मेघनाथ को क्या वरदान मिला था? - meghanaath ko kya varadaan mila tha?

मेघनाथ को क्या वरदान मिला था? - meghanaath ko kya varadaan mila tha?

इंद्रजीत की विजय (राजा रवि वर्मा द्वारा कृत)

मेघनाद' अथवा इन्द्रजीत रावण के पुत्र का नाम है। अपने पिता की तरह यह भी स्वर्ग विजयी था। इंद्र को परास्त करने के कारण ही ब्रह्मा जी ने इसका नाम इन्द्रजीत रखा था। इसका नाम रामायण में इसलिए लिया जाता है क्योंकि इसने राम- रावण युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसका नाम उन योद्धाओं में लिया जाता है जो की ब्रह्माण्ड अस्त्र, वैष्णव अस्त्र तथा पाशुपात अस्त्र के धारक कहे जाते हैं। इसने अपने गुरु शुक्राचार्य के सान्निध्य में रहकर तथा त्रिदेवों द्वारा कई अस्त्र- शस्त्र एकत्र किए। स्वर्ग में देवताओं को हरा कर उनके अस्त्र-शस्त्र पर भी अधिकार कर लिया।

मेघनाद पितृभक्त पुत्र था। उसे यह पता चलने पर की राम स्वयं भगवान है फिर भी उसने पिता का साथ नही छोड़ा। मेघनाद की भी पितृभक्ति प्रभु राम के समान अतुलनीय है।

जब उसकी माँ मन्दोदरी ने उसे यह कहा कि मनुष्य मुक्ति की ओर अकेले जाता है तब उसने कहा कि पिता को ठुकरा कर अगर मुझे स्वर्ग भी मिले तो मैं ठुकरा दूँगा।

नाम[संपादित करें]

मेघनाद/घननाद-मूल नाम

मन्दोदरी-रावण का पुत्र

इन्द्रजीत / वासवजीत / शक्रजीत-इन्द्र को जीतने के कारण नाम करण हुआ। लंका निवासी।

जन्म[संपादित करें]

मेघनाद रावण और मन्दोदरी का सबसे ज्येष्ठ पुत्र था। क्योंकि रावण एक बहुत बड़ा ज्योतिषी भी था जिसे एक ऐसा पुत्र चाहिए था जो कि अजर, अमर और अजेय हो, इसलिए उसने सभी ग्रहों को अपने पुत्र कि जन्म-कुण्डली के 11वें (लाभ स्थान) स्थान पर रख दिया, परन्तु रावण कि प्रवृत्ति से परिचित शनिदेव 11वें स्थान से 12वें स्थान (व्यय/हानी स्थान) पर आ गए जिससे रावण को मनवांछित पुत्र प्राप्त नहीं हो सका। इस बात से क्रोधित रावण ने शनिदेव पर पैर से प्रहार किया था ।

शिक्षा[संपादित करें]

मेघनाद के गुरु असुर-गुरु शुक्राचार्य थे। किशोरावस्था (12 वर्ष) कि आयु होते-होते इसने अपनी कुलदेवी निकुम्भला के मन्दिर में अपने गुरु से दीक्षा लेकर कई सिद्धियाँ प्राप्त कर लीं । एक दिन जब रावण को इस बात का पता चला तब वह असुर-गुरु शुक्राचार्य के आश्रम में पहुँचा। उसने देखा कि असुर-गुरु शुक्राचार्य मेघनाद से एक अनुष्ठान करवा रहे हैं। जब रावण ने पूछा कि यह क्या अनुष्ठान हो रहा है, तब आचार्य शुक्र ने बताया कि मेघनाद ने मौन व्रत लिया है। जब तक वह सिद्धियों को अर्जित नहीं कर लेगा, मौन धारण किए रहेगा। अन्ततः मेघनाद अपनी कठोर तपस्या में सफल हुआ और भगवान शिव ने उसे दर्शन दिए। भगवान शिव ने उसे कई सारे अस्त्र-शस्त्र, शक्तियाँ और सिद्धियाँ प्रदान की। परन्तु उन्होंने मेघनाद को सावधान भी कर दिया कि कभी भूल कर भी किसी ऐसे ब्रह्मचारी का दर्शन ना करे जो 12 वर्षों से कठोर ब्रह्मचर्य और तपश्चार्य का पालन कर रहा हो । इसीलिए भगवान श्रीराम जी ने लक्ष्मण जी से 12 वर्ष तक कठोर तपस्या करवाई थी ।

