लेखक ने नर्मदा को क्या संबोधन दिया – - lekhak ne narmada ko kya sambodhan diya –

लेखक ने नर्मदा को क्या संबोधन दिया – - lekhak ne narmada ko kya sambodhan diya –
उन्होंने नर्मदा नदी के किनारे-किनारे पूरे चार हजार किलोमीटर की यात्रा पैदल कर डाली। कोई साथ मिला तो ठीक, ना मिला तो अकेले ही। कहीं जगह मिली तो सो लिये, कहीं अन्न मिला तो पेट भर लिया। सब कुछ बेहद मौन, चुपचाप और जब उस यात्रा से संस्मरण शब्द और रेखांकनों के द्वारा सामने आये तो नर्मदा का सम्पूर्ण स्वरूप निखरकर सामने आ गया। अमृतलाल वेगड़ अब लगभग 85 साल के हो रहे हैं लेकिन नर्मदा के हर कण को समझने, सहेजने और सँवारने की उत्कंठा अभी भी युवा है। उन्होंने अपनी यात्रा के सम्पूर्ण वृतान्त को तीन पुस्तकों में लिखा। पहली पुस्तक ‘सौन्दर्य की नदी नर्मदा’ 1992 में आई थी और अभी तक इसके आठ संस्करण बिक चुके हैं। श्री वेगड़ अपनी इस पुस्तक का प्रारम्भ करते हैं - “कभी-कभी मैं अपने-आप से पूछता हूँ, यह जोखिम भरी यात्रा मैंने क्यों की? और हर बार मेरा उत्तर होता, अगर मैं यात्रा न करता, तो मेरा जीवन व्यर्थ जाता। जो जिस काम के लिये बना हो, उसे वह काम करना ही चाहिए और मैं नर्मदा की पदयात्रा के लिये बना हूँ।’’

श्री वेगड़ ने अपनी पहली यात्रा सन 1977 में शुरू की थी जब वे कोई 50 साल के थे और अन्तिम यात्रा 1987 में । इन ग्यारह सालों की दस यात्राओं का विवरण इस पुस्तक में है। लेखक अपनी यात्रा में केवल लोक या नदी के बहाव का सौन्दर्य ही नहीं देखते, बरगी बाँध, इंदिरा सागर बाँध, सरदार सरोवर आदि के कारण आ रहे बदलाव, विस्थापन की भी चर्चा करते हैं।

नर्मदा के एक छोर से दूसरे छोर का सफर 1312 किलोमीटर लम्बा है। यानी पूरे 2614 किलोमीटर लम्बी परिक्रमा। कायदे से करें तो तीन साल, तीन महीने और 13 दिन में परिक्रमा पूरी करने का विधान है। जाहिर है इतने लम्बे सफर में कितनी ही कहानियाँ, कितने ही दृश्य, कितने ही अनुभव सहेजता चलता है यात्री और वो यात्री अगर चित्रकार हो, कथाकार भी तो यात्राओं के स्वाद को सिर्फ अपने तक सीमित नहीं रखता।

श्री वेगड़ मूल रूप से चित्रकार हैं और उन्होंने गुरू रवीन्द्रनाथ टैगोर के शान्ति निकेतन से 1948 से 1953 के बीच कला की शिक्षा ली थी, फिर जबलपुर के एक कॉलेज में चित्रकला के अध्यापन का काम किया। तभी उनके यात्रा वृतान्त में इस बात की बारिकी से ध्यान रखा गया है कि पाठक जब शब्द बाँचे तो उसके मन-मस्तिष्क में एक सजीव चित्र उभरे। जैसे कि नदी के अर्धचन्द्राकार घुमाव को देखकर लेखक लिखते हैं, ‘‘मंडला मानो नर्मदा के कर्ण-कुण्डल में बसा है।’’ उनके भावों में यह भी ध्यान रखा जाता रहा है कि जो बात चित्रों में कही गई है उसकी पुनरावृति शब्दों में ना हो, बल्कि चित्र उन शब्दों के भाव-विस्तार का काम करें। वे अपने भावों को इतनी सहजता से प्रस्तुत करते हैं कि पाठक उनका सहयात्री बन जाता है। लेखक ने ‘छिनगाँव से अमरकंटक’ अध्याय में ये उदगार तब व्यक्त किये जब यात्रा के दौरान दीपावली के दिन वे एक गाँव में ही थे।

