पिछले कुछ वर्षों से भारत में फेफड़े या श्वसन रोगों का प्रकोप बढ़ गया है। अब जो दिन आने वाले हैं, कम तापमान और आर्द्रता के उनमें यह समस्या बढ़ जाती है। फेफड़े अथवा श्वसन संबंधी बीमारियां किसी रोगी को सघन चिकित्सा इकाई (आईसीयू) में भरती करने की आम वजह हो गई है। कभी-कभी तो फेफड़ें इतनी बुरी तरह से प्रभावित होते हैं कि वे अपनी पूरी क्षमता से, कारगर तरीके से काम ही नहीं कर पाते। नतीजा यह होता है कि खून में ऑक्सीजन की मात्रा खतरनाक हद तक नीचे चली जाती है या कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर बहुत ऊंचा चला जाता है। माक्स के जरिये ऑक्सीजन की पूर्ति करने के बाद भी रोगी को आप सांस देने में संघर्ष करते पा सकते हैं। जब हालत ऐसी हो जाए तो दुनिया की ज्यादातर सघन चिकित्सा इकाइयों में रोगी को श्वसन की कृत्रिम मशीनों या वेंटीलेटर से जोड़ दिया जाता है। इसमें रोगी के ट्रेकिया यानी विंडपाइप में ट्यूब डाल दी जाती है अौर फिर पॉजिटिव प्रेशर वेंटीलेशन शुरू हो जाता है। Show हालांकि, यदि फेफड़ों का गंभीर नुकसान हो गया हो तो कभी-कभी वेंटीलेटर्स से जुड़ने के बाद भी रोगी की हालत में सुधार नहीं आता। यह सही है कि वेंटीलेशन से जोड़ना बहुत स्थापित उपचार पद्धति है, लेकिन लंबी अवधि के वेंटीलेशन से भी समस्याएं पैदा हो सकती हैं। खासतौर पर उन स्थितियों में जहां श्वसन के लिए बहुत लंबे समय तक बाहरी सपोर्ट की जरूरत होती है। रोगी को बिस्तर पर ही बने रहना पड़ता है। वह चल नहीं सकता, बोल नहीं सकता अौर अस्पताल की परिस्थितियों के कारण फेफड़े में संक्रमण का जोखिम बहुत अधिक होता है। अब ऐसी स्थिति के लिए एक नई टेक्नोलॉजी उपलब्ध है, जिसे ईसीएमओ या एक्स्ट्रा कॉर्पोरियल मैंम्ब्रेन ऑक्सीजनेशन कहते हैं। इसमें दो मुंह वाली एक नली को गर्दन में पाई जाने वाली जुगुलर वेन के जरिये सीधे एट्रियम यानी दिल के ऊपरी दो चैम्बर में से एक चैम्बर में डाली जाती है। इसे एक कृत्रिम फेफड़े या ऑक्सीजनेटर से जोड़ दिया जाता है। यह फेफड़े की तरह काम करना है और रक्त को दाएं एट्रियम में पहुंचाता है। इस तरह यदि रोगी के फेफड़े काम न भी कर रहे हों, ऑक्सीजन-कार्बन डाइऑक्साइड का आदान-प्रदान प्रभावित नहीं होता। रोगी को इसके जरिये कई महीनों तक सपोर्ट दिया जा सकता है। इससे रोगी के फेफड़ों को ठीक होने का समय मिल जाता है। वे घूम-फिर सकते हैं, सामान्य रूप से भोजन कर सकते हैं, बोल सकते हैं और व्यायाम तक कर सकते हैं। यदि उन्हें वेंटीलेटर से न जोड़ा गया हो तो अस्पताल में होने वाले संक्रमण का जोखिम कम हो जाता है। यदि फेफड़ों को ऐसा नुकसान पहुंचा हो, जिसे ठीक नहीं किया जा सकता तो प्रत्यारोपण भी किया जा सकता है। यह स्वाइन फ्लू या एच1 एन1 इन्फ्लूएंजा में वरदान साबित हो सकता है। यह टेक्नोलॉजी भारत में उपलब्ध है और इसकी लागत 2 से 3 लाख रुपए के बीच आती है, जो खतरे को देखते हुए बहुत अधिक नहीं है। आप शायद तकनीकी शब्दावली से ऊब गए होंगे, लेकिन मैंने यह ताज़ा उदाहरण इसलिए दिया कि हमारे देश में स्वाइन फ्लू का खतरा हर साल मंडराता है और आगे आने वाले दिन इसकी दृष्टि से सतर्कता के हैं। फिर उम्मीद और प्रेरणा की जो मैं बात कर रहा था, वह भी इस नए इनोवेशन से सिद्ध होती है। एक दूसरी अच्छी बात अंग दान के क्षेत्र में हुई है। बीस साल पहले इसे लेकर जागरूकता बहुत कम थी। अपने अस्पतालों से ही हमें अंग मिल सकते थे, जो यदा-कदा ही संभव होता था। साल में ज्यादा से ज्यादा 4-5 अंग दान होते थे और अंगों को साझा करने की तो कोई अवधारणा ही नहीं थी। अंग मिलने तक रोगी को जीवित रखने के लिए अच्छे कृत्रिम पम्प नहीं होते थे। जाहिर है उपचार में आज जैसे परिणाम नहीं मिलते थे। वाकई हमने काफी लंबा रास्ता तय किया है। जहां तक अंग प्रत्यारोपण की बात है तो किडनी की तुलना में दिल बिना खून की