राहुल सांकृत्यायन कृत घुमक्कड़ शास्त्र की विधा क्या है? - raahul saankrtyaayan krt ghumakkad shaastr kee vidha kya hai?

Shreenivas Naik

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Dec 4, 2016, 5:40:51 PM12/4/16

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हिन्दी यात्रा-साहित्य का इतिहास

यात्रा-साहित्य का उद्देश्य :-

यात्रा करना मनुष्य की नैसर्गिक प्रवृत्ति है। हम अगर मानव इतिहास पर नज़र डालें तो पाएँगे कि मनुष्य के विकास की गाथा में यायावरी का महत्वपूर्ण योगदान है। अपने जीवन काल में हर आदमी कभी-न-कभी कोई-न-कोई यात्रा अवश्य करता है लेकिन सृजनात्मक प्रतिभा के धनी अपने यात्रा अनुभवों को पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर यात्रा-साहित्य की रचना करने में सक्षम हो पाते हैं। यात्रा-साहित्य का उद्देश्य लेखक के यात्रा अनुभवों को पाठकों के साथ बाँटना और पाठकों को भी उन स्थानों की यात्रा के लिए प्रेरित करना है। इन स्थानों की प्राकृतिक विशिष्टता, सामाजिक संरचना, सामाज के विविध वर्गों के सह-संबंध, वहाँ की भाषा, संस्कृति और सोच की जानकारी भी इस साहित्य से प्राप्त होती है।

आरंभिक युग:-

हिंदी साहित्य में अन्य गद्य विधाओं की भाँति ही भारतेंदु-युग से यात्रा-साहित्य का आरंभ माना जा सकता है। उनके संपादन में निकलने वाली पत्रिकाओं में ‘हरिद्वार’, ‘लखनऊ’, ‘जबलपुर’, ‘सरयूपार की यात्रा’, ‘वैद्यनाथ की यात्रा’ और ‘जनकपुर की यात्रा’ आदि यात्रा-साहित्य प्रकाशित हुआ। इन यात्रा-वृतांतों की भाषा व्यंग्यपूर्ण है और शैली बड़ी रोचक और सजीव है। इस समय के यात्रा-वृतांतों में हम दामोदर शास्त्री कृत ‘मेरी पूर्व दिग्यात्रा’ (सन् 1885), देवी प्रसाद खत्री कृत ‘रामेश्वर यात्रा’ (सन् 1893) को महत्वपूर्ण मान सकते हैं किंतु यह यात्रा-साहित्य परिचयात्मक और किंचित स्थूल वर्णनों से युक्त है।

बाबू शिवप्रसाद गुप्त द्वारा लिखे गए यात्रा-वृतांत ‘पृथ्वी प्रदक्षिणा’ (सन् 1924) को हम आरंभिक यात्रा-साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान दे सकते हैं। इसकी सबसे बड़ी विशेषता चित्रात्मकता है। इसमें संसार भर के अनेक स्थानों का रोचक वर्णन है। लगभग इसी समय स्वामी सत्यदेव परिव्राजक कृत ‘मेरी कैलाश यात्रा’ (सन् 1915) तथा ‘मेरी जर्मन यात्रा’ (सन् 1926) महत्वपूर्ण हैं। इन्होंने सन् 1936 में ‘यात्रा मित्र’ नामक पुस्तक लिखी, जो यात्रा-साहित्य के महत्व को स्थापित करने का काम करती है। विदेशी यात्रा-विवरणों में कन्हैयालाल मिश्र कृत ‘हमारी जापान यात्रा’ (सन् 1931), रामनारायण मिश्र कृत ‘यूरोप यात्रा के छः मास’ और मौलवी महेशप्रसाद कृत ‘मेरी ईरान यात्रा’ (सन् 1930) यात्रा-साहित्य के अच्छे उदाहरण हैं।