वरदान पाने के बाद मेघनाद एक बार फिर से असुर गुरु शुक्राचार्य की शरण में गया और उनसे पूछा उसे आगे क्या करना चाहिए । तब असुर-गुरु शुक्राचार्य ने उसे सात महायज्ञों की दीक्षा दी जिनमें से एक महायज्ञ भी करना बहुत कठिन है। यह भी कहा जाता है कि मेघनाद का नाम उन योद्धाओं में लिया जाता है जोकि आदिकाल से इन महायज्ञ को करने में सफल हो पाए हैं।

ऐसा भी कहा जाता है कि भगवान श्रीविष्णु जी, रावण पुत्र मेघनाद और सूर्यपुत्र कर्ण के अतिरिक्त आदिकाल से ऐसा कोई नहीं है जो वैष्णव यज्ञ कर पाया हो ।

जीवन[संपादित करें]

देवासुर संग्राम के समय जब रावण ने सभी देवताओं को इन्द्र समेत बन्दी बना लिया था और कारागार में डाल दिया था, उसके कुछ समय बाद एक समय सभी देवताओं ने मिलकर कारागार से भागने का निश्चय किया और साथ ही साथ रावण को भी सुप्त अवस्था में अपने साथ बन्दी बनाकर ले गए। परन्तु मेघनाद ने पीछे से अदृश्य रूप में अपने दिव्य रथ पर आरूढ़ होकर देवताओं पर आक्रमण किया । देव सेनापति भगवान कार्तिकेय ठीक उसी समय देवताओं की रक्षा के लिए आ गए परन्तु मेघनाद को नहीं रोक पाए। मेघनाद ने न केवल देवताओं को पराजित किया अपितु अपने पिता के बन्धन खोलकर और इन्द्र को अपना बन्दी बनाकर वापस लंका ले आया। जब रावण जागा और उसे सारी कथा का ज्ञान हुआ तब रावण और मेघनाद ने यह निश्चय किया इन्द्र का अन्त कर दिया जाये, परन्तु ठीक उसी समय भगवान ब्रह्मा जी लंका में प्रकट हुए और उन्होंने मेघनाद को आदेश दिया कि वह इन्द्र को मुक्त कर दे। मेघनाद ने यह कहा कि वह कार्य केवल तभी करेगा जब ब्रह्मदेव उसे अमरत्व का वरदान दे, परन्तु ब्रह्मदेव ने यह कहा यह वरदान प्रकृति के नियम के विरुद्ध है परन्तु वह उसे यह वरदान देते हैं कि जब आपातकाल में कुलदेवी निकुम्भला का तान्त्रिक यज्ञ करेगा तो उस एक दिव्य रथ प्राप्त होगा और जब तक वह उस रथ पर रहेगा तब तक कोई भी ना से परास्त कर पाएगा और ना ही उसका वध कर पाएगा। परन्तु उसे एक बात का ध्यान रखना होगा कि जो उस यज्ञ का बीच में ही विध्वंस कर देगा वही उसकी मृत्यु का कारण भी होगा। और साथ ही साथ ब्रह्मदेव ने यह वरदान भी दिया कि आज से मेघनाद को इन्द्रजीत कहा जाएगा जिससे इन्द्र की ख्याति सदा सदा के लिए कलंकित हो जाएगी ।

विवाह[संपादित करें]

मेघनाद का विवाह नागराज अनन्त की पुत्री देवी सुलोचना जी के साथ हुआ था।

हनुमान जी के विरुद्ध युद्ध[संपादित करें]

