राजे ने अपनी रखवाली की कविता में निराला ने किसकी आलोचना की है? - raaje ne apanee rakhavaalee kee kavita mein niraala ne kisakee aalochana kee hai?

विषयसूची

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  • 1 जुही की कली के नेत्र कैसे है?
  • 2 जूही की कली नम्र मुख से क्यों हंसी?
  • 3 निराला का जन्म कब और कहाँ हुआ?
  • 4 जुही की कली का प्रेमी कौन है?
  • 5 राजे ने रखवाली की किसकी रचना है?
  • 6 सरोज स्मृति कविता में सरोज कौन हैं?

जुही की कली के नेत्र कैसे है?

इसे सुनेंरोकेंनायक ने कपोल चूम लिये, लेकिन जुही की कली सोई ही रही। न जागी, न कोई क्षमायाचना किया, नींद में डूबे हुए सुन्दर नेत्रों को बन्द किये रही। मानो यौवन के मद में डूबी हुई है। नायक निर्दयी ठहरा।

जूही की कली नम्र मुख से क्यों हंसी?

इसे सुनेंरोकेंजब वह अपनी प्रेयसी के पास पहुंचता है तो उसकी प्रेयसी जूही की कली उसके सपनों में खोई निश्चल आंखें मूंदे पड़ी है। उसे अपने प्रेमी के आने की कोई सुध-बुध नहीं है, और वो अपने प्रेमी के स्वागत में नही उठती है। इसे देखकर उसके प्रेमी को लगता है कि जूही की कली को उसके आने से कोई हर्ष नहीं हुआ और पवन क्रोधित हो जाता है।

राजे ने अपनी रखवाली की कविता में निराला ने किसकी आलोचना की है?

इसे सुनेंरोकेंजनता पर जादू चला राजे के समाज का । लोक-नारियों के लिए रानियाँ आदर्श हुईं । धर्म का बढ़ावा रहा धोखे से भरा हुआ । लोहा बजा धर्म पर, सभ्यता के नाम पर ।

जूही की कली कविता के रचनाकार कौन हैं?

इसे सुनेंरोकेंजुही की कली / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

निराला का जन्म कब और कहाँ हुआ?

इसे सुनेंरोकेंसूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म बंगाल की महिषादल रियासत (जिला मेदिनीपुर) में माघ शुक्ल ११, संवत् १९५५, तदनुसार २१ फ़रवरी, सन् १८९९ में हुआ था।

जुही की कली का प्रेमी कौन है?

इसे सुनेंरोकेंकवि निराला जी कहते हैं कि जूही की कली विरह में पीड़ित नायिका का रूप है जो अपने प्रेमी पवन के विरह में तड़प रही है, जो उसे छोड़कर दूर मलयागिरी पर्वत पर चला गया है।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कौन सी कविता आपके पाठ्यक्रम में है?

इसे सुनेंरोकेंनये पत्ते सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

राजे ने अपनी रखवाली की कविता में कवि राजा के माध्यम से क्या बताना चाहता है?

इसे सुनेंरोकेंजनता पर जादू चला राजे के समाज का। लोक-नारियों के लिए रानियाँ आदर्श हुईं। धर्म का बढ़ावा रहा धोखे से भरा हुआ। लोहा बजा धर्म पर, सभ्यता के नाम पर।

राजे ने रखवाली की किसकी रचना है?

इसे सुनेंरोकेंबड़ी-बड़ी फ़ौजें रखीं। चापलूस कितने सामन्त आए।

सरोज स्मृति कविता में सरोज कौन हैं?

इसे सुनेंरोकेंयह कविता कवि निराला की दिवंगत पुत्री सरोज पर केंद्रीत है। इस काव्यांश में कवि ने पुत्री के विवाह का वर्णन किया है। यहां कवि अपनी दिवंगत पुत्री की स्मृतियों से उसे और अपनी पत्नी का काव्यात्मक स्मरण कर रहे हैं।

जागो फिर एक बार कविता में कौन सा काव्य गुण है?

