहि होए ॥४॥ 
तित् आप दुख जनम भरिसूख। .. 
इथे लागि धनिं किए होइ बिप्रूत् ॥8॥ 
तिज्ञा एक मूनि रहु दु नयान। 
रोगि करण जेइसे ओषध पान ॥०।॥ 
चल चल , घुन्दरि करह सिंगार। + ० 
विद्यापतति कई एहि से बिचार ॥१ण०। : 


रा] 


१.-परिहरू-छोड़ो । तरास-त्रास, डर | २७-साधन-रूय | - 
३--हुश करन-दूर करो ॥ दुरसति-दुबद्धि । #्हलस-म कहती हूं । 
तोय--] ४ १ तिल श्राघ-(मैथिली प्रयोग) एक क्षण के लियें। 
६--इथें>इसलिपे । किए--क्‍्यों । होह5दहोती हो । विभूखविश्तुख, 
घिपक्ष | ७--मूति रहु-पूृद रकलों। दुलदो। नयान--्ञ्ाँखें ८-+- 
जइसे-- जिस प्रकार ॥ पानन्‍झपीना | करह--करों | १०-एहि 
से-यह ही । 





गज कि 


शज७ह-ल यरअसाद; सपातक-स, 


जा 


4 90४ 48 १096 07ध9 6 6/2०१8४/ ती | 6/९६१४७, 8४8 7९67४ 4७ ॥02 
॥॥840+ दा #४ ७9787 ७४४०६४०४७, #६७ ३0788 ॒[ ह00:0688 ८०४ :४८ 


€०॥08४ तु ६06 ४०-67 6%9#/6/,. १88 30268... थी 30/%0% #2[४९९ (78 
ह९६॥ 3 थी ॥00॥67779 


--79675[ 98४ 


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सर्खे “शिक्षा 
<७"<%-<८2४%- 


श्रीकृष्ण को शिक्षा * 
( इष ) / हा 

हमे -दंर्सइर्त कतहुँ बेस करू 

हमे हेरइत तनु झापे। 
सु सिंगारि.आज घनि आओलि - _' 

परसइत थर थर काँप २!) 

नु हे कान्‍्हु -कहिये अबधारि ! 

सकल काज- दम ,बुफल बुमारले 

न बुकत अन्तर नारि॥४७॥। 
अभितव काम नास -पुछु सुनत _ 
रोखत / गु॒ुने दरसा ु 
अझरि सम गंजए मन “पुलु रंजए '. 
.. अपन - मनोर्थ . साइकधी 
आअन्तर ,जीउ-ओंघेक कार सानएछ 


' बाहर . न गन: तरास्ले।. 


. कह कवि-छेखर सदज बविष्य-रत्त 


५ बवित्गधि केलि बिन्ञाप्ले ॥ण 








१-- दससइव ८ दिखाकरंके | फतहु प्ू कितना होी। बेघ करुं८ 


जुंगार शरता । हेरइत-रेजत । कोर ढा7 
क्रीडा । ३--प्रवधरिं--नि£चय छकष्के। 
बुषो दियाहू । प्रन्तर 


लेना । २--सु एत्ूझाम- ' 
४. बण्घल-बन्झाएल--ंमफरा 
हुदप । ?०अभिनद-८ नवीन -। रोखत -- रोब 


प्रकष्ट करती हैं। पुन दरसाइ--गुण दिखाकर, कला प्रकट करके । चूँकि 


६३ 


विद्यापति 
+# ४7“ 


0 ' 
सुन सुन सुन्दर 'कन्हाई । तोहे सॉपल धनि राई ॥ १॥ 
कमलिमि कोमल कल्लेबर । तुहु से भूखल मघुकर ॥ ४॥ 
सहज करबि सघु पावत । भूत्इ जनि पंचबान ॥ ६॥ 
परबेधि परयोघर परखसिदह्द । कुजर जलि सरोरह ॥ झा . 
गनश्त मोतिस ' हारा। छक्ते परखत्र छुच भारा। शथ। 
थ॑ बुमए रदि-रस-रंग । खन अनुमति खन भंग॥ शशा 
सिरिस-कुसुस ज्ञिनि ततु+ थोरि, सहव फुलनधघनु ॥ १४ । 
बिद्यापति कवि गाव। दूति कम्रितति तुए पाब॥ १६ के 


बिल्कुल हीं तदीना है, अतः, कास का नास सुनते ही कला प्रदाट करती ' 
हुई क्रोधित हो उठतो है। ६«*गंजप-गजतः करती हे॥ रंजए- - 
प्सन्‍त करतो है । साइन्चह । ८ -हृदय से तो ( तुम्हे ) प्राफों छ 
अ्रधिक चाहती है, हिन्तु बाहुद डर से पक्ष नहीं करतो | 

२३०० धनि ८ बाला । शाह ८ राघध । ३--कलेबर ८ शरीर ॥ ४--- 
समृजत - भूखा हुआ | सधुकर -- भोंरा )। ४--सहज+ स्वमाविक ढंग 
से घीरे-चीरे | करब--रूश्चा | जदि नहीं ।। एचबाद- कामदेव | ७-- - 
परवोधि-प्रबोष्कर, सपतका चुकाशर । पयोघधर--कुच, स्तन । परतिह ८ .. 
| स्पे करना | ८प--फुंजर ८ हाथी । घरोर्ह--उमल | जिस प्रश्ञाए हाथी 

फमल को रोंदता है, उस प्रक्षार नहीं | ६-«गनइत - गरिवते हुए १०--- 

छुले > छल से | १२--अलु मति -- राजी होना ) ९ इ-सिरिस-कुसुम-ए# 
कोन व फूछ | जिनि ८ऐसा | १४--फु्रंधनु-क्या8 | क्षा घनु। (६-+- 
मिद्धतो ८ बिनती । पाव>-पेर । 

ध्प 


सखी-शिक्षाः 
पखचिस 252 


ह ” (“७७ है 
प्रथम समागप सुखल अनन्न। 
घमि बल ज।नि करब रतिरक्ु ॥१९॥। 
हठ करब छति आरति पाए । 
बढ़हु झुखल नहि ढुहं कर ख.ए ॥४॥ 
चेदन कान्‍हु तोंद॒हिं श्रति अआथि । 
के नहिं जान मदृत नब हाथि,॥॥ 
तुझ गशुन्न गन कि कते अनुवोधि | 
पहिल्ादि सबहि. हलल्ि परवोधि ॥८॥ 
हुठ नहिं करब रती परिपषादि | 
कोमल वासिनि बिवटति साटि ॥१०॥ 
- ज्ञाबे रसस सह तावे घिकास | 
जिसति बुलित्म जय न जाएव पाल ॥६श॥ 
घसि परिहरि नहिं घराविण बहु । 
उगिलल चाँद गिलण जमि राहु ॥(४॥ 
सलाद... वि दर्ति धो प_लन्कोति ! 
। कोसल् सिस्सिसुपन अल है कण सिरिस-सुमन अति भाँति ॥१६॥ 


5 5 3 कल नल 
१-.- अ्रद ड्रू--कासदेव । ३---आरति पाएनव्याकुलता में पाकर ; 
४--कर ८ हाथ से। ४५८-चेतन-न्चढुर | झ्राविनम्नस्ति, ही । ० 
महत-महांउत ॥ नवलनवा ( फेलाया हुआ )। ७--+भनुबीधिजः 
धप्का वुक्ताकर + हललि ८ लाई । ६-रती प्रिपार्थि-रतो-कीड़ा ऐ ढंग। 
१०--डिघटति साधिज-शात्ति घढेगी न्‍ूपीए होगी । ११ इमधल सास 


ऋरा | सहज सहन करे । १२--बिसति ८ राजी पहीं। जप नस यदि ! 
६ & 


शवेद्यांपति 
५७5७. ७#छ 
[ ७१ -] 


बुसबच छब्लपन्न आज | 

राहि मनि रतते आनलि अति जतने 
बंचि सब रमनि-समाज ॥ रा - 

पिरिस कुछुप ज्षनि अति सुकुमार धनति 
आलिंगब दृढ़  अगनुरागे। 

निर्मय करब केलि केइ नि बूके गेलि 
भौर॑ भरे साँहजरि न भागे॥-.॥ 

पिरीतिक डोलि नियरे वबश्साओब 
तख हनि झानब कोल्न। 

नहें नहि कर घातरि कपट सुक्षब अनु 
यदि कह कातर बल ।॥॥ह। 


मन 


कर वलेकए ए लयकक पर का ाकप उमा पक कमा + २ अमदत+ तय २२६ ४ आला +४%०७७६७न७ करू ७४७७४ ऋण थ्रधधध भा आम बला ७४००2 


४३-- एक बार छोड़कर पुतः घसझर दोबारा आऋप्रे बढ़कर- उसकी बाँह 
संत पकइना । १४--गिव्यरमिगल जाने। १६--जिस प्रशार भौंरा बढ़े 
- कौशल से घिरिस के फूल का रत चूलव!( है, उसी प्रकार-। हे 

१--छंयलपव ८ रसिजझ्ोता । २-राहि> राबा | सतत रतवेज- 

रत्वों में मणि | श्रानलि--लाई । बंचि-छुल कफरके॥ ३-जनतिरः , 

“ऐसा ] आलिगब ८८ प्र/दिगन-फरवा, छाती लगावा। ४--विर्भय होकर 

केलि करना, यह फिसे नहीं मालूम हु कि भोरे फे शरीर के भार से कोमल * 
 संजरी नहीं दूदतो | ५--मियरे - निक्षट । न हुनि ऋानव फोले -- नख 
से हुनन कर--नख से कुचों फो क्षत विज्षत्त क्र-उसे गोदी में बेठा लेवा 


६--नहि नहि कर घति-व्रह बाला घदि नहीं नहीं करे | कातर बोल-- : 
दीत वद्थ |. 


१८० 


यु 


मिलल 


सिलन .. 
हर 2२१, ७४% 
, .. (४२) 
सुन्दरि चन्नलिहु प्हुचर ना। 
चहदिश सशल्लि सब कर घर ना ॥श॥ 
' ज्ञाइतहु लागु परम डर ना। ु 
_ जइसे ससि कॉप राष्ट्र डर ना।छ। 
आइतदि दार टुटिए गेल्ल ना। 
भूखन बन सलित भेल नापोदढ॥ 
रोए रोए काजर दशए देल ना। 
अदकुहि मिंदुर भेटाए देश ना ॥८॥ 
भव ब्रिद्यार्पत साप्रोल ना। 
दुख सहि स्रद्दि सुख पामोक्न ना॥!गा 


3 8 2 5 5 कक लटक अल टन नस 
१--बललिहु - बदली | पहु--प्रभु + २--घहुविस ८ चारो ओर | 

.. कर-- हाथ | इे--जहनहु ८ काने में । ४-हसि-- चत्द्रश । ७---शेए << 

रोकर। वहाए देख ८ दहा दिया | धद्येंष्टिप- भ्रातक से ही, डर से | 





स कदिःकशज्े खष्ठा रमंते यत्र भारती) 
रफभावगु फ़ै मृततेरल शारेगुफोरयः | 


र्ड का (4 


+. 4 के 
ब्-येफटाधास ॥ 
। श्ब्३ 


विद्यापति 
(कर ) 
कोतुक चकलिं, मवन कए सज़नि गे - 
संग. दस चौदिस नारी।  -. 
विच बिच सोभित सुन्दरि सजनि गे 
. जेदि घर मिल्षत मुरारों॥श। 
लए झमरन कए पोड्स समनि गे _ 
. पहिर उत्तम रेंग चोर। 
देखि सकल... मन उपजल संजनि गे. 
मुनिहुझ चित रहि थीर ॥»॥ 
नील बसन तन चघेरल सजति रे, 
सिर लेल घोंघट सारि। 
लर्ग क्षय पहुं के चलइत सजनि गे. 
संकुचक्ष॒ अंकम नारि ॥४॥ 


जा हा 
+ ह 4 


१--कीतु* -- कुतृहल यक्‍त होशर | चौदिस- चारों झोर 4 २-- 
लिये दिच- सप्य साग से | ३--प्रवरत ८ श्रामर ए, गहने | कए-- 
योडस -घोलह श्ुगार करके | उतिम रंग-श्रस्छे रंप की | कौर -- 
घाड़ो। ४-उपजल ८ (प्र) उत्पत्त हुप्आा | मुनिहुझ ८ ऋषि | का री. । 
जो-- स्थिर | ५--दील बध॒त ८ नील रग कपड़ा | तन घेरलि-दशरीर 
को क्षपेंटे हुई | घोंघट--घूँघठ | चारि लेल ८सें बार लिया।' ६-लग <- 
विक्ृठ । पहुछ प्रीत्म ] _धकुचल-"सकुचा - गया । अ्रेक्षत-हृदय ॥ 
औओतस के दिफट जाते में बाला का हृदय सकुच गया ; 


१०४ ह 


मिक्षन 


् का 3) 
सखि सब देल भवन कए सजनि गे. 


घुरि आइलि सभ नारि। 

कर धए लेल पहु क्षण कए सजति गे 
हेरण बसन उधारि॥ ८॥ 

भए बर सनमुत्र बोलइ संजनि गे 
करे ज्ञागल॑ सबिज्ञास । 

नब रस रीति पिरोति भेज सेजनि गे 
दुह्ड मन परम हुलास॥ ना 

बिद्यापति कवि गाझ्मोल सजते गे 
ई शथिक नव रस रीति। 

बयप्त जुगल सम्मुचित थिक खजति गे 
दुहु मन परम पिरीति ॥१२॥ 


७३--देल, भवेत कए -- भवत कए देश मूघर में ला रक्‍का। घुरि 
- आाइलि-घोट श्राई ॥ ८--हर धए>ह्ाथ धरकर | पट्ठ लग कए छेल--- 
« प्रीतव के निश्ट ले प्राण । हेरए--वेखता है । अबसत -- वस्त्र । (अझथलज)। 
उघारि८- उषारकर-- (भ्रशल) हटाकर । १- भए > होकर | बर ८ 
प्रीोतम । फरे लागह-रुरने लगा। सबिसास - कास-क्रीड़ा। १०--- 
सब -- नवीत । हुलास -- आनत्थ । १९--ई सय॥६। जिक्ष-है। १२- 
बयपस- पझ्रवस्था | अगुल -- दोनों को | समृुतित -- योग्य | 


- डुहाए 8 6. 8907/8थाढ0घ8 '0फढनी0च्त 0 

- ए०एढापि ई९६]॥85,7 हा 
१०५ 
है, 


१०. 


वविद्यापति 
4-८७. 
( ७४ ) 
अहे सखि अहे सखि लए जनि जाह। 
हम अति बाल्िक आऊुल नाह।॥ २॥ 
गोट गोट सखि सब गेलि बहराय।! 
बजर किब,ढ़ पहु देलन्दहि लगाय।॥ ४ ।॥। 
तेहि अबसर पहु जागल कन्त। 
चीर सेभारक्तलि जिउ भेल अन्त ॥- ६॥। 
नहि नहि करए नयन हर नोर। 
काँच कमल भमरा मिकझोर || ८ || . 
उइसे . ड्गसग. नलनि क नौर। 
तइसे छगसग धनि क खरीर-॥ १०॥ 
भत बियापतति- सुनु कबिराज्ञ | 
आगि जारि पुनि आगि -क काज ॥११॥ 
' “ 7--हए जाहझने जाओ । जनि८ मत, नहीं। २- बालिक-- 
बलिफा। आकुरु--घबराया हुआ | नाह--नाथ, प्रीतत् | ३-शर्ट थोट-: 
एक-एक कर | गेंलि> गई | बहराय८- बाहर होना ! ४-बजर - बज्च- 
तुल्य । पहु & प्रभु, प्रीतस ! देलन्हि -- दिया | ५--पहु- प्रीतम ( थहाँ 
कामदेव से तात्पयें है )। ६--धस्चर हटाने का इपकतत॑ करते ही/'मालूम 
हुम्रा, सेरे प्राएं निकल गये | ७+-नोर-श्ॉंस | ८--हाँच कमल -- 
अधलिला झशमल | भमरा८: भोंरा | ६--डगसग - हिलसा डलता । नल- 


लिक नी + कमल ( के पत्ते पर ) का पानी|१०--घनिक्त ८ घनि के 


बाला के १२--आग जलाई जाती है हो भी तो फिर झाग को श्रावदव- 
कहा होती हे । 


१०६ 


मिलन 
कि, 0 
( ७४ ) 
कत भनुनय अलुगत अनुवोधि। 
पति-गृंह संखिन्हि' सुताओलि बोधि ॥२॥ 
बिप्लुखि सुतेज्नि धनि समुखि न होए। 
भागल दल बहुलाबए कोए । श॥ 
बाज्षमु वेसनि ब्िलासिनी छोटि। 
मेल्ल न- मिलए देलहु द्विम कोटि ॥६॥ 
बसन मपाए बदन घर गोए। 
बाइर तर ससि बेकत न द्वोए॥८॥ 
भुज-जुग चाँप जीत जो साँच। 
कुचः कझ्नन फोरों फल + काँच ॥१०॥ 
लग नहि सरए, करए कसि कोर | 
करे कर बारि करहि कर जोर ॥१२॥ 
एत दिन खेसब लाओल साठ। 
छाब भए सदन पढ़ाझ्रोत्र थाठ ॥१४॥ 
शुरुजलल परिजन दठुअञ्ो नेबार। 
- मोहर मुदल अछि मसदन-भंडार ॥१६। 
भनह बिद्यापत्ति इद्दो रस भान। 
राए सिवर्सिघ क्षस्विमा भिरमान | १८ 





 १--कत ८ शितता । झनुनय ८ दिनती | श्नुगत-छुशामद | भमु- 
बोधि--श्काना । २--प्रुताझोलि ७ छचुलाई। ३--बिमुखि-इप्तरी तरफ 
मूंहु करशे | ४-अहुलाबए--फेरता । कोए ++ कछोत । ५-वेघनि>»व्यसनों, 
कामी । शिलाधिनि:: विलापत करनेब[लोीं (बाला) । ६-हिंस -- हेम ८ 


१८०७ 


विद्यापति 


खा 22:25%, 
( ७६ ) 
सखि परबोधि सयन-तल आनि। 
पिय हिय इरपि धएव निनज्ञ पानि ॥शा 
छुबइत वाक्षि मलिन भाई गेल |! 
बिघु-कर मक्षित कमझनी सेकि।!४। 
नहि नि कहई नयन भर नोर। 
सृति रहलि राष्टि सबदनक ओर ॥६। 
आलिंगए नीवि-चेंध बिनु खोरि | 
कर कुच परस शझेट्ट सेल थार |८। 
अाचर लेइ बदन पर रप। 
थिर नहिं होअइ थर थर काॉप ॥१०॥ 
भनई बिद्यापति धोरज्ञ सार । 
दिन दिल सदन क होय अधिल्‍र ।१२। 
सोतर । ७--गोर > छिपाकर | ८न्‍ब्चेकतब्श व्यक्त प्ररठ । ६-१० चाँप 
+ दबाकर साँच-छंचंय शरना | कोरी छ कोरा अछूता । सोने के समान 
कुर्चों को रचचे ओर प्रछधुते फल सप्रकशर दोनों हाथों से दबाकर प्राफों 
के समाद जोगातो हु । ११--लग-तिकट । धरए--श्ातों है । कोर 
कोड़, भोदी । १६-०- करे कर. बारि झपने हाथ से ( नाथक्त ) के हाथ 
निद् रण शरती हैं। करइ करजोर -- हाथ जोड़ती है, धारा करतो है । 
सेसब- बचपन ]) साठ लाप्रोह--प्रंगत निभाई नेवार5- निवाशएा कियः 
हुपा | मोहर-मुदृर देहर | _ दंड! 
१--प्राहिजचाई  ॥। २-- घरल--पकड़ा ॥ पानिज्द्वाय | 
इ--आधवि रू बाला-3 .४--विधुक्षर-- चन्दमा की किरणों में । ५-- 
१ब्८ ह 


है हा 
४ ०» जा 2 


ल््ज 


| (७७) 
प्रथम द्दि गेलि घनि आतम _ पास | ; 
हृदय अधिक भेल लाज तरास ॥ २॥! 

_ ठाड़ि भेजन्हि धन अंगो न डोले। 
देम-मूरति सर्य मुख न बोले॥ ४॥ 
- कर हुहुं घए पहु पास बइताएं। 
रुसल छलि धनि बदन सुख.ए || ६॥ 
मुत्न देरि ताकए भमर काँपि छेत्न । 
अंकम. भरि के कप्रलमुखि लेल ॥ ८! 
भनइ विद्यापति दृह इ सुमति मत्ति । 
रस बूक * हिन्दूपति हिन्दूपति ॥ १० ॥ 
, नोर--श्रॉँसू | ६-- सुत्ति रहल-सो ,रहीं। राहि-राधा | झोर-- 
सीमा पर ( एक ओ्रोर ) | खोरि-- खोलना | ८५--सेह--नबही | 
| ६--धरनि < नाधिका। ३--भेलन्हि -- हुईै।  ४--हेम ८: सोना | 
'सलि- समान | -१०--पहु ल प्रभु प्रीतम | बदसाएं -- बेठाता है। ६--- 
रूस खि झर्ति -- रूठो हुई थी। ७, ८५+>हेरि ताक्ए 55 भली भाँति (निरी 
क्षण करके ) देखना | भपर-- भोरा [ कृष्ण |, श्र कम -- गोद भरिक्षे८ 
सरकश्षर, भौरा ( कृष्ए ) उ्रका मुख भरती भांति-प्रांशे गडाकर-देखता 
था; झत:ः नापिका से उसे ढॉँप लिया | किन्तु ज्यों हो उच्चने-झपना म हु 
दाँपा कि शोका पार्ृर, भोकृष्ण से उसे धोद में ले लिया | €-दहु-दो । 
दिल्लापति कहते हु कि हे सुमति, धय यह ( मति ) धनुमति बो-कृष्ए की 
आपंगा स्वीकार करो। हिूपति- राजा शिर्वासह। 


१०५९ 


मिक्षन _ 


ब्िद्यापति 
*82७: “६-७? थ 
(७८ ) 
जतने आएति घनि सयन्त क स्रीम | 
पॉगर लिलि खिति नत रहु गीम ॥ २॥ 
सखे है, पिया पास बेठल्लि रुद्ि। 
कुटिल भोंह करि द्वेरइछि काहि ॥ ४ ॥ 
नत्रि बर नरि पहिल पिया मेलि। 
आमनुनय करइत रात आध गेत्नि ॥ ६ ॥। 
कर धरि बालमु बइंहाओज़ कोर । 
एक पएं कह घनि नहि नि बोल्न ॥ ८ ॥ 
कोर करइत मोड़इ सब अंग। 
प्रबोध न मानु, जनि बाल भुजंग ॥ १०॥ 
भनह बिंद्यापत नागरि 'राष्वा। 
अचस्तर दाहिन बाहर बाश ॥ ११)| 





१--सयत क-सीम दाय्या की सौमा से, छाय्वा के निकह | -२-- 
पाँगुर - पदागुलि, पे की श्नगुली | .खिति -- पृथ्बी । नत - भीचे फिये। 
गीघ--प्रीवा, गरदद। २ राहिण्ध्राधा ४--हेरइलछि-देखतो हे। 
8०० नवि--मघीना । बीना हुन्दरी नायिका की प्रथम-प्रथमत प्रीतम से 
भेंट दुई । ६“०अनयय -: विनय ।: ७-कर ४रि->>हुथ धरकर। बह- 
साधोल फोरथ्गोदी में इिबलाया | प-बाला छस एक 'नहीं नहीं! का 
वचन फहती है--छदा नहीं-नहीं बोलती है। ६- भौदी में बिउ्वाते ही 
झपने अंगों को ऐठती हे--भावभगी-दिखलाती है । १०--जनि < घातों 
बाल भुजग-८च्चा साँप | १२--अन्तर -- हृदय से । इ।हिन--प्रनुकूल । 
बाहर 5 बाहर 'से ऊपर से । बासा > भ्रतिकल । 

११० 


मिक्तन , 


ते कि ( ७९ ) 
। ७ 7. हो डे 
अधर मंगइते अश्लोध कर साथ। 
सद्रएण न. पार पयोधर द्ाथ॥२॥ 
बिघटल नीबो कर घर जाँति। 
. अंकुरल “मदन, ,घरण कत नसाँति॥४॥ 
कोसल कामिनि , नागर, नाइ। 
कओन परि होएत .केलि निरबाह-॥ ६.॥) 
कुच-फोरक तब कर गहि. छेल्त । 
कॉच बदरि अरुनिम रुचि भेल ॥८॥ 
हे चाहिआ नखर बिसेख। 
भींदनि आबंए चाँद के रेख॥ १०॥ 
तसु मुख सौं ज्ोभे रहें देरि। 
' 'चोंदः कपाब बसन कंत बेंरि॥ १२॥ 





>अननि शिनयिनभननपनमंकान-पनमकन-न 


१--प्रश्नोध कर ८।नोचे करती है. । २--सहुएँ न पार--म्रह भहीं 
सकती ।, पयोध रे--कुबच । ३--विधटह“खुलो हुईं। सोबी>-कोंवा 
फुफनी | कर धर ध्रॉति-हुथ से दबाकर रखतोौ है । शअ्रंकुरल-प्रकुरित 
हुमा, पेदा हुआ । भसाति-छूप, शाकार | ४--ता|गर८>सतुर | माह-- 
नाथ, प्रीतण | ६--कइप्योने परि॑फकिस प्रकार। ७-कुंच क्षोरक--कुचछ 
को सीरा | ८-अदरि-जबेर ( छोटे-छोटे कुच्ों की उपसा )। भरशमिस यणि 
लाख रंए की छह । ६&,१८-तखर८--नख फी रेखा । मिसेख--5त्तम, 
सुन्दर | ( जन प्रीवम ) कुद पर नख रेखा बेता चाहता हैँ, तब नायिरा 
_ की भंरों पर [चछ्त को रेथा] टेढापन भरा जाता है। ११-तसु-उसका | 
१-“चादि-्टचर्द्रणा ( मुख ) | इसन-हूपढ़ा ( अंचल ) 


श्र 


विद्यापति 
80 8 
( ८५ ) 
लखत लेल हरि -केचुआ अडोड़ि।' 
. कंत परजुगति कएल अंग मोद़ि॥ १२॥ 
तखनुक कहिनी कहल ने जाय ! 
लाजे सुमुखि घेनि रहलि लजाय ॥ ४ | 
कर न मभिकाए दूर जर दीप। 
छाजे न मरण नारि कठजीब। ६॥ 
खंकम कठिन सदए के पार | 
कोमल हृदय उस्ड़ि गेल हार॥०८॥ 
भनह “ बिद्यापत्ति तखन॒ुक भान। 
, कश्मोन कहल सख्तनि होण्त बिहान ॥ १० ॥ 
१--जखयंत -- जिस ससप ।  कॉसुम्र ७ कंखुसी, चोली । अछोड़ि 
जेल बा उत्तर लिया | २०- कत -: कितना | परजुगति -- प्रयक्षित, उपाय | 
. ६--कहिनी ८ कहानी, कथा | ४--लाजे-लाभसे] ४--कर ८ हाथ | 
सिराए-बुभता है। छर८ जलता हैँ । दी१८८ दीपक । दीपक [दाय्या से 
हर पर णत्र रहा है, श्रतः वह नायिका के हाथ से नहीं बता । कवि 
'कुल-गुद काबिदास के सेचदरत में एक ऐसा ही पश्च है, जिसका ग्रनुभाद यो 
हं---/तीयी प्रंथी जिथिल करके बस्त्र-प्रेमी छटावे | मुग्धा प्यारी प्रण- 
अधरा काम छोड़ा दिखाये || भोडी लज्जाविबश तब हो चए मृष्टी चलावे। 
पे. होती है धिफल मणि का दीप कैसे बफाने [? ६--- लाक्ष--जाज से 
फठजीव--शठोर-प्राए ( ७--प्रेशस-आर्तक्षगन | सहए्‌ के पर--कौल 


सह सशता हैँ ? दखड़ि पेश-उखड़ गया, निसान पड़ गया। 
११३ 


के '. मिलन 
(८१ .) ह 
रे बले यदि परसलणि सोय । ; 
विस्वधन्पातक  'ागए- तोय॥९३॥ , : 
तुहु रस आगर “नागर ढीठा।- 
हम नबूमिए रस तीत कि मीठ ॥ ४॥ 
रस परंसंग उठओ सु कौँप। ह 
अन हरिनि जनि कएलन्दहि माप ॥६॥ है 
व अपमय आस न पुरए काम | 
| भक्त जन न कर बिरस परिनाम | ८ा॥। 
 जिद्यापत कह बुभलहुं -साँच। 
फक्हु न मीठ होअआंए काँच ॥ १०॥ 





सक्षनक--उस समय का/। १०--बिहान-प्रातः काल ॥ +/ ०: 

१--बल--अलपुर्यदक | परसद्ि--स्परशों करता। भोय-पुक्त | २--- 
तिरि-बध-पातकू-मत्री के यधथ का ,पाप | तोय--तुऋझ | ३- झागर-- 
अग्रज़ा, भष्ठ। न/गर--चतुर ४-तीत>तिकत,-फड़वा.! कि>-या ।-परसद 
पूवयों | --मरू-मरे | ६--भनों बाए से बेधी ' जाफर हरिएं) उछल 
उठती हो । ७--कुत्मप मे करने से न कोई प्लाजा पूरी होतो है, भौर न 
रोई काम पृर्ा होता है। ८--घधलजन-भ्रच्छे श्रादमी। न फर-नहीं 
फरते। बिरस-रसहोन, ब्र। । परिनाम-झं तिम फल | अच्छे झ्ादमी 
. [ ऐसा काम |नहों करते जिसका परिणाम बुरा हो। बुरूलहुं--मे 
समझी । १०--करचा फब् भो भोठा नहीं होता 


_ भ्मशनपमपाशा्कफड्ककर, 


११३ 


विद्यापति 
७८०७, 


( ८१ ) 
रति-सुबिसारद तुहू राख मान। 
बाद़िले जीभ्न तोहे देव दांव ॥२॥ 
थावे से अल्प रस तपृरव आप । 
थोर सलित तुञ्न न जाब पियाय ॥ ४ ॥ 
अल्लप अल्प रति यहि चाहि नीति। 
प्रतिपद. चाँद-ऋत्तका ' सम रीति ॥ ६॥ 
थोरि पयोषर ते पूरब पानि। 
न॒ दिह नण-रेख हरि रस जानि ॥ ८॥। 


भनहई बिद्यापति कइसव रीति। 
काँच दाढ़िस प्रति ऐप्लन प्रीव ॥ १०॥ 





१--रति सुविसारदइ-झामक्रीडूर में परम घतुर | तुहुःतुम | सात 
सन सर्मादा ॥ २०-आवे-इस समय में -४ह । अलफप--थोड़ा पृरछ-- 
प्रेगा ३ ३---सलिलन्पानी । ठुझण्तेरी] न जावबननवहीं जामगो। 
औ---६--जिस प्रकार प्रतिपदा से घद्धमा योड़ा-मोड़ा बढ़ता है, । उसी 
प्रकार रति भी योड़ी-बोड़ी करके बढ़ती धाहिये, यही दोति है| ७-- 
थोरि--छोटा। । पयोषर-हुच ] पानिल-हाथ। प्रभा कुछ छोटे हे, उनसे 
तुम्हारे हाथ भी नहीं भरे गे । ५--हे हरि, उनपर-नख की रेखा सत दो 
+>उन्हें' चखों से मत बष्योटो, तुम तो स्वयं रस क्री बात जानते हो | ६ 
““ फेइसन--किस प्रकार की | १०--दाड़िम-य्प्रदार [फुल की उपसा] | 
ऐसन--इस प्रकार । 


'जहाँ म जाय रत्रि, तहाँ लाय कवि |” 
११४ 


'"मिल्ञन 


मु हे 


( ८३ ) के 

निविन्बंधत हरि किए कर दुर [2 

एद्दो पर तोहर सनोरथ पूर ॥२॥ : 
. हेरने कंझोन सुख न बुक बिचारि। . 
.. बड़ तुहु- ढीठ बुक बनमारि॥४॥ 

हमर सपथ जों देरह मुरारिं। ० 
लहु लहु.- तब हम पार, गारि॥ ६॥ 

*'.. बिहर से रहसि हेरने कोन काम। 

से नहि सहबद्दि हमर -परान॥८॥ 

कहाँ नहि. सुनिए एहन' परकार।, 

करए बिलाख दीप लए जार॥ १०॥ 
:.. परिजन, सुनि सुनि तेजब निसाख। 
: « लहु लहु रमह सखीजन पास ॥ ११॥ 
भनइ बिद्यापति एहो .रस जान। 

नूप सिबर्सिघ लबखिसा-बिरमान ॥ १४॥ 





१--निबि बंधन -+ कोचे का बच्चत | किए -- क्यों ॥ २-० एह्ो पए- 


इससे भी । ३०>हेरने ८ देखने से । ४<-बभाव-में सम गई। प्रू-- 
हेरह-देशो । ६-- लहु लहु ८ धोरे-वीरे | पारब गारि-्याली हूंगी | ए- 
एक[त में [चुवताप] विहार करो? [बिहार से रहसि] भला,देखने से क्या 
प्रयोगन | ६--एहुने परकारं--ऐसा ढंग । १० -फ़ास-कीड़ा के समय 
दोपक जला ले | १६-परिज्षरः-पड़ोसी । तिक्षच निसास-[ केलि-समय में | 


निःशवव!स लेना | 
प्िरमान-पति । 


१२--रमहल्संभोग करो। पासब्निक्षट | १४-- 


११५ 


' विज्यापति 
<७४<% ८०%, 


( ८४ ) 
सुन सुने सागर निबि-बंध छोर । - 
गाँठिते नाहि सुरत-धन मोर ॥ २ ॥| 
सुरत के नाम सुनज्ञ हम भाज ! 


न जानिशम सुरत करए कौन काज ॥ ४॥ 
सुत्त क खोज करव 'जहाँ पावं। 
घर कि धछए नादि खखिरे सुधाब | ६ || 
' थेरि एक माधव सुन मक्ु बानि। 
सल्षि से छोजि माँगि देव आपति ॥ ८ ।। 
बिनति करए धत्ति माँगे परिहार) _ 
नागरि-चातुरि भत, कवि कंठदार ॥ १० || 


इस पद्च में राधा का विचित्र परिहाष, बड़ी सफाई से, बात है । 

कृष्ण राधा से 'ुरत, भाँग रहे हु-राधा से काम- फीड़ा फरते को कह रहे 
है->इसपर राधा फझहुनी है-- भरे चतुर, सुनो, मेरी तीबी-का बन्धन छोड़ो 
इसकी सगाँठ में 'सुरत, ढगे घद नहीं छिपा पड़ा हूं। संत. छुरत' का सास 

तो श्रा्न ही धुता है, न जाने सुरत' [कोौव है भोर क्या काम करता-हुं? 

हाँ, श्राज से में, जहाँ पाऊंगी, सुरत की खोज करूँगी | सदियों से पूछ्ध गो 

[सज्ि रे सुधाव | श्ि मेरे घर सें है कि तहीं। साधव | एक बार भेरी 

बात सुच लो, सच्चियों से यदि प्रषप्त कर सकगी तो खोज ढ दृक्षर तुम्हे ला 
पहूगी ए यों तायिशा बिनती फरती झौर उन्हें मना कर रहो है, फवि-- 


कठहार विद्यापति नागरी नायिका को हत चातुरो रा ( घदुरता-पूर्ऐ ) 
चणन करते हे । ह ह 


११६ 


मिक्षन 


| ब.त कज-- 
( पझ४ ) 
हरि-कर हरिवि-्तयनि तन सोंपलि 
, सखिगन गेलि आन ठोस 
अबसर पाइ धनि कए धरि नागर 
-बिनति व रए अनुपाम ॥ २॥ 
हरिनि-तयनि धंति रामा। 
कातुक सरस  परस संभाषत 
. मेटक्ष लाज्षक-बासा॥४॥ 
सुखद सेजोपरि नार्गार, नागर 
बइसल - ६£ नव-रति-प्राध 
अति अंग चुम्बत -रस अनुसोदन 
थरनथर कौंपए राध ॥ ६॥ 
मदन-सिद्दाघने करल अरोहन 
मोहन  रसिक , खुत्नान। 
भयनादू तोइल अरूप ससांधल 
.... जाघल सतत समान ॥ ८॥ 
कह कवि-सेखर गरुअ भूख परे 
करु अल योर - अहार | 
« अइसन दुह्ु सन तन्फइ पुन पुन 
___.. ॑. उयत्तत्त अविक बिकराग॥8 ०।। 
“४ घ््-+++ जा +-+--_>... 
४>सरस” परस-रसमप-रुपशे, आलिगन ५--पसेज्ोप२-...पस्याःः 


के ऊरर। करल प्ररोहन-प्रारोहए किया, ते । ८--भ्रमश समाधल--- 


थोड़े से संतुष्ट किया। समान--मान-सहित .| ६--प्रशक्र-अधिक [7 


११७ 


विद्या पति 


ही 
( ८६ ) 
सरत समापि सुततल घर नागर 
पात्नि पयोधर आधपी। 
कनक संश्चु जमि पूज्ि पुजारी 
घएल सरोरुह मझाँपी ॥२॥ 
सखि हे माधव, केलि बिलासे 
मालति रपि अलि ताहि शअगोरसि 


पुनु रति-रंग क आसे ॥ ४॥ 
बदन मेरार धएल भमुख-मडल 
कमत्त सिलल जलि चन्दा। 
भमर चकोर दुअञशो अ्रसाएल 
- पीचि अमिय-मकरन्दा ॥ ६॥ - 
भनह अमीकर , खुनदद ' मशुरपति 

. राधा-चरित अपारे। 
'राजा सिघसिंघ रूपनरायतन -. 
' सुकवबि भ्नथि कंठह्गारे | ८॥। 


१-छुश्त-कास-फोड़ा । समातिजसमाप्त कर। सुतंल-उो गया | 
पाति- हाथ । पर्योधर-छुद । श्रापी--आपित कर, रख | २--कनक- 
'संभु>सोने का सहादेव । सरोख्ुत्कमल)। .. ४--पअलि>फेौरा । 
अगोरसि-अ्गोरे रहता है। ५ मेराए-सिलाशर घएल-रक्ष्या | 
धदत'"“मंडल-क्ृष्ण मे प्रतता सुख राघा के मुख से सटाकर रखा | 
६--इुअश्रो-दोनों । अ्रर्साएल-प्रलसा गये। प्रमीकर-शिवसिह के 
'सन्त्री । सुकवि-कंठहार-बिद्यापति । ह 





११८ 


मिलन 
(८७ ) 

हे हरि हे हरि सुनिए खबन भरि 

अब न बविल्लास क बेरो | 
'गगन नखत छल से अबेकत भेल 

के किल करइछ फेरा ॥ २॥ 
चकबा मोर सोर कए चुप भेल 

उठिए सल्षिन भेल चंदा। 
नगर क थेनु डगर कए संचर 


,. ,झुमुदनि बस सकरंदा॥ ४॥ 

* मुख केर पान सेहो रे मलिन भेल 
-  श्रबसर भलत्र नहें मंदा! 

