क्या आप इस मत से सहमत है की गुप्तकाल एक स्वर्णिम युग मा? - kya aap is mat se sahamat hai kee guptakaal ek svarnim yug ma?

इस प्रकार अशोक ने सभी धर्मों के मुख्य नैतिक सिद्धान्तों का संग्रह किया और उन्हें साधारण लोगों तक पहुँचाया ताकि वे उस पर चलकर अपना लोक और परलोक सुधार सकें।


Q.22. अशोक धर्म के प्रमुख सिद्धान्त क्या थे ?

Ans ⇒अशोक के धर्म के प्रमुख सिद्धान्त –

1. बड़ो का आदर (Elder’sregards) – अशोक ने अपने शिलालेख में लिखा है कि माता पिता, अध्यापकों और अवस्था तथा पद में जो बड़े हों उनका उचित आदर करना चाहिए और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए।

2. छोटों के प्रति उचित व्यवहार (Proper behaviour with youngers) – बड़ों को अपने से छोटों के प्रति प्रेमभाव रखना चाहिए और उनसे दया तथा नम्रता का व्यवहार करना चाहिए।

3. सत्य बोलना (Speak truth) – मनुष्य को सदा सत्य बोलना चाहिए। दिखावे की भक्ति से सत्य बोलना अधिक अच्छा है।

4. अहिंसा (Non-violence) – मनुष्य को मन, वाणी और कर्म से किसी जीव को द:ख नहीं देना चाहिए।

5. दान (Donation) – अशोक के धर्म में दान का विशेष महत्त्व है। उसके अनुसार अज्ञान के अंधकार में भूले-भटके लोगों को धर्म का दान करके प्रकाश में लाना सबसे उत्तम दान है।

6. पवित्र जीवन (Pure Life) – मनुष्य को पाप से बचना चाहिए और पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए।

7. शभ कार्य (Pure Action) – प्रत्येक मनुष्य बुरे कर्म का बुरा और अच्छे कर्म का अच्छा फल प्राप्त करता है। इसलिए उसे शुभ कर्म करने चाहिए ताकि उसका लोक और परलोक सुधरे।

8. सच्चे रीति-रिवाज (True Rituals) – मनुष्य को झूठे रीति-रिवाजों, जादू-टोना, व्रत तथा अन्य दिखावों के जाल में नहीं फंसना चाहिए। उसे पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए; बड़ों का आदर करना चाहिए तथा उसे सत्य बोलना चाहिए। यही सच्चे रीति-रिवाज हैं।

9. धार्मिक सहनशीलता (Religious Tolerance) – मनुष्य को अपने धर्म का आदर करना चाहिए लेकिन दूसरे धर्मों की निन्दा नहीं करनी चाहिए।
इस प्रकार अशोक ने सभी धर्मों के मख्य नैतिक सिद्धान्तों का संग्रह किया और उन्हें साधारण लागो तक पहुँचाया ताकि वे उस पर चलकर अपना लोक और परलोक सुधार सकें।


Q.23. अशोक ने बौद्ध-धर्म के प्रसार में क्या योगदान दिया ?

Ans ⇒ अशोक के बौद्ध-धर्म के प्रसार में निम्नलिखित योगदान दिया –

(i) अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद 265 ई० पू० में बौद्ध धर्म ग्रहण किया था। उसने अ पुत्र महेन्द्र, पुत्री संघमित्रा तथा स्वयं को इस धर्म के प्रचार में लगा दिया था।
(ii) उसने सम्राट होकर भी भिक्षुओं जैसा जीवन बिताया। उसने अहिंसा को अपनाकर शिकार करना, माँस खाना छोड़ दिया था। उसने राजकीय वधशाला में पशु-वध पर रोक लगा लगा दी थी। जनता राजा के आदर्शों पर चलती थी।

(iii) उसने बौद्ध धर्म के नियम स्तम्भों, शिलालेखों आदि पर खुदवाकर ऐसे स्थानों पर लगवा थे कि जहाँ से जनता देखकर उन्हें पढ़ सके और तत्पश्चात् अमल करे।

(iv) उसने लगभग 84000 बौद्ध विहारों और 48000 स्तूपों का निर्माण कराया। यह मुख्य ख्य नगरों में स्थापित किये।

(v) उसने कई धार्मिक नाटकों का आयोजन किया जिनमें बौद्ध धर्म पर आचरण करने पर वर्ग की प्राप्ति दिखाई गई थी। अत: बौद्ध धर्म को ग्रहण करने के लिये जनता प्रेरित हुई।

(vi) बौद्ध धर्म के मतभेदों को दूर करने के लिये अशोक ने 252 ई० पू० में एक विशाल सभा का आयोजन किया था, जिससे लोग इस धर्म की ओर आकर्षित हुए। सम्राट अशोक स्वय बौद्ध तीर्थों-सारनाथ, कपिलवस्तु एवं कूशीनगर गया। रास्ते में उसने बौद्ध धर्म का प्रचार किया। उसने धर्म महापात्रों की नियुक्ति की, जो देखते थे कि लोग इस धर्म का पालन कर रहे हैं या नहीं।

(vii) जन साधारण तक बौद्ध धर्म की शिक्षाओं को पहँचाने के लिये पालि भाषा में शिलालेख और बौद्ध साहित्य का अनुवाद कराया था। उसने बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, गंधार, चीन, जापान, सीरिया श्रीलंका व मिस्र आदि देश में भिक्षु भेजे।

(viii) सम्राट ने सम्पूर्ण राजकीय तंत्र बौद्ध धर्म के प्रचार में लगा दिया। सार्वजनिक समाराहा को रोककर उनके स्थान पर बौद्ध उत्सव मनाने प्रारंभ कर दिये। उसने नाचने-गाने तथा मद्यपान पर रोक लगा दी थी तथा लोगों को नैतिक जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दी।


Q.24. मौर्य साम्राज्य के पतन के कारणों पर प्रकाश डालें। अशोक इसके लि तक उत्तरदायी था ?

Ans ⇒ मौर्य साम्राज्य का पतन साम्राज्यों की तुलना में बहत ही शीघ्र हो गया। जिस साम्राज्य की नींव चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने खून-पसीने से डाली थी और सम्राट अशोक ने बुलन्द महलों का निर्माण किया था। परन्तु उसके मरने के साथ ही उसका पतन होना शुरू हो गया, जो वास्तव में एक आश्चर्य की बात है। मौर्य साम्राज्य के पतन के निम्नलिखित प्रमुख कारण हैं –

1. विघटनात्मक प्रवृत्ति – मौर्य साम्राज्य के पतन के यों तो बहुत से कारण हैं परन्तु साम्राज्य की विघटनात्मक प्रवृत्ति सबसे महत्त्वपूर्ण है। अशोक के समय तक तो यह साम्राज्य ठोस बना रहा परन्तु उसके आँख मूंदते ही यह साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने लगा। उसकी नींव की एक-एक ईंट हिल-हिल कर गिरने लगी और एक दिन ऐसा आया कि सारा बुलन्द महल भरभरा कर पतन के गडढे में गिर पडा। अर्थात् उसका एक-एक प्रान्त इससे निकलने लगा और स्वतंत्र होकर इस साम्राज्य की नींव को खोदने लगा। कश्मीर के प्रसिद्ध इतिहासकार कल्हण के शब्दों में “स्वयं अशोक का दूसरा पुत्र कश्मीर का स्वतंत्र शासक हो गया था और कन्नौज तक के प्रदेशों को हस्तगत कर लिया था। तारानाथ के अनुसार, वीरसेन नामक अशोक का उत्तराधिकारी गंधार में स्वतंत्र हो गया था। कालिदास के मालविकाग्निमित्र से ज्ञात होता है कि विदर्भ भी दस साल से अलग हो गया था। कलिंग भी एक दिन स्वतंत्र हो गया। इन सबों की देखा-देखी साम्राज्य को बहत से प्रदेश हाथ से निकल गए। अशोक के उत्तराधिकारी इस विकेन्द्रीयकरण की प्रवत्ति को रोक नहीं सके जिसके फलस्वरूप मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया।