जब भगवान श्री राम ने हनुमान जी को माता सीता की खोज में भेजा और हनुमान जी जब लंका में अशोक वाटिका में माता सीता से मिले, उसके उपरान्त हनुमान जी ने अशोक वाटिका को तहस-नहस करना आरम्भ कर दिया। रावण के सारे सैनिक एक एक करके या तो वीरगति को प्राप्त हो गए या तो पराजित होकर भागने लगे। जब रावण को इसी सूचना मिली तो उसने पहले सेनापति जाम्बुमालि और उसके उपरान्त अपने पुत्र राजकुमार अक्षय कुमार को भेजा परन्तु दोनों ही वीरगति को प्राप्त हो गए। अन्त में रावण ने अपने पुत्र युवराज इन्द्रजीत को अशोक वाटिका भेजा। जब इन्द्रजीत और हनुमान जी के बीच युद्ध आरम्भ हुआ तब इन्द्रजीत ने अपनी सारी शक्ति अपनी सारी माया, अपनी सारी तान्त्रिक विद्या, अपने सारे अस्त्र-शस्त्र सब प्रयोग करके देख लिए परन्तु वह सब के सब निष्फल हो गए। अन्त में इन्द्रजीत ने हनुमान जी पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। हनुमान जी ने ब्रह्मास्त्र का मान रखने के लिए उसमें बँध जाना स्वीकार कर लिया और उसके उपरान्त वे दोनों रावण के दरबार की ओर चल पड़े।

राम रावण युद्ध में योगदान[संपादित करें]

पहला दिन[संपादित करें]

कुम्भकर्ण के अन्त के बाद रावण के पास अब केवल एक उसका पुत्र इन्द्रजीत ही रह गया था। उसने इन्द्रजीत को आदेश दिया कि वह युद्ध की ओर कूच करे ।

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इंद्रजीत के नागपाश में बंधे हुए भगवान श्री राम और लक्ष्मण जी

इन्द्रजीत ने अपने पिता के आदेश पर सबसे पहले कुलदेवी माता निकुम्भला का आशीर्वाद लिया और उसके उपरान्त हुआ रणभूमि की ओर चल पड़ा। जैसे ही युद्ध आरम्भ हुआ एक-एक करके सारे योद्धा इन्द्रजीत के हाथों या तो वीरगति को प्राप्त हो गए, या तो भागने लगे, या तो पराजित हो गए। अन्त में लक्ष्मण जी और इन्द्रजीत के बीच द्वन्द होने लगा । जब इन्द्रजीत के सारे अस्त्र विफल हो गए तो उसने अदृश्य होकर पीछे से सारी वानर सेना, भगवान श्री राम और लक्ष्मण जी पर नागपाश का प्रयोग किया। तब ही हनुमान जी को एक युक्ति सूझी कि भगवान गरुण इस नागपाश को काट सकते है अतः हनुमान जी तुरन्त ही गरुड़ जी को ले जाए और गरुड़ जी ने सभी को नागपाश के बन्धन से मुक्त कर दिया।

दूसरा दिन[संपादित करें]

जब रावण को यह पता चला की सभी वानर सैनिक, भगवान श्री राम और लक्ष्मण जी नागपाश से मुक्त हो गए हैं तो क्रोध में आकर उसने दूसरे दिन एक बार फिर इन्द्रजीत को आदेश दिया कि वह एक बार फिर युद्ध-भूमि की ओर कूच करे ।

एक बार फिर अपने पिता की आज्ञा को शिरोधार्य करके माता निकुम्भला का आशीर्वाद लेकर इन्द्रजीत रणभूमि की ओर निकल पड़ा । इस बार उसने रणभूमि में घोषणा कि आज वह एक भी वानर सैनिक को जीवित नहीं छोड़ेगा और कम से कम दोनों भाइयों में से (अर्थात राम जी और लक्ष्मण जी में से) किसी एक को तो मार ही देगा। इसी उद्घोषणा के साथ वह पहले दिन से भी कहीं अधिक भयंकरता के साथ युद्ध करने लगा। उसकी इस ललकार को सुनकर लक्ष्मण जी भगवान श्रीराम की आज्ञा लेकर उसका सामना करने चल पड़े। दोनों के बीच भयंकर द्वन्द छिड़ गया, परन्तु दोनों ही टस से मस होने के लिए तैयार नहीं थे। जब लक्ष्मण जी मेघनाद पर भारी पड़ने लगे, तब मेघनाद को एक युक्ति सूची और वह अदृश्य होकर माया युद्ध करने लगा। इस पर लक्ष्मण जी उस पर ब्रह्मास्त्र चलाने की आज्ञा भगवान श्रीराम से लेने लगे। परन्तु भगवान श्रीराम ने इसे निति-विरुद्ध कहकर रोक दिया और फिर एक बार लक्ष्मण जी भगवान श्रीराम की आज्ञा लेकर दोबारा से मेघनाद के साथ युद्ध करने लगे।

