दलित साहित्य से तात्पर्य दलित जीवन और उसकी समस्याओं पर लेखन को केन्द्र में रखकर हुए साहित्यिक आंदोलन से है जिसका सूत्रपात दलित पैंथर से माना जा सकता है। दलितों को हिंदू समाज व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर होने के कारण न्याय, शिक्षा, समानता तथा स्वतंत्रता आदि मौलिक अधिकारों से भी वंचित रखा गया। उन्हें अपने ही धर्म में अछूत या अस्पृश्य माना गया। दलित साहित्य की शुरूआत मराठी से मानी जाती है जहां दलित पैंथर आंदोलन के दौरान बडी संख्या में दलित जातियों से आए रचनाकारों ने आम जनता तक अपनी भावनाओं, पीडाओं, दुखों-दर्दों को लेखों, कविताओं, निबन्धों, जीवनियों, कटाक्षों, व्यंगों, कथाओं आदि के माध्यम से पहुंचाया। Show
अवधारणा[संपादित करें]दलित साहित्य की अवधारणा को लेकर लंबी बहसें चलीं. यह सवाल दलित साहित्य में प्रमुखता से छाया रहा कि दलित साहित्य कौन लिख सकता है, यानी स्वानुभूति ही प्रामाणिक होगी या सहानुभूति को भी स्थान मिलेगा। प्रमुख दलित साहित्यकारों ने कहा चूंकि सवर्णों ने दलितों की पीडा को भोगा नहीं, इसलिए वे दलित साहित्य नहीं लिख सकते. हालांकि यह मत ज्यादा दिनों तक टिका नहीं, लेकिन आरंभ में बहस का मुद्दा बना रहा। प्रोफ़ेसर चौथी राम यादव के अनुसार - हिंदी पट्टी में जो नवजागरण आया उसमें साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रीय जागरण के साथ ही सामंतवाद विरोधी दलित जागरण के स्वर भी प्रस्फुटित हुए थे, जिसकी कोई नोटिस ही नहीं ली गई। भारत में एक समय स्वामी अछूतानन्द हरिहर के दलित आंदोलन की बड़ी धूम थी। स्वामी जी की कविताएँ दलित समाज में आत्मसम्मान और आत्मगौरव का बोध जगा रही थीं। इनकी कृतियों में मायानन्द बलिदान, रामराज्य न्याय, आदिवंश का डंका आदि ऐसी महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं जिनका दलित समुदाय पर बड़ा व्यापक प्रभाव पड़ा था। अछूतानन्द से प्रभावित दलित कवियों की एक पूरी शृंखला मिलती है जिसमें दर्जनों कवि कविताएं लिख रहे थे, उनमें जनकवि बिहारी लाल हरित सबसे प्रखर और लोकप्रिय कवि थे। दलित साहित्य एक साहित्यिक आंदोलन है जिसमें प्रमुखता से दलित समाज में पैदा हुए रचनाकारों ने हिस्सा लिया और इसे अलग धारा मनवाने के लिए संघर्ष किया।[1] साहित्य में दलित[संपादित करें]हालांकि साहित्य में दलित वर्ग की उपस्थिति बौद्ध काल से मुखरित रही है किंतु एक लक्षित मानवाधिकार आंदोलन के रूप में दलित साहित्य मुख्यतः बीसवीं सदी की देन है।[2] रवीन्द्र प्रभात ने अपने उपन्यास ताकि बचा रहे लोकतन्त्र में दलितों की सामाजिक स्थिति की वृहद चर्चा की है[3] वहीं डॉ॰एन.सिंह ने अपनीं पुस्तक "दलित साहित्य के प्रतिमान " में हिन्दी दलित साहित्य के इतिहास कों बहुत ही विस्तार से लिखा है।[4] प्रमुख भारतीय भाषाओं में दलित साहित्य[संपादित करें]मराठी दलित साहित्य हिंदी दलित साहित्य
प्रमुख हिंदी दलित साहित्यकार[संपादित करें]
सन्दर्भ[संपादित करें]
