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मुगल कालीन आर्थिक जीवन की विस्तृत जानकारी आइने-अकबरी तथा विदेशी लेखकों के संस्मरणों से प्राप्त होती है। कृषि उत्पाद- आइने अकबरी में रबी (बसंत) की 16 फसलों तथा खरीफ (शरद ऋतु) की 25 फसलों से प्राप्त होने वाले राजस्व का विस्तृत उल्लेख मिलता है। मुगल काल में खाद्य पदार्थों में –गेहूँ,बाजरा और दाल ( दाल को पलसेती अथवा दिलेत खिचङी कहा जाता था) प्रमुख थे। मुगल काल में आगरा के निकट बयाना तथा गुजरात में सरखेज से सर्वोत्तम किस्म की नील पैदा की जाती थी। इसका विशद् वर्णन पेलसार्ट ने किया है। भारत में तंबाकू 1604ई. के अंत अथवा 1605ई. के आरंभ में (अकबरके काल) पुर्तगालियों द्वारा लायी गयी।संभवतः इसी के आस-पास मक्का अमरीका से भारत लाया गया। खेती के विस्तार तथा बेहतरी के लिए मुगल बादशाहों ने किसानों को बढावा दिया और इसके लिए तकाबी नामक ऋण भी वितरित किया। मुगलकाल में नयी भूमि को खेती योग्य बनाने के लिए वनकटी(जंगलों को साफ कर जमीन को खेती योग्य बनाना) नामक एक तरीका अपनाया गया जिससे अधिकर से अधिक भूमि को कृषि योग्य बनाया जा सके। शाहजहाँके शासन काल में 1630-32ई. में दक्कन तथा गुजरात में एक भयानक अकाल पङा था जिसके फसल्वरूप उसने खालिसाभूमि के भू-राजस्व का 70लाख रुपये माफ कर दिया था यह मुगल काल का प्रचंडतम अकाल था। शाहजहाँने अकाल से निपटने के लिए सिंचाई की सुवधा की व्यवस्था की उसने 98मील लंबी रावी नहर लाहौर तक बनवायी जिसे नहर-ए-फैज कहा जाता था। इसके अतिरिक्त शाहजहाँने एक दूसरी नहर नहर – ए- साहिब( जिसे फिरोज तुगलक ने बनवाया था ) को न केवल ठीक ही करवाया बल्कि उसका नाम नहर-ए- शाह भी रखा। मुगलकाल में गन्ना,कपास,नील तथा रेशम आदि फसलों का भी उत्पादन होता था इन्हें तिजारती (नकदी)तथा उत्तम फसलें कहा जाता था। इन फसलों पर अधिक दर पर मालगुजारी नकद रूप में अदा करनी होती थी इसलिए इन्हें नकदी फसलें भी कहा जाता था। कृषक वर्ग –मुगलकालीन कृषक वर्ग स्पष्ट रूप से तीन वर्गों में विभाजित था- 1.) खुदकाश्त,2.)पाहीकाश्त,3.)मुजारियान।
खुदकाश्त किसान वे खेतिहर होते थे जो उसी गांव की भूमि पर खेती करते थे,जिसके वे निवासी होते थे।इन्हें अपनी भूमि पर स्थायी एवं वंशानुगत स्वामित्व प्राप्त होता था। खुदकाश्त को अपनी भूमि को बंटाई पर देने का तथा बेचने का अधिकार होता था।इन्हें मालिक-ए-जमीन भी कहा जाता था। यदि किसान खुदकाश्त की जमीन पर बीज आदि का प्रबंध स्वयं करता था,तो उसे खुदकाश्त को उपज का 1/3 भाग लगान के रूप में देना पङता था क्योंकि खुदकाश्त स्वयं इन सारी चीजों की व्यवस्था करता था तो किसान को उसे उपज का 2/3भाग देना पङता था।
वे किसान होते थे,जो दूसरे गांवों में अस्थायी रूप से जाकर बंटाईदार के रूप में खेती करते थे। पाहीकाश्त के अधिकार में केवल उतनी ही भूमि होती थी,जितने पर अपने परिवार के श्रम का उपयोग करके खेती कर सकता था।
