आज भारत में अनेक संकट छाए हुए हैं – भ्रष्टाचार, आतंकवाद, कट्टरवाद, धर्मांतरण, नैतिक अध:पतन, अशिक्षा, चरमराई हुई स्वास्थ्य व्यवस्था, सफ़ाई की समस्या वगैरह- वगैरह। परन्तु इन सभी से ज्यादा भयावह है – जन्मना जातिवाद और लिंग भेद। Show क्योंकि यह दो मूलभूत समस्याएँ ही बाकी समस्याओं को पनपने में मदद करती हैं। यह दो प्रश्न ही हमारे भूत और वर्तमान की समस्त आपदाओं का मुख्य कारण हैं। इन को मूल से नष्ट नहीं किया तो हमारा उज्ज्वल भविष्य सिर्फ़ एक सपना बनकर रह जाएगा क्योंकि एक समृद्ध और समर्थ समाज का अस्तित्व जाति-प्रथा और लिंग भेद के साथ नहीं हो सकता। यह भी गौर किया जाना चाहिए कि जाति भेद और लिंग भेद केवल हिन्दू समाज की ही समस्याएँ नहीं हैं किन्तु यह दोनों सांस्कृतिक समस्याएँ हैं। लिंग भेद सदियों से वैश्विक समस्या रही है और जाति भेद दक्षिण एशिया में पनपी हुई, सभी धर्मों और समाजों को छूती हुई समस्या है। चूँकि हिन्दुत्व सबसे प्राचीन संस्कृति और सभी धर्मों का आदिस्रोत है, इसी पर व्यवस्था को भ्रष्ट करने का आक्षेप मढ़ा जाता है। यदि इन दो कुप्रथाओं को हम ढोते रहते हैं तो समाज इतना दुर्बल हो जाएगा कि विभिन्न सम्प्रदायों और फिरकों में बिखरता रहेगा जिससे देश कमजोर होगा और टूटेगा। अपनी कमजोरी और विकृतियों के बारे में हमने इतिहास से कोई शिक्षा नहीं ली है। यह आश्चर्य की बात है कि आज की तारीख़ में भी कुछ शिक्षित और बुद्धिवादी कहे जाने वाले लोग इन दो कुप्रथाओं का समर्थन करते हैं। जन्म से ही ऊँचेपन का भाव इतना हावी है कि वह किसी समझदार को भी पागल बना दे। इस वैचारिक संक्रमण से ग्रस्त कुछ लोग आज हिन्दुत्व के विद्वानों और नेतागणों में भी गिने जा रहे हैं! अनजान बनकर यह लोग इन कुप्रथाओं का समर्थन करने के लिए प्राचीन शास्त्रों का हवाला देते हैं जिस में समाज व्यवस्था देने वाली प्राचीनतम मनुस्मृति को सबसे अधिक केंद्र बनाया जाता है। मनुस्मृति और दलित आन्दोलन मनुस्मृति जो सृष्टि में नीति और धर्म (कानून) का निर्धारण करने वाला सबसे पहला ग्रंथ माना गया है उस को घोर जाति-प्रथा को बढ़ावा देने वाला भी बताया जा रहा है। आज स्थिति यह है कि मनुस्मृति वैदिक संस्कृति की सबसे अधिक विवादित पुस्तकों में है। पूरा का पूरा दलित आन्दोलन ‘मनुवाद’ के विरोध पर ही खड़ा हुआ है। मनु जाति-प्रथा के समर्थकों के नायक हैं तो दलित नेताओं ने उन्हें खलनायक के सांचे में ढाल रखा है। पिछड़े तबकों के प्रति प्यार का दिखावा कर स्वार्थ की रोटियां सेकने के लिए ही अग्निवेश और मायावती जैसे बहुत से लोगों द्वारा मनुस्मृति जलाई जाती रही है। अपनी विकृत भावनाओं को पूरा करने के लिए नीची जातियों पर अत्याचार करने वाले, एक सींग वाले विद्वान राक्षस के रूप में भी मनु को चित्रित किया गया है। हिन्दुत्व और वेदों को गालियां देने वाले कथित सुधारवादियों के लिए तो मनुस्मृति एक पसंदीदा साधन बन गया है। विधर्मी वायरस पीढ़ियों से हिन्दुओं के धर्मांतरण में इससे फ़ायदा उठाते आए हैं जो आज भी जारी है। ध्यान देने वाली बात यह है कि मनु की निंदा करने वाले इन लोगों