विद्यापति भन एहो न निक थिक 

जंग भरे करइछ निंदा ॥ 5॥ 


या 0 8 5 5 न नमन नल टन नासा 





४. २-खबन भरि-कान भरकर, श्रच्छी तरह। बिलास क बेरा८ 

है कैलि का समय | २--एगन--भ्राकाश । सखत--नक्षत्र, तारे । छल 
प्ययें। ' सेवह ॥ श्रबेकत भेल-श्रव्ययत हुए; छिप गये करइछ 
फेरा-फेरा कर रहो है, इधर-उधर पुकार रही है। ३--सोर फकए- 
शोरगुल करके | चुप भेल-लुप हो गये । ४०--पघेतुत्गो । डयर--राह | 
संचर--जा रही है । छुमुदिनि बस सकरंदा-कुमुदिदियों से मकरंद 
'(पराग) का. भरना (श्रव) बस (जतस) हो गया श्र्यात्‌ ये मुँद 
गई | सुख केर-मुख का। से हो--वह भी । ५--मल>-भला, श्रच्छा । 
पमन्दाल्बुरा । निरन्‍्अच्छा, उजित। यिछज-हे। 


है 'जकामसानहंक 





। 


११६ 


विद्यापति 
र्ा55,*१क-#2 


( ८८ -) 
रयनि समापलि फुलल सरोज । 
भप्ति भत्ति भमरी भमरा खोज ॥.३॥। 
दीप संद रुचि अम्बर रात। 
जुगुतहि जानलि भए गेह्ल परात ॥ ४॥ 
अचहु तेजहु पह मोदि न सोहाए। 
पुन्नु दूरसन होत मद दोहाए॥ ६ ॥ 
नागर राख नारि मान-रंग। 
हठ कएलते पहु हो रख-भंग | ८॥ _ 
तत करिआए ज्ञत फायएं चोरि | 
पर जन रख लए न रद्द अगोरि ॥ शण्वा 





१--श्यनि--रात । समापलिनत्रीत गई। सरोज-करमसल | - २--- 
खअमरोे घम-घमफर अमर की .छोम कर . रही हु--श्योंकि स्रमरी को 
बयोड़कर सत्रमर प्राग लोभ से रात-भर कमलिसी-कोष में केद था श्रोर 
आब ऋसके निकलने का समय श्रा गया है। ३--दीप-दीपक |. 
ओंदर्याल - क्षीए कान्ति, मतिन | झ्म्बर-ग्राकाश | रात > लाल हुझा + 
४ड--्जुयुतहि-्युवित से ही। जानलि-नान गई। १--तेजह-:. 
फक्षेड़ो | पहु--प्रभु, प्रीतणत। ६--सदव दोहाए-शामरेव की दुहाईं।” 
३७--वागर<बतुर । सान-रंग-ग्रादर और प्रेम ॥ ६--फाबए- 
कड़े । परशन--परपुरुष । 


#पूषा& फटघताए 0 [०८एए. 5 0 787 #6 
अआशषाहाया 6 गो? - ८ 7 हि 
2१० 


सखी-सम्भाषण 


रुखी-सम्भाषण 


हज: चया ८2७७ 
( ८९ ) 
आजु बिपरित धनि देखिश तोय । . 
बुमए न पारिश संसय मोय॥ २॥ 
तुभ मुख-मंरल एनिम क साँद | 
का लागि भए गेढ ऐसन छाँद॥ ४॥ 
नयन-जुगल भेज्ञ काजर बिधार।_ 
झधर निरस ऋइऋद कश्योन गमार ॥-६॥ 
पीनपयोघर.. नखरेख. वेल। 
कनक-कुंसे जनि भगनह भेल|३८॥ 
अंग विजेषन ऊुंकुम भार। 
पीताम्यर धरु इथे कि बिचार ॥ १०॥ 
सुजन रमनि तुह कुलबति-घाद। 
का सयय भुजलि सरम के साथध।॥ ११।॥ 
कामिनी कद्िनी कट्ट सम्जाद-। 
कह वबिसेखवर नह परमाद। १४॥। 


__  ््फीं:ड::उजि पिटड।दपतशिएह?फेएफएपझ/णथे: 
१०-०विपरितत्चइली हुई । रे - पुनिस क्पूणिमा का।  ४--- 

का लागि--किस लिये | ऐसन छांद-इस धाकार का धर्थात्‌ ऐसा सलिव। 
४५--जिपार-बिस्तार, फैल जाना । ६ --अधर--प्रोष्ठ | ७ --पीम- 
पयोधर-पुष्ट छुच | ८--कनक-कुस्भ--सोने के घड़े ( झुच ) | भग- 


लाता | कुंकूस मार--रेशर से भरा हुप्ला प्र्यात्‌ रक्त व ॥ 


१०-पीताध्जर धद--पीतास्थर घारए किये हुई हो-शरोर पीसा पड़ गया है | 
इर्यें>इसका | किस्नवया | १२-का 'सर्य-किसहे संग। भुृंगलि-रोप , 
किया | मरम के साध-ढुरय को इच्छा | १४ परमाद--उबाद, शिकायत 


१३३ 


'बद्यापति ' 
७४7७-४9 
( ६० ») ु 
आजु देखलिंधि कालि देखलिसि * 
आन कॉलिं 'कत भेद | 
” सेब ' बापुर स्रीमा छोड़क् 
ज्ञझ्यन बाँधघल फेद॥ २॥ 
सुन्दर फतककेंआं  भुति गोरी) 
दिन दिन चाँदू-कला सर्य बाढलि 
. जऊबन सोभा तोरी॥ ४॥ 


बाज्न पयोधर गिरि के खसहोदर 
.. ,अनुपामिए ' छनुतगे। . 
कआओमल पुरुष कर प्ररंसप पापश्नोल 
जे तनु जितल परागे | ६ ॥ 
मनद दास बंक्रिस: कए दरसए 
-चंग्रिम भोँइ किप्ंगे। 
कान्न- चेआकुत्ति सामु -न- हेरए 
ओल नग्न - तरंगे-॥ ८७ 
विद्यापति, फिर यह शावए 
नब, जोबन नत्र कुष्ता। 
सिबल्घि राजा एह रस ज्ञानए 
मधुर्मात देवि सुझुन्‍्ता ॥ १० ॥ 
२३--वाुर-जेचारा । फेद (अर्पष्ट)। ३-- कनककेश्ा+ सतक्ीया 
स्वणे-नि्मिता । सुति#मभुत्ति, । -५--दाब - फ्योधर 5- छोटे-छोटे 
कुच . । गिरि क्ष सहोदर-पहाड़, के भाई ( पहाड़ के ऐसे )। 
१२७ 


सखी-सम्भाषशोा 
<&#% “९०७३: (७ शक 


(४१ ) 


सामरि हे भामरि तोर देद् | 
की कह के सर्थ ज्ञ।एलि नेहू ॥२॥ 
नींद भरत अछ लोचन तोर। 
फोमल बदन कमल्ष-रुचि चोर ॥४।' 
निरस धुसर करू अबर पवार 
कोन कुलुधि लुठु मदन-भडार ॥$॥ 
कोन कुमति कुच नख-डत देल। 
हाथ-हाय सम्दु भगन भए गेल ॥5। 
दुमन-लता सम ततु सुकुमार 
फूटल बल्लय टुठल गरम हार ॥१०॥ 
केस कुछुम तोर, सिर क खिदूर । 
अकक तिलक हे सेउ गेल दूर ।११॥ 
भनह विद्यापति रति अबसान। 
राजा जिबनश्चिव ई रस जान ॥१४॥ 


अनु पासिए--उपान्ता देते हे [६--जितल परागें-रराग को जित लिया-- 
पोषा पड़ गधा |७--चें गिस-सुन्दर ।सामु-सासने । 


१सापरि-डपामा, पु दरी | फकामरिज्मलिन । २--क्री-कक्‍या । 

के सर्यें--छिससे । लाएल्--लाई | ३-श्रछन्हें ॥४-फोसल सुख की रकूमल- 

€वश श्राभा घोरो घली गई हैं -वह मद पड़ गया हूँ । ४ - धुत्र-धूसर, 

भूरा। पंबारे-प्रयाल मू गा। ७ खत--क्षत, घाव । दमन लता-द्रोएग पुष्प 

.._ को छता। १०-- बलयनहाय फी कड़ी । गूस--ग्रीवा,गणा । ११-फुसुस- 
फूल । १:--श्रल४-मआलता, समहावर | १४---अश्रदसाव-समप्त । 


श्र 





विद्यापति 
47%, 9४७, 


(९२) 
ए धात्ति ऐसन कहबि मोय । े 
भाजु जे कैर्त देखिए तोय ॥२॥ - 
नयन् बयन झआनहि भाँति। 
: कंदृहत कट्टिनि- भूलसि पाँति ॥९॥ 
सुग अधघर बिरंग सेल्नि। - 
का सय कामिनि कएन्न केल्ति ॥६। 
बेकत भए गेल गुपुत काज। - 
अतए: कश्षर करइ ल्ाज ॥८!। 
सघन जबन कॉपए तोर। 
अंदत मथन्त कएल जोर ॥१०॥ 
गोर पयोवर राहुल गान। 
चर आँचर कापत्ि हात ॥१२॥ 
आमेय सागर तुहु से राहि। 
सकुद सातग बविहर ताह ॥१४७ 
कह कवि-सेखर कि कर ल्ाज्ञ। 
है ज्ञ॒ कहिसि -+_..क्‍तहनढ»मं ने कहेनि सखिन समाज ॥१६॥ 
ई--आरान हि -- धन्य ही | घुरंग -- लाल | बिरंग-टमशिद | ७--- "झ 
बेकत-- व्यक्त प्रकट | ८ अतए-प्रतएव,यहाँ | फक्षर-किपकी । ९-. 
सपन--पुष्ट | जधव--जॉँब | १ *...२ ९०“रातुइ-ज-वाल। गोरे-कुचचों का 


ज्य घाद् हो यया है | नहूर-नजो की रेखा १३ धसिश्र-प्रसत । रशाहि- 
सधा | १४-- मुकुन्द-मात॑ प-हछृष्णा उसी हाथी । 


१२६ 


सखी-सम्भाषण्त 


(९३ ). 
आजु देखिए सख्ि बढ़ अनंमनि सनि 
बदन समक्तिन सन तोरा। । 
मनर- बचन तोहि कोन ' कहल अछि 
से न कदिए किछु मोरा॥ शा 
- आाजुक रयति सखि कठिन बितल भक्ति 
- कानहु रभ्स कर मंदा॥ 
गुननअबगुन पहु एकशो न बुझलनि 
राष्ट्र गरासल चंदा ॥ ४। 
. - अधर, सुखाएज केल - अरुमाएल्न 
घाम तिलक बहि गेत्ा 
सारि बिलासिनि केलि न जानथि 
साल अरुन उड़ि गेला॥ ६॥ 
भनह विद्यापति सुन बर जोबत्ति 
ताहि करब किए बाघे 7 
जे किल्ु देल आँचर बाँघि लेल 
.__.... सख्ि खभ कर उपहासे ॥ ८॥ 
१--अ्रनक्षति--प्रनण्तनी, उदाधौन । समिझूससान | बदत--मुख । 
२०- मंद-घुरा । भ्रदछ्िल्हे । ३-रयनि-रात । रघस--क्षासक्रीड़ा 
मंदा-वुरी तरह से। ४-पहु-प्रीमण | ४--अश्रधर->श्रोष्ठ ॥ घास ८: 
पसीना । तिलक--टोका । ३- बारि >-- बालिका । भाल अरुन उड़ि गेल-८ 
मस्तक का सिदुर-विदु लष्ट हो गया। ७उ--फिए--क्से । बाले-८बाघा 
- देता, रोकता | ८5-- उपहासे -- निंदा । ह हक 


१२७ 


वयापति - 
42255% ५८:7७, 


२०-तकर--उसका | ६--जामिनी--तत । क्षत८जितना । 
६०--भुज जुग--दोनों हाथ। -चापि-दबाफर | 
१०-०-तलदन -- उप समय | १२--८पच्चम-झश्ान्त, ठंढा। १३- प्रधर 


७--फ्रलन--कव | 


न 


(९४ )' 


न कर नकर सखि सोदि अनुरोध,। 
की कहदन हमहु सकऋर परबोध ॥ २ ॥ 
अलप बयस हम कानु से तरुना। 
अतिहु लाज डर अतिह करुना ॥ ४। 
क्ोमे निठुर हरि कएलन्हि केलि। 
की कहब जामिनि जत दुख देलि॥ ६ ॥| 
हठ भेल रस मोर हरल गेआन | 
नित्रिन्नैंच तोइल कखन के जान || ८॥ 
देल आलिंगन श्ुज-जुग चापषि। 
तखन हृदय मक्कु ऊठल्ल काँपि॥ १० |! 
नयन वबारि दरसाओलि रोइ। 
तबडू कानहु उपसप्त नहि होइ | १२॥ 
अधर सुरस सक्कु कएलनिद मन्द | 
राहु गराखि निमश्चि तेजल चन्द । ४॥ | 
कुच-जुग देलन्हि. नख-परहार। 
केहरि जमनि गज-कुम्म बिदार ॥१६॥ 
भनई बिद्यापति रखबति नारि। 
तुह्ु से चेतन लुब॒ध मुरारि ॥ १८ । 





उप्रोष्ठ | १४--तेजल--छोड़ दिया । १५ >भनद्द-परहार--नखों को 


श्र्८ 


सखी-सम्नाफाएु 
7३००): <॥" 5. ऑ-क.- 


( ९४ ) 
कि कदवःददे सल्ला आजु कफ विश्वार। -- 
से सुपुरुष सोदे कएजस सिंगार॥२॥. 
- हँसिं. हंखि पहु आहलिंगन देल। 
सनमथ अंकुर इुसुभमित भेल॥ ४॥ 
आँचर  परद्ति पयोधर देश। 
जनम पंग्ु, ज्ञति मेटल छुमेरु।६॥ 
जब निबि-बंध. खसाओल कानत। 
तोहर सपथ हम किछु जदि जान ।॥ ८ || 
रति-चिन्द्दे जानल कठिन मुरारि। 
तोहर पुने जीअआलि हम नारि।॥ १०॥ 
कूह कविरंजन ' सहज मधु राई। 
न कह सुधाम्नुखि गेल चतुराइ॥ १२॥ 
चोट ॥ १६-०० केहरि ८ विहू । गज-कुस्स ८ हाथी का ससस्‍तकत | बिदार-> 
फाइना । १८--चेतन--दतुरा । लुब॒ुध--लोभायसात । 





२--कएल<किया । ३--पहु--भीतम | ४--भवसथ--त्ामदेव . 
कुसुमित-फूचा हुधा । कामदेद रूपी झंकुर फूल उठा-फ्ाम का पूर्ण 
प्रिकास हुआ । ५--प्लाँचर--अं चछ | पयोधर--कुंच । हेरु--देखना | ६- 
पंगु--पर्गहीन । जनि-मानों | ७--खसाधोल८ ( खोलछर ) गिरा 
' वंदया | छाननक्ृष्पू | &--रति के विह्न से जाना कि कृष्णा बढ़े कठोर- 

हृदय है । १ ०-पुने-पुण्य छै। जीश्रलि--जीती खा | १६ --सहज 
_ सधु राई--राई (राधा) स्वभावतः ही मद (सदृश् ) है। १२-गेल चतुराई 


क्र तम हो गई | 
चतुरता छतम हो बह 


विद्यापति . 
७७ ६७४? 
( ९६ ) 
हंढ परिरमस्मन पीड़लि मदने। 
डबरि अएलहुँ सल्लति पुरब पुने॥२॥ 
दुटि छिड़्झाएल मोतिम हार । 
सिदुर लोटाएल सुरंग पँवार ॥४॥ 
ठुन्दर कुच जुग नख-खत भरी। 
क्षन गज़-झुंंसभ बिदारकज्ष इरी 08 ॥ 
अधर दसन देखि जिड मोरा काँपे। 
चाँद-मंडल जनि राष्ट्रक माँपे॥ ८॥। 
सम्ुद ऐघन निसिल पारिए झेर। 
- कख्धन छगत संर हित भए खूर ॥१०॥ 
ः मीय न जाएब सख्ि तन्हि पिया-ठास । 
बरु जिव मांरि नड़ारवाय कास ॥ १२॥ 
भनई विद्यापति तेज भय लाज। 
आग जारिये पुतु आगि क काज ॥ १४ ॥। 
१--परिरम्धन ऊू बाढ़ आलियत | पीड़लि > पीड़ित हुई | पदते 
सूफाम-दवारा। उबर श्रयलहुझमे रव आराई। पुने- पुएय से | 
इ-छिड्िक्राएल 5 बिखर पथ ६ ४-युरभ- लाल | पेंवार ८ प्रबाल, 
शुंगा । ५--कुच “स्तन । जुगल्‍>*दो। चर-खतज>  नखों हारा दिये 
गये घाव | ६---गज-कुम्च ८ हएथी का सत्तक | विदारल ८ विदीए क्रिया * 
घेर-फाइ डाला । हरि८-सिह। उ-प्ोष्ठ ०२ दांतों का आकऋतए | 
करना देख सेरे प्राण काँप उठे | राहु क सॉपे -८राहु का श्राक्षणए | | 


&पसुद्, खामर॥। ऐसन-्लमास|।. ऊरबख्जओर, ; सीमा | 


१३० 


सखी-पम्भाषणः 
47% ..“६2-827 ८७3. 
(९७ ) 
कि कदय हे सखि रातु क बात | 
मानिक पंड़ल कुबानिक हात ॥२॥ 
काँच कंचन न झानए मूल | 
गुंजा रदन फरए समतूल ॥४॥ 
जे किछु कभु नहि कत्मा रस जान। 
नोर खीर दुहू करए समान ॥६॥ 
तन्हि सो कहाँ पिरित रसाल | 
बानर-कंठ कि सोतिम साक्ष ॥८।॥ 
भनह बिद्यापति ह॒ह, रस जान। 
बानर-सह को स्रोभमण पान ॥१०॥ 


१०-- उक्त उगेगा | सुर८सुर्थ। ११--मोॉय- में । तन्हि-- उस | 
१२--बरु -- भले ही । नड़ावथी ८ छोड़ दे | १४-प्राग जलाती है, किन्तु 
पुन: धाम ही की जरूरत होती हू । 

१क्रि कहव क्या कहें। रावुक नरात की । २-०सानिक रू 
माएिवय, मणि | पड़छ - पड गया । कछुवानिक्त <- श्रपटु व्यापारी | हातः 
ञहाय | ३--फंॉंचन ८ सोना | मूल -मूल्य,क्षीमत | ४--गुंजा-एक 
प्रकार का लाल पल जो जंगल में विशेष होता है, बववापी इसकी मादा 
' बनाते है, घघची | रतन - रत्त, सणि । समतुल्+ूखसात | ६---तीर--- 
पानी | खीर८-क्षीर ८: हुध | ५-- तरह सॉजडनसे । शसाल-रंससय | 
पर ताम्र--क्षं दर | फि्क््या । ६-“इह-पहे | ६० न्‍्-की--प्पा | सोभए-- 
शोभता है । 
श्ब्१ू 


“विद्यापति 2 
रा (६८) 
पहिलुक परिचय, पेम के संचय , 
रजनी आाधघ -समाजले | - 
सकल कल्ला-रस सँपरि न भेत्े 
बेरिन सेलि मोरि लाजे ॥श॥ 
स्ाए साए अनुश्वए रहलि -बहुते। . 
तन्हहि सुबन्धु के कहिए पठाइआ 
जो भपरा होशञअ दूते ॥श। 
खनहि चीर धर खनदि चिकुर गह् 
करए चाह कुच भंगे | 
एकलि नारि हम कत अनुरुजव 
एकहि वेरि सब संगे ।।६॥ 


ना: 
१-पहिलुक-प्रथम बार का | वरिचय-- जाच-पहुचाव | पेम क--प्रेम 
का | रजनी-रात | पहली वार का परिचय था--प्रथम-प्रथम भैट हुई 
दो, श्रत: प्रेमके संच य में ही-प्रेमोश्पत्ति सें ही--श्राधी रात बीत यई । 
४“ सभरि न भेले-पेभरकर न हुआआ-- धच्छी तरह नहीं हुआ । भेलि- 
हुईं । ३--पसाए-प्ल्लि । अशुम्ए-अनुत्ताप,पछतावा | रहल्--रहु गया | _ 
४--नन्हिहि-- उनके | कहिए पठाइच्र--बोल पठाना बला भेजना । जौं-- 
"जिस प्रकार । भमरा-अ्रमर -- भोरा |! ४--खनहि-क्षण | घोर--याड़ो | 
'चिकुर-कैश | गह ८पकड़ना | कुच--भंगें--कुच को विदोए' करना | 
६--एकलि--अकेली | क्षम-कितना | पटरजब--पअ्रतुरंजन करेंगी, प्रेम ' 
“निब!हुंगी | बेरि-- बार । 
१६२ - 


सखी-सम्भाषण : 
“०, 29%, ८8%, - 


तखन बिनय, जत से सब कहदब कत 
कहए चाहल कर जोतो। 

नय रख-रंग भंग भए गेल सख्ति 
ओर घरि सेल न बोली ॥ ८।॥| 

भनह॒ विद्यातति सुतु बरजबति 
पहु अभिमत अभमाने । 

राजा सिघध्षिघ रूपनर।य न 
लखिसा देइ बिरसाये ॥ १० ॥. 


७-तखन -: उप्त समय | ,जत ८5 जितना। से -- बह 
कहव-- कहुँगी | फत ८ कितना | कहए चाहुल ८ कहना चाहा । कर- 
कीली- हाथ जोड़कर | ८--तसब ८ नवीन, तथा | भंग भए गेल ८ 

भग हो गवया। झऔर-प्रत्त ॥ ओर घरि भेल न बोशी<-अ्रम्त 
तहकु्ष कह भी न सके--साफ-साक बात भी नहीं कह सके। ७--- 
८--इस पद का ताहपयें यह है कि समागस के समय श्रीकृष्ण यह 
- देखकर कि राधा उनको प्रत्येक चेष्ठा का यथोचित घमाघान नही करती, . 
दोनों हाथ जोड़कर उस समय उसप्तकी प्रार्थना करने खंगे। यों, ऐन 
मौंके पर दोनों हाथ प्रार्थदा के लिये जोड़े जाने के कारए रति रंग में 
भंप हो गया। फिर तो कृष्णा के मुण से बोली तक न निकली । 

हस पद का यथार्थ सर्म विदग्ध पाठक हो समझ सकेगे॥ ६--पहर-: 
प्रशू, प्रीतम | श्रभिस्तत छ युक्तियुतत |] १०--बिर्साने -- विरभएणा, 
प्रीतम, पति । 


१३३- 


कोतुक 


कोतुक 
*ढ-#*% ० 
( &*£६ ) 


डठ उठ साथज कि सुतसि मंद। 
गइन खाग ऐसुं पूर्तिम क चंद ॥ २॥ 
हाइंरोेसाबलि.. अमुनानगंग। 
त्रिबल्षि-त्रिबेत्ती विप्र-अनंग ॥ ४॥ 
सिंहुर-ड्लिक दरनि सप्त भास। 
धूसर मुख-सल्ति नहि परगास ॥६॥ 
एड्स. समय पूलह पेचघान | 
होआ छउगरास देह रखिंदाव।॥८॥ 
पिक्र सधुकर घुए कहरत बोल। 
अलपओो अवसर दाब अतोक्ष । १०॥ 
, बिद्ापति कबत्नि एछ्ो रख भान। 
राए सिवर्सिष सब रख के विधान ॥१२॥ 


बम सम वय ी पलपनलम लनन जट 


ह--मंद-असतव [. - २--गहनस्प्रहणें ॥ ३, ४--रोसायधि ८८ 
कमर हे निकट के देशों को पंवित | चिघत्ि-पेश में पड़ी तोच 
रेखाएं धर्तग--फामरेख । हार फ्रीद रोभावणी कामशः गधा झौर 
प्मुना है, त्रिवली ही अनेणी है और क्ासदेव ही थिप्र है। ४-- 
सिदुर-चिणक # सिपुर का दीद्या। तरतिन्सुर्य । भाश् प्रकाशित | 
६--धुतर ८ घुमिल, प्रभाहीन । परमास ८ प्रभात | ४--हँढ + ऐसा ; 
पेंचबान--फामवेव ६ ८--होभ उगरासनउगराज़ होगा, पहएा छांटेगा । 
वेह रतिदाम८ रति का दाव दो । ६--पिक ८: कौचल | सबुझर८- 
भोौरा | पुर कहइत घोश्न्गाँव में झहता फिरता है। १०--प्रल- 
पद्मोज्योड़ा ही। अतोट-प्रमनन्‍्त | 

१२७ 

१२ रे 


जिद्यापति 
न सू 4 
( १५० ) 


त्रिबनलि तरंगिनि पुर दुग्गस जाति 
सतमथ पंच्च पठाड़। 

जोबन-उलपति स्तोहि समर क्षाति 
ऋतुपत्ति दूत घढ़ाऊ।ाशा। 

मादध, खअब, पेखु स्गाजिए वाला | 

तप्त सेम्च छोटे जे संताप्ल 
से सव आश्रात पाला ॥|श॥। 


कुहल चछ्ध सिक्षफ अंक््स क.ए 
चंदन फवच अभिरासा 
लयनल कृप्ताद कठाश जान दप्‌ 
साजि 7हल अधि वासा ॥8॥ 
सुलरि स्लाजि खेव चलसि आइलि 
विद्यावति «वि भते। 
- राजा लिव्लिंघ #हूपनरायन 
लखिस' देह परमाउे ॥ ८, 
६--ब्िवक्चि-पेट सें पड़ी तीए रेखाएँ । तरंग्रिनी--प्दी । ऋदिहली 
रूपी नदी के सत्र पर (बसे हुए) नगर को एुर्मेछ जान का्पेय-ढापो राजा दे 
( छसे विशय करगे फो ) पएच्र भेजा | २--दमपति - सेनापत | समर 
छापि-एद्ध के लिपे। ऋतुपतिजव्स | ४--तसुझूउछ्के । हें हे +- 
चुबमे । संतापल ८ हु दिया | ४--छुंडल उकत-ऋुडल ( क्षफूण ) 
घच्ा है | सिलक्ष-ऑं फक्रत-+दीका ही अछझुझ हैँ | चंदव फवय -: स॑दन हा 
छेए ही शरौर ह्राए है | ६--हुमान ८ पजुय | ७--पफेत-5ड्धभमि | 
श्श्८ है 


"२ ह 


_ कौतुक 
८७४७-८७... 
(१०१) 
अम्भर बदन कपाबह गोरी!) 
राज घुनइ छिझ्म भा के चोरीतश। 
घर घर पहररि गेज्न अधि जोहि। 
अब हि दूखन लागत तोहि॥छ॥। 
कतए सुकाएन चाँद के घोर। ' 
जतहि मुझकाएन 'तसहि छन्नोर ॥६।। 
हास-सुधारस न कर छज्ञोर। 
चनिक-घनिक धन बोहृब मोर ॥८०॥ 
आअधर क सीम सदन कर णोति। 
लिंदुर क सीम बेसाओलि मोति ॥१०॥ 
. भनईइ विद्यापति होह निरसंक। 
गाँदहु को थिक मद कलंक ।|१२ 





(--अम्वर-इस्प्न । बदन -- मुख  शापाथहु-ठा0 जो | २--पाँद छ 
धन्द्रमा छो | ६--पहरि--भरहदरी पहुचन्रा । गेल छल जोहि < ढहु गया 
हैं| ४--हृकन-जोक, फर्लक्ध ॥ ५-- कलएं>जहुर | सुकाएय-- छिऐेगा | 
६--वजोर ज्ञात | ७,१०--हास-मूली । सुधारत - पमृस छा रस | 
झघर के सीघर८ श्रोष्ठ के विक्ट । उश्तन <्घात | घैसाजोखि--बैठायःर | 
हँसकर प्रश्ाद् मत करो,घनो ब्यापारी रहेंगे फि थे मेरे ही घद हे (क्योंकि) 
ओोष्ठ के सकट बति प्रकाक्ष फमा रहे हु जो म॒ुफ्ता के समान हूं) 
ओर विदुर-बिन्दु सोती से घवछ रहे हैं। १ --होह-होफो | १९-..... 
पविक-है । ताँव (झोर तुम्हारे मुख ) में घेर है, करें कि उसमें कर्तेक है । 


१२९ 


विद्यापति 


का 8 


( १०२ ) 
लोलुअ वदन-सिरी अधि घनि तोरि! 
जनु ल्ागिदद ताहि चाँद के चोरि॥र।। 
दरस हलह, जमनु हे-ह बाहु' 
चाँद भरम मुख गएश्सत राहु।श्ा। 
घबल नयन तोर जनि तरुआर । 
तीख तरल तेह्िि कटाख क धार ॥६॥ 
निरथि निहारि फास गुत जोलि। 
बाँघ हलच तोहि खंजहुन वं!क्षि ॥८॥ 
सागर-घार चोराओल चंद। 
ता लागि राहु हरए बड़ दद ॥ह०।॥॥ 
भलइ बविद्यापति धोडइ निरसंक। 
चोदहु को किछ लागु कल्न'क [१११ , 
लोलप न प्रानदी लित, च॑ंशत्ध . धृदन-पिरो 5 बदनकी नख छी 
भा | अष्विल्‍--्श्रस्ति है । घल्स॑-स्न्ी । ए०जर नहीं । ३,४- ८२ सि हुलह 
सदेखछर (फाटवट) हुट जानी | श्वृंगार-सिलक में यों ही घिला हँ-- 
“झविति प्रविश्ञ गेहे मा बहिल्तिष्ठ काम्ते, प्रहए-समक्‍-वें छा दत्त ते गीतर- 
इसे: | तद मुखशक्कलंक दीक्ष्य नूर स राहु. | गछति तब सघेस्द पुछ दर्द्रं 





हाथ ।। ५-०“-बदल -- उनला | धर्नि>उच्ा । तदझार८: दर्देधार | ६ 
६-ठीख - ती०८ए | कठटाख क--झठाक्ष की | ७ ८द-विर्ध्षिजवीसे की फ्रोर 
फास गुनन्झुछ उपी फॉत सें। घोलि-नोड़कर, दांघक्र । हलइ--ज्े 


जायगा। बोलिलश्रमऋफर | ६--सापर-सार८प्रमृत | १ ८-इन्‍्इ--द्वस्द्व 
ज्ञोर-जल्व | ह 
4४० 


ना 


कोतुंक 


५ ' ६४% :<-& ७. 
.. ( १०३ ) 
साँझा क बेरि उगल्- नव ससघर 
भरम बिदृत सबिताहु । 


कुठडल चक्र तराख नुकाएल 
दूर भेक्ष देरथि राष्हु ॥९॥ 
जनु बइ्ससि रे बदन हाथ काई। 
तुआ रुख चंगेस अधिक चपल भेल 
| कति खन घरव लुकाई ॥|४॥ 
. रत्तोपल जनि कमर बद्घाओल ' 
नील नलिति दक्ष -तहु ॥ 
तिलक हसुम तहु मा देखि कहु 
.. भमर आबधि लहु लहु।॥॥६॥ 
पानी-पल्ब-गत अधर  बिम्बनरत 
दूसन दाड़िम बिज्र तोरे । 
कीर दूर भेज्न पास न आएब 
सो घतुहि ' के भोरे ॥०॥ 


2 न न कप न 7 लटक नस नल 
१-.संध्या के समय नवीन चन्द का उवय हुआ, जिससे सुर्य का 

भी अम हुश्ला--मतलब यह है; सु्वास्त हो रहा था, उसी समय नायिका 

. घेर से निकली | सूर्य अभी पुछंत: अष्त नहीं हुए थे, इन्हे श्राइचय हुझा 
: कि मेरे अस्त होने के पहले ही यह कौन था नदीन उचन्द्रमा 


- छदित हुआ । २ पुंड्श-चत्-्कुंडल (कर्णाफूल) ,रूपी चक्र -। 
नुकाएल-- छिपा, हुआ . ३>“श्दन ह्वाभ 'लाई-मुझख हाथ पर 


रसर । ४--पअंगिम-सुस्दर । "'कति सन“शबतेक 
; श्र 


बिद्यापति 
“- ४७२७, ८४१२७, 


( १०४ ) 
बह कोसकि तुछझ राजे। 
किनल कन्हाई लोचन आधे ॥श। 
ऋहतुपति इटबब यदि परराद़ी | 
सनन्तथ् सघथ दुचित मूलबादी ।.४) 
द्विम पिक क्षेश्वक सस्ति सकरंदा । 
काँप भमर-पद खासी चंदा ॥६।। 
वहि रति रंग छिखापन माने । 
७ ७3  ख़िवसिंष खरस-कबि सेहत खरस-कबि भाने ॥८॥ 
४ टबतोपश्र--झाख_ कल (हाथ) .।. कसल-- (सुख) । नील - 
नलिनी-वीज्न शतक ( झाँलि' )। तहु--वहाँ भी | ६-- लहु लहु-चोरे 


१ 


औरे | ७--पानि-पलब गत--हाथ पटल्थ के सथास हैं | अथर -- श्रोस्ठ । 
विषय रत- विव्य कल के सस्तात | दाड़िय विज-जअतार के दाने | ८-.- 
कोरज्सुप्या । भोरें-अ्रस में । | 
१-कोसछ्ि०्धुदतुरा । किनल- क्रथ किया, खरीदा | 
३--लोछन श्राधे 5 क्राषरी श्राल से, एस कष्टाक्ष से । ऋतुपति--बसन्त । - 
हंडयएु-श्यापारोी । सहि परलाएी--प्रचादी नहीं, बुद्धिमात । 


४>-सतज र-सासपेद_) सबब -- सब्बध्य, दल '। मूल 
सूस्य । बादी-कहतेबाला | ४--दिन-पिफ लेखक--फोयल-रूपी _- 
जाम्हद छेक्षक हूँ। सहि-रोशमाई | सकरन्दा-- पेराग | 


६-- कॉप-फाड़े का कप्तत् | भप्तर-पद-भरे का पर | साखीऊ: , 

साक्नगी, गबाह -। बहि-बही, हिसाब की पुस्तक्ष ॥। रति-रंग ८- 

- कमः बिलास । लिछादत मालेज्सान लिखा ग़मा | इस पद्य का 
१७४२ 


विद्यापति 
७४७. ८२" 
६ १०६ )* 


कठड़ि पठाओले पार हि चोर) 
घीव रघार साँग मति भोरतासा, / 


बाप न पावए साँग उपाति। 

. लोभ क रासि पुरुष थीक जाति ॥५॥ 
कि कहव ओआज कि फौतुक सेज्ा 
आरदहि कान्हक गौरव गेल ॥६॥ रे 

. आएल ब्रइसल पाव पोआर | 
सेज क कट्दिनों पूछए विचार ॥ ८।॥ 
ओछाओन खेढ़तरि पलिया चाह। . 
। 'आओर कहव कत अहिरिनि-नाह ॥| १०॥ 

* भ्रनइ , विद्यापत्ि पहु गुनमंत । 
विदा, _.0हत“लिरि सिचरलिंघ लखिता देह कब ॥१२॥ लखिता - देइ कंत [१२ ॥ 
- ७०-सतसतिज 5 कासदेव | सदहल ८ हाथी वे मस्तक पल चूनेनाला बानी 
। उमताए- पागल हो । विश्नतम-प्रांकृश्ष -- प्रोतम रुषी श्रेकुस | ६--सु- 
सत प््भ्त सें थ्रा जाय १०--स्‌ धइत -- (मूच्‌ धातु; छोलने से | मनिहध्ति 
उमा करना | १२--महत-मत्त, पायल [ 0 


(०--कश्ड़ी--छोड़ी ( यहाँ सूल्य ) । पठाश्बोशे--भेलने पर भौ। घो- 
रू-मट्ा | २--बवीव-घी । सतिसोर-मर्खे। ३--वाह्--रहने को जगह । 
डराधि--बात्-लामब्ो 3 लोग क.राधसि-- शेभ का झताता.। थि#-- हैँ । 
६--अध्दहि- प्रस्थान पर, :बुरो जगह । -७--पोश्आार--प्रवान्न, पुञाल । 
5--ऑछाबभ--ज्ो छाशोन-- धावन ॥- खेडतरि-शोएं शोएं चटाई-। 
सलिया-लंध । न ह | 


श्ड्छ - 


अमिसार 


अभिस, 


4४७, 47%- 


(१०७). 


जैनि धनि चलु अभिक्षार | 
सुभ दिन आजु राजपन- मनतेथ 
7 ० पाओब फि रीति विभार ॥१॥ 
“गुद्मन नमन अंध करि आझाओज , 
बाधव तिमिर भिसेख | 
तुझ -इर फुरत बात कूच लोचत 
बह संगग फरि देख ॥ह॥ 
कुस्वबति धरम करस श्य अब सब 
गुरुूमंदिर चलु शाखि। 
प्रियदसम संग रंग करू चिर दिन 
फल सनोसर्थ साश्ि ॥६४॥ 
सीरद बिजुरि बिजुरि सर्य नोरद 
किकित गरलन जान | 
हरखए बरखए फुक सत्र साली 
सिखि-ऊकुल हुहु गुन गान ॥5॥ 








- “अभितार ऋमुग्त सिलन | २--राज रत सवसमपय-काम 
करा...राज्य है। बिवार८घिस्तार । ३०-गुदबजम-- बड़, लोग 
'बांजव-> बस्बु, मित्र । तिसपिर:>प्रस्थकाश | ४--फुरत - फड़कना १] 
उर+हेरय | घामनू जय | लेलटसबलो । ६--लाखि>जशालो,, 
वृक्ष | ए--रोरद--मेघ । सर्ये5संम में | सेघ विजलो के साथ 
. रहता है भौर जिगली भेष के साथ ( यों ही राध कृष्छा के साथ और 
कृष्ण! राधा के साथ )॥ ८--सिकुखिल--मोर । 


हि] 


हा १४५ 


“विद्यापति 
पज, ८०%, 


(० (०८) 
कह फ्ह- सुन्दरि. न #ऋर  बेशझ्ाश्न | 
देखिश्न जात अपुरय स्राक | २॥ 
पंगसद पक ऋष्प्ति अबंगराग। 
'./ फोन नागर परिनतत होम भाग ॥७॥ 
पम्न-पुतु उठस्नि पद्धिम दिसि हेरि.] 
कखन जाएत दिन कत श्रेद्ठि बेरि।॥ ६॥ 
. पुर सपर करसि कक्‍सि थीर। 
. दैढ़ कए पहुरास तस सम चौर॥८।॥। 


'उठम्नि विशस्ति हँस्रि ते ज्ञिए सार। 
तोर सन , साव रूघन आँधियार ॥ १०॥ 
- भनह विद्यापति छुछ बार ,ज्तरि। 
- घेरत धर कक हे अपन 3 3 गत लत अररित हो मन मिल्नत श्लुरारि॥१२॥ 


६--वेश्राज-बहासा * ३--सृगरूद . पं-आसस्‍्त्री का लेप 
"(जो फाली है ) | ४-..- फोम--भौन । हिंस नायक का भाग्य: 
'परिएात हु्रा- किसका भाग्योदव हुम्मा है । ४--हेरि देखना | 
६--कल्नन -- कध | फत-- फितनेा । अ्रद्ध--भ्रत्ति ८ है +. बेरि-- - 
. समय) ७--मूपुर को पैर के ऊपरी भाग में कसकर स्थिर करती 
- हो जिसमें चलने पर शास्द ८ हो ।+ ८६--तस-संम -- प्रनंधकार के 
समान काला । ६--तेजिए सोर-सार त्यागकर, श्रकारएँ-- हो । 
7६०--तो र-्तुम्हारे | भाव-- प्रच्छा लगता है । श्रेंघियार छ प्रन्धकार | 


बन नकारा उाककाकक 


न 


हि 


अमिसार 


बकबं 2४ --- 
(शव). 
सावेब, घनि झाउएल कंत भाँति! 
 प्रेमदैंस 2? परखाओकत कण्तीटी 


| भादव कुहु-तिथि राति॥ २॥। 
गगन गरज्ञ धन तहि से शन, सन 


कुशसे ले कर मुख बंका। 
'तिमिए-अंज्न ललबार ' घोर अनि 
तें. छउपजाबति संक्रा ॥४॥ 
भात शुजग सिर कर अभिनव, कर- 
., ऑपशत फ्रतिसति  दीप। 
ज्ञानि, सज्ज्ष घन से देंई चुम्बन 
तें तुख्न सिल्नन समीप ॥ ६॥ 
ताए््रतिन धति नागर बअजसनि , 
 रंक्ष . गुम पाहरछक्ा हार। 
गोवि!_ चरल सन कह कपिरंजन - 
- + सफल सेल अभिकशर॥ ८॥ - _ 
“-हेमल्‍्सोगा । फरप्तौडी जादक इुहु-तिथि राति-शादो क्षी: 
| प्रमाधस्णा की शत रुवी-शसोटी पर | ३--ासस-प्राकाश । 
" कुलिसनवस्ण, उनको । मुख बंका-मुछ देढ़ा दाश्ता, जिरुख करन | 
४--विपिर-अ्रंजन ८८ भ्रन्णक्ता र-रूपी अंजव का। घनिलन्‍नवहीं ! ५-०- 
भागते हुए स्व के लिए पर सातों नृत्य करती दे भौर धर्ष के चफि क्ों- 
हाथ से छाँव छेती है । ६-- इस भाष क्ा पद गीतनीवित्द में यों है: 
“ दिऊजष्यत्ति चुम्वादि, अध्घर कल्पम हरिस्पगत इसि तिमिए सन-- 


ह १४६ 


वियापति 
“*छ-&2८#क 


0 शा आन 
चन्दा जनि रग भाजुक राता 


पिश्आा के छक्िखिण पठाझोब वॉति।), २॥ 
सात्ीन  सर्य इम करब पिरीह। 
लत &भिमत अमभिसताार के रीत ॥ ४॥ 

अथवा राहु बुमाएव हँसी । 

पिथि जदि उमिलह सीतक्ष सम्री ॥ ६॥। 

.. कोटि रटन जअलधर तोहें केंह। 
छाजुझ स्यनि घत सम ८घए देह॥म।। 

भसनह विद्यापति सुभ अभिसार । 

सक्ष रऊून कराया वर के उपकार | २०॥ 





-ल्पत्त |४-- भरत -- बाला ( राधे ) | रागरणवायक्त (ऋष्ण) ८--कवि 
- रु मद-पिधदति छा उपमाण | ु 

१--मभतितझमहीं , | छगल्‍्-णदप हो ॥. पण्ग्रोब्-वछाऊँयो, 
भेजूंगी । पॉहिज्प्णन ॥ ३-+लाम्रोव छम्-आावल सास से। 
४+-पहर्विझत -- झसोनीत | को प्रश्तिसार करपे की निएएव रोधि है-- 
- निएबत पाल हैं! ६--गिदि पीछर । बरिलंगलउगल वो | 
सतो-चर््रमा । ७--जलघरज-मैध ) लेहुलट लो ॥ घ--श्यति ८ 
रचदी,रात | परधल्‍-यदा, सिबिड़ । तश+-फ्रधक्वार | देहु- दो 
१०--छरथि - श्वरते है । पर स्व म छूघरे छा | ; हे 


डरी0९7छ ईं5 बता एसए#0प एव्थडल्त इक भिध्प्तप्र।$8ए 


“>-+४7४07657075)॥ ' 
१४७ 


इझमिततार 
| शक ४८४० 
( १११ ) 


आजु मो - जादव इरि-सवागम 
कत अनोरणथ जेल | 
घर ग़ंशश्न .निंद. निरुषइत 
मर्द उदय, देल !||र)।। हे 
चनन्‍्दा भर्षि नहि. तुझण रीति। 
शद्दि प्रति तोहें छलंक लागश्न 
हिलू न गुनह भीति ॥४॥ 
अगत नागर सु जितल जब 
गशन रोका हारि। 
तहओ राहु. गराख पड़क्षो 
छेब तोह कि गारि॥९॥ 
एक सास थिहि तोदि सिरिजए 
दुए साकसदो चता। 
दोश्नर दिन पुछु पुर न रहसी 
कर एड़ी पाण के फ्रक्ष ॥5॥ 
सन विद्यापनि सुन तोय जुबती 
न कर चाँद फ साति॥। - 
दिता सोरह चाँई फे आएत 
ताहि १९ भन्नि राति ॥१०॥। 


वि मन लय मिट जज अल स3 





२--लिद विदपदुझ--वींद का विरुफणा फष्ते, सीधे न-सोते [ 

४... सीति--डए। ५--संघार से जब छिधरदों ने ठुन्हारे मुख को 

जोड छिमा--पपरी घुरुकोों से तुओ्लं प्राशित किधा--तब ठुम हारकर 
ह र्श्र्‌ 


;॒ 


खिच्यपंति 
४७-७५, 


!' (११२ ) 


गगन अज घन -मेद्द दारुत, सघन, दामति झतककई 
कुलिस प।दन सबद सानभन; पश्न“खरतर बदह्वगई ।।९े। 
खजनी, आज दु-द्ति सेल | । 
कंत हमर नितांव अगुसारि संक्रेत-कुंजहि -गेल ॥5॥ 
त्तरत्न जल्णघर वरिख भर मंर, गरत घन घवधार ! 
साम नागर एकले कश्सन पंथ हेरए मोर ॥6॥ . 
सुमिरि मकु तनु अपछ सेल जनि अधिर थर धर कॉप | 
डे सक्कु गरन्नन सघन दारुट, घोर -तिमिरहि कप १८ । 
छतुग्ति चल अवब फिए घिचारत, जीवन रुक अगुलार 
कवीसेद्वर बचन ऋधिसार, किए से विधिन-विशार ।१०॥ 





आफाहशा में भाग आये । ७--एऐर.> पूर्ण । ६--साति ८झाएशित, सिनन्‍दा | 
ह२--प्राइति-प्रायछ, सीमा | ताहि पर ८5 इसके बाद | 

१५>-परणन -5 श्राकाश | घन ० धन, िघिंड ] दासिनि-- छिलली | 
३--ऊुलिपि-परठव >ू बज का गिरना, ठतके की उनका | खरतर बल- 
गई-5प्रत्यस्त लेधी से सपसनाती बहती हैँ। ४--अ्रजुत्नरि ++ 
अप्र्वर होहर आने जाकर। संकेतस्युनत्त मिलन-स्थाव | ५-- 
सरल्‍ू-प्रस्विर, चलाइसान । जनधर-म्रेत्ृ + घरिद्--बरणहा हूं । 
'इं--शम -इयास,. शीहएशु | ऐकलेन्श्रलेले । ए--मशुझमेरा ।. 
खिधिर-चेंचक | ८-ंन्यह। गृसबध-जड़े लोग, श्रेष्ठ पुरुष । 
विसिरहि>प्रत्थकफार | $०-तुरतिज्वु रत । किएनन्‍्इवया | सिपतरती-- 
हो 4 सम्छु -सध्ण, सें । ऋगुसारम-्त्रप्रधर होश, बढ़ो) १८--प्रभिंसर-- 
अभियार करो । विधार>दिख्ार | 

श्श्र 


अभिसारें 
गए 2 ७9% 
( १६१३) 
रस्यनि काजर बम भीम भुजंगस 
कुलिस परण. दुरबार। 
गरज तरज मन रोप बेरिस घन 
संघ पड़ अभिसार ॥ २॥ 
सजनो, ,बबन छेइहत सोदि लाज | 
होएत से दोओ बरु सब दस अंगिकरु 
साहस मन देल आन्ञ॒ ॥ ४ ॥। 
| ल्लेख गो 
अपन अहित खेख कहँइत परतेख 
हृदय न पारित्म ओर। 
चोद .हरिन बह राहु कबल्न ' सेंह _ 
- प्रेस परासब थोर ॥ा। 


अं  “ौखटघ॒ौ्ौाीपप/णए/ख:ः 


१०-रपनि--रात । बस -- वन्तनत करता है | रथति कार वम--रात 
अन्यकारपुएं है। भीम--विज्ञाल, भयानक । भुज ग--सर्य । कुलिस-- 
वज्च्र, ठतका | दुरब/ए--जिससे बचना मुद्िकल है | २+रोस-सेण, कोष ! हि 
४--होंएत से होझो खुद ' होना होगा, घह भले ही हो जाव | 
,अंगिक्षर ७ भ्रगोकार  छहठँगी | ५--महित-- बुराई ।. लेख-सख- 
सता !.. परतेख प्रत्यक्ष ५. ज्ोस्प्ीमा, + अन्त । ६--हरशित-८ 
हे खस्द्रमा में जो हरिएु के आाश्षार का फाला धन्वा है। बह--धारएंः 
करना । फाश्त--क्ौर, ग्रात। सहन साथ, सहता है। पराभव-हार । 
रादु क्ल ग्रास (ही जाने पर भी चच्रणा हरिएा क्यो घारएा किये 
खड़ता है, प्रेस. में पराजय है ही नहीं-किसौणिष्य-बाधा से प्र कई 


१४४ 


विश्ञापति . 
चरन बेढ़ित फ़नि -दित मानलि घनि 
तेपुर न करए रोर। .. 
सुप्रुखि पुछुओं तोदि सरुप॑ कहंसि मोदि 
सिनेद्द क कंत दुर ओर ॥८॥ 
_ठामहि रहिआ घुसि प.से चिन्दिश भूमि 
दिय मग उपजु संदेह। ह 
| हरि .हरि सिर सिब्र ताजे जाइअ जिठ 
ह जाबें न उपजु सिनेह ॥१०णा 
भनह विद्यापति- सुनह सुचेतनि 


रासन नल करह बिलम्ब | 
राजा सिबसिघ रूपनरायन 
सकल कला ' अबल्म्ब॥१शो-- 


ताश नहीं हो घकल[[| ७--बेढुलि -- लपेटना घेरना । फरनिम्न्सपं | 
रोर-शब्द अऋंश्वार. पैर:मे सर्प लिपट जाने पर बाला ने उसे प्रपना हित 
समझा, ए्योंकि ( सर्प लिपट जाने सै ) नपर भार नहीं करते 
थअ। ८+००सरुपञ्सत्थ 4 झर>अन्त | सुच्दरी, मैं ठुमते पुछठतो 
हैं, सघ-सच ब्ताप्रो, प्रेम फ्री अभ्रन्तिम सीसा छहाँ पर हैं? ६-- 
दिगरदिशा । घूम घूमकर एक ही स्थाघ- पर उली आती हूँ ।- 
स्पर्श से हों पृथ्यी जानी जाती है ( अन्धकार के फारफ़ दीख नहीं 
पड़नी ) | दिशा गौर राह के विवय मे सनदेह है । मालूम होता है'कि 
दिगूश्नम हो पया है, जिससे में राह भूल गई हूं | $०-ता! 

