वर दे वीणा वादिनी के रचनाकार कौन है? - var de veena vaadinee ke rachanaakaar kaun hai?

वीणा वादिनी वर दे – Var de Veena Vadini Var de, सूर्य कान्त त्रिपाठी निराला जी द्वारा लिखित एक प्रसिद्ध कविता है | भारत के कई स्कूलों में यह मोर्निंग प्रेयर के रूप में भी गाया जाता है |

वीणा वादिनी वर दे (सरस्वती वंदना)

वर दे, वीणावादिनि वर दे।
प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव
भारत में भर दे।
वीणावादिनि वर दे।

काट अंध उर के बंधन स्तर
बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष भेद तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे।
वर दे , वीणावादिनि वर दे।

नव गति, नव लय, ताल छंद नव
नवल कंठ, नव जलद मन्द्र रव
नव नभ के नव विहग वृंद को,
नव पर नव स्वर दे।
वर दे, वीणावादिनि वर दे।

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वर दे वीणा वादिनी के रचनाकार कौन है? - var de veena vaadinee ke rachanaakaar kaun hai?

Var De, Veena Vadini Var de.
Priy Svatantr Rav, Amrt Mantr Nav
Bhaarat Mein Bhar De.
Veenaavaadini Var De.

Kaat andh Ur Ke Bandhan Star
Baha Janani Jyotirmay Nirjhar
Kalush Bhed Tam Har Prakaash Bhar
Jagamag Jag Kar De. Var De ,
Veenaa Vaadini Var De.

Nav Gati, Nav Lay, Taal Chhand Nav
Naval Kanth, Nav Jalad Mandra Rav
Nav Nabh Ke Nav Vihag Vrnd Ko,
Nav Par Nav Svar De. Var De,
Veenaa Vaadini Var De.

लेख के बारे में- इस आर्टिकल में आपने वीणा वादिनी वर दे कविता पढ़ी है| यह महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी  ‘निराला’ द्वारा लिखी गयी है |

हिंदी जगत् के सुप्रसिद्ध एवं स्थापित कथाकार डॉ. ज्ञानसिंह मान का नवीनतम कहानी संग्रह।
सामयिक युग-बोध के मनन से उत्प्रेरित मानवीय जीवन की अत्यंत मार्मिक, सजीव, संवेदनशील एवं आकर्षक चित्र-वीथियों का मनोरम दिग्दर्शन।
आतंकवाद का प्रकोप, भ्रष्टाचार के प्रति आक्रोश, कुंठित अहं का सर्पदंश, मानवीय वेदना का वरदान, आध्यात्मिक प्रणय का प्रारूप, विकलांग संस्कारों का संताप, यथार्थ का अँधकार, आदर्श की भोर, आदि विषयों को अत्यंत रोचक, सहज एवं आकर्षक शैली में प्रस्तुत करती ये कहानियाँ केवल भाव और अभिव्यंजना की दृष्टि से ही बेजोड़ नहीं है, अपितु भाषा सौष्ठव, कथन-वक्रता तथा शैली वैशिष्ट्य की दृष्टि से भी पूर्णतया सफल हैं।

आधुनिक युग की बौद्धिक नीरसता में ये कहानियाँ शांत एवं संगीतमय शाद्वल के समान हैं, यहाँ गहन दर्शन रोचक कथाओं की सौरभ समीर में स्वतः मंत्रमुग्ध हो गया।
ये कहानियाँ पठनीय और स्तुत्य तो हैं ही, साहित्यिक गरिमा से अनुप्राणित भी हैं, अस्तु।