ने मनुस्मृति को कभी गंभीरता से पढ़ा भी है कि नहीं। दूसरी ओर जातीय घमंड में चूर और उच्चता में अकड़े हुए लोगों के लिए मनुस्मृति एक ऐसा धार्मिक ग्रंथ है जो उन्हें एक विशिष्ट वर्ग में नहीं जन्में लोगों के प्रति सही व्यवहार नहीं करने का अधिकार और अनुमति देता है। ऐसे लोग मनुस्मृति से कुछ एक गलत और भ्रष्ट श्लोकों का हवाला देकर जाति-प्रथा को उचित बताते हैं पर स्वयं की अनुकूलता और स्वार्थ के लिए यह भूलते हैं कि वह जो कह रहे हैं उसे के बिलकुल विपरीत अनेक श्लोक हैं। इन दोनों शक्तियों के बीच संघर्ष ने आज भारत में निचले स्तर की राजनीति को जन्म दिया है। भारतवर्ष पर लगातार पिछले हजार वर्षों से होते आ रहे आक्रमणों के लिए भी यही जिम्मेदार है। सदियों तक नरपिशाच, गोहत्यारे और पापियों से यह पावन धरती शासित रही। यह अतार्किक जाति-प्रथा ही १९४७ में हमारे देश के बंटवारे का प्रमुख कारण रही है। कभी विश्वगुरु और चक्रवर्ती सम्राटों का यह देश था। आज भी हम में असीम क्षमता और बुद्धि धन है, फ़िर भी हम समृद्धि और सामर्थ्य की ओर अपने देश को नहीं ले जा पाए और निर्बल और निराधार खड़े हैं – इस का प्रमुख कारण यह मलिन जाति-प्रथा है। इसलिए मनुस्मृति की सही परिपेक्ष्य में जाँच- परख़ अत्यंत आवश्यक हो जाती है। मनुस्मृति पर लगाये जाने वाले तीन मुख्य आक्षेप १. मनु ने जन्म के आधार पर जातिप्रथा का निर्माण किया। आइये, अब मनुस्मृति के साक्ष्यों पर ही हम इन आक्षेपों की समीक्षा करें। इस अध्याय में हम पहले आरोप – मनु द्वारा जन्म आधारित जाति-प्रथा के निर्माण पर विचार करेंगे। मनुस्मृति और जाति व्यवस्था मनुस्मृति उस काल की है जब जन्मना जाति-व्यवस्था के विचार का भी कोई अस्तित्व नहीं था। अत: मनुस्मृति जन्मना समाज व्यवस्था का कहीं भी समर्थन नहीं करती। महर्षि मनु ने मनुष्य के गुण-कर्म–स्वभाव पर आधारित समाज व्यवस्था की रचना कर के वेदों में परमात्मा द्वारा दिए गए आदेश का ही पालन किया है (देखें – ऋग्वेद-१०।१०।११-१२, यजुर्वेद-३१।१०-११, अथर्ववेद-१९।६।५-६) यह वर्ण व्यवस्था है। वर्ण शब्द “वृञ” धातु से बनता है जिसका मतलब है चयन या चुनना और सामान्यत: प्रयुक्त शब्द वरण भी यही अर्थ रखता है। जैसे वर अर्थात् कन्या द्वारा चुना गया पति, जिससे पता चलता है कि वैदिक व्यवस्था कन्या को अपना पति चुनने का पूर्ण अधिकार देती है। मनुस्मृति में वर्ण व्यवस्था को ही बताया गया है और जाति-व्यवस्था को नहीं इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि मनुस्मृति के प्रथम अध्याय में कहीं भी जाति या गोत्र शब्द ही नहीं है बल्कि वहां चार वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन है। यदि जाति या गोत्र का इतना ही महत्व होता तो मनु इसका उल्लेख अवश्य करते कि कौन सी जाति ब्राह्मणों से संबंधित है, कौन सी क्षत्रियों से, कौन सी वैश्यों और कौन सी शूद्रों से। इस का मतलब हुआ कि स्वयं को जन्म से ब्राह्मण या उच्च जाति का मानने वालों के पास इसका कोई प्रमाण नहीं है। ज्यादा से ज्यादा वे इतना बता सकते हैं कि कुछ पीढ़ियों पहले से उनके पूर्वज स्वयं को ऊँची जाति का कहलाते आए हैं। ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि सभ्यता के आरंभ से ही यह लोग ऊँची जाति के थे। जब वह यह साबित नहीं कर सकते तो उनको यह कहने का क्या अधिकार है कि आज जिन्हें जन्मना शूद्र माना जाता है, वह कुछ पीढ़ियों पहले ब्राह्मण नहीं थे? और स्वयं जो अपने को ऊँची जाति का कहते हैं वे कुछ पीढ़ियों पहले शूद्र नहीं थे! मनुस्मृति ३।१०९ मनुस्मृति २।१३६ वर्णों में परिवर्तन मनुस्मृति १०।६५ मनुस्मृति ९।३३५ मनुस्मृति के अनेक श्लोक कहते हैं कि उच्च वर्ण का व्यक्ति भी यदि श्रेष्ठ कर्म नहीं करता, तो वह – शूद्र (अशिक्षित) बन जाता है। उदाहरण- मनुस्मृति २।१०३ मनुस्मृति २।१७२ मनुस्मृति ४।२४५ मनुस्मृति २।१६८ मनुस्मृति २।१२६ मनुस्मृति २।२३८ मनुस्मृति २।२४१ ब्राह्मणत्व का आधार कर्म मनु की वर्ण व्यवस्था जन्म से ही कोई वर्ण नहीं मानती। मनुस्मृति के अनुसार माता-पिता को बच्चों के बाल्यकाल में ही उनकी रूचि और प्रवृत्ति को पहचान कर ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वर्ण का ज्ञान और प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए भेज देना चाहिए। कई ब्राह्मण माता- पिता अपने बच्चों को ब्राह्मण ही बनाना चाहते हैं परंतु इस के लिए व्यक्ति में ब्राह्मणोचित गुण, कर्म, स्वभाव का होना अति आवश्यक है। ब्राह्मण वर्ण में जन्म लेने मात्र से या ब्राह्मणत्व का प्रशिक्षण किसी गुरुकुल में प्राप्त कर लेने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता, जब तक कि उसकी योग्यता, ज्ञान और कर्म ब्राह्मणोचित न हों। मनुस्मृति २।२८ शिक्षा ही वास्तविक जन्म मनु के अनुसार मनुष्य का वास्तविक जन्म विद्या प्राप्ति के उपरांत ही होता है। जन्मतः प्रत्येक मनुष्य शूद्र या अशिक्षित है। ज्ञान और संस्कारों से स्वयं को परिष्कृत कर योग्यता हासिल कर लेने पर ही उसका दूसरा जन्म होता है और वह द्विज कहलाता है। शिक्षा प्राप्ति में असमर्थ रहने वाले शूद्र ही रह जाते हैं। यह पूर्णत: गुणवत्ता पर आधारित व्यवस्था है, इसका शारीरिक जन्म या अनुवांशिकता से कोई लेना-देना नहीं है। मनुस्मृति २।१४८ मनुस्मृति २।१४६ मनुस्मृति २।१४७ अत: अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए कुल का नाम आगे धरना मनु के अनुसार अत्यंत मूर्खतापूर्ण कृत्य है। अपने कुल का नाम आगे रखने की बजाए व्यक्ति यह दिखा दे कि वह कितना शिक्षित है तो बेहतर होगा। मनुस्मृति १०।४ ‘नीच’ कुल में जन्में व्यक्ति का तिरस्कार नहीं किसी व्यक्ति का जन्म यदि ऐसे कुल में हुआ हो, जो समाज में आर्थिक या अन्य दृष्टी से पनप न पाया हो तो उस व्यक्ति को केवल कुल के कारण पिछड़ना न पड़े और वह अपनी प्रगति से वंचित न रह जाए, इसके लिए भी महर्षि मनु ने नियम निर्धारित किए हैं। मनुस्मृति ४।