2. साम्राज्य की विशालता – चन्द्रगुप्त मौर्य और अशोक के प्रयत्नों के फलस्वरूप मौर्य साम्राज्य विशाल हो गया था। केन्द्र में इसकी राजधानी भी नहीं थी जिससे शासन काल पर नियंत्रण करने में बडी असविधा होती थी, क्योंकि आवागमन के साधनों का विकास भी नहीं हआ था। दक्षिण भारत पर नियंत्रण रखने में अशोक के उत्तराधिकारियों को बहत दिक्कत हो रही । में वे इसके पतन को रोकने में सफल नहीं हो सके।

3. प्रांतीय शासकों ने प्रजा के साथ अच्छा बर्ताव नहीं किया – दूर दूर के प्रान्तों में कर्मचारियों तथा पदाधिकारियों का प्रजा के साथ बर्ताव अच्छा नहीं था। वे लोग जनता को हर तरह से कष्ट दिया करते थे। अंत में विवश होकर जनता विद्रोही हो गयी थी। जैसे- बिन्दुसार के शासन काल में जनता उसके मंत्रियो के विरुद्ध विद्रोह कर बैठी थी जो दबाते न दबता था। अंत में अशोक ने वहां जाकर उस विद्रोह को दबाया था। अशोक के शासन काल में भी शामिल तक्षशिला में इस तरह का विद्रोह हुआ था जिसको अशोक के पुत्र कुणाल ने जाकर दबाया था। अशोक के इस तरह के विद्रोह को दबाने के लिए किसी में ताकत नहीं रह गयी थी। अतः यह साम्राज्य के पतन का एक प्रमुख कारण बना।

4. अशोक की अहिंसा की नीति – कुछ इतिहासज्ञों का यह मत है कि अशोक की नीति से भी मौर्य साम्राज्य का पतन हुआ। क्योंकि इस नीति के फलस्वरूप साम्राज्य की सैनिक शक्ति नष्ट हो गई। जब केन्द्रीय-शक्ति कमजोर हो गई तब प्रांतों के शासन स्वतंत्र होने लग गए। ऐसी परिस्थिति में ही पश्चिमोत्तर प्रदेश में बैक्ट्रिया के यवनों का भयंकर आक्रमण हआ। इसमें भी यह साम्राज्य पतनोन्मुख हुआ।

5. अत्यधिक दान देने की प्रवृत्ति – कहा जाता है कि अशोक की दान देने की नीति से भी मौर्य साम्राज्य का पतन हुआ क्योंकि अत्यधिक दान से शाही खजाना खाली पड़ गया था। जिससे साम्राज्य की आर्थिक स्थिति नाजुक हो गयी थी। सैनिकों का वेतन समय पर नहीं दिया जा रहा था। इतना ही नहीं, एक जगह पर यह भी कहा गया कि अशोक को दान देने की नीति के फलस्वरूप ही राज्य छोड़ देना पड़ा था। इसके बाद मौर्य साम्राज्य का पतन होने लगा।

6. अंत:पुर और राजदरबारियों का षड्यंत्र – अंत:पुर और दरबारियों के षड़यंत्र से मौर्य साम्राज्य को बहुत बड़ा धक्का लगा। स्वयं अशोक की अनेक रानियाँ तथा अनेक पुत्र दिन-रात षड्यंत्र रचा करते थे। राजा वृहद्रथ के शासन काल में तो साम्राज्य की शक्ति दो दलों में बँट गयी थी। एक दल का प्रधान सेनापति और दूसरा दल था प्रधान सचिव थे। इन दलों में हमेशा टक्कर होती रहती थी। फलतः साम्राज्य की शक्ति बहुत कम हो गयी। राजा वृहद्रथ इसमें सुधार नहीं ला सका। मौका पाकर उसी के समय में पुष्यमित्र शुंग ने सम्राट का कत्ल कर साम्राज्य पर अधिकार कर लिया।

7. अशोक की धार्मिक नीति – अशोक के धार्मिक नीति के कारण हिन्दुओं में उसके विरुद्ध विद्रोह की भावनाएँ उठने लगी। क्योंकि वे लोंग बौद्ध धर्म की उन्नति और हिन्दू धर्म की अवनति को नहीं देखना चाहते थे। इसलिए उनमें बौद्ध धर्म के प्रति द्वेष हो गया। वे लोग मौर्य साम्राज्य को ही नष्ट कर देने की बात सोचने लगे और अंत में मौर्य साम्राज्य को पतन के गड्ढे में धकेल कर ही दम लिया।

8. विदेशी आक्रमण – जब उपरोक्त कारणों से मौर्य साम्राज्य कमजोर हो गया तो विदेशियों की दृष्टि इस पर पड़ी और इस पर बहुत से विदेशी आक्रमण हुए। मौर्य साम्राज्य के अंतिम दिनों में यूनानी और बैक्टिरियन राजाओं की चढ़ाई हुई जो मौर्य साम्राज्य के लिए हितकर न हुई।

9. गुप्तचर विभाग में संगठन का अभाव – अशोक के शासन काल से ही गुप्तचर विभाग में शिथिलता आ गई थी। साम्राज्य को सुन्दर ढंग से चलाने के लिए एक सुसंगठित गुप्तचर विभाग की आवश्यकता होती है क्योंकि इसके अभाव में सम्राट को गुप्त बातों की जानकारी नहीं हो सकती। जगह-जगह पर षड्यंत्र रचा जा सकता है। अतः सम्राट गुप्तचर विभाग की मदद से षडयंत्रों से बचा करता है। परन्तु अशोक के शासन काल में ही यह विभाग अस्त-व्यस्त हो चुका था और उसके उत्तराधिकारी इस ओर ध्यान नहीं दे सके। जिसके फलस्वरूप मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया।

10. सेना विभाग की उदासीनता – साम्राज्य में अहिंसा की नीति से सैन्य बल कमजोर पड़ गया। सेना का स्तर बहुत नीचे गिर गया। लेकिन उस समय सैन्य बल की पुकार थी क्योंकि साम्राज्यवादी नीति जोर पकड़ रही थी। परन्तु कलिंग युद्ध के बाद अशोक ने सैनिकों के अस्त्र-शस्त्र पर पाबन्दी लगा दी गई थी। फलतः मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया।


Q.25. साँची स्तूप से संबंधित ऐतिहासिक तथ्यों का विवरण दीजिए। – अथवा, साँची स्तप की मतियों के बारे में दी गई सूचनाओं का उल्लेख कीजिए। इतिहासकारों ने इसका कैसे उल्लेख किया है ?

