पर्यावरण के मुद्दे अंतर्राष्ट्रीय एजेंडे पर क्यों दिखते हैं? - paryaavaran ke mudde antarraashtreey ejende par kyon dikhate hain?

2019 के लिए एजेंडा स्पष्ट है कि प्रमुख कार्यक्रमों को लागू करने तथा हमारे अंतरराष्ट्रीय दायित्वों को पूरा करने के लिए हमें संस्थागत और विनियामक रूपरेखा बनानी होगी 

पर्यावरण के मुद्दे अंतर्राष्ट्रीय एजेंडे पर क्यों दिखते हैं? - paryaavaran ke mudde antarraashtreey ejende par kyon dikhate hain?

वर्ष 2018 में भारत में कुछ प्रमुख नीतियों और कार्यक्रमों की शुरुआत हुई। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी दो प्रमुख समझौतों पर कार्रवाई शुरू की गई। पेरिस समझौते के नियमों को अपनाया गया था और 1 जनवरी, 2019 से मॉन्ट्रियाल प्रोटोकोल के संशोधन लागू हुए। वर्ष 2019 के लिए एजेंडा स्पष्ट है कि प्रमुख कार्यक्रमों को लागू करने तथा हमारे अंतरराष्ट्रीय दायित्वों को पूरा करने के लिए हमें संस्थागत और विनियामक रूपरेखा बनानी होगी। वर्ष 2019 के लिए मुख्य पर्यावरणीय प्राथमिकताओं की मेरी सूची इस प्रकार है:

राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम: वायु प्रदूषण को रोकने के लिए अलग-अलग नीतियों वाले दृष्टिकोण को बदलना होगा तथा इसके स्थान पर व्यापक और एकजुट कार्ययोजना लागू करनी होगी। राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम के अंतर्गत 100 से अधिक शहरों का विकास किया गया है तथा स्वच्छ वायु योजनाएं लागू की गई हैं। इसे प्रभावी रूप से लागू करने के लिए संस्थानिक रूप दिया जाए। इसे सख्ती से लागू किए बिना अन्य सभी उपाय निष्फल साबित होंगे।

एक बार इस्तेमाल किया जाने वाला प्लास्टिक: एक ही बार इस्तेमाल में आने वाले प्लास्टिक पर वर्ष 2022 तक प्रतिबंध लगाने के संकल्प को अमल में लाना होगा। वर्तमान में अलग-अलग राज्य एक बार इस्तेमाल में आने वाले प्लास्टिक को भिन्न-भिन्न अर्थ में लेते हैं। िवकल्पों को बढ़ावा देकर इसकी राष्ट्रीय परिभाषा बनाई जानी चाहिए जिसे विस्तृत योजना का समर्थन प्राप्त हो।

स्वच्छ भारत अभियान: सरकारें आती-जाती रहती हैं, लेकिन सफल कार्यक्रमों को जारी रहना चाहिए। स्वच्छ भारत अभियान (एसबीएम) ऐसा ही कार्यक्रम है। इस वर्ष, एसबीएम को स्थायी बनाने के लिए इसे मजबूत करना होगा।

जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय और राज्य कार्य योजना: वर्ष 2008 में जलवायु परिवर्तन संबंधी राष्‍ट्रीय योजना (एनएपीसीसी) और जलवायु परिवर्तन संबंधी राज्य योजना (एसएपीसीसी) को स्वीकार किया गया था। इसके मिले-जुले परिणाम सामने आए हैं। एक ओर जहां राष्ट्रीय सौर मिशन और राष्ट्रीय उन्नत ऊर्जा दक्षता मिशन काफी सफल रहा, वहीं दूसरी ओर अन्य अभियान उतने सफल नहीं रहे जितनी उम्मीद की गई थी।

एसएपीसीसीएस भी कागजों से आगे नहीं बढ़ सका। अब वक्त आ गया है कि एनएपीसीसी और एसएपीसीसी की पुन: समीक्षा की जाए तथा हमारी अर्थव्यवस्था को कार्बनमुक्त करने के लिए व्यापक रूपरेखा का विकास किया जाए तथा इसे जलवायु परिवर्तन के अनुरूप बनाया जाए। हमें केंद्र और राज्यों के बीच जिम्मेदारियों का स्पष्ट बंटवारा सुनिश्चित करना है। वर्तमान में, उत्सर्जन रोकने का दायित्व केवल केंद्र सरकार पर है। इस स्थिति में बदलाव लाने की जरूरत है।

राष्ट्रीय वन नीति और अधिनियम: राष्ट्रीय वन नीति 2018 का मसौदा विचारों को यथार्थ रूप देने में विफल रहा है। इसके अलावा पर्यावरण मंत्रालय ने राष्ट्रीय वन अधिनियम, 1927 में संशोधन की प्रक्रिया भी शुरू की है। इन दोनों का सही होना अति आवश्यक है। भारत को ऐसे वन विनियमों की जरूरत है जो वनों को बढ़ाने, उनकी देखभाल व रक्षा करने तथा उनका निरंतर उपयोग करने में लोगों की भूमिका और संभावना को पहचान सकें। इसके लिए वन विभाग को अपना साम्राज्यवादी नजरिया छोड़ना होगा तथा समुदाय द्वारा वनों की देखभाल करने में सहायक की भूमिका निभानी होगी।