इसे सुनेंरोकेंउत्तर: कवि ने ‘जागो फिर एक बार’ कविता में भारतीयों को उद्बोधन दिया है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के महासंग्राम में योद्धा की तरह संघर्ष करो। अपनी वीस्वती परंपरा को अक्षुण्ण रखने वाले भारतीय व्यक्ति को अपनी संपूर्ण कायरता को त्यागकर अपने पराक्रमी और पुरुषार्थी स्वरूप को जागृत करो।

निराला जी का जन्म कहाँ हुआ था *?

मेदिनीपुरसूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ / जन्म की जगह

निराला के देखने का दायरा बहुत बड़ा था. ‘देखना’ वेदना से गुज़रना है. उन्होंने ‘टूक कलेजे के करता’ हुआ अपने सा ही एक आदमी देखा. अपने शहर के रास्ते पर ‘गुरु हथौड़ा हाथ लिए’ पत्थर तोड़ती हुई औरत देखी. सभ्यता की वह राह देखी जहां से ‘जनता को पोथियों में बांधे हुए ऋषि-मुनि’ आराम से गुज़र गए. चुपके से प्रेम करने वाला ‘बम्हन लड़का’ और उसकी ‘कहारिन’ प्रेमिका देखी.

राजे ने अपनी रखवाली की कविता में निराला ने किसकी आलोचना की है? - raaje ne apanee rakhavaalee kee kavita mein niraala ne kisakee aalochana kee hai?

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’. (जन्म: 21 फरवरी 1896 – मृत्यु: 15 अक्टूबर 1961) (फोटो साभार: हिंदी कविता/यूट्यूब)

21 फरवरी 1896 को जन्मे निराला को ‘महाप्राण’ कहा गया. हिंदी या किसी अन्य भारतीय भाषा में ऐसा अर्थ-गांभीर्य लिए उपनाम शायद किसी अन्य को प्राप्त नहीं हुआ.उन्हें ‘महाप्राण’ से संबोधित किए जाने के कई आधार हो सकते हैं. एक उनका अपना जीवन जिसके बारे में उन्होंने कहा था,

दुख ही जीवन की कथा रही

क्या कहूं आज जो नहीं कही

ग़ालिब की ज़िंदगी की तरह एक खास तरह के उदात्त भाव और करुणा ने उनके अनुभवों को ऐसे मानवीय तजुर्बे में बदल दिया, जिससे कोई भी व्यक्ति अपना निजी रिश्ता महसूस कर सकता था. निराला का दुःख उनके जीवन के परिवेश से संघर्ष की प्रक्रिया में पनपा था.

निराला इसी संघर्ष के कवि थे. उनका काव्य इसी संघर्ष का प्रतिफल था. डॉ रामविलास शर्मा ने निराला पर लिखा था,

‘काव्य की श्रेष्ठता उसके ट्रैजिक होने में है, पैथेटिक होने में नहीं. जहां संघर्ष है, परिवेश का विरोध सशक्त है, उससे टक्कर लेने वाले व्यक्ति का मनोबल दृढ़ है, वहां उदात्त स्तर पर मानव-करुणा व्यक्त होती है. वही ट्रैजडी है. शेष सब पैथेटिक है’ (निराला की साहित्य साधना, खंड 2, पेज. 241)

निराला की अपने परिवेश से टक्कर अपने समय की प्रचलित पुरानी काव्यगत रूढ़ियों से हुई. उनकी रचनाओं को पुराने साहित्य के मीमांसक अपनी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छापने से मना कर देते. उनके खिलाफ मुहिम चलाकर अपमानित करते. निराला ने अपनी इकलौती बेटी के गुजर जाने पर शोक-गीत लिखा तो यह दर्द भी छुपा न पाए.रचना के लौटने का दर्द इकलौती बेटी के निधन से जुड़कर फूट पड़ा-

लौटी रचना लेकर उदास

ताकता हुआ मैं दिशाकाश

‘दिशाकाश ताकते’ निराला की दृष्टि केवल निज जीवन की पीड़ा तक रही होती तो वह ‘महाप्राण’ न कहे गए होते, लेकिन ‘दिशाकाश’ के परे उन्होंने कुछ ऐसा देखा और ऐसी गहरी करुणा और तड़प से देखा जिस पर उनके किसी समकालीन की नजर नहीं पड़ी थी!