Ans ⇒ साँची का स्तूप (The Sanchi Stupa) – साँची का स्तूप मध्यप्रदेश में विदिशा के पास स्थित है। साँची का स्तप और निकट के एकाश्म स्तंभ द्वारा बनाय गए थे। शुंग काल में स्तूप के आकार में वद्धि की गई तथा कई नवीन निर्माण किये गये। अशोक के काल में यह स्तुप ईंटों का गया था। शुंगकाल में उस पर पाषाण की शिलाओं का आवरण लगाया गया। स्तूप के चारों ओर 16 फीट ऊँची मेधी या चबूतरे का निर्माण किया गया। इसमें दक्षिण की ओर
सीढियों का सोपान निर्माण किया गया। स्तूप के चारों ओर एक वर्गाकार वेदिका का भी निर्माण किया गया। शुंग काल में स्तूप का आकार दुगुना हो गया था। अब यह 54 फीट ऊँचा, 120 फीट व्यास का है।
वेदिका की चारों दिशाओं में चार तोरण द्वारों का निर्माण किया गया है। प्रत्येक तोरण दो सीधे खड़े वर्गाकार स्तंभों की सहायता से बना है। इन स्तंभों में पाषाण की तीन समानांतर और मेहराबदार बेड़ियाँ लगायी गयी हैं। तोरण द्वार की कलात्मकता उच्च कोटि की है। दोनों स्तंभों के शीर्ष पर चार सिंह, बैलों की मूर्तियों को बनाया गया है।
साँची के तोरण द्वार अधिक अलंकृत हैं। साँची की वेदिका सादी और अलंकरण रहित है। इसलिए सादी वेदिका की पृष्ठभूमि में अलंकृत तोरण प्रभावशाली प्रतीत होता है। स्तंभों की चौकियों पर शाल मंजिकाओं की मूर्तियाँ बनाई गई हैं।
तोरण पर बुद्ध के जीवन की घटनाओं तथा जातक कथाओं के चित्रों को अंकित किया गया है। डेरियों पर सिंह, हाथी, धर्म चक्र, यक्ष तथा विरल के प्रतीक चित्र उत्कीर्ण किये गये हैं। स्तंभों के निचले भागों में द्वारपाल यक्षों की मुर्तियाँ उत्कीर्ण की गई हैं। स्तंभ तथा नीचे की डेरी के बाहरी कोनों में शाल मंजिकाओं की मूर्तियाँ बनाई गई हैं। उनके अंग-प्रत्यंगों का अत्यंत आकर्षक अंकन किया गया है। सबसे ऊपर की बड़ेरी के मध्य में धर्मचक्र त्रिरत्न के लक्षण हैं। धर्मचक्र के दोनों ओर चामर लिए यक्ष मूर्तियाँ हैं।

स्तूप के सबसे ऊपर शीर्ष पर हर्मिका, याष्टिदंड तथा त्रिछत्र बने हैं। साँची के तोरण पर पाँच जातक कथाओं के चित्र पहचाने गये हैं। ये जातक कथाएँ हैं-छद्दंत जातकं, महाकपि जातक, वेस्संतर जातक, अलंबुसा जातक, साम जातक। बुद्ध के जन्म, संबोधि, प्रथम प्रवचन, परिनिर्वाण का प्रदर्शन संकेतों के द्वारा किया गया है। माया का गर्भधारण, रथयात्रा, महाभिनिष्क्रमण, सुजाता की भेंट, मार द्वार प्रलोभन आदि बुद्ध के जीवन की घटनाओं के चित्रों को भी उत्कीर्ण किया गया है। कुछ सांसारिक जीवन के दृश्य तथा पुष्पों का अंकन किया गया है।
उपरोक्त वर्णन साँची के मुख्य स्तूप का है। इसके अतिरिक्त दो लघु स्तूप भी मुख्य स्तूप के निकट हैं। कला की दृष्टि से मुख्य स्तूप अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं।

मूर्तियों का इतिहासकारों द्वारा ऐतिहासिक सृजन के लिए उपयोग (Use of Sculptures by Historians for Reconstruction of History) – बौद्ध की मूर्तियाँ मुख्यतः दो श्रेणियों में विभाजित की जाती हैं-मथुरा शैली और गांधार शैली। मथुरा शैली पूर्णतः भारतीय है। इसके विषय भगवान बद की प्राचीन पौराणिक कथाओं और जीवन से लिए गए हैं। ये प्रतिमाएँ मध्य भारत में अधिक संख्या में पाई जाती हैं। कुछ मूर्तियाँ गांधार शैली की हैं, जिनमें ईरानी, रोमन और भारतीय मूर्तिकला शैली की विशेषताएँ मिश्रित हैं। इस शैली में विषय तो मथुरा शैली की तरह पूर्णतः भारतीय है लेकिन अभिव्यक्ति की शैली, केश निखार यूनानी और ईरानी है।
इतिहासकारों ने बौद्ध प्रतिमाओं के माध्यम से बौद्ध कालीन भारतीय वस्त्रों, पजा के तरीकों बौद्ध धर्म से संबंधित अनेक तरह की बातों को लोगों के सामने रखा है। यह प्रतिमाएँ भारतीय मुर्ति कला की प्रगति और भव्यता को अभिव्यक्त करती हैं। उदाहरण के लिए अजंता में छा गई बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा उदासी, गंभीरता, आँखों से निकलते हुए आँसू आदि को प्रकट करती है।
कुछ बुद्ध प्रतिमाएँ विदेशों में मिली हैं। इतिहासकार इससे कुछ निष्कर्ष निकालते हैं जिनमें से निम्नांकित प्रमुख हैं –

1. बौद्ध धर्म प्रचार-प्रसार चीन, तिब्बत, भूटान, सिक्किम, श्रीलंका, अफगानिस्तान, मध्य । एशिया, मध्यपूर्व एशिया के देशों में हुआ।

2. इन प्रतिमाओं से बौद्ध धर्म के प्रचार क्षेत्र की जानकारी मिलती है।

3. बौद्ध धर्म की उपस्थिति भारतीय सांस्कृतिक उपनिवेशवाद और अन्तराष्ट्रीय सांस्कृतिक आदान-प्रदान होने की पक्की पुष्टि करती है।

4. भगवान बद्ध के बाद की अनेक देशों ने बौद्ध शिक्षाओं और बौद्ध ग्रंथों की तरह अपना धर्म आकर्षित किया और बौद्ध मठों और बौद्ध सभाओं में रुचि ली उसे किसी सीमा विभिन्न मूर्तियों ने बनने में अहम् भूमिका अदा की ऐसा विद्वान मानते और ऐतिहासिक साक्ष्य दर बात की पुष्टि करते हैं।


Q.26. Who were Kushans ? Discuss the achievements of Kanisk. ( कुषाण कौन थे ? कनिष्क प्रथम की उपलब्धियों की विवेचना करें।) अथवा, कनिष्क प्रथम की जीवनी एवं उपलब्धियों का विवरण दें।

Ans ⇒ कडफिसस द्वितीय ने 64-78 ई०के मध्य शासन किया। इसके पश्चात् सत्ता कनिष्क ग्रुप के शासकों के हाथों में आयी। कनिष्क प्रथम इस शाखा का सबसे महान शासक हुआ। वह एक साम्राज्य निर्माता, महान योद्धा, कला, धर्म एवं संस्कृति का संरक्षक माना जाता है। बौद्धधर्म के इतिहास में कनिष्क को विशिष्ट स्थान दिया गया है। अशोक के ही समान कनिष्क ने भी बौद्धधर्म को राज्याश्रय दिया। उनके प्रयासों से महायान बौद्धधर्म का मध्य एशिया में प्रसार हुआ।

कनिष्क की तिथि – कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि विवादग्रस्त है। भिन्न-भिन्न समय पर विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग तिथियाँ सुझायी हैं। अनेक विद्वान मानते हैं कि कनिष्क ने ही अपने राज्यारोहन के साथ 78 ई० में शक संवत आरम्भ किया। फ्लीट महोदय कनिष्क को विक्रम संवत् का संस्थापक ( 58 ई०पू०) मानते हैं। अन्य विद्वानों ने कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि क्रमश 125 ई०, 144 ई०, 248 ई०, 278 ई० माना है, परन्तु अधिकांश आधुनिक विद्वान यह स्वीकार करते हैं कि कनिष्क 78 ई० में गद्दी पर बैठा। उसने 23 या 24 वर्षों तक शासन किया (101-102 ई०)। उसके राज्यारोहण से ही शक संवत आरम्भ हुआ, जिसे भारत सरकार द्वारा भी व्यवहार में लाया जाता है।