राष्ट्रीय नदी पुनरोद्धार योजना: केवल गंगा ही प्रदूषित नहीं है, बल्कि पानी के लगातार दोहन और गंदे पानी को साफ किए बिना इसे नदियों में छोड़ने से सभी छोटी-बड़ी नदियां प्रदूषण की चपेट में हैं। कावेरी से लेकर गोदावरी और सतलुज से लेकर यमुना तक, सभी नदियों को पुनरोद्धार योजना की जरूरत है। आइए हम वर्ष 2019 में राष्ट्रीय नदी पुनरोद्धार योजना का शुभारंभ करें।

प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड: हमारे प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (पीसीबी) निष्प्रभावी और भ्रष्ट हैं तथा हर बीते वर्ष के साथ पुराने होते जा रहे हैं। उन्हें 21वीं सदी की प्रदूषण संबंधी चुनौतियों को विनियमित करने, निगरानी करने तथा लागू करने के मुताबिक नहीं बनाया गया है। हम आधुनिक पर्यावरण विनियामक प्राधिकरण के बिना इन चुनौतियों का सामना नहीं कर सकते। अब वक्त आ गया है कि हम पीसीबी को नया रूप दें तथा प्रभावी निगरानी और प्रवर्तन के लिए उनकी क्षमता का निर्माण करें।

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India Environment Portal Resources :

  • National Clean Air Programme (NCAP)
  • Production, use, and fate of all plastics ever made
  • Order of the National Green Tribunal regarding river pollution in India, 20/09/2018
  • Extreme is new normal
  • Draft National Forest Policy, 2018

उत्तर : पर्यावरण अवबोध हेतु अंतर्राष्ट्रीय प्रयास -

पर्यावरण अवकर्षण में वृद्धि तथा इसके विपरीत प्रभावों के कारण विगत तीन दशकों में पर्यावरण अवबोध पर विश्व में पर्यावरण की संरक्षा तथा सुधार के प्रयासों में तेजी आई। विश्व के सभी देशों में इस तरफ जागरूकता आई एवं राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण अवबोध के अनेक कार्यक्रम आयोजित किए गए। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने पर्यावरण की सुरक्षा तथा सुधार की ओर विश्व का ध्यान दिलाया। पर्यावरण अवबोध के प्रति व्यापक चर्चा सन् 1971 में शुरू हुई। अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक संगठनों की परिषद के तत्वावधान में पर्यावरणः समस्याओं पर वैज्ञानिक समिति (एस.सी.ओ.पीई) ने अपने प्रकाशन में, विश्वव्यापी पर्यावरण प्रबोधन पर एक अंतर्राष्ट्रीय परियोजना प्रस्तुत की। इसके निम्नलिखित तीन सुझाव थे–

(1) पर्यावरण में आने वाले बदलाव की युक्तियुक्त विवेचना;

(2) पर्यावरण के बिगड़ते स्वरूप पर नियंत्रण करना तथा;

(3) स्वस्थ पर्यावरण हेतु अपनाए गए कदम।

तत्पश्चात् कई अंतर्राष्ट्रीय संगठनों, विज्ञान परिषदों, शोध संस्थाओं तथा व्यक्तिगत प्रयासों से पर्यावरण चेतना के युग का सूत्रपात हुआ एवं यह चेतना गतिशील है। पर्यावरण शोध संरक्षण, चेतना तथा अवबोध की दिशा में निम्नलिखित अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं कार्यरत हैं–

(1) . संयुक्त राष्ट्र का पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनई.पी); (2) आधुनिक समाज की चुनौतियों से संबंधित समिति (सी.सी.एम.एम); (3) संयुक्त राष्ट्र की आर्थिक आयोग; (4) यूनेस्को का मानव तथा जैव मंडल कार्यक्रम; (5) अंतर्राष्ट्रीय जैव कार्यक्रम, और (6) विश्व वन्य जीव कोष।

उक्त सभी संस्थाएं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण जाग्रति तथा उसके संरक्षण हेतु विचार विमर्श तथा शोध कार्य द्वारा विश्वव्यापी पर्यावरण अवधारणा प्रतिपादित करने में कार्यरत है। पर्यावरण प्रदूषण से निपटने हेतु जो अंतर्राष्ट्रीय उपाय किए गए हैं, उनका यहां विवेचन किया जा रहा है।

(1) पर्यावरण के क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र की कार्यवाही– पर्यावरण से संबंधित विश्व स्तर पर संपन्न प्रमुख सम्मेलन और संपादित अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय तथा संयुक्त राष्ट्र की अन्य कार्यवाइयां निम्नलिखित हैं–

(क) मानव पर्यावरण स्टाकहोम सम्मेलन, 1972;

(ख) ओजोन परत संरक्षण वियना अभिसमय, 1985;

(ग) ओजोन परत संरक्षण वियना अभिसमय II, 1985;

(घ) संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण तथा विकास सम्मेलन (पृथ्वी सम्मेलन), 1089;

