रस (Sentiments)रस का शाब्दिक अर्थ है ‘आनंद’। काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनंद की अनुभूति होती है, उसे ‘रस’ कहा जाता है। Show भोजन रस के बिना यदि नीरस है, औषध रस के बिना यदि निष्प्राण है, तो साहित्य भी रस के बिना निरानंद है। यही रस साहित्यानंद को ब्रह्मानंद-सहोदर बनाता है। जिस प्रकार परमात्मा का यथार्थ बोध कराने के लिए उसे रस-स्वरूप ‘रसो वै सः’ कहा गया, उसी प्रकार परमोत्कृष्ट साहित्य को यदि रस-स्वरूप ‘रसो वै सः’ कहा जाय, तो अत्युक्ति न होगी। रस की व्युत्पत्ति दो प्रकार से दी गयी है- जिस तरह से लजीज भोजन से जीभ और मन को तृप्ति मिलती है, ठीक उसी तरह मधुर काव्य का रसास्वादन करने से हृदय को आनंद मिलता है। यह आनंद अलौकिक और अकथनीय होता है। इसी साहित्यिक आनंद का नाम ‘रस’ है। साहित्य में रस का बड़ा ही महत्त्व माना गया है। साहित्य दर्पण के रचयिता ने कहा है- ”रसात्मकं वाक्यं काव्यम्” अर्थात रस ही काव्य की आत्मा है। काव्यप्रकाश के रचयिता मम्मटभट्ट ने कहा है कि आलम्बनविभाव से उदबुद्ध, उद्यीप्त, व्यभिचारी भावों से परिपुष्ट तथा अनुभाव द्वारा व्यक्त हृदय का ‘स्थायी भाव’ ही रस-दशा को प्राप्त होता है। उदाहरण- राम पुष्पवाटिका में घूम रहे हैं। एक ओर से जानकीजी आती हैं। एकान्त है और प्रातःकालीन वायु। पुष्पों की छटा मन में मोह पैदा करती हैं। राम इस दशा में जानकीजी पर मुग्ध होकर उनकी ओर आकृष्ट होते है। राम को जानकीजी की ओर देखने की इच्छा और फिर लज्जा से हर्ष और रोमांच आदि होते हैं। इस सारे वर्णन को सुन-पढ़कर पाठक या श्रोता के मन में ‘रति’ जागरित होती है। यहाँ जानकीजी ‘आलम्बनविभाव’, एकान्त तथा प्रातःकालीन वाटिका का दृश्य ‘उद्यीपनविभाव’, सीता और राम में कटाक्ष-हर्ष-लज्जा-रोमांच आदि ‘व्यभिचारी भाव’ हैं, जो सब मिलकर ‘स्थायी भाव’ ‘रति’ को उत्पत्र कर ‘शृंगार रस’ का संचार करते हैं। भरत मुनि ने ‘रसनिष्पत्ति’ के लिए नाना भावों का ‘उपगत’ होना कहा है, जिसका अर्थ है कि विभाव, अनुभाव और संचारी भाव यहाँ स्थायी भाव के समीप आकर अनुकूलता ग्रहण करते हैं। आचार्यों ने अपने-अपने ढंग के ‘रस’ को परिभाषा की परिधि में रखने का प्रयत्न किया है। सबसे प्रचलित परिभाषा
भरत मुनि की है, जिन्होंने सर्वप्रथम ‘रस’ का उल्लेख अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘नाट्यशास्त्र’ में ईसा की पहली शताब्दी के आसपास किया था। उनके अनुसार ‘रस’ की परिभाषा इस प्रकार है- रस के अंगरस के चार अंग है- (1) विभाव :- जो व्यक्ति, पदार्थ अथवा ब्राह्य विकार अन्य व्यक्ति के हृदय में भावोद्रेक करता है, उन कारणों को ‘विभाव’ कहा जाता है। विश्र्वनाथ ने साहित्यदर्पण में लिखा है- ‘रत्युद्बोधका: लोके विभावा: काव्य-नाट्ययो:’ अर्थात् जो सामाज में रति आदि भावों का उदबोधन करते हैं, वे विभाव हैं। विभाव के भेद विभाव के दो भेद हैं- (क) आलंबन विभाव (ख) उद्दीपन विभाव। (क)आलंबन विभाव- जिसका आलंबन या सहारा पाकर स्थायी भाव जगते है, आलंबन विभाव कहलाता है। आलंबन विभाव के दो पक्ष होते है- आश्रयालंबन व विषयालंबन। (ख) उद्दीपन विभाव-जिन वस्तुओं या परिस्थितियों को देखकर स्थायी भाव उद्यीप्त होने लगता है, उद्दीपन विभाव कहलाता है। जैसे- चाँदनी, कोकिल, कूजन, एकांत स्थल, रमणीक उद्यान, नायक या नायिका की शारीरिक चेष्टाएँ आदि। (2) अनुभाव :- आलम्बन और उद्यीपन विभावों के कारण उत्पत्र भावों को बाहर प्रकाशित करनेवाले कार्य ‘अनुभाव’ कहलाते है। सरल शब्दों में- जो भावों का अनुगमन करते हों या जो भावों का अनुभव कराते हों, उन्हें अनुभव कहते हैं : ”अनुभावयन्ति इति अनुभावा:” । विश्र्वनाथ ने साहित्यदर्पण में अनुभाव की परिभाषा इस प्रकार दी है- अनुभावों की संख्या 8 मानी गई है- अनुभाव के भेद अतः अनुभाव के चार भेद है- (क) कायिक- कटाक्ष, हस्तसंचालन आदि आंगिक चेष्टाएँ कायिक अनुभाव कही जाती है। (ख) वाचिक- भाव-दशा के कारण वचन में आये परिवर्तन को वाचिक अनुभाव कहते हैं। (ग) मानसिक- आंतरिक वृत्तियों से उत्पत्र प्रमोद आदि भाव को मानसिक अनुभाव कहते हैं। (घ) आहार्य-बनावटी वेशरचना को आहार्य अनुभाव कहते हैं। (च) सात्विक- शरीर के स्वाभाविक अंग-विकार को सात्विक अनुभाव कहते हैं। (3) व्यभिचारी या संचारी भाव :- मन में संचरण करनेवाले (आने-जाने वाले) भावों को ‘संचारी’ या ‘व्यभिचारी’ भाव कहते है। व्यभिचारी या संचारी भाव ‘स्थायी भावों’ के सहायक है, जो अनुकुल परिस्थितियों में घटते-बढ़ते हैं। जैसे- निर्वेद, शंका और आलस्य आदि स्त्रियों या नीच पुरुषों के संचारी भाव है; गर्व आत्मगत संचारी है; अमर्ष परगत संचारी; आवेग या त्रास कालानुसार संचारी हैं। भरत के अनुसार और अन्य आचार्यों के भी मत से पानी में उठनेवाले और आप-ही-आप विलीन होनेवाले बुदबुदों- जैसे ये संचारी या व्यभिचारी भाव स्थायी भावों के भेदों के अन्दर अलग-अलग भी हो सकते हैं और एक स्थायी भाव के संचारी दूसरे में भी आ सकते हैं। जैसे- गर्व ‘शृंगार’ (स्थायी भाव ‘रति’ का रस’) में भी हो सकता है और ‘वीर’ में भी। संचारी भावों की संख्या संचारी भावों की कुल संख्या 33 मानी गई है-
त्रास=भय/व्यग्रता, लज्जा=ब्रीड़ा, असूया=दूसरे के उत्कर्ष के प्रति असहिष्णुता, अमर्ष = विरोधी का अपकार करने की अक्षमता से उत्पत्र दुःख, निर्वेद=अपने को कोसना या धिक्कारना, बिबोध=चैतन्य लाभ, अवहित्था=हर्ष आदि भावों को छिपाना, अपस्मार=मूर्च्छा, व्याधि=रोग (4) स्थायी भाव :- रस के मूलभूत कारण को स्थायी भाव कहते हैं। पंडितराज जगन्नाथ ने ‘रसगंगाधर’ में इसकी इस प्रकार परिभाषा दी है- ”सजातीय – विजातीयैरतिरस्कृतमूर्तिमान्। अर्थात जिस भाव का स्वरूप सजातीय एवं विजातीय भावों से तिरस्कृत न हो सके और जबतक रस का आस्वाद हो, तबतक जो वर्तमान रहे, वह स्थायी भाव कहलाता है। मन का विकार ‘भाव’ है। भरत मुनि ने अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में भावों की संख्या उनचास कही है, जिनमें तैतीस संचारी या व्यभिचारी, आठ सात्विक और शेष आठ ‘स्थायी भाव’ है। भरत के अनुसार ‘स्थायी भाव’ ये है- (i) रति, (ii) ह्रास (iii) शोक (iv) क्रोध (v) उत्साह (vi) भय (vii ) जुगुप्सा/घृणा (viii) विस्मय/आश्चर्य (ix)शम/निर्वेद (वैराग्य/वीतराग) (x)वात्सल्य रति (xi)भगवद विषयक रति/अनुराग भरत ने बाद में शम या निर्वेद या शान्त को भी नवम ‘स्थायी भाव’ माना। बाद के आचार्यों ने भक्ति और वात्सल्य को भी ‘स्थायी भाव’ माना है। भाव का स्थायित्व वहीं होता है, जहाँ (i) आस्वाद्यत्व, अर्थात व्यावहारिक जीवन में स्पष्ट अनुरंजकता (ii) उत्कटत्व, अर्थात इतनी तीव्रता कि अन्य किसी सजातीय या विजातीय भावों में न दब या सिमट पाना (iii) सर्वजनसुलभत्व अर्थात संस्कार-रूप में हर मनुष्य