कनिष्क की उपलब्धिया (Achievements of Kanishka)

साम्राज्य का विस्तार – कनिष्क एक महान योद्धा एवं साम्राज्य निर्माता के रूप में विख्यात है। उसने कुषाण राज्य का भारत में और अधिक विस्तार किया। कनिष्क के अभिलेखों उसके सिक्कों के प्राप्ति स्थानों एवं कतिपय साहित्यिक ग्रन्थों से उसके सैनिक अभियानों एवं साम्राज्य के विस्तार की जानकारी मिलती है। जिस समय कनिष्क गद्दी पर बैठा उस समय कुषाण साम्राज्य में अफगानिस्तान सिंध का भाग, बैक्ट्रिया एवं पार्थिया भी सम्मिलित थे। भारत में अपने राज्य का विस्तार उसने मगध तक किया। कल्हन की राजतरंगिणी से ज्ञात होता है कि उसने कश्मीर पर अधिकार कर कनिष्कपुर नगर (आधुनिक श्रीनगर के निकट काजीपुर) की स्थापना की। तिब्बती साहित्य में यह वर्णित है कि उसने अपनी सेना के साथ साकेत अयोध्या तक आक्रमण किया एवं साकेत के राजा को युद्ध में पराजित किया।
चीनी साहित्य (कल्पनामडितिका का चीनी अनुवाद ), अश्वघोष की रचनाओं और श्री धर्मपिटक सम्प्रदायनिदान से विदित होता है कि उसने मगध की राजधानी पाटलिपुत्र पर आक्रमण किया तथा वहाँ से वह प्रसिद्ध बौद्ध-विद्वान अश्वघोष और बुद्ध का भिक्षा-पात्र लेकर अपनी राजधानी पुरुषपुर या पेशावर (पाकिस्तान) लौट गया। उसने संभवतः उज्जैन के क्षत्रपों से भी युद्ध कर उन्हें पराजित किया तथा मालवा पर अधिकार कर लिया। कनिष्क ने भारत के बाहर मध्य एशिया में भी युद्ध किया। काशनगर, यारकंद और खोतान पर आधिपत्य जमाने के लिए उसे चीनी सम्राट हो-तो के महत्त्वाकांक्षी सेनापति पान-चाओ से दो बार युद्ध करना पड़ा। पहली बार युद्ध में कनिष्क पराजित हुआ, लेकिन दूसरी (पान-चाओ की मृत्यु के पश्चात्) वह चीनी सम्राट पर विजय प्राप्त कर सका। उसने सम्भवत: पार्थिया के राजा को भी युद्ध में पराजित किया। इस प्रकार मौर्य साम्राज्य के पश्चात् पहली बार एक विशाल साम्राज्य की स्थापना हुई जिसमें गंगा, सिन्धु और
ऑक्सस की घाटियाँ सम्मिलित थीं।’
कनिष्क की विजयों के परिणामस्वरूप कुषाण साम्राज्य अराल समुद्र से लेकर गंगा की घाटी तक फैल गया।
कनिष्क के अभिलेखों और उसके सिक्कों के प्राप्ति स्थानों से इस विशाल साम्राज्य की इस सीमा की जानकारी मिलती है। उसके अभिलेख पेशावर, कोशल, सारनाथ, मथुरा, सूई बिहार, जेद्दा तथा मनिक्याला से मिले हैं। साँची से भी एक अभिलेख मिला है। अभिलेखों के आधार पर कनिष्क के साम्राज्य की सीमा, पूर्व में बनारस से लेकर दक्षिण-पश्चिम में बहावलपुर तक निश्चित की गयी है मालवा सहित परन्तु सिक्कों के प्राप्ति स्थानों से पता लगता है कि पूर्व में बनारस के आगे भी उनका साम्राज्य था। बिहार में पाटलिपत्र, बक्सर, चिरांद और बक्सर की खदाइयों से कनिष्क के सिक्के मिले हैं जिनसे इन जगहों पर कुषाण आधिपत्य की पुष्टि होती है। कछ विद्वान दक्षिण भारत और बंगाल पर भी कनिष्क का आधिपत्य स्वीकार करते हैं, परन्त इसके लिए स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं।

प्रशासनिक व्यवस्था – साम्राज्य-विस्तार के साथ ही कनिष्क ने प्रशासनिक व्यवस्था की तरफ भी ध्यान दिया। विजित क्षेत्रों पर अपना प्रभाव जमाने के लिए उसने गौरवपूर्ण उपाधियाँ धारण की। चीनी एवं रोमन सम्राटों की ही तरह उसने देवपुत्र (Son of Heaven) और कसर (Cassar) की उपाधियाँ धारण की। उस समय में साम्राज्य की दो राजधानियाँ थीं-पुरुषपुर और मथुरा। कनिष्क ने प्रशासनिक सुविधा के लिए क्षेत्रीय प्रशासनिक व्यवस्था को लागू किया। सारनाथ से प्राप्त अभिलेख से ज्ञात होता है कि बनारस में खर-पल्लन एवं वनस्पर कनिष्क के महाक्षत्रप एवं क्षत्रप के रूप में शासन करते थे। पश्चिमोत्तर भाग में सेनानायक लल वेसपति एवं लियाक क्षत्रपों के रूप में शासन करते थे।

धार्मिक नीति – कनिष्क की महानता इस बात में भी निहित है कि विदेशी होते हुए भी उसने भारतीय धर्म में गहरी अभिरुचि ली। बौद्धधर्म से वह विशेष रूप से प्रभावित था। बौद्ध ग्रन्थों में कनिष्क को एक उत्साही बौद्ध के रूप में चित्रित किया गया। भारतीय इतिहास में बौद्ध धर्म को संरक्षण देने वाले शासकों में अशोक के पश्चात कनिष्क का ही नाम सबसे अधिक विख्यात है। अश्वघोष और मातृचेट जैसे बौद्धों के आकार उसने बौद्धधर्म स्वीकार कर लिया। बौद्ध विद्वान पार्श्व की सलाह पर उसने कश्मीर कुछ विद्वानों के अनुसार जालंधर में बौद्धों की चौथा महासंगीत का आयोजन किया। इस महासभा की अध्यक्षता वसुमित्र ने की। इस सभा का उद्देश्य विभिन्न बौद्ध विद्वानों में प्रचलित मतभेदों को दूर करना था। सभा करीब छह मास तक चली जिसमें लगभग 500 विद्वानों ने भाग लिया। अश्वघोष उस सभा का उपाध्यक्ष था। इस सभा में बौद्ध धर्म ग्रन्थों पर विस्तृत टीकाएँ लिखवायी गयौं तथा महाविभाग (बौद्ध-ज्ञानकोष) तैयार किया गया। इस परिषद ने महायान बौद्धधर्म को मान्यता दी। फलस्वरूप इस समय से महायान की प्रमुख बौद्धधर्म बन गया। कनिष्क ने अशोक की ही तरह बौद्धधर्म (महायान शाखा) के प्रसार के लिए अनेक कदम उठाये। उसने अनेक बौद्ध विहारों, चैत्यों एवं स्तूपों का निर्माण करवाया। उसने पेशावर (परुषपर) में एक बहुत ही भव्य स्तूप का निर्माण करवाया। बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए चीन एवं मध्य एशिया में धर्म-प्रचारक भी भेजे गये। यद्यपि कनिष्क स्वयं बौद्धधर्म को माननेवाला था, परन्तु उसने धार्मिक सहिष्णता की नीति अपनायी। इसका प्रमाण उसके सिक्कों पर अनुकृत बुद्ध के अतिरिक्त सर्य, शिव, अग्नि, हेराक्लीज-जैसे भारतीय यूनानी एवं ईरानी देवताओं की आकृतियाँ हैं। कल तास सिक्कों में उसे वेदि पर बलिदान चढ़ते हुए भी दिखलाया गया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि कनिष्क अपने राज्य में प्रचलित सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु था।