शहर में सांप्रदायिक दंगों का महौल था। जनजीवन लगभग अस्तव्यस्त था। किस मोड़ पर कैसी घटना से सामना करना होगा। कोई नहीं जानता था। कर्फ्यू तो जैसे दैनिक जीवन का अंग बन गया था। ऐसे वातावरण में विभिन्न दलों के लोग अपनी-अपनी रोटियाँ सेंकने के लिए वैमनस्य तंदूर सदा गर्म रखते थे। उन दिनों भी कुछ ऐसी ही स्थिति थी। मैं माल रोड पर था। कार में अपने निवास की ओर जा रहा था सहसा मुझे कार रोकने के लिए पैर ब्रैक पर रखने पड़े। भारी झटके से कार एक ओर लुढ़कने से बुरी तरह सँभली। सामने तनिक दूरी पर भारी भीड़ उमड़ते हुए पाया, जो बवंडर की तरह मेरी ओर बढ़ती आ रही थी भीड़ में शामिल लोगों के पास लाठियाँ, तलवारें तथा अन्य घातक हथियार थे। कार को बचाने के लिए मैं एक ओर हटने ही लगा था कि एक स्कूटर सवार ने तुरंत मेरे निकट रुकते हुए कहा-
‘‘वापस चले जाइये यहाँ दंगाइयों ने तोड़-फोड़ शुरू कर रखी है। दुकानों-मकानों पर पथराव हो रहा है।’’

मैंने देखा सामने खड़ा स्कूटर सवार उस स्थिति से आतंकित प्रतीत हो रहा था। डर के मारे उसकी साँस उखड़-सी रही थी। अत्यधिक अस्थिर स्वर में तनिक खाँसते हुए उसने का, ‘‘आपकी कार भी सलामत नहीं बचेगी, उधर दूसरे मोड़ पर बहुत से वाहन जल रहे हैं।’’
कहते-कहते स्कूटर सवार तुरंत वहाँ से हवा हो गया। सामने विफरती भीड़ तेज़ी से आगे बढ़ रही थी। मैं आतंकित हो उठा। कार से अधिक मुझे अपनी सुरक्षा की चिंता थी सड़क की तनिक दूरी पर एक छोटा मोड़ था, वहीं बड़ा-सा वृक्ष भी नज़र आया। कार को एक ओर रोककर मैं झट से वृक्ष की ओट में चला गया। सांत्वनामयी श्वास ली, सोचा, जुलूस गुज़र जाने के बाद कुछ किया जाएगा। साँस तेज़ थी; साँझ का सूरज अभी बहुत नीचे तक नहीं आया था। चिंता थी यदि कर्फ्यू की घोषणा हो गई तो.....
सहसा मुझे सचेत हो जाना पड़ा। मेरे ठीक पीछे कोई मुझे पुकार रहा था। जिस वृक्ष की ओट में मैं खड़ा तथा उसके ठीक पीछे एक बड़े भवन का मुख्य द्वार था। द्वार का गेटमैन ही शायद मेरा ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर रहा था। मेरी ओर बढ़ते हुए उसने कहा, ‘‘साब ! मालकिन कह रही है आप जल्दी से अन्दर आ जाइए-जल्दी कीजिए आप इन दंगा वालों को नहीं जानते....’’
मैंने देखा सामने खड़े व्यक्ति के चेहरे पर चिन्ता के भाव साफ नजर आ रहे थे तथा वह कुछ अस्थिर भी जान पड़ा। कुछ रुकते हुए अपनी बात पूरी की-

‘‘उधर आपकी जान को खतरा है – भीतर चले आइए-कार की चिंता मत कीजिए मैं पार्क कर दूँगा। चाबी दे देजिए-बस-’’
असमंजस की स्थिति में था। अधिक सोचने समझने का समय नहीं था। मस्तक में विभिन्न प्रकार के विचार चक्कर काट रहे थे। दुविधा थी यदि इसकी बात न मानी तो .....? भावी किसी बड़ी दुर्घटना की आशंका मात्र से मैं सिहर उठा। झट से उसके साथ द्वार तक लपक आया। यह भी जानने की जरूरत नहीं कि भवन में रहने वाले मेरे प्रति इस प्रकार चिंताशील क्यों हैं ?’’