में वर्तमान होना (iv) पुरुषार्थोपयोगिता, अर्थात धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थो की सिद्धि की योग्यता और (v) औचित्य, अर्थात भाव के विषय में आलम्बन आदि विषय की अनुकूलता हो। इन पाँच आधारों पर प्रथम नौ भाव ही ‘स्थायी भाव’ हो सकते है। अतः मन के विकार को भाव कहते है और जो भाव आस्वाद, उत्कटता, सर्वजन-सुलभता, चार पुरुषार्थो की उपयोगिता और औचित्य के नाते हृदय में बराबर बना रहे, वह ‘स्थायी भाव’ है। ”वास्तविक ‘स्थायी भाव’ के उदाहरण तो रस की परिपक्व अवस्था में ही मिल सकते है, अन्यत्र नही। ” ”जो भाव चिरकाल तक चित्त में स्थिर रहता है, जिसे विरुद्ध या अविरुद्ध भाव दबा नहीं सकते और जो विभावादि से सम्बद्ध होने पर रस रूप में व्यक्त होता है, उस आनन्द के मूलभूत भाव को ‘स्थायी भाव’ कहते है।” रसों की संख्यारसों की संख्या के संबंध में यद्यपि अधिकतर आचार्य एकमत हैं कि रस नौं हैं, तथापि अनेक आचार्याें ने इस संबंध में विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत किये हैं- भरत के अनुसार रस-संख्याः- भरत ने द्रुहिण नामक किसी प्राचीन महात्मा के नाम प्र रसों की संख्या आठ मानी है, यद्यपि उनके ग्रन्थ नाट्यशास्त्र के एक संस्करण में शांत रस को मिलाकर रसों की संख्या नौ भी निर्दिष्ट की गई है। दण्डी के अनुसार रस-संख्या – दण्डी ने आठ रसों को उल्लेख किया है। उद्भट के अनुसार रस-संख्या – उद्भट ने स्पष्ट शब्दों में नौं रसों को माना। रुद्रट के अनुसार रस-संख्या – इनके परवर्ती आचार्य रुद्रट ने प्रेयान् रस की अभिवृद्धि करके रस-संख्या दस गिनायी है। आनन्दवर्धन के अनुसार रस-संख्या – इनके अनुसार रस नौ हैं। धनंजय के अनुसार रस-संख्या – धनंजय ने काव्य में तो नौ रसां की स्वीकृति की है, किन्तु नाटक में शांत रस की स्वीकृति नहीं की। इसी प्रसंग में उन्होंने प्रीति अर्थात् प्रेयान् तथा भक्ति रस का खण्डन किया। अभिनवगुप्त के अनुसार रस-संख्या – इन्होंने नौ रसों के अतिरिक्त तीन अन्य रसों का उल्लेख करते हुए इनकी पृथक सत्ता स्वीकार नहीं की – (1) स्नेह रस (आर्द्रता) (2) लौल्य रस (गर्ध), (3) भक्ति रस (भगवद्भक्ति) भोज के अनुसार रस-संख्या – भोज ने नाटकों के नायकों के आधार प्र प्रेयान्, शांत, उदात्त और उद्धत इन चार रसों की परिगणना की – 1- धीरललित:- प्रेयान् रस इनके अतिरिक्त इन्होंने स्वातन्=य, आनन्द, प्रशम और पारुष्य के साथ-साथ स्व, विलास, अनुराग तथा संगम रसों को भी उल्लेख किया। विश्वनाथ के अनुसार रस-संख्या:- विश्वनाथ ने नौ रसों के अतिरिक्त वत्सल रस (वात्सल्य स्थायीभाव) को स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया और रस-संख्या दस मानी। रूपगोस्वामी के अनुसार रस-संख्या:- इन्होंने उक्त कतिपय आचार्यों के समान भक्ति को रति का एक रूप स्वीकार न करके इस एक स्वतंत्र रस घोषित किया है। आधुनिक मनीषियों का विचार रस-संख्या के संबंध में इधर आगे चलकर आधुनिक मनीषियों ने भी अपना योग प्रदान करते हुए आनन्द (प्रमोद), प्रकृति, देशभक्ति, क्रांति, उद्वेग और प्रक्षाभ रसों की परिगणना की है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के अनुसार रस-संख्या:- आनन्द या प्रमोद (सर्कस का तमाशा, दो पहलवानों का मल्लयुद्ध, दो साँडों की लड़ाई आदि से जन्य आनन्द) को भारतेन्दु हरिचन्द्र ने माना। हमारे विचार