कला एवं साहित्य को संरक्षण – कनिष्क की उदारता से कुषाणकाल में कला एवं साहित्य की भी प्रगति हई। स्थापत्य और मूर्तिकला का विकास हुआ। कनिष्क ने पुरुषपुर में एक विशाल स्तूप का निर्माण करवाया जिसकी प्रशंसा चीनी यात्री ह्वेनसांग भी करता है। कश्मीर में उसने कनिष्क पर नगर की स्थापना की। तक्षशिला का नया नगर सिरसुख भी कनिष्क के समय में ही बना। कनिष्कयगीन स्थापत्य का एक सुन्दर नमूना मथुरा का देवकुल और नाम मन्दिर है . बौद्धधर्म के विकास ने मर्तिकला को भी प्रभावित किया। गांधार और मथुरा की विशिष्ट शैलियों म बुद्ध की सुन्दर मूर्तियाँ बनायी गयीं। कुषाण (कनिष्क) कालीन सिक्के भी कला की महत्त्वपूर्ण हैं। कनिष्क ने विद्वानों को समुचित सम्मान प्रदान किया। उसके दरबार में पार्श्व र नागार्जुन जैसे प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान एवं दार्शनिक थे।


Q.27. समुद्रगुप्त की जीवनी और उपलब्धियों का वर्णन करें।

Ans ⇒ समुद्रगुप्त – पराक्रमांक के अध्ययन-स्रोत अनेक हैं। कौशाम्बी के अशोक समुद्रगुप्त की विस्तृत प्रशस्ति अंकित है। हरिषेण-रचित प्रयाग-प्रशस्ति भी उल्लेखनीय है। की निम्नलिखित उपलब्धियाँ उल्लेखनीय हैं-

विजय – समद्रगप्त का राजनीतिक आदर्श दिग्विजय और भारत का राजनीतिक एकी था। इसके लिए उसने दिग्विजय की योजना बनायी। इस विजय-यात्रा में उसने आर्यावर्त । राजाओं तथा दक्षिणपथ के बारह नरेशों को परास्त किया, मध्यभारत के समस्त जंगल के राजा को अपना सेवक बनाया और सीमा प्रदेश के शासकों तथा गणराज्यों को कर देने के लिए बार किया। दूर देशों के नरेशों ने उससे मित्रता स्थापित की। प्रयाग-प्रशस्ति में उसकी विजयों का वर्णन कई स्थलों पर किया गया है, पर इसके आधार पर तिथिक्रम के संबंध में कुछ कहना असंभव है। समुद्रगुप्त के विजय-कार्य का वर्णन निम्नलिखित है-

1. आर्यावर्त की विजय – विन्ध्य तथा हिमालय के बीच के क्षेत्रों को आर्यावर्त कहते थे । समुद्रगुप्त ने समस्त उत्तरी भारत के राजाओं को परास्त कर उनके राज्यों को अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया। प्रयाग-प्रशस्ति में आर्यावर्त के नौ राजाओं के नाम इस प्रकार हैं -रुद्रदेव, मतिल, नागदत्त, चन्द्रवर्मन, गणपतिनाग, नागसेन, अच्युत, नन्दि और बलवर्मा। प्रारम्भ में समुद्रगुप्त के दो प्रबल शत्रु थे-पाटलिपुत्र का कोटकुल और मथुरा तथा पद्मावती के नागवंश, जो कोटकल के सम्बन्धी थे। जिस समय समुद्रगुप्त पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर रहा था, संभवतः उसी समय पीछे से अच्युत और नागसेन नामक राजाओं ने उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया। समुद्रगुप्त ने पहले अच्युत और नागसेन को बुरी तरह से पराजित किया और तब आसानी से कोटकुल का विनाश कर पाटलिपुत्र में प्रवेश किया। आर्यावर्त में उसे दो बार अपना अभियान चलाना पड़ा। उसने प्रथम अभियान में अच्युत और नागसेन को पराजित किया। दूसरे, आर्यावर्त के युद्ध में उसने शेष राज्यों को बलपूर्वक समाप्त करके अपने साम्राज्य में मिला लिया। प्रथम अभियान में अच्युत, नागसेन और कोटवंशी शासक और दूसरे अभियान में गणपतिनाग, चन्द्रवर्मन, रुद्रदेव आदि शासक पराजित हुए और उनके राज्य गुप्त साम्राज्य में मिला लिये गये।

2. आटविक-नरेश – फ्लीट के अनुसार, आटविक़-नरेश गाजीपुर से लेकर जबलपुर तक फैले हुए थे। आटविक राज्यों की संख्या 18 थी। इस क्षेत्र को ‘महाकान्तार’ भी कहा गया है। डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी इसे मध्यभारत का जंगल मानते हैं रामदासजी ने इसे जबलपुर से छोटानागपुर तक का झारखण्ड का क्षेत्र माना है। समुद्रगुप्त ने आटविक के नरेशों को पराजित किया।

3. दक्षिण-भारत – दक्षिण-विजय के सम्बन्ध में इतिहासकारों में बड़ा मतभेद है। के. पी. जायसवाल और प्रो० डूब्रेल का अनुमान है कि कोलेरू तालाब के किनारे दक्षिणी नरेशों ने समुद्रगुप्त से युद्ध किया। इसका नेतृत्व केरल के मण्टराज और काँची के विष्णुगोप ने किया। पराक्रमी विजेता संमुद्रगुप्त ने समस्त दक्षिणी राजाओं को पराजित किया, परन्तु उसने राज्यों को गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित नहीं किया। उसने विजित प्रदेश स्थानीय शासकों को लौटा दिया तथा अपने छत्रछाया में उन्हें राज्य करने की आज्ञा दी। दक्षिणापथ के पराजित राजाओं की नामावली इस प्रकार हैं-
कोशल का महेन्द्र – इसमें महाकोशल, विलासपुर, रायपुर और संभलपुर के जिले सम्मिलित थे ।

महाकांतार का व्याघ्रराज – व्याघ्रराज महाकान्तार का शासक था।     

केरल का मण्टराज – संभवतः यह प्रदेश गोदावरी तथा कृष्णा के बीच कोलेरूकासार है।

पैण्ठपुर का स्वामीदत्त – पिष्टपुर, महेन्द्रगिरी और कोटूर का शासक स्वामी दत्त था।

एरण्डपल्लक दमन – यह स्थान गंजाम जिले में चिकाकोल के समीप एरण्डपल्ली में है।

कांचेयक विष्णुगोप – विष्णुगोप कांची का शासक था। मद्रास के निकट कांजीपुरम ही कांची है।

आवमुक्तक नीलराज – इसकी राजधानी गोदावरी के निकट पिथुण्डा थी।

 

वैगेयक हस्तिवर्मा – हस्तिवर्मा वेंगी का राजा था। यह स्थान नेलोर जिले में है।

दैवराष्ट्रक कुबेर – राजा कुबेर देवराष्ट्र स्थान का था। यह स्थान विजिगापत्तम जिले का लमचि है।

कोस्थलपुरम धनंजय – कोस्थलपुर का शासक धनंजय था। वह स्थान उत्तर आकटि का कट्टलुर है।