तबतक | जाबे >ववतक्न | ११०... सुवेतनी-वुद्धितती, सुचतुरा 
आसन>--नाते से पा 

१५० 





अभिसार 
- 425९ ७ 


(११४) , कर 
 सखि है, आज ज्ाएब मोहि। 
: घर गुरुमन डर. ने मानव _ 
.. बचन, चूकत नहि ॥२॥  -: 
चानंन आनि आति अंग लेपब। 
-. भूषन कए गजमोति। 
- अंजन . बिहुन लोचन - जुरुक्ष 
. घरत. घबल जोति॥४॥ 
'अबतज्ञ बसन तनु मपाशएब 
.गमन करब मंदा । 
- जञझझो. सगर गगन. आगत 
. सहस सहस चंदा ॥६॥ 
न दम काहुऊ डोठि निबारबि 
'» ने दस करब झोत। 
अधिक - चोरी पर सर्य करिओआ 
: एहे सिनेंह के सोत॥पण्८ा। 
- शभिद्यापति. सुनद _जुबती 
“ साहस _- सफल काज । 
बूक सिबर्सिथ ह रस रसमय 
सोरम देजि समाज।॥ १०॥ 


.. 5 ६--बानन> चंदन । झाति-लाकर || ४--बिहुन -- रहित | 
घधबल-उजला ४-मंदा--चौरे-घीरे । ६-सगर-समग्र ८ समतले | गगन: 
झाकाश | ७-निवारबि-- बचा दूंगी | श्रोत-प्रोद | ४--पसतोत-लोत। 


१५५ 


विद्यापति 
+&&>*छे<22 
(ह१४ ) 

श्रथमा अडबतन नव गरंअ मनोभत 
छोटि मघुसास रजनि। 

जागे गुरुजत गेह राखए चाह नेह 
खसंश्षआ पड्ल सजति॥ २॥ 

नतिनी दल निंद चित न रहए थिर 
तत घर तत हो बहार। 

बिहि मोर बढ़ मंदा उगि ज्ञबु ज्ञाए चंदा 
सुतिउठि गगन मिहार ॥| ४ ॥ 

पथहु प्चिक सका पथ पय धए पंक्रा 
कि करंति ओ नतब्॒ तरुनी 

चलए चाह धस्चि, पुन पड़ खजि खत 
जाल क छेकल्षि हरिनी॥ ६॥ 

साए साए. कओन बेदन-तसु जाने। 

लिकुज्न बसहि . हरि जाइति - कओन परि 

... अनुखन हन पएंचबाने ॥ ८।। है 

विद्यापति अत् की करत गुरुतन 
नींद निछपन. ज्ञागी। 

लयन * नीर अरि -धीर भपावपय 
रयान- गंमाबए जागी। १० ॥ 





६-सथुमास--चेत्र | ३>नलियी दल्व निर-कसल के पततो पर के पानी 
5 सात | बहार-बाहुर | ४ज्सुतिब्सोकर | ५ पथ>"-पण | पंका-क्त कर 
“लाल के छेंकलि-जाल में घिरी हुई। ७ साए- सखी, | ८5-हन-मारता ५ 


श्श््द्‌ 





कि ला अमित बिक, अमिदन कली आवक गला जो 
३- सहए न पारए--सह तहीं सकती | वब सू वा | #-ाण 


अभिमार 


.( 8१६ ) 


अबहु राज्पथ -पुरुजल जागि।, 
चाँद-करन  लभसंडल क्ागि॥ २॥, 
. सहए न पारए नत्न लव नेह।' 
हरि दृरि सुन्दरि पढ़लि संदेह ॥ ४॥ 
कामसिति कएज्ञ कतहू परकार। 
पुरुष क बेख कएल अभिसार॥ ६ ॥ 
ह धम्मित्ष छोह्य मोंठ कए बंध । 
- ,... पहिरिल बच्चन आन फरि छनन्‍्द्‌ ॥ ८॥ 
अग्ब( छुच नहे सस्वरु भेंल। 
बाज्नत - जं॑त्र हृदय करि लेल ॥१०॥। 


अइछ्तएभमिल्वक्ति धनि कु क साक | 
देरि न चीम्हई नागर राज ॥११॥ 

हेरश्त माधव पड़लन्दि घंद। 
परसइत भाँगल हृदय के दंद ॥१४। 

हे भनहू विद्यापति सुन बर नारि। 
दूध - छमुद्र जनि राज-मरालि ॥१6॥ 


५ 


जन बी 


परकारूटप्रशार, उपाय | ७-धम्मिय-सेश्, वेशी | लोल-चउच । भोंट 
न्‍भोंटा, खोंपा, जूड़ा। चंचल-वेणी को ( साधुओों के ऐसा ) जूड़े के 
समान बाँषा | घ--आब छूल्द करिज्ूदुसरी तरह सै। देटएनमपर 
कफ्रपड़ा । सम्घद - सेंभलना ! छिवश्तु पड के फते घासे पर भो कुछ 
आँमभल न सके--छिप न सके ॥ है२१०-- शा शन-जन्स ८ छितार | हृदय करि 


श्र 


विद्यापति 
मऊ 2४ <% 


क्‍ ( ११७ ) 


चरत नूपुर उपर सारी। 
मुखबर मेखल कर निवारी॥२॥ 
अम्बर सासर देह भपाई। 
चलहु तिमिर पथ. समाई शा 
सम्ुद कुसुम . रसस रखी। 
अबधि उगत कछुगत ससी ॥8॥ 
आएल चाहिश  खमुखि तोर। 
पिछुन-लोचच. भ्रम चकोरा॥या। 
अलक तिलक न कर राधे | 
अंग विज्षेपत .करंह . चाथ '१०॥ 
-- कुसुमित कानन कालिन्दि- तीर। 
.. तहाँ चलि शअ्राश्रोल गोकुत्न बीर। १श।॥। 
: त्तयं अनुराशिन ओ अलुरागी। 
दुषघन लागत सूषन लागीताश्हा 
| भतड बिद्यापति सरस- कबवि.। 
नूपति-कुल-सरोरह रवि॥१६॥ 





 छेल लू हुदय पर रख लिया। १३३--घंद ८ संदेह ॥ १४--दंद --इस्घ, 


दुविधा | १६--समुद -- समुद्र | राजनरादि--राजहूंविनी । 


१, २--पर के तूपुए को ऊश्र चढ़ा लो, और मुखरा ( शब्द करने , 
फालो ) करघती को हाथ से तिवारण करो । ३--अस्थर--वस्त्र | तिमिए- * 
पथ८- अन्वकार पूर्ण राहु | समाई - घुसशर ॥ ४--समुद रू समूद्र - 

कुसुम < फूल । रघत -- ब्रान-द | शसी-रस-युक्त । २>-कुपत-"जिसका 


श्श्ष - मो हे 


( (९८ ) . 
लागल घर पर नींद भेत्र 'भोर। 
_ छेत्र तेज्ञज्ञ उठि नंद - किशोर ॥२॥ 
सघन गगन हेरि नखतर पाँति। 
अबधि न॑ पाओत छूटल राति ॥8॥ 
जलघर रुचिदर सामर कोति। ' 
जुबति-सोहन-बेस धरु कत भाँति ॥६॥ 
धंनि अंनुरागितति जानि सुन्नान | 
| घोर अँधियारे कएनन पयान दा 
5 पर-नारी पिरित क ऐप्न रीति। 
चलल निश्वत पथ न मानय भीति ॥१०॥ 
_कुसुमित कातन कालिन्दि-तीर | -- 
| तहँ चलि आएल गोकुत्त बीर ॥११॥ 
कबिसेखर पथ. मौक्षल जाई। 
झाएल नागर भेंटल राई ॥९»॥ 
प्रागमन अशुभ हो। ससी-व दमा ।-८ पिसुन-- दुष्ट | भम-भ्रस ए॒ फर 
०». रहें हे । ६--अलक्ष विलक--सहावर ओर दोका । १ ०“ अंग विलेपन-- 
घरोर में ऋंपराण सगाता । शरह बाघेन्म्बाघा कर दो, सत लगाशों। 
ज्घर पर जो, गे थे, सभी सो गये ॥-३-वलतर -- नक्षत्र, - ' 
' - तारे। ४--रफ्त _कितनो बोतो, इसका अल्दाज न पाया | ५--अलेंधर 
' ्ेघ | दुचि - हर शोभा हरनेवाला [.६-- जुबति मोहत--पुवतियों फो 
: झोहनेबाली | ३० निभुत--पुनसान पूछो, प्त्थकार । १४--राई--राघा । 


ह कक । १३५९ 


कर 
( ११९ ) 
तपन के ताप तपत भेल महितज्ञ 
ताठल बालू दइन समान। 
चहल मसनोन्‍थ भामिति चज्चु पथ 
ताप तएत नहिं जात्त ॥३॥ 
प्रेत के गति छुंखार। 
लविन जौबनि घति चरन कमल जिति 
- तइओ दढणएल अमिसाए।शा। 


कुश्न-मुनीरव सति जस-अपजस 
तन करि. न सानए -राघधे | 
सन संधि सदन महोंदधि उछलक् 
बूडूल कुछ्-मरजादे ।क्षो 
फत कत बिधिन . जितल घअलुरागिनि 


_ 'साधज्ष ." . यसनसयन्तंत। 

गुरुजन-नयन निवारइत _ छसुबानि 
पाठ कररश सन मंत।८०॥ हे 

फेत्ति कलावति -छुसुम-सरिस-कुन्न 


फकीधल . करल . पयान | 
जत छुछ सत्तोरध परत सनसनभथ 
इह फब्सिखर भान ॥१०।। 


333७ न वलनीकऊी नीनी नी -न+--नी+-+की+ली-ीीीनीननीन-िनीनीक-ननननीनिननननकननननननानाननम-ण। तननन-+ी-++--०+)-०«+००००+:-.०...०.-०-००....क्‍......................२...२.२२ु२ 4 सह. कली... पी अब मय सकती 

१०“ तएपत्र बन्‍झसुर्ण की। तापूपर्सी | तक्त-तंप्त,.. शन्नता 
हुआ सातख-पर्म हो ग्रधा। दहुन"-्रत्द | २>-पनो-रथ--इच्छा- 
करी रध| भामिनी-त्त्री। . ३--दुरबार-प्रदलत । ४-शक्लिमिं-< 


१६९ 


कामिसार 
व 4# कद 


(८ ३१२० 2 
सिश्न मंदिर सर्थ पग दुइ चारि। 
घन घत बरिस मद्दी भर बारि॥ ३३) 
पथ पीछुर बढ गरुझभ नितम्ब। 
खसु कत बेरि नहीं अवशन्त ॥४४॥ 
* बिजुरि-छता. दंस्सावए मेघ । 
' उठए. चीह जल पारक थेघध ॥ ६ | 
एकगुन तिमिर लाख झुन भेल । 
उतरहु दृखिन भान दुर गेल ॥ ८॥ 
ए हरि जानि करिआ मोय रोस। 
» आजुक विज वध व का हे सपनकपअल विआ्म दोस ॥१०॥ 





पर 


फापपएए 
समान | तइझोन्तो भी । ५०“सर्तिस्न्सती छित्रियों का । ६“-+सेंधि ० - 
_ सब्य, में। घहोदधि--महा समुद्र । उछुलल--उछघने लगए 
तरगित” होते खा । ७--सनपथ--क्षामदेव ।. तंतल्‍यन्त ६ 
र--निवारद्रत न बचती हुई । सल्त २ सत्त्र। ६--कुसुम-फुछ । सरसि-- 
'छरसी,. तालाब । कुल ( कूल )-क्षिनारे ।  कौसल--छल से । 
 ६०--छंस न््या ३ हे न्‍ 


| (-..निछा-क्रपना । सर्येन्जे । पमन्डेग। शेटएल घन न्‍्5 
. छने बावल। भहि भश्बारि> पृथ्वी जज से भर गमा | ३-०पीछर--: 

- पज्संपर पैर फिसल जाएें। परयश्ष-भारी) वितस्व८ चूतड़ | ४-- 
खसु कत बेरितनछितनी बार पिर पड़ी। ६“+ज्त घारा- बाँध” 
कर--मशलजआार--बरसना चाहता है।.. ७--पिमिर--प्रस्धक्षार [. 
_ अन-उत्तर और वक्षिणा का ज्ञाव दूर ही हो| गया दिश/-तान नहीं रहा ४ 


१६१९१ 


. विद्यापति 
7 ८-5 <&<%, 


( १११ ) 


साधव, करिश्र सुमुख्धि समधाने । -, 
तुआ अमभिसार %एलि जत सुम्दर्रि 

, कामिति कह के आने॥ २४ 

बरिसः पयोधर धरनि बारि भरि 
र्यति सहा भय भीसा। -<- 

तइओ चललि धनि छुआ गुन मन एनि 
तसु साहस नहि सीमा॥ ४।॥  - 

देखि ; भवन-भित लिखित - झुजग-पति 
तसु सन परम : तरास्े। ; 

- से सुबदनि कर मभपइत फनिमनि 
बिहुसि आएंलि तुआ पासे ॥ ६ ॥ 

'निश्च .पहु परिहरि अइलि कमत-मुखि 
परिहरि निश्र छुछ- गारी। 
तुआ अनुशग मसंधघुर मद मसातक्ति 

किछु न गुनलि बर नरी॥5॥ 

६ रस-रखिक बिनोंद क' बिन्दक 

- कबत्रि. बिद्यापति-. गवबे। 

काम प्रेस दुष्लु एक मत भए रहु 

- कखने को न कराबे। १० ॥ 


हे 


ए--पे-कोत | ६--प्रा्नें - हुछ्ताा 4 ४--ए्योधर ++ बादल । 
भोसा-: डराबनि | ४--भित्त-दोषाल | भुजेंग>सर्प ॥ ७ -कर-- 
हाथ 3 फनिमनिन्स्तपे के सा को । ७--पहु « प्रभु, प्रीतमत। गारी-- 

श्द्र ह 


झमिसार 
ना ४9% 
( १२२ ) 


राहु ग्ंघ, $ए गरस्क् सूर। 
' पथ परिचय दिबसदि भेल दर ॥ग।। 


नहि बरिसए अबसन नहिं होए। 
पुर परिजन संचर नाई कोए ॥8॥ 


चल्न चल सुन्दर कर गए साज । 
दि्विस समारस सपरत आज़ ॥६॥ 


सः गुरुजनल परिजन डर करू दूर। 
ह . बितु साइस अमभिसत्र नहि पूर ॥८॥ 
“ एड खंत्नार सार बतु एक। 
तिला एक संगम, जाबच लिब्र नेह ॥१०॥ 
अभनह बविद्यापत्ति कबिकंठहार । 
-- कोटिहल्‍ुँन घट द्विस-अभिद्धार॥!१२। 





. गालों, शिकायत । सेघ--अख्षने **** “कब क्‍या नहीं कराता 

. २-ज्पेघ ने राहु बनकर सूर्थ फो प्रस लिया हुँ--सेव के फारण 
सुर होनप्रम हो गये हे.। २--ए्यथ-परिक््य-राहु शी पहचान। 
दिवसहि:दिन से ही | ३००प्रवसन-अ्रवसन्न, समाप्त । सेंघ ने बरसता- 
बरतता है, त खुल जाता है '४--प्राँव में लोग नहीं श्राते-जाते | 
प-शर गएु- साजलल्‍शाफकर साज, करो--श्यृंगार क्रो | ६---विवस- - 
“समागभज्-दिन का सिंलत | सपरततझ्यस्पुणं होगा। ८४--प्रविसत- 
भनोवाजझुद्धा । ६७-सार|तत्त्व, धत्य | वहुऋबस्तु | १०--एक 
क्षण के जिये रति-कोड़ा शोर जोदन-भर प्रेंश फरना | ११--क्ोटिहो-- 
करोड़ों उपाय करने पर भी । न घट--न घट संकता, न ही सकती । 


१६३ 


“विद्यापति 
" <७, "२७2 


ल्‍्दः 
हट 


(- (२३ ) 
आज पुमिस तिथि जानि सोर्य अ्एरिड 
उत्चिवः तोहर  अभिसार | 
देह “ जोति ( 'सस्ति - किरत -. ध्वममाइति 
के विभिमावए पार॥२॥ 
सुन्दरि अपनहु हृदय बिचारि। 
आँखि पसारि जंगत हम देखल्ि, 
के जग  तुझ सम नारि॥ ४॥ 
तोहँं जनि -तिमिर द्वीत कए मानह 
खावन .  तोरं तिमिरारि। 
सहज बिरोव दुर , परिदरि धघर्ति 
चलु. उठि _जवए भुरारि॥ ६॥ 
दुती बचन' हीत कए मसान्नल 
चालक - सेल - पंवबान। ' 
हरि-अभिश्तार चललि. बर कान्निनि 


विधापति कबि झान॥ ता - 


१-०“पुनिल पूछिमा । अएलिहुलन भाई । ह २--देह- 
जोति-शिर ही क्ाति। धसि-किरस--घन्द्रसा फी किरण (में )+ 
संमाइति-घुत मायपी, खिल जायगी। के--क्ौत | विभिनाबए पार-- 
विधितन्न फर सकता है, अलग कार सकता है। ४६--नतनि--नहीं। 
तिसिर--अ्न्धक्षार | हीत-मिन्र । आ्राषम-सुख | तिसराश्ि-प्रस्धशार 
का छात्र, चध्च | ६“-मंतए ८ जहाँ | ७--चालक -- प्ररक 
“पंद्रश्षात--झाम । हरि-प्रभिद्ार--हुष्छ से गुप्त सिलत करने को । 

श्प्छ | हु 


इमिसाए 
/. ३ कु ३. 


११४ 


अरुन किरन किल अम्बर देल। 
दीप क घिखा मलिनि भए गेल शा 
कं तज माधव जएबा देह।.. 
राखर चांहि्म शुपुत सनेह॥४॥ 
दुरजन जाएत परिजन कात। 
' सगर चत्ुरर्पन होएत मलान॥९॥ 
भमर कुसुम रपि न रह अगोरि। 
केशो नहि वेकत करए निश्च चोरि ॥८॥ 
'अआअपनयें धन हे घनिक धर गोए। _ 
परक रतन परग्ट कर कोय॥१०! 
फाब चोरि जो चेतन चोर | | 
जाग जाए पुर परिक्षन मोर ॥१२।॥ 
भनह्‌ विद्यर्पात सर्खि कष्ट सार। 
परे जीवन जे पर उपकार ॥१४॥ 





. ३-पग्रस्त-क्षिरहल्टयुबे को किरण । प्रस्धर-प्रादोश् | २०-सिदा८-. 
लो,टेम ॥ ३--तज छोड़ो | जएवा! देश्-न्ताने वो | ४--शुपुत्तर- 


के ््प्त छिया हुआ | ६-**संगर--प्त | भज्ान-्भथास, सालन ॥ ७४-++- 


भमसरझभोरा । रभिन्टर्भणा कर 


क्िहार क्षैर। श्रपोरि-छगोरकतर 


-' रहना | प--वेशतन्ख्यप्त, प्रेश्ूटझ] ६--१०--धती लोग शपते घन 
. को भो सितराकर रखते है। फिर हुधरे के घव को छहीं कोई प्र८ट करता 


सासस्-झभत्य | हे 


है ? ३२१७००फाइम-फबवा;- शोभता- ॥ चेतन -- खतुर | १३०- , 


४ 


१६५ 


विद्यापति 
“765: “$-७27 


(१२५) 
दुहु रुप क्ावनि सनमथ मोदभि 
निरखि नश्नन ऊुक्षि जाय। 
रजनि-जनित रति बिशेष अल्ापन 
अलप्त रहल दुहु गाय २॥॥ 
चाँचर कुम्तलत ताहे. छुसुम-इल 
लोलत आनहिं आँति+ 
दुहु दुष्ठ देरि मुख हृदय बाहुए सुख 
बोज्नत भूलत पीत॥छ। 
निज निज सन्दिर लागरि नागर 
चलइत करू अल्ुबन्ध | 
बिरह-विषानल दुह्लठु तनु जारक् 
ज्ोचच. लागल, धन्द ।॥॥ 
, भीतक चीत पुतुल्ति सन ठु्ठ जन 
. रदल बविदायक वेला। 
प्रेमन्‍पयो निचि उछुलि उछलि पढ़े 
चेतन  अचेतन  भेला ॥4॥ 
डुहु जन चोतनरीत हेरि सहचरि 
छलन छन गगनदि चाय | 
रजनि पोहाओल सब जन जागज 
से डर अधिक डराय॥ १०॥. 
सेखए बुक्ि तब करि कत अनुभव्र 
दुहू संग भंग कराब। 
नित्र तिज मन्दिर गमन करल दुहु 
गुरुनन भेद न पाब ॥ १२ ॥- - 
१६६ 


खलना 


छलना , 
47% ८७४७० 


( ११६ ) 


मन्दिर अछलों सहचरि सेलि। 
पर छंये रजनि अधिक भई गोलि॥ २॥। ' 
जब सि चलक्षहु अप्पन गेह । 
तब मझु नींद भरत्न सब देह ॥ ४॥ 
सुति रहल हसम करि एक चीत। 
देब-बिपाक भेल त्रिपरीत॥ १॥ 
न बोज़् सजति सुन सपन-पम्माद । 
हँखइत केड्ू जनि कर परिवाद ॥ ८ ॥ 


बिपाद पड़ल सक्कु छृदयक माँक। 
तुरित धोंचायल्ञों नीबिक काज ॥१०॥ 
एक पुरुष पुत्र आओल आगे। 
कोप प्यरुन आँखि अघरक दागे ॥१२॥ 
से भूय चिकुर चीर शानहि गेल | 
कृपा दाजर मुख सिंदुर भेल ॥ १४ ॥ 
- भ्रतर कहव केद अपजस गाव । 
बिद्यापति कह के पतिआब | १६ ॥| 
. ३-अछलों ८ से थी । झहंघरि छखी । आप ज् प जय खक | ज्यो। अ-पर्तगेन न्‍्ट 
बातचीत में | रजनिन्दात ! ५--सुति रहल-पो रही। 'चीत 
एक करि>जित्त एकाज कारके। ६-- बिपाक ८ फल । ७--सगव ८८ 
“स्वप्न | ६--परिधाद ८ प्रजाद, दिक्षायत । १ ०«>घाँचापलों 5८ 
“ शिथिप्त कर दिया। नीबिकक काज - तीदी का बंधन | १२--अरसे -- 
"लाल | पध्रधरक्त वागे ८ झोष्ठ. पर थिंह्ने बचा दिणा ! 
| १६६ 


श्ष्ः 


विद्यापति 
४७,८5२, *; 
( १०७ ) 
कुसुम तोरए गेल जाहों। 
भमर अधघर खंडल तादहाँ। २॥ 
तें, चज्िए्लह ज॑मुना तीर! 
पदन हरक्ष हृदय चीर॥ ४॥ 
ए सर्खि सरुप कहल तोहि। 
आलमु किछु जनि वोलसि मोहि ॥ ६॥ 
हार सन्नोहर जेकूत सेक्ष। 
उम्र उरग सपञ जेल ॥ ८ ॥ 
तें धष्ति मजूर जोइल माँप। 
नखर गांडूल हृदय काँतव ॥ १० | 
* भ्रन विद्यापति उचित भाग | 
“ बचत पाटव कपट ल्ाग ॥१२॥ 





किज-+ 





१३--ले सयन्‍-उप्त डर से। ,विकुर-केश । घोर-ताड़ी। शन्लातहि 
गेल"दूसरे ही ठग का हो गया। र४--क्पाल--मस्तक | ३१३५-- 
अंतर-हुदय फी घात | ६६--१टिश्राब--विश्थास क्वरेंगा की 
१--करुसुब >- फूल | मेलहें-- में गई | ३--म्रसभर ८ भोर 
अबर-प्रोष्ठ | ३->तेलपर्हाँ उसे ॥ ४--हृदय बीर--बक्षःत्यल 
फी साड़ी, अंचल | ४>5प्तरपंस्सत्य .। प्रोनज्अन्य | ७छ-«- 
वेफस प्र ब्यक्त, प्रदरद । उद्चर>- उज्ज्वल | धरगनसर्प, | ६--भाँप 
जोबल- कष्ट पढ़ा | है १०--नखर गाढलणल-नख “ गड़ा गया | 
“ शु२--वाठब->पदुता, चतुरता। ह 


डे 5, 


“१७७ हे 


छल्नना 
<32<%, ८". 
' (१श८ ) 


सखि हे तोहे हमर बहु सेवा । 
पेसति बानि कबहु जनि बोलबि 
जाति कुल किए मोर खेवा ॥ २॥ 
गोछुल नलगर कान्‍्हु रकिलम्पट 
जीबन सहज दमारा। , 
सु. सस्ि रभ्नति सोहें जनि बोलबि 
लोक करब पतित्ारा ॥४॥ 
क्रेहर कुसुम देरि हम कोहुऋ 
सत्र जुग मेटल ताहि। 
दाड़िम भरम पयोचर. ऊपर 
पड़लहु कीर लोभाहि ॥ ६॥ 
- चुकेव उसपर आुज इति उति पेखल 
तें बेस भए गेल आन। 
इथे परिबाद क्हलि मोदे बेरिति 
हह कबि घेखर भान॥८॥ 





अत... ं __+ 5 ऊछा-+_/ः ७ ७57:090&क्षक>ा मा पा 4८5 
.  १--है सब, से तुम्हारी बहुत सेबा करूँगी।  २--बातिज: 
चोली | - जाति कुल “' ऋणेरा जाति*कुल , क्यों लोगी, दपों'-चष्ट 
मी च् हु ॥ 
करोगी]। ४--रभसिन दिल्थगी में | पतिध्लारा--विश्वास | १०- 

: केशर के फून देखकर, कौतुकब॒श, उसे दोनो हाथों से मसल दिया. जिंस 
कारण मेरे अंगों. में श्रंगराग लगे दीख पड़ते है || ६--अव(र समभकर 
सुझे सेरे फुओों पर लुभा घये। [ उनकी चोंचों के आ्राधात से कुच 
- क्षतविक्षत ही गये, जिसे तुम चल रेखा प्रमक-रही दो _].।  ७--उभप-- 


७१ 


विद्यापति 
"२७५ “६७७? 
( १०९५ ) 


खरि नरिव्रेग भाषलि नाई। 
घरए ते पारथि बाल कहहाई ॥२॥; 
ते घस. जमुना शेलहेँ पारा 
फूट बल्लआ टहूटल हार॥ ४॥४ 
ए #खि ण सखि न मोल मंद ! 
विरह बचन बढ़ाए दंद॥६॥ 
कुडल खसल जमुन सॉम | 
ताहि., ज दृतत पड़ज्लि रॉकी।।८॥। 
आअनत्तक॑ चतन्नक त तब हि गंल | 
संध खुधाकर बदन भेज ॥ एश्वा 
तटिसि ल्‍ट न. पाइअ  दाट 
ते कुच गड़ल कठिन दाँद॥ १५॥ 
भनई विद्यापति अपसाद । 
लचन-कश्मोसज्ञ जिदिआ बाद | १४।॥ 
दोनों | भुल- हाथ | त्ते८ इससे ४ बेष ८ रूए--श्रान--दुतरा । 
१०खरिज>तीतन । वरिस्‍तदी । भघासलिश्भ्॒त गई] बह 
चलि । नाइल्‍याव, नौका। ३--धन्ति > तैरकर । ४--बलआ-- 
चूरी ॥ ४मकनबबुरी बात ॥ ६--विरह॑"विरिस, , कठोर ४६ 
दइज्काडा । ७--बफ़्ल-गिर पड़ा | प>-जोहइत>कोजने में। 
६--श्रलके-य्ग्राकता, भमहाइर । विलऋणूटीका १०-सुघंू- 
शुद्ध, हिष्कलंक | सुधाफर >छत्रपा है _-तहनिशयवदि । धाः- 
इेछू ॥ ११--एडुल:-पड़ गेया |। १३०-पघ्पसाद--:राजय, | 
शूण३ -. हि 5 





मर मा छुलनीा 
| १३०' ) | 


०. 


. मनी सरुप निहूपद दोसे। 
बिमसु जबिवार बेसियार बुकओब्रद 
पासू करतन्हि रोसे ॥ ४॥ 
कौतुक कमन्त नाल - सय॑ तोरल 
करण चाहल . अक्तंसे। 
रोष कोष सर्य मधुकर आओश्न 
तदि _अधर करु दंसे ॥ ४॥| 
सरबर-घाटठ ' बाद कृटक-तरू 
देखहि. न पारल शझागू। 
साँकरि बाद उबरि कह चन्नलहु 
,“ '- तें कुच: कंटक लागू ॥ ६॥ 
- (४---ब वन क ग्रोतल ८ वचन-चातुरी | बाद-पुकदमा । | 
. १-सरूर ८८ स्थरूर, प्राकृति | निरूपह -- निरूपणा छरती 
हो मेरी  ननवद, तुम शझ्राकृति देखकर मक्े दोष लगाती हो | 
ए--बें निचार » ब्यसिचार, पाप कर्म । बुझभशोवह ८: समक्काश्नोगो । 
' रोसे-फोध [| ३०-नाल श््यें 5: मृणाल से। श्रबतंते ८ सिर का 
' आभषए | ४--रोष-शोवित होकर | कोप--हम्तल का भीतरी भाग | ' 
मधुकर -- भौंरा । -तेहि-उसीने । दंसे करू--काट लिया ( जिससे 
. ओष्छ भलिन हो गये ) ४-सरवर - तालाब | बाट- राहु । कंहक 
सरूझ-काँटों के पेड़ । देखहि न पारल-देख- न सकी। श्राश८- 
आगे । ६७बसाँकरि-पध्रंकीएूँ पतली | तं5इसमें | कुच ८स्तन । 


श्७्३ 


7 


बिद्यापत 
<क/%8, (७५ पु 
एरुअ कुम्म सिर थिर नहिं थाकए 
ते उघसल . केस-पास । 
सखि जन सयय॑ हम पाले पड़लिहु 
तें भेज्ञ दीघ निघ्तास ॥ ८ |) 
पथ अपबद पिखुन परचास्ल 
तथिहु उत्तर हम देक्षा 
अम्रख -चाहि घेरज नहिं रहले 
त॑ गदगर खर सेला ॥१०॥ 
भनह जिद्यापति सुन बर जौबति 
. ई सभ राखल गोई। 
सनदी सर्य. रस रीति . बढ़ावह 
गुपुत चेझत लदि हाई शेर . 








७-- गरुअ-- भारी [; कुम्भ -धेड़ा। सिर शिर”- नहि. थाक्ए-: ८ 
. सिर स्थिर नहीं रहता. उधघहल -- शिथधिल हो गयों | _८-- सर्यें- 
से | पोछे पडिलिहुपौछे एड गई | दीघ भेल ८ तीज हुआ | सिप्तास-- 
. ऊँची साँस, उच्छुकास । में सस्ियों के पोछ पड़ गई, अ्रतः - दोड़-- 
कर उन्हे पाने की चेष्टा करने के कारए-साँस जलदी-जलदी आरा रही है ६- 
६--पथ्च ८: रु ।. श्रपवाद -+ श्विकायत .। पिसुत रे दुष्ट ६ 
परचारल -- प्रचारित. किया, , फैलया | - तथिह ८८ बहाँ-[- ' 
उत्तर - देला, “£ उत्तर दिया।. १०-अ्रमरख चाहि ऊ अझसर्थे 
बढ़ा, ऋध- के आवेंत ,से |, गवशगद-संर-- भर्राई श्रावज | ११--६ 


सप्न-ज यह सब। गोई ८ छिपाकर ।, गृपुत बेंकत नहिं होई- भी - 
प्रकट है, वह छिप नहीं सझता 


. ज्ञादि लागिं गेल दे -ताहि कहाँ ल्लइलि दे 
ता पति बैरि पितु कार्दा। 
- अछुक्षि हे' दुख सुख कहह अहस मुख 
...._ भूंषत गमश्रोलद 'जादाँ ॥ २॥ 
सुर्दरि, कि 'कए. चुकाओंब कंते 
. “जन्दिका जनम होइत तोदे गेकिहु 
अइलि है. तन्दिका अंते|डे।  ., 
जाहि. ल्ञागि गैलहु, से चलिआएल 
तें मोयं धाएल लुकाई। 


से 
-  १- जाहिं लोगि-जिसके लिये ( जल के छिये.) १ गेंलि -- गई ॥- 
“हाहि & उसे: | कहाँ लाइलि5- कहाँ लाई ( नहीं छाई.) ) ता: पति; 
बरि 'पितु कहाँ >- ४प्तके ( जल के ) पति ८ समुद्र, समृद्र का' बेरी-: - 
झगस्तय, प्रगस्त्थ का पिता र+ धर्ट, घंड़ा; घड़ा--धड़ा--हहाँ. हैँ १" 
२--प्रछलि--पी' |. भूषए--अगाग झावि |: गप्लोलह +ू थी दिया।:' 
_ जहाँ “अंगराग आ्रादि ।' ( रति क्रीडए की मस्ती में )) नष्ट हो. गये, 
वहाँ के सुख-दुःख अपने हो घुख है कहो -। रे-नकि आए-क्पों ' 
« कहकर. बुकाप्रोष्न्सभक्ाशोगी । ४७--- छरिहिका 'जबम होइतप्या 
“जिसका. ( विन का ) जभ्म होते हो-प्रातःकाल ही '। .भ्रदणि: - 
है तान्िका झन्तेनउसके.€ दिन के ) श्रस्त में--छंध्या को 
पाई । : ७... जिसके लिये ( जल के छिये ) से गई वह 
-_( जल-बृष्टि, बर्बा | चलां-आई-वर्षों होने. जगी, जिएसे मुझे 
दोइशकर दिपना-पड़ा । है 
श्ज्शः 


चिद्यापति 
६६75७, ८2०२५ 


से चल्लि गेज्ञ ताहि क्षण चलक्षिह्ु 
तें पथ सेल अनेआई ॥ ६ ॥ 

संकर-बाहइन 'खेढ़ि खेल्लाइत 
मेद्वि-बाहन आगे। 

जे प्रब अछलि सँग से सबने चकतलि भंग 
उबरि अणएलाहुँ श्रति भागे ॥ ८ ॥ . 

जादहि दुइ खोज करइ छुथि सासुन्दि 
से मिलु अपना संगे। 

भनईइ बिद्यापति सुन बर जोबति 
गपुत॒ लेदर रति-रंगे॥| १०॥ 





६-- से-घहू ( जल तृष्टि ) चलो गई तब उसे ( जल ) लेशर - 
चलो | तेंद्स क्वारण | पथ--राहु । भर्तेश्नाई--प्रस्याय | ७-संकर- 
-बाहुन-बैख + देड़ि खेलाइति-खेल फर .रहा था, शझापस से लडू 
रहा था।' सेदिनि बाहुन-सर्पे । झागे-अभांगे था] ४-अश्रछलिः्- 
ओ | भाँग-- छिटकक्षर | उवेरि भ्ए०हुँ-- उबर पन्राई, बच आई। 
झागे ८ भाग्य -से ही | ६--जिन दोनों ( बल और घड़ा ) को खोल 
चासुजी कर रही हैं, थे दोनों प्पने साथियों से मिल गये-( वर्षा हो . 
रही थी हि पड़ा फूट गया-घढ़े छवा पानी वर्षा के पानो में मिल गया । 
जोर मिट्टी क्षा घड़ा मिट्टी में सिल गया ) | १०--जोबतिन्युवती । . 
शुपुत्त नेह- गृण्त प्रेस | रति-रंगे+रति फक्रीड़ा | 


करयाकन". वाकाका३. मात हे 


नह 


'फराछश्य ए886४0म7 2च० एॉ008079#9 घा€९४$ [४४9 87926 हे 


दवाएं), जल पए७ ६ 87९४६ 90608 “570 एप्राए ४. 
- १७६ ह 


्ा 


मान 


सात्त 


न्क ८ अर... 