में इस प्रकार का मनोरंजन लोक के स्तर पर अवस्थित है, काव्य के स्तर पर नहीं। रामचंद्र शुक्ल के अनुसार रस-संख्या:- प्रकृति रस की स्थापना आचार्य शुक्ल ने की। जीवन में प्राकृतिक दृश्यों द्वारा प्राप्त आनन्द को उन्होंने प्रकृति रस कहा। किन्तु शास्त्रीय दृष्टि से प्रत्यक्ष अनुभव को ‘रस’ नाम से अभिहित नहीं किया जाता। गुलावराय के अनुसार रस-संख्या:- देशभक्ति रस को हिंदी में गुलाबराय और मराठी में परांजपे, जोग आदि ने स्वीकार किया। स्पष्टतः देशभक्ति को भी देवविषयक रति के समान ‘भाव’ ही मानना चाहिए। मराठी चिंतक के अनुसार रस-संख्या:- कांति, उद्वेग और प्रक्षोभ आदि रसों की कल्पना भी मराठी के चिंतकों ने की, किंतु इन्हें स्पष्टतः विषयानुसार किसी संचारीभाव में अंतर्भूत किया जा सकता है। रस-संख्या संकोच:- इस प्रकार आचार्यों में रस संख्या विस्तार की जो भावना काम करती रही उसके विपरीत आचार्यों में ही कवियों में भी रस संख्या संकोच की भावना काम करती रही। किसी एक रस को केवल एक मात्र, प्रधान या रस मानते हुए उसी से अन्य रसों की उद्भावना स्वीकार करना। इस दृष्टि से शृंगार, करुण, अद्भुत, शांत, भक्ति और माया – इन छः रसों का नाम उल्लेखनीय है। शृंगार ही एक रस है- व्यासदेव ने रति शृंगार को ही एक रस माना है। उन्होेंने रति की उत्पत्ति अभिमान से मानी है। वह परिपोष प्राप्त करके शृंगार रस में परिणत हो जाता है। हास्य आदि अन्य रस अपने स्थायी-विशेषों से परिपुष्ट होकर अन्य रस बनते है जो उसके ही भेद हैं। भोज कहते है कि शास्त्रकारों ने शृंगार, वीर, करुण आदि दस रस माने है, पर आस्वादयोग्यता से ही शृंगार को ही एक रस मानते हैं। करुण ही एक रस है – महाकवि भवभूति कहते है कि करुण ही एक रस है जो निमित्त भेद से अन्यान्य रसों के रूप ग्रहण करते हैं। करुण से तात्पर्य करुणा अर्थात् सहृदयता अथवा अनुकार्य के प्रति तादात्म्यभाव अथवा दयाभाव, जो कि सभी रसों के लिए अपेक्षित है, अतः करुण रस मूल रस है। अद्भुत रस एक रस है- अद्भुत रस के संबंध में धर्मदत्त और नारायण नामक दो आचार्यों के निम्न कथन उल्लेखनीय है – ‘रस का सार है चमत्कार जो कि सब प्रकार की काव्य-रचनाओं में अनुभव किया जाता है। चमत्कार को ही सार रूप में स्वीकृति किये जाने पर सर्वत्र अद्भुत रस की ही स्वीकृति की जानी चाहिए, और इसी मान्यता के आधार पर केवल अद्भुत को ही एकमात्र रस मानना चाहिए। शांत रस एक रस है – नाट्यशास्त्र के एक स्थल के आधार पर शांत रस को मूल रस माना जाता है कि शांत ‘प्रकृति’ अर्थात् मूल रस है और शेष रस उसके विकार अर्थात् उससे उत्पन्न हैं। आगे चलकर अभिनवगुप्त ने शांत रस का स्थायीभाव आत्मज्ञान (तत्व ज्ञान) को माना है। आत्मज्ञान से उनका तात्पर्य है – आनन्दमयता। भक्तिरस एक रस है – भक्तिरस को मानते हुए रूपगोस्वामी ने इसे प्रधान रस घोषित किया तथा अन्य रसों को गौण मानकर उन्हें इससे सम्बद्ध करते हुए इन्हें ‘ शृंगार-भक्तिरस,’ ‘हास्य-भक्तिरस’ आदि नाम दिया। माया रस – माया रस की गणना भानुदत्त ने की थी। उनके अनुसार – ‘जिस प्रकार निवृत्ति नामक चितवृत्ति में शांत रस होता है, उसी प्रकार प्रवृति नाम चित्तवृत्ति में माया रस की प्रतीति होती है। माया रस का स्थायीभाव है मिथ्या ज्ञान। इस रस में विभाव है – सांसारिक भोगों के उत्पादक धर्म और अधर्म। अनुभाव हैं- पुत्र, कलत्र, विजय, साम्राज्य