प्रयाग – प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त आटविक राज्यों को जोतकर मध्यप्रदेश में पहुँचा और वहाँ से महाकोशल तथा महाकान्तार के मार्ग से होता हआ कलिंग के समाप उसन समस्त नरेशों को पराजित किया। दक्षिण-पर्व के प्रदेशों को अपने अधीन करते हुए उसने काचा पर आक्रमण किया। दक्षिण में उसका प्रभाव चरराज्य तक पहँच गया। डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी के अनसार, “वह महाराष्ट्र तथा खानदेश के रास्ते अपनी राजधानी लौट आया।”
दक्षिणी राजाओं के साथ समुद्रगुप्त ने धर्मविजय-नीति का अवलंबन किया। उसने इन राजाओं को पराजित करने के बाद उनका राज्य फिर उन्हीं को लौटा दिया। उन लोगों ने समुद्रगुप्त का आधिपत्य स्वीकार किया और वह उपहार तथा कर ग्रहण करके उत्तर भारत लौटा। दक्षिण क राज्य उसे कर, आज्ञाकरण और प्रणाम द्वारा प्रसन्न करने लगे। ।

4. प्रत्यन्त राज्यों (सीमावर्ती राज्यों) से सम्बन्ध – दक्षिणी राजाओं को परास्त करने के बाद सीमावर्ती राज्यों की विजय की गयी। इसमें पाँच भिन्न-भिन्न प्रदेशों के शासक. और ना गणराज्य थे। सीमान्त प्रदेशों ने समुद्रगुप्त को सर्वकर (सर्वनकर दान) दिये, उसकी आज्ञाओं का पालन (आज्ञाकरण) किया, स्वयं उपस्थित होकर प्रणाम (प्रणामकरण) किया और उसके सुदृढ़, शासन को पूर्णतः परितुष्ट किया। ऐसे राज्य निम्नलिखित थे –

समतट – पूर्वी सीमा के राज्य ( समुद्र तक विस्तीर्ण पूर्वी बंगाल )।
कामरूप – असम का गौहाटी जिला। डवाक-नौगाँव जिला।
नोपाल और कर्तुपुर – कुमायूँ, गढ़वाल और रुहेलखंड के पर्वतीय राज्य। गणराज्यों में निम्नलिखित प्रमुख हैं-
मालवा – अमेर, टोंक, मेवाड़।
आर्जुनायन – अलवर, मूर्वी जयपुर।
यौधेय – जोहियावार।
मद्र – रावी – चिनाव के बीच का प्रदेश।
आभीर – सुराष्ट्र, मध्य भारत।
आर्जन – मध्य प्रदेश के नरसिंपुर के पास का क्षेत्र।
सनकानिक – भिलसा के पास के क्षेत्र।
खरपरिक – मध्यप्रदेश में दमोह के पास।

उपर्युक्त नौ गणराज्यों ने स्वयं समुद्रगुप्त के प्रति आत्म-समर्पण कर दिया।

विदेशी राज्यों से सम्बन्ध – सिंहल और समुद्रपार के द्वीपों के साथ समुद्रगुप्त ने इन शर्तों पर सेवा और सहयोग की संधियाँ की-आत्मनिवेदन (मैत्री के प्रस्ताव), कन्योपायन (राजमहल में सेवा के लिए कन्याओं का उपहार), दान (स्थानीय वस्तुओं की भेंट) एवं उनकी स्वायत्तता और सुरक्षा (स्वविषयमुक्ति) को प्रमाणित करनेवाली मुद्रांकित सनदों का याचना। विदेशी राज्यों में दैवपुत्रशाही शाहानुशाही, शक, मुरुण्ड, सिंहल और हिन्दमहासागर के असंख्य छोटे-छोटे दी और दवपुत्रशाही शाहानशाही उत्तर-पश्चिम में शासन करनेवाले कुषाण थे। शक उत्तर-पश्चिम जाति का नाम था। सिंहल के राजा मेघवर्मन ने समुद्रगुप्त की राजसभा में उपहारसहित एक दतमंडल भेजकर बोधगया में यात्रियों के ठहरने के लिए एक मंदिर का इससी और समाप्त ने उसे मंजर भी किया था। फाहियान को जावा में एक सम्पन्न। हिन्दू-उपनिवेश देखने को मिला था। इस प्रकार, समुद्रगुप्त ने एक विस्तृत साम्राज्य का निर्माण किया। उसने आर्यावर्त, दक्षिणापथ, आटविक राज्यों, प्रत्यन्त-नृपति और द्वीपों के नरेशों पर विजय प्राप्त की, लेकिन समस्त विजित देशो को अपने अधिकार में नहीं किया। विभिन्न देशों के प्रति उसकी विभिन्न नीति थी । सुदूर देशो में उसने मैत्री की, दक्षिण के शासकों को अपनी छत्रछाया में रखकर उन्हें स्वतंत्र और आर्यावर्त तथा आटविक राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला उसका साम्राज्य उत्तरी भारत तथा मध्य भारत तक विस्तृत था। बिहार से कांजीवरम त राजाओं और गणराज्यों को पराजित कर उसने विदेशी शासकों के भी दाँत खटले द्वीपान्तरों में अपना प्रभाव फैलाया। अपनी दिग्विजय के फलस्वरूप उसने अश्वमेघ आयोजन किया। इस यज्ञ में दान देने के लिए उसने सोने के सिक्के भी ढलवाये। सिक्कों पर अश्वमेघ पराक्रम लिखा हुआ है।
समुद्रगुप्त के विजय-अभियानों को देखते हुए इतिहासकार विश्व ने उसे भारतीय नेपोलियन कहा है।


Q.28. Why has the Gupta period been called the golden age of Indian History? (गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग क्यों कहा जाता है ?) Or, Examine the cultural development in India under the Gupta.अथवा, (गुप्तों के अधीन भारत की सांस्कृतिक प्रगति की विवेचना करें।)