इन कृषकों के पास इतनी कम भूमि होती थी कि वे उस भूमि में अपने परिवार के कुल श्रम का भी उपयोग नहीं कर पाते थे।फलस्वरूप वे खुदकाश्त की जमीन को किराये (बंटाई)पर लेकर उस पर खेती करते थे। मुजारियान किसान अपनी जोत को बेच नहीं सकता था और न ही उसे रेहन रख सकता था। मुजारियान तथा पाहीकाश्त में यह अंतर होता था कि पर्याप्त भूमि प्राप्त होने तथा नजराना देने पर पाहीकाश्त खुदकाश्त तो बन सकता था,किन्तु मुजारियान अपनी वर्तमान स्थिति(बटाईदार) से ऊपर नहीं उठ सकता था। उद्योग धंधे-मुगल काल में सूती वस्र उद्योग सबसे अधिक उन्नत उद्योग था। जिस पर सरकार का पूरा नियंत्रण रहता था। यह एक मात्र ऐसी वस्तु थी जिसका विदेशों में सबसे अधिक निर्यात होता था।भारत में निर्मित कपङों को केलीको कहा जाता था। जहाँगीरने अमृतसर में ऊनी वस्रोद्योग को प्रारंभ किया। चमङे की वस्तुओं को बनाने का उद्योग भी बहुत उन्नत अवस्था में था। कुछ अन्यु उद्योगों के नाम इस प्रकार थे-
फिर भी रेशमी कपङा विदेशों से मंगाया जाता था।रेशमी कपङों को पटोला कहा जाता था। तांबे की खाने राजस्थान एवं मध्यभारत में थी। हीरा गोलकुंडा और छोटा नागपुर की खानों से प्राप्त होता था।विश्वप्रसिद्ध कोहिनूर हीरा गोलकुंडा की खान से प्राप्त हुआ था।जिसे मीर जुमला (मुहम्मद सैयद) ने शाहजहाँ को भेंट किया। इत्र,(अस्मत बेगम द्वारा आविष्कृत) सुगंधित तेल तथा गुलाब-जल जैसी वस्तुओं के उत्पादन में जौनपुर और गुजरात प्रसिद्ध थे। समुद्री जहाजों का निर्माण मुगल काल में बहुत उन्नत अवस्था में नहीं था।अकबर ने इसके निर्माण के लिए एक पृथक विभाग स्थापित किया। किन्तु औरंगजेब ने अबीसीनियायियों तथा जंजीरा के सीदियों की सहायता से एक नौसेना तैयार की थी। व्यापार एवं वाणिज्य-मुगल काल में थोक-व्यापारियों को – सेठ,बोहरा एवं मोदी कहा जाता था, जबकि खुदरा व्यापारियों को – व्यापारी व वानिककहा जाता था। दक्षिण भारत में चेट्टी व्यापारिक समुदाय के प्रमुख अंग थे। मुगल काल में वस्तुविनियम का माध्यम – हुण्डी( एक प्रकार का अल्पकालिक ऋण-पत्र) था। यह वह चिट्ठी होती थी जिसका भुगतान एक निश्चित अवधि के बाद कुछ कटौती करके दिया जाता था। सर्राफ रूपये के लेन-देन का विशेषज्ञ होता था यह हुण्डी का भी काम करता था इस प्रकार वह एक नीजी बैंक की तरह कार्य करता था। मुगलकाल में सामान्यतः चुंगी की दर प्रारंभ में वस्तु के मूल्य का ढाई प्रतिशत होती थी किन्तु बाद में इसे बढाकर साढे तीनप्रतिशत कर दिया गया। औरंगजेबके काल में हिन्दू व्यापारियों से वस्तु के मूल्य का 5प्रतिशत तथा मुसलमान व्यापारियों से ढाई प्रतिशत लिया जाने लगा। विरजी बोहरा सूरत का प्रसिद्ध व्यापारी था। कई दशकों तक सूरत के व्यापार पर उसका एकाधिपत्य रहा उसके पास एक विशाल जहाजी बेङा था वह अपने समय के सबसे अधिक धनी लोगों में गिना जाने लगा। नाखुदा नामक व्यापारी जहाज मालिक के एजेन्ट के रूप में काम करते थे।विरजी बोहरा के अतिरिक्त इस काल के कुछ अन्य प्रमुख व्यापारी थे-सूरत के अब्दुल गफूर और अहमद चैलाबी गोलकुंडा के मीरजुमला तथा कोरोमंडल तट के मलयचेट्टी, काशी वीरन्ना तथा सुनका राम चेट्टी। अठारहवीं शताब्दी में बंगाल एवं गुजरात मे ऋण प्रदान करने की एक नयी व्यवस्था शुरू हुई। जिसे ददनी (अग्रिम संविदा एवं पेशगी) कहा जाता था।इसके अंतर्गत दस्तकारों (जुलाहों) को अग्रिम पेशगी देकर एक करार कर लिया जाता था। अकबरने आंतरिक व्यापार पर लगने वाले राहदरी शुल्क को समाप्त कर दिया। मुगल काल में प्रारंभ में निर्यात की मुख्य वस्तु नील,शोरा,अफीम एवं सूती वस्रथा जबकि मुख्य आयात सोना,चाँदी,घोङा,कच्चा रेशमआदि वस्तुओं का होता था। मुगलकाल में सबसे अच्छी नील गुजरात में सरखेज तथा बयाना से पैदा होती थी।