(ड) द्वितीय संयुक्त राष्ट्र मानव सम्मेलन (हैविटेट), 1985

संयुक्त राष्ट्र संघ के पर्यावरण कार्यक्रम का आरंभ जून 1972 में स्वीडन की राजधानी मानवीय पर्यावरण सम्मेलन आयोजन से किया गया। इस सम्मेलन में पहली बार "एक ही पृथ्वी" के सिद्धांत को सम्मेलन में शामिल विश्व के 119 देशों ने स्वीकार किया। इस सम्मेलन की समाप्ति के पहले एक घोषणा– पत्र को घोषित किया, जिसे स्टॉकहोम घोषणा– पत्र 1972 के नाम से जाना जाता है । इस घोषणा– पत्र में 26 सिद्धांतों को पर्यावरण संरक्षण हेतु जरूरी समझा गया। ये सिद्धांत विश्व पर्यावरण अवधारणा को निरूपित करते हैं ।

ये सिद्धान्त निम्न हैं :–

1. मनुष्य का मूलभूत अधिकार है एक ऐसे पर्यावरण का जिसमें प्रसन्नता तथा मान मर्यादा पूर्ण जीवन, स्वतंत्रता, समानता और रहन– सहन की पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध हों। साथ ही उस पर यह गंभीर उत्तरदायित्व भी है कि वर्तमान तथा भावी पीढ़ियों के लिए पर्यावरण को सुधारे व उसे सुरक्षित रखे।

2. यह उपयुक्त है कि सतर्कतापूर्ण आयोजन तथा व्यवस्था द्वारा पृथ्वी के प्राकृतिक स्रोतों तथा पारिस्थितिक– तंत्र को वर्तमान एवं भावी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखा जाना चाहिए।

3. जीवन से संबद्ध ऐसे स्रोतों को जिनका नवीनीकरण संभव है, उसके द्वारा भूमि की उपजाऊ क्षमता बनाए रखी जानी चाहिए तथा जहां तक व्यावहारिक हो उसे पुनः स्थापित किया जाना चाहिए।

4. वन्य प्राणी प्रजाति की सुरक्षा करना और उनको बुद्धिमत्तापूर्वक व्यवस्थित करने का विशेष दायित्व मनुष्य का है।

5. वे संसाधन जिनका नवीनीकरण संभव नहीं है, उनका इस तरह उपयोग किया जाए कि वे भविष्य में अधिक से अधिक समय तक उपयोग में लिए जा सकें।

6. पदार्थों का विसर्जन उसी सीमा तक होना चाहिए कि वे पर्यावरण तथा पारिस्थिति तंत्र हेतु हानिकारक न हों। यह सुनिश्चित करने हेतु उन पर रोक लगाना जरूरी हो तो लगाई जाए।

7. ऐसे पदार्थों जिनसे समुद्र में प्रदूषण हो अथवा जलीय जीवों को हानि पहुंचे उन पर राज्यों द्वारा रोक लगाई जानी चाहिए।

8. मनुष्य को उत्तम जीवन व्यतीत करने और काम करने योग्य पर्यावरण बनाने के लिए आर्थिक और सामाजिक सुधार जरूरी है।

9. अल्प विकास तथा प्राकृतिक आपदाओं द्वारा पैदा पर्यावरण संकट हेतु विकसित देशों को पूर्ण सहायता करनी चाहिए।

10. विकासशील देशों में प्राथमिक वस्तुओं की उपलब्धता तथा मूल्यों में स्थिरता पर्यावरण संरक्षण हेतु जरूरी है।

11. सभी राज्यों की पर्यावरणात्मक नीतियों के द्वारा विकासशील देशों की वर्तमान और भावी विकास संभाव्यता में वद्धि करना जरूरी है।

12. विकासशील देशों में पर्यावरण तथा पारिस्थितिकी आयोजन के लिए अंतर्राष्ट्रीय तकनीक एवं वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने की जरूरत है।

13. संसाधनों के अधिक युक्तियुक्त प्रबंध को प्राप्त करने तथा पर्यावरण सुधार हेतु एकीकृत योजना तैयार करना चाहिए जिससे जनता के लाभ के लिए पर्यावरण रक्षण संभव हो।

14. उचित आयोजन द्वारा ही विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच संघर्ष रोका जा सकता है एवं सामंजस्य स्थापित हो सकता है।

15. पर्यावरण के प्रतिकूल प्रभाव को रोकने हेतु बस्तियों तथा नगरों का उचित आयोजन किया जाना चाहिए।

16. पर्यावरण सुधार के लिए जनसंख्या वृद्धि उन क्षेत्रों में रोक लगाना जरूरी है जहां इनका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हो।

17. राष्ट्रीय संस्थाओं के माध्यम से पर्यावरण गुणवत्ता और संसाधन आयोजन हो।

18. विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी का उपयोग पर्यावरण आपदाओं को पहचानने, रोकने एवं नियंत्रित करने अर्थात् मानव– जाति के कल्याण हेतु किया जाना चाहिए।

19. पर्यावरण की उसे पूर्ण मानवीय आयामों में रचा करने तथा सुधारने में व्यक्तियों, उपक्रमों एवं समुदायों द्वारा जागृति अभिमत और उत्तरदायित्वपूर्ण आचरण के आधारों को व्यापक करने की दृष्टि से अल्प सुविधा प्राप्त लोगों के संबंध में उचित विचार करते हुए नयी पीढ़ी हेतु तथा साथ ही प्रौढ़ों के लिए पर्यावरण

संबंधी नियमों में शिक्षा की व्यवस्था जरूरी है।

20. सभी विकसित तथा विकासशील देशों में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण की समस्याओं पर लगातार शोध कार्य होना चाहिए।

21. संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के अनुसार हर देश को पर्यावरण उत्तरदायित्वों कानिर्वाह करने और संसाधनों के दोहन का अधिकार है पर इससे अनेक क्षेत्राधिकार से परे विपरीत प्रभाव नहीं होना चाहिए।

22. अगर राष्ट्रों के क्षेत्राधिकार से परे क्षेत्रों में पर्यावरण क्षति होती है अथवा प्रदूषण फैलता है तो उसका समुचित मुआवजा दिया जाना चाहिए।

23. पर्यावरण के मानदंडों का निर्धारण ऐसा होना चाहिए जो सभी देशों को मान्य हो और ज्यादा खर्च वाले या अनुपयुक्त न हों, विशेषकर विकासशील देशों के संदर्भ में।

24. पर्यावरण की रक्षा तथा सुधार से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर सभी देशों द्वारा चाहे वे छोटे हों अथवा बड़े, सहयोग की भावना तथा बराबरी के आधार पर कार्यवाही करनी चाहिए एवं सभी राज्यों की सार्वभौमिकता तथा उनके हितों का उचित ध्यान रखा जाए।

25. राज्य सुनिश्चित करे कि अंतर्राष्ट्रीय संगठन पर्यावरण की रक्षा और सुधार हेतु एक समन्वित सक्षम तथा गतिशील भूमिका का निर्वाह करते हैं।

26. मनुष्यों तथा उसके पर्यावरण को आणविक हथियारों एवं जन संहार के प्रभावों से बचाया जाना चाहिए और ऐसे हथियारों को जितना शीघ्र हो खत्म करने का प्रयत्न करना चाहिए।

उपर्युक्त घोषणा– पत्र पर्यावरण चेतना की दिशा में अद्वितीय है। इसके बाद विश्वव्यापी पर्यावरण अवबोध (अवधारणा) का वास्तविक रूप में प्रारंभ हुआ तथा विश्व के सभी देशों में पर्यावरण संबंधी कार्य योजनाओं का प्रारंभ हुआ।

(2) नाटो राष्ट्रों द्वारा प्रयास– सन् 1969 में नाटो में शामिल राष्ट्रों ने भी मानवीय पर्यावरण की संरक्षा हेतु आधुनिक समाज की चुनौतियों को स्वीकारा तथा निम्नलिखित कार्यक्रम के अंतर्गत राष्ट्रों का ध्यान निम्न तथ्यों पर केन्द्रित किया–

(क) प्रदूषणकारी अपशिष्टों का विसर्जन,

(ख) तटीय जल प्रदूषण,

(ग) अंतःस्थलीय जल,

(घ) वायुप्रदूषण तथा

(ड) अपशिष्ट जल के शोधन की आधुनिक तकनीक ।

(3) अंतर्राष्ट्रीय जैव कार्यक्रम– सन् 1963 में अंतर्राष्ट्रीय जैव कार्यक्रम के अधीन तत्कालीन जैव समस्याओं हेतु एक अंतर्राष्ट्रीय बायोलोजिकल कार्यक्रम की स्थापना की गई। इस कार्यक्रम में लगभग 40 देशों का सहयोग प्राप्त है।

(4) वन्य जीवों का संरक्षण– सन् 1961 में विश्व में वन्य जीवों के संरक्षण के लिए एक विश्व वन्य जीव कोष की स्थापना की गई। इसकी प्राथमिकताएं निम्नलिखित हैं–

(क) संरक्षण संबंधी आवश्यकताओं और परियोजनाओं के विश्वव्यापी सर्वेक्षण को प्रोत्साहन देना,

(ख) नष्ट होते जीव आवासों तथा जीव जातियों को संरक्षण प्रदान करना,

(ग) संरक्षण कार्यक्रमों का विस्तार तथा

(घ) संरक्षण संबंधी शिक्षा एवं प्रशिक्षण की व्यवस्था करना ।

(5) यूनेस्को का कार्यक्रम– इन सभी उपर्युक्त कार्यक्रमों में यूनेस्को द्वारा चलाया गया एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम भी था। यह कार्यक्रम मानव तथा जैवमंडल कार्यक्रम के नाम से जाना जाता है । इस कार्यक्रम का शुभारंभ सन् 1971 में किया गया था। इस कार्यक्रम के माध्यम से मानव पर्यावरण के संबंधों को नई दिशा देने का प्रयत्न किया गया था जिसमें संसाधनों का उचित उपयोग करने पर बल दिया गया था। इस कार्यक्रम द्वारा विश्व में मानव– पर्यावरण संबंधों को नवीन परिप्रेक्ष्य में शोध करने हेतु प्रेरित किया गया। यह शोध कार्य किसी एक विषय में न होकर बल्कि सभी प्राकृतिक एवं सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में किया जाने लगा। इस कार्यक्रम के अंतर्गत निम्नलिखित मुख्य विषय थे–

(1) उष्ण तथा शीतोष्ण प्रदेशों के वनों की प्रास्थितिक– तंत्र पर मानवीय क्रियाओं का प्रभाव,

(2) शीतोष्ण तथा भूमध्य सागरीय वन एवं क्षेत्रों में भूमि उपयोग का प्रास्थितिकी पर प्रभाव,

(3) मानवीय क्रियाओं का चरागाहों पर प्रभाव,

(4) शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क पारिस्थितिक– तंत्र पर मानवीय क्रियाओं का प्रभाव,