आदि। माया रस का लक्षण है – जहाँ मिथ्या ज्ञान की वासना विभाव आदि के संयोग पाकर प्रबुद्ध एवं उपचित हो जाती है वहाँ माया रस कहाता है। (रसतरंगिणी) इस प्रकार की व्याख्याएँ विषयान्तर की शरण लेकर की गई हैं, अतः इन्हें मूल रस नहीं मानना चाहिए, यद्यपि इनमें व्यापकता है। किन्तु इससे कला-विकास का क्षेत्र संकुचित हो जाता है। इस प्रकार भारतीय काव्यशास्त्र में रसों की संख्या में समय-समय पर वृद्धि और न्यूनता की जाती रही। निष्कर्षतः रस उसे मानना चाहिए जिसका स्थायीभाव सहज तथा स्वाभाविक हो, वह किसी अन्य भाव से जन्य न हो तथा वह अर्जित भी न हो। इस आधार पर हमारे विचार में शृंगार आदि आठ रसों के साथ-साथ शांत, वत्सल और प्रेयान् – इन तीन रसों को मिलाकर कुल ग्यारह रस मानने चाहिए तथा इनसे इतर रसों की स्वीकृति नहीं करनी चाहिए। रस के प्रकाररस के ग्यारह भेद होते है- (1) शृंगार रस (2) हास्य रस (3) करूण रस (4) रौद्र रस (5) वीर रस (6) भयानक रस (7) बीभत्स रस (8) अदभुत रस (9) शान्त रस (10) वत्सल रस (11) भक्ति रस । (1) शृंगार रस (स्थायी भाव – रति/प्रेम) विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से रति स्थायीभाव शृंगार रस में परिणत हो जाता है। शृंगार रस के दो भेद हैं- (क) संयोग शृंगार : जहाँ नायक और नायिका के मिलन की स्थिति हो, वहाँ संयोग शृंगार रस होता है।
(ख) वियोग श्रृंगार : जहाँ नायक और नायिका के वियोग की स्थिति हो, वहाँ वियोग शृंगार रस होता है।
(2) हास्य रस (स्थायी भाव – हास) विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से हास स्थायीभाव हास्य रस में परिणत हो जाता है।
(3) करुण रस (स्थायी भाव – शोक) विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से शोक स्थायीभाव करुण रस में परिणत हो जाता है।
(4) वीर रस (स्थायी भाव – उत्साह) विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उत्साह स्थायीभाव वीर रस में परिणत हो जाता है।
(5) रौद्र रस (स्थायी भाव – क्रोध) विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से क्रोथ स्थायीभाव रौद्र रस में परिणत हो जाता है।
(6) भयानक रस (स्थायी भाव – भय) विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से भय स्थायीभाव भयानक रस में परिणत हो जाता है।
(7) बीभत्स रस (स्थायी भाव -जुगुप्सा/घृणा) विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से जुगुप्सा स्थायीभाव वीभत्स रस में परिणत हो जाता है।
(8) अदभुत रस (स्थायी भाव – विस्मय/आश्चर्य) विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से विस्मय स्थायीभाव अद्भुत रस में परिणत हो जाता है।
(9) शांत रस (स्थायी भाव – शम/निर्वेद/वैराग्य/वीतराग) विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से निर्वेद स्थायीभाव शांत रस में परिणत हो जाता है।
(10) वत्सल रस (स्थायी भाव – वात्सल्य रति) विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से वात्सल्य स्थायीभाव वत्सल रस में परिणत हो जाता है।
(11) भक्ति रस (स्थायी भाव – भगवद विषयक रति/अनुराग) विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से अनुराग स्थायीभाव भक्ति रस में परिणत हो जाता है।