‘गेटमैन’ को चाबी देकर मैं भीतर की ओर चला आया। आँखों के सामने एक विशालकाय भवन का खुला सा प्रांगण था-, लगभग एक फार्म हाउस जैसा प्रासाद था। एक छोटी पगडंडी को छोड़कर शेष प्रांगण में हरीतिमा की चादर-सी बिछी थी। प्रांगण के चारों ओर गोलाकार पंक्तियों में विभिन्न रंगों की पुष्प मालाएं-सी लटक रही थीं। मुख्य द्वार तक जाने वाली पगडंडी के साथ-साथ बहुरंगी गमलों का ताँता सजाया गया था। शंकित एवं उद्धिग्न नेत्रों ने एक ही दृष्टि में सब कुछ मेरे मनःपटल पर उभार दिया। कोठी के भीतरी उद्यान ने कुछ क्षणों के लिए बाहरी आतंकी वातावरण से मुझे मुक्ति जरूर दी। परंतु, वास्तविक उलझन से मैं अभी भी बहुत दूर नहीं हो पाया था।

दीर्घ श्वास भरकर मैंने कोठी के कुसुमित उद्यान को गहन दृष्टि से देखा और दबे पैरों से आगे की ओर बढ़ने लगा। नीचे शुष्क पत्तों की सरसारहट एक विचित्र सा आतंक फैलाये जा रही थी। पगडंडी पर, किनारों के साथ-साथ सूखी काई जम आयी थी जो उचक-उचक कर कहना चाहती थी कि एक लंबे समय से किसी ने वहाँ आत्मीयता प्रकट नहीं की है। जिस रीझ और चाव से ‘फार्महाउस’ का प्रारूप तैयार किया गया था, उसके अनुरूप इसकी देखभाल शायद काफी समय से नहीं की गई थी। इतने सुंदर और मनोरम प्रांगण को इस प्रकार अनुछुआ और बेजान-सा छोड़ देने का भला क्या कारण हो सकता है, यह मेरी समझ से परे था। मन में उधेडबुन जारी थी कि मैंने स्वयं को एक बड़े द्वार पर पाया जिसके बाहर शीशा लगा था।
मुझे वहां देखते ही एक अन्य नौकर ने तुरंत द्वार खोलते हुए कहा, ‘‘मालकिन ने कहा है, भीतर चले आइए, ‘इधर कोई डर नहीं है यहाँ आप हर प्रकार निश्चिंत और...’’ कहते-कहते नौकर ने मुझे भीतर का मार्ग दर्शाया। सामने एक खुला एवं भव्य-सा कक्ष था। मुझे समझने में देर नहीं लगी वह कक्ष अतिथियों के लिए स्वागत स्थल है। नौकर ने अत्यंन्त भद्रतापूर्ण ढंग से मुझे वहाँ बैठने का संकेत किया और धीमे स्वर से कहा उन्होंने कहा है आप क्या लेंगे ? ठण्डा, चाय या कॉफी...।’’

कुछ भी लेने का मन नहीं था। हैरानी में था, ऐसी संकट की घड़ी में इतनी निकटता और आत्मीयता व्यक्त करने वाला कौन हो सकता है ? इधर स्नेह का सागर उमड़ रहा था, बाहर शहर.....बड़ा आतंक था। समीप खड़े नौकर को शायद मेरे आदेश की प्रतीक्षा थी। अनचाहे भाव से सोफे पर टिकते हुए मैंने कह दिया, ‘‘ज़रूरत तो है नहीं फिर भी एक कप चाय....’’
नौकर धीरे से सिमटकर रह गया। बाहर सड़क पर हल्ला-गुल्ला जारी था, परंतु इधर एकांत से कक्ष में गहन प्रशांति थी। केवल मेरी साँसें ही कुछ हरकत-सी पैदा करती जा रही थीं। मैंने सरसरी दृष्टि से कक्ष का अवलोकन किया। स्थान-स्थान पर बहुमूल्य कलाकृतियाँ अत्यन्त सुचारु ढंग से रखी हुई थीं। कोने में रखे ‘रैक’ पर सज्जित पुस्तकें वहाँ के लोगों की साहित्यिक जिज्ञासा की ओर सारगर्भित संकेत दे रही थीं। कोठी वाले अत्यंत परिष्कृत सौम्य और सुसंस्कृत वृत्ति के हैं, यह जानने में मुझे अधिक देर न लगी। सारा वातावरण लक्ष्मी और सरस्वती की सौरभ सुगंध से सराबोर था।