Ans ⇒ गुप्तकाल प्राचीन भारतीय इतिहास का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण युग माना जाता है। यह युग सिर्फ राजनीतिक एकता एवं प्रशासन के लिए ही महत्त्वपूर्ण नहीं है बल्कि सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से भी यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण काल है। इस समय कला, साहित्य, विज्ञान; धर्म की अभूतपूर्व वृद्धि हुई। फलस्वरूप अनेक विद्वानों ने इसे प्राचीनकाल का स्वर्णिम युग (The Golden Age) की संज्ञा दी है। अनेक विद्वानों ने इसकी तुलना यूनान के परीक्लीज युग तथा रोम के ऑगस्टस युग से की है। इसे अभिजात्य युग (Classical Age) भी कहा जाता है। नि:संदेह इस युग में सांस्कृतिक प्रगति अधिक हुई, परन्तु यह प्रगति एक विशेष वर्ग के लिए ही थी। जनसाधारण के लिए यह काल सांस्कृतिक विकास का युग था, ऐसा नहीं कहा जा सकता है क्योंकि जनसाधारण के लिए इस प्रगति का कोई लाभ नहीं था। फलस्वरूप गुप्तकाल को स्वर्णयुग की संज्ञा देना उचित प्रतीत नहीं होता। फिर भी इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह काल सांस्कृतिक विकास का युग था, भले ही इसका लाभ किसी विशेष वर्ग के लिए सुरक्षित रहा हो। वास्तव में चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ आदि जैसे प्रतापी गुप्त शासकों ने देश के लगभग समस्त भाग में एकछत्र राज्य कायम कर राजनीतिक एकता के सूत्र में समस्त भारत को बाँध दिया। पूरे क्षेत्र पर एक जैसी सुदृढ़ प्रशासनिक व्यवस्था कायम की गयी। फलस्वरूप राजनीतिक अस्थिरता एवं अशांति का वातावरण समाप्त हो गया तथा सुख एवं शाति का साम्राज्य व्याप्त हो गया। इस अवस्था ने सांस्कृतिक विकास में काफी मदद पहुंचाई जिसक आधार पर विद्वान गुप्तकाल को प्राचीन भारत का स्वर्ण युग मानते हैं।
गुप्तकाल धार्मिक पुनरुत्थान का युग था। इस समय वैदिक धर्म या ब्राह्मण धर्म पराकाष्टा पर पहुँच गए। मूर्ति पूजा एवं मंदिरों का निर्माण भी इस युग में प्रारंभ हुआ। जैन एव बाल मतावलम्बी भी इस युग में थे। धार्मिक जीवन की प्रमुख विशेषता विभिन्न समुदाया मासा की भावना है। यूरोपीय देशों की तरह भारत में धर्म-युद्ध नहीं हुए बल्कि सभी धर्म वाल। कर एक-दूसरे के साथ रहते थे। ऐसी बात नहीं है कि इनमें आपसी प्रतिद्वन्द्विता नहा था , कभी भी व्यापक रूप नहीं ले सकी। इसी से एक प्रसिद्ध विद्वान ने कहा है- “The Gupta period was an age of catholicity, toleration and a goodwill.”
इस काल में शिक्षा एवं साहित्य की भी अभतपर्व प्रगति हुई। अभी भी मौखिक शिक्षण-संस्थान ही प्रचलित थे। विद्यार्थियों को वेद, वेदांत, पुराण, मीमांसा, न्याय, धर्म की शिक्षा मुख्यतया दी जाती थी। गुप्तकालीन अभिलेखों में 14 प्रकार की विद्या का उल्लेख किया गया है। वैज्ञानिक शिक्षा का भी प्रसार इस युग में हआ। अनेक शिक्षण केन्द्रों का स्थापना गुप्त काल में हो चुकी थी । पाटलिपुत्र, बल्लभी, उज्जयिनी, पद्मावती काशी, मथूरा, करा आदि इस समय के प्रख्यात शैक्षणिक केन्द्र थे। नालन्दा विश्वविद्यालय का भी विकास हो रहा था। राजाओं एवं धनी व्यक्तियों द्वारा इन शिक्षण-संस्थानों को धन एवं भूमि दान में दी जाती थी। कुमारगुप्त प्रथम, बुद्धगुप्त, तथागत गुप्त, बालादित्य आदि गुप्त शासकों ने नालन्दा महाविहार को अनुदान दिये। गुप्तकाल की साहित्यिक प्रगति विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस समय संस्कृत का समुचित विकास हुआ। संस्कृत प्रमुख भाषा बन गई। इसका व्यवहार अभिलेखों एवं मुद्राओं में भी होने लगा। फलस्वरूप यह राजकीय माध्यम बन गयी। संस्कृत में ही काल के प्रमुख विद्वाना एक कवियों ने रचनाएँ लिखीं। इस युग में धार्मिक एवं धर्म-निरपेक्ष दोनों प्रकार की अनेक रचनाए लिखी गईं। इसी साहित्यिक प्रगति के चलते कुछ विद्वानों में गुप्तकाल को अभिजात्य युग कह कर पुकारा है।
हिन्द, बौद्ध एवं जैन सभी धर्मों के प्रमुख ग्रन्थों का रचना-काल गुप्त युग है। रामायण एव महाभारत इसी काल में परिवर्द्धित रूप में लिखे गये। अधिकांश पुराणों को भी संकलित एवं सम्पादित किया गया। नारद स्मृति इस काल की स्मृतियों में प्रमुख है। पंचतंत्र, मानसागर , आर्यभट्टीय, वृहज्जातक, समाकावली, कामंदकीय, नीतिशास्त्र, वात्स्यायन का कामसूत्र आदि का भी रचना काल यही है। बौद्ध एवं जैन साहित्य की भी इस समय प्रगति हुई है। बुद्धोष ने पट्टकथा का पालि भाषा में अनुवाद किया। असंग, दिङ्नाग एवं वसुबंधु ने दर्शन पर पुस्तकें लिखीं। इस युग के अन्य बौद्ध विद्वानों में कुमारजीव, बुद्धभद्र, धर्मरक्ष, गुपभद्र आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इन लोगों ने चीन में बौद्धधर्म एवं साहित्य का प्रचार किया। जैन रचनाओं में प्रसिद्ध स्थान जैन-आगम का है। जैन विद्वानों में सिद्धसेन, भद्रबाह द्वितीय और उमास्वाति प्रमुख है।
गुप्तकाल संस्कृत नाटकों एवं काव्यों की रचना के लिए विश्वविख्यात है। इनमें सर्वोच्च स्थान महाकवि कालिदास का है। मेघदूत उनकी अनुपम काव्यकृति है। इसमें एक प्रेमातुर यक्ष की व्याकुल मनोभावना का बड़ा सजीव चित्रण किया गया है। रघुवंश में राम की विजय का उल्लेख है। ऋतुसंहार में विभिन्न ऋतुओं का शृंगारिक वर्णन है। कालिदास की सर्वोत्तम कृति अभिज्ञानशाकुन्तलम् है। कालिदास के अतिरिक्त शुद्रक एवं विशाखदत्त इस युग के दूसरे महान् नाटककार हुए। शूद्रक ने मच्छकटिक एवं विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस एवं देवी चन्द्रगुप्त की रचना की। स्वप्नवासवदत्तम भी इसी समय लिखी गई। इस प्रकार संस्कृत साहित्य की प्रगति के दृष्टिकोण से यह काल अपूर्व है।

दर्शन : गुप्त युग दार्शनिक विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए भी प्रसिद्ध है। षडदर्शन का इस समय काफी प्रचार हुआ एवं यह भारतीय दर्शन की मुख्य विशेषता बन गयी है। भारतीय दर्शन के इतिहास में यह युग भाष्य रचनाकाल के रूप में प्रसिद्ध है। अनेक दार्शनिक ग्रंथों की रचना इस समय हुई। इनमें सांख्यशास्त्र, परमार्थ सप्तशती, न्याय, भाष्य, न्यायवर्तिका, पदार्थ-संग्रह इत्यादि प्रसिद्ध ग्रंथ है। जैमिनी-सूत्र, पूर्व-मीमांसा दर्शन, दर्शन के सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ हैं।
विज्ञान के क्षेत्र में गुप्तों की देन बहुमूल्य है। इस समय गणित, ज्योतिष; चिकित्सा, रसायन, भौतिक आदि प्रत्येक क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई। इस युग के सबसे बड़े वैज्ञानिक आर्यभट्ट माने जाते हैं। इनकी प्रसिद्ध पुस्तक आर्यभट्टीय है। इन्होंने अंकगणित, बीजगणित, ज्यामिति एवं त्रिकोणमिति के क्षेत्र में अन्वेषण किये। इन्होंने यह भी प्रमाणित कर दिया कि पथ्वी ही सर्य की परिक्रमा करती है तथा पृथ्वी एवं चन्द्रमा की बदलती हुई परिस्थितियों के कारण ग्रहण होता है। बाराहमिहिर इस यग के सबसे बड़े ज्योतिषी थे। इनकी प्रसिद्ध पुस्तक वृहदसंहिता है। बाराहमिहिर के ग्रन्थों में यवन सिद्धांतों का सामंजस्य मिलता है। कल्याणवर्मन ने फलितं ज्योतिष पर जवली नाम का ग्रन्थ की रचना की। प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान नागार्जुन ने रस चिकित्सा का आविष्कार किया। पारद (पारा) का आविष्कार भी इसी काल में हुआ था। उसके भस्म करने की क्रिया का । आविष्कार कर नागार्जन ने आयर्वेद तथा रसायन शास्त्र के इतिहास में एक नये युग का आरम्भ किया किया। महान् वैद्य धन्वन्तरि भी संभवतः गुप्तकाल में ही हुआ था। धातु विज्ञान एवं शिल्प कला को भी इस समय में प्रगति हुई। मेहरौली का लौह स्तम्भ गुप्तकालीन धातु विज्ञान की प्रगति का सबसे बढ़िया नमूना पेश करता है।