नोट: (1) शृंगार रस को ‘रसराज/ रसपति’ कहा जाता है। रस संबंधी विविध तथ्य भरतमुनि (1 वी सदी) को ‘काव्यशास्त्र का प्रथम आचार्य’ माना जाता है। सर्वप्रथम आचार्य भरत मुनि ने अपने ग्रंथ ‘नाट्य शास्त्र’ में रस का विवेचन किया। उन्हें रस संप्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है। भरत मुनि के कुछ प्रमुख सूत्र (1) ‘विभावानुभाव व्यभिचारिसंयोगाद् रस निष्पतिः’- विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी (संचारी) के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। (2) ‘नाना भावोपगमाद् रस निष्पतिः। नाना भावोपहिता अपि स्थायिनो भावा रसत्वमाप्नुवन्ति।’- नाना (अनेक) भावों के उपागम (निकट आने/ मिलने) से रस की निष्पत्ति होती है। नाना (अनेक) भावों से युक्त स्थायी भाव रसावस्था को प्राप्त होते हैं। (3) ‘विभावानुभाव व्यभिचारि परिवृतः स्थायी भावो रस नाम लभते नरेन्द्रवत्’ ।- विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी से घिरे रहने वाले स्थायी भाव की स्थिति राजा के समान हैं। दूसरे शब्दों में, विभाव, अनुभाव व व्यभिचारी (संचारी) भाव को परिधीय स्थिति और स्थायी भाव को केन्द्रीय स्थिति प्राप्त है। (4) रस-संप्रदाय के प्रतिष्ठापक आचार्य, मम्मट (11 वी० सदी) ने काव्यानंद को ‘ब्रह्मानंद सहोदर’ (ब्रह्मानंद- योगी द्वारा अनुभूत आनंद) कहा है। वस्तुतः रस के संबंध में ब्रह्मानंद की कल्पना का मूल स्रोत तैत्तरीय उपनिषद है जिसमें कहा गया है ‘रसो वै सः’- आनंद ही ब्रह्म है। (5)रस-संप्रदाय के एक अन्य आचार्य, आचार्य विश्वनाथ (14 वी० सदी) ने रस को काव्य की कसौटी माना है। उनका कथन है ‘वाक्य रसात्मकं काव्यम्’- रसात्मक वाक्य ही काव्य है। (6) हिन्दी में रसवादी आलोचक हैं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल डॉ० नगेन्द्र आदि। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने संस्कृत के रसवादी आचार्यों की तरह रस को अलौकिक न मानकर लौकिक माना है और उसकी लौकिक व्याख्या की है। वे रस की स्थिति को ‘ह्रदय की मुक्तावस्था’ के रूप में मानते हैं। उनके शब्द हैं : ‘लोक-हृदय में व्यक्ति-हृदय के लीन होने की दशा का नाम रस-दशा है’। रस का साधारणीकरण रसनिष्पत्ति के प्रसंग में ‘साधारणीकरण’ शब्द अपनी विशिष्ट महत्ता रखता है। भरत के प्रख्यात सूत्र ‘विभावानुभावव्यभिचारिभावसंयोगाद् रसनिष्पत्तिः’ के चार प्रसिद्ध व्याख्याताओं – भट्ट लोल्लट, श्रीशंकुक, भट्टनायक और अभिनवगुप्त – में से सर्वप्रथम भट्टनायक ने साधारणीकरण शब्द का प्रयोग करते हुए इस तत्व की भित्ति पर रसनिष्पत्ति की व्याख्या की और अभिनवगुप्त ने भी इसे स्वीकार किया। इनके पश्चात् धन×जय, विश्वनाथ और जगन्नाथ ने इस तत्व पर विशिष्ट प्रकाश डाला। वर्तमान युग में आचार्य रामचंद्र शुक्ल और डा0 नगेन्द्र की व्याख्याएँ सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। इन्हीं सब व्याख्याओं के आधार पर साधारणीकरण का विवेचन निम्न प्रकार है- (1) भट्टनायक – भरत-सूत्र के प्रथम दो व्याख्याताओं भट्ट लोल्लट और शंकुक की व्याख्याओं पर यह आक्षेप किया गया कि सहृदय दूसरों के, राम-सीता आदि अथवा कल्पनानिर्मित पात्रें के, मूल भावों से रसास्वाद किस प्रकार प्राप्त कर सकता है। विशेषतः उस स्थिति में जबकि वे उनके प्रति किसी प्रकार का पूर्वाग्रह- श्रद्धा, भक्ति, प्रीति, घृणा आदि में से कोई भाव रखते हों? भट्टनायक ने इस समस्या के लिए साधारणीकरण सिद्धान्त उपस्थित