यही उनके ‘महाप्राण’ होने का राज था. उन्होंने ऐसा क्या देखा था! उन्होंने देखा,

जिन्होंने ठोकरें खाईं गरीबी में पड़े, उनके
हजारों-हा-हजारों-हाथ के उठते समर देखे

गगन की ताकतें सोयीं, जहां की हसरतें सोयीं
निकलते प्राण बुलबुल के बगीचे में अगर देखे

उनके देखने का दायरा बहुत बड़ा था. ‘देखना’ वेदना से गुज़रना है. उन्होंने ‘मुट्ठी भर दाने को, अपनी भूख मिटाने को फटी पुरानी झोली फैलाता, पछताता, पथ पर आता

‘टूक कलेजे के करता’ हुआ अपने सा ही एक आदमी देखा. अपने शहर के रास्ते पर ‘गुरु हथौड़ा हाथ लिए’ पत्थर तोड़ती हुई औरत देखी. धोबी, पासी, चमार, तेली देखे. अपनी उपज के दाम को तरसते किसान देखे. मुगरी लेकर बान कूटता हुआ किसान देखा.

दुष्यंत की तरह का ‘कमान बना हुआ आदमी’ देखा. सभ्यता की वह राह देखी जहां से ‘जनता को पोथियों में बांधे हुए ऋषि-मुनि’ आराम से गुजर गए. किला बनाकर अपनी रखवाली करते ‘राजे’ देखे. चुपके से प्रेम करने वाला ‘बम्हन लड़का’ और उसकी ‘कहारिन’ प्रेमिका देखी.

उन्होंने गीत लिखा,

बम्हन का लड़का

मैं उसको प्यार करता हूं

जाति की कहारिन वह,

मेरे घर की पनिहारिन वह,

आती है होते तड़का,

उसके पीछे में मरता हूं

निराला को ‘कहारिन के पीछे मरने’ की कीमत चुकानी ही थी. अपमान और बहिष्कार उनके लिए नई चीज नहीं थी. ये दोनों उन्हें जीवन भर ही मिलते रहे थे. साहित्य जगत के अपने साथियों से भी और ‘गुरुमुखी ब्राह्मणों’ से भी.

आज के विद्रोही प्रेमी युगल भी प्रायः ऐसी कीमतें चुकाते ही रहते हैं, जब ‘ऑनर’ के नाम पर उन्हें काटकर पास बहते नाले-नहरों में उनके शव बहा दिए जाते हैं.

राजे ने अपनी रखवाली की कविता में निराला ने किसकी आलोचना की है? - raaje ne apanee rakhavaalee kee kavita mein niraala ne kisakee aalochana kee hai?

निराला ने ‘चतुरी चमार’ लिखा. डा.रामविलास शर्मा ने इस पर लिखा,

‘गुरुमुखी ब्राह्मणों ने निराला के घड़े का पानी पीना छोड़ दिया. इसका कारण यह भी था कि निराला शूद्रों से मांस मंगवाते थे, घर में पकाते थे, खुद खाते थे, उन्हें भी खिलाते थे (निराला की साहित्य साधना, खंड दो, पेज. 474)

निराला वेदांत से बड़े प्रभावित थे. उनके विचारों पर रवींद्रनाथ टैगोर के साथ साथ स्वामी विवेकानंद के विचारों का गहरा प्रभाव रहा था. उनकी रचनाओं का एक का बड़ा हिस्सा प्रपत्ति-भावना लिए उन गीतों और कविताओं के रूप में था, जिनमें ‘दुरित दूर करो नाथ, अशरण हूं गहो हाथ’ जैसा प्रार्थना-काव्य मिल जाता है.

उनके कविता संग्रहों में से ‘आराधना’ और ‘अर्चना’ में ऐसी कविताओं की संख्या काफी अधिक है. निराला के एक समीक्षक दिवंगत दूधनाथ सिंह के मुताबिक ‘ईश्वर की तर्कातीत आस्था से तर्काश्रित अनास्था’ तक के निराला के इस भाव-बोध में ‘मृत्यु-भय’ की स्वीकृति के कारण ‘वह आधुनिक चिंता के कवि ठहरते हैं.