( १३२ ) 


, खनहि खन मरूघ भमइ किछ अरुन नयन कई 
ढ कपट धरि मान सम्मान लेदी। 
कक जयेँ भेंम कि. पुत्रु॒ पत्नटि बोक ह्धिः 
आधपधि खयय अधर मधु-पान देहि | ॥| 
ऋषेरेइ'टुमुखि अढ़न कर पिञ्न हृदय खेर हर 
कुप्ु सर रग सस्ार सारा ॥३॥ 
बंचत बस होंस जल. सखरि मिन्‍्त होइत तनु. 
सहज बरु छ/ड्ि देव सयन सीमा । 
प्रथमे रेस भंग मेल. क्षोसे मुल सोभ गेल 
बाँधि सुज-पाख पिय घरव गीमा ॥।५)॥ 
ऊदि नयन-कमल-बर मुझकुल कल, कानित धर 
हु खर नखरं-बात कई सेहदे बेला। 
परम पद लाभ सम. सोद चिर हृदय रहा 
नागरि सुरत सुख अमिञ्र मेला ॥ %। 
_ सरसकाति सुर्स भल चारू तर चहुरप्स 
मनारि अराहिआह पंचबान। 
- खबकले जन सुबन गति राम लखिसाक पति 
-... रूप नारायन सिबर्णिंघ जाना ॥ ५॥ . 





[: मास-शिक्षा )९५ _महँधि-महेगा ॥ रै--मदन््टालमदू |! 

कुसुसे-धर-:शासदेव । ४-८ “ग्रीमा--्प्रीवा,, भ्दन । ६--यदि ययन 

। रूरो कमल कसी छा रूप णारण करे-माँखें खिपने लगें-तो उस पम्प. 
सप्र का दिच्ट प्रहर फरता। , > 


फ् 


१७६ 


चच्चाएदि 


“अऋऋदवी५ हक... 
( १६३ ) 
लेचन अरन बुकल्न बडे भेद। 
श्‌ उजा[पर गरुश निधेद ॥२॥ 


तत्त ६ जाहू हरि न करह लाथ।! 
रयति गमशओओोलद्द जन्हिके साथ ॥ ४॥ 
कुच ऊुंंकुम माह्ल द्विय तोग। 
ऊूनि आअतठराग रॉगिकर गोर ॥६॥ 
आानक भूषद तोर बलजू । 
चए खो भद मनन्‍द थो परसद्छ ॥्)| 
विटिओुद प्युपड्स्ि राइक पोरि। 
लओले ताथ चकत भेज चोरि।॥। १०) 
भनदू चियापति घजयडु थाद। 


सांन - 


३४8... 


शक ( १४६४ ) हर 
कुंकुम लओलइ नस्य-ःत गोइ। 
आंघरक काजर अएछद धोइ ।:२॥ 
तइओ न छपल कपट-बुधि तोरि। 
 लाचर्न अधन बेइत भल चोरि। ४॥। 
बत्ञ' चल कान्ह भोलह जतु आन | 
परहख चाहि अधिक अनुमान ॥| ६॥ 
छानओ- प्रकृति बुझओं गुनसीला | 
जस तोर सतोर्थ मनसिद्ञ-्लीला | ८5 | 
बचन सुकाबइ बेझतओ काज।- 
तोय हँसि हेरह में.य बढ़ लाज ॥ १० 
झपथहु , सपथ बुमाबद राध । 
कोन परि खेअस संठ अपराधे ॥ १९॥ 
|. 7 - अनह बिद्यापत पिआ सपराध । 
- उद्धघट न कर मनोरथ साध ॥7४)।। 





3 ___म् ंलिजनूडपयडयपएप।थगणणड-ए- 
। - १--तायिका ने जो प्रपने नखों से बकोट्कर तुम्हारे वन 
५ इथल पर चिह्लें बता दिया था, उसे कुडत जवाहर छिपा लाये हो।॥ 
| ४---श्रंध ₹कनओष्ठ छा । अएलसह जैशभ्राये हो। --छुपल--छिपसका ] 

: “इ--पश्र्व -- लाल । वेकत > व्टत्त, ध्रद्धाट/ $ ४“-आन - पश्रस्य ॥ 
, ६--प्रसख -भ्नत्यक्ष - छ--प्रकृति ८++स्शमेत । द-+जेंस ८ जैसा ॥ 
/ अवसिज ८ फामदेव ।, ६“ डेकावह-- छिफाते हो । १०--तुख हँसकर 
« (सेरी ग्ोर ) देखते हो, किन्ठु मुझे लज्जा ब्ाती हैं। ६३--प्रपथहु ८८ 
बरी राह जाने पर भी । ९ २--फोन परि८ किस प्रकार | खेप्नोम८क्षमा 

कुठेंगी | (४--उदघट ८ प्रकाश । सशध इच्छा । - 


५७ न 


१८१ 


नैबिद्यापति 
«597५४ “&-2> 


(१४४ ) 


झाघ आधघ, मुदित सेल उटुह लेखन 
बचन बोलत 'आध आधे | “ 
रतिल्‍्ग्राल्सख -सामर. तनु - कामर 
हेरि पुरल सोर साधे॥शा 
माधब, चल 'चल चल्ततनि ठाम | 
 जपु 'पदन्‍जावक - हृद्यक- - भूषन 
अवहु जपत तसु॒ नाम ॥४॥ 
कत चंदन ऊकंत मसगमद कछेुंकुम ' 
तुआ कपोत्ञष /रहू लागि | 
'देखि सौति - अनुरूप , कएल- बिह़ि 
अतर मानिए बहु भागि ॥8!॥ ... 


रन 


!्‌ 





१--मुदित ८ भुँदे. हैए । २--वति आलस--कास फरोड़ा- 
जनित थकावद । घाम्र "दवामला । फकामरण्मलिन । हैसिस्- 
व्चेखफर । सा्धेमहौसला | ३--घल ८जाप्रो । तनहि ठाप्त--उसी , 
मगह । ४--जसु-जितके | पद जावफृण्पेर फा महुजर । -विसके 
पर का मन्ावर तुम्हारे हृदय शआ्राभूणणा हुत्ला है, - उप्ीका' नाम - 
तुम श्रद भी जय रहे हो [ श्रकत्मात्‌ कृष्ण के सूंह से: उस सायिका 
का ान्त निक्षत गया था || ५--झृत ८ कितना | सगमद--हस्तुरी | 
कुकुस - फंशर ] फपोशल्‍ूगाल | ६--अश्रमरूप - संसान | 
पे-मे ता इसीमे अपना सोभाग्य सातती हुँ कि ब्रह्मा ने मरे- 
एक योग्य सौत दी है । हु 


श्षर्‌ 


मान 


€. १३६ ») 


सुन सुन सुन्दरि कर अवधान। , -' 
प्रिनु अपराध कहंसि काहे आन सो. 
पुजेलों पसुपति जामिनि जागि- 
गमन बिलम्ब भेत्ञ ठेदि लागि ॥0॥ 
लागल , मगमद कुंकुम दाग॥ . ४: 
उचरइत मंत्र अधर नहि राग दा 
रजननि उन्नागर लोचन घोर।' -” 
(हि ल्ञागि तोहे मोहे बोलसि' चोर॥प्या 
नवक बपेखर- कि कह . तोय। - 


. सपथ करह तब परतीत द्वोय ॥१०॥ 


। 


बज 





१-->अवधान--पनोयोग, ध्यान देता। कहसि काहे झ्रात ८ द सरी 
बत दयों फ़ह रही हो । पहुपतिम्महादेव *| 'जाभमिन्ि--रात्त । [ 
४०>शगसमेंलप्राने पे, चलने से । तेहि लागिरउती छिपे | ५-०८-६-०-- 
उच्रइतकाउच्चारत फरने | राग-लालमि! | कस्तुरी भौर ,कंशर से 
श्षिव की पुत्रा फी शरीर पर उन्हीरे विद्ध है | बारबार सत्र 
उच्चारण करने कर कारए ओष्ठ की ललाइ नष्ट 'हो गई ॥ ७-रजनि- 
रात॥ - उजामरूतागरण , पोरं-भयानक्ष (लाल) ८--हसो 
हिये तुम मच्ते कोश १ हुती हो ।. ६---१०- -विद्यापत्ति फहते हे--तुप 
"क्या कहोगे, जब शपथ करो, ती तुम्हारी बातों पर विश्वाच हो ) 

[ अगले पद में श्रीकृष्ण को विचित्र शपथ पढ़िये ओर गौर कीचिये ] 





इद्यापति 
राक०५ ८६७५ 


६ १२७ ). 

ए धनि मसानसि करह संजात। 
तुआ छुच देम-घट हार अुंजेंगिनि 

, ' , ताक उपर घर हात ॥२॥ 

-तोहे छेढड़ि जदि हम परसब कोय । 

तुश्न.हार-ल|गिनि काटब, मोय ॥8॥* 

हमर बचन यदि नहिं परदीत) . | - 
बुफि करह साति जे होय॑ उचीत ॥ ६ ॥ 

. झुजनपास बाँजि -जघन-तर तारि। 

परयोधर-पोथर हिय दद् भारि ॥|5८॥ 
उर-कारा बॉँधि:राख- दिन-राति | 
बियं'पत्ति कह उचित इंह 'साति। १०॥ ., 


२--घतिल्‍बाला ।-करह रुजातल्‍्सेयत करो, कोप ' छोड़ो। 


५. - ए--हेम-घठ-सोने 'का--घड़ा । चघुज॑गिनि-ः सपिणी ॥ -ताकऊ-उसके । 


वे यदि विश्वास ,न हो तो शपथ करा लो | सोना छूकर -शपथ खाना 
: आक्राणि साता, जाता, है, सो | तेरे कुच रुपी सोने के घड़- तथा हार 
 ऊझपयी. संपिणी के उपर हाथ रखफ्र से शपथ खाता हैँ । ३०- 
: औइिस्छोड़कर -.।  प्रस्म #स्पर्श करेगा |. कोय कडदिसी को ॥ 
आ--छाति र्ूशास्ति, . दण्ड | “७-“भुज-पास-भुजा-' रूपी जजीर। 
' जघनब"  तर--ज्ाँधों. के ब्ीच में । -तारि-ताड़ना - करके, खूब ठो झ- 
” प्रीढ्ध: के | प+-स्तचरूपो भारी पत्थेर हुंदय पर रश्ष दो । &--उर- 
. काराम-हुदय रूपी ज्ेलखाने मे | राख-राखी। १०७ इन्‍्यह ) 
-कात्ि-शञात्ति, इंड। पु 


हल ठ कप हे क्‍ के 


जप 


रा 


क्र 
ए 


माने 
<#-5%., ८७७. 


. (१४१८ ) । 


रॉ 
अरुन पुरब दिसा वितलि सगर निमश्वा 
गगन सगन भेल्ला चंदा । 
मुदि. गेलि कुमुदिन तइयो तोहर धरन्नि 
, मूदक्ष मुख अरबिंदा ॥२॥ 
चाँद. बदन कुब॒लय दुहु लोचन 
अधर मधुरि बिरमान। ु 
सगर सरीर  छुछुम तोंए सिरिजल 
| किए दहु हृदय पान ॥४॥ 
अस कति करह ककन नहिं पहिरहद 
हार हृदय सेल्न भार। 
गिरि सम गरुअ सान नहि मुंचक्षि 
अपरुब तुआ बेवहार ॥६॥ 
अबगुन परिह्रि हेरह हरखिः धननि 
« मानक अबधि बिल्लन। 
राज सिबसिघ रूप नरायण 
' क्बि विद्यापति भाद ॥४॥ 


ह 


ब->ज-+.+त4+्त++++++5_ 





मर मम न मकलिनल मम मलिक जी मकर मिपज ली टन मल की अल 
१-अरुन--लाल |] बितलिज्बीत गई । समरि८समग्र, 
समूची । सगन>मग्ल, डूब जाना.। शे--श्ररबिदा--कसल | रेना 
बदन-मुख । कुबलय--कमल । सघरि"एक लाल फूल| े-ए 
कुसुम-फू्ल ३ घिरिजल+बनाया | किए वहुल्‍ूपयों दिया । 
पखान- पत्थर । ५--भ्रस-- ऐडा | कतिऋष्यों | छृकन-न्‍-केंगन । 
६--गरुअ-भारो | मुंचसि-छोडती हो । ७--विहाव - प्रातृश्यल | 
श्ट५ 
श्शू - 


विद्यार्पाति 


७ (७9... 5 
( १३९ ) 


मदन-कुत, पर वब्सल नागर 
बन्दा सखि मुख चाहि। 
जोड़ि जुगुल कर बितति करए करत 
तुरित मिलाबद राहि ॥१२॥ 
हम पर रोखि भिमुख भ६ सुन्दरिं 
जबहु' चलजि निज गेहा। 
मदन हुताक्षन मझु मन जारल 
जीबव न बाँधघइ थेह्ठा ॥४॥ 
तुअ अति” चतुर मिरोमति नागर 
तोहे कि सिखाह्योब बानि। 
तुद्ठ बितु हमर मरम कोन जानत' 
कइसे मिखाएब आनि॥ ६ !| 
चन्दन चाँद पवन भेज्ञ रिपु सम 
टृत्दाबनल . बन भेल । 
मकोकिल मयूर ऊंक्ार देत कत 
सझ्कु मन मनसथ सेल ॥ ८॥ 
हल छुत्न नयन बप्॒रन भारि रोशअत 
चरन पकड़ि गहि जाब।॥ 
हा हा ण्रे धनि हमए न हेरव 
सिंह भूपति रस गाब ॥| १० ॥ 





--उ।हि देखता । २-+राहि-राधा | ४--मदन-हुता- 
सन-फासदेद रूपों प्रर्ति । जोब न बाँध थेहाजजीव स्थैये 
१5६ 


मान 


( १४० ) 


माधव, इ नहिं उचित चिचार। 
जनिक एहन धनि कामन्कनत्ना सविे 
स॑ किय करु व्यस्िचार ॥१२॥। 


प्रानहु॒ ताहि. अधिक कए मामब 
हृद्यक हार समान ) 
कोन परजुगति आन के ताकब 
की थिक्र तोहर गेआन ॥४8॥ 
कृपन पुरुष फे केओ नहिं निक कटद्द 
जग भरि कर उपहास। £ 
निज धन अछुटत नदिें उपभोगब 
केवल परहिक आख ॥5$॥ 
भनह बिद्यापति सुनु मधुरापति 
इ. थिक अनुचित कान |! 
मगगि ल्ययब बित से जदि हो नित 
ध्यपल करब कोन काज ॥ ८॥।. 


पाक ला८2८:४न% रा लपतापपम कम ५३४उ्कररधपक 6. 





तहीं बाँचते, प्राए स्थिर नहीं होते प५--मवसय ८ कामदेव । 


२-- जनिकर-जिसको । एहन ८ एँप्तो । सति--प्तमान । ४-परजुगति 
प्रयुक्त | श्रान के ताकब-दूसरे को देखना | कीजक्या | थिक--है । 
औैणाकेपत +>सुम। तिक--तीक,  श्रच्छा। जउपहास- हेंती, | 
द-भछइत ८ रहते ॥ परहिक- दूसरे को। उ+-यदि साँगा हुआ 
घब निहर रहता-पदि संगनी फो चीज से ही काम चल जाता 
+-तो लोग अपने घन के लिये क्‍यों कष्ट उठाते ? 


श्प७ 


विद्यापति 
शु7७०७ 


६-““>बकुल-मोलिशी, सनसरो । २--नीरज८-कमल | 


यज्ष-सन्दत ) 
श्पय 


( १४१ ) 


बिरह ' व्याक्तत बकुछ  तरुतर 
पेखल. नन्द-कुपार . रे। 
नील नीरज नयन सखर्ये)ं सखि 
ढरइ नीर अपार रे॥२॥ 
पेखि मलयज-पहछु सृगमद्‌ 
तामरस घनसार रे। 
निज पानि-पतलव मूदिं लोचन 
घरति पड़ असॉंभार रे॥४॥ 


बहइ सन्द सुगन्द सीतल 


मद सलयन्समीर रे॥ 
जमि प्रत्म कालक प्रबल पावक 
दहई सून सरीर रे॥ ६।। 
अधिक - बेपथ टूट पड़ खिति 
सस्न  स॒ुकुता-माल रे।' 
अभनिज्न तरत्तन तमसाल्न तसख्यर 
मुंच सुमनस जाल, रे॥ ८॥। 
सान»मति तजि सुदति चत्ु जहि 
राए ग्सिक. छुजान <रे। 
सुंखर ल्ति अति सरक्ष दण्डक 
छचि/बद्यापति मास रे ॥१०!) 


सुगसमदल्‍-कस्त्रोी । ताम्रस ८ कसल । 


३--मल-« 
- घर 


सात 
(६ १७४२ ) 


दरामा, द्वि अब पोलस आत। 
तोहर चरन . सरन से - इरि 
अबहु सेट सान ॥ ९॥ 
योब्धन गिरि बाम कर धरि 
कएल गोखुल  पार। 
बिेहू ले खिन करक कंकत 
गरुआअ मानरए भार | ४ ।। 
दमन _ काक्की कएज जे जन 
चरन जुगल-बरे | 
व्ब सुनंगम भरस  भल्तत् 
हृदय हार न घरे ॥ ६॥ 
सहज- चातक छाड़ए न बरत 
न बइसे नदी तौर। 
नबिन जल्ववर-बारि विनु 
न पिबए ताहरि नीर ॥|-॥। 
सारज कपर | ४ई--यार्ति 5 हाथ । ६-परावक्त -अरिति | सूत ८ शूस्य । 
७-बैपथ -- व्यथित  खिंति-- पृथ्वी । ससूनूचिकता । <-अ्रनिल-तरल 
वायु द्वारा प्लान्दोलित | म्रुंच -+ गिरवा । सुमनस -- फूच | &--सुदति - 
धुन्दरी । १० सुति 5८ छुनमे में । दंढक-ःइस छद का नाप्त दडक हैं । 

-- १-+रामा-पुन्दरी | श्राननप्रन्‍्य। उे-+करक्लहाथ का। 
गयप्र--श्वचिक, कठित ।  ६-“ह्मनस॑लित, नष्ठ ॥ _ वेचल्‍लप्ट। 
भुजंगम-पर्पष | ७_ घरतन्ब्रत ।  बइसे-वैठता । जलघर-वादज | 

श्८६ 


बविद्यापति 
५७४४७ ( १४३ ) 


सखि हे वृूकज  कारदह गोभार। 


पितरक टॉडू फकाज दहु कओन लक 
ऊपर चकमक खार ॥२॥ 
हम तो कएक्ष मन गेलहि होएत भत्ञ 
हम छलि सुपुरकत भाने। 
तोहर बचन सखि कएल भोँखि देश्ति 
अभिश्चन-भगभस विष पाने ॥ ४॥ 
पसुर संग हुन जनम गमाओल 
स्रेकि बुमकथि रतिरंग। 
मधघु-जामिनि मोर झाज विफल गेकज्ञि 
गोप गसारक संग ॥६5॥ 
तोहर बचन कूप धसि जाएब 
तें इमे गेलहू - अबाट। 
चंदन भरम  खिमर आहलिगज्न 
सालि रहल हिय कोट ॥ ८॥। 
भ्नह- विद्यापति हरि बहुब्ब॒ल्क्षम 
कएज बहुत अपमान | 
राज्ञा लिवखिंह रूपनरायन 
लखिमा पति रस जान ॥१०॥ 





_ २-पवितरक-पीतल का। टॉड़-हाथ का एक गहना। ३--- 

गेंलहि--जाने से। छलि-थौ। मधघुजासिन-बसंत की रात । ७---- 

अबाट--कुपथ । <-सिसर-सेमल । ६-४हुबल्ल भ-बहुत स्त्रियों के पति | 
१६० - ह 


4 


मात 
4-८४ 


( १४४ ) 


मधु सम बंचन कुलिस सम मानस 
प्रथर्माद जानि न भेला। 
छंपन चतुरपन पिसुन हाथ देल 
 गरुअ गरब दुर गेक्षा | ९२ ॥ 
सखि हे, मनन्‍्द प्रम परिनामा | 
घड़ कए जीबन एल अपराधिन 
नदहि डपचर एक ठासा॥ ४॥ 
मॉपल कूंप देखदि नहि वारक्ष 
आरति चललहु धाई। 
तखन ढाघूगुरु किछु नहि गलत 
अब १छताबक जाई॥ ६॥ 
एक दिन अछलह आन भान हंस 
अब बूमिल  अबगाहि। 
अपन मूंढ़ अपने दम चाँछल 
दोख देश गए काहि ॥ ८॥ 
भनइ बिद्यापति सुछु बर जौबति 
चित्त *नब तहि आने | 
पेमक. कारन जीठ उपेखिए 
जग जन के नहिं जाने ॥१०।॥ 
३-पिसुद ० दुष्ट | ०-ठपचर--शात्ति । ८ 


१- फकुलिस+-वज्न । 
मम्धा । ७-८ गनभान-वाप्तमं् | 


आश्ति-शीघ्रता में । ३--गृन्ल >> स 
भ्रवशा हि -- भ्रन्त:प्रवेश करके + ८६--चाँछुण-छील पिया | (०-- 


उपलिए--उपेक्षा करो | 
१९१ 


विद्यापति 
“६७७ ८७७, 


ह ( १४४ ) 
माधव, दुज्जय मानिन-मानि ) 
बविपरित चक्ि पेखि चकरित सेल 
न पुछल आधहु बाधि ॥२॥ 
तुआ रूप साम अखर नहिं घूनए 
तुअ रूपरिपु खम्॒ मानि। 
तृुअ जन सय सम्भाख न करई 
, कइसे मिन्ञाएव भानि ॥ ४॥ . 
नील बसन बर, काँचन चुरि कर 
पौतिक माज्ञ उतारि । 
करि-रद चुरि कर मोति माल बर 
पहिरल अरुनिमस सारि॥ ६॥ 
असित चित्र उर प< छत्त, मेटल 
सतल्वय॒ देहे लगा 
सुदमद तिक्षक' धोइ हृगंचल, कच 
सथ मुख छ्ए छपाई || की अमल 2 >320555 2043, 22 अििननिलिििदिस 
२--बिपरित--उलठा । चफरित--चकित्त । ३-- सा स-< 
इपास ( कृष्ण )।  श्रलरत्यश्रक्षर | ४-.-पर्ये--पे |. ,सम्भास-< 
बातचीत | काँचन चरि फर--हाथों फी काँच क चही | पौतिहछ- 
पिरोचा, नोल सशि | ६--. हरि रद-चुड़ी-हायी के दाँह8 की चड़ो | 
अरुनिम-प्लाल | सारि-प्राडी] | _#. प्रसित चित्र काला गोदना । 
छत्त-या | मलफ्ज-<चंदन | ८--फकंगम -कस्त्री ( काली होती हूं ) 
पगचल>-अआंख के कोने । कच-हेश । ६--जील८तिल, तिलका। 
१९२ 


॥ 


सान 
“६४४७७०८६-७० 


एक तीज छल चारु चिबुक पर 
निन्दि मधुपन्छुत सामा। 
तृन-अग्रं करि. सलयज रजत 
ताहि छुपाञ्मोत्न रामा ॥१०॑। * 
जलधर .देखि चब्द्रातप माँपल 
सामरि सखि नि पास। 
तमाल तरू गन चुना लेपल 
प्रिश्वि पिक दूरि निबास ॥१२॥ 
मधुकर डर धेनि चम्पक-तरु तल 
लोचन. जल भरिपूर | 
सामर चिकुर हेरि मुकुर पटकल्न 
टूट भए गेल सत चूर ॥१४॥ 
ठतुआ गुननगाम कहए सुक पंडित 
सुनतहि. उठल्लन रोसाइ। 
पिजर भटकि फटकि पर पटकत 
घाए घएल तहि जाहइ ॥१॥॥ 
सेरू सम मान 'सुमेझ कोप सम 
देखि भेल रेनु , समान! 
बिद्यापति कह रादि मनाबए 
आापु सिधघारह कान ॥१८॥ 
चत॒ुक ८ ठुड्डो | निन्दि  “” 7 ज्जो।भोरे के बच्चे की इयामलता 
को भी 'लज्जित करता था। १०-छर फे नोंक से चंदन लगाक्नर उछ 
सुन्दर ने उसे! मिटा दिया। ११--जलघर » मेघ | चधर्वातप ८ 
१९३ 


विद्यापति 
<2"<क, ८9%, 


( १४६ ) 
ध्ानिनि दस कहिए तुझ शागोी। 
नाह निकट पाइ जे जन बंचए 
तेकर बढ़ुहि अभागी ॥ २॥ 
दिनकर-गन्घधु. मसल सब जान 
जल तेद्दि जीवन होई। 
पड बिहन तनु भानु सुखांवए 
जल पटाब 'बरु कोई॥४॥ 
नाह. समीप सुखद जत बैभसब 
अलुकुल होएत जोई। 
तेकर बिरह सकत्ल सुख सम्पद 
खन रून दृगधए स्रोई॥६॥ 
तुहु धनि गुनमति बुमकि करह रति 
परिजन ऐसन भाख। 
सुनइत राहि हृदय भेज गदगढ- 
« अनुमति कएल प्रगास ॥ ८॥ 
चेंदोवा । १२--शाले तमाल के दृक्ष को चूनें से पोत दिया श्र 
( काले ) मप्र तथा फकोपल को णदेड दिया। १३--चिकुर-केश | 
मुकुर- आईना । १४-सत छर"”सो दुकडे। १४५-गास-सम्‌ह। 
सुक-- सुग्गा। रोसाइ ८ फोधित होकर। फटिक- स्फटिक पत्थर | 
१७--रेयु ८ घूल । 
१-तुश्न लागी-तुम्हारे लिये। र-ताहु--पति। दे-दिनकर-ससुर्य | 
४-वबिहिल--होन । भानु-सुर्य | पटाब-छिड़कना | ६-दरघए--शब्षाता हु । 
१६७ 


सात 
कक १2०#१- 


( १४७ ) 
सानिनि आाब उचित नहिं माह 
एखनुक रंग एह्चन सन छगइछ 
जागल पए पचरवबान ॥२॥ 
जूड़ि रयतनि वकसक कद चाँदनि 
एहल. समय नांह आन | 
एहि अवसर पियर्नमक्षन जेहन सुख 
जकरहि होए से ज्ञान ॥४॥ 
रभसि-रभय्तरि अ ले त्रिज्ञसि बिलाधपि करि 
वरए मधुर मधु पान । 
-अपन-अपन पहु सबहु जेमाओति 
भूखल  तुशझ् जजसान ॥६॥ 
व्रिवाज्ञ॒ तरंग. छिताधित संगम 
डरज सम्भु निरमन । 
आरति पति रूुगइछ  परतिग्रह 
करू धनि सरबध दान ॥5८॥ 
दीपक-दिप सम थिर न ग्हय मन 
द््ढ़ करू. अपन गेंआन | 
सब्वित सदन बेदन अति दारुन 
बिद्यापत कवि भान ॥९०॥ 
२--इस समय का समा (रग) कुछ एसा मालूम होता है, 
मानों कामदेव सेते से जग पड़ा हो। ३-णड़ि रू शीतल | ४-- 
जेहन ७ छोसा | जकरहि-- जिसकों | ६--रभध्व्-उसंग में झ्ाकर। 
१६४ 


विद्यापति 
<6<७ “६४-७४? 


( १४८ ) 
अखिल लोचन वस-ताप-विमोचन 
डउदयति आनन्दकन्दे | 


एक नलिनि-मुख मलिन करए जदि 

इथे लागि निन्‍्द॒ह चन्दे ॥ २ | 
झुदररि, बुकल तुभ प्रतिभाति | 

गुन गन तेजि दोष एक घोषमि 

'अन्त अहीरनि जाति॥ ४॥ 
सकल जीव-जन जीव समीरन 

सन्‍्द॒ सुगन्ध सुमीते । 
दीपक-जोति परम जदि नासए 

इथे ज्ञाफि नीन्द मारते । ६ ॥ 





5 8 न के लिल न वर कप कर 
धलि- मौरा । ६--पहु ८ प्रोतत । जेमाग्रोवि 5: खिवाया | ७-7 
त्रिवली की तरग में गंगा यमुना .( हार श्रौर रोमावलि ) का संगम 
हुआ हैं, जहाँ कुच रूरो शिव छो भी स्थापना है | ८--प्रारति ₹ 
धात्ते, व्याइल । परतिप्रह-- प्रतिग्रह -< दान । ६---वीपक-दिप ८ 
दीपक की शिखा, लौ । १०--मदन--झमदेब 

१--प्रखिल - समूचा ( संसार ) | तम्- अंधकार | तवाप८८ 
गर्मी, ज्यजा । विभोचन-नाश  फरनेवाला ।' उदयति ८ उगता 
हैं । कंद>मल, जड़ । >--तलि>फ्रमलिनी । इथे--इसलिये । 
निनदह ८ निद्य करती हो । ३--प्रतिर्भाति -" बुद्धि । ४---चोपष सिं-< 
चार-बार फहना । ५-- जीव-जन-प्राणो | जीतव्र-्प्राएं | सप्तीरत- 
चायु | ६-परस-पए्पर्ष । नीनद-विन्दा | करनावओ सारुते -5- पक्‍न को ॥ 


१९६ 


है 


"सात 
<२०», कक 


स्थावर जंगम कीट पतंगम 
सुखद जे सकल. सरोरे। 
कागदू पत्र परस जओों नासए 
इथे लागि निन्द्ह नीरे॥5५॥ 
खन-खन सकल कुसुस मंन तोषए 
. निसि रु. कसलितनि सगे। 
चम्पक एक जइओ नहि चुम्बए 
इथे लागि निन्‍दह श्वगे ॥१५॥ 
पाँच पॉच गुन द्स गुन चौगुन 
आठ दटुगुन सखि माझे। 
विद्यापत कान्हु आकुत्न तो बितु 
विषाद न पावसि लाजे॥१श॥ 
25 3 2 कलम 2 ८ 2 32 4 ३ 
७-स्थावस्--ध्रक्ष श्रादि श्रचल जीव। जंगम८सनृष्प श्रादि 
बलमेपाले जीव। कीत >फी्े । पतंगम-फनगे पग्रादि | ८-- 
कागयद पत्र कागज के फरने । सरस- स्पर्श । जश्नो -- यदि । नीर ८८ 
पानी । ९--खन८“-क्षएण | कुसुम ८ फूल। तोषब--पंतुष्ठ कर्ता हे । 
निसिज>- रात | १०--चम्पाक्त -- चस्झ। | जइश्रो- बदि। 
भगन्य्भोरे. छो | १२-- ( ५२८४२८१००८४२८८२८२ ) 
-- १६००० सखियों के सध्य से। १२--छान्‍हुल श्रीकृष्ण | विषाद 
ञवुःख + पाबसिन्-पाती हो । 





८ 
8 वा कविता सा वनिता बथस्यथा: अवएश्ञोष दहॉनेयाएि। 
कल्हिदय॑ विदह्॒दर्य सरल तरल च सत्थर भवति |” 
हि ध्य १ ९७ 


विद्यापति 
“/छ- ७७७० 





१-चानन--चंदन | 


श्ध्प 


( १४६ ) 
चानन भरम ख्रेवत्ञ हम सजनो 
पूरत सब मनकाम । 


वंटक दरस परम सेल सजनों 
सीमर सेल परिनामा।श। 
एक्हि नगर बसु माधत्र सजनी 
पर-भामिनि बस भेल्। 
हम धनि- एहन कतावति सन्ननी 
गुन गोरब दुर गेलवाश। 
अभिनव एक कपम्त्न फुल सजनो 
दोना नीमक _ डार | 
सेहो फुल ओतहदि सु बायज्ञ छथि सजनी 


रससय फुलल  नेत्रारशक्षा . 


विधि बस अ'ःज आएल सजनी 
एत दिन ऋआऋोतहि गमाय। 
कोन परि करब समागम सजनो 
मोर मन नहि पतिआय ॥८“॥ 
भनई  बिद्यारति गाओतल जजनी 
उचित आश्योत गुनखाद। 
उठ बधाव करू सन भरि सजनी 
आज आओत घर नाह ॥१०॥ 


मरम-भश्रम से । सेवलि>सेबा को २ 
२--कंटक - काटा. | सीमर८>सेमल |. ३-र-भामिनि -< 


पड 


सान 
4६८९० ६७७. 


( १४० ) 
सजती अपर न मोद्ि परबोध । 
तोड़ि जोड़िश्र जहाँ गाँठ पढ़ण तहाँ 
तेज तम्र परम बिरोध ॥२॥ 
सलिल ब्ननेह सहज थिक सीतल 


डइ जानए सब कोहै। 
छे जदि तपत कश जतने जुड़ाइअ 
तइओओ विरत रस होई ॥४७॥ 
गेल सष्दज हे कि रिति उपजाइश 
कुज--सखसि , नीज्नी रंग । 
अनुभवि पुनु अचुभवए अचेतन 
पड़ए हुताख' पतंग ॥ 8॥ 


पर लि कर 3 7 500 % कक 3 27: 2 लक नल कि 
दूसरे की स्त्री । ४--एहनी -- ऐसी | दुर गेल ॑-थूर हो गया। ५--एक 
नये कमफ के फूल को ( श्र्यात्‌ मुझे ) नीम की डालो पर डाल विया, 
वह वहीं सुख गया, पश्रौर नेवार का फूल रसयकत होकर खिला । ७-०- 
चथि>हे | श्रोतहि ८ वहीं । ८-समागम--भेंट | १०-श्राश्रोत-पध्रावेगा । 

ह - प्रपद-प्रस्थान धनुवित, रूप से । परबोध-समभाश्नो | 
३--सहज सीतल थिक व्स्‍्वमावतः ही ठंढा हैं | ४--तपत 
कए यर्म करके | जतनें-पत्नपुर्वंक्क । जुड़ाइब्च--5ढा कौजिये | 
सदप्रो-तोभी | बिरत रसज--रघहीन । ४“-कुल-रूपी चंद्रमा में 
नीला धब्बा पए जाने पर तथा कितना भो प्रयत्न करने पर क्या उसमें 
स्वाभाविक रंग. उत्पन्न ही सहत। है । ६-प्रनुभवि ० धनुभव 
करके | पुर-झजुतः। अभ्रर्भवए-प्रव्भव फरता है । हुतास- पध्रिन | 


मै १९९ 


विद्यापति 
*&७2 3४7 “६ ७? 


(१४१ ) 
4बहु रसिक सर्य दरखन होए जनु 
द्ररेसखन होए जनु नेह। 
नेह बिछोह जतन्ु काहुक उपचए 
बिछोह घरए जनु देह ॥ २॥ 
सजनी दर करू श्रो परसंग। 
पहिलद्दि उपजइत प्रमक अंकुर 
दारुम विधि देल भंग ॥ ४॥ - 
देवक 'दोष प्रेम जदि उपञ्ञए 
रसिके सय जनु होया।' 
कान्द् पे गुपुत नेह करि अब एक 
सवहु सिखाओल सोय ॥ ६ ॥ 
एहन ओपधघ सखि कि नहि पाइअ 
जनि जीवन जरि जाब। 
असमंजस रस सहए न पारिआअ 
इह कवि रुखर गाब ॥5८॥ ;ल्‍ 
सबय-से । जन-नहीं । २--बविश्योह८ज"जुदाई । कफाहुक्षस- 
छक्िसीको । ३--दुर करु ८ अलग करो, बंद करो:। परसंग ८ 
विषय, बातचीत » ४--दारुव ८ फठोर।| भप देल -- तोड़ डालों, 
कुचल डाजा | ५--देवक ठोष -- विधि विडम्बना से । ६->क्ृण्ण परे 
गुप्त प्रेम करके से यही एक शिक्षा लोगों को देती हु. । ७--ऐसो 
दश् में कहीं भी नहीं पाती, जिसके खाने से यहु जवानी जब जातो । 
८--पअ्रसमंजस-दुविधा ) सहुए दे पारिश्र-- सहा नहों जाता | 


२०० 


सान 
८ 


( १४२ ) 
जनम दोअए जनु; जो पुनि होई 
जुबती भए जनसण जब कोई ॥ २॥ 
दोई जुबति जठु हो रखमंति। 
रसपओ बुझए जकु हो कुलमंति ॥ ४ ॥ 
हु घन माँगओं बिहि एक पए तोहि। 
थिरता दिदृह अघसानहु मोहि॥ £॥ 
मिलि सामी लागर रखधार 
प्रवस जनु होए हमर पिआर ॥ ८ ॥ 


होए परबस कुछ चुभाज बिचारि | 
पाए बिचार हाए कओन नारि। ६० । 
मन विद्यापति अछ परकार। 
“ दद-समुद द्वीअ जीव दर पार ॥१२॥ 
१--जौज्यदि । जनज्महीं । 
३, ४--धदि युदती होकर जन्म मिले तो सुरसिका थ हो, और यदि 
सुरसिका हो ठो ऊंचे: कुल की नहीं हो) ५-४ ८ पं घन्त--[ यहाँ ) 
बरदान | विहिझनतद्धा । पक पए-एक ही। ४० थिष्ता- स्थिरता । 
दिहहलदेना | अ्रवसानहुल्अस्तिस अवृतता में भी। ७--सामी ₹ स्वामी, 
वति। सागर | घतुर । रस्तधार रू रतिक्ष | प--परबघ ८ दूसरे के वरा | 
६---१०--पदि परवश भी हो जाय तो कुछ उमर बुर एदले, वयोदिः 
समझ बुर होने पर ( वह नि३ंचय का सकेगा कि ) फोन स्त्री गले का 
हार हो घक्षती हैं। १ (--श्रषट-है। परक्वारन्ट3पाय | ददन्कलह । 
समुद- समुद्र । प्राण देकर कजहु-छपी. समुद्र से पार हो जाप्नो । 
२०१ 


5... जुबती--तोजबान या पदात्ञा रे कुल्आलदोजात स्त्री | 


श्६दू , 


ह] 


विश्वापति 
<#", 2. 
( १४३ ) 
चरन-नखर  मनि-रंजन  छांद। 
घधरनि लोटायह् गोकुक्षबांद ॥४ ॥' 
ढरकि ढंरकि परु लोचन नोर। 
कतरुप मिनत्रि कएल पहु मोर॥ ४॥ 
लागल कुदिन कएल हम मान । 
अबहु न निकसए कठिन परान ॥ ६ ॥। 
रोस तिमिश अत बेरि किए जान | 
रवनक भए गेल गोरिक भानएंणा। 
नारि जनम हम न कएल भागि। 
मरन सरन सेल मानक लागि ॥१०॥ 
वियापति कह सुठु धनि राह! 
रोअसि काहे कह भलत्न समुमाइ ॥१२॥ 





३, २--मेरे चश्ण के हल रूपी मणि को रजित करने के 
बहाने वह गोकुलचन्द ( श्ञाछृष्एु/ ) प॒थ्वी में लोट गया। ई--नोर 
प्ूांसु) ४--फतरुर- कितने प्रकार से। मिनति- बितय | 
पहु--प्रीतम ।_ ६--निकवए-निदलता है | ७. 5--फोध रूपी 
धन्धकार में मे हृथ समय कया जातने गई। रत्त को सेने गेरू मिट्टी 
समझा | ९--भागि८भा्य | १०--सान के कारएा मुष्छे मत्यु 
को शरण लेनी पड़ो । ११--राइ- राधा | १९--ऐ श्रष्ठि>रोती हें। 
फाहे--क्षिसलिय । भल समुझाइ-प्रच्छो तरह ख्रफाकर | 


रण 


सांत्त 


८०७, ८४७ 


(.शछ ) | 

धनि भलि मालिति सखि गत सॉँक । 

अनुनय करइत उपज्षए लाज॥२॥ 
पिरितक आरति विरति न सहहे। 
इंगित भंगिय दुहु सन्र कहई।॥ ४॥ 

राहि सुचेतनि फान्हु सयान | 

सनहि समाचल मन अभिमान ॥ ६॥ 
अघर मुरलि जो धएल भुरारि। 
फोइ कबरि धरि बॉधि' समारि॥ ८॥ 

जो निज्ञ पुरपथ धघणएल पमुरारि। 


सत्चि लखि अनतए चलु बर नारि ॥१०॥ 
इगरि जब छाया कर धनि पाय। 
। धघनि संभ्रप वइ्साले कर ल्ाय '१२५॥ 
- कह कवि सेखर बुमकय सयान। ' 
इंगित रख पसारल पंचबान ॥१४॥ 





१--धंनि--बाला ॥ ३-आरति-प्रातुरता, शीघ्रता। प्रेम की 
आतुरता उदासीतता नहीं सहती । ४-ईंग्ित 'भगिए-इशारे से । 
प--राहिनराधा , सुचेततवि>सुचतुरा । ६--प्रमाधल ८5: समाधान 
किया । ८-फोइ ८ खुले हुए फ़बरि - केश | घनि--बाला ॥ ससारि ८८ 
सेंमालकर | ६-उर-फ्थस्गाँव का रास्ता । १०--प्रनर्तए -< 
, अन्यत्र ।सखियों की ओर देखकर ( वह घतुर स्त्री ) दूधरी ओर' चलो। , 
११-जव श्रोकृष्ण ( रास्ते में ) राघा को पाकर उसपर छाया को तब 
शघा भझटवद उन हाथ पकड़ बेठ गई। 


रब 


| २ & ई३ 


विद्यापति 
. *$१.22८७७- 
( १४५५ ) 
(( श्रीकृष्ण का सान ) 
राधा-साधव रंतनदिं. मंदिन 
कि निंब्सय सयनक सूख । 
रपघख रस द।रुन दंद उपजल 
' - कान्ह चलल तब रूस २॥ 
नागर-अंचल फर घरि नागरि ! के 
हसि मिनती करु आधा। 
नागर-हृदय पॉचसर हनल्षकरू 
! ' छरज़ दराप्ति सन वबाघा॥ 9७॥ 
देख सखि , क्रूटक मात्र. 
कारन किछुओ बुभूए न.पाइए 
तब काहे रोखल कान ॥ ६॥ 