वैसी आत्मनिरति की आस्था में, मैं कब तक बैठा रहा, नहीं जानता। हाँ किसी ने दबे पैरों कमरे में प्रवेश किया तो मेरा ध्यान भंग हुआ। आँखें उठाकर  देखा तो सामने एक अत्यंत सुंदर, सौम्य गौरवर्ण एवं शिष्ट महिला को खड़े पाया। इकहरे आकर्षक शरीर से साफ झलक रहा था। कि उसने भरपूर यौवन का द्वार अभी हाल ही में पार किया है। मुझे वहाँ पाकर उसके ओठों पर एक आत्मीय स्मित रेखा खेलने को उत्सुक थी। हलके रंग की साड़ी, जिस पर गहरे मूंगीय रंग का बार्डर सज्जित था; उसके कन्धे पर से बार-बार सरक-सी रही थी। लंबी केशराशि पार्श्व को झालर-सी देकर उसके अग्र भाग तक लहरा रही थी। शरीर के  आसपास फैल रही ताज़गी से विदित था कि उसके इस भेंट के लिए स्वयं को बहुत जल्दी में ‘री टच’ किया है। एक ही साँस में सब कुछ स्पष्ट हो गया। मैंने नेत्र झुकाते हुए शिष्टातावश उठने का प्रयास किया। महिला ने तुरंत आगे बढ़कर मुझे वहीं रोकने का प्रयास करते हुए कहा, ‘‘इसकी जरूरत नहीं है-’’ पुनः कुछ रुककर उसने कहा, ‘‘मेरा घर आपकी चरण रज पाकर धन्य हो गया। इस जन्म में कभी आप से पुनः भेंट पर पाऊँगी-ऐसी तो कल्पना भी नहीं की थी मैंने-’’ पुनः एक दीर्घ श्वास भरकर बोली, ‘‘लगता है मैं इतनी भी मंद-भागिनी नहीं हूं कि .....’’

कहते-कहते उस महिला ने दोनों हाथों से अभिवादन की मुद्रा प्रकट की मैंने भी कुछ इसी प्रकार-सब कुछ इतनी जल्दी में ऐसे सहज भाव में व्यक्त हुआ कि किसी को भी इसका ध्यान नहीं रहा। उस, आत्मीय व्यवहार के प्रति मेरी उत्सुकता प्रतिपल बढ़ती जा रही थी। भीतरी उधेडडबुन अधिक गहरा रही थी। मेरी शंकित मनोभावों को सहज करने के लिए ही शायद उस महिला ने तनिक दबी मुस्कान में कहा, ‘‘लगता है आपने मुझे पहचाना नहीं।’’ पुनः पीछे हटकर एक दीर्घ श्वास भरकर बोली, ‘‘एक लंबा समय बीत गया है; लगता है वह कोई दूसरा ही था; वक्त के थपेड़े बहुत कुछ बदल देते हैं- शरीर को भी; इसलिए तो आपने मुझे....’’

कहते-कहते महिला को रुकना पड़ा। दूसरी ओर से नौकरानी इधर प्रवेश कर रही थी। हाथ में ‘सैल’ फोन था, चेहर पर कुछ गंभीरता के भाव थे। शीघ्र बढ़ते पैरों के साथ-साथ शब्द प्रवाह भी तेज़ था, समीप आकर उसने कहा, ‘‘बीबी जी, सिविल लाइंज़ से फोन है। बहुत चिंता में हैं-’’
महिला ने गहन दृष्टि से मेरी ओर देखा, अस्थिर पलकों को नीचे झुकाते हुए कहा, ‘‘मम्मी का फोन है, ऐसे हालात में उन्हें इधर की बहुत फिक्र रहती है। क्षमा चाहती हूँ; मैं अभी आती हूँ-’’