किया- (2) अभिनवगुप्त साधारणीकरण द्वारा कविनिर्मित पात्र व्यक्ति-विशेष न रह कर सामान्य मानवमात्र बन जाते हैं – वे किसी देश एवं काल की सीमा में बद्ध न रह कर सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक बन जाते हैं, और उनके इस स्थिति में उपस्थिति हो जाने प्र सहृदय भी अपने पूर्वाग्रहों से नितान्त विमुक्त हो जाता है। उदाहरणार्थ:- भयानक रस के निदर्शन ‘ग्रीवाभंगाभिरामम् —- ’ में त्रस्त मृग, त्रसक (दुष्यन्त) और भय स्थायीभाव – देश, काल आदि से अनालिंगित हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में सहृदय को जिस भयानक रस की प्रतीति होती है, वह इस प्रकार के विश्वासों से विलक्षण होती है कि ‘मैं भीत हूँ, अथवा यह भीत है, अथवा शत्रु, मित्र अथवा उदासीन भीत है,’ तथा यह प्रतीति दुःख, सुख आदि से जन्य ज्ञान-विषयक नियमों से और अनेक प्रकार के विघ्नों से विलक्षण होती है। इस प्रकार यह साधारण्य (साधारण व्यापार) परिमित न रह कर सर्वत्र व्याप्त अर्थात् सबका साँझा बन जाता है। 3- धन×जय – अभिनवगुप्त के पश्चात् धन×जय ने ‘साधारणीकरण’ तत्व पर प्रकारान्तर से प्रकाश डाला। उन्होंने रस का आश्रय अर्थात् उपभोक्ता अथवा आस्वादयिता सामाजिक को
स्वीकार करते हुए यह शंका उठायी कि सामाजिक का विभाव अर्थात् आलंबन कौन होता है? यदि अनुकार्य को – वास्तविक आलंबन राम, सीता आदि – को ही आलम्बन मान लिया जाए तो सामाजिक पूर्वसंस्कारवश उस अनुकार्य और इस कवि-निर्मित पात्र में अविरोध (अभिन्नता) कैसे स्वीकार कर लेता है? वह दोनों को भिन्न क्योें नहीं मान लेता? (दशरूपक) 4- विश्वनाथ धन×जय के पश्चात् इस दिशा में उल्लेखनीय आचार्य विश्वानाथ हैं। पहले उन्होंने ‘साधारणीकरण’ की आवश्यकता के संबंध में प्रश्न करते हुए कहा कि (काव्य-नाटक आदि में वर्णित एवं दर्शित) राम आदि के रति आदि भाव (सामाजिक के रति आदि भावों के) उद्बोधक कारण कहाते हैं, किन्तु इनसे सामाजिकों के रति आदि का उद्बोधक होता कैसे है? इस प्रश्न के उत्तर में उन्होेंने
कहा – 5- जगन्नाथ विश्वनाथ के बाद जगन्नाथ ने नव्य आचार्यों के नाम से एक मत उद्धृत किया, जिसके अनुसार – – काव्य और नाटक में कवि और नट द्वारा विभाव, अनुभाव और संचारिभाव के प्रकाशित होने पर सामाजिक व्यंजना-व्यापार द्वारा यह स्वीकार कर लेता है कि दुष्यन्त में शकुन्तला के प्रति रतिभाव है। – इसके पश्चात् (सामाजिक में) सहृदयता के कारण एक विशेष भावना उत्पन्न होती है जो कि वस्तुतः एक दोश है, जिसके प्रभाव-स्वरूप सामाजिक की आत्मा कल्पित दुष्यन्तत्व से आच्छादित हो जाती है, अर्थात् वह अज्ञान से अविछिन्न (संयुक्त) हो जाती है, और तभी उसमें साक्षिभास्य शकुंतला आदि के विषय में अनिर्वचनीय रति आदि चित्तवृत्तियाँ उत्पन्न हो जाती हैं (अर्थात् हमें शकुन्तला आदि के प्रति इस प्रकार के रति आदि भाव उत्पन्न हो जाते हैं जो व्यवहार की दृष्टि से बिल्कुल झूठे होते हैं) और इन्हीं रत्यादि का नाम ही ‘रस’ है। यह दोष ऐसा है जैसा कि सीपी के टुकडे़ को देखकर चाँदी के टुकड़े का भ्रम होता है। (रसगंगाधर) 5- रामचंद्र शुक्ल चिंतामणि भाग 1, पृष्ठ 227-232 से उद्धृत रामचंद्रशुक्ल के मन्तव्य उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार है- – साधारणीकरण का अभिप्राय यह है कि पाठक, श्रोता के मन में जो व्यक्तिविशेष या वस्तुविशेष आती है, वह