आस्था और अनास्था के बीच की यह भटकन आधुनिक मनुष्य की सच्ची ट्रैजडी की प्रतीक है. धीरे-धीरे उनके अपने जीवन की व्यक्तिगत दुर्घटनाएं, झीनी पड़ती हुईं तिरोहित हो जाती हैं. उनकी आत्म-पराजय, निरंतर बना रहने वाला आत्मक्षरण, उनका नैश-एकाकीपन, उनका मृत्यु-भय और उनकी कारुणिक आत्म-जर्जरता- ये सभी आधुनिक मनुष्य की त्रासदी का रूप ले लेती हैं (निराला: आत्महन्ता आस्था,पेज. 260)

महत्वपूर्ण यह है कि यह ‘तर्कातीत’ प्रपत्ति भाव उनकी उस मूल समझ में कोई बाधा नहीं डाल रहा था जो भविष्य के समाज में हाशिये पर पड़े ‘चतुरी चमार’और ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ की भूमिका को समझ रहा था. उन्हें पता था कि भारतीय समाज आने वाला समय हाशिये पर पड़े लोगों का समय है.

लखनऊ से प्रकाशित मासिक पत्र ‘माधुरी’ में उन्होंने 1929 में एक लेख लिखा- वर्णाश्रम धर्म के ऊपर

इस लेख में निराला ने बड़ी बारीकी से वर्णाश्रम-व्यवस्था को लेकर चल रहे तमाम विमर्श पर अपनी राय रखी. निराला वेदांत से प्रभावित जरूर थे लेकिन ’विज्ञान की भौतिक करामात’ को वह अच्छी तरह समझते थे.

उन्होंने लिखा, ‘भारतीय समाज की तमाम सामाजिक शक्तियों का यह एकीकरण काल शूद्रों और अंत्यजों के उठने का प्रभात काल है. भारतवर्ष का यह युग शूद्र शक्ति के उत्थान का युग है और देश का पुनरुद्धार उन्हीं के जागरण की प्रतीक्षा कर रहा है.’

माधुरी में छपे अपने इस लेख के करीब 16 साल बाद जनवरी 46 में प्रकाशित अपने कविता संग्रह ‘बेला’ में (निराला रचनावली: खंड दो, संपा. नंदकिशोर नवल) में निराला ने ‘जल्द-जल्द पैर बढ़ाने ‘का आह्वान किया. वेदांती निराला एक क्रांतिकारी के कलेवर में गा रहे थे,

‘जल्द-जल्द पैर बढ़ाओ, आओ आओ

आज अमीरों की हवेली

किसानों की होगी पाठशाला

धोबी, पासी, चमार, तेली

खोलेंगे अंधेरे का ताला

एक पाठ पढ़ेंगे, टाट बिछाओ

‘चतुरी चमार के ऊपर गढ़कोला के जमींदार ने डिगरी कर दी थी. जिस मजिस्ट्रेट के यहां दावा किया गया वह खुद जमींदार था. चतुरी को गांव वालों से मुकदमा लड़ने को चंदा न मिला. वह चंदे के बिना भी मुकदमा लड़ने को तैयार था, लेकिन दहशत के मारे गांव वाले गवाही देने को तैयार न थे.’

रामविलास शर्मा ने लिखा,

‘चतुरी में साधारण श्रमिक जनता का साहस है, जिसे निराला एक वाक्य में यों अंकित करते हैं, ‘सत्तू बांधकर, रेल छोड़कर, पैदल दस कोस उन्नाव चलकर दूसरी पेशी के बाद पैदल ही लौटकर हंसता हुआ चतुरी बोला- काका, जूता और पुरवाली बात अब्दुल-अर्ज में दर्ज नहीं है. (निराला की साहित्य साधना, खंड दो, पेज. 474)

निराला की चिंता में किसान इसी तरह प्रवेश करता है. जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाता हुआ. उसे सेठ तक पहुंचना है.