१४१ प्राचीन इतिहास में वर्ण परिवर्तन के उदाहरण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण की सैद्धांतिक अवधारणा गुणों के आधार पर है, जन्म के आधार पर नहीं। यह बात सिर्फ़ कहने के लिए ही नहीं है, प्राचीन समय में इस का व्यवहार में चलन था। जब से इस गुणों पर आधारित वैज्ञानिक व्यवस्था को हमारे दिग्भ्रमित पुरखों ने मूर्खतापूर्ण जन्मना व्यवस्था में बदला है, तब से ही हम पर आफत आ पड़ी है जिस का सामना हम आज भी कर रहें हैं। वर्ण परिवर्तन के कुछ उदाहरण – • ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे। परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की। ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है। आज भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और दलितों में समान गोत्र मिलते हैं। इस से पता चलता है कि यह सब एक ही पूर्वज, एक ही कुल की संतान हैं। लेकिन कालांतर में वर्ण व्यवस्था गड़बड़ा गई और यह लोग अनेक जातियों में बंट गए। शूद्रों के प्रति आदर मनु परम मानवीय थे। वे जानते थे कि सभी शूद्र जानबूझ कर शिक्षा की उपेक्षा नहीं कर सकते। जो किसी भी कारण से जीवन के प्रथम पर्व में ज्ञान और शिक्षा से वंचित रह गया हो, उसे जीवन भर इसकी सज़ा न भुगतनी पड़े इसलिए वे समाज में शूद्रों के लिए उचित सम्मान का विधान करते हैं। उन्होंने शूद्रों के प्रति कभी अपमान सूचक शब्दों का प्रयोग नहीं किया, बल्कि मनुस्मृति में कई स्थानों पर शूद्रों के लिए अत्यंत सम्मानजनक शब्द आए हैं। मनु की दृष्टी में ज्ञान और शिक्षा के अभाव में शूद्र समाज का सबसे अबोध घटक है, जो परिस्थितिवश भटक सकता है। अत: वे समाज को उसके प्रति अधिक सहृदयता और सहानुभूति रखने को कहते हैं। कुछ और उदात्त उदाहरण देखें – मनुस्मृति ३।११२ मनुस्मृति ३।११६ मनुस्मृति २।१३७ वेदों को छोड़कर अन्य कोई ग्रंथ मिलावटों से बचा नहीं है। वेद ईश्वरीय ज्ञान है और सभी विद्याएँ उसी से निकली हैं। उन्हीं को आधार मानकर ऋषियों ने अन्य ग्रंथ बनाए। वेदों का स्थान और प्रमाणिकता सबसे ऊपर है और उनके रक्षण से ही आगे भी जगत में नए सृजन संभव हैं। अत: अन्य सभी ग्रंथ स्मृति, ब्राह्मण, महाभारत, रामायण, गीता, उपनिषद, आयुर्वेद, नीतिशास्त्र, दर्शन इत्यादि को परखने की कसौटी वेद ही हैं और जहां तक ये ग्रन्थ वेदानुकूल हैं वहीं तक मान्य हैं। मनु भी वेदों को ही धर्म का मूल मानते हैं (मनुस्मृति २।८-२।११)। मनुस्मृति २।८ शूद्रों को भी वेद पढने और वैदिक संस्कार करने का अधिकार वेद में ईश्वर कहता है कि मेरा ज्ञान सबके लिए समान है चाहे पुरुष हो या नारी, ब्राह्मण हो या शूद्र सबको वेद पढने और यज्ञ करने का अधिकार है। देखें – यजुर्वेद २६।१, ऋग्वेद १०।५३।४, निरुक्त ३।८ इत्यादि। मनुस्मृति भी यही कहती है। मनु ने शूद्रों को उपनयन (विद्या आरंभ) से वंचित नहीं रखा है। इसके विपरीत उपनयन से इंकार करने वाला ही शूद्र कहलाता है। वेदों के ही अनुसार मनु शासकों के लिए विधान करते हैं कि वे शूद्रों का वेतन और भत्ता किसी भी परिस्थिति में न काटें ( ७।१२-१२६, ८।