‘‘आखिर मुझसे रहा नहीं गया। एक स्त्री से एक दीया माँग लिया और अपने हाथ से जलाकर कुण्ड में छोड़ दिया। फिर मन-ही-मन बोला, ‘माँ, नर्मदे, तेरी पूजा में एक दीप जलाया है। बदले में तू भी एक दीप जलाना-मेरे हृदय में। बड़ा अन्धेरा है वहाँ, किसी तरह जाता नहीं। तू दीप जला दे, तो दूर हो जाये। इतनी भिक्षा माँगता हूं। तो दीप जलाना, भला?’’ एक संवाद नदी के साथ और साथ-ही-साथ पाठक के साथ भी।

इस पुस्तक की सबसे बड़ी बात यह है कि यह महज जलधारा की बात नहीं करती, उसके साथ जीवन पाते जीव, वनस्पति, प्रकृति, खेत, पंक्षी, इंसान सभी को इसमें गूँथा गया है और बताया गया है कि किस तरह नदी महज एक जल संसाधन नहीं, बल्कि मनुष्य के जीवन से मृत्यु तक का मूल आधार है। इसकी रेत भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी जल धारा और इसमें मछली भी उतनी ही अनिवार्य है जितना उसके तट पर आने वाले मवेशियों के खुरों से धरती का मंथना।

अध्याय 13 में वे लिखते हैं - ‘‘नर्मदा तट के छोटे-से-छोटे तृण और छोटे-से-छोटे कण न जाने कितने परव्राजकों, ऋषि-मुनियों और साधु-सन्तों की पदधूलि से पावन हुए होंगे। यहाँ के वनों में अनगिनत ऋषियों के आलम रहे होंगे। वहाँ उन्होंने धर्म पर विचार किया होगा, जीवन मूल्यों की खोज की होगी और संस्कृति का उजाला फैलाया होगा। हमारी संस्कृति आरण्यक संस्कृति रही। लेकिन अब? हमने उन पावन वनों को काट डाला है और पशु-पक्षियों को खदेड़ दिया है या मार डाला है। धरती के साथ यह कैसा विश्वासघात है।’’

श्री वेगड़ कहते हैं कि यह उनका नर्मदा को समझने-समझाने की ईमानदार कोशिश की है और वे कामना करते हैं कि सर्वस्व दूसरों पर लुटाती ऐसी ही कोई नदी हमारे सीनों में बह सके तो नष्ट होती हमारी सभ्यता-संस्कृति शायद बच सके। नगरों में सभ्यता तो है लेकिन संस्कृति गाँव और गरीबों में ही थोड़ी बहुत बची रह गई है।

इस पुस्तक को पढ़ने के बाद नर्मदा को समझने की नई दृष्टि तो मिलती ही है, लेखक की अन्य दो पुस्तकों को पढ़ने की उत्कंठा भी जागृत होती है।

सौन्दर्य की नदी नर्मदा, लेखक - अमृतलाल वेगड़,
प्रकाशन - मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, भोपाल,
पृ. - 198
मूल्य - 70.00

ईकाई – 1 (मेरे सहयात्री)

प्रश्‍न - 1 नर्मदा नदी के तट के सौंदर्य का वर्णन कीजिए

 उत्‍तर-

    नर्मदा केवल नदी ही नहीं है बल्कि यह हमारी संस्कृति की वाहक भी है। यह मध्य प्रदेश की जीवन रेखा कहलाती है। नर्मदा नदी का शुद्ध जल एवं दूर-दूर तक फैली हरियाली और इसके तट पर बसे हजारों गांव तथा नगर इसकी शोभा बढ़ाते हैं। नर्मदा नदी के उद्गम से लेकर संगम तक 10 करोड़ तीर्थ है। जहां पर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है इसे एक नाम रेवा से भी जाना जाता है जो कि कालिदास ने मेघदूतम में दिया है इसकी गति और चट्टानों से गिरने के कारण इसे रेवा कहा जाता है। तीर्थों के घाटों पर हर हर नर्मदे बोलकर भक्तों का नदी में स्नान कर अर्पण-तर्पण करना इसकी शोभा में और अधिक वृद्धि करता है रात्रि के समय नर्मदा की आरती व दीपदान का मनोहारी दृश्य का वर्णन नहीं किया जा सकता है। ओमकारेश्वर के घंटे की आवाज से नर्मदा मैया प्रसन्न होती हैं, और नर्मदा की कल-कल करती हुई लहरें रात के सन्नाटे में भोलेनाथ को प्रफुल्लित करती है। नर्मदा नदी की तीव्र गति प्रपातों में दिखाई देती है। इसके तट पर बसे जबलपुर, भेड़ाघाट, अमरकंटक और शुक्लतीर्थ की समृद्धता नर्मदा की कहानी को अपने आप में स्‍वयं ही बयान कर देती है।