रोख समापि पुन रहस पसारत्न 
,... सेज्ञ सवथ पंचघान। 
अवखर जानि सनावधि राव 
द रवि विद्यार्णति मात ॥ ८।। 
१--रतनहि - रत्न का बचा | निवच्॒ण-चविबास करते है | सयनकक 
सुख-श्पा पे सुख से --- सिलनानन्द में | २५--रप-रस-धीरे-घीरे । 


$॒ 





दाछन -+ फ्ठोर । दंद -- कलह रूस - रूककर ॥ ६--श्रंचल ८८ 
चादद की खूंट । फर--हाथ | ४- पॉँचसर +- कामदेथ | हवलक -- 
छारा । उरजज-कुध + वरतसिज्देखकर । सव-बाधा-5मन में 


पघाघा उपस्थित हुई, समन चंचल हो उठा $ ६--रोखल-कद् 
हे २०४ कक 


'( १५६ ) 


एत दिन ,छलि नव रीति रे। .. 
जल मीन जेहन पिंरीति , रे१। २॥ 
एकद्दि बचन बीच सेज्ञष रे। 
हँसि पहु उतरो न देल रे ॥४॥ 
एकदि पर्लेंग पर कान रे!' 
मोर लेख दूर देस भान रे ॥ ६॥ , 
जाहि बन केओ नहि डोल़ रे। 
तांहि बन पिया हँसि बोल रे ॥८॥ 
घरब योगिनिया के 'भेस रे। 
करब में पहुक उदेस रे ॥ १० ॥ 
भनइ बिद्यापति भान रे। 
सुपुर्ध न कर निदान रे ॥ १२॥ 


छः 

हुश्ला । ७--पमाधि८- घमाप्त कर। रुहत परसारण-"काम कीड़ा में 
लपा। सधकक्‍-मध्स्य, पंच । ८--प्रन्‍|्न सम जानशर राधा मानदतो 
बन गई । भान ७ कहते हे । 


१-४-एतन्डलने । छलिजथी । नव नवीव | २--प्रीच ८८ 
सछली | जेहन-जैसा।, ३२--डीच भेल-घन्‍तर पड़ गया। ७-- 
पहु--प्रीतत , उतरी5-उत्तर भी । ५--क्कान ८ फन्‍हैया, कृष्ण । ६-- 
भोर लेख-प्रेरे लिये। भान-मालूम होगा है। ७--क्रेग्रो>क्ोई | 
डोल -- श्राता, जाता है| ६- धरब-ब्रूगी । जीगिनीया-योगिद्ि | 
१०--पहुक ८ प्रीतम का। उद्देसझ्तलाश |. ११--निदान--अंत | 


२०५ 


विद्यापति 
७2८2७, 
( १४७ ) 


जतहि प्र रख ततहि दरन्त। 
पुन कर 'पत्नटि पिरित गुनमन्त ॥ १॥ 

सबतहु सुनिये अइन बेवहार। 

पुनु॒ टूटए पुन्तु गांथिए द्वार ॥४॥ 
ए कनन्‍्हु कनन्‍्हु तोहहि सयान | 
बिसरिय कोप करए समधान ॥६॥ 

प्रभक्तक अंकुर तोहे जल देल । 

दिन-दिन बादि महातरु भेल ॥5८॥ 
तुआ गुन न गुनल सठतिन आछ। ः 
रोपि न काटिए बिषहुक गाछ ॥ १०॥ 

जे नेह डपजल प्रानक ओल | 

से न करिञअ दुर दुसरजन बोल ॥१५र२॥ 
जमत विदित भेल तोह हम नेह.। ह 
एक परान कएल दुइ देह ॥श४॥ 

भसइ विद्यापति न कर इदास । 

बड़क बचन करिए चिसबास ॥ शहद 


सीनपतनीत नी न-कन-न++> मन 





१,--२- जहाँ प्रेम-रस' है, बहीं दोराष्म्य कलह भा है| प्रतः 
गुणयान एक बार टूटने पर पुनः प्राति करते है । ३--सबतहु-- सर्वत्र 
ही | ६--धमघान -- समाधान । ७--तोहे- तुमन गुण कुछ न देखा 
पोर सोौतिन फर शाये । १०--बिपहुक गाह-विध का भी वृक्ष | 
११--प्राएक श्रोल"प्राों को धोर, श्रन्तस्तल से | १२--दुर ८ दुए 
मभिन्‍त ॥ १३--तो हु हम-तुम्हारा और मेरा । 


२०६ - 


सान 
द#ऋ ८9 । 


( १श्८ ) 
की हम साॉँमकक एकसरि तारा 
भादव चीौठिक खसी। 
इथि दुहु माक कभोन मोर आनन 
जे पहु हेरिस न हसी । २॥ 
साए साए कददद कहहू कनन्‍्हु कपट करह जनु 
कि मोरा सेल अपराधे ॥ 
न मोर्य कबहु तुआ अनुगति चुकलिहु 
बचन न बोक्षल मंदा । 
सामि समाज प्रम अनुरंजिए 
कुमुदितनि सन्लषिधि चंदा॥५॥ 
भनइ (बद्यार्पात सुनु बर जीबति 
मेदिनि मदन खमाने। 
राजा सिबसिंघ रूपनरायन 
लखिमा देबि रमाने ॥ ७॥ 
.. ३--२--थया मैं संध्याकाल फी भ्रफेली तारा हेँग _( जिसे लो 
देखना नहीं चाहते ) या में भादो शुक्ल चतुर्थी का चन्द्रमा हुँ ( जिसे 
देखने से कलंक लगता हैँ )। मेरा मुख इन दोनों में क्या है, जो 
दे फ्रियतम, उसे तुम हँसकर नहीं देखते । (कसा शअ्र्छा तकं हे! ) 
३६--साए--सलि ॥ कहह८कहो । कन्हु--श्रीकृष्ण । ४--अ्रजु- 
गति-पीछे जाना--भ्ाज्ञा सानना । सासि८>स्वासी, पति । अन्ु- 
रंजिए--अनुरंजन किया, निभाया । सन्निधि-निकट । ५--पेविनि- 
 भदन ७» पृथ्ची में कामदेव-स्वरूप | े 


ब०्छ 


- विद्यापति 


(१४९ ) 
फेरतल कमल नयन ढर॑ नीर। 


न चेतएर समरन कुंतल चीर॥४२॥ ' 
तुअ पृथ द्वेरि-हेरि चित नि थीर। ' 
सुमिरि पुरुष नेद्दा दगंध सरीरतगाशा 
कत परि माधव साध मान 
बिरही जुब्ति माँग दरसन दाल ॥ ६॥ 
जल-मध कमल गगन-मध सुर 
अंतर चान ईमुद कत दूर | ८॥ 
गगन गरज भेघ सिखर मयूर +* 
कत जन जानसि नेह कत दर ॥ »॥ 
भनइ ,विद्यापति किपस्ति माह | 
राधा बचत , लघब्गाएतल, करन ॥१९शा। 

.._ -करतल-इपेकी । कमछण० ( पक ]। पर दा करतल-हयेली | कम्त-- ( ब्रुख ) । सोइ--प्रांस । 
२--चेतय-प्ंझालती है । वमस्व-्त्राभरए, गहने | “ छुस्तल-- 
केश | चीर ८ छत | ३ “शत फ्थज-तेरी- राह | हेडि हेडरि--रेश-देख 
कर | थीरू-स्थिर। ४--पुदक-रहुला । दमघन-जलता ह। ५-- 
कत परि-कव् तक्क। साथत्र सान्‍-घछान किये रहोगे | ७--मध -- 
सत्य । सूर ८ सुर्थ ।> श्रॉहसश्रन्तर, ब्ीव | चान -- चद्रमा 
: अहुद -- कोई | कत--व्कितवा | ई--तरज़ -- ग़्रुजता है) घिल्दर ८ 

पहाड़ की चोही ॥ $०--जन -- ब्रादमी | _-जममसि -- 

११-१२-- यह पिपसेत भान फैथा 2? [ भान स्वत्रियाँ 

नहीं | राघा का-यह बचन सुन श्रीकृष्ण :जज्जित कुए | 
श्बण्णु 


मानते ह। 
करती हैँ, पुरुष 


। 


मान-भंग 


मान-भंँगः 
<&9७, ८७.४० 


( १६० ॥' 


बड़ह चतुर, मोर कान। 

साधन बिनहि भाँगल मझ्ु मान ॥ २॥। 
जोगी बेस घरि आओल आज । 
के इह सम्रुकच अपरुष कीज़ ॥ ४ ॥ 


सास बचन हम भीख लइ गेल । 

मझकु मुख हेरइत गदगद भेल || ६॥। 
, कह तब--'मान-रतन दह सोह |! 
सममल्न तब हम सुकपट सोय॥ ८५॥ 

जे किछु कहल तब कहइत लाज । 

कोई न जानतल नागर-राज ॥ १०॥ 

,.. बिद्यापति कह सुन्दरि राई। 

किए तुहु समुझत्रि से चतुराई॥ १श॥ 


८ 


२० भागल ० तोड़ा । मभुझ्घेरा । ई३--श्राश्रोल - अर्या + 
४--के -- कौन । श्रपरुब-्पूर्वे। ५--*स वच्च> सास के 
कहने से । ले गेलजले गई। ६>-हेरश्त-देखतें ॥ ७--तब 
कहा--- मुझे मान रूपो रत्न दो ॥ ८+-सोय -- बह । १०---जानलल> 
जाना । नागर-राज-- घखतुरो का बादशाह ॥ १६-- राई-- राधा 
१२-- किए -- फंसे । 


थवटशानतात: जलादाबाब उदास: 


“सुभावितेन गोतेव युवतीनां तर लीलया। 
मनो ने सिद्यते यस्य स बोगीह्यथवा पशु: ।॥!? 


२११ 


विद्योपिति 
ग्ल 222७ चयक 


है --फु्रि> चिल्ला कर ।+ चहूरिया, पतोहू | बेरिज>- 
विजम्द, । ए--प्रवबयाडि८-निद्चय । जटिला सास विल्लाकर बोली 
बहुश्या, उतनी देर से बहा षयों खड़ी हो ? ललिता ने कहा- कुछ 
अमंगल सुना ज्य रहा है) ततती को पति-भ्य निदिचत्र हैं। ३--घटल 
को अ्रक्रुसच -- क्षोन-सा श्रमंपल घटा हैँ। ४--बहुरिक पानो-बहुरिया 
के हाथ । हेस्इ् स- देखो । ५ ६--प्रंछ-+रेखा । वंकप-टेढ़ा । बिसश्षप्रो८८ 
जंकायुक्त | संधि » में । तब योगइमत्र ने बहुरिया का हाथ' घरकर 
_ कहा-वन-देददा छुश्चत् करें, यही हाथ को एक रेखा कुछ टेढ़ी है, 
लिसपे भद्धलल को प्रा्का है । इसके मिवारफु के लिये वन में पशुपति 


६ १६१ ) 


च्ष् 


जटितला सास फुशरि ' तहि बोलल 
बहुरि वेरि काहे टोढड़ि।- 

ललिता कहल  अमंगल - . सूनल 
सति पतिभय्न अबगाद़ि ॥३२।॥ 

सुनि कह जटिला घटल को अकुसल 
घर सथ बाहर होय। 

बहुरिक पानि धरि देर जोगी 
किये अकुप्तल कह मोहि ॥श॥। 

जोगेस्वर फेरि बहुरिक पानि धरि 
कुघल करब बनदेव । । 

इहे एक अंक बंक बिसंकश्नो 
वन मधि पम्लुपति सेब ॥६॥। 


की सेवा क स्लो पी 


43302 


मान-भंगः 


69७, (७-७ 
पुजनक तंत्र-मंत्र 'बहु आछ्ुए- 
से हम किछ, नहि जान। 
जटिला कह श्रान देव कहाँ .पाशभोब 
तुहु बीज़ कर इह दान ॥८॥ 
एत सुनि दुहु जन मंद्रि पहसल 

|. दुहु जन सेल एक ठाम। 
मनभथ मंत्र पढ़ाओल दुहू जन 
पूरल दुहू मनकाम ॥(०। 
पुनु दुहु जन मंदिर सर्य निकसल 
जटिला सयय कह भादी | 
जब ह॒ृद गौरि अराधन 'जाओब 
विधवा जन घर राखी ॥१२॥ 
एव कहि सबहु चललि निज मदिर 
जोगी चरन प्रशाम ।- 
बिद्यपति कह नटबर  सेखर 
साधि चल्लल मन काम ॥ १७॥ 





| | 
७,८०--एुजा के बहुत से मंत्र-तत्र है, हम कुछ नहीं जानते । 
जठिया , सास ने कहा - तुम्हारे ऐसए देवता फिर कहाँ मिलेगा--तस 
से बीजमात्र दो--छाड़-फक कर दो। ६--पइसल -- शवेशञ किया | 
१(--सय > से । १९--जब पह गौर को छाराणना करने जाय 
तब विधवा को घर से ही रख लेना-विधवा इसके साथ व जाय | 


[विचारों सास विधवा थी, श्रतः बहु श्रक्तेलो जाथगी, तो मिलते मे पुछ्िषा। 
होगी | १४--भनका ह 5 मनःक्षारता, इच्छा १ 


द्ः 


२१३ 


(विद्यापति 
472“ ६-७० 
(१६२ ) 


गोकुल॒ देवदेयास्रिनि आश्ोक्ष 
नगरपि ऐसे. पुकारि।, 
अरुन बसन पेन्हि जटिक्ष वेस धरि 
कान्ह द्वार माझ ठारि॥ २॥ 
सुनि घनि जटिला तुरित चल आओल 
हेरइत चमकित सेल । 
हसर बधुक रीति देखि जनि आनमति 
कहि. मंदिर लइ गेल ॥8॥ 
देववैयासिनि. कान । 
जत्लि बचन सुधामुखि नियरहि 
एक दीठि देरइ बयान ॥ ६॥ 
कह तब अतनु देव इसे पाओल 
श हृदिन्‍्मधि . पइसल काल । 





३--देवदेयासिनि ८ दह स्त्री जो फाड-फूक कफरतो है | 
आश्रोल-झ्राई । चगर्णह ८८ नगर सें | २--श्ररुव ८5 लाल। बसन ८८ 
बस्त्र । पेन्हि ८- पहनकर । जटिल ८ योगिनी । मार ८ में | ३-- 
जटिला धनि ८- सास | चमकते छ श्राइचस्पत ॥। ४--बधुक -८ 
बछू को, पतोहु को। जति ८ जंसे। धानमत्ति ८ कुछ दूधरी ही 
तरह की ॥, लद्द गेल - (श्री कृष्ण को ) ले गई । ६--जठिला ८८ 
सास | सुधाम॒लि - चद्रवदनी ( बाला )]। नियरहि निकट हो | एक- 
दोठि -- एकटक । बयान-सुख । ७--श्रतन देव -- कामदेव | इथे ८८ 
इसे । हृदि-मधि८८ हृदय में । पहसल--प्रवेश किया | 


श्श्ड 





मान-भंग 
<#२२%, ७-७7 


निरजन होइ मंत्र जब काड़िए 

तब इह होएब भात्न ॥ ८॥ 
एत सुनि जटिणा घर दोहे लेअ्न्न 

निरञजन हुहु एक ठाम। 
सब जन चिकृप्तत्त बाहर बहधत 

पुरल कानह संनकाम ॥१०॥ 
बहु खन अतनु मंत्र पढ़ि' कारल॑ं 

भागल तब से द्वो देवा। 
'देवदेवाधिनि घर सयय निकसल 

चातुरि बूकष केबा ॥श्श। 
जहिला बहुत भकति करि हरित 

कतक भीख आनि देल। 
कह कबिसेखर भीख लिए तब 

से हो देयामिनों गेल ॥१७॥ 
प-+-निरजबय -- एकान्त  में। भाड़िये ८ झाड़-फूंक. करूँ। हहु- 
यह । भाल--प्रच्छी , &--एत्एऐसा ॥ जटिलाल--पातप्त | धर दोहे 
' 'लेमब-दोनों को घर में ले श्राई | ठाम--जयह ॥ ११-निकसल ८८ 
निकल गही। बदइसछ--बेठी। सतकास-मनःफ्ापना, इच्छा ११-- 
परागल-भाग गया । से होन् वह । १९ किवा-क्िसने श्रर्यात्‌ 
किसीने नहीं | १३--भकति -- भक्ति । झकतक--क्ितना (बहुत)। श्रानि 


देलरला दिया | १४--गेल रू गई । 
“कलेजें की सबसे गुप्त एवं मधुर रागिणी का नाम फविता हैं |” 


की २ ९ हु 


( १६३ ) 

बर नागर साजइ नागरि वेश्वा । 
मुकुट उतारि सीम॑त संवारल 

देसी बिरचित केसा॥२॥ 
चंदन धोइ प्िंदुर भ्राल रंजल 

लोचन. अंजन. अंका। 
कुंडल॒ खौलिं कनेफूंल पहिरल 

भरि तनु चेसर-पंका॥ ४ ॥ 


वेसर खचित सतेसरि पहिरल 
चूरि. कनक् कर कजे। 
चरन-कमल पास जाबक शुजन 
तापर मंजिर गंजे॥ ६॥ 
कुंचुकि माँफ॑ कदम्व-कुछुम भरि 
आरस्भन कुच आमा | 
अरुसास्वर बर सारी पहिस्ल 
वस्त्र बिज्ञोकन सोभा।॥ ८ ॥| 
| *>चहुर इण्णा स्त्नो का देव बना रहे हैं। २--सौर्मंत-- 
माँग | दिरचित्ल्बनाथा । ३--रंज्ञल-श्रतुरंशित करते है, 
जगाते ह | अंका-रेखा । ४--बेसर-पंक्ा-केशर का लेप 3३ 
“पूरि कलक कर कंजें-कमलढ-रूपी हाथ में सोने पी छष्ठी। ' 
का जम कक जें-मुजार दर रहा हैं। ७-चोली मे 
6दस्ब॒ के फूल रखकर झ्ाभायुवत उभड़ते हुए कुछ घवाये | ८प++प्दना- 
स्वर-लाल फपड़ा । 


२१६ 


घरि परिबादिन स्याम मिलन दिित 
शुभ अल्लुकूल पयाने। 

पहिलदिं बाम चरण तुल्ति मोहन 
त्रियागति लच्छन भाने ॥१०॥ 

ऐसन चरित मिल्लन जहाँ सुन्दरि 
दुरद्धि एकलि ठारि। 

कर धरि अचांत्र तंत्र संवारत 
को इद्ठद लखइ न पारि ॥?१२॥ 

राइक निकट बजाओल सुन्दरि 
सुनंदृेव भइ गेल साथा। 

ए नव यौवनि नबिन बिदेसिनि 


आओ पुकारइ राधा ॥१४॥ 
सुनइव स्थाम दरखि चित आओल 
-. डठि धघनि आदर देल। 


' बॉह पकड़ि निज आसन बड़साओल 


कत कत हरखित सेत्न ॥:$ ॥ 


मान-भंग 
५858. “४-87 


कप उप उज्ञा__ प्यान्जाना]। १०--पहले बायाँ 
_--परिवादिनित्वीणा | परयान-"जाना | १०--पहले. बायाँ 


पर बढ़ादा, 


इकेली ।! 
कोई भी। 
राधा के 
हाथ | कत 


श्छ 


पर्योकि स्त्रियों की यहो रीति हैं। ११---एकलि-- 


१ए--कर-हाथ | यंत्र--्पीएा। तंत्र-त्तार। को इह- 


उखद न पारिरदेख नहीं सकती ॥ 


! साधाूइच्छा। ऐ ५--घनिनवाला | 


कत-क्ितवा | 


् 


१३--राइक८-: 
१६--बाॉह-: 


२१७ 


वचद्यापति 


<# ८2. 
हि २८ « ५ 


ज्वधहि बजाझओोन्न वीन सुमाधुरि 
रीमि देहल मनि-माक्ष । 
अइसे वनश्ञावण हमर जत रया 
मोहन जंश्र रखाल ॥रेब्। 
४ जनास गात्र कह कुल अ्वश्षम्नरन 
ब्रज आगम किए काजा | 
सुखमइ नाम, मथुरापुर जदुकुछ 
गुनीजन पीड़श राजा ॥ररा। 
धति कह तुआ गुन रीफि प्रसन्न भेज्ञ 
माँगह मानस जोय। 
सनोरथ कर्म जाँचलि जदि सुन्द्रि 
समान रतन देह सोय ॥२४॥ 
हँसि सुख मोड़ि पीठि देइ बइसल 
कान्द कएल धनि कोर । 
*. टटल सन बढ़ल कत कोौहुक 
भूपति के करू ओर ॥१६॥। हे 
१६--देहल-दिणा । २०--बजावए ८ बबाता है ।. जंतरिया- 
वोएा बन्नानेवला । यंत्र-वीणर | २२--सेरा नाम सुखम्यी है, गांद - 
सथुरा, कुल यदुइंश, वहाँ के राजा गक्षियों को पीड़ा देंते हैँ, इसबिये 
धझाई हूं। २३--वरावस-डृदय । “मात्र रतन-मान रूपी 
रत्त | देहजरो | २५--शोरज्णोद । २६--सपति--ंशिवासह । 


-साएकलमका जकमनका. फ्राककए, परम 


न 


ब्श्८ 


विदग्ध-विलास 


विदग्ध-विद्ञास 


“&-22:“८#7“%: ७2 


, ( १६४ ) 

आजुक लाज तोहे कवि कददब माई । 

जज्ञ देह घोइ जदि तबहु नजाईं॥ २॥ 
नहाइ उठल हम कालिदी तीर * 
अंगहि लागल पातल चीर॥ ४॥ 

ते वेकत भेल सकल सरीर 

तहि उपन्तीत समुख जदुभोर | ६ ॥ 
बिपुल्न नितम्ब अति बेकत भेल | 
पाज्नटि तापर कुतल देल ॥ ८॥ 

उरज उपर जब देहत्न दीठ | 

उर सोरि बेसल हरि करि पीठ ॥१०॥ 
हंसि मुख मोढ़ए ढीठ कनन्‍्हाई । 
तनु-तनु कॉपइते कॉपल न जाई ॥१२॥ 

बिद्यापति कद्द तुह्ु अगेआानि । 

,पुनु काहे पत्नटि ने पै्सात्न. पानि ॥१४। 


१-- आ्राजुक ८ आज का साई-शभ्रो देवा ९-जल 
देइ--बल से |॥ ३--नहा[इ८”स्तान कर ॥ ४--पतली सारी' शरीर से 
सट गईं। ,. ५-तेन्दससे रोक्त-व्यत्क, प्रकट ॥ ६--तहि> 


वहों । उपत्रीत-- बेठा हुआ।। जद्वीए८कृष्ण. ७,८ पालदि--एलठ- 
कर | तापर-उसपर । कुंतल+केश ॥_. &--देहलछ दीठ--[श्रीकृष 

४ है -> श्रीकृष्ण 
हा इष्टि डाली। १०--मोरिजमुड़कर । बइसह “से बैठ गई | 

हरि पीठ करि--कृष्ण फो औ्लोर पोठ करके १२०-तन तन-अंग| | 
अंग । १४--पन: लोटकर पानी में क्यो ते पृठ थई ? 


र२१ 


पिद्यापति 
एड ८5%, 
( १६४ ) 
हम अबला स्व किये गुन जान । 
से रसभय तनु रसिक सुज्ञान ॥ २॥ 
कतहु जतन्न मोर कोर वइसाई । हैं 
घॉधल बेनि स्रे कबरि खसाई॥ ४॥ 
कंचुक देल हृदय पर मोर। 
परसि पयोधर भें गेल भोर ॥ ६॥ 
कंठ पहिराशोज्ञ मनिमय हार । 
अँग बिल्लेपल कुकुम भार ॥ ८॥ - 
बसन पेन्द्राओल कए कत छुंद। 
किंकिन जालहि नीवि निबंध ॥१०॥ 
निज फर-पल्लच मऊ मुख माज | 
नयनहिं कएल सु काजर साझ ॥१०॥ 
अलक तिलक दुए चोलि निहारि। 
कह कविसेखर जाँओ बलिंदारि ॥१४॥ ॥॒ 
_. जी सास जाओ बलिदार ।[(४॥ || 
(-- किये गुतल जान--क्या गुन जानने थई । सेन्वह | ३-- 
फतहु-शितने । मोर-मुझे | कोर बइसाइ >गोद में बिठला 
कर | ४--कबरि » केश | खसाई--खोलकर । ५ कंचुक रू चोली | 
६---परप्ति --स्परशेक्षर, छूकर | पयोधर-कुच । भोर-बेसुध | 
८--विलेपल -- लेप किया | कुफुम-केसर | ६--पेन्हाप्रोल-पहनाया | 
कए कत छुंद-फितने छल करके । १०--किकिति जाश-:हरधनों । 
त्रीवि निर्बंधन्‍तीवी को बाँधा | १२ साकम--सॉाजना। पोछ॑ता ॥ 


र३---भलक सिलक्--महावर झभौर टीका | बोलो, -: कंसुकी ६ 
श्र हे 


विदग्ध-वि्ञास 


“७४०७-७२ ८७७ 


-. ( १६६ ) 
ए धत्ति रंगनि कि कहब तोय १ 


आजुक कोतुक कहल न होय॥र। 
एक .क्ष सुतल्त छ॒क्ति -कुसुम सयान। 
सनतसमथ कर-धनुवात्त ॥४॥ 
नूपुर झुन-क्रुन आश्रोज्ञ कान । 
कौतुंक मुँदि हम रहल नयान ॥॥॥ 
आशओल कानहु बइखल मझ्कुपास। 
पास मोड़ि इस लुका-ओलछ्ष दास ॥८।॥ 
कुतछ . कुसुमदाम ' हरि. लेल। 
बरिहा माल पुनहि. मोद्दि देक्क ॥१०॥ 
. नापा मोतिम गोमक दार। 
जतने उतारक्क कह परकार ॥१९॥ 
कुंचुकि फुगइत पहु भेल ,भोर | 
' जागल मनमथ बाधक्ष, चोर॥श१्शा 
कवि बिद्यापति एह रस भान। -' 
तुहु रखिका पहु रसिक सुजान ॥१६॥ 
१--रंगिनि-घछुरसिका । ३--एकली--प्रकेशो । सुतल छलि८ 
सोई थी। कुछुष सयान--पुष्पठाय्या पर ॥ ४--पनसथ-:फासदेष । 
कर-हाथ | ५-- धाश्रोल-प्रांया । ७- बह घल-चेठा | 
सभ्मु>सेरे । ८--मुँह फेरशर सेने धघपनों हुँदी चिपाई |_कुंतल -- 
केश + कुसुमदाक्ष-फूल की साला। हरि लेश-हर लिया, उतार 
. लिपा । १०७-बरिहा छ सयूर को पूंछे।  « ११--गीमक८--पले 


२२३ 


विद्यापति 


<25७/ “७०४० 
( १६७ ) 
हरि धरि हार चओंकि परु राधा। 
आध माधव कर गिम रहु आधा ॥१॥ 


कपट कोप घनि #िठि धरू फेरी । 
हरि हंस रहल वदन-विधु हेरी॥श॥। 
मधुरिम दास गुपुत नहिं भेला। 
तखने सुमुखि-मुख चुम्बन देला ॥४॥ 
करुं धरू कुच, आकुल सेलि नारी। 
निरखि अधघर-सधु पिवए खुरारो ॥०॥ 
चिक्ुर-चसर मर कुछुमुक धारा। 
पिबि कह्ु तम जनि बस नव तारा॥१०॥। 
विद्यपति कष्ट  सुन्दरि वानी ! 
हरि हंसि,मिललि राधिका रानोी॥९२॥ 
का | १३--फुपगत-खोलते | पहुज्प्रीतत्त। भोर--बेसुध। ११०- ' 
भान-हहते । 

३१, रे--राधिका सोई हुई थी कि कृष्णा ने चुपके विकट जाकर 
उसका हाह पकड़ लिया। राधिका चौंक पड़ीं। हार दूद गधा । 
आधा हाई कृष्ण के हाथ में रहा और श्राघा राधिका के गले में । 
३--छपठ कोप > भूठमूठ का फ्रीधथ ! दिठि घरु फेशीन्अरखि फेर लीं। 
४--ददत बिघु-मुखचन्द्र | हेरो-देखता | ५, ४--राधा फी्‌ 
सधुर मुस्काव छिप ने सकी छउ्ती समय कृष्णा ने उसके मुख को 
चूम लिया। ८--अश्रधर--वौचे का ओोष्ठ । ६--बिक्तुर-क्रेश । 
१०--मानों, अ्घकार तारे क्रो विगवकर पुनः उस्ते उगल रहाहो। | 


अध्या, 
हे 


विदग्ध-विज्ञास 


<#२», “करी ८७४७० 


( १६८ ) 
सासु सुतल्न छज्ि कोर अगोर । 


तहि अति ढ़ीठ पीठ रहु चोर ॥ २॥ 
केत कर आखर कह बुभाई । 
आजुक चातुरि कइल जाई ॥ ४ ॥ 
नदिं कर आरति ए अबुझत चाह । 
अब नहि होएत वचन निरवाह ॥ ६॥, 
पीठ आलिंगन कंत सुख पांच । 
पानिक पियाख दूध किए जाब ॥ ८॥। 
कत मुख भोरि अधर रखल्ेल। 


कत निसबद कए कुच कर देल ॥१०॥ 
समुख,न जाए सघन निसोआख । 
किए कारन भेल दसन बिकास ॥ ११ 
' जागल साथ चलत्न तब कान। 
-न पुरल आस बिद्याप्राते भान ॥१४॥ 





5 5 लक पक नल दल मदन 
१--छुतछ छलिपपघोई थी। कोर अगोर-प्रपती गोद से 
लेकर ३ '२--तहिनज्वहोँ -भो। ३--शब्दों में इसे कहाँ तक समफ्का 
फर फहुँ। ४--कहल फी जाई--क्ष्या कहा जाता हैं ? ४--प्राश्ति८ 
पातुरता, शीत्रता। नाहज्प्रीतववत ७, उ>मेरी पीठ कै 
आलिगन से उन्हें क्या सु सिल्ला--णानी की प्याप्ठ कहीं दूध से 
जाती है। &--घोरि-मोड़कर | १०--विसबद कए -- नि:शब्द 
होकर, चुरंचाप |. ११--निश्ोश्नास--निएवाछ, साँस ऊँचो साँस 
व्यस्पुख नहीं छोड़ता कि फ्हीं उत्त सांसके स्पर्श से सेरी सास न 


श्र 


विद्यापति . 
<०क, ८७, 
( १६६ ) 

कि कहब हे सखि आज़ुक रंग 
सपन हि सूतल कुपुरुष खंग | १॥। 

नंद सुपुरुष बलि आओ धाई । 

सू्ति रहल आँचर मँपाई॥ ४॥ 
कचिलि खोलि आलिगन देल । 
मोद्दे जगाए आपु निंद गेल | ६ ॥ 

हे विहि है विहि बढ़ दुख देल । 

उे ठुख रे साख अबहु न गेल ॥| ८॥ 
अनए बविद्यापति इस रख्र घंद । 
भेक कि जान कुछुम-मकरंद ॥१०।॥ 
जग लाग। ६५- | बाय ; मालूम क्यो, उसी संगघथ दाँत चमक उठे 
१३--क्ान--क्ृष्णा । १३-न हरल श्रास-+ आशा नहीं पुरी हुईं । 

(-रंब- रस वार्त्ता । २-आ्राज मे स्वप्त मे--अ्रम श्राकुर- 

कुंपुरष के साथ सोइ | १--बलिस-ससभकर | शआ्राप्रोल घाइ-- 
दोड़कश आई आँधर भोपाई-अंधघल से देंढडकर | ४--- 
कॉचलि->घोली । आलिगन देक्ष-छातोी से लगाया | ६--मरे 
जगाकर पुनः श्राप सो रहा 4 ७-बिशज"व्रह्मा | €--रस घंद-- 
रस को दिचित्रता | १०---सेक -- मेढ़क, बेग । कि-क्‍्या। कुसुम- 
सकरंद -- फूड का पराग । 


4 
4990पा॥ ७७०७-४० जााकक 0»ज>०ममममक 


_अमरहिता सा कचवत्स्‍्त्रीफां कुचबच्च सरसहिता | 


लसद॑क्षरपोयुषाघर वशहविता महात्मनां जीयाव || ? 
र२६ 


विदग्ध-विज्ञास' 


/ <&<७. ७-27 "का? 
( १७० ) ह 
अकुल चिकुर बेढ़लि मुख सोभ। 
राहु कश्त सप्ति-मंडज्ल क्षोभ ॥२॥ 
बढ़ अपरुष ठुइ चेतन सिल्ि | 
: क्िपरित रति कामिनि कर केलि॥श! 
कुच बिपरीत घिलम्बित #टार। 
कनक कल्लस बम दूधक थार॥६॥ 


पिश्न सुख सुप्रुत्ति चूप तजि ओज | 

चोद अधोमुख पिवए. सरोज ॥८॥ 
विंकिन रटत नितम्त्नि छाज। 
मवन-प्हारथ « बाजन बाज ॥₹१८५॥। 

फूजल चिकुर माल घरु रंग। 

जनि जभुना मिलु गंगतरंग ॥१२॥ 
बदन सोद्दाओन ख्रम-जल बिन्दु । 
मदन मोति ज्ञण पूजल इन्दु॥१४॥ 

भनइ विद्यापति रससय बानी। 

नागरि रम॒ पिय-अभिमत जानी ॥१६॥ 

१-प्राकुल<व्यप्र,, चचल, छिटके हुए. चिक्कुर ८ केश 
बेढ़लि 55घेर लिया । ३--दुंह चेतव-दो चतुरु ( राधा-क्ृष्णा ) । 
५->-विलस्बित-लटका हुआ | ६--बम>-पम्तन करता हे, उगलता हु ६ 
७-“झोभग ० (यहाँ) लाम। ६---रटत -बजती. हुई। 
नित्तस्बिनि--स्त्री ॥ छाज८शोभतो हैं। ११--फूजल-खुले हुए |] 
१६ श्म-ष्मती हैँ! प्रभिमत८इच्छा | 


२७ 


पी] 


विद्यापति 
"५25७० 


( १७१ ) 
विगलित चिक्कर मिलित मुखमंडल 
चाँद वेइल घनमाला | 
मनिध्रय कुंडल ख्बन दुलित भेल्न 
थाम तिलक बहि. गेत्ा॥श। 
सुच्दरि कठुआ मुख भन्नत्न-दाता | 
रति-बिपरीत समर जद. राखबि 
कि करब हरि हर-पधाता ॥४॥ 
किंकिन किनिक्रिनि कंकन कनकन 
पनधन नूपुर वाजे-। 
रति-रत मदन पराभव समानल 
जय-जय डिपडिम वाजे॥६॥। 
विल्ल एक जबन सघन रब करइत 
दोअल. सैतक भंग । 
विद्यापति कबि ३ रस गावए 
जऊ्----.तह.मुन॒  मिलल मिलली गंग ॥<॥ 
॒ि हि 2 जो  विलल्टटस पटना 
१--विगरलित -- बिखरे ह९ | घवमाल-प्रेघवरह | २--ल्रवन -- 
छान । दुलित-डोल ता हुआ | ४-समर युद्ध राखबि-ररक्षा 
फरोगी | घाता-अह्या | ६ - शज रति | युद्ध मे कामदेव हार गया 
है, उसोको-जय भरी उज रही हैं । ७--तिल एक-- एक क्षणा के 


लिये सघन अपन-पुष्ड जांघ | रब्-- शब्द | होश्रल--डहों गया 
८-जापृन-जमुना । 


जमाना 4९७००; अकाभकक, 'िलक+०पपमाक, 


ग्स्ट 


विदग्ध-विज्ञास 


“७४2७7 ७-७७ 
( १७२ ) 
सखि हे कि कहब किछु नहि फूर। 
सपन कि परतेख कहए न पारिए 
किए नियरे किए दूर ॥ २॥ 
तड़ितनलता तल जलद समारल 
आँतर' सुरसरि धारा। 


तरत्न तिमिरे सस्रि सखूर गरासल 
चांदिस खसि पड तारा। ४॥ 
अम्बर खसल घराधर उल्लटत 
घरनी डगमण डोले । 
. खरतर बेग. समीरन खंचर 
चंचरिगत कर रोते ॥ ६॥। 
प्रनय-पयोधि-ज्ले तन झाँवल 
डे नहि. जुग अवसान । 
के बिपरीत कथा पतिआयत 
- कबि बिद्यापति भान ॥ ८॥ 
१--छिछ नहिं फ्र-झहने की |... १ किछ नहिं फ्र-क्रहने की. स्फूत नहों होती। ९--पर- 
तेख-अत्यक्ष । किए ८ क्या । तियरे--निकठ / ३--तढ़ित-लता-: 
बिजुली (राघा ) ! | तललनोचे ॥ जलद-झसेघ (कृष्णा )। 
ध्रांतर-बीच से | सुरधघरि घाराज्गंगा (हार)। ४--तरल 
तिमिर--चंचलश्रंघकार _ ( केश ) | सिप्-चंद्रमा (सुख )) 
स्रन्‍्सुर्य . ( घिन्दुर-बिय्ु )॥। खहि-पड़-गिर पड़े।ग तारा--सक्षत्र 
(माथे पर के फूल ) । ५--अ्रम्बर-( १) श्राकाश (२ ) वस्त्र । 


रर६. 


