कृष्ण अपना विराट रूप किस सर्ग में दिखाते हैं - krshn apana viraat roop kis sarg mein dikhaate hain

विश्वरूप
स्वयं चैतन्य, दिव्य ज्ञान तथा ब्रह्मांड।
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अर्जुन तथा विश्वरूप की एक मूर्ति।
संबंध विष्णु का ब्रह्मांडीय स्वरूप।
निवासस्थान संपूर्ण ब्रह्मांड।
अस्त्र सभी प्रकार के अस्त्र शस्त्र।

विश्वरूप अथवा विराट रूप भगवान विष्णु तथा कृष्ण का सार्वभौमिक स्वरूप है।[1] इस रूप का प्रचलित कथा भगवद्गीता के अध्याय ११ पर है, जिसमें भगवान कृष्ण अर्जुन को कुरुक्षेत्र युद्ध में विश्वरूप दर्शन कराते हैं। यह युद्ध कौरवों तथा पाण्डवों के बीच राज्य को लेकर हुआ था। इसके संदर्भ में वेदव्यास कृत महाभारत ग्रंथ प्रचलित है। परंतु विश्वरूप दर्शन राजा बलि आदि ने भी किया है।

भगवान श्री कृष्ण नें गीता में कहा है--

पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः।

नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च।।

अर्थात् हे पार्थ! अब तुम मेरे अनेक अलौकिक रूपों को देखो। मैं तुम्हें अनेक प्रकार की आकृतियों वाले रंगो को दिखाता हूँ।[2]

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विश्वरूप अर्थात् विश्व (संसार) और रूप। अपने विश्वरूप में भगवान संपूर्ण ब्रह्मांड का दर्शन एक पल में करा देते हैं। जिसमें ऐसी वस्तुऐं होती हैं जिन्हें मनुष्य नें देखा है परंतु ऐसी वस्तुऐं भी होतीं हैं जिसे मानव ने न ही देखा और न ही देख पाएगा।

स्वरूप[संपादित करें]

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बाएँ: विश्वरूप, दाएँ: कई हाथ तथा पैरों वाले भगवान विश्वरूप सन् १९४० बिलासपुर, हिमांचल प्रदेश

महाभारत में संजय को दिव्यदृष्टि प्राप्त हुई जिससे वह कुरुक्षेत्र का हाल धृतराष्ट्र को कहने लगा। कुरुक्षेत्र में विश्वरूप का दर्शन करने का सौभाग्य अर्जुन को मिला।

अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम्‌।

अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्‌।।

दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्‌।

सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्‌।।

दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।

यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः।।

संजय धृतराष्ट्र के समक्ष भगवान विराट के स्वरूप का वर्णन करता है-- अनगिनत नेत्रों से युक्त प्रभु नारायण अनेक दर्शनों से संपन्न हैं। कई प्रकार के दिव्य अस्त्र शस्त्र धारण कियें हैं, दिव्य आभूषण तथा अद्भुत सुगंध से युक्त प्रभु सुशोभित हैं। अनेक अश्चर्यों से युक्त हैं। सीमारहित (असीमित आकार वाले) तथा किसी एक दिशा में नहीं भगवान सभी दसों दिशाओं की ओर मुख किये हैं। कदाचित् प्रभु विश्वरूप से उत्पन्न प्रकाश की बराबरी आकाश में अनगिनत सूर्योदय हो तब उनसे निकला प्रकाश ही कर पाएँ।[3][4]

शुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी के द्वितीय अध्याय (पुरूसुक्त) में लिखा है--

हरि: ॐ सहस्त्रशीर्षापुरुष:सहस्त्राक्ष:सहस्त्रपात्॥ सभूमिगूँसर्वतस्पृत्त्वात्त्यतिष्ठ्ठद्दशांगुलम्॥१॥ पुरुषऽएवेदगूँसर्वंयद्भूतंयच्चभाव्यम्॥ उतामृतत्वस्येशानोयदन्नेनातिरोहति॥२॥ एतावानस्यमहिमातोज्यायाँश्चपूरुष:॥ पादोस्यविश्वाभूतानित्रिपादस्यामृतन्दिवि॥३॥