‘सैल’ लेकर पुनः दूसरे कमरे में चली गयी। कुछ क्षणों के लिए मैं तो भूल ही गया था कि बाहर शहर की स्थिति विकट है। शायद कई स्थानों पर आग और लूटमार-; मन अस्वस्थ अशांत हो रहा था। वहाँ से एकदम निकल पाना भी तो कठिन लग रहा था। उद्विग्न भाव में मैं पुनः उठकर कमरे में इधर-इधर घूमने लगा। एक कोना आँखों से ओझल रह गया था, शायद पिछली ओर का-उधर ध्यान ही नहीं गया। एक अत्यंत सज्जित मेज़ पर सितारों की जोड़ी रख थी। समीप जाकर देखा, धूल की हलकी परत चिरकाल से ऊपर मौन एवं अस्पृश्य पड़े रहने का प्रमाण दे रही थी। साथ ही दीवार से तनिक ऊपर महिला का एक चित्र टँगा था जो शायद उसके कालेज दिनों का था। सहसा मेरे नेत्र वहीं टँगे एक अन्य चित्र पर स्थिर हो गये। ग्रुप फोटोग्राफ’ था; मैंने ध्यान से देखा; स्नातकोत्तर छात्र-छात्राओं का स्मृति चिन्ह-; जिसमें विभाग के अन्य सहयोगियों के साथ मैं भी मौजूद था।

‘ओ माई गॉड’ सहसा मेरे मुख से निकल पड़ा। अतीत के कुछ भूले-बिसरे चित्र स्वतः मनःपटल पर उभर आये। एक लंबे अंतराल के बाद मैं अपनी एक अत्यंत ही आत्मीय परिचिता के साथ वह भी ऐसी अनचाही स्थिति में ओफ ! मेरी साँस तेज़ होने लगी बीते कल की एक-एक घटना अंतश्चेतना में फिर से जीवंत होने लगी। उन दिनों कॉलिज में एक बड़े सामारोह की तैयारी चल रही थी। देश के कतिपय महान साहित्यकारों तथा संगीतकारों को आमंत्रित किया गया था। इस अवसर पर कॉलिज की ओर से भी कोई ‘आइटम’ की जाए, इस पर विचार हो रहा था। ध्यान सहसा इस छात्रा की ओर आकृष्ट हुआ। सितारवादन और गायन में वह निपुण थी। सहृदयों को मंत्रमुग्ध करने में भी पूर्णतया सक्षम थी। राजकीय स्तर की प्रतियोगिताओं में अलंकृत होकर अपने कॉलिज का नाम उज्जवल कर चुकी थी। कॉलिज के नये सत्र के आरंभ में ही उनकी कला ने सबको अभिमोहित कर दिया था; और फिर उसके बाद तो प्रत्येक समारोह और समागम में.....

‘क्लास’ के बाद हम सीढ़ियाँ उतर रहे थे। मैंने उसे रोकते हुए कहा, ‘‘प्रभा, अगले सप्ताह जो समारोह हो रहा है, हम चाहते हैं तुम भी अपनी एक अच्छी ‘आइटम’ दो....।’’
प्रभा ने मेरी ओर जिज्ञासु एवं तनिक संदेहशील नेत्रों से देखा; दूर तक फैले प्रांगण में घूमते छात्र समूह की ओर सारपूर्ण दृष्टि भरकर बोली, ‘‘सर, क्षमा कीजिए यह सब अब नहीं कर पाऊँगी-’’
‘‘भला क्यों ?’’ मैंने आश्चर्य से पूछा।
‘‘सर बस यूँ ही मन नहीं है-’’

प्रभा के उज्जवल आनन पर तनिक रक्तिम प्रवाह उमड़ने को था। लज्जावश उसके नेत्र झुक गये थे। मुझे अपने अधिकार का लोहा याद आया। अतः तनिक रूखे स्वर में कहना पड़ा, ‘‘ऐसा कैसे चल सकता है ? इसमें हमारे विभाग की प्रतिष्ठा का सवाल  है।’’ श्वास भरकर मैंने साधिकार पुनः कहा, ‘‘तुम्हें हर स्थिति में हमारा सहयोग.....’’