आपूर्ति के सिर्फ चार घंटे जीवित रह सकता है। इसमें अंग को एक से दूसरे स्थान ले जाने और रोगी में प्रत्यारोपित करने में लगने वाला समय भी शामिल है। यदि दिल एक शहर में और प्रत्यारोपण दूसरे शहर में हो तो जोखिम बहुत बढ़ जाता है। इसमें अच्छी बात यह हुई है कि हमने एयर एम्बुलेंस का प्रयोग कर सफलता पाई है। चेन्नई से हैदराबाद, बेंगलुरू, विशाखापटनम आदि शहरों में अंग ले जाए गए हैं। भारत में ऐसी टेक्नोलॉजी उपलब्ध है कि मानव अंगों को 6 से 7 घंटे तक सुरक्षित रखा जा सकता है। अगले कुछ वर्षों में बहुत ज्यादा नहीं तो 24 घंटे सुरक्षित रखना आम हो जाएगा। अब दिल के प्रत्यारोपण के बाद एक-तिहाई रोगी 30 साल से ज्यादा समय तक जीवित रहते हैं। हालांकि, यह रहस्य ही है कि क्यों एक-तिहाई तो इतने लंबे समय जीवित रहते हैं, जबकि अन्यों को इतना फायदा नहीं होता। निश्चित ही इसका संबंध दान देने वाले व्यक्ति और अंग स्वीकार करने वाले रोगी की रोगप्रतिरोधक क्षमता से होगा। यदि किसी के पास इससे जुड़े टेस्ट कराने का समय हो नतीजे में नाटकीय सुधार अा सकता है। जहां तक टेक्नोलॉजी की बात है तो इतनी क्षमता निर्मित हो गई है कि करीब तीन साल की रूसी बच्ची को ब्रेन डेड बच्चे का हार्ट लगाया गया था। वह भारत में सबसे कम उम्र में हार्ट ट्रांसप्लाट का मामला था। ऑपरेशन में आठ घंटे का वक्त लगा था। सर्जरी तकनीकी रूप से कठिन थी, क्योंकि बच्ची का वजन कम था और वह बहुत कम उम्र थी। उसे एनेस्थेशिया देना भी जोखिम भरा था, क्योंकि वह इतनी कमजोर थी कि इसे भी झेलना उसके कठिन था। डॉ. केआर बालकृष्णन डायरेक्टर कार्डिएक साइंसेस, फोर्टिस मलार हॉस्पिटल, चेन्नई, एलपीएडी इंम्प्लांट्स करने वाले देश के एकमात्र सर्जन कोरोना वायरस इंसान के फेफड़ों को खराब कर उन्हें मौत की दहलीज तक ले जाता है. दुनियाभर में कोरोना वायरस से मरने वालों की रिपोर्ट बताती है कि ये वायरस उनके फेफड़ों को कितनी तेजी से खराब करता है. उन्हें सांस लेने में भी तकलीफ इसी वजह से होती है. ये परेशानी बुजुर्गों के साथ इसलिए ज्यादा है क्योंकि उनके फेफड़े काफी कमजोर होते हैं. ऐसे में आपको अपनी डाइट में कुछ ऐसी चीजें जरूर शामिल करनी चाहिए, जो फेफड़ों को मजबूत बनाने का काम करती हैं.फेफड़ों में कौन कौन सी बीमारी होती है?फेफड़ों में कौन सी बीमारी होती है? इससे संबंधित प्रमुख रोग में टीबी, अस्थमा, सीओपीडी, निमोनिया, तथा फेफड़ों का कैंसर आदि शामिल है। जो वायु प्रदूषण धूम्रपान और जलवायु परिवर्तन जैसे कारकों का परिणाम होती है। ऐसे में वक्त पर यह पता लगना की आपके फेफड़े स्वस्थ है या नहीं बहुत जरूरी है।
फेफड़े कमजोर होने के क्या लक्षण है?Health Tips in Hindi: फेफड़े हमारे शरीर का महत्वपूर्ण अंग है. जिसकी बदौलत हम सांस ले पा रहे हैं. फेफड़ों में कमी होने पर व्यक्ति को सांस लेने में तकलीफ या फिर सांस फूलने की समस्या होने लगती है. हालांकि इन दिनों कोरोना महामारी और बढ़ते प्रदूषण की वजह से लोगों के फेफड़े खराब हो रहे हैं.
फेफड़ों की कौन कौन सी जांच होती है?यदि एक्स-रे या सीटी स्कैन के द्वारा, छाती, लिम्फनोड या फेफड़ों में कोई तकलीफ पाई गई हो, तो उन जगहों से जांच के लिए बलगम या टिश्यूज के सैंपल निकालने के लिए भी ब्रॉन्कोस्कोपी का प्रयोग किया जाता है। ब्रॉन्कोस्कोपी जांच पल्मोनोलॉजिस्ट (सांस रोग विशेषज्ञ) और उनके एक सहायक के द्वारा की जाती है।
फेफड़ों के रोग का कारण क्या है?सिगरेट का धूम्रपान फेफड़ों के कैंसर का पहला कारण है। फेफड़े का कैंसर अन्य प्रकार के तम्बाकू (जैसे पाइप या सिगार) का उपयोग करना, धुएं के संपर्क में आना, घर या काम पर एस्बेस्टस या रेडॉन जैसे पदार्थों के संपर्क में आना और फेफड़ों के कैंसर का पारिवारिक इतिहास होने के कारण भी हो सकता है।
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