मजदूर दिवस की स्थापना कब और क्यों हुई? - majadoor divas kee sthaapana kab aur kyon huee?

कभी-कभी कम उपलब्धियों वाले लोग इतिहास के नायक बना दिए जाते हैं और महानायकों को उनकी वास्तविक जगह मिलने में सदियां लग जाती हैं. ऐसे महानायकों में डॉ. आंबेडकर भी शामिल हैं. भारत में 21 वीं सदी आंबेडकर की सदी के रूप में अपनी पहचान धीरे-धीरे कायम कर रही हैं. उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के नए-नए आयाम सामने आ रहे हैं. उनके व्यक्तित्व का एक बड़ा आयाम मजदूर एवं किसान नेता का है.

बहुत कम लोग इस तथ्य से परिचित हैं कि उन्होंने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी की स्थापना की थी, उसके टिकट पर वे निर्वाचित हुए थे और 7 नवंबर 1938 को एक लाख से ज्यादा मजदूरों की हड़ताल का नेतृत्व भी डॉ. आंबेडकर ने किया था. इस हड़ताल के बाद सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने मजदूरों का आह्वान किया कि मजदूर मौजूदा लेजिस्लेटिव काउंसिल में अपने प्रतिनिधियों को चुनकर सत्ता अपने हाथों में ले लें.

इस हड़ताल का आह्वान उनके द्वारा स्थापित इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी ने किया था, जिसकी स्थापना 15 अगस्त 1936 को डॉ. आंबेडकर ने की थी.


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7 नवंबर की हड़ताल से पहले 6 नवंबर 1938 को लेबर पार्टी द्वारा बुलाई गई मीटिंग में बड़ी संख्या में मजदूरों ने हिस्सा लिया. आंबेडकर स्वयं खुली कार से श्रमिक क्षेत्रों का भ्रमण कर हड़ताल सफल बनाने की अपील कर रहे थे. जुलूस के दौरान ब्रिटिश पुलिस ने गोली चलाई जिसमें दो लोग घायल हुए. मुंबई में हड़ताल पूरी तरह सफल रही. इसके साथ अहमदाबाद, अमंलनेर, चालीसगांव, पूना, धुलिया में हड़ताल आंशिक तौर पर सफल रही.

यह हड़ताल डॉ. आंबेडकर ने मजदूरों के हड़ताल करने के मौलिक अधिकार की रक्षा के लिए बुलाई थी. सितंबर 1938 में बम्बई विधानमंडल में कांग्रेस पार्टी की सरकार ने औद्योगिक विवाद विधेयक प्रस्तुत किया था. इस विधेयक के तहत कांग्रेसी सरकार ने हड़ताल को आपराधिक कार्रवाई की श्रेणी में डालने का प्रस्ताव किया था.

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डॉ. आंबेडकर ने विधानमंडल में इस विधेयक का विरोध करते हुए कहा कि ‘हड़ताल करना सिविल अपराध है, फौजदारी गुनाह नहीं. किसी भी आदमी से उसकी इच्छा के विरूद्ध काम लेना किसी भी दृष्टि से उसे दास बनाने से कम नहीं माना जा सकता है, श्रमिक को हड़ताल के लिए दंड देना उसे गुलाम बनाने जैसा है.’

उन्होंने कहा कि यह (हड़ताल) एक मौलिक स्वतंत्रता है जिस पर वह किसी भी सूरत में अंकुश नहीं लगने देंगे. उन्होंने कांग्रेसी सरकार से कहा कि यदि स्वतंत्रता कांग्रेसी नेताओं का अधिकार है, तो हड़ताल भी श्रमिकों का पवित्र अधिकार है. डॉ. आंबेडकर के विरोध के बावजूद कांग्रेस ने बहुमत का फायदा उठाकर इस बिल को पास करा लिया. इसे ‘काले विधेयक’ के नाम से पुकारा गया. इसी विधेयक के विरोध में डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व में लेबर पार्टी ने 7 नवंबर 1938 की हड़ताल बुलाई थी.


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इसके पहले 12 जनवरी 1938 को इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के बैनर तले ही डॉ. आंबेडकर ने किसानों के संघर्ष का नेतृत्व किया. इस दिन ठाणे, कोलाबा, रत्नागीरि, सातारा और नासिक जिलों के 20,000 किसान प्रदर्शन के लिए बम्बई में जमा हुए थे. जुलूस का नेतृत्व डॉ. आंबेडकर ने खुद संभाला. किसानों के इस जुलूस की मुख्य मांग वतन प्रथा और खोटी प्रथाओं का खात्मा था. 17 सितम्बर, 1937 को उन्होंने महारों को अधीनता की स्थिति में रखने के लिए चली आ रही ‘वतन प्रथा’ खत्म करने के लिए एक विधेयक पेश किया था. वतन प्रथा के तहत थोड़ी सी जमीन के बदले महारों को पूरे गांव के लिए श्रम करना पड़ता था और अन्य सेवा देनी पड़ती थी. एक तरह से वे पूरे गांव के बंधुआ मजदूर होते थे.

इस विधेयक में यह भी प्रावधान था कि महारों को उस जमीन से बेदखल न किया जाए, जो गांव की सेवा के बदले में भुगतान के तौर पर उन्हें मिली हुई थी. शाहू जी महराज ने अपने कोल्हापुर राज्य में 1918 में ही कानून बनाकर ‘वतनदारी’ प्रथा का अंत कर दिया था तथा भूमि सुधार लागू कर महारों को भू-स्वामी बनने का हक़ दिलाया. इस आदेश से महारों की आर्थिक गुलामी काफी हद तक दूर हो गई.