स्वतंत्रता-पूर्व युग:-

यात्रा-साहित्य के विकास में राहुल सांकृत्यायान का योगदान अप्रतिम है। इतिवृत्त-प्रधान शैली होने के बावजूद गुणवत्ता और परिमाण की दृष्टि से इनके यात्रा-वृतांतों की तुलना में कोई दूसरा लेखक कहीं नहीं ठहरता है। ‘मेरी तिब्बत यात्रा’, ‘मेरी लद्दाख यात्रा’, ‘किन्नर देश में’, ‘रूस में 25 मास’, ‘तिब्बत में सवा वर्ष’, ‘मेरी यूरोप यात्रा’, ‘यात्रा के पन्ने’, ‘जापान, ईरान, एशिया के दुर्गम खंडों में’ आदि इनके कुछ प्रमुख यात्रा-वृतांत हैं। राहुल सांकृत्यायन के यात्रा-साहित्य में दो प्रकार की दृष्टि को साफ देखा जा सकता है। उनके एक प्रकार के लेखन में यात्राओं का केवल सामान्य वर्णन है और दूसरे प्रकार के यात्रा-साहित्य को शुद्ध साहित्यिक कहा जा सकता है। इस दूसरे प्रकार के यात्रा-साहित्य में राहुल सांकृत्यायन ने स्थान के साथ-साथ अपने समय को भी लिपिबद्ध किया है। सन् 1948 में इन्होंने ‘घुम्मकड़ शास्त्र’ नामक ग्रन्थ की रचना की जिससे यात्रा करने की कला को सीखा जा सकता है। इनका अधिकांश यात्रा-साहित्य सन् 1926 से 1956 के बीच लिखा गया।

स्वातंत्रयोत्तर युग:-

राहुल सांकृत्यायन के बाद यात्रा-साहित्य में बहुमुखी प्रतिभा के धनी कवि-कथाकार अज्ञेय का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। अज्ञेय अपने यात्रा-साहित्य को यात्रा-संस्मरण कहना पसंद करते थे। इससे उनका आशय यात्रा-वृतांतों में संस्मरण का समावेश कर देना था। उनका मानना था कि यात्राएँ न केवल बाहर की जाती हैं बल्कि वे हमारे अंदर की ओर भी की जाती हैं। ‘अरे यायावर रहेगा याद’ (सन् 1953) और ‘एक बूँद सहसा उछली’ (सन् 1960) उनके द्वारा लिखित यात्रा-साहित्य की प्रसिद्ध कृतियाँ हैं। ‘अरे यायावर रहेगा याद’ में उनके भारत भ्रमण का वर्णन है और दूसरी पुस्तक ‘एक बूँद सहसा उछली में’ उनकी विदेशी यात्राओं को शब्दबद्ध किया गया है। अज्ञेय के यात्रा-साहित्य की भाषा गद्य भाषा के नए मुकाम तक ले जाती है।

आज़ादी के बाद हिंदी साहित्य में बहुतायत से यात्रा-साहित्य का सृजन हुआ। अनेक प्रगतिशील लेखकों ने इस विधा को समृिद्ध प्रदान की। रामवृक्ष बेनीपुरी कृत ‘पैरों में पंख बाँधकर’ (सन् 1952) तथा ‘उड़ते चलो उड़ते चलो’, यश्पाल कृत ‘लोहे की दीवार के दोनों ओर’ (सन् 1953), भगवतशरण उपाध्याय कृत ‘कलकत्ता से पेकिंग तक’ (सन् 1953) तथा ‘सागर की लहरों पर’ (सन् 1959), प्रभाकर माचवे कृत ‘गोरी नज़रों में हम’ (सन् 1964) उल्लेखनीय हैं।

हिंदी यात्रा-साहित्य के संदर्भ में मोहन राकेश तथा निर्मल वर्मा को भी बड़े हस्ताक्षर माना जाता है। इन्होंने यात्रा-साहित्य को नए अर्थों से समन्वित किया। मोहन राकेश द्वारा लिखित ‘आखिरी चट्टान तक’ (सन् 1953) में दक्षिण भारत का विस्तार से वर्णन किया गया है। दक्षिण भारतीय जीवन पद्धति के विविध बिम्बों को इसमें लेखक ने यथावत प्रस्तुत कर दिया है। इनके यात्रा-साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें कहानी की-सी रोचकता और नाटक का-सा आकर्षण देखा जा सकता है। निर्मल वर्मा ने ‘चीड़ों पर चाँदनी’ (सन् 1964) में यूरोपीय जीवन के चित्रों को उकेरा है। निर्मल वर्मा के यात्रा-साहित्य में न केवल अपने समय का वर्णन रहता है बल्कि इतिहास और संस्कृति के अनेक बिंदुओं को भी इसमें अभिव्यक्ति मिलती है। विदेशी संदर्भों को भी उनके गद्य की सहजता बोझिल नहीं होने देती।