यहां जहां सेठ जी बैठे थे

बनिए की आंख दिखाते हुए

उनके ऐंठाए ऐंठे थे

धोखे पे धोखा खाते हुए

बैंक किसानों का खुलवाओ

16 जुलाई 1934 को लखनऊ से प्रकाशित अर्धमासिक पत्र ‘सुधा’ में निराला का एक लेख छपा, किसान और उनका साहित्य. निराला ने लिखा, ‘अब किसानों और मजदूरों का युग है. देश की सच्ची शक्ति इसी जगह है. जब तक किसानों और मजदूरों का उत्थान न होगा, तब तक सुख और शांति का केवल स्वप्न देखना है. पर यह कार्य जितना सीधा दिखाई देता है, इसका करना उतना ही कठिन है.’ (निराला रचनावली, खंड 6, पेज. 458)

प्रेमचंद की कहानियों में पूस की रात खुले में बिताता हुआ हलकू निराला के यहां भी मौजूद है. ‘अस्थिर सुख पर दुःख की छाया’ में अपना पेट काट-काटकर दूसरों के लिए जीता हुआ. बादलों को पुकारता हुआ.

जीर्ण बाहु है जीर्ण शरीर

तुझे बुलाता कृषक अधीर

ऐ विप्लव के वीर!

चूस लिया है उसका सार

हाड़ मात्र ही है आधार

ऐ जीवन के पारावार!

निराला किसान का हाड़ चूस लिए जाने की इस शोषणकारी व्यवस्था को देख रहे थे. उन्होंने लिखा,

‘पाट, सन, रुई, गल्ला आदि जितना कच्चा माल यहां पैदा होता है, मुंहमांगे दामों पर ही दिया जाता है. किसान लोगों में माल रोकने की दृढ़ता नहीं और उसकी जड़ भी काट दी गई है. कारण लगान उन्हें रुपयों से देना पड़ता है. समय पर लगान देने का तकाजा उन्हें विवश कर देता है, वे मुंहमांगे भाव पर माल बेच देते हैं.

यह इतनी बड़ी दासता है, जिसका उल्लेख नहीं हो सकता. किसान यह भूल गए हैं कि माल उनका है इसलिए वे ही उसके दामों के निर्णायक हैं’ (निराला की साहित्य साधना, खंड 2 पेज. 24)

लेकिन किसान खुद अपनी फसलों के ‘दामों के निर्णायक’इतिहास के किस दौर में थे? उनकी इस ‘दासता’ को निराला ने पहचान लिया था. निराला के साहित्य में गरीब-गुनियों की इस बेबसी और ‘क्षीण कंठ की करुण कथाओं’ का जो रूप देखने को मिलता है, वह उनके समकालीन किसी और छायावादी कवि को तो छोड़ ही दें, मुक्तिबोध जैसे एकाध कवि को छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं मिलता.

सह जाते हो

उत्पीड़न की क्रीड़ा सदा निरंकुश नग्न,

..अपने उर की तप्त व्यथाएं

क्षीण कण्ठ की करुण कथाएं

कह जाते हो…

और जगत की ओर ताककर

दुख, हृदय का क्षोभ त्यागकर

सह जाते हो

कह जाते हो

‘यहां कभी मत आना,

उत्पीड़न का राज्य, दुख ही दुख

यहां है सदा उठाना’

निराला के लिए यह जानना ज़रूरी था कि ‘उत्पीड़न’ का यह ‘राज्य’ आखिर अपने वजूद में कैसे आया? चतुरी चमार और बिल्लेसुर बकरिहा इस दुनिया की दौड़ में पीछे कैसे छूट गए? इतिहास की प्रक्रिया में वह कौन सी शक्तियां थीं, जिन्होंने ‘दग़ा की.’

‘राजे, चापलूस सामंत, पोथियों में जनता को बांधने वाले ब्राह्मण, चमचागिरी करने वाले कवि, लेखक, नाटककार, रंगकर्मी सब मिल गए. नतीजा ये कि,

‘राजे ने अपनी रखवाली की;

किला बनाकर रहा

बड़ी बड़ी फ़ौजें रखीं

चापलूस कितने सामंत आए.

मतलब की लकड़ी पकड़े हुए

कितने ब्राह्मण आए.

पोथियों में जनता को बांधे हुए.

जनता पर जादू चला राजे के समाज का.

धर्म का बढ़ावा रहा धोखे से भरा हुआ.