'विद्यापति 
“७.७३ ६.७7 


( १७३ ) 
दुह्क संजुत चिक्गर  फूजल | 
दुहुक दुह्बज्ाबल बूझल।॥२॥ 
दुहक अथर दखन ल्ञागल। 
दुहुक मदन चोगुत जागल ॥ ४॥ 
टदुआअओ 'अधघर करए, पान | 
दुहुक कठ आक्षिगन दान ॥॥॥ 
दुआओ केलि स्य सय भेलि। 
सुरत सुखे ब्िभाबरि गेलि । ८॥ 
दुधआओओ सञझन चेत न चीर। 
दुअआओ पियासल पीबए नीर ॥१०॥ 
भन विद्यापति संश्रथ गेल | 
टुहुकु मदन लिखन देक्ष ॥१२।। 
घराधघरए-( १ ) परत (२) कुच 4 उलटल -- उलट 
पड़ा । घरनो-- ( १ ) पथ्वो (२) नितम्ब | ६--शखरतर-ठीत् । 
समोरए5"( १) हवा (२) निःशकप्त। चंचरिगन-: (१) भ्रमर 
(२) किकिएी श्रादि। रोले्शोर । ७--प्रगय-ग्योधि ८ प्रे् 
का समुद्र | जग ध्वसान>वयग का पंत विपरीत- रति का वर्ण है! । 
शत संजुत - राथ हो साथ । चिकुरन्कंश ॥। फूजल-घुल 
पथा। २--बलाइलन्वाकत झर कप्रजोरी॥ . ३--श्रधर-<नोचे 
का झीष्ठ । वसनन्‍वोत । ७--क्रेलि-कामफ्रोड़। सर्ये सय्ये ८ 
साथ ही साथ ॥ ८--बिभावरि-रात । &-दोनों ही छत्या 
पर अपने-अपने वस्त्र तक नहीं छेंघालते। १०७--विवासल-यप्यासा | 


ज२० 


है । 


रु 


वर्संत 


' बसंत 


<#<%, 2 <७, 


(१७४ ) 


माघ मोस पिरि पंचमी गंजाइलि 
नवम मास पंचस हरुआई। 

ग्रति घन पीड़ा दुख बड़ पाओल 
बनसपति भत्रि धाईं है ॥ २॥ 


सुभ खन बेरा सुकुज्ञ पक हे 
दिनकर उ्दिति-समाई। 

सोरह सम्पुन बतिस लखन सह 
जनम लेल ऋतुराई हे ॥ ४॥ 


नाचए जुबतिज्ञना दरखित मत 
' जनमल बाल मधाई हे । 
मधुर महारस मद्भल गाबए 
भानित्तिि भान उड़ाई हे ॥ ६ ॥ 





| ६--प्विरिपंचसी -- साघ्‌ श॒ुक्‍ल्ष पंचसी * गेजाइलि-पुएंगर्भा हुईं ५ 
नवप्त सास-- बेसाख से वर्सत का श्रंत 'होता है, ज्येष्ठ से माघ तक , 
नौ महीने हुए । पंचस हृरुसाई-पाँचवाँ दिन होने प९। ( वैद्यक के 
अ्रजुसार नो महीने पाँच दिन पर पुष्ठ बालक पंदा होता है ) । 
२-घधन - अ्रधिक । दे>खन-शक्षण | बेरा॑बेला, उसय | 
सुकुल पदख ८ शुब्नपदी । दिनकर-सु्थ । उदित समाई ८ उदय के 
समय | ४--सोरह सम्पुनच्सोलह श्रंगों से उम्पुर्ों । बतिस लखन -- 
वत्तिस लक्षण । ऋतुराई + बसंत । ५--जनसल--जन्मस लिया। 
मघाई--माधव ( वसंत ) | ६--जड़ाई ० उड़ा ले गया, नष्ठ किया। 


२३३ 





विद्यापति 
<#०- ८०२७. 
बह मलयानिल ओत उचित हे 
नव घन भ्रश्नों उजियारा। 


माधवि 'फूल भेल मुकुता तुन्न 
ते देल बन्दनबारा ॥|८॥ 


पीआरि पॉडरि सहुआरि गावए 
काहरकार  धतूरा ।.. 
नागेखर--क - संख धूल पूर 
तकर ताल समतूरा ॥ १०॥ 
सधु लए मसघुकर बालक दएइलु 
कसल-पंखरी-लाई । 
पञ्ओोनार तोरि सूत बॉघल कटि 
केसर व एलि -बघनाई ॥ १२ ॥ 


नव नव परलव सेज् ओछाओल 
सिर देल कद्म्बक मात्रा | 

बेसलि भभ्री हरउद्‌ गाबए 
चक्का चन्द निहारा॥ १४७ ॥' 


४--मलय पदन वह रहा है, उसे झोट करना उचित 

( पषरयोंकि शिशु को हवा लगने फ्ा भय है ; प्रतः तदीन मेघ 
छा गये। ८--मुक्ुता तुल-मृक्‍ता के समान । पीश्ररि पॉड़रि-फूल 
विशेष | भहुप्रि-प्रैत विद्येष । काहरकार ८- तुरैही | तकर 5 उसका। 
ससतुरा- समान ५ ११-०-..( जन्‍्स होने प्र शिक्षु को पहले मधु 
चटाया जाता है ) | दएहलू - ला दिया । १२--पपश्मोनारपद्मनाल। 
फटि-कमर में । [लड़के की कमर में सृत बाँचा जाता हैँ ]। बघनाइ-- 

२३४ रे - 


क्तक्ल्ज्ज-++तहतहतह8है || _३_३_॥३॥औ३औ३औ$॥]औ॥औ३]ऑ#£ 


डॉ 


वसंत 
<&क ८७२७, 
कनअ केसुअ सुति-पत्र लिखिए हलु 
रासि नछुत कए क्ोला। 
कोकिल गनित-गुनित भल जानए 


रितु बध्ंत नाम थोला ॥१६॥_ 
4८ ० 4 >< 
बाल वसंत तरुन भए धाओल 
“ बढ़ए सकल ससारा॥| १८॥ 
दुखिन पवन घन अंग उगारए 
किसलय. कुसुम-परागे | 
सुलल्ित हार मजरि घन कज्जल 
अखितों अंजन ज्ञागे॥ २० | 
नब बसंत रितु अगुसर जोबति 
बिद्यापति कवि गावे। 
राज्ञा खिवसिह खूपनरायतन 
सकल कलत्ना मनभावे ॥ २२। 





बाधवख (लड़छ़े छी कमर से पहनाया जाता है) । १३-श्रोछ्ाओरल ८- 
बविछाय! । सिर “ ८ हुृदम्ब की माला पिरहाने ( तकिये के रूप 
में' ) रक्‍्खी । १४-हर वव-गयल ने का गीर्त। भमरी>अमरी । १५-- 
फ़नश्न-- सोना । केसुश्न -- पएलास | सुति-पत्र -- जन्प्पत्र । नक्षत -- नक्नन्न [ 
-१६--कोछ्चिल गणित की गएाना खूब जानती थी, उसोने बसंत नाम 
रघला। १८-धीच,की एकऋपंदित नायब है | १९,२०-दक्षिएा पवत्ष किसलय 
ओर पुष्प-पराप' लेकर उस शरीर मे उबटन लंगाता है । मंजरी वही 
पछुन्दर हार यदे मै है, सेघ थे उसद्ी झँखो से' काजल लगा दिया 


+- है| हा 


र्श्र 


विद्यापति 
न ७००७-८० 


( १७४ ) 
आएल रित॒पति राज वबसत। 
धाओल अलिकुल माववि-पंथ ॥ ३ |: 
है ४ 

द्निकर“किरन भेल पौगंड। 
केसर कुसुम धएल हेमदंड ॥ ४॥ 

नृप-अआसन नव पीठल्ल पात | 

कांचन कुछुम छत्र घरु माथ॥ ६।॥। , 
मौलिक रखाल-मुकुल भेल ताय। 
समुख हि कोक़िल पम्चम गाय ।' ८।॥ 

सिखिकुल नाचत अल्िकुल यंत्र | 

द्वििजकुल आन पढ़ आसिख मंत्र ॥ १० ॥। 
चन्द्रातप उड़े कुछुम पराग। 
सलय पवन सह भेल अनुराग | १२ || 


ध्ाआएल-भआया | ४-घाओल दौड़ा |, _श्रलिकुल -- 
अमर-उसूह। मापदि-पंच. साधवी को धोर | ३--दिनकर -- 
सूप | भेल ८ हुआ | पौंड -- छिद्यो राव ह्था, कुछ-कुछ तोन्न। हे धर्दंड -- 
सोने का डंडा, श्रावा। . “सदतव-लहीपति कतकदंड रुचि केसर-. 
कुसुमविकास--गीतगोविन्द /  ४-... पीठल - वृक्ष-विशेष, . पिठवा ! 
तिज-प्ता । कॉँचनकुसुभम-चस्पा | ७--मौलि>-किरीठ | 
रसाल सुकुट >शभ्राम की संजरो। ताय5८: उप्तक्के । ६£-- सिखि-- 
सोर। प्नलिकुल यंत्र-भोरे बाजा बजा रहे है'। १०--ह्विजकुल-- 
६१) पक्षों (२ )ज्न ह्ाए (पक्षो को द्विज इसलिये कहा जावा है कि 
उसका भी जन्म दो बार होता है, एक्ष बार श्रडे के रुप में, पुत्र: 


२१६ 


डा 


।. बसंत 

॥॒ <&९९७, &7<& 
कुद्चल्ली तर धएत् मिसान | 
पाटलतून शअसोइ-दल्लबान ॥६१४॥ 

किसुक लवेंग-लता एक संग । 

है हेरि सिसिर रितु आगे दत्ल भंग ॥१६॥ 
संत साजतल सधु-मखिका कूत्ष । 
सिस्चिरक सबहु कएल निरसूल || (८॥ 


उधारतल् सरखिज पाओल प्रान्। 
तिज्ञ नव दत्त कर आसन दान ॥२०॥ 
नव बृन्दाव॒न राज बिहार + 
बिद्यापति कह समयक सार ॥९७॥ 





पक्षी के रूप में | )आ्ान-प्राक्र । श्राविख मंत्र--प्राशोर्धादात्मक्ष इघोक । 
११--चंद्रातप--चेंदोदा । फूलों के राग ही चेंदोवे से उद् 
रहे हैं। ४२-मसलय पवनन्‍-मलयाजल से आ्रनेवाली हा, 
दक्षिण पदव । पघहज>लाथ । कुदबलल्‍लो - वृक्ष, घिशेष । निशान ८८ 
पताका | पाल तुन-ःपाठक्ष के पत्त हो तुणा (तरकश | है । 
श्रशोक दघबात-- अ्रशोक के पत्तों पाए। है। १५--किसुक -- पलास | 
[ धनृष के समान | ल्वेंगलता [ ताँत के समान । १६-आगे 
दल -भेंग-पहले' ही सेन्य भंग हो गया | १७--कूल ८ कुल । 
१६९--उधारल८-उद्धार क्विया | पाश्नोल >पाया। ३०- दल - पत्ता | 
'श्र्थों. गिरामविहितः पिहितश्वच कबविचत्‌ | 
सोभाग्यमेति मरह॒द्॒वध्‌ कुचाभः | 
नास्प्रीपपोधरइवातितर्रा पकाशों । 
| नो गु्जरीस्तव इबातितरां विगूढः || 


र्२७छ 


विद्यापति 
“७०६५३ ७) 


( १७६ ) 


नव तृन्दावन नव नव तरुगन 
लव नव विकसित फूल । 
नवज्न बसंत नवल मलयानिल, 
सातल नव अल्ि कूल ]२॥ 
बिहरइ नवलकिसोर | 
काल्िदीं-पुलिन-कुंज वन सोभन 
नव नव प्रेम-बिभोर ॥ ४॥ 
नबल रसात-मुकुल्न-मधु मातत् 
नब कोकिल कुल्न गाय | 
नवयुवती गन चित उम्रताआओई 
नव रख कानन घाय॥६॥ 
नव जुबवराज नवल बर नागरि 
मीलए नव नव भ्राँति। 
निति निति ऐसन नव नव खेलन 
विधापति सत्ति माति || ८॥ 








१--तव--नदीन । विकसित--खिले हुए । २--सछयानिल- 
भलय-पवन । मातल - पायल बना | 
र३- विहार करता है। नवल किसोर ज्युवक कृष्झा । ४--कालिदी-- 
यमूद्रा। पुलिद- किनारे | सो -- सुशोसित । प्रेम ब्रिभोर-प्रेम् 
में दिसुध। ५---तई आम को संजरी के सघ्‌ सें मत्त बनी नई-कोयल 
गा रही हे ६--उम्रताश्रई -- उन्मत्त हो जाता है । 5--ऐसवे -- इस 
भकार का । खेलन -- कोड़ा | सतत लमत्त बनो 

श्श्८ 


अलिक्ूल--भौरे । ३-- बिह- 


वसंत 
( १७७ ) 


लता तसश्वर मंडप जीति। 

निरमल ससघर घबलिए भीति॥ २॥ 
पड अझ नाल अइपन भत्र सेल । 
रात परीहन पल्कव देल ॥४॥ 


देखह साइ हे मन चित लाय। 
बसन्त-बिबाहा कानन-थधलि आय ॥ ६॥ 
मधुकरि-रमनी संगल गाब। ., 
दुजबर कोकिल मंत्र पढाब॥८॥ 
करू “ मकरंद हथोदक नीर' 
बिधु बरआती घोर खीर ॥ १०॥ 
कव्अ किसुक मुति तोरन तूल | 
ल्ञात्रा बिथरत्न बेलिक फूल ॥ १२॥ 
केसर कुसुम करु खिदूर दान। 
जओपतुक पाओल सानित्र मान ॥ १४॥ 
खेलए कोतुक नव ॒ पेंचबान | 
बिद्यापति कवि हु कए भान॥ १६॥ 


ना 


+् 





हु 


१--लता और वृक्ष ने सानो सडप शो जील लिया--लता और 
वक्ष ही संडप है। ९-- निरमल - स्व्छ | ससधर--चद्रणा | घवलिए 
>- उज्जवल कर दिया ( चूना पोत दिया )। भीति--दीवार | ३-- 
परेध नाछ-पद्सनाल, कमल का नाल | अइपनन-भ्ररिपन ( जमीन पर 
का साँंगलिक चित्र) । ४--रात-छाल | परोहन>परिधान, पस्न्र | £- 
साइ है & श्री मेया | ६-कानन थलि>"बरनध्यलो ।) ७-सधुक्षरि-रमनी# 


२३९ 





विद्यापति 
हा 


( १७८ ) 


नाचहु रे तसनी तजहु लाज । 
आएल बफनत रितु बनिक राज ॥ २॥ 
दस्तिति, चित्रिनि, पदुमिनि नारि। 
गोरी सामरी एक बूढि चारि॥४७॥ 
विविध भाँति कएलन्हि सिंगार । 
पहिरल पटोर गृम भूल द्वार ॥ ६॥ 


केओ अगर चंदन घस्सि भट कटोर | 
कररहु खोईंछा करपुर तमोर ॥ ८॥ 
केआओ “कुमकुम मरदाब आँग। - 


ककरहु सोतिआ भत्न छाज माँग ॥| १० || 
2 मेज शी अ लए सर पल तप # अर 3// उप 7 कह € मय नव पी शिकशकिन 


शोरी रूप स्त्री । ८५--दुजबर- द्विज, श्रेष्ठ | &--इथोदक--हस्तोवक, 
जो पाती हाथ में लेक्वर विवाह का संछल्प पढ़ा जाता है ! १०--विध-- 
चंद्रमा | समीर ८ पढत । ११--कनन्र > सोना | तोरन तुन-तोरन 
के समाच | १२--लावा -- शादो के समय घान का लाबा (खील) छीटा 
जाता है | --१४जश्रोतुक -; दहेज । ह 

२--वनिक-राज - व्यापारी-श्रेष्ठ | ४-- बारि-बाला, नवयुवती । 
इ६--पठोर-रेशसी वह्तत्र | गस-ाले से. ७--घधं्ि<ूघिसकर ॥ 
है ककरहु-किप्ती के | करपुर--कपूर । तसोरल्पाव |. &-- 
अपडुम -फ्ेशर | मरदावन्‍्मर्देव कराती है | मलवाती'है | १०-- 
मोतिय -- मोती | छाज-धोनता हैं| सॉंग -- सींथ, सीमंत । ह 

ए०९०६५ 8६९४ ]0प्रए-मए९०0 7808 ४प्रन्नन्न [67065; #6फए 
57९४॥8 7078 ०0६ ६086 7४ ० ग्रगा 08४]॥छ- घाव 6 

श्छ० 


वसत 
“&:<४7 “६-४? 


( १७६ ) 
झम्तिनव पल्लव बइसक देल । 
धवल्ल कमल फुल पुरहर मेल ॥श। 
करू मकरंद मंदाकिनि पानि। 
ख्रुन असोग दीप दृहु आति ॥४॥ 
माइ है आज दिवस पुत्रसंत । 
करिए चुमान्नोन राय बसंत ॥ह॥ 
सपुद्र सुधानिधि दृधि भल गेल । 
समि ससि अमरि हँकारइ देल ॥%। 
ठेसु छुसुम सिंदुर सम भास। 
केतिक-घुलि बिथरहूं पटबास ॥(०॥ 
अनइबिय्रारपपति कविक्रठद्दार 
रस बुझ सित्र्तिष सिव अवतार॥ऐ | 





१--अ्रभिनववन्‍्ववीन ॥ बेईसक बैठने के लिये। देन: 
धवल- स्वच्छ | प्रुरहर ब्याह की डाली, मांगलिक कलछा जो दूले 
से पुता रहता है | रे -सक्करंद -+पुष्परस | संदाक्षिधी-पानि > गंगा का 
पानी | ४-- अरुण -+ लाब । श्रसोग--प्रशोक । दीपल्‍दीपक | वहु 
आनि>ला दिया ५०» पुत्र. -यपुण्षमय छम । ६--बसंत रूपी 
दुखहे का चुपाश्नोन करो, चूमो । ७--सपुवस्ससस्पूर्ण, पूर्ण । सुघानिधि +- 
चंद्र | दधि मेलल्द्रही बंना। ८०--भम्ति न असएा कर | भसरि-- 


अमरी, भोरी । हँकारइ देल-- बुलावा दे आई। ६““टेछु -- पलात | 


' कुसुम--फूल । भास८ मालूम होतां है। १०--शलर पराग । विथरहु- 


बिखेर दिया है | पटबास-रेशसी वस्त्र मांपलिक धागे | 
२४१ 


विद्यार्पात 


<#-००», (७७, 


( रै८० ) 
द्खिन पदन बह दस दिख रोध | 
से जमि बादी भाषा बोल ॥श। 
“ मनमथ कोाँ साधन नहिं आन । 
ेृ निरसाएल से मानिनि मान ॥४॥ 
माइ हे स्रीव-बसंत बिबाद। 
कओन बिचारब जय-अबसाद ॥६॥ 
दुहु दिस मधथ द्वाकर भेल । 
दुजबर, कोडझिल साखी देल ॥ण। 
नव पल्‍लब जयपत्रक भाँति। 
मधुकर-साला झाखर-याँति ॥१०॥। 
बादी तह प्रतिबादी भीत। 
सिसिर-बिन्दु हो अन्तर खीत ॥११॥ 
कु द-कुछुम अनुपस बिकसंत । 
सतत जीत बेकताओ बसंत ॥१४॥ 
बिद्यापति कबि एहो रस साच | - - 
राजा सिव्लिंघ एहो रस ज्ञान ॥१९॥॥ 





१--रोल-न््शोर करता हुआ्रा । ४--निरसाएल--नीरस कर दिया ४ 
६--जय झवसाद-जीत ओर हार॥ ७--मेघथ >सध्यरण ५ ८-० 
दुलदर -- ( १ ) द्विज श्रेष्ठ (२) पक्षों श्रेष्ठ ६, १ ०>-सय पलल्‍लव जय- 

प्‌ तञ ( जिस पर फेसला लिखा जाय ) है श्रोर भोंरो के घमूह घक्षरों' की 
'दितयया|है । ११,१२--मुहई (वसंत) से मुह्दालह डर गया शौर शीत 
श॒ श्र की छ्योस-बंद से जा रहा। १४--वेकत,ओो--प्रफट किया ! 

हर 





बसंत 
“5२७० “७-०० 


( १८१ ) 


अभिनव कोमल सुन्दर पात। 
सबारे बने जनि पहिरस रात ॥श॥ 
सत्लय-पवन डोलय बहु भाँति। 
अपन कुछुम रस अपने माति ॥७॥ 
देखि देखि माधव सन हुलसंत। 
जिरिदावन सेल वेबत बसंत ॥६॥ 
कोकिल बोलय साहर भार । 
मदन पाओल जग नब अधिकार ॥०॥ 


पाइक सधुकर कर मधु पान । 
भमि-भमि जोहए मानिनि-सान ॥ १ ०॥ 
दिसि दिसि पे भमि बिपिन निहारि। 
राप्त बुझावए सुद्त सुरारि ॥१श॥ 


भनदइ विद्यापति ई रस गाव | 
राधानमाघव अभिनव भाव ॥१४॥ 





१--अभिनव--ववीन | पात>पत्त | , २--सबारेश्न्सम्पूर्णा | 
रात-लाल ( वस्त्र )। मानो समूचे वन ने लाल वस्त्र पहन लिया हो | 
३--डोलए--बहु रहा है | ४--माति८> मत्त होकर । फूल अ्रपने 
रस में श्राप ही पागल हैं | ४->हलसंत-हुलसित हुआ ॥ ६०-- 
बेकत भेल-वप्रकट हुआ ॥ ७--साहरम्-आम्रपंजरी | ८--सदनर-- 
कामदेव । ६--पाइक>पायक्, दूत 5 सधुक्षर- भरा । ९०-- 
भमि-भसि>भ्रमएा कर! | जोहए-खोजता है । ११--बिपितन्झवन | 


निहारि-देखकर | १२--प्रसन्‍्तचितच्त कृुषण रासलोीला कर रहे हे । 
२४३ 


ला 


विद्यापति 
“६७ ८७४२७, 


| ( १८२ ) 
चल देखए जाऊझ रितु बसंत । 
जहां कुद-कुसुम केतड्लि हसंत ॥ २॥ 
जहां चंदा निरमल भमर कार । 
जहां रयति उजागर दिन आअँधार ॥ ४ ॥ 
जहां मुगुधलि मानिनि करए सान। * 
परिपंथिहि पेखए पंचबान ॥ ६॥ 

भनह खरस क वि-कठ-हार | 

सधु पृदून राधा बन बिहार ॥ ८ ॥ 

, ( १८१ ) क्‍ 
मधुरितु सधुकर पॉति। सघुर कुसुम मधुमाति॥ 
सधुर दटंदाबन सांझ | सधुर सधुर रसखाज ॥ 
अधुर जुबति जनसंग। मधुर मधुर रखरंग॥ 
सशधुर खदंग रखाल। सघुर सधुर करताल॥ 
भधुर नटन-गति मसंग। सधुर नटनी नट सग ॥ 


मधुर मधुर रख गान। मधुर बिद्यापति भान। 
2 डिस्क जन मल मम अल अर कमल. लि अमल कक आर कक लक ललित कक 


रे--निरसल ८ स्वच्छ | भम्र-अ्रमर, भौंरा | कार-काला | 
४--जहाँ रात उदञ्ललो-प्र क्ाश्यमय ( फूलों और चन्द्र के कारण ) श्रौरदिन 
अंधकार पूछ (चोरों और गुल्म-लताओं के का रण) | ६--प रिपं थिहिं-- 
पर्िकों को, विरोधियों को / पेखय-देखता हैं । पंचवान-कामदेव | 

मधुरितु-इसत । सधुकर-भौंत । मधुमाति--मध्‌ से सल। 
सांक-मे । रसराज-श्यृंगार । सथुर नृत्य का गति-भंग (भाव्ंगी ) 
ओर सधुर नाघनेबाज्ी के साथ (मधुर) नठ का (मधुर) संप वा 

२४४ | 


बसंत ' 
( १८४ ) 


बाजत द्विंगि द्विगि थौद्विम द्रिमिया। 
नटति कल्ावत सांति श्याम सग 
कर करताल  प्रबन्धक ध्वनिया ॥श॥ 


. डम डम डंफ छिमिक डिम मसादल 
रुनु भुठु मजीर बोल । 
किंडैेनि रनरति बलआ कनकनि 
निधुवन राख तुमुल उतरोल ॥४॥ 
बीन, रवाब, सुरज स्त्ररमंड्ल 
सारिगमपधनिसा वहु निधि भाव | 
घटिता घटिता घुनि झदंग गरजनि 
चंचल. स्वस्मडल॒ करू राब ॥॥ह्ष। 
ख्रमभर गलित लुक्षित कबरीयुत 
मालति माल धिथारत् मोति। 
,.. ससय बसत रासनरस वशुनत 
बिद्यापति मति छोमित होति ॥८॥ 


3 5 न अपक न्‍ न कर कर पट सकनर 





२---नटति--नताच रही है । भातिजमत्त होकर । ध्वनियाउ- 
श्रावाज | ३--माइल ४४ बाजा | ४ं-+बलश्रा-कैंगता ॥ तलिलु- 
बना” "--निधवज में रासलोला जोश के साथ हो रहो है । ४-- 
श्वाब--सारंगा के ढेंग. का एक काजा | स्व॒र॒संडल--बीएा का एक्क 
भेद | ६-+राव-सवर | ७ परिश्रम के कारण पसीना चल रहा 
है, केश चंचल हो इधर-उधर छिंवके है झ्और मालतो को साला मोती 


बिखेर रही है | ८5-खीथिंत क्षोभित, चंचल। 
श्र 


[ 5 


विद्यापति 


( १८४ ) 


रितुपति-राति रतिक रसराज़् ॥, 
रखसय रास रसस सस मसांक ॥२॥ 
रसमति रमनि-रतन धनि राहदि । 
राख रसिक सह रस अबगाहि ॥श॥। 
रंगिनि गन सब रंगदि नटई । 
रत्र॒ति कंकक्‍न किंकिन रटई ॥६॥ 
रहि-रहि राग रचय रसवबंत । 
रतिरत रागिति रसन बसंत [5 
रटति रवाब सहूतिक पिनास | 


राधारमन करु मुरलि बिल्लास ॥१०॥ 


रसमय परिद्यापति कवि भान। 
रूपनारायन भूपति जान ॥१९२॥ 
(१८६) 

सलय पवन वह । बसे बिज्रय कहा 
भमर करइ रोर । परिसल नहिं ओर ॥| 
रितुपति रंग देला। हृदय रमस भेला।!॥॥ 
अनंग मंगल मेलि । कामिनि करथु केलि ||, 
तरुूव तझुलि संगें। रसनि खेपबि रगे ॥ 
बिहरि जिपदि क्वागि। केसु उ६प्जल आगि 0 
कवि पिद्यापति सांद | सानिनी जीवन जान ॥। 
नूप रुद्रसिद्द बरुू -। सेदिनि ऋझलपतल ॥। 


सर ४. जननी 


सहतिक -- बड़ी वीएा । पिचरस -- एक वेच्ययंत्र | खेपबि-बितायेगा ! 
२४६ 


विरह 


विरष्ट 


<प2 २७. २३, (५७१२. 


( (८७ ) 


सखि दे बालस जितब बविदेस। 
हम कुलकामिनि कहइत अनुचित 
तोहहुूँ दे हुनि उपदेस ॥ २॥ 
ई न बिदेसक बेलि। 
दुरजन हमर दुख न अनुसापच 
तें तोहे पिया लग भेज्ञि ॥४॥ 
किछु दिन करथु निवास्र। 
हम पूजल जे खेहे पए भजन 
राखथु पर-उपहाध ॥६॥ 
होयताह किए बध-भागी | 
जेहि खन हुन मन जाएब चितव 
हमहु मरब घसि आगी ॥-॥ 
विद्यार्पत कवि भान | 
राजा सिवर्सिध रूपनरायन 
लखिमा देइ रमान ॥१०।॥ 


(-जि्तिब-जीतगे । ( श्रपशकुन समभफ्र 'सायेगे' ऐसा 
नहीं कहती ) । +--तोहहुल्‍्तुम भी । हुनिझूउनफों) ३-- बे लि 
वेंखा, समय | ४--पश्रनुमापव ८ समझकेगे | ते' तोहे पिया लग मेति८ः 
इसी लिये तुम्हे धोतम फे निकट भेज रही हु. ४७--प्रघुनफरे !६- 
जैसी पूजा (फाम ) की होगो, देसा फल मे नोगूंगी, थे मभे ऐघल- 
दुसहे फी निःदा से बचा ते । ए-होएताहलयहोदे गे | किपे-श्यों ) 
यध भागो-हृत्या का भागी ८--लाएव घितव८ जाने फो होगे गे । 

२४५ 


( श्पण ) 


माधव, तोहें जनु जाहू विदेस | 

हमरा रंग रभस लए जएबह 
! ज्एबह कोन सँदेस ॥२॥ 

वनहि गप्तनन करू दोएति दोसर मति 
विस्त जाएब पति मोरा | 

हीरा मतनि मानिक एक्रो नहि साँगब 
फेरि मोंगब पहु तोरा ॥४॥ 


लखन गप्नन कर नयन नीर भरु 
देखहु न भेल पहु ओरा। 

एकहिं नगर वसि पहु भेल परबस 
कइसे पुरत मत मोरा ॥6६॥ 

पहू सेंग कामिनि बहुत सोहागिनि 
, चंद्र निकट , जहसे तारा । 

भनइ बिद्यापति सुनतु वर जोबति 
अपन हृदय घरु खारावदा . 


१--जगु ज हुल्‍मत जाओ ॥ २--रंग रभस-- श्रापोद प्रमोद। ' 
६--मोरा वितरि जायब-समुस्झे भसुल जाओगे। ५--तीर ८ आँसू । 
पहु. झोरा>प्रीतम की ओर | ६-प्रतनपुरा होगा 
८-साराज(यहाँ ) घैये । 
“सत्मूत्रसविदाव सदलंकारं सुशुलसच्छिद्रण | 
क्र्च् ८2७ ५ चूण्ठ हक & हें 
के वारबांत न छण्ठ सत्काव्य भाल्यनध्य ऋ ।४ 
ब्‌्र्‌० 


विरद्द 
#३#> 7 
( १८९ ) 
काल्नि कद्दल्न पिया ए सांमहि रे 
जाएग्र मोर्ये मारुअ देख । 
समोर्य अभागति नहि जानलि रे 
सेंग जइतओं जोगिन बेस ॥१२॥ 
हृदय मोर बढ़ दारुन रे 
पिया बविन्तु विहरि न जाए ॥३॥ 
८ ६ + ८ 
एक सयन सर्खि, सुतल रे 
आछल बाकप निसि मोर । 
न जानल कति खन तेज्रि गेल रे 


बविछुरल चक्रेवा जोर ॥५॥ 
सूत सेज हद्विय साज्नए रे 

पिया बिच घर सोय॑ आजि। 
वि्नात करओं सहत्वोलिनि रे 

सोहधहि देह अगिहर साजि ॥णा 
विद्यापति कवि गाझोल र 

आबि मिलय पिय तोर! 
लखिमा देह वर नागर र 

राय सिवर्विध नहिं. भोर ॥६॥ 


( १९० ) 
मधुपुर मोहन गेल्ष रे 
मोरा बिहरत छाती । 
गोपी सकल बिखरतनि रे 
जत छल्न॒  अहिबाती । २॥। 
सृतलि छुलहुँ अपन गृह रे 
निन्द्‌इ गेज्डः सपनाई । 
करसों छुटल परसमनि रे 
कोन गेल. अपनाइ ॥श॥ 
कत कहबो कत सुमिरब रे 
हम भरिए गरानि। 
आनऊ धन सों धनबंठी रे 
कुबजा भेल राति ॥६॥ 
-मवृपुर-मसथुरा | गरेल-गया । सोरानस्मेरा ॥ बिहरतरः 
फट्तोी हैं। २--बिसरलनि- विस्मरएणा हो गये, भूल गये । जत+- 
छितनी । छल्प्झ-यों । अ्हिवाती-सौभाग्यवतो | ३--सुतलि ८ 
सोई । छछहुं-- (में ) थी। श्रपन-श्रपने । निन्‍दइ गेल सपनाइ-- 
अंद में स्वप्त देखने लगी | ४--कर-हाथ छटनर--कऋट गया । 
परसमनि-स्पर्शधमणा, पारस । कोन--कौन | गेल अ्रपनाइ ८ 
कपना गया ॥ ४--कतज-कितना | कहवो>कहुेंगी । सुमिरब-- 
स्मरण करुमी | भरिए गरानि>लानि से भर गई हें । ६--श्रानक८- 
दूसरे का । सोनसे | भेल ८ हुई । 


न हू सच 
या पा शा 
रा 


| विर्‌ह 


गोकुल चान चकोरल रे 
चोरी गेत्न चंदा। 
बिछुड़ि चललि दुह्ुु जोड़ी रे 
जीब दइ गेल धंदा ॥८॥ 
काक भाख निज भाखह रे 
पहु आओछत मोरा। 
खीर खाँड भोजन देब रे 
भरि कन $ कटोरा ॥१२॥ 
सैनहि बिद्यापति गाश्रोल रे 
घैरज घर नारी। 
गोकुत्न होयत सोहाओन रे 
फेरि मिल्नत मुरारी ॥१२॥ 
७-मगोकुल का चद्धमा चकोर बन गया-णजो यहाँ चन्द्रमा के समान 
था-- जिसे हजार-हजार गोपियाँ चक्तोरी को तरह देखती थीं-बहो 
श्राज सवर्य चकोर बनकर दूपरी को--कुब्जा फो देख रहा है। हा! 
सेरा घन्द्र चोरी चला गया। ८--बिछुड़ि-बिछुइुकर । चललि-८ 
चली | दुहु जोड़ी -- दोनो ( राधा-कृए ) को जोड़ी | भीव वह गेल 
धघंदा>-प्राणों में उन्‍्देह दे गया। ६ काक्-क्षाप, कौश्रा । भाएकल्ट 
बोली । भाखह ८ बोलो । ५हु--प्रोतस । ध्राश्नोत--प्रायेया । 
१०--सीर--दूघ | देब>दू गी । फत्क -- सोना । १२०-+-२ 
सोहाश्रोन ८ शो भ्वायमान ॥ | ल्‍ 
“सुभ्रासितरसास्वावबद्धरोमाञच हज्चुका । 
बविनापि कासिनीसंग कक्ष्य: सुखमासते ॥” 


२५३ 


विद्यापत्ति 
<+७ ८७४७, 


( १९१ ) 
सरसिज बिनु सर' सर बितु सरखिज 
की सरसिज बिनु सूरे | 
जोबन बिनु तन तन विन्नु जोबन 
को जोबन पिय दुरे ॥श॥ 
सखि हे मोर वड़ देव बिरोबी |. 
सदन बेदन बड़ पिया मोर बोलछड़ . 
अबहु देहे परवोधी ॥ ४॥ 
चोदिस भसर भम कुसुम-कुछुम रस 
नीरसि माँजरि पीवइ । 
मंद पवन चल पिक कुहु-कुहु कह 
सुनि बिरहिनि कइसे जीबइ ॥६॥ 
सिनेह अछल जत हम भेव न टूटत 
ब्रढ़ बोल जत खब थीर। 
अइसन के बोल दहु निज सिम तेजि कहु 
उछल पयोनिध नीर॥ ८।॥। 
भनइ बिद्यापति अरेरे कमलमुखि 
गुनगाहक पिया तोरा। 
राजा सिवसिष रूपनरायन 
___सहलजे एको नहि भोरा ॥ १०॥ 
१-की>जया ? सूरे सूय । 
कश्नेवाला। देहे८देतो हो। ५--भमर भम-5 भोरे अमएा कर 


रहे हे! ७--अ्रछल-था | भेव-समझता | बड़ बोल जत सब 
२४४ 


5 


४ड--बोलछुड़ ८ प्रतिज्ञाभग 


विरह 
८59७, (७४. 
( १९२ ) 


सखि हे कतहुं न देखि मधाई। 
काँप शरीर थीर नहि मानस 

अबधि नियर भेल आईं १२॥ 
माधब मास तीथि' भयो माघब 

अबधि कइए पिआ गेज्ञा। 
कुच-जुग संभु परसि कर बोललन्हि 

तें परविति मोहि 'भेज्ञा ॥ 9७॥ 
मृगमद चानन परिसल कुंकुम 

के बोल सीतल  चंदा। 
पिया बि >त्ेख अनल जो बहिए 

बिपति चिन्हिए भत्न मंदा ॥६॥ 
भनइ बिद्यापति सुन बर जौबत 

चित जनु मंखह अआजे। 
पिय बिसल्ेख-कल्लेस मेटाएत 

बालम बिल्ञलसि समाजे ॥ ८॥ 





- थीर-बडे लोग जो छुछ कहते है, पक्का होता हैं। ८--के -- कौन | 
सिस -: सीमा । हा 


१-मधाई-माधघव, छुष्ण | २०-सानस ८ सान । शअ्रव घि-- 
मिलने का दित | नियरजनिकट । ३--साधव सास-वंशाख | 
साधव तिथि+एकादशी । ग्रेलान-गये ] ४--कर ८ हाथ | ते८- 


उससे । प--फे-कोन । ६---बिसलेख«>*विशलेष,. बकिच्छेद | 
झनल -- प्राग | ७--भंखह ८ भंजना, पशचात्ताप करना । 
ब्र्र 


विद्यापति 


“० ८६७-७. 


€ १६६ ) 


लोचन धाए फेघायत 

हरि ,नहि आयल रे। 
सिव-सिच जिबओ न ज्ाए 

आस अरुकाएल रे॥ २॥ 
मन करे तहाँ उड़ जाइञअ 
जहाँ हरि पाइआ रे। 
पेस-परसमनि जाति 

आनि डर ल्ञाइअ रे ॥छ॥ 
सपनहु ब्रंगस पाओल 

रंग बढ़ा भोल रे। 
से मोरा बिद्दि विघटाओल रे 

निन्दओ हेराएल रे ॥ ६॥ 
भनइ बविद्यायति गाओल 

धनि धइरज धर रे। 
अचिरे मिल्षत तोहि बाज्षम 


पुरत मनोरथ रे॥८॥ 
न मम आग 0 2 


--धाए ७ दोड़कर | फंधाएल-फंच सहित हो गये, फूल 
एये। २ लिवश्रो-प्राण भी। प्रर्काएल--उलकऋ पड़े हैं | ३--- 
मन करे- इच्छा होतो है। ४--उर लाइश्र-- छाती से लगा ल्‌। 
५०-संगस-मिलन, भेंट « पा्रोलयाया | ६ --बिहि ८ ब्रह्मा । 
विघटाधोल--नष्ट किया | निन्‍वशो हेराएड-नींद भूल गई, जातो रही । 
८--अचिरे--शी प्र ही पुरा होगा । 

२५६ 


ला 





विरह , 


<&#<७, छ#0 
( १६४ ) 

सखि मोर पिया। 
अबहु न आओल कुलिस-हिया ॥ २॥ 
नखर खोशआाओलु दिवस लिखि ल्िखि । 
नयन अंधाश्रोल्लु पियापथ देखि॥ ४ ॥ 
जब हम बाला परिहरि गेला | 
किए दोस किए गुन बुक न भेला ॥| ६ ॥ 
अब हम तरुनि बुक रस-भास | 
हेन जन नहि मोर काहे पिआ पाख | ८॥ 
आएब देन करि विआ मोरा गेला । 

क जत गुन बिसरिति भन्ना ॥१०॥ 
भनइ बिद्यापति छुल अच्च राइ । 
कानु ममुझाइत अब चाज्नि जाइ ॥१२।॥। 


२--प्राश्नोल -- आया । कुलिस-हिया-- कज्त्र के ऐसा कठोर- 
हृदय | १--तखर-- नहें। खोश्नाओलु--नष्ड क्र विया। भ्रीत्म 
के शाने का दिन लिखते-लिखते मेरे न घिस गये। ४-आअरंधा- 


श्रोलु >्रधा बना लिया । पियापथ८प्रोत्म को राह। ५-- 


बाला-भोली-भाली किशोरी ।' परिहरि गेलाज- छोड़कर घले गये । 
इ६इ--किये-क्या । बह न सेज्ा-कुछ ने जान सके | ७-- 
कदनि-- युवती । रस-भास- रस को बाते । ८--हेन-इस समय | 
१०--पुरबक ८: पूर्व का। बिखरित-विस्मरएण । ११--राइ-राघा ॥ 
१२--कालु-कृष्णा | 


२५७ 


विद्यापति 
७८७: 
( १९४, ) 


आसक लता - लगाओल खजनी 
नयनक नीर॒ पटाय ३ 

से फल अब तरुनत सेल सजती 
आंचर तर न ख्माय ॥ २॥ 

कांच साँच पह देखि गेल सजनी 
तसु मन भ्रक्ष कुंह भान। 

दिन-दिन फल तरुतत भेल सजनी 
अहु खन न करू गेआन।॥ ४७ ॥ 

सत्र कर पहु परदेस बसि सजनी 
अयतल सुमिरि सिनेह 

हमर एहन. पति निरदय पसजना। 
नहिं मन बाढ्य नेह || ६॥ 

भनई३ बिद्यापति गाआतज्ष ब्बजनी 
उचिय आओत गुनस्राह । 

उठि बधाब करू मन भरि सजनी 
अब आओत घर नाह । ८॥ 





१,९--सख्ि, श्रांखो को पानी से सौंचकर प्ाशा की लता 
सेने लगाई | रब उस लता का फल ( कुच ) जवानी में श्रा गया 
पुष्ट हो चला, वह अ्रंचल के नोचे नहीं समाता । ३--सांब--सच- 
मुच प्रें। पहु-प्रीतवम | तस--उसके कुह-कुहेशा ( निराशा )। 
अहुखन्त--इस समय भी। ६--एहन-ऐसा ।* ७-- प्राश्नोत्त 5 
धायेगा । पनसाह>गु एपान | ८--बधाब--बधैया | नाह » पति १ 
र्श्८ 


मान-भंग! 
<&७5७, “>> 


(६ १६० ) 


कोन गुन पहु॒ परबस भेज सजती 
बुझभल्तलि तन्रिक भल्त संद । 
सनसथ सन सथ ततन्ति बिनु सजनी 
देह दृहए निसि चंद ॥२॥ 
कहओआओ पिसुन सत अबशुन सजबनी 
तनि सम्र मोदि नहि हझ्ान् | 
क्तेक जतन सो भेटिए खजनी 
मेटए न रेख पखान || ४॥ 
जे दुरजन कु भाखए झजनी 
मोर मन न होए बिराम। 
अनुभव राहु पराभव खजनी 
हरिन न तज हिमधाम ॥ ६॥ 


चतओ तरनि जल्ल सोखए खजतनी 
कमतज्ञ न तजए पॉन। 

जे जन रतल्न जाहि सों सजनी 

- कि करत विहि भए बाँक़ ॥ ८ ॥| 

बिद्यापति कवि गाओक्ष  खजनी 
रस बृझए रखमंत्त । 

राज्ञा . सिवर्सिध मन दुए सजनी 
मोदवती दइ केत ॥ १०॥ 


१-तनिक--उनत्तका | २- सनसथ प्रन सथ"“फामदेव मंन कह 
सथन कर रहा हुँ। तनिल्‍ठनके | ३--दुष्ड लोग भले ही उनके 
श्५६ 


हद वचद्याप ति 
42२७. ८७२६. रु कर 


( १६१ ) 
माधव हमर रटल दर दख । 
केयो न कहइ खखि कुसल-सनेख || ४ ॥ 
जुग-जुग जीवथु बसथु लाख कोच । 
हमर भाग हुनर नहिं दोस || ४ ॥ 
हमर करम भल बिद्दि बिपरीत । 
तेजलनि माधव पुरुनिल्न विपरीत ॥ ६ 
हृदयक चेदन बान समान | 
आनक दुःख आन नहिं जान ॥ ८ ।। 


भव बविद्यापति कवि जयराम | 
देव लिखल परिनत फल्न बाम ॥१०॥ - 





सकड़ीं अ्रवगुषा मुझसे फहें, किन्तु मेरे लिये उतके सप्रान दुधरा 
'कोई नहीं हें; ४७--पश्चान-पत्थर । ५--बिरास -- उदासीनता, (ऋष्ए। 
के प्रति )। राहु पराभव-राहु द्वारा हराये जाने पर, ग्रव छिये जाने 
पर ॥। हिमरवाम-चर्धसला | छ--तरनिच्सूयें |). दनारतलर- 
अनुरकक्‍त | कि करत” 7 ,८>ब्नह्मा विमुख होकर क्ष्या करेगा * 
१--रटल्॑चला गया। २--क्ेश्नो ७ कोई । सर्तेस-छंदेश । 
३--जोबथु--जीयें ।। बप्थु>बस्ते । ४ -हुनक रू इनका | *“7 
विह - क्या | ६--तेजलनि-छोड़ दिया | पुरुबिल्त पुर्वे का। ७-- 
वेदन--वेदना, छुः्ख | ८--श्रानक « दूसरे का | १ ०--बाम-विफ्सीत । 
“रुतमन्दपवन्यासा ... विकचश्रीदचायश्चब्दभंगवती | 
कस्य न कम्पयते क॑ जरेब जीफ'स्यसत्कविर्षाफ्ी 
२६० 


विरह्‌ 


“8-९7 +<७ 


( शौैश्प ) 


जौवन रूप अछल्त दिन चारि। 
से देखि आदर कएल मुरारि॥ २॥ 
अब भेज्न काल कुसुम रस छूछ | 
वारि-बिहुन सर केओ नहिं पूछ॥ ४॥।' 

हमरि ए बिनती क्हब सच्ति रोय । 
सुपुरुष बंचन अफल नहि होय ॥“६॥ 

जावे रह धन अपना द्वाथ । 

ताबे से आदर कर संग साथ ॥ ८॥ 
धनिकक आदर सब तह, होय | 
निरघन बापुर पुछय न कोय ॥१०॥ 

'भनइ बिद्यापति राखब सील । 

जो जग जीबिए नबओ निधिमील ॥१२ |! 


१-- अछुल>-ये । २-से-वह । फएल ८८ क्ष्या ३०*भाल ८ 
कटु, गंधहीत ।* रस छुछ-रस से हीन । ४--बा रि-बिहुत्न -- पानी 
से रहित॥। सरणजू-/तालाघ। फ्शेज्-क्रोई | 


१---रोब--रोकर । 
६--अ्रफल-व्यर्थ | ७-जाबे ८5 जबतक ॥ 


८-ताबे-तबतफ | संग 
साथ -संगी-साथी, मिन्र-कुदुछ्च । ६--धनिक्रक्त -- घनियो का | छब- 
तहँ>स्वेत्र ८ १०--बापुरण्-बे चारा । ११-- सील -- मर्यादा 
१२--परढदि जग में जोवित रहो; तभी नवो निधियां प्राप्त हों । 
90९७० 8 8६ 905807 8 एफटांडाब 0 ]6, 7१७ 
९72०४7688 078 (90९॥ [65 ॥7 8 00 ए€7ईप) 8०१ 96807॥- 
पी 3907 ट्वव०7 0 0९88 80 6,- धित९७ 0770]0. 


२६१ 


अविद्यापति 


८७,४४० 


( १९९ ) 


सखि द्वे इमर दुधुख नहिं ओर । 
हमर वादर माह भादुर 
सून मंदिर मोर ॥ २॥ 


मंवि घन गणजंति सखंतत 
सुबन भरि. वर्संतिया। 
कनन्‍त पाहुन कास दारुन , 
सघन खर सर हंतिया ॥ ४ ॥ 
कुलिप्त कत खत पात मुदित 
सयूर नावत मातिया। 
मत्त दादुर डाक डाहुक 
फारटि जायत छातिया॥ ६॥ 
तिमिर दिग भरि घोर यासिनि 
'. खअथिर बिजुरिझ पातिया। 
विध्वापति कह कइसे ग्माओब 
हरि विना दिन-रातिया ॥ 5॥। 


॥ 20072 320 दीपक + कक टला 

२ -( इस पद्य का यह चरण श्रत्यन्त प्रधिद्ध है । स्वयं रवीर्द्र- 
नाथ ठाकुर ने फ़ई बार इसे उद्घत छिणाहू )। मरम्-भरा हुश्रा। | 
बादर-प्रेष । ६--संतत--वदा । ४ “पाहुन>प्रदासी। खर 
सरज्तेज वाणए। हंतिश-नपारता है। ४--कत सतजकई सोौ। 
पात - पिरता है | मातिया-घत्त होफ़र है। ६--डाछ »पुकारता है | 
डाहुड:८एचछ चासाती एकी | छ७--दविग>दधिक्मा। अऋधिर-चंचल ! 
ज--कइसे -+ किस प्रकार | ग्माओोब - विताऊँगी । 

रद्द ह 


विरह 


७7 छ-७> 
( २०० ) 
मोर बन बन खोर सुनइत 
बढ़त मनमथ पीर । 
| 

प्रथम छार असाढ आश्योत्न 
अबहु गगन गँभीर ॥१५॥ 
दिवस रयना अरे सखी 
कइसे मोहन बिनु जाए ॥१॥ 
आबएं साझोन घरिख भाओन 

घन सोहा ओन बारि । 
पंचघर-सर छुटत रे, कइसे 
जीअए बिरहिन नारि ॥श॥। 
आबए भारों बेगर भाधों 
कॉसो कहि एट्टि दुख। 
निडर॒ डर डर डाक डाहुक 
छुटत मदन बनूक ॥|७॥ 
अछूह आसिन गगन-भासि न 

घनन . घनवन . रोल। 
सिंह. भूपति भनइ ऐसन 
बतुर मास छि बोल ॥९॥ 





ली-+- 


२--भाप्रोतजूमो मन को भावे । ५--“पंचधर-क्षामदेव | ६--- 
वेगर-दिता । छाँसो -- किससे । ७--डर डर डाक डाहुक-डाहुक (पक्षो- 
विश्ञेष ) डर डर शब्द से पुकाए रहा हु-नानों रामदेव क्षा बंदुक् छुट रहा 
हो । उ-भ्छह--प्र 7--प्रस्ति प्राया | चाएिज-नालूप पडता है | 

२६३ 





विद्यापति 
८6७ 'का ७0 
( २०१ .) 
फुटल कुसुम नव क्ुन्र कुटिर बन 
कोकिल पंचम गाबे रे। 
मलयानिल दिमसिखर सिधारत्न 
पिया निज देश न आबे रे ॥र॥ 
चनन चान तेन श्रधिक्त उतापए 
डपबवन श्रत्षि उतरोले रे॥छ॥। 
समय बसंत कंत रहु दुर देख 
जानल बिधि भ्रतिकृत्न रे॥५॥ 
अनमिख नयन साह मुख निरखश्त 
तिरपित न सेल नयाने रे। 
ईं सुख समय सहए एत संकट 
अबल्ता कठिन पराने रे॥६5॥ 
दिन-दिन खिन तलु हिसम कमलिनि जल 
न जानि कि जिव परजंत रे। 
विद्यापति कह घिक घिक जीवन 
समाथध्य. निकरुन कंत रे॥ ८ ।। 


न ले 


8 दि टन 

२--फुटल ८ प्रस्फुटित हुआ, खिल उठा । २-.-मलथानिल 
हिमसिखर सिघारल >मलय-पवन हिमालय की घोर चला--दक्षिएा-पवन 
बहने लगा । ३--चनव # चन्दन | चान ७ चन्द्रमा | उतन्नापए ८ उत्तप्त 
कर देता है, जलाता है। अ्रलि उतरोले रेप्-भौरे ग्रंजार कर रहे हैं | 
५--भ्रनमिख--बिना पलक गिरे हुए। ७--हिम ८ बर्फ । परजंतन 
दबाष | ८झ-“निकरुत--क रुणा-रहित, कठोर | 


ब्द्ड 


( २०२ ) 


सजनी काछुक कहनबि घुमाई। 
रोपि पेमक बित अंकुर मूड़लि 
बाँचच कोन डउपाई शा 
तेल-बिन्दु जेसे पानि पसारिए 
ऐसन | मोर. छनुराग। 
हिकता जल जेपघे छनहि. सूखए 
तेघ्ततः ,मोर सुहाग ॥शा 
कुल-कामिनि छुजी कुल भणए गेल्नों 
तिनकर॒ बचन लेभाई। 
अपने कर हम मभूँईे -म॒ड़्ाणल 
कानु से प्रेम बढ़ाई ॥6्ष। 
चोर-रमनि जनि जि मन सन रोअई' 
अम्बर बदल. छिपाई। 
दीपक लोभ सत्तम जनि. धाएल 
' से फ्ल- सुज्श्व चाई ॥५॥ 
भनई बिद्यापित * इह कल्नजुग रित 
चिन्ता करह न . कोह। 
अपत * ! करमन्रोष झ्रापहि खझुंजइ 
जे जन प<«बस्र होई ॥१०॥ 





विरह 


८७४७, ६:७० 


९-.छाझुक ८: कृष्ण को | १-- मूडइलि ऋ तोड़ दिया । पसारिए-- 


फैलता है। ४- सिकता -- बालू ) तेसत>- वैसा । धुहाग८- सोभाग्य-। 
४--छूल ८ थी | क्ुलटा> व्यमिचा रिएो | तिवक्र-हवके । ६--पुंड़ 


ब्‌० 


श्ध् 


विद्यापति | 
(6, “७-७2 
( २०३ ) 
के पतिश लडर जाएनत रे 
मोरा पियतम पाठ्च। 
हिए नहि सहए असद्द दुख रे 
भमेत्र साओन मास ॥२॥ 
एकसारि भवन पिया बिल्नु रे 
मोरा रहलो न जाय। 
सम्रि अनकर दुख दारुन रे 
जग के पतिश्राय ॥श॥ 
सोर प्रन हरि हरि क्य गेल रे 
अपनो सन गेज्ञ । 
गोकुल्न तज मधुपुर बस रे 
कत अपजप्च लेल ॥६।॥ 
विद्यापति कवि गाओल रे 
घधनि घरू पिय आस | 
आभव्रीोत तोर मंनभावन रे 
एहि. कातिक सास ॥०-।। 
मड़ाएल -- बदनाम हुई । ७--चोर-प्सनि-चोर की स्त्री । प्रम्बस-घस्त्र 
(चोरनारि जिधि प्रगट न रोई |--तुलसी] ८--सलभ-पतंग । जनि-- 
एसा । भुजइत चाई --भोगना ही चाहिये। १८० -भंज्ज--भोगता हे ॥ 
/-“कै-->को न । २-मेछ - हुआ, ध्याया। ३ एकसरि-- अ्रकेली | 


ड--अनक़र-इ परे क्वा । पतिश्राय-विश्वास करता है । ५--हरि लय 
गेल--हरकर ले गये। अपवो-स्वर्य भी । ८5--आश्रोत  प्रावेगा 


र्ध्ध्‌ 


् 
कक कक 


( २०४ ) 
सजनी, के कह आओब मधाई । 
बिरदह - पयोधि पार किए पाप्मोब 
समर मन नहि. षतिआई ॥२॥ 
पएखन-तखने करि. दिवस गमाओलछ 
दिवस - दिवस करि. मासा। 


' सास सास करि. बरब गमाओल 
छोड़लू,. जीवन आसा ॥श॥| 
बरस-बरस. करि. सस्रय गमाओल् 
खोयलूं. कानुक आसे | 
हिसकर-किरण नलिनि बदि जारब 
कि करब साधब मासे॥६॥ 
-. अंकुर तपन-ताप जदि जारब 
कि करब बारिद मेहे। 
इह नव जोबन. त्रिरइ गमाओब 
कि करब से पिया गेहे॥ण॥। 
भवन्तइ विद्याति सुत्ु बर ब्ौबति 
अब नहि होह निराघ्ने । 
से त्रजनन्दन हृदय अननन्‍न्रन 
' ऋटित मिल्तत्र तुअ पासे ॥१०॥ 
१--प्राश्नोब् -- श्रावग २-प्रयोधि">पसुद्र | २-एखन-तखद ८८ 
यह क्षण, वह क्षण | --बोण्ल-भुला ज्यिा । कानुक-- कृष्ण का। 
<६--हिस उर--चस्द्रमा । चलिति-रुूसलितों । जारब८- जलायेगा | 


ब्द्छ 


है| 7 


विद्यापति 
*७89 6७२, 
( २०४ ) 


अंकुर तपन-ताप जारब 
कि करब बारिद 'मेह 

ई नव जौबन बिरह गमाओब 
कि करब से पिया गेह ॥र॥ 

हरि हरि के इह दब दुरासा। 

सिन्धु निकट जदि कंठ सुखाएब 
के दुर करब यासा॥छ्ा 

चंदन तर जब सौरभ छोड़ब 
ससधर  बरिखबव . आगि। 

चिन्ताभनि जब निज गुन छोड़ब 
की मोर करम अभापि ॥॥ 

साओन माह घन-बिन्दु मल बरिखब , 
सुरतद वॉक कि छोदे। 

शिरिधर सेवि ठस नहि पाएव 
विद्यापति रहु धाँदे ॥८॥ 


क्षि-्वया । साथद मास + वेज्ञाख [ बसंत |। . ७--तपव ताव-८ सूये 
की ज्छाला ।९--होह - होझो | ऋाटित- शीघ्र | 


रे-फैं ++ छोत । ४-दुर करवद-दूर करेगा । ५-सौरभ -- सुगंध । 
टएसघर-चन्द्रमा । चरिघथ-वर्षा करेगा | ६-+वचितामनिम-वह मरि, 
जिससे जो कुछ माँगे, दे दे | ७--घद बिन्दु > सेघ को बूँद | छुरतरु८ 
जपदुक्ष | पन-वन्ध्या । कि छदि- किस प्रकार] ८--सेथि-- देवा“ 


ह। 


श्र । दाम ८ जगह | घदि--संदेह । 


जि 


न्ट्प 


व्र्हि 


(७-47 ”६-#७2 
( २०६ ) 
चानन भेल बिषम सर रे 
भूषन सेल भारी । 


सपनहूं हरि नहि आएल्न रे 
गोकुत॒ गिरिषारी ॥२॥ 
एकसरि ठाढ़ि कदमन्तर रे 
पथ देछि मुरारी | 
हरि विनु हृदय दगध सेल्न रे 
कासर भेल सारी ॥४॥ 
जाह जाह तोंहे ऊचो हे 
तोंहे मधघुपुर जाहे। 
चन्द्रबद न नहि. जीबति रे 
बघ लागत काडे ॥६॥ 
भ्रनइ बविद्यापति तन सत्न रे 
सुतु गुनसति सारी। 
आज -जाश्रोत हरि गोकुल्न रे 
पथ चल्ु कद मारी ॥८॥ 


सनम 





१-“चादन--चरदव | विषम--कठोप + सरज"-वाण । भादी>"शार- 
स्वरूप -। ३--एकस्नरि--श्रकेले | एथ हेरथि-राह देख रही है। ४०-+ 
दाघ-दग्घ, जला हुआ । भ्ामरण-सलिन न ५-जाह--जाश्रों । 
संधुपुर-मथुरा | ६--जीबति>- जीफेगी । बघ ८ हत्या | काहे-फिसे | 
छ+ भाट-भारी-भठकर, शीकत्र-शींक्र | ' 
२६६, 


बिद्यापति 
(7, ८४२७५, 


( २०७ ) 
बिपत अपत तर पाओल रे 
पुन॒ नब नव पात । 
बिरद्िन-नयन विह॒ल्न बिहि रे 
अबिरल बरिस्रात ॥ २॥ 
सखि अंतर बिरहानत्न रे 
नित बादल जाय | 
बिनु हरि लख उपचारहु रे 
हिचय दुख न मिटाय ॥ ४ ॥ 
पिय पिय रटए पपिहरा रे 
हिय दुख उपजाब | 
कुदिना द्वित जन अनहित रे 
थिक जगत सोभाब ॥ ६॥ 
भनतई बिद्यार्प्ति गाओल्न रे 
दुख मेटल तोर । 
हर्राघ्त चिढ्र तोहि भेटत रे 
पिय. ननन्‍्दकिसोर ॥८॥ 
.. ३--विपत्ति-हपी पत्रहीन वक्ष ने प्रुन/[वर्षा आमे पर | नये-नये 
पत्ते प्राप्त किये। २--बिहल + विधान किया, बनाया, पैठा दिया । 
बिहि-- ब्रह्मा । अश्रबिरल>- लगातार, निरन्तर | ३--अ्ंतर--भीतर, 
हृदय में ॥ बिशनहल-बिरह-झूबवो अग्ति । ४--लख-लाख | उपचार८ 
उपाय । ६--कदिना-कुदिस आने पर। अ्रनहित ८ शत्रु । सोभाव -- 
स्वभाव | थिकलहे । ७--सेटत>मिटेगा | 
२७० 


बिरह्‌ 


५:5९. ८6" ५» 


( २०८ ) 


सोर पिया सखि गशेक्ष दुर देस। 
जोबन दए गेल साल सनेस ॥ १॥। 
सास अषाह उनत नव मेघ। 
पिया विसलेख रहओं निरथेघ ॥। 
कोन पुरुष सत्ति कोन, से देस। 
करव मोय तहाँ जोगिनी भेस ॥ २ ॥। 
साओझोन मास्त बरस्ति घन बारि। 
पंथ न सके निसि अँधिआरि॥ 
चोदिसखि देख्एणि विजुरी रेह। 
से सखि कामिनि जीवन संदेह ॥ ३॥ 
भादव मास वरसि घन घोर। 
समदिसि छुहुकय दादुक्ष सोर॥ 
चेहुँकि चेहुँकि पिया कोर समाय | । 
गुनश्नत्ति सूतलि अंक लगाय ॥ ४ ॥ 
असिन मास आस घर चीत। 
नाह मनिकारुन न भेल्लाह हीत ॥ 
सर-बर खेक्नणए चकबा हास। 
बिरहिन बेरि भेज्न आसिन मास ॥ ५॥ 


१--- साल -- काँटा | सनेस -- भें 585 २--उनत - उन्नत, चढ़ता 


हुआ । बिसलेख -: विदलेष, घियोग + रहश्रो -- रहती हूँ। निरथेघ-८- 
विरवलमस्ब । से-चहु 4 ४--दाढुल ब- मेढक । कोर ८ गोद | सुतलि& 
सोई। श्रंक- हृदय | ५--निकारुत -- निष्करएा | भेलाह-- हुआ | 
६--दिगन्वर -- दूर देश | बास- रहया | सुखराति>- दीवाली को 


४ ७१ 


| 


विद्यापति 
बज 


कातिक कंत दिगगतर . बाख। 

पिय-पथ हेस्द्वेरि भेलहू निरास।॥ , | 

सुख सुखराति सबहु का भेल। '। 

हमे दुखसाल सोआसि दथ गेल ॥ ६॥ 
अगहेन॑ सास जीब के आअंत। ' 
अबहुन आंयल् निरदृए कंत ॥ 
एकसरि हम धनि घृतओं जागि। 
नाइक आश्रोत खाएत मोहि भांगि। ७! 

पूस खीन दिन दीघरि राति। 

पिया परदेस सलिन भेल काँति।॥ 

देरओं चौदिष मँखओं रोय हा 

नाह जिछोह काहु,जन होय ॥८॥ 
साध “मास घन पड़ए तुसार | 
मिलमिल! केचुआँ उन्तत थन हर | ४ ह 
पुनमति सूतरल्ति पियतम कोर । 
विधि वस्त दैव वास सेल मोर ॥ ६ ॥ है 








रात | सोश्रासि-स्थामों । ७--सुतश्रों जागि-- जमकर सोतो 

हैं । जब मजे आग खा -जायगी--जब से दिरह-ज्वाला से मर 

जाऊँगी, तब प्रीतम व्यर्थ श्रायेगें ।॥ ८--दीघरि- दीघे, बड़ी । 

आखओं -भोखतोी  ' हूं । तृपरार--वर्फ । क्िलिमिल -- बीरीरू चोली 

में उभढ़ हुए छूच है जिनके ऊपर हार है। बाम सेल --विमुख हुआ 
5७४ 


विरह 


“862 ७-७४? 
फागुत मास घनि जीव उचाट। 
विरह-विखिन सेल हेरश्रां बाट॥ 
थायल मत्त ,पिक पंचस गावब। 
से सुनि कामिनि जीवहु सताब ॥१०।॥। 


चैेत चतुरपन पिय परबास | 
साली जाने कुसुम विक्राख॥ 
भमिन्समि भसरा करे सधुपान। 
नागर भई पहु भेज प्रक्षयात ॥११॥ 


वेसाख तवे खरे मरन समान | 

कामिनि कत हनय  पंचवान || 

नहिं जुढ़ि छाहरि नवरसि बारि। 

हम जे अभागिनि पापिदति नारि॥१२॥ 
जेठ मास ऊजर नव रंग । 
कंत चहए खझलु कामिनि-संग ॥ 
रूपनरायण पूरथु आस | 
भनई विद्यापति बारद्द सास॥१३॥ 





१०--धति जोब उवाट"-बाला का जी उजठ गया | ३ न -< 
विक्षोए, भ्रत्यन्त कृश | पिक-भोयल | से-बहु । धताव->प्तताता है । 


१२१--परवास - प्रदास-विदेश में । कुसुछ बिछास-फूच फा खिलना ॥ 
भमसिजजमए। क्र भधराज-भौर।॥ तागरूजचतुर। पहुन्प्रोतम | « 


१२--तबे--तब जाता हूं, गरस हो उछ्ता हैं। खर-तोक्ष्ण । जुड़ि८ 
ढा | छाहरि-बाया। वरिस--त्ररसता है । बारि-पानी | १३-- 


कजर नवरंगरहूये रंग उजड़ गये ६ खलु-निदथय |, प्रथु- पुरा छरो 


२७३ 


विद्यापति 


८०७. ८७०२७, 


( २०९ ) 


माधव देखलि: बवियागिनि वामे । 
ऊघर न हाखस विज्ञास सद्थी संग!) 
अद्दोनिस जप तुश्म नामे ॥२॥ 


आनन सरद - सुधाकर सम तसु 
बोलइ मधुर धुनि वानी 
कोसल . अरुन कपल कुम्दिलायल 
देखि सन अइलहेँ जानी।छ्ा। 
हृद्यक हर भार भेल सबदननि 
नयन न होय निरोधे। 
सखि सब आ»ए खेलाओ न रंग करि 
तल सन किछुओ न बोधे ॥६&॥ 
रगड़ज़् चानन . सृगमद्‌ कुकुस 
सभ तेजलि तुश्न लागी। 
जनि जलहीन .सीस जक फिरइछ 
अहोनिस रहइछ ज्ञागी था 
दूति उपदेस सुन, गुनि सुमिरल 
लइखन चल्नत्मला घाई। 
सोदवतीपति राघवस्चिंह. गति 
कांब विद्यापति गाई॥१ना। अब 3 मिलयआ कि. 204१ 0/0, 5 7 


२--तसु--उसका । ४--आुम्हिलायल-सुरका गया। प्रहलहुं--में 
शाई। ६--निशेधे--घंद | ७--श्गड़ल-घिसा | चानन -- छ्दत। 
पहयमद ७ कस्त्री | कुंकुम-केदर । ८--जरू-समान | फिरइछ८८ 
रछ 


त्रिरह्‌ 
<#- <८#-5%- 


(२१० ) ५ 
लोचन नीर तठटनि निरमाने | 
करए कंक्षामुख तथिहि सनाने ॥१२॥ 

 सरस सनाज्न करइ जपमाली। 
अहोनिस जप हरिनाम तोहारो ॥४॥ 
बुन्द! बन कान्‍्हु धनि तप करई। 
'हृदय-्बेदि. सदनानल , बरई ।॥।६॥ 
जिब क्र ससिध समर कर आगी । 
करति होम बध होएबह भायो ॥८॥ 
रु चिकुर बराहि रे समरि कर लेआई । 
फ्ल उपहार पयोधर देझई ॥१०॥ 
भनई बिद्यापति सुनह मुरारी। । 
प तुअ पथ हेगइत अछि बर नारी ॥१२॥ 





दन्ास>थाउ८ ८ आरा ४७७७७७ बनाया ७4२ रू जब 


फिरतो है । ६--तइखन ८- उसी क्षण । 

१, २-श्राँखों के भ्राँसुश्रों से नदी का निर्माए कर वह चन्द्रवदनी 
उठी में स्नान करतो हैँ । ३- मनाल>मएाल८कल-ताल । करइ<- 
बनाती है। जपमालो-जपमाधा, सुमरनी ॥ ६--ह॒द्य-रूपी बेदी, पर 
काप्न को प्रक्षि घधक्क रहो है । ७, ८-घपने प्राश्ों को समिध ( श्रग्निहोत्र 
की लकड़ी ) बनाकर झौर स्मरणा को -प्ररणी ( श्रागो> जिससे श्राग 
निकले, धरण्री ) करके वह होम फर रहो है, तुप इख्क्री ह॒त्या के 
भागी बनोये। ६-चिकुर -फेदशा | वबरहि८ बहीं, कुआ। समरि८- 
सेंमलकर १०--पयोधर -- फ्रुछ । प्रदछिजहे । 


'विद्यापति 
“७: ७७, 


न ( ३१११ ) 
अकामसिक मन्दिर भेज्नि बहार । 
चहुँदिस.. सुनलक् भमर-सुंकार ॥२॥ 
सुरुछ खसल् महि न रइलि थीर । 
न चेतए चिक्॒र न चेतर चीर।॥श॥। 
केओ सखि वेनि घुन केओ धुरि भार। 
फेप्मो चानन अरगज्ञओं सेंभार ॥६॥ - 
केओ बोलमंत्र कान तर जोलि।* 
केभो कोकित खद डाकिनि बोलि ॥८॥। 
अरे घरे अरे कान्हु की रभसि बोरि। 
मदन-आुर्जेग डसु बालाह तोरि ॥१०॥ 
भन३ विद्यांपति एशे रस भान। 
एहि बिष गारुड़ि पज--_---_. /रुड़ि एक पए कान ॥!श॥ 
(-“मकाधिक्ष- भ्रकस्मात्‌ | पेलि बहार-- बाहर हुई। २-- 
भमरर-भेंरा । ३ खसल -- गिर पड़ी थीर"स्थिरता (5 «के ललक 
चेतए-सेभालती है । चिक्ुर-फेश | चीर”>-पाड़ी। ए--फ्रेश्नो 
>कोई। वेनि घुबर>वेणी यूथ है. वेशी से भलती है | धूरि ऋार 
लहल झाइती ह। ६-. “अरगजप्रों>कस्तुरेी श्रादि के लेप से । 
संभार -- सँभालती है | ७-- कान तर- कान के निकट । जोलि - जोर 
से | ८--खेंद -- खदेड़ती है। &€--कि रभसि बोरि -- वय/ रभस-कर 
बोल रहे ही ? ९०- -उप्हारी प्रेमिका को ( बालहि ) कामदेव रुपी सर्प 


ते काद लिया हैं। १२-एक कृष्णा ही इस बिष के लिये गारुड़ी ( विष 
चनारनेवाला ) हे। 


र७द्‌ 


विरह 
“७ »> ०.७० - 
( २६२) 


- साधब, कठिन हृदय परबासी | 
तुझे पेअसि मोयें देखल् बियोगिनि 
अबहु पतह्चटि. घर॒ जासी॥ २॥ 
हिमकर हेरि अवनत कर आनन 
करू करुता पथ हेरी। 
». नयन काजर लए लिखए बिधुन्तुद 
भय... रह ताहेरि सेरी॥ ४ ॥ 
दुखिन पवन बह से कइसे जुबति सह 
कर॒ कबलित तनु अगे। 
गेल परान आल दृण राखए 
दस नख लिखए भ्रुजंगे॥ ६॥ 
मीनकेतन भय सिव॒ सिद सिव क्य 
घरतनि ;। ल्ोटाबए-. देहा। 
करे रे कमज्ञ लए कुच सिरिफल दए 
सिच पूजए निन्न गेहा॥5८॥ 
परक्षत के डर पायसर लए कद 
बायस. निकट. पुकारे। 
राजा सिवर्सिध रूपनारायन 
बरथु. विरद्. उपचारे॥१०॥ 


र्क 
लि सफर जज कक मलिक लक मल जज ता ाअबपु53- जरा ॥ कर ++२+४७७७#७७४७&/## ७७ 


१--परवासो-्य्परवासो, घिदेश में सहनेधाला। २७-पे भ्रसि ८८ 
प्रेयली, प्रेमिका » जाधी>जाओ। ३०--हिनक्ृर--चन्नसा | श्रवरत 
ञतीचे | बिल्धुस्तुद-राहु । ताहेरि सेरीज्डसी छो शारए सें। 

र्ष्ड 


विद्यापत्ति 
<&"<5७.. *&-७> 
६ २१३ ) 


कुसुमित कानन हेरि कम लमुखि 
मूदि रद्ए हु नयान। 
कोकिल कल्लरव मधुरर धनि सुनि 
कर देह माँपह कान ॥ २॥ 
माधव, सुन सुन वचन हमारा । 
उग्म शुनसुन्दरि अति भेतल् दूबरि 
गुनि गुनि प्रेस तोह्दारा ॥ 9॥ 
धरनी घरि धनि कत वेरि वइसइ 
हि तहि उठइ न पारा। 
'बंतर दठ करे चौदिस हेटि हेरि 
नयन गरए जन्नधारा॥ 8॥ 
तोहर बिरह दिन छन छन तनु छिन 
चोदिस चंद समान। 
भनइ विद्यापति सिवर्सिंह नरपति 
लखिसमा देइ रमसानव ॥८॥ 


-ाकेवल्लित-प्रस्त, खा जाना । ६गेल-्गया हुआ । भुजंगेस्ट 
सर्य ( सप दायु को खा जायगा, यह समरभकर ) | ७-सोनकेतन-- 
फासदेव । <--कते रे रूफल लए--हाथ रूपी कमल ले कर | घपिरिफल 
च्वारियल। . ६- परमत- कोयल | पायस » खौर |. वायस 
ज्कीश्रा । १ ०--क्रण -- करें | उपचारे- स्पाय । 


१-कऊुंसघुमित कावन -- खिला हुआ बच | २-मछकर - भौंरा | ५- 
पृथ्वी पकड़कर बह बोखा कई बार बैठ जाती है क्लौर पुन: 
र्ज्८ 


विरह 


( २ १ छ ) <&0०, '७-७7 


सरदरू ससधर सुखरुधि सॉपलक 
हरिन के लोचन लीला । 
केसपास ज््णए चमरि के सॉपल% 
पाए सनोभव॒ पीज्ञा ॥२॥ 
माघब, जानल न जीबति राही । 
जतया जकर लेले छल्लि सुन्दारि 
से सब्र सों पलक ताही॥ ४ | 
द्सन-दसा दाल्िम के सॉ५लकऋ 
बन्धु अधर रुचि देली | 
देह-दपा सोौदासिनि सॉपलक 
काजर सन सखि भत्नी ॥ ६ ॥ 
भोंदके-संग. अनंग-चाप दिहु 
कोकिल के दिहु बांनी । 
केबत्त वेह नेह अछ लओतले 
एतबत्रा अएल्हु जप्नी ॥८॥ 
भनइ बिद्यापति सुन चर जोबति 
चित मेंखह जनु श्ाने ! 
राजा मिवर्सिध खरूपनारायन 
लखिसा देह रमाने ॥१०॥ 





( चेष्टा करते पर ) उठ नहों सकती। ७--दिनस्जा शैब्र, असहाद । 
चौदिस-चतुर्देशी । 

१--पएसधरज॑|चन्द्रभा मखरुधघि>मक की शोभा। सोंपलफ-- 
सम्पेएा किया । ६--घमरि ८ बह गाय जिसकी दुम का चेंबर होता है। 


९७९ 


विद्यापति 
<७५७- ८७58५, ह 
(२१४ ) 


आएल उन्तमद समय धसंत। 
दारुन सदन निदारन कंत ॥टेक। 
ऋतुराज आज बिराज हे सखि 
नांगरि जन वंदिते। 
नव रंग नव दत्त देखि उपवन 
सहज सोभित कुछुमिते । 
आरे, कुसुभित कानन कोकिसत साद । 
मुनिहुुक मानस उपजु विखाद ॥ १॥ : 
" अति मत्त मघुकर मधुर रव कर 
मालती  मधु-लंचिते | 
समय कंत उदत नहिं किछु 
हमहि विधि-बस-बंचिते || 
बंचित नागर सेह संसार। 
एहि रितुपतिसी न करए बिहार ॥२॥ 


4 





सनोभद ८ कामदेख । पीला--पीड़ ) ४-+ जतबा-जितना । _जद्वरस 
जिसक्ता | लेले छुलि-लियें हुए थी। ५- दालिभणदाड़िमन-श्रनार | ' 
वच्चु-बच्घुली फूछ । सोदाधितिःविजली |... सब्िरः समान | 
७-पधमगवाप दिहु-- फासदेव के धनुष को दिया। ८प-प्रधनह। 
एतथा ८ इतना । ६--भेंखह--भोखना | 

२१--उनमद८उन्मत्त, पागल । दासन>क््ठिंद ) निदास्नल: 
कस्शाहीन । नागरी जत वंडिते-वनागरी स्थ्रियों हारा -पुजित 
नव--ववीन | दल >पत्ता । कुचुमित ८ छिले हुए। कानन -८ बच + 

र्ण० 


। विरह 
“&# “७7 
अति हार भार मनोज ' मारए 
चंद रधि सन भानए । 
पुरुव॒ पाप खंताप जत हो 
मन सनोभव जानए ॥ 
जारए सनप्तिज मार सर खाधि। 
चानन देह चोगुन हो धाधि ॥ ३॥ 
सब घाधि आधि वेआधि जाइति 
करिए घेरंज कामितली । 
सुपहु मन्दिर तुरित आओत 
सुफल जाइति जामिनी ॥ 
जामिनि सुफल॑ जाइत अवखान | 
घेरज धरु विद्यापति भान ॥४॥ 





धघाद -- ध्वनि । बिषाद ८ बविधाद, दुश्ख | २--भधुकर ८: भोरा | रच 
श्रावाज | उदंतन्वार्ता। सेहज-वही », ऋतुपतिसों-ब्ंत में। 
३--मनोज--काधदेव | छंद रधि सनि भानए"चन्द्रमा ओर सर्य 
के समन सालूम होता है। जतनजितना। सनप्लिज--कामदेव | 
मार ०सारता है। चाननन्चन्दतन। घाषि८>ज्वाला | ४-- 
प्राधि देश्राधि-स््ञोक्त श्लौर पीड़ा । जाहइति -जायगी।  घुफ्हुु 
सुप्रभु, प्तारे प्रीतम । आओरत -- जावेगा । जासिनि -+ रात । अघसास -- 
ग्रन्त । भान -- कहते हे । 


'ससृतिमपि ने ते यान्ति क्ष्मापा विनानुप्रहम्‌ । 
प्रकृतिघतते. फुर्मस्तस्से नमः कबविकर्मणों |” 
2 रठ ९ 


/वद्यापति 


“४ ७) 


( २१६ ) 


साधव, कत परबोधव राधा। 
ह। हरि हा हरि कहतहि बेरि बेरि 
अब जिड करब समाधा ॥ २॥ 
धरनि धरिये धनि जतनद्िि बइसइ 
पुनद्धि उठए ऋहिं पारा। 
सःरजहि विरहिन जग महँ तापिनि 
बोरि मदन-सर-घारा ॥ ४ ॥ 
अरुत-दयन-तोर तीतत्न कन्नेबर 
बिलुलित दीघल केसा । 
पन्दिर बाहिर करइत संसय 
सहचरि गनतहि खस्रेषा | ६ || 
आति नलिनि केश्ो रमनि सुताओलि 
ओ देइ मुख पर नीरे। 
नसबद पेसि केओ साँस निहारणए 
केश्ो देह मंद समीरे ॥८ ॥ 
'के कहव खेद भेद जलि अन्तर , 
पत घन उतयत्त सॉँम। 
भत्त३ बविद्यापति सेहो कल्नावति 
जीच वंघत्न आख-पास ॥१ ०] 





पसपाधा-समाप्त | ३---५इसइ -- बैठती हैं। ५०-वोर-5 
श्रॉँसु | तीतल -- भोंगा हुआ । ६-पैपा--अंत, मत्यु । ७--बघुताओ्रोलि ५८ 
घुलाई | २-उत्तततत - उत्तप्त, गर्म | १० “>आस-पास-आरझशा के बंधन सें । 
श्दर२ 


विरह 
“७०४७? 
( २१७ ) 
अतनुखन समाधघब माधव सुमरत 
सुन्दरि. भेलि मधाई। 
आओ निज भाव सुभावहदि विसरल 
अपने गुन लुबुधाई ॥२॥ 
साधत; अपरुष तोहर सिनेह। 
अपने बिरह अपन ततु जरजर 
जिबइत सेल संदेह ॥४॥ 
भोरहि सहचरि कातर दिठि हेरि 
छल-छज्न तलोचन  पानि । 
अनुखन राधा राधा रठइत 
आधा, आवा बानि ॥॥॥ 
शाधा सर्य जब पुनतदि माधब 
साधन _ सर्य जब राधा ! 
दारुन प्रम तबहि नहिं टूठत 
बादतः, बिरहके बाधा ॥5॥ 
दुहुदिसि दारु-दहन जेसखे दगधई 
आकुल्ल कोट परान ४ 
ऐसन बल्लभ हेरि सुधामुखि 
कवि बिद्यापति मान ॥११॥ | 
इस पद्म में प्रम की पराकह्षष्ठा हो गई है | राधा पिरहवश, प्रेस 
में तल्‍लीब हो, श्रपने ही को कृष्ण सममझ लेती ह' और राघा-राघा 
घिललाने लगती है । पुर. जब होश में श्राती हे, तब छष्णा के लिखे 
ब्‌८३्‌ 


विद्यापति 
७७ ८४ 
( कृष्ण का विरह ) 
( २१८ ) 
रासा हे, से किए बिसरल जाई। 
कर धरि साथुर अनुमति मंगशत 
ततहि. परल मुरुछाई ॥२॥ 
किल्नू गदगद सरे लहु-लहु आखरे 
जे किछु कहते बर रामा | 
कठिन कल्लेबर तेद चलि आओल 
चित्त रहल्लि सोइ ठामा ॥8४॥ 
से बिनु राति दिबस नद्ठटि भावण 
ताहि. रहल मन लागी। 
झान रमनि सर्यँ राज सम्पद मोय 
आहछिए जइसे बिरागी' ॥ इत . 
डुइ एक दिवस निचय धहस जाओव 
तुहु परवोधब राई ; 
बिद्या्पति कह चित्र रहल नहीं 
प्रभ मिल्लाएन. जाई ॥5॥ 
व्याकुल हो उठतो हुँ । यों दोनों अव्याप्ो में मर्म-व्यथा सहुतो है | 
| १-रशामास्सुन्दरयी ( सखि )। सेज-वह | किए-क्यों। 
विसरल >भूलना । रे-ररेनस्थर से । लहु लह आाखरेमन _ 
मधुर शब्दों सें | जे विद्चुल्जो कुछ । ४--तेई +उस्तीसे । ५-- 
सेन्चहू ( राधा ।६-श्रान्स्श्रन्य । आदिए-हूँ । ७--चिथय ८ 
निदचय | ८++तरहिं-धह, । 
श्घ्छे 


विरह 
५ <#७. ८४%, 
(२१६ ) 
तिल एक सयन ओत जिउड न सहए 
न रहए दुह्ठु तनु भीन । 
माँफे पुल्क गिरि अंतर मानिए 
अइसन रहू निसि-दीन ॥ २ || 
सजनी कोन परि जीबए कान । 
राहि रहल दुर हम मथुरापुर 
' एतहु सहए परान ॥ ७॥। 
अपन्‍्सन नगर अइसन नव नागरि 
अइसन सम्पद मोर । 
राधा बिनु सब बाधा मानिए 
नयनन तेजिए नोर॥ ६॥ 
सोइ जमुना जल सोशह़ रमनीगन 
सुनइत चमकित चीव!। 
कह कबिसेखर अनुभवि जननलों 
.  बड़क बड़ह पिरीत ॥ ८॥ 





१--लिल एक-एक क्षए। के लिये भो । श्रोत-प्रोठ । भीन ८ 
लिल्‍त । साँखें-सध्य में । २--मिलस के सपय रोमांच हो जाने से 
मिलने में किन्नित्‌ वास-पात्र का व्याघात हो जाता था, श्रतएवं, रोमांच 

 हम्रलोगों को पहाड़ के समान सालूस पड़ता था, इस प्रकार हम दिन- 

| शत मिले हुएयें। ३--कफोच परि-किस प्रकाश | पे-+ 
छटटसनूऐसा । ६--तोरजश्रॉस । ६--अ्रजुभवि-प्रतुभव करके । 
जनलों <<जान गया 


श्णश्‌ 


भावोल्लास 


भावोल्लास ' 
<#" ४2४9 
( २२० ) 
सरख बसंत समय भल पाओरोलि 
दछिन पवन बहू धीरे। 
सपनहु रूप बचन एक भादसिए 
मुख सरों दुरि 6 रु चीरे ॥२॥ 
तोहर बदन सम चान होअधि नहिं 
जहइओ जतन,. बिहि देला | 
कए बेरि काटि बनाओल नव॒ कय 


तदश्झो तुलित नहि भेला ॥शे।॥ ' 
लोचन-तूल कमल नहिं' भए सक 
से जग के नहि जाने। * 
से फरि जाए लुकाएन जल भए 
पंकज निज अपमाने ॥६॥)  ' 
भतहि बिद्यापति सुत्ु बर 'जौबति 
ई सभ लछम।ः समाने | 
राजा खिवसिघ झूपनरायन * 
लखिभा देइ पति भाने ॥5॥ 


चे 


१--शश्नोलिझ+पाथा | २--रूप्त से एक आदमी ने _ श्राकर 
कहा-- धरी, मुख से अंचल हटाश्यो+ ३--बदन +- मुख । घानय 
चन्द्रमा । जदश्रो>प्रद्यपि । बिहिल्‍्विधाता ॥ ४--कए- कितने | 
कप- काया, शरीर । तइश्नो-तो भी | तुलित>पुल्य,, समान । ४५-- 
तुष-तुल्य | भए सक - हो सकता | लुकाएल-छिपगया । जल भए८- 
जल श। पंकज-कुसल । ई सम८पह सब । ह 


विद्यापति 
५०७ (४, 
( २२१ ) 


सुतज्न छल्हुँ हम पघरवा रे 
' गरबा मोतिहार | 

रात जखनि भिनुसरवा रे 
पिया आएल हमार ॥शभा। 

कर कौध्त् कर ' कपहत रे 
इरणा उर दार। 

कर-पंकन॒ उर थपइत रे 
सुख-चंद निहार ॥४॥ 

केहनि अभागल्लि बेरिनि रे 
भागलि मोर निन्‍द। 

भत्न कए नहिं देखि पाओल् रे 
गुनमय गा।थिन्द - ॥६॥॥ 

विद्यापतिं' कब गाओश्ोल्न रे 
धनि सन धरु घीर। 

संमप - पाए तब्बर फर रे 


कतबो का या 5 20 /£4:5। अमन नीर ॥५॥ 
(--सुधक्षि छक्कह--पघोई थो । गरबाजलले में २--जखति-- 


जिस समय ; भिज्ञुसरधा--भोर, उधःकाल । ब्राएल-प्राया | 

२--चतुराई करते हुए काँपते हाथ से हृदय का हर हटाया । 

४०-कर-पंश्ज कमब रूपी हाथ | थपहत-स्वाब्ति करते, घरते ॥ 

छाती पर हाथ देकर भुंह देखने लगे | ४--फैहानि-कंसी | 

भमागति- प्रमागिनी । ६-०-भल्र क९-श्रच्छी तरह ८--फर -- 
२६० 


भावोल्क्षास, 
न 2 4-52 
( २२४ ) 
सोरा रे ऑगनसा चनन केरि गछिआ 
ताहि चढ़ि कुरुएय काग रे! 
सोने चोंच बाँध देव तोयं बायस 
जओं पिया आओत आज रे ॥२॥ 
गाबह  सखखि सब फुमर ल्लोरी 
सयन-अराधत जाओ रे 
चओदिस  चम्पा मओली फूज्ञलि 
खान इजोशिया शरति रे। 
कइम्े कए ' सोर्य. सयन अराधव 
होर्शत बढ रखिं साति रे ॥५॥ 
बिद्यापति कंबि. गाव तोहदर 
पहु. अछ शुनक निधान रे 


