और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ - aur bhee dukh hain zamaane mein mohabbat ke siva raahaten aur bhee hain vasl kee raahat ke siva faiz ahamad faiz
मैंने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात तेरा ग़म है तो ग़मे-दहर का झगड़ा क्या है तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है?
तू जो मिल जाए तो तक़दीर
निगूँ हो जाए यूँ न था, मैंने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा राहतें और भी हैं, वस्ल की राहत के सिवा
अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म रेशम-ओ-अतलस-ओ-कमख़्वाब में बुनवाए हुए जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म ख़ाक में लिथड़े हुए, ख़ून में नहलाए हुए जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे अब भी दिलकश है तेरा
हुस्न मगर क्या कीजे! और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न माँग
रंग है दिल का मेरे
तुम न आए थे तो हर चीज़ वही थी कि जो है आसमाँ हद्दे-नज़र, राहगुज़र राहगुज़र, शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय और अब शीशा-ए-मय, राहगुज़र, रंगे-फ़लक रंग है दिल का मेरे "ख़ून-ए-जिगर होने तक" चंपई रंग कभी, राहते-दीदार का
रंग सुरमई रंग की है सा'अते-बेज़ार का रंग ज़र्द पत्तों का, खस-ओ-ख़ार का रंग सुर्ख़ फूलों का, दहकते हुए गुलज़ार का रंग ज़हर का रंग, लहू-रंग, शबे-तार का रंग आसमाँ, राहगुज़र, शीशा-ए-मय कोई भीगा हुआ दामन, कोई दुखती हुई रग कोई हर लहज़ा बदलता हुआ आईना है अब जो आए हो तो ठहरो कि कोई रंग, कोई रुत, कोई शै एक जगह पर ठहरे फिर से इक बार हर इक चीज़ वही हो कि जो है आसमाँ हद्दे-नज़र, राहगुज़र राहगुज़र, शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय (मॉस्को, अगस्त 1963)
अब कहाँ रस्म घर लुटाने की
अब कहाँ रस्म घर लुटाने की बरकतें थीं शराबख़ाने की कौन है जिससे गुफ़्तगू कीजे जान देने की दिल लगाने की बात छेड़ी तो उठ गई महफ़िल उनसे जो बात थी बताने की
साज़ उठाया तो थम गया ग़म-ए-दिल रह गई आरज़ू सुनाने की चाँद फिर आज भी नहीं निकला कितनी हसरत थी उनके आने की
अब वही हर्फ़-ए-जुनूँ सबकी ज़ुबाँ ठहरी है
अब वही हर्फ़-ए-जुनूँ सबकी ज़ुबाँ ठहरी है जो भी चल निकली है, वो बात कहाँ ठहरी है आज तक शैख़ के इकराम में जो शै थी हराम अब वही दुश्मने-दीं राहते-जाँ ठहरी है है ख़बर गर्म के फिरता है गुरेज़ाँ नासेह गुफ़्तगू आज सरे-कू-ए-बुताँ ठहरी है है वही आरिज़े-लैला, वही शीरीं का दहन निगाहे-शौक़ घड़ी भर को जहाँ ठहरी है
वस्ल की शब थी तो किस दर्जा सुबुक गुज़री थी हिज्र की शब है तो क्या सख़्त गराँ ठहरी है बिखरी एक बार तो हाथ आई है कब मौजे-शमीम दिल से निकली है तो कब लब पे फ़ुग़ाँ ठहरी है दस्ते-सय्याद भी आजिज़ है कफ़-ए-गुलचीं भी बू-ए-गुल ठहरी न बुलबुल की ज़बाँ ठहरी है आते आते यूँ ही दम भर को रुकी होगी बहार जाते जाते यूँ ही पल भर को ख़िज़ाँ ठहरी है हमने जो तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ की है क़फ़स में ईजाद 'फ़ैज़' गुलशन में वो तर्ज़-ए-बयाँ ठहरी है
( मॉस्को
, अगस्त 1963)
तेरी सूरत जो दिलनशीं की है
तेरी सूरत जो दिलनशीं की है आशना शक्ल हर हसीं की है हुस्न से दिल लगा के हस्ती की हर घड़ी हमने आतशीं की है सुबहे-गुल हो कि शामे-मैख़ाना मदह उस रू-ए-नाज़नीं की है शैख़ से बे-हिरास मिलते हैं हमने तौबा अभी नहीं की है ज़िक्रे-दोज़ख़, बयाने-हूर-ओ-कुसूर बात गोया यहीं कहीं की है अश्क़