(5) झील, दलदल, नदी, डेल्टा तथा तटीय क्षेत्रों के प्रास्थितिक तंत्र पर मानवीय प्रभाव,

(6) पर्वतीय,प्रास्थितिक– तंत्र पर मानवीय प्रभाव,

(7) द्वीपीय क्षेत्र का प्रास्थितिक– तंत्र

(8) प्राकृतिक प्रदेशों का संरक्षण,

(9) उर्वरक तथा कीटनाशक दवाओं का जैव प्रास्थितिक– तंत्र पर प्रभाव,

(10) प्रमुख,प्रौद्योगिक कार्य पर मानव तथा पर्यावरण का प्रभाव,

(11) नगरीय तथा औद्योगिक क्षेत्र में ऊर्जा उपयोग का प्रास्थितिक– तंत्र पर प्रभाव,

(12) जैविक तथा जनसंख्या परिवर्तन का पर्यावरण पर प्रभाव,

(13) पर्यावरण की गुणवत्ता का बोध तथा

(14) पर्यावरण प्रदूषण एवं उसका जीव मंडल पर प्रभाव ।

उक्त सभी विषय पर्यावरणीय अवधारणा (अवबोध) को एक नई दिशा प्रदान करने में मददगार हैं। इन कार्यक्रमों के परिणामस्वरूप विश्वव्यापी पर्यावरण कायम करने की प्रवृत्ति का विकास हुआ, और 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस घोषित किया गया।

(6) नैरोबी सम्मेलन (1978)– सन् 1978 में पृथ्वी पर मानव के आवास तथा जीवन स्तर की गुणवत्ता बनाने हेतु नैरोबी में “प्राकृतिक आवास स्थान” हेबिटाट नामक एक संस्था का गठन किया गया। सन् 1977 में ही नैरोबी में मरुस्थलीकरण पर एक अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठी का भी आयोजन किया गया था। सन् 1982 में स्टाकहोम घोषणा– पत्र 1972 के दस वर्ष बाद नैरोबी में नैरोबी घोषणा– पत्र में पर्यावरण संकट पर राष्ट्रों के दायित्वों को दोहराया गया। इसके अतिरिक्त अन्य संगठनों ने भी पर्यावरण पर चर्चा की तथा पर्यावरण की संरक्षा एवं सुधार के लिए चेतना जागृत की। “पृथ्वी दिवस 1990" ने विश्व में पर्यावरण की जागृति में काफी योगदान दिया।

(7) ओजोन परत संरक्षण वियना अभिसमय, 1985– का निर्माण क्लोरोफ्लोरो कार्बन्स के विस्तार के नियंत्रण द्वारा ओजोन परत– पराबैगनी विकिरण द्वारा पैदा खतरों से पृथ्वी को जीवन का संरक्षण करने हेतु कार्यरत ऊपरी वातावरण परत के प्रति खतरा का सामना करने हेतु पहला अंतर्राष्ट्रीय प्रयास था। इस अभिसमयं को पूर्णाधिकारी दूत सम्मेलन द्वारा 22 मार्च, 1985 को अंगीकृत किया गया था। यह सम्मेलन संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा आयोजित किया गया था। यह अभिसमय 22 सितंबर 1988 को लागू हुआ। अभिसमय का मुख्य उद्देश्य राज्यों को समताप मंडलीय ओजोन परत का संरक्षण करने हेतु एक साथ मिलकर कार्य करने हेतु अंतर्राष्ट्रीय विधिक संरचना प्रदान करना है।

अभिसमय के अनुच्छेद 1 के अधीन ओजोन की परिभाषा दी गई है, जिसके अनुसार ओजोन परत का तात्पर्य भू– मंडलीय सीमा परत के ऊपर वातावरण ओजोन की परत से है। अभिसमय के अनुच्छेद 2 में पक्षकारों की बाध्यताओं के बारे में उपबंध किया गया है। इस उपबंध के अनुसार पक्षकार इस अभिसमय अथवा प्रवृत्त उन प्रोटोकोलों, जिनके वे पक्षकार हैं, के अनुसार मानव क्रियाकलापों से उत्पन्न होने वाले, या पैदा होने के लिए संभाव्य होने वाले प्रतिकूल प्रभावों के विरुद्ध मानव स्वास्थ्य अथवा पर्यावरण की रक्षा करने के लिए समुचित कदम उठाएंगे, जो ओजोन परत को उपांतरित करेगा, या उपांतरित करने हेतु संभाव्य है । इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए पक्षकार अपने व्ययन तथा क्षमता के साधनों के अनुसार निम्न कार्य करेंगे–

(क) ओजोन परत के उपांतरण से मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण को समुचित ढंग से समझने एवं उसका मूल्यांकन करने हेतु प्रणालीबद्ध संपरीक्षण, अनुसंधान और सूचना के आदान– प्रदान द्वारा सहयोग करना,

(ख) समुचित विधायी और प्रशासनिक उपाय करना तथा अपनी अधिकारता तथा नियंत्रण के अधीन मानव क्रियाकलापों की सीमा को नियंत्रित करने, कम करने, या निवारित करने हेतु समुचित नीतियों के समन्वय में सहयोग करना, अगर यह पाया जाता है कि उनके क्रियाकलापों का उपांतरण या संभाव्य उपांतरण से प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है या पड़ने की संभावना है।