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12 सितंबर 2013 अपडेटेड 16 सितंबर 2013 इमेज कैप्शन, कौशल्या वैसंत्री की ये रचना हिंदी दलित साहित्य में पहली महिला आत्मकथा मानी जाती है. हिंदी साहित्य में दलितों के जीवन को केंद्र में रखकर अनेक किताबें लिखी गई हैं. मैंने उनमें से कुछ वैसी किताबों को यहां शामिल किया है जिनमें दलित जीवन की सच्चाई बेहद यथार्थवादी नज़रिए से अभिव्यक्त हुई है. 1. जूठन (आत्मकथा)- ओम प्रकाश वाल्मीकि दलित साहित्य में ‘जूठन’ ने अपना एक विशिष्ट स्थान बनाया है. इस पुस्तक ने दलित, गैर-दलित पाठकों, आलोचकों के बीच जो लोकप्रियता अर्जित की है, वह उल्लेखनीय है. स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी दलितों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए जो एक लंबा संघर्ष करना पड़ा, 'जूठन' इसे गंभीरता से उठाती है. प्रस्तुति और भाषा के स्तर पर यह रचना पाठकों के अन्तर्मन को झकझोर देती है. भारतीय जीवन में रची-बसी जाति–व्यवस्था के सवाल को इस रचना में गहरे सरोकारों के साथ उठाया गया है. दलितों की वेदना और उनका संघर्ष पाठक की संवेदना से जुड़कर मानवीय संवेदना को जगाने की कोशिश करते हैं. इसीलिए यह पुस्तक पाठकों के बीच इतनी लोकप्रिय हुई है. 2. मुर्दहिया (आत्मकथा) – तुलसी राम ‘जूठन’ भारत के पश्चिमी उत्तर-प्रदेश की ब्राह्मणवादी, सामंती मानसिकता के उत्पीड़न की अभिव्यक्ति है तो ‘मुर्दहिया’ पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचल में शिक्षा के लिए जूझते एक दलित की मार्मिक अभिव्यक्ति है. जहां सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक विसंगतियां क़दम–क़दम पर दलित का रास्ता रोक कर खड़ी हो जाती है और उसके भीतर हीनताबोध पैदा करने के तमाम षड्यंत्र रचती है. लेकिन एक दलित संघर्ष करते हुए इन तमाम विसंगतियों से अपने आत्मविश्वास के बल पर बाहर आता है और जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय में विदेशी भाषा का विद्वान बनता है. यही इस रचना को एक गंभीर सरोकारों की रचना बनाता है जिसे पाठक और आलोचक स्वीकार करते हैं. 3. पच्चीस चौका डेढ़ सौ (कहानी) – ओम प्रकाश वाल्मीकि दलित कहानियों में सामाजिक परिवेशगत पीड़ाएं, शोषण के विविध आयाम खुल कर और तर्क संगत रूप से अभिव्यक्त हुए हैं. ग्रामीण जीवन में अशिक्षित दलित का जो शोषण होता रहा है, वह किसी भी देश और समाज के लिए गहरी शर्मिंदगी का सबब होना चाहिए था. ‘पच्चीस चौका डेढ़ सौ’ कहानी में इसी तरह के शोषण को जब पाठक पढ़ता है, तो वह समाज में व्याप्त शोषण की संस्कृति के प्रति गहरी निराशा से भर उठता है. ब्याज पर दिए जाने वाले हिसाब में किस तरह एक सम्पन्न व्यक्ति, एक गरीब दलित को ठगता है और एक झूठ को महिमा-मण्डित करता है, वह पाठक की संवेदना को झकजोर कर रख देता है. 4. अपना गाँव (कहानी ) – मोहन दास नैमिशराय ‘अपना गाँव’ मोहनदास नैमिशराय की एक महत्त्वपूर्ण कहानी है जो दलित मुक्ति-संघर्ष आंदोलन की आंतरिक वेदना से पाठकों को रूबरू कराती है. दलित साहित्य की यह विशिष्ट कहानी है. दलितों में स्वाभिमान और आत्मविश्वास जगाने की भाव भूमि तैयार करती है. इमेज कैप्शन, मोहनदास नैमिशराय ने भारतीय संविधान निर्माता डॉक्टर भीमराव अँबेडकर की जीवनी भी लिखी है. इसीलिए यह विशिष्ट कहानी बन कर पाठकों की संवेदना से दलित समस्या को जोड़ती है. दलितों के भीतर हज़ारों साल के उत्पीड़न ने जो आक्रोश जगाया है वह इस कहानी में स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्त होता है. भाषा की सहजता इस कहानी को गंभीर सरोकारों से जोड़ने में सफल होती है. 