प्रश्‍न - 2 संस्मरण क्या है स्पष्ट करो

 उत्‍तर-

    नाम से ही स्पष्ट होता है कि सम + स्मरण अर्थात सम्यक स्मरण इसका सीधा संबंध अतीत से होता है।किसी विषय पर स्मृति या याद रखने की क्षमता के आधार पर अथवा किसी व्यक्ति पर लिखित आलेख संस्मरण कहलाता है। संस्मरण का रचनाकार की स्मृति से गहरा संबंध होता है। इसमें किसी घटना, व्यक्ति या वस्तु के वर्णन में एक क्षण का भी महत्व होता है। जब कोई रचनाकार करुणास्‍पद अनुभूतियों को कल्पना का रंग देता है एवं व्यंजना मुल्क शैली में व्यक्त करता है और इस तरह अपने व्यक्तित्व की विशेषताओं का प्रक्षेपण करता है तो ऐसी यथार्थ रचना को ही संस्मरण कहते हैं।

प्रश्‍न - 3 नर्मदा नदी के सौंदर्य पर एक निबंध लिखिए

 उत्‍तर- 

    प्रकृति का सौंदर्य हमें भी मन से सुंदर होने की प्रेरणा देता है। प्राकृतिक सौंदर्य में एक पावन भाव होता है। ऐसा मनुष्य द्वारा निर्मित (निर्माण/बनाये गये) सौंदर्य में नहीं होता नर्मदा भारत के मध्य भाग से पूरब से पश्चिम की ओर बहती है। यह एक बहुत ही बड़ी एवं प्रमुख नदी है। यह नदी गंगा के समान ही पूजनीय है। नर्मदा नदी की उत्पत्ति महाकाल पर्वत के अमरकंटक शिखर से होती है। इसके उद्भव से लेकर संगम तक लगभग 10 करोड़ तीर्थ स्थान है

    नर्मदा का उद्गम विंध्याचल की मैकाल पहाड़ी श्रंखला में अमरकंटक नामक स्थान से हुआ है। इस कारण से इस नदी को मैकाल कन्या भी कहते हैं। स्कंद पुराण में इस नदी का वर्णन रेवाखंड के अंतर्गत किया गया है। कालिदास के मेघदूतम् में भी नर्मदा नदी को रेवा संबोधन किया गया है। जिसका अर्थ होता है पहाड़ी चट्टानों में कूदने वाली।

    नर्मदा की तेज धारा वास्तव में पहाड़ी चट्टानों पर और भेड़ाघाट के संगमरमर की चट्टानों के ऊपर से उछलती हुई बहती है। अमरकंटक में सुंदर सरोवर में स्थित शिवलिंग से निकलने वाली इस पावन धारा को रुद्र कन्या भी कहा जाता है। जो आगे चलकर विशाल नर्मदा नदी का रूप धारण कर लेती है। इसके अलावा पवित्र नदी नर्मदा के तट पर अनेक तीर्थ हैं। जहां श्रद्धालुओं का आना-जाना प्रतिवर्ष लगा रहता है। अमरकंटक की पहाड़ियों से निकलकर छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात से होकर करीब 1310 किलोमीटर का सफर तय कर नर्मदा भरूच के आगे खंभात की खाड़ी में विलुप्‍त हो जाती है। परंपरा के अनुसार नर्मदा की परिक्रमा का प्रावधान है, जिससे श्रद्धालुओं को पुण्य की प्राप्ति होती है। पुराणों में बताया गया है कि नर्मदा नदी के दर्शन मात्र से समस्त पापों का नाश हो जाता है।

    नर्मदा नदी के तट पर जबलपुर शहर बसा हुआ है। इस नदी के मुहाने पर डेल्टा नहीं है। जबलपुर के निकट नर्मदा का भेड़ाघाट जलप्रपात बहुत ही प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि यहां किसी युग में भृगु ऋषि तपस्या करते थे। चट्टानों के निर्मल और सुंदर स्वरूप को देखकर आज भी ऐसा लगता है कि असंख्य ऋषि-मुनि नर्मदा के तट पर तपस्या में लीन हों। नर्मदा जल में खड़ी चट्टानें भी उनकी संगति में पूण्‍यता को प्राप्त होती है। यह संगमरमर की चट्टानें जब चांद आता है, तो चांद सी चमक उठती हैं और सूरज के सानिध्य में तप उठती हैं। सतपुड़ा की संगमरमर की चट्टानों पर गिरकर नर्मदा प्राकृतिक सुंदरता का अनूठा दृश्य प्रस्तुत करती है। इस स्थान पर उसका रूप तथा वेग उसके यौवन का प्रतीक माना जाता है। ओमकारेश्वर एवं महेश्वर नामक नगर इसके तट पर बसे हुए हैं। यहां ऊपरी किनारे पर अनेक मंदिर महल एवं स्नानघाट भी बने हुए हैं। नर्मदा की लहरों की कलकल करती हुई आवाज़ यात्रियों को बहुत ही प्रसन्न और उत्साह का बोध कराती है। इसके बाद नर्मदा भरूच पहुंचकर अंत में खम्‍भात की खाड़ी में जा मिलती है।