(ग) प्रोटोकोलों अथवा परिशिष्टों के अंगीकरण किए जाने की दृष्टि से इस अभिसमय के क्रियान्वयन हेतु सम्मत उपायों, प्रक्रियाओं या मानकों के निर्माण में सहयोग करना,

(घ) इस अभिसमय और प्रोटोकोला, जिनके व पक्षकार हैं, का प्रभावी ढंग से क्रियान्वयन करने के लिए सहयोग करना।

वियना अभियना, 1985 ओजोन के संरक्षण की दिशा में विश्वव्यापी सहयोग का प्रारंभिक बिन्दु है । तदुपरांत,उन पदार्थों पर जो ओजोन परत को क्षीण करते हैं मांट्रियल प्रोटोकोल को अंगीकार किया गया।

(8) मांट्रियल प्रोटोकोल, 1987 – अंटार्कटिका के ऊपर वायुमंडल में ओजोन की अल्पता अथवा क्षीणता या ओजोन छिद्र के निर्माण के विषय में ब्रिटिश सर्वेक्षण टोली द्वारा 1985 में तथा बहुराष्ट्रीय खोजी दस्ते द्वारा 1987 में चौंकाने वाली सूचनाओं से विश्व के वैज्ञानिक जगत में खलबली मच गई। ओजोन की अल्पता/क्षीणता से उत्पन्न होने वाले भावी भयावह खतरों ने कई विकसित देशों की नींद हराम कर दी। अस्तु, 16 सितंबर, 1987 को वियना अभिसमय के प्रोटोकोल पर 56 देशों द्वारा हस्ताक्षर किए गए जिसका उद्देश्य ओजोन परत को नष्ट करने वाले पदार्थों पर पाबंदी लगाना है । इस प्रोटोकोल को पदार्थ मांट्रियल प्रोटोकोल कहा जाता है । यह प्रोटोकोल पहली जुलाई 1989 को लागू हो गया। मांट्रियल प्रोटोकोल में उपबंध हुआ था कि 1998 तक क्लोरो फ्लोरो कार्बन की खपत में 50% तक की कटौती की जाएगी। वास्तविकता यह है कि इस दिशा में विकसित देशों तथा अग्रणी वैज्ञानिकों ने भगीरथ प्रयास किया था।

ओजोन परत की क्षीणता को नियंत्रित करने वाले उक्त उपाय बड़े महत्व के हैं पर कई राज्यों ने अपने राष्ट्रीय हितों की दृष्टि से प्रोटोकोल की सफलता के बारे में प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। सोवियत संघ ने 1989 में सन् 2000 तक क्लोरोफ्लोरो कार्बन पर विश्वव्यापी प्रतिबंध का करार पर हस्ताक्षर करना जरूरी बना दिया, वहीं चीन ने तीसरे विश्व के साथ विशेष व्यवहार की मांग की। भारत ने मांट्रियल प्रोटोकोल के बारे में कहा कि यह विकसित देशों को उनकी अनिवार्य जरूरतों की देखभाल करने की अनुज्ञा देता है, लेकिन विकासशील देशों को उनकी बढ़ने वाली जरूरतों को पूरा करने की अनुज्ञा नहीं देता। इस तरह परस्पर विरोधी मतों के कारण कई देशों ने प्रोटोकोल का अनुसमर्थन नहीं किया है।

भारत में हर वर्ष 16 सितंबर को ओजोन परत संरक्षण दिवस मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने भी पर्यावरण दिवस 1989 के लिए विश्व उष्णता, विश्व चेतावनी का नारा दिया था। विश्व पर्यावरण संरक्षण दिवस प्रत्येक वर्ष 5 जून को मनाया जाता है।

(9) पृथ्वी सम्मेलन (1992) – स्टाकहोम घोषणा– पत्र 1972 के क्रियान्वयन पर कार्यवाहियों का आंकलन करने हेतु संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में ब्राजील की राजधानी, रियो डी जेनिरो में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन हुआ था। यह सम्मेलन 3 जून से 14 जून 1992 तक हुआ था। इस सम्मेलन का मुख्य सूत्र “एक ही पृथ्वी” को माना गया। वहां पृथ्वी की संरक्षा हेतु सभी राष्ट्रों को मिलाकर काम करने का आह्वान किया गया। इस सम्मेलन में विश्व के 178 राष्ट्रों की सरकारों तथा 12 राष्ट्राध्यक्षों ने भाग लिया। पर्यावरण के प्रमुख विषयों पर इन सभी राष्ट्रों ने विचार विमर्श किया। इन विषयों में प्राकृतिक संसाधनों के अनियंत्रित शोधन से उत्पन्न समस्याएं, कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में लगातार वृद्धि, आजान परत के निरंतर विरल होते जाने का संकट, विश्व में तापमान की क्रमिक वृद्धि से उत्पन्न संकट, जैविक विविधता (वायोडाइवर्सिटी), प्रदूषण संकट इत्यादि प्रमुख विषय थे लेकिन अमेरिका के हठीले रवैयों की वजह से यह सम्मेलन काफी सफल नहीं रहा। तब भी पर्यावरण और विकास की गति पर काफी विचार विमर्श किया गया। काफी अन्य गैर सरकारी संगठनों (एन.जी.ओ) ने भो काफी जागृति पैदा की। अतः पृथ्वी सम्मेलन 1992 काफी महत्वपूर्ण रहा। इसने विश्व के राष्ट्रों, सरकारों और नागरिकों को पर्यावरण की संरक्षा के लिए जागरूक किया। प्रदूषण की गति पर रोकथाम करने के प्रति सजग किया। इस सम्मेलन के विचारों से पर्यावरण की अवधारणा का नई दिशा मिली।