प्रभा ने तनिक पीछे हटकर आगे बढ़ने के लिए गति साधना की। स्पष्ट था, वह इस वार्ता को और आगे नहीं बढ़ाना चाहती थी। धीमे स्वर में उसने कहा, ‘सर, व्यर्थ मुझे विवश मत कीजिए। व्यक्ति की अपनी निजता और अहं भी तो कोई चीज़ है; बस आप से कह दिया; माफी चाहूंगी मैं-’’ उसकी बात सुनकर मैं अपने में ही सिमटकर रह गया। उन्मुक्त पंछी को जैसे अंधकूप में गिरना पड़ा हो। खुद को काट कर देखना जितना कठिन है कुछ वैसी ही कसक उस समय -; ऐसे रूखेपन से तो किसी ने भी मेरा तिरस्कार नहीं  किया था; फिर उस छात्रा ने...ओफ ! दमित अहम् चोट खाये साँप-सा फुंकार उठा। अंतर्मन दग्ध होने लगा। वैसी बौखलाहट कई दिनों तक कायम रही। जब-जब प्रभा का गर्म लोहा देखता, अतीत तीखी कटार मुझे तिल-तिल काटने लगता। साँसों का गर्म लोहा आसपास को भस्मीभूत करने को तत्पर हो उठता। फिर सब कुछ धीरे-धीरे सहज और शांत होने लगा। प्रभा के प्रति मन में जो द्वेष अवहेलना का दंश था, अंतराल की गहन कंदराओं में दम तोड़ने लगा। प्रभा की सरलता और सौम्यता से वशीकृत मेरा मन कहीं अन्यत्र मुक्ति पाने लगा। यह सब कैसे हुआ, नहीं  जानता मैं। उस घटना को मुझे भूलना ही था और धीरे-धीरे ऐसा हो भी रहा था।

फिर एक दिन, जब गर्मी का मौसम था; मैं अपना काम पूरा करके घर की ओर लौट रहा था। प्यास लगी थी, अतः लायब्रेरी के पास ‘वाटर कूलर’ के पास रुक गया। तृषा मिटाने के लिए अभी शीलत जल को ओठों से लगाया ही था कि सामने प्रभा को खड़ी पाया। वह इस सयय तक ‘कैम्पस’ में कैसे ? अब तक तो सभी क्लासें लग जाती हैं। कॉलिज भी लगभग खाली हो जाता है; इक्के-दुक्के कार्यकर्ता ही अटके रह जाते हैं। तो फिर इस समय प्रभा...? मैं उधेड़ बुन में ही था कि प्रभा ने मेरे निकट आते हुए कहा-
‘‘इतनी देर से आपकी प्रतीक्षा कर रही हूँ; अब कहीं जाकर ...’’
‘‘मेरी प्रतीक्षा ? लेकिन क्यों ?’’ मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखते हुए पूछा। प्रभा के सजग नयन तनिक झुक गये। धीमे स्वर में उसने कहा।

वीणा वादिनी वर दे में कौन सा अलंकार है?

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वीणा वादिनी वर दे के लेखक कौन है?

वर दे वीणावादिनी वर दे ! / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

दान कविता के रचयिता कौन है?

सम्राज्ञी का नैवेद्य-दान - कविता | हिन्दवी

वर दे वीणावादिनी में कवि ने क्या हर लेने की प्रार्थना की है?

इस पाठ के रचयिता सुविख्यात कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी “निराला' हैं। प्रसंग-इसमें कवि ने सरस्वती माँ की वन्दना की है। व्याख्या-कवि सरस्वती माता से प्रार्थना करता है कि हे वीणा वादिनी सरस्वती! तुम हमें वर दो और भारत के नागरिकों में स्वतन्त्रता की भावना का अमृत मन्त्र भर दो।