लोहा बजा धर्म पर,सभ्यता के नाम पर.

खून की नदी बही.

आंख-कान मूंदकर जनता ने डुबकियां लीं.

आंख खुली– राजे ने अपनी रखवाली की.

राजे ने अपनी रखवाली की कविता में निराला ने किसकी आलोचना की है? - raaje ne apanee rakhavaalee kee kavita mein niraala ne kisakee aalochana kee hai?

1946 में प्रकाशित हुए निराला के संग्रह ‘नए पत्ते’ की उनकी यह कविता इसी शीर्षक से छपी- ‘दग़ा की.’ दग़ा देने के इस ऐतिहासिक उपक्रम में कौन शामिल न था? बड़े बड़े ऋषि-मुनि, कवि.

‘एक को तीन’ तीन को एक बताने वाले दार्शनिक और उनके फलसफे. खंजड़ी, मृदंग, तबला, वीणा से होते हुए सभ्यता पियानो तक आ गई लेकिन आखिर में ‘इस सभ्यता ने दग़ा की.’

‘चेहरा पीला पड़ा

रीढ़ झुकी. हाथ जोड़े.

आंख का अंधेरा बढ़ा

सैकड़ों सदियां गुजरीं

पौ फटी

किरनों का जाल फैला

दिशाओं के होंठ रंगे

दिन में, वेश्याएं जैसे रात में

दग़ा की इस सभ्यता ने दग़ा की.

वह खुद इसी सभ्यता का पुर्जा थे. इसे छोड़कर कहां जाते? वह ‘राजे’ के साथ नहीं जाना चाहते थे. अपनी पक्षधरता को बिना लाग-लपेट घोषित करके ही वह इस सभ्यता के बीचों-बीच अपने लिए ठौर बना सकते थे. यह बिना गरीबों,दीन-दुखियों, किसानों, श्रमिकों और समाज के हाशिए पर छूटे हुए लोगों की ‘अश्रु-भरी आंखों पर करुणांचल का स्पर्श दिए’ संभव नहीं था.

‘जमींदार के सिपाही की लाठी का वह गूला’ जिसमें ‘लोहा बंधा रहता था’ अब गरीबों और किसानों को न डरा सकता था. वक्त करवट ले रहा था और गांव का ‘झींगुर’ बिना जमींदार से डरे डटकर यह गवाही दे सकता था.

चूँकि हम किसान सभा के

भाई जी के मददगार

ज़मींदार ने गोली चलवाई’.

मसुरिया और बलई तनकर खड़े हो गए. गांव के ‘बदलू अहिर’से ज़मींदार के कारिंदे ने आकर कहा कि डिप्टी साहब बहादुर दारोग़ा जी के साथ तशरीफ़ ले आए हैं.

‘बीस सेर दूध दोनों घड़ों में जल्द भर.’ यह बेगारी थी जिसे बदलू के पुरखे करते आए थे. जमींदार के कारिंदे को उम्मीद न थी. निराला ने ‘नए पत्ते’ में अपनी कविता ‘डिप्टी साहब आए’ में देखा कि

बदलू ने बदमाश को देखा, फिर

उठा क्रोध से भरकर

एक घूंसा तानकर नाक पर दिया.

तब तक बदलू के कुल तरफदार आ गए…

मन्ने कुम्हार, कुल्ली तेली, भंकुआ चमार

बदल गया रावरंग

तब तक सिपाही थानेदार के भेजे हुए
आए और दाम दे देकर माल ले गए.

चतुरी चमार की जमीन से बेदखली पर कोई गवाही को तैयार न था लेकिन अब मंजर बदल गया था. बेगारी का जमाना जा रहा था. यह जमाने में हाशिए के कमजोर पड़ने की शुरुआत थी. साहित्य में यह सबौल्टर्न का प्रवेश था. करुणा,संवेदना और अंततः मुक्ति की दुर्दम कामना के साथ. ‘सही बात’ कही जा रही थी.