इन तीन प्रारंभिक ऋचाओं में बताया गया है, सभी लोकों में व्याप्त महानारायण (विश्वरूप) सर्वात्मक होने से अनंत सिरों, आखों तथा पैरों वाले हैं। वह पाँच तत्वों (भूमि, जल, वायु, अग्नि, आकाश) से बने समस्त व्यष्टि और समष्टि ब्रह्मांड को सब ओर से व्याप्त कर नाभि से दस अंगुल परिमित देश का अतिक्रमण हृदय में अंतर्यामी रूप में स्थित हैं। जो यह वर्तमान तथा अतीत जगत् है तथा जो भविष्य में होने वाला जगत् है जो जगत् के बीज अथवा परिणामभूत वीर्य से नर, पशु, वृक्ष आदि के रूप में प्रकट होता है, वह सब अमृतत्व (मोक्ष) के स्वामी महानारायण पुरुष का ही विस्तार है। इस महानारायण पुरुष की इतनी सब विभूतियाँ हैं अर्थात् भूत भविष्य वर्तमान में विद्यमान सब कुछ उसी की महिमा का एक अंश है। वह विराट् पुरुष तो इस संसार से अतिशय अधिक है। इसीलिये यह सारा विराट् जगत् उसका चतुर्थांश है। इस परमात्मा का अवशिष्ट तीन पाद अपने अमृतमय (विनाशरहित) प्रकाशमान स्वरूप में स्थित है।[5]

ॐ नमो स्त्वनंताय सहस्त्रमूर्तये, सहस्त्रपादा क्षिशिरोरूहावहे।

सहस्त्र नाम्ने पुरूषाय शाश्वते, सहस्त्रकोटि युगधारिणे नमः॥

अर्थात् हे अनंत हजारों स्वरूपों वाले हजारों पैरों, अखों, हृदयों तथा हजारों भुजाओं वाले। हजारों नाम वाले शाश्वत महापुरुष सहस्त्रकोटि युगों के धारण करनेवाले आपको नमस्कार है। इस प्रकार इस श्लोक में भगवान का स्वरूप प्रदर्शित किया गया है।

गीता में बताया गया है, भगवान में अदिति के १२ पुत्र (द्वादशादित्य), ८ वसु, ११ रूद्र, दोनो अश्विनीकुमार, ४९ मरुद्गण, स्वर्ग, नरक, मृत्युलोक आदि सभी लोक तथा १४ भुवन, इंद्र तथा सभी देवता, अनेकों सूर्य, अनेकों ब्रह्मा, शिव, इसके साथ ही अनेक शक्तिशाली अज्ञात प्राणी भी समाहित हैं। उनमें भीष्म, कौरव, द्रोणाचार्य सहित सचराचर ब्रह्मांड समाहित है। भगवान अर्जुन से कहते हैं कि पार्थ! मेरे शरीर में उस एक अल्प स्थान में समाहित सम्पूर्ण ब्रह्मांड का तथा तुम जो देखना चाहो उसका दर्शन करो।[6][7]

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बाएँ: सन् १९०० विश्वरूप लिथोग्रॉफ। दाएँ: तीन लोको के साथ विश्वरूप: स्वर्ग (सिर से पेट तक), पृथ्वी (ऊसन्धि), अधोलोक (पैर) सन् १८००-५०, जयपुर

भगवान विश्वरूप अनगिनत हाथ तथा अस्त्र वाले हैं। उनके हाथों में शंख, सुदर्शन चक्र, गदा, धनुष तथा नंदक तलवार शोभायमान हैं। विश्व के हर जीव, मनुष्य, मुनी, विभिन्न देवता आदि उनके अंदर हैं। उनमें कौरव, पाण्डव तथा समस्त कुरुक्षेत्र दिखाई दे रहा है। केवल दिव्य दृष्टि का उपयोग कर एक धन्य मानव उस अद्भुत स्वरूप का दर्शन कर सकता है तथा प्रभु के परम् भक्तों में ही उस स्वरूप को देखने की क्षमता है। परंपिता का यह स्वरूप साधारण मानव के लिये अत्यंत भयावह है।[8]

उद्देश्य[संपादित करें]

महाभारत आदि ग्रंथों में इस स्वरूप की कथाओं से यह उद्देश्य बाहर आता है कि मानव स्व साक्षात्कार करे। उसे यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि इस अगाध ब्रह्मांड के समक्ष उसका क्या स्थान है। विश्व के आडब्बरों को छोंड़कर वह स्वयं को प्रभु में देखे। भगवद्भक्ति में अहंकार का स्थान नहीं।