शोरा मुख्यतः कोरोमंडल तट तथा बिहार से उत्पादित किया जाता था। मुगल काल में सोने,चाँदी का आयात इतना बढ गया ता कि बर्नियर ने टिप्पणी करते हुए कहा कि विश्व के प्रत्येक भागों में चक्कर लगाने के बाद सोना,चाँदी अंत में भारत में जो सोने,चाँदी की दलदल है,उसमें दफन हो जाता था। मुगल अमीरों को राज्य की ओर से दिये जाने वाले ऋण को मुसादात कहा जाता था। मुगल काल में जो व्यापारी किसी गाँव में व्यापार के उद्देश्य से अस्थायी रूप से रहते थे वे बिछैती या बछायत कहलाते थे और जो गाँव तक ही अपना व्यापार सीमित रखते थे वे सहथानी कहलाते थे। ये मुख्यतः अनाज का व्यापार करते थे। समुद्री व्यापार में लगे मुस्लिम व्यापारियों में खोजा और वोहरा प्रमुख थे। मध्यम कोटि के व्यापारियों में बालासोर के खेमचंद एवं हुगली के मथुरादास प्रमुख थे जो ईस्ट इंडिया कंपनी के एजेन्ट के रूप में कार्य करते थे। 17वी. शताब्दी में मारवाङी साहूकार – हीरानंद साहू का नाम उल्लेखनीय है जो आमेर से आकर बिहार में मानसिंह का साहूकार बन गया था।उसी का पुत्र प्रसिद्ध जगत सेठ- मानिक चंद तथा मुर्शिद कुली खाँ का साहूकार था। उत्तर -पश्चिमी सीमा क्षेत्र में बहने वाली नदियों में विशेषकर सिन्धु नदी में नौका चालन के सर्वाधिक उदाहरण मिलते हैं। उत्तर-पश्चिम में निर्यात के लिए दो स्थल मार्ग मुख्य थे-
मुगल बादशाह सभी आयातों एवं निर्यातों पर साढे तीन प्रतिशत तथा सोने और चाँदी पर दो प्रतिशत चुंगी लेते थे। सूरत के सभी मालों क आयात-निर्यात पर साढे तीन प्रतिशत चुंगी ली जाती थी। Reference : https://www.indiaolddays.com/ मुगलकाल में सर्वाधिक उपजाऊ भूमि को क्या कहा जाता है?मुगल काल के दौरान सबसे अधिक उपजाऊ क्षेत्र को दोआब कहा जाता था। यह दोआब क्षेत्र गंगा और यमुना के बीच का क्षेत्र होता था। ये हिमालय की तलहटी का मैदानी क्षेत्र था जोकि कृषि की दृष्टि से यह क्षेत्र बेहद उपजाऊ होता था। मुगलों ने अपनी राजधानी इसी क्षेत्र में बनाई थी, जोकि पहले आगरा बाद में दिल्ली हुई।
मुगल काल में सर्वोत्तम फसलों को क्या कहा जाता है?स्रोतों में हमें अकसर जिन्स-ए-कामिल ( सर्वोत्तम फ़सलें ) जैसे लफ़्ज़ मिलते हैं। मुग़ल राज्य भी किसानों को ऐसी फ़सलों की खेती करने के लिए बढ़ावा देता था क्योंकि इनसे राज्य को ज़्यादा कर मिलता था। कपास और गन्ने जैसी फ़सलें बेहतरीन जिन्स-ए-कामिल थीं।
मुगल काल में जमीनों को कितने भागों में बांटा गया था नाम लिखिए?मुगल साम्राज्य के राजस्व को दो भागों में बाँटा जा सकता है- केंद्रीय अथवा शाही तथा स्थानीय अथवा प्रान्तीय।
मुगल कालीन भारत में कृषि और कृषि को की क्या स्थिति थी लिखिए?प्राचीन काल की भाँति मुगलकाल में भी भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान थी। मुगल साम्राज्य की लगभग 85 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में निवास करती थी, जिसमें कृषि पर आधारित वर्ग की बहुतायत थी। लघु उद्योग एवं व्यापार आदि की अच्छी वृद्धि के बाद भी तत्कालीन आर्थिक गतिविधियों में कृषि कार्य सर्वोपरि था।
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