(10) जैव विविधता अभिसमय, 1992– यह अभिसमय वनस्पतियों एवं जीवजंतुओं के जीन के संरक्षण के लिए परिकल्पित किया गया है। यह पृथ्वी की सभी प्रजातियों तथा पारिस्थितिकी के पोषणीय प्रयोग एवं उपभोग से सरोकार रखती है। इस अभिसमय का उद्देश्य है कि अगर विकसित देशों द्वारा वनस्पतियों तथा जीव– जंतुओं के जीन का शोषण किया जाता है तो उन्हें उसका प्रतिकर देने के लिए बाध्य किया जाए।

जैव विविधता अभिसमय पर अमेरिका ने बड़ा कड़ा रुख अपनाया। उसका कहना था वह इस पर कदापि हस्ताक्षर नहीं करेगा। पर अमेरिका के इस विरोधी दृष्टिकोण का जापान, जर्मनी, ब्रिटेन और यूरोपीय राज्यों द्वारा समर्थन नहीं किया गया। इस तरह अमेरिका की स्थिति विषम हो गई तथा वह इस मामले में अलग– थलग पड़ गया। बहुत विचार– विमर्श करने के बाद इस अभिसमय को 22 मई 1992 को नैरोबी में स्वीकार कर लिया गया। 7 जून 1992 को जापान द्वारा इस अभिसमय पर हस्ताक्षर करने करने के विषय में यह संकेत दिया गया कि वह ब्रिटेन एवं अन्य ग्यारह यूरोपीय राज्यों के साथ अभिसमय पर हस्ताक्षर कर देगा। भारत ने भी संधि पर हस्ताक्षर किए। इस अभिसमय को लागू होने हेतु 30 देशों का अनुसमर्थन अपेक्षित या, तदनुसार 30 देशों के अनुसमर्थन करने पर अभिसमय 29 दिसंबर, 1993 से लागू हो गया और उसी तारीख से अंतर्राष्ट्रीय विधि का भाग हो गया ।

यहां यह बात उल्लेखनीय है कि अभिसमय में तकनीक के अंतरण के संबंध में एक ऐसा खंड था जिस पर विकसित एवं विकासशील देश एकमत नहीं थे क्योंकि दोनों द्वारा उसका निर्वचन अपने– अपने अनुसार किया जाता था।

(11) द्वितीय हैबिटाट सम्मेलन– हैबिटाट एजेंडे को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया गया है–

(क) उद्देशिका– उद्देशिका में 12 अनुच्छेद अंतर्विष्ट हैं। उद्देशिका द्वारा मानव के दैनिक जीवन स्तर को सुधारने हेतु आज्ञापक आवश्यकता के रूप में मान्यता प्रदान की गई है। इसमें यह जोर देकर कहा गया है कि हैबिटाट II बड़े, मध्यम तथा लघु सभी को ऐसे सभी अधिकार प्रदान करता है जो जीवन यापन तथा कार्य करने के ढंगों में सुधार करने के लिए जरूरी हैं। उद्देशिका में अधिकथित किया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपना तथा अपने परिवार का समुचित स्तर सुधारने का अधिकार है।

(ख) हैबिटाट एजेंडे के सिद्धांत– सम्मेलन द्वारा विश्व में सभी लोगों हेतु पर्याप्त आदाय, समुचित विकास के सिद्धांत एवं लक्ष्य को अंगीकृत किया गया। हैबिटाट II के एजेंडे में जिन सिद्धांतों को प्रतिपादित किया गया है,वे निम्नलिखित हैं–

(i) साम्यापूर्ण मानव अधिवास, (ii) अधिवास की स्थानिक विशिष्टता, (iii) नागरिक अधिकार एवं उत्तरदायित्व, (iv) समुचित विकास, (v) गरीबी उन्मूलन, (vi) समाज की मूल इकाई के रूप में परिवार मजबूत बनाने की आवश्यकता, (vii) सभी राज्यों एवं राज्यों के अंदर कार्य करने वाले सभी लोगों के बीच भागीदारी, (viii) वित्तीय स्रोत एवं मानव स्वास्थ्य की देखरेख, (ix) सुविधाहीन एवं दलितों के साथ एकात्मीयता और (x) प्राण की गुणवत्ता में सुधार

(ग) प्रतिबद्धताएं– एजेंडे में छः प्रतिबद्धताएं राज्यों के प्रति अधिकथित की गई हैं। इनमें से 4 महत्वपूर्ण हैं। ये निम्न हैं–

(1) निवास का अधिकार– इस हैबिटाट सम्मेलन में राज्यों ने पर्याप्त निवास के अधिकार के प्रति सहमति व्यक्त किया। इसमें यह घोषणा की गई है कि “हम पर्याप्त निवास के अधिकार के सफल क्रियान्वयन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता स्वीकार करते हैं। इस बारे में हम राज्यों की इस मूल आबद्धता को मान्यता देते हैं कि वह लोगों को आवास प्राप्त करने और निवास स्थान तथा पड़ोस की सुरक्षा करने एवं सुधार करने के लिए सक्षम बनाए।"