लक्ष्मी[संपादित करें]

एक कथा के अनुसार महर्षि भृगु के घर एक रूपवती कन्या का जन्म हुआ जिसका नाम लक्ष्मी रखा गया। वह कन्या भगवान विष्णु की कथा सुनकर बड़ी हुई थी। उसे नारायण से प्रेम हो गया तथा उसने नारायण को मन से पति स्वीकार लिया था।

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लक्ष्मी नें हजारों वर्षों तक तपस्या की उस दौरान देवराज इंद्र विष्णु के रूप में लक्ष्मी के समक्ष आए और वरदान माँगने को कहा, लक्ष्मी ने विश्वरूप दर्शन कराने का आग्रह किया।

अंत में भगवान विष्णु ने लक्ष्मी को अपने विराटरूप का दर्शन कराया तथा लक्ष्मी और नारायण का विवाह हुआ।[9] कई पुराणों में माता लक्ष्मी के प्रभु से रूठने तथा समुद्र में समाने की कथा वर्णित है। जो समुद्र मंथन से बाहर निकलीं।

नारद[संपादित करें]

देव ऋषि नारद पूर्वजन्म में गंधर्व थे। एक बार ब्रह्मलोक में एक सभा बुलाई गई जिसमें कई देवता भगवन्नाम संकीर्तन के लिये एकत्र हुए। वहाँ नारद भी अपनी स्त्रियों के साथ पधारे। भगवान के संकीर्तन सभा में भगवन्नाम छोड़कर विनोद करते नारद को ब्रह्मा ने शूद्र होने का श्राप दिया। इस कारण नारद जी का जन्म शूद्र कुल में हो गया। इनके जन्म पश्चात ही पिता की मृत्यु हो गई। माता दासी का कार्य कर नारद जी का भरण पोषण करती थी।

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नारद को भगवान विश्वरूप दर्शन कराते हुए।

एक समय इनके ग्राम में कुछ महात्माओं का आगमन हुआ तथा वे चतुर्मास्य व्यतीत करने के लिये वहीं रुक गए। नारद जी बचपन में भी सुशील थे तथा खेल कूद छोड़कर उन महात्माओं की मन से सेवा करते थे तथा वहीं अपना दिन व्यतीत करते थे, तन्मयतापूर्वक भगवत्कथा सुना करते थे। महात्माओं की सेवा से इनके पूर्वजन्म के पाप धुल गए।

महात्माओं ने जाते जाते नारद को भगवन्नाम संकीर्तन का उपदेश दिया। सर्पदंश से नारद की माता का भी स्वर्गवास हो गया। भिक्षुक की भाँति भोजन के लिये किसी के घर के सामने खड़ा रहता तब भोजन प्राप्त होती थी, पंचवर्षीय नारद इन कष्टों को भगवान की इच्छा समझकर टालते थे। नारद को अन्य बालक भी सताते थे। नारद ने महात्माओं के विधि अनुसार जाप किया तब प्रभु विष्णु ने उन्हें अपने चतुर्भुज रूप में दर्शन दिया। तत्पश्चात इन्हें प्रभु के दर्शन नहीं हुए। अंत में उन्होंने कठिन तपस्या की तब जाकर भगवान विष्णु नें उन्हें अपने विश्वरूप का दर्शन कराया और कहा कि "नारद! अगले जन्म में तुम ब्रह्मा के मानस पुत्र तथा मेरे पार्षद के रूप में जन्म लोगे, तब तुम हर दिन मेरा दर्शन करोगे।"[10] अगले जन्म में नारद भगवान विष्णु के अवतार के रूप में ब्रह्मा के मानस पुत्र हुए।[11]

राजा बलि[संपादित करें]

भगवान ने बलि के ऊपर कृपा कर उसे भी विश्वरूप का दर्शन कराया।

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भगवान वामन का विश्वरूप (त्रिविक्रम)