‘सारा गांव बाग की गवाही में बदल गया,

सही-सही बात कही’ (डिप्टी साहब आए, नए पत्ते में संकलित)

निराला इसी मुक्ति-कामना को स्वर दे रहे थे. झूमे जा रहे थे. ज्वार, अरहर, सन, मूंग, उड़द और धान के हरे खेतों के बीच जब निराला ढोर चरते हुए और आम पकते हुए देखते तो ‘छायावाद’ उनके लिए बहुत दूर की कौड़ी होता. तब वह सिर्फ साधारण जन के ‘महाप्राण’ हो जाते और गुनगुनाते,

खेत जोत कर घर आए हैं

बैलों के कंधों पर माची

माची पर उलटा हल रखा

बद्धी हाथ, अधेड़ पिता जी

माता जी, सिर गट्ठल पक्का

पुए लगा कर बड़ी बहू ने

मन्नी से पर मंगवाए हैं

एक साधारण निर्धन किसान की घर-देहरी की खूबसूरती ‘जूही की कली’ को लजा देती. घन-अंधकार उगलती अमावस्या की रात-अमा निशा में रावण के विरुद्ध ‘शक्ति की मौलिक कल्पना’ करने वाले अकेले राम न थे.

गढ़कोला के रहने वाले चतुरी चमार और बकरियां चराने वाले बिल्लेसुर बकरिहा भी शक्ति की मौलिकता की खोज में थे. शक्ति तटस्थ थी. उल्टा वह उस शिविर में थी जो अन्याय का नेतृत्व कर रहा था. निराला के राम की आंखों से आंसू यूं ही न छलके थे,

फिर सुना- हंस रहा अट्टहास रावण खल खल,

भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्ता-दल

अपनी अविचल निष्ठा से राम ने अंततः समाधान खोज लिया. ‘होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन!’ कहती हुई शक्ति राम के बदन में लीन हो गई. निराला ने एक ग़ज़ल लिखी जो उनके संग्रह बेला में छपी,

अगर तू डर से पीछे हट गया तो काम रहने दे

अगर बढ़ना है अरि की ओर तो आराम रहने दे.

नजीरें क्या पुरानी दे रहा है, फ़ैसला किसका?

पुराने दाम रहने दे पुराने याम रहने दे.

निराला इसीलिए महाप्राण थे. अपने ढहे और टूटे तन से ही विजय पताका उठाए हुए थे और यह पताका जनता की थी.

रामविलास शर्मा ने उनके बारे में लिखा,

‘यह कवि अपराजेय निराला,

जिसको मिला गरल का प्याला

शिथिल त्वचा,ढलढल है छाती

और उठाये विजय पताका

यह कवि है अपनी जनता का.’

(लेखक भारतीय पुलिस सेवा में उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी हैं.)

Categories: समाज

Tagged as: Hindi Literature, Hindi Poet, Literature, Nirala, Rabindranath Tagore, Suryakant Tripathi 'Nirala', चतुरी चमार, छायावाद, दूधनाथ सिंह, निराला, बिल्लेसुर बकरिहा, राम की शक्तिपूजा, रामविलास शर्मा, रावण, साहित्य, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, हिंदी, हिंदी कविता, हिंदी साहित्य

राजे ने अपनी रखवाली की कविता में कवि राजा के माध्यम से क्या बताना चाहता है?

व्याख्या - कवि कहता है कि राजा ने वास्तव में जनता के नाम पर अपनी ही रक्षा की है। इसने किला बनवाकर स्वयं को सुरक्षित रखा साथ ही अपनी रक्षा के लिए बड़ी-बड़ी सेनाएँ खड़ी कीं। राजा ने अपनी चापलूसी करने वाले अनेक सामन्त रखे और वे सब राजदण्ड के नाम पर अपने स्वार्थ की लकड़ी पकड़े हुए थे।

राजे ने अपनी रखवाली की कविता के रचनाकार कौन थे?

राजे ने अपनी रखवाली की / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

राजे ने अपनी रखवाली की कविता का प्रकाशन वर्ष क्या है?

आँख खुली-राजे ने अपनी रखवाली की। स्रोत : पुस्तक : निराला संचयिता (पृष्ठ 147)

1 राजे ने अपनी रखवाली की कविता के रचनाकार कौन हैं 2 मैं बेच रही हूँ दही कविता किसने लिखा है?

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'