तो कुछ भी रंग ला न सके ख़ूँ से तर आज आस्तीं की है कैसे मानें हरम के सहल-पसंद रस्म जो आशिक़ों के दीं की है 'फ़ैज़' औजे-ख़याल से हमने आसमाँ सिंध की ज़मीं की है
खुर्शीदे-महशर की लौ
आज के दिन न पूछो मेरे दोस्तो दूर कितने हैं ख़ुशियाँ मनाने के दिन खुल के हँसने के दिन, गीत गाने के दिन प्यार करने के दिन, दिल लगाने के दिन आज के दिन न पूछो मेरे दोस्तो ज़ख़्म कितने अभी
बख़्ते-बिस्मिल में हैं दश्त कितने अभी राहे-मंज़िल में हैं तीर कितने अभी दस्ते-क़ातिल में हैं आज का दिन जबूँ है मेरे दोस्तो आज का दिन तो यूँ है मेरे दोस्तो जैसे दर्द-ओ-अलम के पुराने निशाँ सब चले सूए-दिल कारवाँ कारवाँ हाथ सीने पे रक्खो तो हर उस्तख़्वाँ से उठे नाला-ए-अलअमाँ अलअमाँ आज के दिन न पूछो मेरे दोस्तो कब तुम्हारे लहू के दरीदा अलम फ़र्क़-ए-ख़ुर्शीदे-महशर पे होंगे रक़म अज़ कराँ ता कराँ कब तुम्हारे क़दम लेके उट्ठेगा वो बहरे-ख़ूँ यम-ब-यम
जिसमें धुल जाएगा आज के दिन का ग़म सारे दर्द-ओ-अलम सारे ज़ोर-ओ-सितम दूर कितनी है ख़ुर्शीदे-महशर की लौ आज के दिन न पूछो मेरे दोस्तो
ढाका से वापसी पर
हम के ठहरे अजनबी इतनी मदारातों के बाद फिर बनेंगे आशना कितनी मुलाक़ातों के बाद कब नज़र में आएगी बे-दाग़ सब्ज़े की बहार ख़ून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद थे बहुत बे-दर्द लम्हे ख़त्मे-दर्दे-इश्क़ के थीं बहुत बे-मेह्र
सुब्हें मेहरबाँ रातों के बाद दिल तो चाहा पर शिकस्ते-दिल ने मोहलत ही न दी कुछ गिले-शिकवे भी कर लेते, मुनाजातों के बाद
उनसे जो कहने गए थे 'फ़ैज़' जाँ सदक़ा किए अनकही ही रह गई वो बात सब बातों के बाद
तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं
तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं हदीसे-यार के उनवाँ
निखरने लगते हैं तो हर हरीम में गेसू सँवरने लगते हैं हर अजनबी हमें महरम दिखाई देता है जो अब भी तेरी गली से गुज़रने लगते हैं सबा से करते हैं ग़ुर्बत-नसीब ज़िक्रे-वतन तो चश्मे-सुबह में आँसू उभरने लगते हैं वो जब भी करते हैं इस नुत्क़ो-लब की बख़ियागरी फ़ज़ा में और भी नग़्में बिखरने लगते हैं दरे-क़फ़स पे अँधेरे की मुहर लगती है तो 'फ़ैज़' दिल में सितारे उतरने लगते हैं
निसार मैं तेरी
गलियों के अए वतन, कि जहाँ
निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन कि जहाँ चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले जो कोई चाहनेवाला तवाफ़ को निकले नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले
है अहले-दिल के लिए अब ये नज़्मे-बस्त-ओ-कुशाद कि संगो-ख़िश्त मुक़य्यद हैं और सग आज़ाद
बहुत हैं ज़ुल्म के दस्त-ए-बहाना-जू के लिए जो चंद अहले-जुनूँ तेरे नामलेवा हैं बने हैं अहले-हवस मुद्दई भी, मुंसिफ़ भी
किसे वकील करें, किससे मुंसिफ़ी चाहें
मगर गुज़ारनेवालों के दिन गुज़रते हैं तेरे फ़िराक़ में यूँ सुबह-ओ-शाम करते हैं
बुझा जो रौज़ने-ज़िंदाँ तो दिल ये समझा है कि तेरी माँग सितारों से भर गई होगी चमक उठे हैं सलासिल तो हमने जाना है कि अब सहर तेरे रुख़ पर बिखर गई होगी
ग़रज़ तसव्वुर-ए-शाम-ओ-सहर में जीते हैं गिरफ़्त-ए-साया-ए-दीवार-ओ-दर में जीते हैं
यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़