पूर्वजन्म में राजा बलि एक दुष्ट धूतकर्मा था जो जूआ खेला करता था। एक दिन जूए से प्राप्त धन लेकर एक वैश्या के घर की ओर दौड़ा जा रहा था, एक ठोकर से बेहोश हो भूमि में गिर पड़ा। इस घटना के पश्चात उसमें शिव भक्ति जागी तथा उसने शिव का पूजन किया। मृत्यु के उपरांत यम ने उसे नर्क की यातना भोगने का आदेश दिया। शिव के आशीर्वाद से उसे तीन घड़ी के लिये स्वर्ग का राज्य मिला। उसने कल्पवृक्ष, ऐरावत आदि को मुनियों को दान में दिया। इस दानी भाव से उसे मुक्ति मिली तथा अगले जन्म में भगवान विष्णु के परम् भक्त प्रह्लाद के पौत्र के रूप में जन्म लिया।[12]

श्रीमद् भागवत के अनुसार शुक्राचार्य के बहकावे से बलि ने स्वर्ग पर अधिपत्य कर लिया। सभी देवता भगवान विष्णु के पास गए तब विष्णु ने वामनावतार लिया। वे अदिति के पुत्र तथा इंद्र के भाई थे। वे द्वादश आदित्यों में बारहवें थे। उनका स्वरूप एक बौने ब्राह्मण का था तथा हाथ में लकड़ी का छत्ता तथा दूसरे हाथ में कमंडलु सुशोभित था।

बलि अश्वमेध यज्ञ कर रहा था। सभी मुनि महात्माओं को यत्किंचित् दान देता था। भगवान वामन बलि के पास जाकर तीन पग भूमि माँगते हैं। बलि आश्चर्य में हो सोचता है कि तीन पग भूमि में यह क्या करेंगे?? तभी शुक्राचार्य आते हैं, वे बलि को सूचित करते हैं कि यह छोटा ब्राह्मण साक्षात् परम् ब्रह्म परमात्मा है परंतु बलि दान देने से नहीं कतराता। अंत में शुक्राचार्य संकल्प पात्र के छिद्र में कीट बनकर बैठ जाते हैं। जब बलि दान संकल्प के लिये संकल्प पात्र से जल गिराने का प्रयास करता है तब उसमें से जल की एक बूँद भी नहीं गिरती। भगवान वामन एक कुश के टुकड़े को उस छिद्र में डालते हैं जिससे शुक्राचार्य काने हो जाते हैं और वहाँ से प्रस्थान करते हैं।

बलि का दान संकल्प पूर्ण होता है तत्पश्चात् बलि वामन से आग्रह करते हैं कि वे तीन पग भूमि नाप लें। भगवान का आकार बढ़ता जाता है अंत में भगवान विराट स्वरूप (विश्वरूप) धारण करते हैं तथा अपना एक पद आकाश की ओर बढ़ाते हैं। नारायण का पैर सरलता से स्वर्ग आदि लोक को पार करता हुआ ब्रह्मलोक में पहुँच गया। वहाँ ब्रह्मा ने पादप्रक्षालन किया जिसके जल से तारणी गंगा प्रवाहित हुईं। भगवान का एक पाद नागलोक, सुतल, रसातल आदि लोकों को पार कर पाताल में पहुंच जाता है। भगवान ने दो पद में ही बलि का सारा राज्य नाप दिया। प्रभु बलि से प्रश्न करते है, "हे बलि! अब तुम मुझे बताओ कि मैं अपना एक पैर कहाँ रखूँ?" तब बलि कहता है, "हे पालनहार! आप अपने चरणकमल को मेरे मस्तक पर रखकर मुझे अनुग्रहित करें।" और प्रभु नें अपना एक पैर बलि के मस्तक पर रखा तथा उसे सुतल लोक में स्थान दिया।  बलि प्रभु का नित दर्शन करना चाहते थे इस कारण वे भी बलि के साथ सुतल लोक चले गए। अभी तक उनका अंश राजा बलि के द्वारपाल के रूप में सुतल लोक में स्थापित हैं।[13][14]

यशोदा[संपादित करें]

माता यशोदा को भी अन्य रूप में कन्हैया (कृष्ण) ने विश्वरूप का दर्शन कराया था।

एक दिन भगवान बालकृष्ण ने मिट्टी खा लिया। बलदऊ तथा कृष्ण के मित्रों ने यह बात माता यशोदा को बताया। माता ने कृष्ण से पुछा "कान्हाँ! क्या तुमने मिट्टी खाई?" कृष्ण ने कहा "नही मैया, नहीं खाई।" माता ने बलदाऊ से पूछा तो उन्होंने माता को सत्य से अवगत कराया।