डॉ. आंबेडकर ने खोटी व्यवस्था खत्म करने के लिए भी एक विधेयक प्रस्तुत किया था. इस व्यवस्था के तहत एक बिचौलिया अधिकारी लगान वसूल करता था. इसी बिचौलिए को खोट कहा जाता था. ये खोट स्थानीय राजा की तरह व्यवहार करने लगे थे. राजस्व का एक बड़ा हिस्सा ये अपने पास रख लेते थे. ये खोट अक्सर सवर्ण जातियों के ही होते थे.


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बाम्बे प्रेसीडेंसी के लेजिस्लेटिव काउंसिल में कांग्रेस पार्टी के पास भारी बहुमत था. उसने आंबेडकर की वतन व्यवस्था और खोट व्यवस्था के खात्मे के विधेयकों को पास नहीं होने दिया. इसका कारण यह था कि कांग्रेस के नेतृत्व पर पूरी तरह उन ब्राह्मणों या मराठों का नेतृत्व था, जिन्हें वतन प्रथा और खोट व्यवस्था का सबसे अधिका फायदा मिलता था. वे किसी भी तरह से अपने इस वर्चस्व और शोषण-उत्पीड़न के अधिकार को छोड़ने को तैयार नहीं थे. किसानों के इस संघर्ष में अस्पृश्यों के साथ मराठी कुनबी समुदाय भी शामिल था.

मजदूरों और किसानों के इस संघर्ष का नेतृत्व करते हुए डॉ. आंबेडकर ने सोशलिस्टों और कम्युनिस्टों का भी सहयोग लिया. लेकिन यह सहयोग ज्यादा दिन नहीं चल पाया, क्योंकि कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट पूंजीवाद को तो दुश्मन मानते थे. लेकिन वे ब्राह्मणवाद के खिलाफ संघर्ष करने को बिल्कुल ही तैयार नहीं थे. जबकि डॉ. आंबेडकर ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद दोनों को भारत के मेहनतकशों का दुश्मन मानते थे. 12-23 फरवरी 1938 को मनमाड में अस्पृश्य रेलवे कामगार परिषद की सभी की अध्यक्षता करते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा कि “भारतीय मजदूर वर्ग ब्राह्णणवाद और पूंजीवाद दोनों का शिकार है और इन दोनों व्यवस्थाओं पर एक ही सामाजिक समूह का वर्चस्व है.”

उन्होंने सभा में उपस्थित अस्पृश्य कामगारों से कहा कि कांग्रेस, सोशलिस्ट और वामपंथी तीनों अस्पृश्य कामगारों के विशेष दुश्मन ब्राह्मणवाद से संघर्ष करने को तैयार नहीं हैं. उन्होंने अस्पृश्यों के कामगार यूनियन से अपनी पार्टी इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी का समर्थन करने का आह्वान किया.

ब्रिटिश संसद द्वारा अगस्त 1935 में पारित भारत सरकार अधिनियम के तहत विभिन्न प्रांतों और केंद्र में भारतीयों के स्वायत्त शासन का प्रावधान किया गया था. इसी अधिनिय के तहत 1937 में चुनाव हुए. इन्हीं चुनावों में भाग लेने के लिए डॉ. आंबेडकर ने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी का गठन किया था. बाम्बे प्रेसीडेंसी में इस पार्टी ने 17 उम्मीदवार मैदान उतारे, जिसमें 13 उम्मीदवार अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित सीटों पर खड़े किए गए थे, जिनमें 11 सीटों पर उन्हें विजय मिली, जिसमें खुद डॉ. आंबेडकर भी शामिल थे. बाकी चार उम्मीदवार अनारक्षित सामान्य सीट पर खड़े किए गए थे, जिसमें तीन पर विजयी मिली. मध्यप्रांत और बिहार में पार्टी को अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 20 सीटों में से तीन पर विजय मिली. इस चुनाव मे बाम्बे प्रेसीडेंसी में कांग्रेस पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला था. मुस्लिम लीग के बाद बाम्बे प्रेसीडेंसी में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी दूसरी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी थी.

मजदूर क्यों मनाया जाता है?

1 मई को हर साल मजदूर दिवस मनाने का उद्धेश्य मजदूरों और श्रमिकों की उपलब्धियों का सम्मान करना और योगदान को याद करना है। इसके साथ ही मजदूरों के हक और अधिकारों के लिए आवाज बुलंद करना और शोषण को रोकना है। इस दिन बहुत सारे संगठनों में कर्मचारियों को एक दिन की छुट्टी दी जाती है।

भारत में पहली बार मजदूर दिवस कब मनाया गया?

भारत में एक मई का दिवस सब से पहले चेन्नई में १ मई १९२३ को मनाना शुरू किया गया था। उस समय इस को मद्रास दिवस के तौर पर प्रामाणित कर लिया गया था। इस की शुरूआत भारती मज़दूर किसान पार्टी के नेता कामरेड सिंगरावेलू चेट्यार ने शुरू की थी।

मजदूर दिवस का मतलब क्या है?

मजदूर दिवस का उद्देश्य हर साल 1 मई को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाने का मकसद मजदूरों की उपलब्धियों का सम्मान करना और उनके योगदान को याद करना है. साथ ही उनके अधिकारों के लिए आवाज बुलंद करना और उनके खिलाफ हो रहे शोषण को रोकना भी है.

मजदूर दिवस 2022 की थीम क्या है?

मजदूर दिवस 2022 की थीम इस साल मजदूर दिवस की थीम Act together to build a positive safety and health culture यानी की सकारात्मक सुरक्षा और स्वास्थ्य संस्कृति का निर्माण करने के लिए मिलकर कार्य करना है।