5. ठाकुर का कुआं (कविता ) – ओम प्रकाश वाल्मीकि भारतीय समाज व्यवस्था ने दलितों के मौलिक अधिकार ही नहीं छीने बल्कि उन्हें निकृष्ट जीवन जीने के लिए भी बाध्य किया और उन पर कड़े कानून भी लागू किए. उनके संपत्ति अर्जित करने कर प्रतिबंध लगाए. आज भी दलितों के पास अपनी निजी जमीन व अन्य संपत्ति नहीं है जिसे अनदेखा करते हुए अनेक राज्य सरकारें दलितों को स्थायी निवास प्रमाण-पत्र जारी नहीं करती हैं यानी कहने को वे भारत के नागरिक हैं लेकिन राज्य सरकारें ऐसा नहीं मानती हैं. सैकड़ों साल एक ही स्थान पर रहने के बावजूद वे उस स्थान के निवासी नहीं माने जाते हैं क्योंकि उनके पास संपत्ति के कागजात नहीं हैं. ठाकुर का कुआं (कविता ) इसी सामाजिक सच्चाई को अभिव्यक्त करती है और दलितों की अंत:पीड़ा को सहज और सरल शब्दों में पाठकों के सामने रखती है. चूल्हा मिट्टी का /मिट्टी तालाब की /तालाब ठाकुर का ... 6॰सुनो ब्राह्मण (कविता ) – मलखान सिंह मलखान सिंह की ‘सुनो ब्राह्मण’ कविता ने दलित साहित्य में जो प्रतिष्ठा अर्जित की है वह अपने आप में एक उपलब्धि मानी जाएगी. ये कविता वर्ण-व्यवस्था, ब्राह्मणवादी, सामंती–व्यवस्था पर तीखेपन के साथ हमला करती है. साथ ही उन तमाम मिथकों, बिम्बों और प्रतीकों को भी चेतावनी देती है जो साहित्य में जड़ जमाए बैठे हैं. सीधे–सीधे संवादात्मक शैली में यह कविता अपनी पूरी ऊर्जा के साथ दलित चेतना को पाठकों के सामने बेबाकी से प्रस्तुत करती है. दलित साहित्य की यह एक श्रेष्ठ और महत्त्वपूर्ण रचना है॰ सुनो ब्राह्मण ! हमारी दासता का सफर / तुम्हारे जन्म से शुरू होता है /और इसका अंत भी / तुम्हारे अंत के साथ होगा. 7॰ नो बार (कहानी) – जयप्रकाश कर्दम इमेज कैप्शन, 'अछूत' मराठी के दलित साहित्यकार दया पवार की रचना है जिसमें महाराष्ट्र की महार जाति के जीवन संघर्ष का जीवंत चित्रण है. अखबारों के वैवाहिक विज्ञापनों में अक्सर लिखा होता है– जाति-बंधन नहीं (नो बार). लेकिन इसमें भी एक छिपा एजेंडा होता है. एक दलित के लिए यह शर्त लागू नहीं यानी दलित स्वीकार्य नहीं. यह कहानी इसी समस्या को केंद्र में रख कर सामाजिक जीवन में रची बसी जाति वैमनस्य की भावना को अभिव्यक्त करती है. इस कहानी के प्रस्तुतिकरण से जो प्रभावोत्पादकता पैदा होती है, वह पाठक को छू जाती है. वही इसे एक अच्छी कहानी के रूप में मान्यता दिलाती है. 8. मैं दूंगा माकूल जवाब (कविता) – असंगघोष असंगघोष की यह कविता दलित साहित्य में अपनी एक खास जगह बना चुकी है. यह कविता अपनी प्रस्तुति में जितनी सहज और सरल है, बोधगम्यता में उतनी ज्यादा गहन अनुभूतियों को भी अभिव्यक्त करती है. दलित के भीतर उफनते आक्रोश की यह कविता मानवीय संवेदनाओं को बहुत दूर तक ले जाती है. दलितों को शिक्षा से दूर रखने के जो षड्यंत्र व्यवस्था के नाम पर रचे गए, यह कविता उनके लिए एक माकूल जवाब है. इसीलिए यह दलित कविता में अपना एक विशिष्ट स्थान बनाने में सफल हुई है. समय के साथ /इसका/ मैं दूंगा माकूल जवाब/मेरे जगह/पढ़ेंगे मेरे बच्चे /जरूर ! 