कोई भी लेखक अच्छा लेखक तभी बनता है जब वह जीवन को समीप से देखता है और जीवन को समीप से देखने का सबसे सरल माध्यम यात्रा करना हैै। रचनात्मक लेखन करने वाला हर लेखक अपने साहित्य में किसी न किसी रूप में यात्रा-साहित्य का सृजन अवश्य करता है। हमने उपर्युक्त संक्षिप्त विवरण में देखा कि हिंदी में यात्रा विषयक प्रचुर साहित्य उपलब्ध है। हिंदी गद्य के साथ-साथ इसने भी पर्याप्त विकास किया है। अधिकांश लेखकों ने इस विधा को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है।

Shreenivas Naik

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Dec 4, 2016, 5:41:55 PM12/4/16

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आधुनिक कथेतर गद्य विधाओं में यात्रा वृत्तांत भी प्राचीन साहित्यिक विधा है। समय के साथ इसके स्वरूप और चरित्र में बदलाव होते रहे हैं। इतिहास, आत्म चरित्र आदि के प्रति अनास्था और उदासीनता के कारण भारत में यात्रा वृत्तांतों की समृद्ध और निरंतर परंपरा नहीं मिलती। विश्व के अन्य देशों में स्थिति इससे भिन्न है। वहां यात्रा और उसके अनुभवों को लिपिबद्ध करने का उत्साह है। फाहियान, ह्वेत्सांग, इब्न बतूता, अल बरूनी, मार्केपोलो बर्नियर आदि कई साहसी यात्री हुए हैं, जिन्होंने दूरस्थ देशों और स्थानों की अपनी यात्राओं के रोमांचक वृत्तांत लिखे। आज ये वृत्तांत धरोहर की तरह हैं, जिनसे हमें अपने अतीत समझने में मदद मिलती है। यों तो हमारे देश में रामायण, हर्ष चरित्र, कादंबरी आदि में यात्रा वृत्तांत के लक्षण मिल जाएंगे, लेकिन हिंदी में सही मायने में यात्रा वृत्तांत की शुरुआत उपनिवेशकाल में हुई। अंग्रेजी साहित्य के संपर्क-संसर्ग से हिंदी में साहित्यिक यात्रा वृत्तांत लिखे जाने लगे और धीरे-धीरे इनका विधायी ढांचा भी अस्तित्व में आया। 

यात्रा वृत्तांत क्या है, इसे लेकर कई धारणाएं मौजूद हैं। कुछ लोगों के लिए यह आख्यान है, कुछ लोग इसे वृत्तांत कहते हैं, जबकि कुछ अन्य के अनुसार यह भी एक किस्म का संस्मरण है। यात्रा मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। अज्ञात के प्रति मनुष्य मन में स्वाभाविक जिज्ञासा है, जो उसे नए और दूरस्थ स्थानों की यात्रा के लिए प्रेरित करती है। मनुश्य यात्राएं करता है और यात्रा के अपने अनुभवों को लिपिबद्ध भी करता है, जो यात्रा वृत्तांत या यात्रा आख्यान कहे जाते हैं। लेखक अपने विश्वास और धारणाओं के साथ यात्रा पर निकलता है और नयी जगहों और लोगों के बीच जाता है। इस तरह यात्रा धारणाओं और विश्वासों में उथल-पुथल और अंतर्क्रिया का कारण बनती है। यात्री इस उथल-पुथल और अंतर्क्रिया की पहचान कर दर्ज करता है। यात्रा वृत्तांत की परिभाषा करते हुए कथाकार अरुणप्र्रकाश लिखते हैं कि ´´यात्रा आख्यान यात्रा के क्रम में हुई घटनाओं, दृश्यों और यात्री के इन अनुभवों के प्रति निजी भावनाओं का वर्णन है।´´ डॉ. रघुवंश एक साहित्यिक विधा के रूप में यात्रा वृत्तांत का संबंध उसके लेखक की सौंदर्य दृष्टि से जोड़ते हैं। उनके अनुसार सौंदर्य बोध की दृष्टि से उल्लास की भावना से प्रेरित होकर यात्रा करने वाले यायाकर एक प्रकार से साहित्यिक मनोवृत्ति के माने जा सकते हैं और उनकी मुक्त अभिव्यक्ति को यात्रा वृत्तांत कहा जाता है। इस तरह यात्रा वृत्तांत उसके लेखक का अंतरंग और बहिरंग, दोनों होता है। यात्री वृत्तांत में अपने बहिरंग को अपने अंतरंग के साथ हमारे सामने रखता है। कहा जा सकता है कि ´´यात्रा वृत्तांत नई, खुलती हुई दुनिया, अनजान लोगों-समाजों-सभ्यताओं-संस्कृतियों-जीवन शैलियों को स्वयं में समेटता है पर लेखक के निजी विकास का भी आईना होता है।´´ 