२१६)। संक्षेप में प्रत्येक मनुष्य में चारों वर्ण हैं – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। मनु ने ऐसा प्रयत्न किया है कि प्रत्येक मनुष्य में विद्यमान जो सबसे सशक्त वर्ण है – जैसे किसी में ब्राह्मणत्व ज्यादा है, किसी में क्षत्रियत्व इत्यादि का विकास हो और यह विकास पूरे समाज के विकास में सहायक हो। अगले अध्याय में हम मनु पर थोपे गए अन्य आरोप जैसे शूद्रों के लिए कठोर दंड विधान की सच्चाई को जानेंगे। लेकिन मनु पाखंडी और आचरणहीनों के लिए क्या कहते हैं, यह भी देख लेते हैं – मनुस्मृति ४।३०: पाखंडी, गलत आचरण वाले, छली–कपटी, धूर्त, दुराग्रही, झूठ बोलने वाले लोगों का सत्कार वाणी मात्र से भी न करना चाहिए। जन्मना जाति व्यवस्था को मान्य करने की प्रथा एक सभ्य समाज के लिए कलंक है और अत्यंत छल-कपट वाली, विकृत और झूठी व्यवस्था है। वेद और मनु को मानने वालों को इस घिनौनी प्रथा का सशक्त प्रतिकार करना चाहिए। शब्दों में भी उसके प्रति अच्छा भाव रखना मनु के अनुसार घृणित कृत्य है। मनुस्मृति के जातिवाद और लिंग-भेद को समर्थन करने वाले श्लोक प्रश्न: मनुस्मृति से ऐसे सैंकड़ों श्लोक दिए जा सकते हैं, जिन्हें जन्मना जातिवाद और लिंग-भेद के समर्थन में पेश किया जाता है। क्या आप बतायेंगे कि इन सब को कैसे प्रक्षिप्त माना जाए ? अग्निवीर: यही तो सोचने वाली बात है कि मनुस्मृति में जन्मना जातिवाद के विरोधी और समर्थक दोनों तरह के श्लोक कैसे हैं? इस का मतलब मनुस्मृति का गहराई से अध्ययन और परीक्षण किए जाने की आवश्यकता है। आइये संक्षेप में देखें – १. आज मिलने वाली मनुस्मृति में बड़ी मात्रा में मनमाने प्रक्षेप पाए जाते हैं, जो बहुत बाद के काल में मिलाए गए। वर्तमान मनुस्मृति लगभग साठ प्रतिशत नकली है। २. सिर्फ़ मनुस्मृति ही प्रक्षिप्त नहीं है। वेदों को छोड़ कर जो अपनी अद्भुत स्वर और पाठ रक्षण पद्धतियों के कारण आज भी अपने मूल स्वरुप में है, लगभग अन्य सभी सम्प्रदायों के ग्रंथों में स्वाभाविकता से परिवर्तन, मिलावट या हटावट की जा सकती है। जिनमें रामायण, महाभारत, बाइबिल, कुरान इत्यादि भी शामिल हैं। भविष्य पुराण में तो मिलावट का सिलसिला छपाई के आने तक चलता रहा। ३. आज रामायण के तीन संस्करण मिलते हैं – १. दाक्षिणात्य २.पश्चिमोत्तरीय ३.गौडीय और यह तीनों ही भिन्न हैं। गीता प्रेस, गोरखपुर ने भी रामायण के कई सर्ग प्रक्षिप्त नाम से चिन्हित किए हैं। कई विद्वान बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड के अधिकांश भाग को प्रक्षिप्त मानते हैं। महाभारत भी अत्यधिक प्रक्षिप्त हो चुका ग्रंथ है। गरुड़ पुराण (ब्रह्मकांड १।५४) में कहा गया है कि कलियुग के इस समय में धूर्त स्वयं को ब्राह्मण बताकर महाभारत में से कुछ श्लोकों को निकाल रहे हैं और नए श्लोक बना कर डाल रहे हैं। कुरान भी मुहम्मद के उपदेशों की परिवर्तित आवृत्ति ही है, ऐसा कहा जाता है। इसलिए इस में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि मनुस्मृति जो सामाजिक व्यवस्थाओं पर सबसे प्राचीन ग्रंथ है उसमें भी अनेक परिवर्तन किए गए हों। यह सम्भावना अधिक इसलिए है कि मनुस्मृति सर्व साधारण के दैनिक जीवन को, पूरे समाज को और राष्ट्र की राजनीति को प्रभावित करने वाला ग्रंथ रहा है। यदि देखा जाए तो सदियों तक वह एक प्रकार से मनुष्य जाति का संविधान ही रहा है। इसलिए धूर्तों और मक्कारों