(2) अंतर्राष्ट्रीय सहयोग एवं भागीदारी– हैबिटाट II में राज्यों ने अंतर्राष्ट्रीय सहयोग तथा भागीदारी में अभिवृद्धि करने के लिए अपनी प्रतिबद्धता राष्ट्रीय एवं विश्व स्तरीय कार्य योजना के क्रियान्वयन तथा हैबिटाट के लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक साबित होगी।

(3) कुल राष्ट्रीय उत्पाद के लक्ष्य की प्राप्ति– राज्यों ने सम्मेलन में इस संबंध में प्रतिबद्धता व्यक्त की कि–

(i) राज्य विकसित राज्यों के 0.7 प्रतिशत के कुल राष्ट्रीय उत्पाद के स्वीकृत लक्ष्य को शीघ्रातिशीघ्र शासकीय विकास की मदद के लिए पूरा करने, तथा

(ii) हैबिटाट के उद्देश्यों के लिए जितना धन वे दे रहे हैं उसमें वृद्धि करने हेतु अपने को प्रतिबद्ध करते हैं।

(4) ऐजेंडे का क्रियान्वयन– सम्मेलन में राज्यों द्वारा एजेंडे के अनुपालन तथा उसके क्रियान्वयन हेतु प्रतिबद्धता व्यक्त की गई।

(घ) विश्व स्तरीय कार्य योजना– हैबिटाट के लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु विश्वस्तरीय कार्य योजना नीति का उल्लेख एजेंडा के अध्याय 4 में किया गया है।

(12) क्योटो भूमंडलीय गरमाहट पर्यावरण सम्मेलन, 1997 – सन् 1992 के पृथ्वी सम्मेलन में जलवाय परिवर्तन अभिसमय को निर्मित किया गया था। इस अभिसमय में यह उपबंध किया गया था कि वे गैसे– जैसे निक्स ऑक्साइड, मिथेन, क्लोरोफ्लोरो कार्बन्स, कार्बन डाइऑक्साइड एवं अन्य औद्योगिक गैसें जिनके विसर्जन से हरित गृह प्रभाव होता है और पृथ्वी की गरमाहट में वृद्धि होती है उनके उत्सर्जन के प्रतिशत में कमी की जाएगी। पृथ्वी शिखर सम्मेलन, 1992 में यह भी विनिश्चय हुआ था कि पांच वर्ष के पश्चात् एक पुनरीक्षण सम्मेलन होगा जिसमें पांच वर्षों में होने वाली प्रगति पर विचार किया जाएगा एवं भविष्य हेतु योजनाएं बनेंगी और लक्ष्य निर्धारित किए जाएंगे। अतः दिसंबर 1997 को इसी उद्देश्य से एक सम्मेलन क्योटो (जापान) में आयोजित हुआ। इस सम्मेलन में 150 से अधिक देशों ने भाग लिया।

पर्यावरण के मुद्दे अंतरराष्ट्रीय एजेंडा पर क्यों दिखाई देते हैं?

जिस संसार में हम रहते हैं उसमें ख़ुशियाँ मनाने तथा उसकी प्रशंसा करने के कई कारण हैं। इसमें हम पर्यावरण को भी शामिल करते हैं। यद्यपि हम उसी पर्यावरण को, जो हमको संभाले हुए है, अपने कार्यों के द्वारा परिवर्तित में लगे हैं। हम सबके लिये एक अस्वाभाविक वातावरण में रहना बहुत कठिन होगा।

पर्यावरण के प्रमुख मुद्दे क्या है?

बीते वर्षों में पर्यावरण के मुद्दे चिंता का विषय नहीं थे। लोग पर्यावरण क्षरण के गंभीर प्रभावों से अवगत नहीं थे। आज के सबसे महत्वपूर्ण पर्यावरणीय मुद्दे ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन और ग्रीनहाउस प्रभाव हैं। ग्लोबल वार्मिंग से अन्य पर्यावरणीय मुद्दे जैसे तापमान में बदलाव, मिट्टी का कटाव और असामान्य वर्षा होती है।

पर्यावरण में एक अंतरराष्ट्रीय एजेंसी का क्या मतलब है?

UNEP का मुख्य मत है वैश्विक पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए पर्यावरण नीति के विकास का संचालन करना तथा अंतर्राष्ट्रीय समुदाय एवं सरकारों का ध्यान ज्वलंत मुद्दों की तरफ आकर्षित करना जिससे उन पर कार्य हो सके। इसकी गतिविधियाँ बहुत से मुद्दों को समेटती हैं, जिसमें वायुमंडल, समुद्री एवं स्थलीय या पारितंत्र शामिल हैं।

कौन सा अंतरराष्ट्रीय समझौता पर्यावरण से संबंधित है?

मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल को व्यापक रूप से सबसे सफल पर्यावरण संरक्षण समझौता माना जाता है। यह ओजोन-क्षयकारी पदार्थों के चरण-आउट के लिए एक अनिवार्य समय-सारिणी निर्धारित करता है। संयुक्त राष्ट्र के सभी 197 सदस्य देशों द्वारा पर्यावरणीय मुद्दों से संबंधित संयुक्त राष्ट्र संधि मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल है।