ओमप्रकाश वाल्मीकि जूठन की रूपरेखा क्या है? - omaprakaash vaalmeeki joothan kee rooparekha kya hai?

30 जून 2022, शाम 5 बजे, साहित्य चेतना मंच, सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) द्वारा साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि के 72वें जन्मदिवस के अवसर पर ओमप्रकाश वाल्मीकि स्मृति साहित्य सम्मान समारोह- 2022 का आयोजन किया गया। ओमप्रकाश वाल्मीकि हिन्दी दलित साहित्य के पुरोधा और शिखर लेखक हैं। उनका व्यक्तित्व बड़ा ही खुशनुमा था। मैंने नवें दशक की हिन्दी दलित कविता नामक विषय पर जेएनयू से एम. फिल की थी। इस शोध के दौरान कई दफा ओमप्रकाश वाल्मीकि से मिलना हुआ था। मेरा शोध दस कवियों पर केन्द्रित था जिनके बहुत मोटे-मोटे कविता-संग्रह थे जिसमें राम दरश मिश्र, लक्ष्मी नारायण ‘सुधाकर’, सुमनाक्षर, कर्मशील भारती, शशि आदि शामिल थे। ओमप्रकाश वाल्मीकि का कविता-संग्रह ‘सदियों का संताप’ मात्र तीस पृष्ठों का होने के बावजूद मुझे ऐसा नहीं लगा कि उनकी एक भी कविता छोड़ने लायक है। ‘नवें दशक की हिन्दी दलित कविता’ में सबसे ज्यादा काम उसी पर हुआ है और यही उनके कविता की ताकत थी। मैं तो वस्तुगत ढंग से काम कर रही थी क्योंकि पहले मेरा सामना रचनाओं से हुआ था और बाद में रचनाकारों से हुआ था।

हमें ओमप्रकाश वाल्मीकि के साहित्यिक अवदान से सीखना चाहिए और दलित साहित्य को उच्च शिखर तक ले जाना चाहिए। यह जिम्मेदारी आज के युवा साहित्यकारों पर है, उन्हें इमानदारी से तथा तथ्यात्मक परक शोध करना चाहिए और समाज का सही और सच्चा चित्रण करना चाहिए।