न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई यूँ ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूल न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई
इसी सबब से फ़लक का गिला नहीं करते तेरे फ़िराक़ में हम दिल बुरा नहीं करते
गर आज तुझसे जुदा हैं तो कल ब-हम होंगे ये रात भर की जुदाई तो कोई बात नहीं गर आज औज पे है ताला-ए-रक़ीब तो क्या ये चार दिन की ख़ुदाई तो कोई बात नहीं
जो तुझसे अह्द-ए-वफ़ा उस्तवार रखते हैं
इलाजे-गर्दिशे-लैल-ओ-निहार रखते हैं
आज बाज़ार में पा-ब-जौलाँ चलो
चश्मे-नम जाने-शोरीदा काफ़ी नहीं तोहमते-इश्क़ पोशीदा काफ़ी नहीं आज बाज़ार में पा-ब-जौलाँ चलो दस्त-अफ्शाँ चलो, मस्तो-रक़्साँ चलो ख़ाक़-बर-सर चलो, ख़ूँ-ब-दामाँ चलो राह तकता है सब शहरे-जानाँ चलो हाकिमे-शहर भी, मजम'ए-आम भी तीरे-इल्ज़ाम भी, संगे-दुश्नाम भी सुबहे-नाशाद भी, रोज़े-नाकाम
भी इनका दमसाज़ अपने सिवा कौन है शहरे-जानाँ में अब बा-सफ़ा कौन है दस्त-ए-क़ातिल के शायाँ रहा कौन है रख़्ते-दिल बाँध लो दिलफ़िगारो चलो फिर हमीं क़त्ल हो आएँ यारो चलो आज बाज़ार में पा-ब-जौलाँ चलो
रक़ीब से
आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझसे जिसने इस दिल को परीख़ाना बना रक्खा था जिसकी उल्फ़त में भुला रक्खी थी दुनिया हमने दह्र को दह्र का अफ़साना बना रक्खा था आशना हैं तेरे
क़दमों से वो राहें जिन पर उसकी मदहोश जवानी ने इनायत की है कारवाँ गुज़रे हैं जिनसे उसी रा'नाई के जिसकी इन आँखों ने बेसूद इबादत की है तुझसे खेली हैं वो महबूब हवाएँ जिनमें उसके मलबूस की अफ़सुर्दा महक बाक़ी है तुझ पे भी बरसा है उस बाम से महताब का नूर जिसमें बीती हुई रातों की कसक बाक़ी है तूने देखी है वो पेशानी वो रुख़सार वो होंठ ज़िंदगी जिनके तसव्वुर में लुटा दी हमने तुझ पे उट्ठी हैं वो खोई हुई साहिर आँखें तुझको मालूम है क्यों उम्र गँवा दी हमने हम पे
मुश्तरिका हैं एहसान ग़मे-उल्फ़त के इतने एहसान कि गिनवाऊँ तो गिनवा न सकूँ हमने इस इश्क़ में क्या खोया है क्या सीखा है जुज़ तेरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ आजिज़ी सीखी ग़रीबों की हिमायत सीखी यास-ओ-हिरमान के दुख-दर्द के मा'नी सीखे ज़ेरदस्तों के मसाइब को समझना सीखा सर्द आहों के रुख़-ए-ज़र्द के मानी सीखे जब कहीं बैठ के रोते हैं वो बेकस जिनके अश्क आँखों में बिलकते हुए सो जाते हैं नातवानों के निवालों पे झपटते हैं उक़ाब बाज़ू तोले हुए मँडराते हुए आते हैं
जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त शाहराहों पे ग़रीबों का लहू बहता है या कोई तोंद का बढ़ता हुआ सैलाब लिए फ़ाकामस्तों को डुबोने के लिए कहता है आग-सी सीने में रह रह के उबलती है न पूछ अपने दिल पर मुझे क़ाबू ही नहीं रहता है
तेरे ग़म को जाँ की तलाश थी तेरे जाँ-निसार चले गये
तेरे ग़म को जाँ की तलाश थी तेरे जाँ-निसार चले गए तेरी
रह में करते थे सर तलब सरे-रहगुज़ार चले गए तेरी कज़-अदाई से हार के शबे-इंतज़ार चली गई मेरे ज़ब्ते-हाल से रूठ कर मेरे ग़मगुसार चले गए न सवाले-वस्ल न अर्ज़े-ग़म न हिकायतें न शिकायतें तेरे अहद में दिले-ज़ार के सभी इख़्तियार चले गए ये हमीं थे जिनके लिबास पर सर-ए-रू सियाही लिखी गई यही दाग़ थे जो सजा के हम सरे-बज़्मे-यार चले गए न रहा जुनूने-रुख़े-वफ़ा ये रसन ये दार करोगे क्या जिन्हें जुर्मे-इश्क़ पे नाज़ था वो गुनाहगार चले गए