जैसे काव्य में वर्णित ‘आश्रय’ के भाव का आलम्बन होती है, वैसे ही सब सहृदय पाठकों या श्रोता के भाव का आलम्बन हो जाती है। – जिन व्यक्तिविशेष के प्रति किसी भाव की व्यंजना कवि या पात्र करता है, पाठक या श्रोता की कल्पना में वह व्यक्तिविशेष उपस्थित रहता है। – साधारणीकरण आलम्बनत्व धर्म का होता है। (पाठक या श्रोता की कल्पना में) व्यक्ति तो विशेष ही रहता है, पर उसमें प्रतिष्ठा ऐसे सामान्य धर्म की रहती है, जिसके साक्षात्कार से अब श्रोताओं या पाठकों के मन में एक ही भाव का उदय थोड़ा या बहुत होता है। – रस की एक नीची अवस्था और है। —– श्रोता या दर्शक उसी भाव का अनुभव नहीं करता जिसक व्यंजना पात्र (आश्रय) अपने आलम्बन के प्रति करता है, बल्कि व्यंजना करने वाले उस पात्र के प्रति किसी और ही भाव का अनुभव करता है। यह दशा भी एक प्रकार की रसदशा ही है – यद्यपि इसमें आश्रय के साथ तादात्मय और उसके आलम्बन का साधारणीकरण नहीं रहता —– इस रसात्मकता को हम मध्यम कोटि का ही मानेंगे। उक्त कथनों को लक्ष्य मे रख कर निष्कर्ष रूप से कह सकते हैं कि आचार्य शुक्ल ने ‘साधारणीकरण’ सिद्धांत को सुगम बनाने के लिए दो पक्ष कर दिए- (क) सहृदय का आश्रय के साथ तादात्म्य होता है। 6- डॉ0 नगेन्द्र डॉ0 नगेन्द्र ने मूलतः आचार्य शुक्ल की उक्त अंतिम धारणा – रसात्मकता की मध्यम कोटि – को लक्ष्य में रख कर साधारणीकरण के प्रसंग में अपनी यह मान्यता प्रस्तुत की। डॉ0
नगेन्द्र की मान्यताओं का सार है कि – निष्कर्षतः- इस प्रकार भट्टनायक से लेकर डॉ0 नगेन्द्र तक साधारणीकरण के स्वरूप प्रतिपादन से स्पष्ट है कि ‘असाधारण (विशेष)
का साधारण रूप ग्रहण कर लेना ही साधारणीकरण कहलाता है।’ परिणामस्वरूप सहृदय अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त हो जाता है और यह भी स्पष्ट है कि साधारणीकरण रसास्वाद के लिए पृष्ठभूमि तैयार करता है। अन्त में हम निम्न निष्कर्षों पर पहुँचते हैं कि – रस-निष्पत्ति रस का उल्लेख करने वाले प्रथम आचार्य कौन थे?रस-सम्प्रदाय (ras siddhant)
भरतमुनि (200 ई. पू.) को रस सम्प्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है। उन्होंने ही रस का सबसे पहले निरूपण 'नाट्यशास्त्र' में किया, इसीलिए उन्हें रस निरूपण का प्रथम व्याख्याता एवं उनके ग्रंथ 'नाट्यशास्त्र' को रस निरूपण का प्रथम ग्रंथ माना जाता है।
रस के संस्थापक आचार्य कौन है?सही उत्तर 'भरत मुनि' है। रस सिद्धांत के मूल प्रवर्तक आचार्य भरतमुनि (200 ई. पू.) माने जाने हैं।
रसवादी आचार्य कौन कौन से हैं?रसवादी आचार्य विश्वनाथ, आचार्य मम्मट के काव्य-लक्षण से अपनी असहमति प्रकट करते हैं, वे इस तरह काव्य - लक्षण की चर्चा करते हैं :- 4 :: Page 5 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम् । ' यानी रसात्मक वाक्य को काव्य कहते हैं। इस काव्य - लक्षण में 'रस' शब्द का प्रयोग अत्यंत व्यापक अर्थ में किया गया है ।
भक्ति रस के प्रतिष्ठापक आचार्य कौन है?(4) रस-संप्रदाय के प्रतिष्ठापक आचार्य, मम्मट (11 वी० सदी) ने काव्यानंद को 'ब्रह्मानंद सहोदर' (ब्रह्मानंद- योगी द्वारा अनुभूत आनंद) कहा है। वस्तुतः रस के संबंध में ब्रह्मानंद की कल्पना का मूल स्रोत तैत्तरीय उपनिषद है जिसमें कहा गया है 'रसो वै सः'- आनंद ही ब्रह्म है।
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