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माता ने कृष्ण को मुँह खोलने को कहा। अनजान कृष्ण ने मुँह खोला। माता यशोदा कृष्ण के मुख से अंदर मिट्टी के कण ढूँढने लगीं, परंतु उनको उस बालक के मुँह में अगणित (जिसको गिनना असंभव हो) ब्रह्मांड, अगणित ब्रह्मा, विष्णु, महेश, मुनि, देवता, मानव, आकाशगंगा तथा कई प्रकार के अनदेखी वस्तुऐं दिखाई देने लगीं। भागवत में लिखा है कि माता यशोदा ने कृष्ण के मुख में स्वयं को कृष्ण के मुँह को देखते देखा। प्रभु के इस प्रकार के विश्वरूप दर्शन होने के बाद भी माता यशोदा की निश्छल ममता कृष्ण पर बरसती रही। इस घटनाक्रम के बाद भी परमात्मा श्री कृष्ण उन्हें एक बालक ही प्रतीत होता था।[15]

दुर्योधन[संपादित करें]

महाभारत में दुर्योधन का विश्वरूप दर्शन वर्णित है।

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कुरुक्षेत्र के युद्ध के पूर्व भगवान श्री कृष्ण शांतिदूत के रूप में हस्तिनापुर गए। वहाँ उनका सत्कार हुआ। राजसभा में भगवान ने दुर्योधन से कहा, "दुर्योधन! तुम चाहो तो यह महायुद्ध टल सकता है। राजन्! तुम युधिष्ठिर को अपना आधा राज्य दे दो, या तो उन्हें पाँच गाँव ही दे दो, मैं उन्हें समझाऊँगा।" परंतु दुर्योधन ने पाण्डवों को सूई की नोक के बराबर भूमि देने से इंकार कर दिया।

उसने भगवान को बंदी बनाने का असफल प्रयास किया। भगवान ने उसे भयभीत करने हेतु विश्वरूप से साक्षात्कार कराया। उसे हजारों सूर्य का तपन महसूस हुआ, कर्ण, धृतराष्ट्र, शकुनि, भीष्म सब में उसे कृष्ण दिखने लगा तथा इससे वह अत्यंत भयभीत हो उठा।

इस प्रकार प्रभु ने भाग्यशाली दुर्योधन को विश्वरूप दर्शन कराया।

अर्जुन[संपादित करें]

कुरुक्षेत्र के युद्ध में अर्जुन को भी प्रभु ने विश्वरूप से अवगत कराया।

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अर्जुन विश्वरूप का दर्शन करते हूए।

अर्जुन ने युद्ध में अपने विपरीत अपने ही संबंधियों को पाया जिससे असमंजस में पड़ गया कि वह धर्म कर रहा है कि अधर्म। प्रभु श्री कृष्ण जो उनके सारथि के रूप में वहाँ उपस्थित थे उन्होनें अर्जुन को भगवद्गीता कह सुनाया। प्रभु ने कहा कि "हे पार्थ! तुम्हें अपने प्रिय जनों की मृत्यु का भय है न? तो सुन लो, मनुष्य का केवल शरीर ही नष्ट होता है परंतु उसके अंदर की आत्मा न आग से जल सकती है न ही शस्त्रो से छिन्नभिन्न होती है। जिस प्रकार मानव वस्त्र बदलता है उसी प्रकार आत्मा भी शरीर बदलती है।

नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।[16]

इसी प्रकार अन्य ज्ञान देते हैं। गीता के विश्वरूप दर्शन योग नामक ११वें अध्याय में भगवान द्वारा अर्जुन को विश्वरूप दर्शन देने के विषय में विस्तारपूर्वक बताया गया है।

अर्जुन द्वारिकाधीश से उनके अद्भुत रूप के दर्शन हेतु आग्रह करते हैं। भगवान कृष्ण नें अर्जुन को दिव्यदृष्टि दी क्योकी इस दिव्य स्वरूप का दर्शन साधारण नेत्रों से असंभव है। भगवान ने कहा, "पार्थ! सावधान हो जाओ। तुम मेरे अनेक रूपों को देखो, ब्रह्मांड को देखो, जो देखना चाहो वह मुझमे देखो, स्वयं को मुझमें देखो।"

अर्जुन नें विश्वरूप में कीटों से लेकर हर प्रकार के जीवों को देखा। भीष्म, द्रोण, कर्ण आदि सभी को देखा तथा हजारों त्रिदेवों को देखा। अर्जुन भगवान के इस विशाल स्वरूप को देखकर भगवान से चतुर्भुज स्वरूप में आने के लिये प्रार्थना करने लगा।