जब हम ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता, कहानी या आत्मकथा पर बात करते हैं तो हर बार कुछ नया निकल कर आता है। यह एक साहित्यकार की बहुत बड़ी विशेषता है। वाल्मीकि की कविता ठाकुर का कुआं एक ऐसी कविता है जो कभी पुरानी नहीं होती अर्थात उसकी प्रासंगिकता निरंतर बनी हुई है क्योंकि यह दलित समाज का सच है जिसकी अभिव्यक्ति इस कविता में हुई है। अत: हम कह सकते हैं कि कबीर और रैदास की भांति ओमप्रकाश वाल्मीकि भी प्रासंगिक हैं। यदि कहा जाए कि ओमप्रकाश वाल्मीकि दलित साहित्य के पर्याय बन गए हैं तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। सवाल यह भी है कि आखिर वे दलित साहित्य के पर्याय कैसे बन गए?, उनकी कविताओं की प्रासंगिकता क्यों बनी हुई है?, वे क्यों जरूरी बने हुए हैं और हमें उनसे क्या सीखना है? मैं उनकी रचनाओं पर शोध करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंची हूँ कि वे अपनी रचनाओं की बहुत काँट-छाँट करते थे, उसे भली-भांति छानते थे। उनकी कविताओं में एक भी शब्द अनावश्यक नहीं है। उनका जो कविता-संग्रह है। उसमें सभी कविताएं महत्वपूर्ण हैं। उनकी आत्मकथा जूठन भी बहुत ज्यादा मोटी नहीं है किन्तु उसकी हर एक पंक्ति बहुत महत्वपूर्ण जान पड़ती है। उनकी रचनाएँ हीं दलित साहित्य का आंदोलन बनाती हैं और यही आज हमारे समाज और रचनाकारों की अवश्यकता है। जो पुरुस्कृत रचनाकार हैं उनकी और ज्यादा ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है। जिस लाइन को लेकर वाल्मीकि चल रहे थे और जिस तरह की रचनाएँ वे कर रहे थे, कम से कम आज के रचनाकार उस दिशा में तो आगे बढ़ें क्योंकि दलित साहित्य जो कि आज एक वट वृक्ष बन चुका है और जिसके नीचे आज सब आना चाहते हैं, उसे खड़ा करने में ओमप्रकाश वाल्मीकि का बहुत बड़ा योगदान है। वाल्मीकि के पास एक दृष्टि थी, जिससे वे अपने टारगेट को कभी नहीं भूलते थे। वे सामाजिक संरचना का चित्रण करते हुए स्त्रियों को भी नहीं भूलते हैं और अम्मा जैसी महत्वपूर्ण रचना देते हैं। इस प्रकार वाल्मीकि की कहानियां विपक्षी समाज के साथ भी खड़ी हैं फिर चाहे वह स्त्री हो या पुरुष हो। अत: उनकी दृष्टि समानता और संवेदनशीलता से समृद्ध है जिसका अनुभव हमें उनकी रचनाओं को पढ़ते समय होता है। सलाम कहानी में उन्होंने संतुलन बनाने का प्रयास किया है। इस कहानी में वाल्मीकि समाज में व्याप्त एक प्रथा के अमानवीय पहलुओं को चित्रित किया है। इस कहानी में वाल्मीकि समाज के व्यक्ति का एक ब्राह्मण मित्र होता है। वह अपने मित्र की शादी में गांव में आता है। वह चाय पीने का आदि होता है। इसलिए चाय पीने के लिए दुकान पर जाता है तो दुकान वाला उसे चाय देने से मना कर देता है क्योंकि वह उसे चूड़ा समझता है। वह उसे बताता भी है कि मैं ब्राह्मण हूँ फिर भी वह उसकी बात पर यकीन नहीं करता है। यहां वाल्मीकि ने जातिवाद के भयंकर रूप का साक्षात्कार कराने का प्रयास किया है। जब ऐसी घटनाओं का सामना आए दिन दलित समाज के व्यक्ति को करना पड़ता है तो कैसा लगता है? इस बात का अनुभव हमें इस कहानी में मिलता है। डॉ. अंबेडकर का प्रभाव भी उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर स्पष्ट रूप से नज़र आता है। वाल्मीकि ने इतना काम किया है कि जितना भी उन पर बोला या लिखा जाए वह कम ही है। यह बातें बीते 30 जून, 2022 को हिंदी दलित साहित्य की महत्वपूर्ण कवयित्री, कथाकार प्रो. रजत रानी ‘मीनू’ ने वेबीनार को मुख्य वक्ता के रूप में संबोधित करते हुए कही।

ओमप्रकाश वाल्मीकि जूठन की रूपरेखा क्या है? - omaprakaash vaalmeeki joothan kee rooparekha kya hai?

वेबिनार के दौरान दस दलित साहित्यकारों को ओमप्रकाश वाल्मीकि स्मृति साहित्य सम्मान से सम्मानित किया गया। सम्मान की घोषणा डॉ. अमिता मेहरोलिया ने की।

इस समारोह में उन 10 बुद्धिजीवियों को सम्मानित किया गया है, जो ओमप्रकाश वाल्मीकि के साहित्य एवं दलित साहित्य की जानकारी रखते हैं और उस जानकारी को अपनी रचनाओं द्वारा समाज के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। यह कहना अतिशयोक्ति ना होगा कि ऐसे रचनाकारों के हाथों में कलम एक जलती हुई मशाल के रूप में दिखाई देती हैं। जो समाज को एक नई दशा व दिशा प्रदान करने के साथ वैचारिक समझ-बूझ स्थापित करती है। इस वर्ष साचेम द्वारा ऐसे ही इन 10 रचनाकारों के कार्यों को सलाम करते हुए सम्मानित किया। सम्मानित होने वाले साहित्यकारों में बिहार से विपिन बिहारी, उत्तराखंड से डॉ. राजेश पाल, दिल्ली से डॉ. नीलम, डॉ. मुकेश मिरोठा, गुजरात से डॉ. खन्ना प्रसाद अमीन, राजस्थान से सतीश खनगवाल, तेलंगाना से उषा यादव, पश्चिम बंगाल से प्रदीप कुमार ठाकुर, हरियाणा से रमन कुमार और उत्तर प्रदेश से बच्चा लाल ‘उन्मेष’ शामिल रहे।