    नदी का केवल प्राकृतिक सौन्‍दर्य ही नहीं बल्कि आध्यात्मिक सौन्‍दर्य भी बहुत है, लोग इसके जल को पवित्र मानकर इसमें स्नान करने आते हैं, विभिन्न धार्मिक कृत्यों में उपयोग करते हैं, नर्मदा मध्य प्रदेश की जीवन रेखा कही जाती है। मध्य प्रदेश के निवासी इसे गंगा से भी अधिक पवित्र मानते हैं। इसकी मान्यता है कि हर वर्ष एक बार गंगा स्वयं काली गाय का रूप लेकर इसमें स्नान करने आती है और श्वेत हो कर चली जाती है। धार्मिक मान्यता के अनुसार विश्व में प्रत्येक शिवमंदिर में इसी दिव्य नदी के नर्मदेश्वर शिवलिंग विराजमान हैं, जिनकी प्राणप्रतिष्ठा की आवश्यकता नहीं होती है। गंगा में स्नान से पुण्य की प्राप्ति होती है परंतु नर्मदा के दर्शन से ही व्यक्ति के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं ऐसी यहां की मान्यता है।, नर्मदा घाट पर भक्तों का स्नान करना, अर्पण -तर्पण करना अत्यंत मनोहारी लगता है। रात्रि के समय नर्मदा की आरती व भक्तों द्वारा दीपदान देखने के लिए हजारों श्रद्धालु नर्मदा तट पर आते हैं। नर्मदा के दर्शन करके स्वयं को धन्य मानते हैं इन्हीं कारणों से नर्मदा को केवल नदी ही नहीं मोक्षदा भी कहा जाता है।

प्रश्‍न - 4 ‘मेरे सहयात्री संस्मरण का सारांश अपने शब्दों में व्यक्त कीजिए अथवा संस्मरण के आधार पर बिगड़ जी के से यात्रियों पर संक्षिप्त निबंध लिखिए

उत्‍तर-

    मेरे सहयात्री संस्मरण श्री अमृतलाल वेगड़ द्वारा अपनी नर्मदा पदयात्रा के बारे में लिखा गया है। इसमें एक यात्रा का वृतांत है। जिसमें लेखक के द्वारा बताया है कि जब 1980 में वह नर्मदा परिक्रमा कर रहे थे तो उनको एक 75 वर्षीय एक बुजुर्ग मिला था जो कि नर्मदा की जिहलरी परिक्रमा कर रहा था। उस समय उनकी उम्र में उनकी ऐसी कठिन पदयात्रा से लेखक अत्यधिक प्रभावित हुए और उन्होंने सोचा कि मैं भी जब 75 वर्ष का हो जाऊंगा तो नर्मदा पदयात्रा पर जरूर आऊंगा। 3 अक्टूबर 2002 को लेखक 75 वर्ष में प्रवेश कर गए थे तब इसी समय उनकी अपनी प्रथम नर्मदा पदयात्रा के 25 वर्ष भी पूरे हुए थे, इस कारण उन्होंने उनकी स्मृति में पुनः नर्मदा पदयात्रा पुनरावृति यात्रा पर जाने की योजना बनाई थी।

    लेखक अपनी धर्म पत्नी कांता अपने बेटे के साथ पढने वाले लडके अशोक तिवारी, मुंबई के चार लोग रमेश शाह एवं उनकी पत्नी हंसा, पुत्र संजय और इस परिवार के एक अभिन्न मित्र गार्गी देसाई, दिल्ली के अखिल मिश्र, मंडला के अरविंद गुरु और उनकी पत्नी मंजरी, तीन गोंड सेवक फगनू, घनश्याम तथा गरीबा को साथ लेकर अपनी पुनरावृत्ति यात्रा पर निकले।

    वे अपने घर से पहले मंडला, फिर वहां से 20 किलोमीटर दूरी पर पहाड़ी पर स्थित गुरु स्थान पर गए रात वहीं पर गुजार कर 7 अक्टूबर 2002 को नर्मदा पर बने मनोट के पुल पर आकर उन्होंने वहीं से नर्मदा के दर्शन करके नर्मदे हर शब्‍द कहते हुए उनकी यह नर्मदा पदयात्रा शुरू की।

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