बहार आई
बहार आई तो जैसे एक बार लौट आए हैं फिर अदम से वो ख़्वाब सारे, शबाब सारे जो तेरे होंठों पे मर मिटे थे जो मिट के हर बार फिर जिए थे निखर गए हैं गुलाब सारे जो तेरी यादों से मुश्कबू हैं जो तेरे उश्शाक़ का लहू हैं उबल पड़े हैं अज़ाब सारे मलाले-अहवाले-दोस्ताँ भी ख़ुमारे-आग़ोशे-महवशाँ भी ग़ुबारे-ख़ातिर के बाब सारे तेरे हमारे सवाल सारे, जवाब सारे बहार आई तो खुल गए हैं
नए सिरे से हिसाब सारे
नौहा
मुझको शिकवा है मेरे भाई कि तुम जाते हुए ले गए साथ मेरी उम्रे-गुज़िश्ता की किताब उसमें तो मेरी बहुत क़ीमती तस्वीरें थीं उसमें बचपन था मेरा, और मेरा अहदे-शबाब उसके बदले मुझे तुम दे गए जाते-जाते अपने ग़म का यह् दमकता हुआ ख़ूँ-रंग गुलाब क्या करूँ भाई, ये एज़ाज़ मैं क्यूँ कर पहनूँ मुझसे ले लो मेरी सब चाक क़मीज़ों का हिसाब आख़िरी बार है लो मान लो इक ये भी
सवाल आज तक तुमसे मैं लौटा नहीं मायूसे-जवाब आके ले जाओ तुम अपना ये दहकता हुआ फूल मुझको लौटा दो मेरी उम्रे-गुज़िश्ता की किताब
तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार जब से है
तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार जब से है न शब को दिन से शिकायत न दिन को शब से है किसी का दर्द हो करते हैं तेरे नाम रक़म गिला है जो भी किसी से तेरे सबब से है हुआ है जब से दिल-ए-नासुबूर
बेक़ाबू कलाम तुझसे नज़र को बड़े अदब से है अगर शरर है तो भड़के, जो फूल है तो खिले तरह तरह की तलब तेरे रंगे-लब से है कहाँ गए शबे-फ़ुरक़त के जागनेवाले सितारा-ए-सहरी हमक़लाम कब से है
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे बोल ज़बाँ अब तक तेरी है तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा बोल कि जाँ अब तक तेरी है देख के आहंगर की दुकाँ में तुंद हैं
शोले, सुर्ख़ है आहन खुलने लगे क़ुफ़्फ़लों के दहाने फैला हर एक ज़ंजीर का दामन बोल ये थोड़ा वक़्त बहोत है जिस्म-ओ-ज़बाँ की मौत से पहले बोल कि सच ज़िंदा है अब तक बोल जो कुछ कहना है कह ले
जब तेरी समन्दर आँखों में
ये धूप किनारा, शाम ढले मिलते हैं दोंनो वक़्त जहाँ जो रात न दिन, जो आज न कल पल भर में अमर, पल भर में धुआँ इस धूप किनारे, पल दो
पल होठों की लपक, बाँहों की खनक ये मेल हमारा झूठ न सच क्यों रार करो, क्यों दोष धरो किस कारन झूठी बात करो जब तेरी समंदर आँखों में इस शाम का सूरज डूबेगा सुख सोएँगे घर-दर वाले और राही अपनी रह लेगा
आप की याद आती रही रात भर (मख़दूम* की याद में)
आप की याद आती रही रात भर चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर'' गाह जलती हुई, गाह बुझती हुई
शम्म'ए-ग़म झिलमिलाती रही रात भर कोई ख़ुशबू बदलती रही पैरहन कोई तस्वीर गाती रही रात भर फिर सबा साया-ए-शाख़े-गुल के तले कोई क़िस्सा सुनाती रही रात भर जो न आया उसे कोई ज़ंजीरे-दर हर सदा पर बुलाती रही रात भर एक उम्मीद से दिल बहलता रहा इक तमन्ना सताती रही रात भर
*मख़्दूम मोहिउद्दीन (4 फरवरी1908 - 25 अगस्त 1968) उर्दू के प्रसिद्ध कवि और मार्क्सवादी एक्टिविस्ट थे। उन्होंने हैदराबाद में प्रोग्रेसिव राइटर्स यूनियन की स्थापना की थी। 1946-47 में तत्कालीन
हैदराबाद के निजाम के विरुद्ध तेलंगाना विद्रोह में वे शीर्ष पंक्ति के नेताओं में थे। उनकी मत्यु 1969 में नई दिल्ली में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पदाधिकारियों की बैठक में हृदय आघात से हुई।