अर्जुन बोले "हे जगत्पिता! मैं आपमें सचराचर ब्रह्मांड का दर्शन कर रहा हूँ। मैं आपमें मुनिवरों, देवताओं, कमलासन पर विराजित ब्रह्मा, सपरिवार महादेव तथा दिव्य सर्पों को देख रहा हूँ। आपको अगणित भुजाओं, नेत्रों, पेटों, मुखों वाला देख रहा हूँ। हे परात्पर ब्रह्म! न मुझे आपका अंत दिख रहा है, न ही मध्य तथा न ही आदि (प्रारंभ) दिख रहा है। मैं आपको हजारों सूर्यों से अधिक प्रकाशमय गदा, चक्र, शंख आदि से युक्त देख रहा हूँ। आपको प्रारंभ तथा समाप्ति से रहित, सूर्य तथा चंद्र रूपी नेत्रों वाले, सारे जगत् को आपके तेज से संतृप्त होते हुए देख रहा हूँ।"[17]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. विश्वरूप (विष्णु) Archived 2014-07-14 at the Wayback Machine, भारतकोश
  2. गीता ११/०५
  3. भगवद्गीता विश्वरूपदर्शनयोगनामैकादशोध्याय: श्लोक १०-१२
  4. संजय द्वारा धृतराष्ट्र के प्रति विश्वरूप का वर्णन Archived 2015-01-09 at the Wayback Machine, वेबदुनियाँ
  5. रुद्राष्टाध्यायी के द्वितीय अध्याय से।
  6. भगवद्गीता के सौजन्य से।
  7. भगवान द्वारा अपने विश्वरूप का वर्णन Archived 2015-01-09 at the Wayback Machine, वेबदुनियाँ
  8. "Literary descriptions". मूल से 30 दिसंबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 11 जून 2014.
  9. लक्ष्मी Archived 2017-12-26 at the Wayback Machine, ब्रजडिस्कवरी
  10. नारद (विष्णुपुराण) Archived 2016-03-05 at the Wayback Machine, अंजलिका
  11. नारद Archived 2014-01-15 at the Wayback Machine, ब्रजडिस्कवरी
  12. बलि का पूर्वजन्म Archived 2014-07-14 at the Wayback Machine, दैनिक भास्कर
  13. भागवत से
  14. बलि की संक्षिप्त कथा Archived 2015-01-23 at the Wayback Machine, भारत-दर्शन
  15. ब्रह्मांड घाट Archived 2014-01-15 at the Wayback Machine, ब्रजडिस्कवरी
  16. भगवद्गीता 2/23
  17. अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना Archived 2015-01-07 at the Wayback Machine, वेबदुनियाँ

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

विश्वरूपदर्शनयोगनामैकादशोध्याय: गीता।

श्री कृष्ण ने अर्जुन को अपना विराट रूप कहाँ दिखाया?

विश्वरूप अथवा विराट रूप भगवान विष्णु तथा कृष्ण का सार्वभौमिक स्वरूप है। इस रूप का प्रचलित कथा भगवद्गीता के अध्याय ११ पर है, जिसमें भगवान कृष्ण अर्जुन को कुरुक्षेत्र युद्ध में विश्वरूप दर्शन कराते हैं।

अर्जुन ने भगवान के विराट रूप में क्या देखा?

अर्थात्- अर्जुन ने उस विश्वरूप में असंख्य मुख, असंख्य नेत्र तथा असंख्य आश्चर्यमय दृश्य देखे। यह रूप अनेक दैवी आभूषणों से अलंकृत था और अनेक दैवी हथियार उठाए हुए था। दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगतन्धानुलेपनम्। सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्।।

कृष्ण ने अपना स्वरूप विस्तार किया था कौन से सर्ग में?

पर दिनकर का यह काव्य पांडवों और कौरवों, अर्जुन और दुर्योधन पर न हो कर कर्ण पर है.

विराट स्वरूप का अर्थ क्या है?

इन्हीं शुभकामनाओं के साथ, आज जो दांडी यात्रा के लिए चल रहे हैं एक प्रकार से बड़े ताम-झाम के बिना छोटे स्वरूप में आज उसका प्रारंभ हो रहा है