कला : कला की जितनी प्रगति इस समय हुई वह वास्तव में सराहनीय है। स्थानीय मूर्तिकला एवं चित्रकला की इस समय समुचित प्रगति हुई। मद्रणकला में भी प्रगति हुई। गुप्त शासकों ने सोने के सिक्के भी काफी संख्या में ढलवाये। इन पर विभिन्न आकृतियाँ एवं लेख उत्कीर्ण किये जाते थे। इस समय मुद्रण-कला काफी उन्नत अवस्था में थी। संगीत, नाटक, अभिनय एवं नृत्य कला का भी विकास हुआ।
शहरी जीवन के विकास ने ललित कलाओं की प्रगति में सहयोग दिया। पत्थर पर लोहे के विशाल स्तम्भ भी इस युग में बने। लौह-स्तम्भ में राजा चन्द्र के मेहरौली स्तम्भ का उल्लेख किया जा सकता है। हजारों वर्ष तक धूप एवं वर्षा झेलने के बावजूद इसमें आज तक जंग नहीं लगा। गुप्त राजाओं ने अनेक स्तम्भ बनवाये जिनका प्रयोग अभिलेखों को उत्कीर्ण कराने के लिए किया गया। ऐसे स्तम्भ अनेक जगहों पर पाये गये हैं।
गुप्तयुगीन वास्तुकला एवं मूर्तिकला धर्म प्रभावित थी। वास्तुकला के क्षेत्र में स्तूपों, चैत्यों, गुफाओं, मंदिरों आदि का निर्माण हुआ। मंदिरों के निर्माण में गुप्तकाल में विशेष प्रगति हुई। इस युग में प्रमुख मंदिरों में साँची, लाघखान, देवगढ़ एवं भुमरा के मंदिर प्रसिद्ध है। इन सबमें देवगढ़ का विष्णु मंदिर महत्त्वपूर्ण है। इस समय में मंदिरों की मुख्य विशेषता यह थी कि इनमें केवल देवस्थान बनाये जाते थे। उपासकों के लिए हॉल या प्रांगण की व्यवस्था इन मंदिरों में नहीं थी। आरंभ में कलशों का भी निर्माण नहीं हुआ था। अजन्ता के कुछ गुफा मंदिर भी गुप्तकाल में ही बने थे। बौद्ध वास्तुकला के उदाहरण अमरावती, नागार्जुन कोण्डा, राजगृह, नालन्दा एवं सारनाथ में पाये जाते हैं।
मंदिर-निर्माण ने मूर्तिकला को भी प्रश्रय दिया। गुप्तकाल का स्वतंत्र रूप से विकास हुआ। इस पर विदेशी प्रभाव नहीं था। इस समय मथुरा, सारनाथ एवं पाटलिपुत्र मूर्तिकला के प्रमुख केन्द्र थे। धर्म का मूर्तिकला के विकास पर गहरा प्रभाव था। देवी-देवताओं की विभिन्न मूर्तियाँ इस समय बनायी गईं जिनमें सबसे प्रमुख विष्णु को विभिन्न अवतारों में दिखलाया गया। शिव को भी विभिन्न रूपों में प्रस्तुत किया गया। एकमुखी शिव, चतुर्मुखी शिव और अर्द्धनारीश्वर शिव की मूर्तियाँ गुप्तकाल की विशिष्ट उपलब्धियाँ हैं। बौद्ध प्रतिमाएँ भी काफी बड़ी संख्या में बनीं। इनमें सारनाथ से प्राप्त बुद्ध की मूर्ति एवं सुल्तानगंज की ताम्बे की मूर्तियाँ गुप्तकालीन मूर्तिकला का अनूठा उदाहरण पेश करती हैं। जैन तीर्थकरों की भी कुछ मूर्तियाँ इस समय बनीं।
चित्रकला भी उन्नत अवस्था में थी। गुप्तकालीन चित्रकला के नमूने अजन्ता, ग्वालियर की बाघ-गुफाओं एवं बादामी की गुफाओं में अभी भी सुरक्षित हैं। अजन्ता की गुप्तयुगीन गुफाओं में गौतम बुद्ध के माहभिनिष्क्रमण का दृश्य बड़ा ही सजीव है। इसके अतिरिक्त इनमें बुद्ध एवं बोधि सत्वों के चित्र, जातक कथाएँ, मानव एवं पशु-पक्षी, देवी-देवता आदि के चित्र भी बड़े ही अच्छे एवं मनमोहक हैं। इन चित्रों में विशषया उच्चवर्गीय जीवन की झलक देखने को मिलती है। बाघ एवं बादामी की गुफाओं के चित्र भी काफी सुन्दर हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि गुप्त युग में सभ्यता एवं संस्कृति का चतुर्दिक विकास हुआ। इसी कारण गुप्त युग को हिन्दू-पुनर्जागरण का काल भी कहा जाता है, परन्तु कई आधुनिक विद्वान इससे सहमत नहीं हैं। वास्तव में, इस समय कला के विकास पर बौद्ध धर्म की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है। इसी के प्रभाव में आकर इस युग में कला का विकास हआ, उसी प्रकार ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भी विदेशी प्रभाव परिलक्षित होता है। उदाहरणस्वरूप “वारहमिहिर के सिद्धांत रोमन एवं सिकन्दरिया के कालजयी ज्योतिर्विद पाल की स्थापनाओं की छाप है।” इस प्रकार “वैष्णव मत एवं शैव मत से भी किसी धार्मिक पुनरुत्थान का बोध नहीं होता है।”
साहित्यिक कृतित्व के पुनरुत्थान का संकेत नहीं मिलता है। प्रो० डी० एन० झा के मत में “जिस हिन्दू पुनर्जागरण का बहुत प्रचार किया जाता है. वस्तुत: कोई पुनर्जागरण नहीं था, बल्कि वह बहुत अंशों में हिन्दुत्व का द्योतक था।” प्रो० डा. एन० झा की यह मान्यता है कि “गुप्तकाल में राष्ट्रीयता का पुनरुत्थान नहीं हुआ, बल्कि राष्ट्रीयता ने ही गुप्तकाल को नवजीवन प्रदान किया। गुप्तकाल को स्वर्णयंग की संज्ञा देना उचित नहीं है।” भी यह तो मानना ही होगा कि इस युग में कला एवं साहित्य की काफी अधिक प्रगति हुई।

क्या आप इस बात से सहमत हैं कि गुप्त काल भारत का स्वर्ण युग था?

गुप्तकाल में विज्ञान प्रौद्योगिकी से लेकर साहित्य, स्थापत्य तथा मूर्तिकला के क्षेत्र में नये प्रतिमानों की स्थापना की गई जिससे यह काल भारतीय इतिहास में 'स्वर्ण युग' के रूप में जाना गया।

भक्ति काल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग क्यों कहा जाता है?

हिन्दी साहित्य का भक्तिकाल 'स्वर्ण युग' के नाम से जाना जाता है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्ति काल महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसकी समयावधि 1375 वि. सं से 1700 वि.

स्वर्ण युग का क्या मतलब होता है?

स्वर्णयुग संज्ञा पुं० [सं०] सुख समृद्धि एवं शांति का काल ।

गुप्त काल का समय क्या है?

इसका शासन काल (320 ई. से 335 ई. तक) था। चंद्रगुप्त ने गुप्त संवत् की स्थापना 319–320 ई.