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परिवार का समाजशास्त्रीय महत्व (Sociological Importance of Family)परिवार सामाजिक जीवन की प्रारम्भिक तथा महत्वपूर्ण इकाई है। यह एक जैविकीय पिण्ड या हड्डी-माँस के टुकड़े को एक सामाजिक व्यक्ति बनाती है, इसके साथ ही समाज में जीवकोपार्जन के लिए आवश्यक तरीके भी सिखाती है। सर्वप्रथम व्यक्ति परिवार में ही जन्म लेता है उसी में पलता है, कुछ सीखता है तथा समाजीकरण की विधियों से सामाजिक गुणों को ग्रहण करता है और अपने व्यक्तित्व का विकास करके एक जिम्मेदार सामाजिक प्राणी बनता है। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा, आचार-व्यवहार तथा सामाजिक क्रियाकलापों को व्यक्ति परिवार में ही सीख लेता है। अतः जो कुछ भी व्यक्ति प्रारम्भ से सीखता है उसका प्रभाव व्यक्ति में स्थायी और आन्तरिक होता है तथा यह प्रभाव अमिट होता है। परिवार व्यक्ति की मनः सामाजिक इच्छाओं का केन्द्र तथा प्रारम्भिक पाठशाला है, यहाँ इस पाठशाला में सामाजिकता का पाठ पढ़ाया जाता है। परिवार में बच्चा अच्छा बुरा, उचित-अनुचित सही गलत आदि के बारे में सीखता है तथा सामाजिक तौर-तरीकों एवं आदर्शों के समान सामाजिक व्यवहार है। व्यक्ति परिवार में ही समाज द्वारा बनाये गये नियमों, परम्पराओं तथा प्रथाओं आदि के बारे में ज्ञान प्राप्त करता है साथ ही अपने उत्तरदायित्व को निभाने के तरीके भी सीखता है। डब्ल्यू. आई. थामस ने मानव की चार आन्तरिक सामाजिक इच्छाओं का वर्णन किया है जिनकी पूर्ति अनिवार्य रूप से परिवार में होती है। ये चार इच्छाएँ निम्नलिखित हैं- (i) सुरक्षा की इच्छा (Desire for security), (ii) नवीन अनुभव की इच्छा (Desire of new response), (iii) प्रति उत्तर की इच्छा (Desire for response), (iv) मान्यता की इच्छा (Desire for recognition) | मानव की उपरोक्त इच्छाओं की पूर्ति परिवार में होती है तथा यौन इच्छाओं की तृप्ति तथा संतान की लालसा की पूर्ति भी परिवार में ही नैतिक एवं सामाजिक रूप में होती है। परिवार के अंतर्गत व्यक्ति सामाजिक व्यवहारों का भी अनुभव करता है तथा रहन-सहन की कला, प्रेम, कर्त्तव्य, परोपकार, सहानुभूति आदि सामाजिक गुणों को सीखता है जिनके द्वारा व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है। ये गुण ही व्यक्तित्व के विकास के आधार स्तम्भ होते हैं। इसके साथ ही परिवार अपने सदस्यों के व्यवहारों को निर्देशित एवं नियंत्रित भी करता है ताकि व्यक्ति समाज के विपरीत असामाजिक व्यवहार न करने पाये। अतः स्पष्ट है कि परिवार का सामाजिक महत्व अत्यधिक है क्योंकि यह समाज की एक प्राथमिक इकाई है जो मानव व्यक्तित्व के निर्माण तथा उसके सर्वांगीण विकास के लिए ठोस आधार स्तम्भ प्रदान करती है।
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DisclaimerDisclaimer:Sarkariguider does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: You may also likeAbout the authorपरिवार और उसके सामाजिक महत्व क्या है?परिवार सामाजिक व्यवस्था का महत्वपूर्ण आधार स्तंभ है, जिसका व्यक्ति के जीवन में प्राथमिक महत्व है। परिवार सामाजिक संगठन की एक सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक निर्माणक इकाई है। परिवार के द्वारा ही सामाजिक संबंधों का निर्माण होता है जो समाजशास्त्र की विषय वस्तु है।
परिवार की समाजशास्त्रीय परिभाषा क्या है?परिवार की परिभाषा
मरडॉक के अनुसार, ''परिवार एक ऐसा सामाजिक समूह है जिसके लक्षण सामान्य निवास, आर्थिक, सहयोग और जनन है। जिसमें दो लिंगों के बालिग शामिल हैं। जिनमें कम से कम दो व्यक्तियों में स्वीकृति यौन सम्बन्ध होता है और जिन बालिग व्यक्तियों में यौन सम्बन्ध है, उनके अपने या गोद लिए हुए एक या अधिक बच्चे होते हैं।''
परिवार से आप क्या समझते हैं परिवार का महत्व?यह संस्कृति एवं जीवन मूल्यों की प्राथमिक पाठशाला भी है। परिवार से ही हमारे भीतर सद्गुणों का विकास होता है। किसी भी व्यक्ति के विकास में उसके परिवार का बहुत बड़ा योगदान होता है। बच्चे पर प्रथम प्रभाव परिवार के माहौल का ही पड़ता है।
समाजशास्त्रीय का महत्व क्या है?समाजशास्त्र समाज में धार्मिक एकता स्थापित करने में भी सहायक सिद्ध हो सकता है। समाजशास्त्र विभिन्न धर्मों की वास्तविकताओं तथा सामान्य तत्वों के सम्बन्ध में हमें यथार्थ ज्ञान प्राप्त करता है तथा सामाजिक जीवन एवं धर्म के पारस्परिक सम्बन्ध तथा महत्व को भी बनाता है, जिससे धार्मिक एकता बढ़ाने में मदद मिलती है।
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