माया युद्ध में भी जब लक्ष्मण जी इन्द्रजीत पर भारी पड़ने लगे और दूसरी ओर वानर-सेना राक्षस-सेना पर भारी पड़ने लगी, तो क्रोध में आकर उसने लक्ष्मण जी पर पीछे से शक्ति अस्त्र का प्रयोग किया और सारी वानर सेना पर ब्रह्मशिरा अस्त्र का प्रयोग किया, जिससे कि कई वानर सैनिक वीरगति को प्राप्त हो गए, जो कि लगभग पूरा का पूरा वानर वंश था (स्रोत श्रीमद् वाल्मीकि रामायण)। जब हनुमान जी वानर सेना को बचाने दौड़े तो इन्द्रजीत ने उन पर भी वैष्णव अस्त्र का प्रयोग किया, परन्तु उन्हें भगवान श्रीब्रह्मा जी का वरदान होने के कारण कुछ नहीं हुआ और वे तुरन्त ही सारे वानर सैनिकों और लक्ष्मण जी को बचाने निकल पड़े। इधर दूसरी ओर मेघनाद घायल लक्ष्मण जी उठाने का प्रयत्न करने लगा, परन्तु उन्हें हिला भी नहीं सका। इस पर हनुमान जी ने यह कहा कि वह उन्हें उठाने का प्रयत्न कर रहा है जो साक्षात भगवान शेषनाग अनन्त के अवतार हैं, उस जैसे पापी से नहीं उठेंगे। इतना कहकर उन्होंने मेघनाद पर प्रहार किया और लक्ष्मण जी को बचा कर ले आए । उसके बाद सुषेण वैद्य के कहने पर हनुमान जी संजीवनी बूटी ले आए जिससे लक्ष्मण जी का उपचार हुआ और वे बच गए ।

तीसरा दिन[संपादित करें]

जब रावण को यह पता चला के लक्ष्मण जी सकुशल है तो इस बार उसने फिर से इन्द्रजीत को यह आदेश दिया कि वह तुरन्त ही माता निकुम्भला का तान्त्रिक यज्ञ करे और उनसे वह दिव्य रथ प्राप्त करें ।

जब गुप्तचरों से इस बात का विभीषण जी को पता चला तो उन्होंने तुरंत ही भगवान श्री राम को सारी सूचना दी । भगवान श्री राम ने विभीषण जी को आदेश दिया कि वह तुरन्त ही उसका यज्ञ भंग कर दें ।

विभीषण जी की सहायता से, एक गुप्त मार्ग से सभी वानर सैनिक उस गुफा में पहुँच गए जहाँ पर इन्द्रजीत यज्ञ कर रहा था। उस गुफा में घुस कर वानर सैनिकों ने उसका यज्ञ भंग कर दिया और उसे बाहर निकलने पर विवश कर दिया ।

क्रोधित इन्द्रजीत ने जब देखा विभीषण जी वानर सेना को लेकर के आए हैं तो क्रोध में आकर उसने विभीषण जी पर यम-अस्त्र का प्रयोग किया। परन्तु यक्षराज कुबेर ने पहले ही लक्ष्मण जी को उसकी काट बता दी थी । लक्ष्मण जी ने उसी का प्रयोग करके यम- अस्त्र को निस्तेज कर दिया । इस पर इन्द्रजीत को बहुत क्रोध आया और उसने एक बहुत ही भयानक युद्ध लक्ष्मण जी से आरम्भ कर दिया, परन्तु उसमें भी जब लक्ष्मण जी इन्द्रजीत पर भारी हो गए तो उसने अंतिम तीन महा अस्त्रों का प्रयोग किया जिन से बढ़कर कोई दूसरा अस्त्र इस सृष्टि में नहीं है।

सबसे पहले उसने ब्रह्माण्ड अस्त्र का प्रयोग किया। इस पर भगवान ब्रह्मा जी ने उसे सावधान किया की यह नीति विरुद्ध है, परन्तु उसने ब्रह्मा जी की बात ना मानकर उसका प्रयोग लक्ष्मण जी पर किया। परिणाम स्वरूप ब्रह्माण्ड अस्त्र लक्ष्मण जी को प्रणाम करके निस्तेज होकर लौट आया। फिर उसने लक्ष्मण जी पर भगवान शिव का पाशुपतास्त्र प्रयोग किया परन्तु वह भी लक्ष्मण जी को प्रणाम करके लुप्त हो गया। फिर उसने भगवान विष्णु का वैष्णव अस्त्र लक्ष्मण जी पर प्रयोग किया परन्तु वह भी उनकी परिक्रमा करके लौट आया।

मेघनाथ को क्या वरदान मिला था? - meghanaath ko kya varadaan mila tha?

अब इन्द्रजीत समझ गया लक्ष्मण जी एक साधारण नर नहीं स्वयं भगवान का अवतार है और वह तुरन्त ही अपने पिता के पास पहुँचा और उसने सारी कथा का व्याख्यान दिया । परन्तु रावण तब भी नहीं माना और उसने फिर से इन्द्रजीत का युद्ध भूमि में भेज दिया । इन्द्रजीत ने यह निश्चय किया यदि पराजय ही होनी है भगवान के हाथों वीरगति को प्राप्त होना तो सौभाग्य की बात है। और उसने फिर एक बार फिर एक महासंग्राम आरम्भ किया । बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। भगवान श्रीराम जी ने लक्ष्मण जी को पहले ही समझा दिया था की इन्द्रजीत एकल पत्नी व्रत धर्म का कठोर पालन कर रहा है। इस कारण से उन्हें उसका वध करते समय इस बात का ध्यान रखना होगा की इंद्रजीत का शीश कटकर भूमि पर ना गिरे अन्यथा उसके गिरते ही ऐसा विस्फोट होगा की सारी सेना उस विस्फोट में समा कर नष्ट हो जाएगी। इसीलिए अन्त में लक्ष्मण जी ने भगवान श्रीराम जी का नाम लेकर एक ऐसा बाण छोड़ा जिससे इन्द्रजीत के हाथ और शीश कट गए और उसका शीश कटकर भगवान श्रीराम जी के चरणों में पहुँच गया।

मेघनाद कौन सी विद्या जानता था?

मेघनाद
गुरु
शुक्राचार्य
विवाह
सुलोचना
विद्या पारंगत
धनुर्विद्या, मायावी शक्तियाँ प्राप्त।
निवास
लंका
मेघनाद - भारतकोश, ज्ञान का हिन्दी महासागरbharatdiscovery.org › india › मेघनादnull

मेघनाथ को किसका वरदान था?

सुलोचना सर्प कन्या थी, इसप्रकार मेघनाद लक्ष्मण के दामाद थे, क्योंकि लक्ष्मण शेषनाग के अवतार थे। सुलोचना सुन्दर होने के साथ साथ पतिव्रता तथा गुणवती स्त्री थी, जिसकी परीक्षा उसने स्वयं अपनी पतिव्रतत्व सिद्ध करने के लिए मेघनाद के कटे सिर को हंसाकर भगवान श्रीराम के सामने दी थी और अपने पति के साथ सति हो गयी थी।

मेघनाथ किसका अवतार है?

मेघनाद' अथवा इन्द्रजीत रावण के पुत्र का नाम है। अपने पिता की तरह यह भी स्वर्ग विजयी था। इंद्र को परास्त करने के कारण ही ब्रह्मा जी ने इसका नाम इन्द्रजीत रखा था। इसका नाम रामायण में इसलिए लिया जाता है क्योंकि इसने राम- रावण युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

लक्ष्मण ने मेघनाद को क्यों मारा?

ब्रह्माजी ने जब इंद्रजीत से दान के रूप में इंद्र को मांगा, तब वह मुक्त हुए। लक्ष्मण ने उसका वध किया और केवल वही उसका संहार भी कर सकते थे।