चश्मे-मयगूँ ज़रा इधर कर दे
चश्मे-मयगूँ ज़रा इधर कर दे दस्ते-कुदरत को बे-असर कर दे तेज़ है आज दर्द-ए-दिल साक़ी तल्ख़ी-ए-मय को तेज़तर कर दे जोशे-वोशत है तिश्नाकाम अभी चाक-दामन को ताज़िगार कर
दे मेरी क़िस्मत से खेलने वाले मुझको क़िस्मत से बेख़बर कर दे लुट रही है मेरी मता-ए-नियाज़ काश वो इस तरफ़ नज़र कर दे ''फ़ैज़'' तक्मीले-आरज़ू मालूम हो सके तो यूँ ही बसर कर दे
गीत
चलो फिर से मुस्कुराएँ चलो फिर से दिल जलाएँ
जो गुज़र गयी हैं रातें उन्हें फिर जगा के लाएँ जो बिसर गयी हैं बातें उन्हें याद में बुलाएँ
चलो फिर
से दिल लगाएँ चलो फिर से मुस्कुराएँ
किसी शह-नशीं पे झलकी वो धनक किसी क़बा की किसी रग में कसमसाई वो कसक किसी अदा की कोई हर्फ़े-बे-मुरव्वत किसी कुंजे-लब से फूटा वो छनक के शीशा-ए-दिल तहे-बाम फिर से टूटा ये मिलन की, ना-मिलन की ये लगन की और जलन की जो सही हैं वारदातें जो गुज़र गई हैं रातें जो बिसर गई हैं बातें कोई इनकी धुन बनाएँ कोई इनका गीत गाएँ
चलो फिर से मुस्कुराएँ चलो फिर से
दिल लगाएँ
चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़
चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़ और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें अपने अजदाद की मीरास है माज़ूर हैं हम जिस्म पर क़ैद है जज़्बात पे ज़ंजीरें है फ़िक्र महबूस है गुफ़्तार पे ताज़ीरें हैं अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिए जाते हैं ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिसमें हर घड़ी दर्द के पैबंद
लगे जाते हैं लेकिन अब ज़ुल्म की मीयाद के दिन थोड़े हैं इक ज़रा सब्र कि फ़रियाद के दिन थोड़े हैं अर्सा-ए-दहर की झुलसी हुई वीरानी में हमको रहना है पर यूँ ही तो नहीं रहना है अजनबी हाथों के बेनाम गराँबार सितम आज सहना है हमेशा तो नहीं सहना है ये तेरे हुस्न से लिपटी हुई आलाम की गर्द अपनी दो रोज़ा जवानी की शिकस्तों का शुमार चाँदनी रातों का बेकार दहकता हुआ दर्द दिल की बेसूद तड़प जिस्म की मायूस पुकार चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़
ये शहर उदास इतना ज़ियादा तो नहीं था
गो सबको बहम साग़र-ओ-वादा तो नहीं था ये शहर उदास इतना ज़ियादा तो नहीं था गलियों में फिरा करते थे दो-चार दिवाने हर शख़्स का सद चाक लबादा तो नहीं था वाइज़ से रह-ओ-रस्म रही रिंद से सोहबत फ़र्क़ इनमें कोई इतना ज़ियादा तो नहीं था थक कर यूँ ही पल भर के लिए आँख लगी थी सो कर ही न उट्ठें ये इरादा तो नहीं था
गुलों में रंग भरे, बादे-नौबहार चले
गुलों में रंग भरे, बादे-नौबहार चले चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले क़फ़स उदास है यारो, सबा से कुछ तो कहो कहीं तो बहरे-ख़ुदा आज ज़िक्रे-यार चले कभी तो सुब्ह तेरे कुंजे-लब से हो आग़ाज़ कभी तो शब सरे-काकुल से मुश्के-बार चले बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही तुम्हारे नाम पे आएँगे ग़मगुसार चले जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शबे-हिज्राँ हमारे
अश्क तेरी आक़बत सँवार चले हुज़ूरे-यार हुई दफ़्तरे-जुनूँ की तलब गिरह में लेके गरेबाँ का तार तार चले मक़ाम 'फैज़' कोई राह में जचा ही नहीं जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले