संप्रभुता के बहुलवादी सिद्धांत का समर्थक कौन है - samprabhuta ke bahulavaadee siddhaant ka samarthak kaun hai

इस आर्टिकल में संप्रभुता के बहुलवादी सिद्धांत के बारे में प्रमुख बहुलवादी विचारक केे बहुलवादी विचारों के बारे में विस्तार से चर्चा की गई है।

संप्रभुता (Sovereignty) की विवेचना करते हुए बोदांं, हॉब्स, हीगल, ऑस्टिन आदि विद्वानों द्वारा संप्रभुता की अद्वैतवादिता (Monastic) का प्रतिपादन किया गया है जिसका तात्पर्य है कि प्रत्येक राज्य में एक ही संप्रभुता होती है, सभी व्यक्ति और समुदाय उसके अधीन होते हैं और यह सर्वोच्च सत्ता (Supreme Authority) राज्य की सत्ता होती है, इस धारणा के अनुसार राज्य की यह शक्ति मौलिक, स्थायी, सर्वव्यापी तथा अविभाजनीय होती है और मानव जीवन के सभी पहलुओं का नियमन और नियंत्रण राज्य के द्वारा ही किया जा सकता है।

संप्रभुता की अद्वैतवादिता (Monastic) कि इस धारणा के विरुद्ध जिस विचारधारा का उदय हुआ उसे हम राजनीतिक बहुलवाद या बहुसमुदायवाद (Pluralism) कहते हैं।

इस प्रकार बहुलवाद को संप्रभुता की अद्वैतवादी धारणा के विरुद्ध एक ऐसी प्रतिक्रिया कहा जा सकता है जो यद्यपि राज्य के अस्तित्व को बनाए रखना चाहती है किंतु राज्य की संप्रभुता का अंत करना श्रेयस्कर मानती है।

वह सिद्धांत जिसके अनुसार समाज में आज्ञा पालन कराने की शक्ति एक ही जगह केंद्रित नहीं होती बल्कि वह अनेक समूहों में बिखरी रहती है। ये समूह मानव जीवन की भिन्न-भिन्न आवश्यकताएं पूरी करने का दावा करते हैं।

बहुलवादी विचारधारा (Pluralism Ideology) के अनुसार राजसत्ता संप्रभु और निरंकुश नहीं है। समाज में विद्यमान अन्य अनेक समुदायों का अस्तित्व राजसत्ता को सीमित कर देता है। व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए केवल राज्य की सदस्यता स्वीकार नहीं करता और राज्य के साथ-साथ दूसरे अनेक समुदायों और संघों की सदस्यता भी स्वीकार करता है। ऐसी स्थिति में एकमात्र राज्य की संपूर्ण सत्ता प्रदान नहीं की जा सकती है।

विद्वान हेसियो (Hasio) ने इस संबंध में लिखा है कि “बहुलवादी राज्य एक ऐसा राज्य है, जिसमें सत्ता का केवल एक ही श्रोत नहीं है, यह विभिन्न क्षेत्रों में विभाजनीय है और इसे विभाजित किया जाना चाहिए।”

19वीं शताब्दी के शुरू में व्यक्तिवाद (Individualism) का जो दौर आया था उसकी तीव्र प्रतिक्रिया के रूप में केंद्रीकृत और सर्वसत्तात्मक प्रभुत्व संपन्न राज्य की मांग की जाने लगी थी। प्रभुसत्ता के बहुलवादी सिद्धांत (Pluralism Theory) का उदय इन्हीं प्रवृत्तियों के विरोध में हुआ क्योंकि उसने राज्य के एकतत्व (Monastic) स्वरूप और उसकी अखंड संप्रभुता का खंडन करके उसे समाज की अन्य संस्थाओं के समकक्ष रखा और सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए राज्य के साथ-साथ अन्य सामाजिक संस्थाओं की भूमिका पर प्रकाश डाला।