9. दोहरा अभिशाप (आत्मकथा) – कौशल्या वैसन्त्री कौशल्या वैसन्त्री की यह आत्मकथा हिन्दी दलित साहित्य की पहली महिला आत्मकथा मानी जाती है. कौशल्या वैसन्त्री अपने जीवन की एक–एक पर्त को जिस तरह उघाड़ कर पाठकों के सामने रखती हैं वह एक साहस का काम है. इस आत्मकथा की एक विशिष्टता है उसकी भाषा, जो जीवन की गंभीर और कटू अनुभूतियों को तटस्थता के साथ अभिव्यक्त करती है. एक दलित स्त्री को दोहरे अभिशाप से गुज़रना पड़ता है- एक उसका स्त्री होना और दूसरा दलित होना. कौशल्या वैसन्त्री इन दोनों अभिशापों को एक साथ जीती हैं जो उनके अनुभव जगत को एक गहनता प्रदान करते हैं. 10. शिकंजे का दर्द (आत्मकथा ) - सुशीला टाकभौरे सुशीला टाकभौरे की इस आत्मकथा ने अपने पारिवारिक और सामाजिक संघर्ष को जिस तरह शब्दबद्ध किया है वह इसे दलित साहित्य में एक विशिष्ट स्थान दिलाता है. एक स्त्री होने की पीड़ा और दलित जीवन की विसंगतियों को अभिव्यक्त करने में एक आत्मकथाकार को सफलता मिली है. इसीलिए यह दलित साहित्य की एक श्रेष्ठ रचना है. (प्रस्तुति: अमरेश द्विवेदी) (बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए क्लिक करें. आप हमें क्लिक करें फ़ेसबुक और ट्विटर पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.) दलित विमर्श के सबसे प्रमुख लेखक कौन हैं?हिंदी: दलित साहित्य की 10 श्रेष्ठ रचनाएँ. जूठन (आत्मकथा)- ओम प्रकाश वाल्मीकि दलित साहित्य में 'जूठन' ने अपना एक विशिष्ट स्थान बनाया है. ... . मुर्दहिया (आत्मकथा) – तुलसी राम ... . पच्चीस चौका डेढ़ सौ (कहानी) – ओम प्रकाश वाल्मीकि ... . अपना गाँव (कहानी ) – मोहन दास नैमिशराय ... . ठाकुर का कुआं (कविता ) – ओम प्रकाश वाल्मीकि. दलित आत्मकथा विमर्श किसकी रचना है?हिन्दी के दलित आत्मकथाकारों में ओमप्रकाश वाल्मीकि को सर्वाधिक सम्मान एवं स्वीकार्यता प्राप्त है। उनकी आत्मकथा 'जूठन' शीर्षक से प्रकाशित हुई। इस आत्मकथा के माध्यम से उत्तर भारत के वाल्मीकि समाज की सामाजिक स्थिति तथा उनकी दारूण व्यथा-कथा सबके सामने आ चुकी है।
हिंदी के प्रथम दलित कवि कौन है?हीरा डोम (जन्म- 1885 ई॰ के आसपास) उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में विद्यमान प्रथम दलित कवि के रूप में विख्यात हैं जिनकी एकमात्र उपलब्ध भोजपुरी कविता सुप्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका सरस्वती में छपी थी और जिसमें तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक विसंगतियों-विडम्बनाओं की विवेकपूर्ण अभिव्यक्ति मार्मिक रूप में हुई है।
दलित विमर्श की कहानी कौन सी है?दलित साहित्य से तात्पर्य दलित जीवन और उसकी समस्याओं पर लेखन को केन्द्र में रखकर हुए साहित्यिक आंदोलन से है जिसका सूत्रपात दलित पैंथर से माना जा सकता है। दलितों को हिंदू समाज व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर होने के कारण न्याय, शिक्षा, समानता तथा स्वतंत्रता आदि मौलिक अधिकारों से भी वंचित रखा गया।
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