वस्तुपरकता यात्रा वृत्तांत की जान है। यात्रा वृत्तांत में लेखक जो देखता-खोजता है, उसका यथातथ्य वर्णन करता है। यात्रा वृत्तांत भी यात्रा के बाद स्मृति के आधार पर लिखे जाते हैं, इसलिए यात्री यात्रा के दौरान तथ्यों को डायरी, नोट बुक आदि में दर्ज कर लेता है। संस्मरण में जो आत्मपरकता होती है या जो कल्पना का पुट होता है, यात्रा वृत्तांत में नहीं होता। इसमें लेखक को अपने स्मृति को वस्तुपरक बनाए रखना पड़ता है। वह सजग रहकर अपने आत्म को स्मृति पर हावी होने से रोकता है। वस्तुपरक होने के कारण यात्रा वृत्तांत में कल्पना के लिए कोई जगह नहीं है। कल्पना कई बार यात्रा वृत्तांत में इस्तेमाल होती है, लेकिन उसकी भूमिका इसमें आटे में नमक की तरह ही है। यात्रा वृत्तांत में कल्पना यथार्थ को विस्थापित नहीं करती। कुछ लोग यात्रा वृत्तांत को उसकी तथ्य निर्भरता और वस्तुपरकता के कारण साहित्य नहीं मानते। विख्यात लेखक मेरी किंग्सले ने एक जगह लिखा भी है कि "यात्रा आख्यान की पुस्तक से कोई साहित्य की अपेक्षा नहीं करता।" 

यात्रा वृत्तांत के लेखक का जीवन प्रति नजरिया अक्सर बहुत मस्ती का और फक्कडना होता है। एक ही प्रकार के रोजमर्रा जीवन से उसे ऊब होती है और स्थिर प्रकार का जीवन उसे बांधता है। यह बात कमोबेश सभी घुमक्कड़ यात्रा वृत्तांत लेखकों ने स्वीकार की है। विख्यात घुम्मकड़ लेखक राहुल सांस्कृत्यायन के अनुसार ´´ जिसने एक बार घुमक्कड़ धर्म अपना लिया, उसे पेंशन कहां, उसे विश्राम कहां ? आखिर में हडि्डयां कटते ही बिखर जाएंगी। आजीवन यायावर रहे अज्ञेय ने भी यही बात दूसरे शब्दों में कही है। वे लिखते है, ´´यायावर को भटकते हुए चालीस बरस हो गए, किंतु इस बीच न तो वह अपने पैरों तले घास जमने दे सका है, न ठाठ जमा सका है, न क्षितिज को कुछ निकट ला सका है... उसके तारे छूने की तो बात ही क्या।...यायावर न समझा है कि देवता भी जहां मंदिर में रूके कि शिला हो गए, और प्राण संचार की पहली शर्त है कि गति:गति: गति।´´ यात्रा वृत्तांत का रूपबंध निबंध के रूप बंध जैसा होता है, लेकिन कथात्मक गद्य विधाओं के रूप बंध के कुछ तत्त्व भी इसमें इस्तेमाल किए जाते हैं। यात्रा वृत्तांत का रूपबंध वस्तुपरक और तथ्यात्मक होता है और कभी-कभी इसमें विवरण आत्मपरक भी होते हैं, लेकिन तथ्य विमुख प्राय: नहीं होते। सही मायने में यात्रा वृत्तांत एक तरह का आईना है। ´´यात्रा के सुख-दुख, उसकी विश्वसनीयता के उपकरण और सादा बयानी उसका हुनर है।´´ यात्रा वृत्तांत के रूपबंध में कथात्मक गद्य विधाओं की नाटकीयता, कुतूहल आदि तत्त्व भी प्रयुक्त होते हैं, लेकिन यह आवश्यक है कि इनके इस्तेमाल से यथार्थ में विकृति नहीं आए। यात्रा वृत्तांत का रूपबंध जब कथात्मक होने लग जाए, तो समझना चाहिए कि लेखक भटक गया है। आधुनिककाल में नहीं, पर पहले कथात्मक विधाओं वाले रूपबंध में भी यात्रा वृत्तांत लिखे गए हैं, लेकिन इनको बाद में वृत्तांत की जगह कथात्मक आख्यान ही माना गया है। यात्रा वृत्तांत एकाधिक शैलियों और रूपों में लिखे गए हैं। कुछ यात्रा वृत्तांत ऐसे हैं, जिनको यात्रोपयोगी साहित्य की श्रेणी में रखा जा सकता है। इनमें स्थानों और देशों के संबंध विस्तृत और उपयोगी जानकारियां दी गइ हैं। राहुल सांस्कृत्यायन की हिमालय परिचय और मेरी यूरोप यात्रा ऐसी ही रचनाएं हैं। इनसे अलग अज्ञेय की अरे यायावर रहेगा याद और निर्मल वर्मा की चीड़ों पर चांदनी जैसी रचनाओं में महज जानकारियों से आगे इनके लेखकों की अंतर्यात्रा भी दिखाई पड़ती है। 