बहुलवादियों का मानना है कि राज्य कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो जाए, वह अनेक संस्थाओं में से एक संस्था है। बहुलवादी विचारक (Pluralism Thinker) राज्य की असीमित प्रभुसत्ता के सिद्धांत पर कठोर प्रहार करते हैं। राज्य संप्रभुता का एकतरफा प्रयोग नहीं कर सकता। बहुलवादी राज्य के भीतर ही कई शक्तिशाली संस्थाओं का अस्तित्व स्वीकार करते हैं। उन्होंने संप्रभुता के एकलवाद (Monastic) की कटु आलोचना की है।

बहुलवादियों ने तर्क दिया कि कोई भी संस्था व्यक्ति से अनन्य निष्ठा की मांग नहीं कर सकती, क्योंकि समाज की अनेक संस्थाएं मनुष्य के हितों की देखरेख करती है। उसके सामने अनेक बार यह निर्णय करने का अवसर आता है कि वह राज्य की औपचारिक सर्वोच्चता का सम्मान करें, या फिर किसी दूसरी संस्था या संगठन के आह्वान पर इसकी उपेक्षा कर दें।

अतः बहुलवादियों का तर्क था कि राज्य चाहे कितनी ही गरिमामय और शक्तिशाली संस्था क्यों न हो, वस्तुतः वह समाज की अनेक संस्थाओं में से एक है।

बहुलवादियों की मान्यता है कि मनुष्य की सामाजिक प्रकृति अनेक समुदायों के माध्यम से व्यक्त होती है, केवल राज्य के माध्यम से नहीं। समाज में धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, व्यवसायिक और राजनीतिक समुदाय नैसर्गिक रूप से उत्पन्न होते हैं जिनके द्वारा मनुष्य के हितों की पूर्ति होती है। राज्य इन समुदायों का जन्मदाता नहीं है।

राज्य की इन पर किसी प्रकार की नैतिक श्रेष्ठता भी नहीं है क्योंकि मूलतः राज्य भी समाज के विभिन्न समुदायों की भाँती एक समुदाय मात्र है और जिसके कार्य सीमित एवं सुनिश्चित है। राज्य निरंकुश अथवा सर्वशक्तिमान नहीं है। बहुलवादी संप्रभुता के परंपरागत सिद्धांत का खंडन करते हैं परंतु वे राज्य को समाज की एक आवश्यक संस्था भी मानते हैं।

बहुलवादी सत्ता के केंद्रीकरण (Power of Centralized) के विरुद्ध हैं और यह तर्क देते हैं कि राज्य में कार्य क्षमता का नितांत अभाव रहता है। वे यह मानते हैं कि यदि वर्तमान विश्व के जटिल राजनीतिक और आर्थिक संबंधों को ध्यान में रखा जाए तो राज्य और समाज को एक मान लेना भारी भूल होगी।

वे यह नहीं मानते कि मनुष्य की सामाजिक प्रकृति एक ही संगठन में पूरी तरह व्यक्त हो सकती है इसे राज्य कहते हैं। अतः वे राज्य की अखंड-असीम प्रभुसत्ता को अस्वीकार करके समाज के अंतर्गत अन्य संस्थाओं को और बड़ा हिस्सा देने की मांग करते हैं।

प्रमुख बहुलवादी विचारक

  • प्रमुख बहुलवादी विचारक
  • लियों द्यूगी के विचार
  • ह्यूगो क्रैब के विचार
  • अर्नेस्ट बार्कर के विचार
  • ए. डी. लिंडसे के विचार
  • एच जे लास्की के विचार
  • आर. एम. मैकाइवर के विचार
    • अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

इंग्लैंड के लास्की, अर्नेस्ट बार्कर और ए.डी. लिंडसे। अमेरिका के रॉबर्ट एम. मैकाइवर, मिस फॉलेट, फ्रांस के लियों द्यूगी, हॉलैंड के ह्यूगो क्रैब।

लियों द्यूगी के विचार

लियों द्यूगी राज्य के व्यक्तित्व और राज्य की प्रभुसत्ता दोनों को अस्वीकार करता है। लियों द्यूगी का कहना है कि वास्तविक व्यक्तित्व केवल मनुष्य में होता है जो आपस में सामाजिक संबंधों से जुड़े रहते हैं। राज्य की प्रभुसत्ता को वह इसलिए तर्कसंगत नहीं मानता कि वह कानून की सीमाओं से बंधा है।