के लिए मनु स्मृति में प्रक्षेप करने के बहुत सारे प्रलोभन थे। ४. मनुस्मृति का पुनरावलोकन करने पर चार प्रकार के प्रक्षेप दिखायी देते हैं – विस्तार करने के लिए, स्वप्रयोजन की सिद्धी के लिए, अतिश्योक्ति या बढ़ा- चढ़ा कर बताने के लिए, दूषित करने के लिए, अधिकतर प्रक्षेप सीधे- सीधे दिख ही रहे हैं। डॉक्टर। सुरेन्द्र कुमार ने मनुस्मृति का विस्तृत और गहन अध्ययन किया है। जिसमें प्रत्येक श्लोक का भिन्न- भिन्न रीतियों से परीक्षण और पृथक्करण किया है ताकि प्रक्षिप्त श्लोकों को अलग से जांचा जा सके। उन्होंने मनुस्मृति के २६८५ में से १४७१ श्लोक प्रक्षिप्त पाए हैं। प्रक्षेपों का वर्गीकरण वे इस प्रकार करते हैं – • विषय से बाहर की कोई बात हो। ५. डॉक्टर सुरेन्द्र कुमार ही नहीं बल्कि बहुत से पाश्चात्य विद्वान जैसे मैकडोनल, कीथ, बुलहर इत्यादि भी मनुस्मृति में मिलावट मानते हैं। ६. डॉक्टर अम्बेडकर भी प्राचीन ग्रंथों में मिलावट स्वीकार करते हैं। वे रामायण, महाभारत, गीता, पुराण और वेदों तक में भी प्रक्षेप मानते हैं। मनुस्मृति के परस्पर विरोधी, असंगत श्लोकों को उन्होंने कई स्थानों पर दिखाया भी है। वे जानते थे कि मनुस्मृति में कहां-कहां प्रक्षेप हैं। किंतु उनके मर्म को न समझ कर आज का छद्म दलितवाद शुरू हो गया। तथाकथित आर्यसमाजी स्वामी अग्निवेश जो अपनी अनुकूलता के लिए ही यह भूलते हैं कि महर्षि दयानंद ने जो समाज की रचना का सपना देखा था वह महर्षि मनु की वर्ण व्यवस्था के अनुसार ही था और उन्होंने प्रक्षिप्त हिस्सों को छोड़ कर अपने ग्रंथों में सर्वाधिक प्रमाण (५१४ श्लोक) मनुस्मृति से दिए हैं। स्वामी अग्निवेश ने सिर्फ़ राजनीतिक प्रसिद्धि पाने के लिये ही मनुस्मृति का दहन किया। निष्कर्ष मनुस्मृति में बहुत अधिक मात्रा में मिलावट हुई है। परंतु इस मिलावट को आसानी से पहचानकर अलग किया जा सकता है। प्रक्षेपण रहित मूल मनुस्मृति अत्युत्तम कृति है, जिसकी गुण- कर्म- स्वभाव आधारित व्यवस्था मनुष्य और समाज को बहुत ऊँचा उठाने वाली है। मूल मनुस्मृति वेदों की मान्यताओं पर आधारित है। आज मनुस्मृति का विरोध उनके द्वारा किया जा रहा है जिन्होंने मनुस्मृति को कभी गंभीरता से पढ़ा नहीं और केवल वोट बैंक की राजनीति के चलते विरोध कर रहे हैं। सही मनुवाद जन्मना जाति-प्रथा को पूरी तरह नकारता है और इसका पक्ष लेने वाले के लिए कठोर दण्ड का विधान करता है। जो लोग बाकी लोगों से सभी मायनों में समान हैं, उनके लिए ”दलित” शब्द का प्रयोग सच्चे मनुवाद के ख़िलाफ़ है। आइए, हम सब जन्मना जातिवाद को समूल नष्ट कर, वास्तविक मनुवाद की गुणों पर आधारित कर्मणा वर्ण व्यवस्था को लाकर मानवता और राष्ट्र का रक्षण करें। महर्षि मनु जाति, जन्म, लिंग, क्षेत्र, मत- सम्प्रदाय, इत्यादि सबसे मुक्त सत्य धर्म का पालन करने के लिए कहते हैं – मनुस्मृति ८।१७ संदर्भ- डा. सुरेन्द्र कुमार, पं.गंगाप्रसाद उपाध्याय और स्वामी दयानंद सरस्वती के कार्य | अनुवादक- आर्यबाला Share this:Like this:Like Loading... 310 COMMENTS
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