हिंदी में यात्रा वृत्तांत लेखन की जड़ें बहुत मजबूत और गहरी नहीं हैं। ´कुछ गिनती के लेखक और थोड़ी सी किताबे´ ही इस संबंध में मौजूद हैं। हिंदी में इस दिशा में पहल भारतेंदु हरिश्चंद्र 1877 में दिल्ली दरबार दर्पण लिखकर की। बाद में बाबू शिपप्रसाद गुप्त, मौलवी महेश प्रसाद, रामनारायण मिश्र और सत्यव्रत परिव्राजक ने भी यात्रा वृत्तांत से मिलती-जुलती कुछ रचनाएं लिखीं। इस दिशा सर्वाधिक उल्लेखनीय काम राहुल सांस्कृत्यायन ने किया। उन्होंने खूब देशाटन किया और तत्सम्बंधी अपने-अपने अनुभवों और विवरणों को घुमक्कड़ शास्त्र और वोल्गा से गंगा नामक रचनाओं में लिखा। अज्ञेय भी घुमक्कड़ थे-एक बूंद सहसा उछली और अरे यायावर रहेगा याद उनके यात्रावृत्तों के प्रसिद्ध संकलन हैं। एक आधुनिक भारतीय मन की चिंता और आत्मान्वेषण इन रचनाओं की खासियत है। रघुवंश के यात्रावृत्त संकलन हरी घाटी की भी पांचवें-छठे दशक में सराहना हुई। आजादी के बाद इस क्षेत्र में उल्लेखनीय काम निर्मल वर्मा ने किया। चीड़ों पर चांदनी और धुंध से उठती धुन उनके यात्रावृत्तों के प्रसिद्ध संकलन हैं। धुंध से उठती धुन में ऐसे यात्रावृत्त हैं, जिनमें भारतीय सभ्यता और संस्कृति को आधुनिक निगाह से समझने की कोशिश की गई है। हिमालय भारतीय रचनाकारों को अक्सर अपनी ओर आकृष्ट करता रहा है। हिमालय की धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत से रूबरू करवाने वाले यात्रावृत्तों की श्रृंखला स्फीति में बारिश, किन्नर >धर्मलोक और लद्दाख राग-विराग नाम से हिंदी में कृष्णनाथ ने लिखी। 

घुमक्कड़ शास्त्र की विधा क्या है?

Detailed Solution. सही उत्तर 'यात्रा वृत्तान्त' है।

राहुल सांकृत्यायन की प्रमुख कौन कौन सी रचनाएं हैं?

राहुल सांकृत्यायन की 'कृतियां' कहानी संग्रह – (१) कनैला की कथा, (२) सतमी के बच्चे, (३) बहुरंगी मधुपुरी, (४) वोल्गा से गङ्गा आदि। आत्मकथा – मेरी जीवन यात्रा। धर्म और दर्शन – (१) बौद्ध दर्शन, (२) दर्शन दिग्दर्शन, (३) धम्मपद, (४) बुद्धचर्या (५) मज्झिमनिकाय आदि।

राहुल सांकृत्यायन के अनुसार हिन्दी साहित्य का प्रथम काल कौन सा है?

हिन्दी के प्रथम कवि सरहपा हैं। अत: सही उत्तर विकल्प 3 सरहपा है। हिन्दी के प्रथम कवि--- सरहपा। राहुल सांकृत्यायन ने हिंदी का प्रथम कवि जैन साहित्य के रचयिता सरहपा को माना है जिनका जन्मकाल 8वीं शदी माना जाता है ।

घुमक्कड़ शास्त्र के Rachyita कौन है?

राहुल सांकृत्यायन