लियों द्यूगी के अनुसार, “कानून का आधार सामाजिक सुदृढ़ता है। अतः कानून को अस्तित्व में लाने का श्रेय राज्य को नहीं है, वह राज्य की उत्पत्ति से पहले भी विद्यमान था और उसका स्थान राज्य से ऊंचा है।”

इस तरह लियों द्यूगी के चिंतन में राज्य के कर्तव्यों को प्रमुखता दी गयी है, अधिकारों को नहीं। राज्य का बुनियादी लक्षण जनसेवा है, प्रभुसत्ता नहीं। कानूनी तौर पर साधारण नागरिक की तरह राज्य को भी अपने कार्यों के लिए उत्तरदायी होना चाहिए।

लियों द्यूगी यह मानता है कि आधुनिक राज्य का मुख्य सरोकार जनकल्याण है ना कि सर्वोच्च सत्ता प्राप्त करना। अतः इस हेतु राज्य को प्रभुसत्ता की जगह जनसेवा के विचार को अपनाना चाहिए। इस सिद्धांत को व्यवहार में लाने के लिए द्यूगी ने क्षेत्रीय विकेंद्रीकरण तथा प्रशासनिक और व्यवसायिक संघ व्यवस्था का सुझाव दिया।

ह्यूगो क्रैब के विचार

ह्यूगो क्रैब, लियो द्यूगी की तरह ही राज्य को अस्तित्व में लाने का श्रेय कानून को देता है। सामाजिक हितों का जितना मूल्यांकन होता है वह कानून के रूप में व्यक्त होता है। संप्रभुता केवल कानून में निहित होती है।

ह्यूगो क्रैब के अनुसार, “प्रभुसत्ता की धारणा को राजनीति सिद्धांत के विचार क्षेत्र से निकाल देना चाहिए।”

अर्नेस्ट बार्कर के विचार

अर्नेस्ट बार्कर ने गिर्यक-मेटलैंड द्वारा प्रतिपादित समूहों के ‘यथार्थ व्यक्तित्व’ की अवधारणा को पूरी तरह से नहीं अपना कर उसकी मुख्य मान्यताओं को स्वीकार करते हैं। अर्नेस्ट बार्कर के अनुसार इन समूहों को अस्तित्व में लाने का श्रेय राज्य को नहीं है अपितु यह पहले से ही विद्यमान होते हैं।

अर्नेस्ट बार्कर के अनुसार, “प्रभुसत्ता संपन्न राज्य की मान्यता जितनी निर्जीव और निरर्थक हो गई है उतनी और कोई राजनीतिक संकल्पना न हुई होगी।”

ए. डी. लिंडसे के विचार

लिंडसे के अनुसार समाज में निगमित व्यक्तित्वों की संख्या अनंत होती है। उनमें कई छोटे-छोटे समूह इतने एकसार होते हैं जितना स्वयं राज्य भी नहीं होता।

अतः इन छोटे-छोटे समूहों के सदस्यों के हित जितने एकसार होते हैं उतने बड़े-बड़े समूह के नहीं होते। इनके सदस्यों को इन पर और भी गहरी निष्ठा हो सकती है। यदि इन्हें स्वायत्त रूप से कार्य करने दिया जाए तो हो सकता है, सामाजिक तालमेल को निभाने में वे राज्य से भी अधिक प्रभावशाली सिद्ध हो।

लिंडसे के अनुसार, “यदि हम वस्तुस्थिति को देखें तो यह सर्वथा स्पष्ट हो जाएगा कि प्रभुसत्ता संपन्न राज्य का सिद्धांत धराशायी हो चुका है।”

एच जे लास्की के विचार

व्यक्ति की विविध आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सामाजिक संगठन के ढांचे का स्वरूप संघीय होना चाहिए।

लास्की के अनुसार, “चूंकि समाज का स्वरूप संघात्मक है इसलिए सत्ता का स्वरूप भी संघात्मक होना चाहिए।” (Because Society is Federal Authority Must be Federal.)

