वीणा वादिनी वर दे – Var de Veena Vadini Var de, सूर्य कान्त त्रिपाठी निराला जी द्वारा लिखित एक प्रसिद्ध कविता है | भारत के कई स्कूलों में यह मोर्निंग
प्रेयर के रूप में भी गाया जाता है | वर दे, वीणावादिनि वर दे। काट अंध उर के बंधन स्तर नव गति, नव लय, ताल छंद नव Var De, Veena Vadini Var de. Kaat
andh Ur Ke Bandhan Star Nav Gati, Nav Lay, Taal Chhand Nav लेख के बारे में- इस आर्टिकल में आपने वीणा वादिनी वर दे कविता पढ़ी है| यह महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा लिखी गयी है | हिंदी जगत् के सुप्रसिद्ध एवं स्थापित कथाकार डॉ. ज्ञानसिंह मान का नवीनतम कहानी संग्रह। आधुनिक युग की बौद्धिक नीरसता में ये कहानियाँ शांत एवं संगीतमय शाद्वल के समान हैं, यहाँ गहन दर्शन रोचक कथाओं की सौरभ समीर में स्वतः मंत्रमुग्ध हो गया। शहर में सांप्रदायिक दंगों का महौल था। जनजीवन लगभग अस्तव्यस्त था। किस मोड़ पर कैसी घटना से
सामना करना होगा। कोई नहीं जानता था। कर्फ्यू तो जैसे दैनिक जीवन का अंग बन गया था। ऐसे वातावरण में विभिन्न दलों के लोग अपनी-अपनी रोटियाँ सेंकने के लिए वैमनस्य तंदूर सदा गर्म रखते थे। उन दिनों भी कुछ ऐसी ही स्थिति थी। मैं माल रोड पर था। कार में अपने निवास की ओर जा रहा था सहसा मुझे कार रोकने के लिए पैर ब्रैक पर रखने पड़े। भारी झटके से कार एक ओर लुढ़कने से बुरी तरह सँभली। सामने तनिक दूरी पर भारी भीड़ उमड़ते हुए पाया, जो बवंडर की तरह मेरी ओर बढ़ती आ रही थी भीड़ में शामिल लोगों के पास लाठियाँ, तलवारें
तथा अन्य घातक हथियार थे। कार को बचाने के लिए मैं एक ओर हटने ही लगा था कि एक स्कूटर सवार ने तुरंत मेरे निकट रुकते हुए कहा- मैंने देखा सामने खड़ा स्कूटर सवार उस स्थिति से आतंकित प्रतीत हो रहा था। डर के मारे उसकी साँस उखड़-सी रही थी। अत्यधिक अस्थिर स्वर में तनिक खाँसते हुए उसने का, ‘‘आपकी कार भी सलामत नहीं बचेगी, उधर दूसरे मोड़ पर बहुत से वाहन जल रहे हैं।’’ ‘‘उधर आपकी जान को खतरा है – भीतर चले आइए-कार की चिंता मत कीजिए मैं पार्क कर दूँगा। चाबी दे
देजिए-बस-’’ ‘गेटमैन’ को चाबी देकर मैं भीतर की ओर चला आया। आँखों के सामने एक विशालकाय भवन का खुला सा प्रांगण था-, लगभग एक फार्म हाउस जैसा प्रासाद था। एक छोटी पगडंडी को छोड़कर शेष प्रांगण में हरीतिमा की चादर-सी बिछी थी। प्रांगण के चारों ओर गोलाकार पंक्तियों में विभिन्न रंगों की पुष्प मालाएं-सी लटक रही थीं। मुख्य द्वार तक जाने वाली पगडंडी के साथ-साथ बहुरंगी गमलों का ताँता सजाया गया था। शंकित एवं उद्धिग्न नेत्रों ने एक ही दृष्टि में सब कुछ मेरे मनःपटल पर उभार दिया। कोठी के भीतरी उद्यान ने कुछ क्षणों के लिए बाहरी आतंकी वातावरण से मुझे मुक्ति जरूर दी। परंतु, वास्तविक उलझन से मैं अभी भी बहुत दूर नहीं हो पाया था। दीर्घ श्वास भरकर मैंने कोठी के