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विशिष्ट वक्ता के रूप में बोलते हुए प्रसिद्ध पंजाबी साहित्यकार मदन वीरा ने ओमप्रकाश वाल्मीकि के संस्मरण साझा किए। उन्होंने बताया कि उन्होंने ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा जूठन का पंजाबी में अनुवाद किया और बताया कि मेरा ओमप्रकाश वाल्मीकि से संवाद होता रहता था। उन्होंने वेबिनार को संबोधित करते हुए कहा कि हमें ओमप्रकाश वाल्मीकि के साहित्यिक अवदान से सीखना चाहिए और दलित साहित्य को उच्च शिखर तक ले जाना चाहिए। यह जिम्मेदारी आज के युवा साहित्यकारों पर है, उन्हें इमानदारी से तथा तथ्यात्मक परक शोध करना चाहिए और समाज का सही और सच्चा चित्रण करना चाहिए।

इस अवसर पर सम्मानित साहित्यकारों में सतीश खनगवाल, रमन कुमार, डॉ. नीलम, डॉ. मुकेश मिरोठा, प्रदीप ठाकुर और बच्चा लाल ‘उन्मेष’ ने अपनी बात संक्षेप में रखी। इनके अतिरिक्त प्रसिद्ध चित्रकार डॉ. लाल रत्नाकर, बलराम, समय सिंह जौल, डॉ. राजकुमारी आदि ने अपनी बात रखी और ओमप्रकाश वाल्मीकि को याद करके श्रद्धांजलि दी। कार्यक्रम की अध्यक्षता कवि धर्मपाल सिंह ‘चंचल’ ने की। साहित्य चेतना मंच के अध्यक्ष डॉ. नरेंद्र वाल्मीकि ने इस कार्यक्रम में शामिल हुए सभी व्यक्तियों का हृदयातल की गहराइयों से धन्यवाद किया। संस्था के महासचिव श्याम निर्मोही ने इस कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार की और डॉ. दीपक मेवाती ने कुशलतापूर्वक मंच का संचालन किया।

जूठन आत्मकथा का उद्देश्य क्या है?

अपनी आत्मकथा 'जूठन' में ओमप्रकाश वाल्मीकि ने एक दलित परिवार की शिक्षा के बारे में वर्णन किया है, जो समाज में शिक्षा और स्थिति के लिए संघर्ष कर रहा है । इस प्रकार यह दलित परिवार की पहचान कराने वाली कहानी है। 'जूठन' एक दलित जीवन की आत्मकथा के रूप में वास्तविक जीवन की कहानी के गुणों को दर्शाती है।

जूठन किसका रचना है?

जूठन (आत्मकथा)- ओम प्रकाश वाल्मीकि इस पुस्तक ने दलित, गैर-दलित पाठकों, आलोचकों के बीच जो लोकप्रियता अर्जित की है, वह उल्लेखनीय है.

ओमप्रकाश वाल्मीकि ने क्या लिखा है?

ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अस्सी के दशक से लिखना शुरू किया, लेकिन साहित्य के क्षेत्र में वे चर्चित और स्थापित हुए 1997 में प्रकाशित अपनी आत्मकथा 'जूठन' से। इस आत्मकथा से पता चलता है कि किस तरह वीभत्स उत्पीड़न के बीच एक दलित रचनाकार की चेतना का निर्माण और विकास होता है।

जूठन शीर्षक पाठ साहित्य की कौन सी विद्या है?

'जूठन' शीर्षक आत्मकथा के माध्यम से लेखक ने अपने बचपन की संस्मरण एवं परिवार की गरीबी का वर्णन करते हुए इस बात को सिद्ध करने का प्रयास किया है कि जब समाज की चेतना मर जाती है, अमीरी और गरीबी का अंतर इतना बड़ा हो जाता है कि गरीब को जूठन भी नसीब नहीं हो, धन-लोलुपता घर कर जाती है, मनुष्य मात्र का कोई महत्त्व नहीं रह जाता है।