लास्की संप्रभुता के विचार को व्यक्ति के विकास में बाधक मानता है। लास्की के अनुसार, “मैं केवल उसी राज्य के प्रति राजभक्ति और निष्ठा रखता हूं उसी के आदेशों का पालन करता हूं, जिस राज्य में मेरा नैतिक विकास पर्याप्त रूप से होता है। हमारा प्रथम कर्तव्य अपने अंतःकरण के प्रति सच्चा रहना है।”

लास्की संप्रभुता की धारणा को अंतर्राष्ट्रीय शांति के लिए बहुत अधिक भयावह मानता है। लास्की के अनुसार, “असीमित एवं अनुत्तरदायी संप्रभुता का सिद्धांत मानवता के हितों से मेल नहीं खाता और जिस प्रकार राजाओं के देवी अधिकार समाप्त हो गए वैसे ही राज्य की संप्रभुता भी समाप्त हो जाएगी। यदि संप्रभुता का सारा विचार ही सदैव के लिए समाप्त कर दिया जाए तो राजनीति विज्ञान के प्रति यह एक बहुत बड़ी सेवा होगी।”

लास्की ने तर्क दिया है कि रीति-रिवाज प्रभु सत्ताधारी की शक्ति को सीमित करते हैं, परंतु वे प्रभुसत्ताधारी की इच्छा को व्यक्त नहीं करते। जब प्रभुसत्ताधारी पहले से प्रचलित रीति-रिवाजों का सम्मान करने को बाध्य है तब उसकी इच्छा सर्वोपरि कहां रह जाती है।

संघीय व्यवस्था में प्रभुसत्ता के विचार में लास्की ने तर्क दिया कि संघीय व्यवस्था के अंतर्गत है जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका (USA) में प्रभुसत्ता के सही स्थान का पता लगाना मुश्किल है। ऐसी स्थिति में प्रभुसत्ता को राज्य का अनिवार्य लक्षण मानना निराधार है।

शक्ति के लोकतंत्रीकरण पर विचार व्यक्त करते हुए लास्की ने तर्क दिया कि राजनीतिक जीवन पर आर्थिक संगठनों और सत्ताधारीयों का नियंत्रण लोकतंत्र को निरर्थक बना देता है। जब तक सामाजिक उत्पादन के बुनियादी साधनों पर पूरे समुदाय का नियंत्रण नहीं होगा, तब तक लोकतंत्र सार्थक नहीं हो सकता।

परंतु इस तर्क को आगे बढ़ाते हुए लास्की फिर बहुलवादी समाधान पर आ जाता है, और पूंजीवाद (Capitalism) को समाप्त करने के बजाय पूंजीपतियों को लाभ में हिस्सा देने की बात करता है।

आर. एम. मैकाइवर के विचार

अमेरिकी समाजवैज्ञानिक मैकाइवर ने अपनी दो प्रसिद्ध कृतियों ‘द मॉडर्न स्टेट’ (The Modern State, आधुनिक राज्य, 1926) और ‘द वेब ऑफ गवर्नमेंट’ (The Web of Government, शासन तंत्र 1947) के अंतर्गत समाजवैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रभुसत्ता के सिद्धांत का खंडन किया है।

मैकाइवर ने तर्क दिया है कि प्रभुसत्ता कोई असीम शक्ति नहीं हो सकती। बहुत से बहुत इसे राज्य का एक कृत्य मान सकते हैं, राज्य का गुण नहीं मान सकते। पूर्ण प्रभुसत्ता के सिद्धांत का खंडन करते हुए मैकाइवर ने बहुलवादी दृष्टिकोण का समर्थन किया है। उसने मुख्य रूप से यह तर्क दिए हैं –

  • राज्य किसी निश्चित इच्छा की अभिव्यक्ति नहीं है।
  • राज्य रीति-रिवाज का रक्षक है।
  • राज्य कानून की घोषणा करता है उसका सृजन नहीं करता।
  • किसी व्यापारिक निगम की तरह राज्य के भी अपने अधिकार और दायित्व होते हैं।
  • राज्य अन्य मानव संगठनों के आंतरिक मामलों का नियम नहीं कर सकता।

अतः निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि बहुलवादी सिद्धांत (Pluralism Theory) के प्रवर्तकों ने प्रभुसत्ता के दुरुपयोग को रोकने की कोशिश की है। ए.डी. लिंंडसे और आर.एम. मैकाइवर ने तो यहां तक स्वीकार किया कि समाज के कई साहचर्य राज्य से भी ज्यादा गहरी निष्ठा के पात्र होते हैं।

एच. जे. लास्की ने बहुलवादी प्रतिरूप का प्रयोग आर्थिक शक्ति के जमाव (Concentration of Economic Power) को रोकने के उद्देश्य से किया जो कि पूंजीवाद (Capitalism) की उपज था।

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अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

  1. बहुलवादी सिद्धांत के अनुसार राज्य की संप्रभुता का आधार क्या है?

    उत्तर : बहुलवादी सिद्धांत के अनुसार राजसत्ता सम्प्रभु और निरंकुश नहीं है। समाज में मौजूद अन्य अनेक समुदायों का अस्तित्व राजसत्ता को सीमित कर देता है। व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए केवल राज्य की ही सदस्यता स्वीकार नहीं करता, वरन् राज्य के साथ-साथ दूसरे अनेक समुदायों और संघों की सदस्यता भी स्वीकार करता है।

  2. बहुलवादी प्रजातंत्र के प्रतिपादक कौन है?

    उत्तर : बहुलवादी प्रजातंत्र के प्रतिपादक लास्की, बार्कर, लिंडसे, क्रैब आदि थे।

  3. कौन-सा सिद्धांत राज्य की संप्रभुता को चुनौती देता है और ‘राज्य को संघों का संघ’ मानता है?

    उत्तर : संप्रभुता का बहुलवादी सिद्धांत राज्य की संप्रभुता को चुनौती देता है और ‘राज्य को संघों का संघ’ मानता है।

कौन संप्रभुता के बहुलवादी सिद्धांत का समर्थक है?

इस प्रकार बहुलवाद को सम्प्रभुता की अद्वैतवादी धारणा के विरुद्ध एक ऐसी प्रतिक्रिया कहा जा सकता है जो यद्यपि राज्य के अस्तित्व को बनाए रखना चाहती है, किन्तु राज्य की सम्प्रभुता का अन्त करना श्रेयस्कर मानती है। इस विचारधारा के प्रमुख समर्थक लास्की, बार्कर, ड्यूगी, कोल, मैकाइवर आदि हैं।

बहुलवाद का जनक कौन है?

बहुलवाद को विचारधारा के रूप में स्थापित करने का श्रेय जर्मन समाजशास्त्री गीयर्क तथा बिर्टिश विद्वान मेटलेंड को है, जिन्हें आधुनिक राजनीतिक बहुलवाद का जनक कहा जाता है। बहुलवाद (Pluralism) का उपयोग विभिन्न क्षेत्रों में और विभिन्न रूपों में होता है।

संप्रभुता के सिद्धांत का जनक कौन है?

जीन बोंदा ने 1756 में अपनी किताब Six Book Concerning Republic में संप्रभुता शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया था। उन्होंने फ्रांसीसी राजा की ताकत को और को मजबूत करने के लिए संप्रभुता की नई अवधारणा का प्रयोग किया था। किसी राज्य की सर्वोच्च सत्ता संप्रभुता कहलाती है।

संप्रभुता के एकल वादी सिद्धांत के प्रतिपादक कौन हैं?

ऑस्टिन के अनुसार, स्वतंत्र राजनीतिक समाज में प्रभु निश्चित और निरपेक्ष होता है तथा उसकी सत्ता असीम, अविभाज्य और असंक्राम्या होती है। लास्की का कहना है कि यदि ऑस्टिन के इस मत को स्वीकार कर लिया जाय तो संघ राज्य में सम्प्रभुता का पता लगाना ही असम्भव हो जायेगा।