कुसुमित उद्यान को गहन दृष्टि से देखा और दबे पैरों से आगे की ओर बढ़ने लगा। नीचे शुष्क पत्तों की सरसारहट एक विचित्र सा आतंक फैलाये जा रही थी। पगडंडी पर, किनारों के साथ-साथ सूखी काई जम आयी थी जो उचक-उचक कर कहना चाहती थी कि एक लंबे समय से किसी ने वहाँ आत्मीयता प्रकट नहीं की है। जिस रीझ और चाव से ‘फार्महाउस’ का प्रारूप तैयार किया गया था, उसके अनुरूप इसकी देखभाल शायद काफी समय से नहीं की गई थी। इतने सुंदर और मनोरम प्रांगण को इस प्रकार अनुछुआ और बेजान-सा छोड़ देने का भला क्या कारण हो सकता है, यह मेरी
समझ से परे था। मन में उधेडबुन जारी थी कि मैंने स्वयं को एक बड़े द्वार पर पाया जिसके बाहर शीशा लगा था। कुछ भी लेने का मन नहीं था। हैरानी में था, ऐसी संकट की घड़ी में इतनी निकटता और आत्मीयता व्यक्त करने वाला कौन हो सकता है ? इधर स्नेह का सागर उमड़ रहा था, बाहर शहर.....बड़ा आतंक था। समीप खड़े नौकर को शायद मेरे आदेश की प्रतीक्षा थी। अनचाहे भाव से सोफे पर टिकते हुए मैंने कह दिया, ‘‘ज़रूरत तो है नहीं फिर भी एक कप चाय....’’ वैसी आत्मनिरति की आस्था में, मैं कब तक बैठा रहा, नहीं जानता। हाँ किसी ने दबे पैरों कमरे में प्रवेश किया तो मेरा ध्यान भंग हुआ। आँखें उठाकर देखा तो सामने एक अत्यंत सुंदर, सौम्य गौरवर्ण एवं शिष्ट महिला को खड़े पाया। इकहरे आकर्षक शरीर से साफ झलक रहा था। कि उसने भरपूर यौवन का द्वार अभी हाल ही में पार किया है। मुझे वहाँ पाकर उसके ओठों पर एक आत्मीय स्मित रेखा खेलने को उत्सुक थी। हलके रंग की साड़ी, जिस पर गहरे मूंगीय रंग का बार्डर सज्जित था; उसके कन्धे पर से बार-बार सरक-सी रही थी। लंबी केशराशि पार्श्व को झालर-सी देकर उसके अग्र भाग तक लहरा रही थी। शरीर के आसपास फैल रही ताज़गी से विदित था कि उसके इस भेंट के लिए स्वयं को बहुत जल्दी में ‘री टच’ किया है। एक ही साँस में सब कुछ स्पष्ट हो गया। मैंने नेत्र झुकाते हुए शिष्टातावश उठने का प्रयास किया। महिला ने तुरंत आगे बढ़कर मुझे वहीं रोकने का प्रयास करते हुए कहा, ‘‘इसकी जरूरत नहीं है-’’ पुनः कुछ रुककर उसने कहा, ‘‘मेरा घर आपकी चरण रज पाकर धन्य हो गया। इस जन्म में कभी आप से पुनः भेंट पर पाऊँगी-ऐसी तो कल्पना भी नहीं की थी मैंने-’’ पुनः एक दीर्घ श्वास भरकर बोली, ‘‘लगता है मैं इतनी भी मंद-भागिनी नहीं हूं कि .....’’ कहते-कहते उस महिला ने दोनों हाथों से अभिवादन की मुद्रा प्रकट की मैंने भी कुछ इसी प्रकार-सब कुछ इतनी जल्दी में ऐसे सहज भाव में व्यक्त हुआ कि किसी को भी इसका ध्यान नहीं रहा। उस, आत्मीय व्यवहार के प्रति मेरी उत्सुकता प्रतिपल बढ़ती जा रही थी। भीतरी उधेडडबुन अधिक गहरा रही थी। मेरी शंकित मनोभावों को सहज करने के लिए ही शायद उस महिला ने तनिक दबी मुस्कान में कहा, ‘‘लगता है आपने मुझे पहचाना नहीं।’’ पुनः पीछे हटकर एक दीर्घ श्वास भरकर बोली, ‘‘एक लंबा समय बीत गया है; लगता है वह कोई दूसरा ही था; वक्त के थपेड़े बहुत कुछ बदल देते हैं- शरीर को भी; इसलिए तो आपने मुझे....’’ कहते-कहते महिला को रुकना पड़ा। दूसरी ओर से नौकरानी इधर प्रवेश कर रही थी। हाथ में ‘सैल’ फोन था, चेहर पर कुछ गंभीरता के भाव थे। शीघ्र बढ़ते पैरों के साथ-साथ शब्द प्रवाह भी तेज़ था, समीप आकर उसने कहा, ‘‘बीबी जी, सिविल लाइंज़ से फोन है। बहुत चिंता में हैं-’’ ‘सैल’ लेकर पुनः दूसरे कमरे में चली गयी। कुछ क्षणों के लिए मैं तो भूल ही गया था कि बाहर शहर की स्थिति विकट है। शायद कई स्थानों पर आग और लूटमार-; मन अस्वस्थ अशांत हो रहा था। वहाँ से एकदम निकल पाना भी तो कठिन लग रहा था। उद्विग्न भाव में मैं पुनः उठकर कमरे में इधर-इधर घूमने लगा। एक कोना आँखों से ओझल रह गया था, शायद पिछली ओर का-उधर ध्यान ही नहीं गया। एक अत्यंत सज्जित मेज़ पर सितारों की जोड़ी रख थी। समीप जाकर देखा, धूल की हलकी परत चिरकाल से ऊपर मौन एवं अस्पृश्य पड़े रहने का प्रमाण दे रही थी। साथ ही दीवार से तनिक ऊपर महिला का एक चित्र टँगा था जो शायद उसके कालेज दिनों का था। सहसा मेरे नेत्र वहीं टँगे एक अन्य चित्र पर स्थिर हो गये। ग्रुप फोटोग्राफ’ था; मैंने ध्यान से देखा; स्नातकोत्तर छात्र-छात्राओं का स्मृति चिन्ह-; जिसमें विभाग के अन्य सहयोगियों के साथ मैं भी मौजूद था। ‘ओ माई गॉड’ सहसा मेरे मुख से निकल पड़ा। अतीत के कुछ भूले-बिसरे चित्र स्वतः मनःपटल पर उभर आये। एक लंबे अंतराल के बाद मैं अपनी एक अत्यंत ही आत्मीय परिचिता के साथ वह भी ऐसी अनचाही स्थिति में ओफ ! मेरी साँस तेज़ होने लगी बीते कल की एक-एक घटना अंतश्चेतना में फिर से जीवंत होने लगी। उन दिनों कॉलिज में एक बड़े सामारोह की तैयारी चल रही थी। देश के कतिपय महान साहित्यकारों तथा संगीतकारों को आमंत्रित किया गया था। इस अवसर पर कॉलिज की ओर से भी कोई ‘आइटम’ की जाए, इस पर विचार हो रहा था। ध्यान सहसा इस छात्रा की ओर आकृष्ट हुआ। सितारवादन और गायन में वह निपुण थी। सहृदयों को मंत्रमुग्ध करने में भी पूर्णतया सक्षम थी। राजकीय स्तर की प्रतियोगिताओं में अलंकृत होकर अपने कॉलिज का नाम उज्जवल कर चुकी थी। कॉलिज के नये सत्र के आरंभ में ही उनकी कला ने सबको अभिमोहित कर दिया था; और फिर उसके बाद तो प्रत्येक समारोह और समागम में..... ‘क्लास’ के बाद हम सीढ़ियाँ उतर रहे थे। मैंने उसे रोकते हुए कहा, ‘‘प्रभा, अगले सप्ताह जो समारोह हो रहा है, हम चाहते हैं तुम भी अपनी एक अच्छी ‘आइटम’ दो....।’’ प्रभा के उज्जवल आनन पर तनिक रक्तिम प्रवाह उमड़ने को था। लज्जावश उसके नेत्र झुक गये थे। मुझे अपने अधिकार का लोहा याद आया। अतः तनिक रूखे स्वर में कहना पड़ा, ‘‘ऐसा कैसे चल सकता है ? इसमें हमारे विभाग की प्रतिष्ठा का सवाल है।’’ श्वास भरकर मैंने साधिकार पुनः कहा, ‘‘तुम्हें हर स्थिति में हमारा सहयोग.....’’ प्रभा ने तनिक पीछे हटकर आगे बढ़ने के लिए गति साधना की। स्पष्ट था, वह इस वार्ता को और आगे नहीं बढ़ाना चाहती थी। धीमे स्वर में उसने कहा, ‘सर, व्यर्थ मुझे विवश मत कीजिए। व्यक्ति की अपनी निजता और अहं भी तो कोई चीज़ है; बस आप से कह दिया; माफी चाहूंगी मैं-’’ उसकी बात सुनकर मैं अपने में ही सिमटकर रह गया। उन्मुक्त पंछी को जैसे अंधकूप में गिरना पड़ा हो। खुद को काट कर देखना जितना कठिन है कुछ वैसी ही कसक उस समय -; ऐसे रूखेपन से तो किसी ने भी मेरा तिरस्कार नहीं किया था; फिर उस छात्रा ने...ओफ ! दमित अहम् चोट खाये साँप-सा फुंकार उठा। अंतर्मन दग्ध होने लगा। वैसी बौखलाहट कई दिनों तक कायम रही। जब-जब प्रभा का गर्म लोहा देखता, अतीत तीखी कटार मुझे तिल-तिल काटने लगता। साँसों का गर्म लोहा आसपास को भस्मीभूत करने को तत्पर हो उठता। फिर सब कुछ धीरे-धीरे सहज और शांत होने लगा। प्रभा के प्रति मन में जो द्वेष अवहेलना का दंश था, अंतराल की गहन कंदराओं में दम तोड़ने लगा। प्रभा की सरलता और सौम्यता से वशीकृत मेरा मन कहीं अन्यत्र मुक्ति पाने लगा। यह सब कैसे हुआ, नहीं जानता मैं। उस घटना को मुझे भूलना ही था और धीरे-धीरे ऐसा हो भी रहा था। फिर एक दिन, जब गर्मी का मौसम था; मैं अपना काम पूरा करके घर की ओर लौट रहा था। प्यास लगी
थी, अतः लायब्रेरी के पास ‘वाटर कूलर’ के पास रुक गया। तृषा मिटाने के लिए अभी शीलत जल को ओठों से लगाया ही था कि सामने प्रभा को खड़ी पाया। वह इस सयय तक ‘कैम्पस’ में कैसे ? अब तक तो सभी क्लासें लग जाती हैं। कॉलिज भी लगभग खाली हो जाता है; इक्के-दुक्के कार्यकर्ता ही अटके रह जाते हैं। तो फिर इस समय प्रभा...? मैं उधेड़ बुन में ही था कि प्रभा ने मेरे निकट आते हुए कहा- वीणा वादिनी वर दे में कौन सा अलंकार है?उत्प्रेक्षा अलंकार See what the community says and unlock a badge.
वीणा वादिनी वर दे के लेखक कौन है?वर दे वीणावादिनी वर दे ! / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
दान कविता के रचयिता कौन है?सम्राज्ञी का नैवेद्य-दान - कविता | हिन्दवी
वर दे वीणावादिनी में कवि ने क्या हर लेने की प्रार्थना की है?इस पाठ के रचयिता सुविख्यात कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी “निराला' हैं। प्रसंग-इसमें कवि ने सरस्वती माँ की वन्दना की है। व्याख्या-कवि सरस्वती माता से प्रार्थना करता है कि हे वीणा वादिनी सरस्वती! तुम हमें वर दो और भारत के नागरिकों में स्वतन्त्रता की भावना का अमृत मन्त्र भर दो।
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