राओझे भोगीसर सब शुत्त ओआगए 
पदमा देह रसान रे ॥ण। 


किक न मय नल कक आप न 
फलता है ' कतबो सिच्ु 'नीर -- कितना भी पानी पढाश्रो । 

१--अंगनसा> ध्रॉगन में । खनन. फेरिचन्द्तः का । 
गछिपा +-ब्ृक्ष |. ऊरुरए + बोल रश्हा है। २--सोने--स्वएं से | 
तोयें--तु *ैे । बायस >+काग । ३--माबह ८ गाप्नो मयत अराधन 
कामदेव को झराधता करते । ४-मश्नोली ८: मट्लिका । चानन्‍्-चन्द्रमा । 
इकोरिया-- चाँवनी । कदइसे कएन्फिस भकार। होइत घन 
होयगी । रति-घातति राति जनित पीड़ा । ६--४ह + प्रीतम । झदनहे । 
७--श्मानरूपति । 

२६१ 


विद्यापति 

' (२२३ ) 

अंगने आभोब जब रिया | 

पत्नटि चत्नन हम इपन हँसिया ॥१५॥ 
रपस-नागरि रमनी । 

कत के जुगति मनदि अनुमानों॥छ। 

आवेसे आँचर पिया धरवे १ 

जाएव हम ने जतन बहु करवे। 
कंचुआ धरव जब हठिया। 

करे कर बाँधव कुटिल आ।ध दिठिया ॥|-॥ 
रभस माँगब पिच जबही। 

सुख मोढ़ि विहँस्ति'बोलब नहि नहिं ॥१०॥ 
सहजदि सुपुरुख 'भमरा | 


उस कम्लऊ मधु पौअच हमरा ॥१२॥| 
तखन हरब भोर गेश्ाने | 


विद्यापति कह धत्नि हाफ. नि तुआ चेआने-॥१ घेआने : ॥१४॥ 
बोड़बोड | में! . ग्रग्लेबलआयक। २ 


१-- इंषत << 
४ ही | ३--रस नागरि- रस मे चुरा, घुरसिका | ४-- कत -- 


कितनी । जुगतिल्युवित | #--अावेसे-प्रावेश में, उत्तनित 
होहर | ६--.वे बहुत यह्व करे गे, किन्तु में न जाऊंगी। ७--- 
केच्ओा ८ केंचकी, चोली | हठिया5हठकर | ८--( अपने ) 


वितवन से , देखूँगी। +रभस-रति-क्रोड़ा बिह॒सि-- 
हैंसकर  । ११--भमरा-भौरा | पीश्रव-पोयेगा । 
२९२ है 


भावोल्लास 
। ७2“ ७:७- १०-20 


' ( २२४ ) 
पिया ऊउ्ब आओब इ मु गेहे। 
मंगल जतहु करब निज देद्दे ॥२॥ 
कनथञअ कुम्भ करे कुच जुग राखि। 
द्रपन धरब काजर देह आँखि ॥ ४॥ 
बेदि बनाओब हम अपन अंकमे। 
. भाड़ करब ताहे चिकुर ह बिछीने || ६॥ 
कदलि रोपब हम गरुअ नितम्ब | 
आम पलल्‍लब ताहे किंकिन सुझूम्प ॥ ८ ॥ 


दिसि दिसि आनब कामिन्रि ठाढ। 
चौदिसि पसारब चाँदक हाट ॥१०॥ 
बिद्यापति कह पूरब आस । 
_ , दुइ एक पत्चक मिज्षब तुअ पास ॥ १२॥ 


१३--तंखन>उस समप ! ( काम-कीड़ा के समय )मेरा ज्ञान हर लेंगे। 
१--आ्राप्रोव८प्रावेगें  । इल्पह । सकुबण्मेरे । गेह८घर 
में $॥६ जितना मंगल करना होगा, अपने शरीर से फरझूँगो | 
३--क्नप्न-कुस्भ-सीते फ्े घड़े | कुच जुगनदोनों कुच | ४-- 
श्रांखों में कराजर लगाकर उसे दर्पण-रूप से घर्गीन्‍मेरी आंखो 
प्रीततत भ्रपना रूप देखेंगे । ५--वेदी--चौका । श्क्क मेंजगोदी। 
 ६--क्रेश को विच्छिले फर ( खोलकर ) उसमे फराड्‌ करूंगी | ७-- 
फदलि -- फेजा । गरुष-विशाल । सुभाम्पे-श्रान्दो लित,  शध्दित । 
६--श्रानब>लाऊँ गी । ठाट्-्समह। हाटनवानार (स्त्रियों के मुझ 
चन्द्रमा ही चन्द्रमा-ते दीख पड़ेग्रे । 9 





२५३१ 


विद्यापति 
*<&७ ८७४७, 
(२२४ ) 


ठुहुंक दुलह दुहु दरसन भेल। 
बिरह जनित दुख सब दुर गेल॥२॥ 


कर धरे बइसाओल बिचित्र आसन | 
रमन-रतन-याम रमनी-रतन ॥ ४ ॥ 
बहु विधि विल्खए बहु बिधि रंग। 
कप्रत्न मधुप जति पाओल्न संग॥ ६॥ 
५ नयनत 'नयन दुहु बन बयान । 
डंडे शुन दुहु गुन दुहुुजनन गान।॥ ८ || 
भनइ बिद्यापति नागरि भोर। 
त्रिभुवनविजयी नागर चोर || ० ॥ 
( २२६ ) 
चिर विन से विहि भेतल अनुकूल रे । 
डुह मुख हेरइत दुहु से आकुल्ल रे॥ २॥ 
वाह पश्चारिए दुहु दुहु घर रे। 
उड़े अधरामत दुहु मुख भरु रे॥ ४७॥ 
डुंह्ु_ तनुकाॉपइ सदन उछल रे । 
किन किन क्रिन ग्वरि किक्िनि रुचल रे।| 8॥| 
जाइनेहि स्मित नव बदन सिल्लल रे। 
डंडे पुलकावल्लि ते लहु॒ लहु रे ॥#८॥ 
समातल दुहु बसन खसल रे। 
बिद्यापति कल्प ७ अमिन्यु ब्क्षत रे ९०॥ उछलन रे १०॥ 
डुलह-इुलेम | बइसाप्नोल -- ब्विठलाया । भोर-बेसुध ।  स्मित> 
२६४ ३ 


मु 


भावोल्लास 
*छ०7 ६७: 


( २२७ ) 
सुठ॒ रसिया, 
अब न वजाझ विपिन बँसिया॥ २॥ 
वार बार चरनारबिंद गहि 
सदा रहव बस दसिया। 
कि छलहेँ कि होएब से के जाने .” 
बथा होएत कुल्त हंसिया ॥४॥ 
अनुभव ऐसन मदन--श्ुज॑गस 
हृदय मोर गेल डसिया। 
नंद-नन्दवन तुआ सरन न त्यागब 
वलु जग होए दुरजसिश्ञा ॥ ६॥ 
विद्यापति कद्द सुनु बनितामनि 
तोर मुख जीतल खसिआ | 
,.. घत्य धन्य तोर भाग गोआरिनि 
। हरि भजु हृदय हुलविआ ॥८॥ 
हँसते हुए । पुलकावलि--रोमाँच | मतश्-पत्त बता | खसल-"गिर पड़ा | 
१--रसिपश्ला & रसि६।  २--बेसिया>वंशी । ३--द्सिश्रा ८८ 
| --फिल्‍क्या | छलहु >-थी । होयब८होऊंगी, प्नूंगी | 
पे-पह बात। फ्रे-कौन । कुल हंँसिया८कुच को निन्‍्दा। 
४--ऐसन--इस प्रकार + सदत-भुजंग्म--हझामर रूपी सर्प । गेल डसिया 
प्डेंस गया, काठ गया ॥ ६--बलुःभदी ही, वरंच | दुर- 
जसिया --श्रपयश, कलंक । ७--अनितामनि-श्त्रियों मे रत्न समान । 
नजीवल-जीत लिवा । ससिग्नान्-वन्धमा | 
ब्‌९५ 


विद्यापति 
८७२०, 
( २२८ ) है 
सखि, कि, पुरछास अतुभव मोय | 
से हो पिरित अनुराग बखातिए 
तिल तिल्ल नूतन होय ॥ २॥ 


जनम अबधि हम रूप निहारल 
हे नंयन न॒ विरपित , भेत्न। 
सेहो मधु बोल सवनहि. सूुनत् 
सत्रति पथ परस न सेल ॥ ४॥ । 
कंत मधु-जामिनि श्मस मगमाओल 
न दृगतल कइसन केल्न ! 
: शाख लाख जुग हिय हिय राखल., 
इओ हिय जुड़ल न गेतल् ॥द्षा। 
कृत बिर्गथ जन रख अनुमोदई 
अतुभव काहु न पेख। 
बिद्यापति_ कह प्रान जुड़ाएत 
लाखे न मिल एक ।॥८ पा मा 22542 53 मिल 
(कि पुछसि-क्या पुद्धतो हो? सोय-- सुझ से। २-- 
से हो-वही। तिल. विल-- पतए-क्षण । निहा रल>देखा | 
४-7 खदनहिं-> कानो से। परस-- स्प्षं | ४--भधु-पासिति -< 
वर्सतंत की रात । रभस-काम-कोड़ा । गमाश्नील -- बिता दी। 
केल > केलि | तइप्रोनतो भी। जुड़ल न ग्रेल-व . - जुड़ाया, 
56 ने हुआ । ७-दिदगव-विदग्ध, रसिकल । रत अनुसोदई-रस का 
उपभोग करते हें | पेख-देख्वना | +--घाख में एक न मिला | 
२९६ ः 


प्रार्थना ओर नचारी 


प्राथना ओर नचारी 


<७७- ८४० %,“७४>ऋ- कक 
( २१२६ ) 
विदिता देबी बिदिता हो 
अविरल-केस सोहन्ती । 


एकानेक सहस को धारिनि 
जरि रंगा पुरनन्‍्ती ॥ २ ॥ 

ऋकजल रूप तुअ काली कहिए 
उजल रूप तुअ बानी। 

रविमंडल परचंडा कहिए 
गंगा कहिए पानी ॥ ४॥ 

च्रह्मा- घर त्रह्मगी कहिए 
हर-घर कहिए गोरी । 

-नारायन-धर कमला कहिए 
के जान उतपत तोरी ॥ ६॥ 

विद्यापति कविवर एहो गांशोल 
जाचक जन के गति। 

हासिनि देह पति गरुड़नरायन 
देवसिंध नरपति ॥ ८ ॥ 

( २३० ) 

'कनक-भूधर-शिखर_वासिनि 

चन्द्रिका चय चारु दासिनि 

दशन कोटि विकास, वंकिस- 

घुलित चन्द्रकल्ले | 

क्रढ्ू-- सुररिपु बलनिपातिनि 

महिष - शुम्भ-निशुम्भ-घातिनि 

भीत-भक्तमया पनोदस-- 
पाटल प्रबल || २ | 
ह २६६ 


विद्यापति 
(8४७, ८००» 


जय देवि दुर्ग दुरितितारिणी 
दुर्ग मारि विभदे हारिणि 
सक्ति नम्र सुरासुराधिप-- 
| . मंगलायतरे | 
गगन संडल गंभंगाहिनि 
समर-भूमिपु. सिहवाहिनी 
परसु-पाश-क्पाण-शायक-- 
शंख-चक्र-घरे ॥ ४॥ 
अष्ट भसेरतवि संग शालिनि 
सुकर ऋरृत्त कपाल कद्म्ब मालिनि 
दूचुज शोणित पिशित वड्ठित- 
' पारणा रभसे । 
संसारबंध-निदानमीचिति 
चन्द्र-भानु-ऋशानु-लोचन 
योगिनी गण गीत शोमित- 
नृत्यमूमि रसे ॥ ६ 
जगति पालन - जनन - सारण 
रूप काय सहख्लर कारण 
हरि विरचि महेश शेखर- 
चुम्ब्यमान पदे । 
सकल  पापकल्ा परिच्युति 
'खुकवि विद्यापति कृतस्तुति 
तोषिते शिवसिह  'भूपति 
कामना फलदे ॥ ८ ॥ 


अनबन 
अम्मा 


३9० 


प्राथना ओर नचारी 


*छ&-<२२“६०७४72“६:७*&*& 
(२३१ ) 
जय जय संकर जय जय त्रिपुरारि। 
जय अघ पुरुष जयति अध नारि॥२॥। 
ह आध धवल तनु आधा गोरा। 
आ्राध सहज कुच आध कटोरा ॥ ४॥ 
आध हड़साल आध गजमोतो। 
आवब चानन सोहे आध विभूती ॥ ६ ॥ 
आध चेतन मति आधा भोरा। 
आध पटोर आध मुँज डोरा॥5॥ 
आाध जोंग आध भोग बिलासा । 
आध पिघान आध संग वासा ॥१०॥ 
आध चान आध सिंदुर सोभा। 
आध विरूप आध जग लोभा ॥१२॥ 
भने कविरतन विधाता जाने। 
- हुई कए बॉटल एक पराने ॥(४॥ 
-( २१३२ ) 
'सत्न हर भत्न हरि भल्न तुअ कला | 
खन पित वसन खनहि बघछला ॥ *॥। 
खन पंचानन खन अुजचारि। 
खनन संकर खन देव शुणरि॥ ४ | 
। खनन गोकुल भए चराइअ गाय । 
खत -सभिखि साँगिए डसरु बजाय ॥ $६॥| 
/ खनन गोविद भए ल्त्श्रि महादान | 
खनहि भसम भर काँख वो कान | ८ ॥ 
३०१ 


'विद्यापति 

0“ 9 0] 
एक सरीर लेल दुइ बास। 
खन बेकुंठ खनहि. : कैल्ञास ॥१०॥ 


भनई बिद्यापति बिपरित बानि। 
ओ नारायण ओ सूलपानि॥ह 


( २३३ ) 
आगे साई एहन उम्रत बर लैल हिसगिरि 
देखि देखि त्गइछ रंग। 
एहन उसत बर घोड़बो न चढ़इक 
जो घोड़ रँग रँग जग | २॥ 
वाघक छाल जे बसहा पत्ानत्र 
सॉपक भीरल तंग। 
डिमसिक डिसिक जे डसरु बजाइन 
खटर खटर करु अंग || ४॥ 
भकर भकर जे भाग भ्रकोसथि 
छटर पटर करू गात्र। 
चानन सों अनुराग न थिकइन्‌ 
भसम चढ़ावथि भालत्त ॥६॥ 
भूत पिसाच अनेक * दल साजलः 
सिर सो बहि गेल गंग। 
-मभेनइ बिद्यापति सुनु ए मनाईनि 
थिकाह दिगिम्बर  अंय-। [5॥ 
( २३४ ) । 
बेरि बेरि अरे सिव मों तोय वोलों. 
करिआ मन साय | 
दे०र्‌ 


प्राथना ओर नचारी 
“कह? 


हि न * ७०२१? ६-७७? 
बिन संक रहह भीख माौगिए पए 
गुन गोरब दुर जाय ॥९॥ 
निरधन जन बोलि सब उपहासए 
कहें नहि. आदर अलुकम्पा । 
तोहें सिंव आक धतुर फुल पाओल 
५, दरि पाञ्मोल फुल चम्पा ॥४॥ 
खटेंग. काटि हर हर जे बनाबिअ 
त्रिसुल तोड़िय. करु फार। 
बसहा धुरन्धर हर लए जोतिअ 
पाटए. सुरसरि धार ॥६॥ 
भन॒ बिद्यापति छुनहु महेसर 
इ ल्ागि कएलि तुआ सेबा । 
एतए. जे बर से बर होअल 
ओतए जाएब जनि देबा ॥८॥ 0 
( २३४ ) 
हम नहि. आज रहंब यहि. आँगन 
जो बुढ़ होएत जमाई' गेमाई। 
एक ते बहइरि भेला बीघ बिधाता 
दोसर घिया कर बाप । 
तेसरे बइरि भेल नारद बाभन 
जे बूढ़ आनल जमाई, गे माई ॥| 
पहिलुक. बाजन. डामड 
दोसरे. तोरब रंडमाल 
हैाँकि. बरिआत बेलाइब 
घिआले ज़ाएब पराई, गे माई ॥ 


तोरब 


बरद्‌ 
३०३ 


विद्यापति 
*७३) ७... 


धोती ल्ोटा पतरा पोथी 
एहो सभ लेवन्हि छिनाई। 
जो किछु बजता नारद वाभन 
दाढ़ी धर घिसिआएब, गे माई ॥ 
भन॒ विद्यापति सुनु हे मनाइन 
टू करे अपन गेआन। 
उभ सुभ कए सिरी गौरी विआह 
गोरी हर एक समान, गे साई ॥ 
, (२३६ ) 
नाहि करब बर हर निरमोहिया । 
बित्ता भरि तन बसन न तिन्हका 
बधछल काँख तर रहिया।२॥ 
बने बन फिरथि मसान जगाबधि 
घर ऑगन ऊ बनौलतनि कहिया ! 
साउ्ठ॒ ससुर॒ नहि. ननद जेठौनी 
जाए बैेसति थिया केकरा ठहिया ॥४॥ 
हैंड बड़दः ढकपाल गोल. एक 
सम्पति भाँगक भोरिया । 
भनइ विद्यापति सुनु » हे सनाइन 
सिव सन दानी जगत के कहिया ।॥।६॥ 
( २३७ 
कतए गेल्ञला मोर बुढ़वा जती। 
पीसल भॉग  रहल सेइ गती।॥२॥ 
आन दिन निकहि रहथि मोर पती । 
आज लगाइ देल कौन उद्गती ॥४॥ 
३०४ 


प्राथना और नचारी 


वछ०#7 “6.99 ०२27 “४०४7 
एकसर जोहए जाएवं कोन गती। 
ठेसि खसब मोरि होत दुरुगती ॥६॥ 
संदनवन बिच... मिलल महेस । 
गौरी हरखित भेल छुटल कल्लेस | ८) 
भनइ विद्यापति सुत्ठ हे सती। 
इहो जोगिया थिका त्रिद्च॒वत पती ॥१०॥ 
( १४८ ) 
जोगिया एक हम देखलों गे माई । 
अनहद रूप कहलो नहि. जाई ॥२॥ 
पंच वदन तिन नयन बिसाला । 
है वसन विहुन॒ओऔढ़न वघछाला 8 
सिर बहे गंग तिलक सोहे चंदा । 
देख सरूप . मेंटल दुखदंदा ॥९॥ 
जाहि. जोगिया ले रहलि भवानी | 
सन आनलि बर कोन गुन जानी ॥5। 


कुल नहि सिल नहि तात सहतारी । 
'चएस हिनक थिक लछु जग चारी ॥१०॥ 
भ्रन बिद्यापति छुंठ 3 मनाइनि | 


एहो जोगिया थिका त्रिभुवन दानि | १२) 
| / २३६ ) 


सिव्र हो, उतरघ पार कओन बिधि | 
लोढद्ब. छुसुम , तोरब बेलपात 
पुजब॒ सदासिव गौरिक सात ॥ 
बसहा चढ़ल सिव फिरहू मस्तान । 
क्ँगिया जरठ दंरदो नहि. जान।। 
३० ६ 


विद्यापत्ति 


जप तप नहि. केल्नहु नित दान | 
बित गेज्ञा तिन पन करइत- आन ॥ 
भन बिद्यापति सुनु हैं महेस। 
निरधन जानिके हरहु कल्लेस ॥ 
( ९२४० ) 
जखन देखल हर हो गुननिधी। 
पुरत्तल सकल सनोरथ सेब निधी ॥२॥ 
बसहा चढुल हर 'हो बुढ़ जती। 
ु काने कुंडल सो भे गल्ले गजमोती ॥॥४॥ 
बइसल महादेव चौका चढ़ी। 
जटा छिरिआओल माओल भरी ॥8॥ 
विधिकरु बिधिकरु ब्रधिकरु करू । 
बिधि न करइ से हर हो हठ घरू ॥५॥ 
विधिए करइत हर हो घुमि खसु । 
सेंसर खसल फनि सिरि गोरीहेँंसु ॥१०॥ 
केओ नहि किछु कहइन्हि हिनकहूँ । 
पुरबिल लिखल छला मोर पहेँ ॥१२॥ 
कवि बिद्यापति गाओल । 
गोरी उचित बर पाओल ॥(ोशा 
( २४१ ) 
हर जनि विसरव सो समिता, 
हम नर अधम परम पतिता। 
तुअ सन अधमडधार न दोसर 
हम सन जग नहि पतिता ॥२॥ 
जम के द्वार जवाब कओन देव 


जखन बुकत िजगुन कर बतिया । 
३०६ 


प्राथना और नचारीः 
“७४9 “७.७ ८८६: 4 


जब जम क्िंकर कोपि पठाएत 
तखत के होत धरहरिया॥५॥ 

भन विद्यापति सुकवि पुनीत मति 
संकर॒ विपरीत बानी। 

असरन सरन चरन सिर नाओज्न 
दया करु 'दिश् सुपलानी ॥९॥ 


( २४२ ) 


एत जप-तप हम किश्र ल्ागि कैलहु 
कथिला कएलि नित दान। 

हमारे धिया के एहोी बर होयता 
अब नहि रहत परान ॥श॥। 

हर के माय बाप नहिं थिकइन 
नहि छइन सोदर भाय। 

मोर घिया जों सासुर जैती 

“ बइसति कुकर लग जाय ॥४॥ 

घास काटि लौती बसहा चरोदी 
कुटती भाँग धतूर । 

एको पत्न गौरों बेसहु न पौती 
रहती ठाढ़ि हजूर ॥१॥ 

भन “बिद्यापति सुनु ए मनाइनि 
हृढ़' करे अपन गेआन। 

तीन लोक के एहो छथि ठाकुर 


गोरा देवी जान ॥:॥ 
३०७- 


विद्यपाति 


4495७, “७७०: 
२४३ ) 
कखन हरब दुख मोर 
है सभोल्ानाथ | 


ठुखहि जनम भेल दुखहि गमाएब 
उस सपनहु नहि भेत्न, हे भोलानाथ | 
आछत चानन अबर गंगाजल 
वेलपात तोहि देव, हे भोलानाथ । 
यह भव-सागर थाह्‌ कतहु नहि 
भेरव धरु कर आए, है भोलानाथ । 
भन विद्यापति मोर भोत्रानाथ गति 
देहु अभय वर सोहि, हे भोलानाथ | 
( २४४ 3 
यहि विधि व्याहन ञ्स््यो 
उहच बाहर ज्ञोगी। 
टपर टपर कए वसहा आयल खटर, खटर रुँडमाल ॥ 
भकर भकर सिच भांग भकासथि डमरू लेल कर लाय | 
ऐपन मेटल उरहर फोरल वर क्िमि चोमुख दीप ॥ 
घिआ ले मनाइनिनि मंडप वइसलि गाविए जनु सखि गीत ॥ 
भन विद्यापति सुनु ए' मनाइनि ई थिका त्रिक्षुबेन ईस ॥ 
( २४४ ) 
आजु नाथ एक बर्त मोहि सुख लागत हे । 
हे सिव धरि नट चेष कि डमरू वजाएब हे ॥ 
मल न कहल गडरा रडरा आजु सु नाचव हे। 
सदा सोच मोहि होत कवन विधि बाँचब हे॥ 


प्राथना ओर नचारी 
“६: ७४०७ 


<८& 5७ हज 


जे जे सोच मोहि होत कहा समुझाएब हे। 
रडरा जगत के नाथ कवन सोर्च ज्ञागए हे॥ 
नाग ससरि भुसि खसत पुहुमि लोटायत हे। 
कात्तिक पोसल मजूर सेहो घरि खायत हे॥ 
अमिय चूइ भुसि खसत बघम्बर जागत हे। 
होत वधघस्वर बाघ बसह घरि खायत हे॥ 
टूटि खसत रुदराह ससान जगाबत हे। 
गोरी कह दुख होत बिद्यापति गावत हे॥ 
( २४६ ) 
आगे माइ, जोगिया मोर जगत सुखदायक 
दुख ककरो नहि देल। 
दुख ककरो नहि देक्ष महादेब 
दुख ककरो नहि देल। 
यहि. जोगिया के भाँग.. भुलेल्नक 
धतुर खोआइ धन लेल | 
आगे माइ, कातिक गनपति ढठुइ जन बालक 
जग भरि के नहिं जान | 
तिनका अंभरन किछुओ न थिकइन 
रति यक सोन नहि कान॥ 
आगे माह, सोना रूपा अनका सुत अभरन 
.. आपन  रुद्रक माल | 
अपना सुत क्ञा किछुओ ना जुरइनि 
अनका ला जेंजाल॥। 
आगे माइ, छन में हेरथि कोटि धन बकसथि 
ताहि देवा नहिं थोर। 


ह। 


३०६ 


विद्यापति 


रू 


“8.७ ८2२७. 


डी 


ि 


3१० ० 


भन॒ बिद्यापति मुनह मनाइनि 


थिका द्गिम्बर भोर॥ 
( २४७ ) 

जोगिया भेंगवा खाइत भेक्वा रंगिया 
भोत्रा वॉड्लबा ॥ 

सबके ओढ़ावे भोला साल दुसलबा 
आप ओढ़य मृगछलवा | 

सबके खिलावे भोला पाँच पकवनमा 
आप खाए भाँग धतुरबा ॥ 

कोई ।चढ़ावे भोत्ा अच्छुत चानन 
कोई चढावे बेलपतवा | 


भन बिद्यापति जै जे संकर 
पारबती रौरि सेंगिया॥ 
( र४८ ) 


जो हम जनितहूँ भोत्रा भेला ठगना 
होइतहुँ राम गुलाम गे माई। 
भाई बविभीखन , उड़े तप ' कैलन्दि 
जपलन्हि रामक नाम, गे म्ाई। 
उरुंब पल्िम एको नहि. गेत्ना 


भाँग दिहतल् भर गात्त, गे साई। 


प्राथना और नचारी 
८2,209 ८2४४-६२४० 


नोच-झँच सिव किछु नहिं गुनलन्दि 
हरप देलन्हि मेंडमाल, गे माई । 
एक लाख पूत सवा लाख नचादा 
कोटि सोवरनक दान, गे माई । 
गुन अवगुन सिव एको नहिं ठुभालन्द 
रखलन्दहि रावनक नाम, मी भाई | 
भन॒विद्यापवि सकवि पुलित सर्वि 
कर जोरि विनओं महंस, ग॑ माई | 
गुन अवशुन हर सन न्दि आनथधि 
सेवक हरथि केस, गे भाई | 


२५४६ ) 
जञानक्ी-वन्दना 


रू नगरनाह सतत भर््ध ताद्ी | 
वाहि. नहि जलननि जनक नदि लांदी ॥| 
बस सब्िब्रगा ससरा के नाम | 
जननिक सिर चढ़ि गले बरद्धि गास ॥2/ 
सका छोर में खुतत जअमाय | 
खसमधि दिलंह थीं विलदल तय 8६2 
कादि औदा में बाद लीड । 


री | 
श्र एन पल्देट्ि व 


विद्यापति 
<७२०,“छ-#७> 
गंदा-स्तुति 
( २४० ) 
बढ़ सुख सार पाऔल तुआअ घीरे। .- - 
छोड़इत निकट नयन वह नीरे ॥२॥ 
करजोरि विनमओं विमल तरंगे। 
पुन द्रसन होए पुनमति गंगे ॥९७॥ 
एक अपराध छेमसव मोर जानी | ह 
परसल साथ 'पाएं तुआ पानी ॥!६॥ 
कि करब जप-तप जोग वेआने। 
_ जनम- कृतारथ, एकहि. सनाने ॥८। 
भन्त३र बिद्यापति समदओं तोही । 
अन्त काल जनु विसरह मोही ॥१०॥ 
, ' (२४१ ) 
अहाकसंडलु_ बास सुबासिनि 
सागर नागर गहवाले। 
पातक सहिष बिदारण कारण _ 
इतकरबाल वीचि-माले ॥ 
जय गंगे जय गांगे। 
शरणागत भय सगे 
सुर मुनि मछुज रचित पूजोचित 
कुसुम विचित्रित . ततीरे। 
जिनयन सौलि जटाचय चुम्बित 
. भूति भूषित सित नीरे।॥' 
हरिपद्‌ कंमल गलित मधुसोदर 
उप्य पुत्नित  सुंरलोके। ' 
३२१२ 


प्राथना और नचारी  . 
*“&७७7 “८०१० “६९०“६-४2 बच 92: 


प्रविलसदम रपुरी “ पद दान- . 
विधान विनाशित शोके॥ 
सहज दयालुतया पातकि जन 
न्रंकविनाशन॒ निपुणे। 
रुद्रसिह. नरपति वरदायक 
बिद्यापति कवि भणित गुणे ॥ 
कृष्ण-कोर्ोन 
( २४२ ) 
माधव, कंत तोर करब बढ़ाई । 
उपसा तोहर कहब ककरा हेसे 
कहितहँ अधिक ल्जाई ॥ 
जाँ श्रीखंड' सौरभ अति ढुरसलभ 
ता पुनि काठ कठोर । 
जाँ. जगदीस. निसाकर तौं. पुन 
एकहि... पच्छ इजोर ॥ 
सनि समाव “औरो नि दोसर 
तनिकर पाथर ' नामे | 
क्नक कंदलि छोट लज्जित भए रह 
की कहु ठामहि ठामे ॥ 
तोहर सरिस_ एक तोहँ साधबव 
. मन होइछ  अलुमान। 


सब्जन जन सों नेह कठिन जिंक 
कवि बिद्यापति भान || 
( २४३ ) हि 


श्र 


ई बद्यापति 


“६७2८७. 


३१४ 


दया जनि छाड़बि मोय। 
गनइत दोसंर गुन लेख न पाओबि 
जब॒ तुह करवि -विचार | 
तुह जगत जगनाथ , कहाओखसि 
जग वाहिर नई. छार।! 
किए सानुस पसु परखि भए जलमिए 
अथवा कीट पतंग | 
करस बिपाक गतागत पुनु पुन्न 
सति रह . तुअ परसंग ॥ 
भनइ विद्यापति अतिसय काततर 
तरइत इह.. भव-सिधु। 
तुझ पद-पल्‍लव - करि अवलम्बन 
तित्न एक देह दिनवंधु ॥ 
। रशछ ) : 
तातल सैकत वारि-विन्दु. सम 
_ सुत - मित - रमणि - ससाज । 
तोहे विसारि मत्र ताहे समरपिलतु 
. अब सकझु हंव कोन -काज ॥ 
माधव,. हस परिनाम निरासा। 
तुद्दं, जगतारन - . दीन. दयामय - 
अंतय  चोहर बिसबासा | 


आध जनसे इस सींद गमायनु 


जरा सिस्सर॒ क॒त्‌ दिन शेला। 
निशुवत्त रमनि -रभस रंग मातनु 
_ तोहे: भजब कोन बेलाप- 


की 


५3 घ 


प्राथना ओर नचारी 


दल प४ चाछ <27*%,<68%58, “282 


कत चतुरानन मरि सरि धाओत 
न तुझ आदि अवसाना। 
: तोहे जनमि पुत्र तोहे समाओव 
सागर लहरि. समाना॥ 
भनह विद्यापति सेप समन समय 
तुआ विन्नु गति नहिं आरा। 
आदि अनादिक नाथ-कहाओसि अब 
तारन भार तोहारा ॥ 
( रए४ ) 
 जतने जतेक धन पापे बटोरल 
मिलि मिलि परिजज़ खाय। 
मरनक वेरि हरि कोइ न पूछण 
करम  संगः चलि जाय॥ 
ए हरि, वन्‍्दों तुआ पद नाथ |" 
छुआ पद परिहरि पाप - पयोनिधि 
पारक कओनच. उपाय || 
जाबत जनम नहिं तुआ पद सेविलु 
जुबती समनि मय मेलि | 
अमृत तजि हलाहल किए पीअलन्न 
' सम्पद. अपदृहि . भेलि ॥ 
. सन्‌ बिद्यांपति नेंह मने गनि 
|. कूडूल कि. बाढ़ फाजे । 
सॉभोक. जेरि.. सैवंकाई मँगइत 
हुएइत छुआ पद ल्ांजे ॥ 


#कमन्‍कदूए.. ०००. सिषम्कपलान, 


है 


३६४६ 


विविध 


विविध 
है (बी छि ७ > 
( २९४६ ) 
व्यथा 
साधव, कि कहब तोहर गेआन्न | 
सुपहु कहलि जब रोष कयल तब 
कर मूनल दुहु कान ॥२॥ 
आयल गमनक वेरि न नोन टू 
तइ किछु पुछिओ न भसेला। 
एहन करमहीनि हम सनि के धनति 
कर से परसमनि गेजल्ञा॥श॥ 
जओं हम जनितहूँ एहन निठुर पहु 
कुच - कंचन - गिरि- सौधि । 
कोसल करतल  बाहु-लता . लए 
हृढ़ करि रखितहुँ बाधि ॥६।। 
इ सुमिरिणए जब जाओं मरिए दब 
बूकि पड़ हृदय पषाने। 
हिसगिरि - कुमरी चरन हृदय धरि. 
कवि बिद्यापति भाने ॥८॥ 
( २४७ ) 
प्र 
कूल एक. फुलवारि लाओल मुरारि | 
जतने पटाओल सुबचन-बारि ॥२॥ 
चोदिस बान्हल सीलक आरि। 
जिबे अवलम्बन करू अवधारिं।॥। ४॥ 
ततहु फुलल फुल अभिनव पेस | 
जसु॒ मूल लहए न लाखहु हेम ॥॥॥ ह 
३१६. 


विद्यापति 
<७<७- (2२७. 


रू 


( २४६ ) 
... इृष्ठकूट 
हरि सम आनन हरि सम लोचन- 
हरि तहाँ हरि वर आगी। 
हांराह चाहि हरि हरि न सोहाबए 
हारे हरि कए उठि जागी | 
माधव हरि रहु जलधर छाई। 
नयनी धनि हरि-घरिनी, जनि 
हरि हेरइत दिन जाई॥ 
हरि भेल भार हार भेल हार सम 
हरिंक वचन न सोहाबे। 
हरिहि पइसि जे हरि जे नुकाएल 
हारे चढ़ि मोर बुझावे॥ 
हराह बचन पुनु हरि सय्यं दरसन 
सुक्राव बिद्यापति भाने। 
राजा सिवसिह रूपनारायन 
लखिमा देवि रमाने ॥ 
( २६० 
आधब, आव बुकत्ञ तुअ साजे। 
पंच दून दुह दह गुन्न सए गुन 
से देलह कोन काजे |] 
चालिस चारि काटि चोठा 
हम सेपिया मोरा। 


भिरिेखत मुख पेखत चौदिस 
ऊरत जनस के ओरा | 


विविधः 
८-२७ टलाउ | 


साठिहु मह 'दह बिन्दु बिबरजित 
के से सहत उपहासे। 
हस अवबला अब पहुक दोससे 
दुइ बिन्दु करब गरासे ॥ 
नव बुंदा दुए नवए बासम केए 
से उर हमर पराने। 
कपटी बालमु हेरि न हेरए 
कारन के नहि जाने ॥ 
भनइ बिद्यापति सुतु बर जौवति 
ताहि करथि के बाघा। 
अपन जीव दए परक बुमकाइञअ 
नाल कमल दुह आधा ॥ 
( २६१ ) 
'कुसुमित कानन' कुंजे बसां। 
नयतक काजर घोरि मसी॥ 
नखसों लिखल नलिनि दल पात | 
लीखि पठाओल आखर सात! 
पहिलहि लिखलनि पहिल बसंत | 
दोसरें लिखलनि तेसरक अंत ॥ 
लिखि नहि सकली अनुज बसंत ।। 
पहिलहि. पद अछि जीवक अंत ॥ 
भनहि बिद्यापति आखर लेख ) 
बुध-जन हो से कहए बिसेख || 
हूँ ( र६र ) । 
द्विज आहर आहर सुत नद॒न 
 सुत आहर खुत रामा | 
३२३- 


, 'विद्यापति 
७७७) 


डेर४ 


बनज बंधु सुत झुत दए सुन्दरि 
चलिछि संकेतक ठामा ॥ 
साथब, बूकल कथा विसेखी। 
ठुझ गुन लुबुधलि प्रेम पिआसलि ' 
साधस आर्शत्न उपेखी ॥ 
हरि अरि अरि पति ता सुत बाहन 
जुबवति नाम तसु होई। 
गोपति पति अर सह मिल बाइन 
विरसति कबहु- न होई ॥ 
भागर नाम जोग घनि आबए 
हरि अरि अरि पति जाने | 
नोमि द्साह एक मिलु कामिनि 
सुकवि विद्यापति भाने ॥ 
बाल-बिवाह ' 
( २६३ ) : 


“पिया मोर बालक हम तरुनो। 


कोन तप चुकलौंह भेज्ञौंह जननी ॥ 
पहिर लेह सखि एक दछिनक चौीर। 
पिया के देखेत मोर दगध सरीर ॥ 
पिया लेली गोद के चललि बजार। 
हटिया के लोग पूछे के लागु तोहार ॥ 


| 


नहिं सोर देवर कि नहिं छोट भाइ। 


'परुव लिखल. छल्न बालमु हमार ॥ 


बाटरे बटोहिया के तुहु मोरा साइ। 
हमेरो समाद नैहर लेने जाड ॥ 


विविध 


कहिहुन बबा के किनऐ घेनु गाइ। 
ढुधवा पियाइके'" पोसता जमाइ ॥ 
नहि सोर टका अछि नहि घेनु गाइ। 
कोन बिधि पोसब बालक जमाइ ॥ 
भनह बिद्यापति सुनु ब्रजनारि। 
धीरज घरह त मिलत मुरारि॥ 
परकीया ( स्वयंद्रतिका ) 
(२६४) 
अपर पयोधि' मगन भेल सूर। 
नखि-कुल-संकुल बाट बिदूर ॥ 
नर परिहरि नाविक घर गेल । 
- पथिक गमन पथ संसय भेल।॥॥ 
अनतए पथिक करिअ परबास | 
हमे धनि एकलि कंत नहि पास ॥ 
एक चिंता अओक मनसथ सोस। 
दसमि दसा सोहि कओनक दोस ॥ 
श्यनि न जाग खखी जन मोर। 
आअनुखन सगर नगर भम चोरं॥ 
तोहे तरुनत हम बिरहिनि नारि। 
उचितहु बचन उपज कुलगारि ॥ 
बासा बचन बास पथ धाव। 
अपन मनोरथ जुगुति बुकाव ॥ 
भनइ बविद्यापति नारि सुजासि। 
भल कए रखलक दुह्ुु अनुमानि ॥ 


रेरर 


विद्यापति 
कि छखछ - 
( दर६४ ) 
हम जुबती पति गेलाह विदेस। 
लग नहि वसए पड़ोसियाक लेस ॥ 
सासु दोसरि किछुओ नहि जान | 
आँखि रतोंधी सुनर नहिं कान ॥ 
जागह पथिक जाह जनु भार | 
राति अधार गास वड़ चोर ॥' 
भरमहु भोरि न देआ कोतवार | 
काहु क केओ नहि करए बिचार || 
अधिप न कर अपराधहु साति। 
पुरुष सहते सव हमर सजाति ॥ 
विद्यापति कबि यह रस गाव। 
उकुतिहु अवला भाव जनाब ॥ 
( २६५ ) ह 
विद्यापति की मृत्यु 


झुल्लहि तोहरि कतए छुथि माय | 

कहुन ओ आवधु एखन नहाय। , , 
वृथा बुकथु संसार बिलास | 
पत्चन॒ पल्चल॒ नाना तरहक त्रास ॥ 

साय वाप जो सदगति पाव॥- 

संत्तति का अन्लपम सुख आब.। 
विद्यापतिक आयु... अबसान | 
कातिक घधचल तजत्रयोदसि जान ॥ 

॥ इचति ॥ 


विद्यापति विरही नायिका से क्या कहते हैं?

मैथिल कोकिल विद्यापति विरह-बाला राधा की विरह वेदना का चित्रण करते हुए कहते हैं कि सपना में भी श्रीकृष्ण का दर्शन नहीं होता है। श्रीकृष्ण का दर्शन नहीं होने से राधा का हृदय आतुर और व्याकुल है। इस विरह-वेदना में चन्दन जो शीतल और आनन्ददायक है वह भी विष के समान होकर उसके शरीर को तीष्ण और उष्ण कर रहा है।

विद्यापति बिरही नाइक से क्या समझते हैं?

विद्यापति (1352-1448ई) मैथिली और संस्कृत कवि, संगीतकार, लेखक, दरबारी और राज पुरोहित थे। वह शिव के भक्त थे, लेकिन उन्होंने प्रेम गीत और भक्ति वैष्णव गीत भी लिखे। उन्हें 'मैथिल कवि कोकिल' (मैथिली के कवि कोयल) के नाम से भी जाना जाता है।

विद्यापति कैसे कवि हैं किस प्रकार के कवि हैं?

विद्यापति दरबारी कवि थे और उनके प्रत्येक पद पर उनका दरबारी रूप हावी है। विद्यापति की कविता श्रृंगार व विलास के रूप में है और मूलतः श्रृंगार रस का प्रयोग किया है। डॉ. श्याम सुंदर दास कहते हैं कि हिंदी के वैष्णव साहित्य के प्रथम कवि विद्यापति हैं

विद्यापति कौन से काल के कवि कहे जाते हैं?

डाकटर सुभद्र झा के मत के अनुसार, विद्यापति के काल 1352 ईसवी से 1448 ईसवी हवे।