काका कालेलकर के पिता कौन थे? - kaaka kaalelakar ke pita kaun the?

काका कालेलकर (1885 - 21 अगस्त 1981) के नाम से विख्यात दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर भारत के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री, पत्रकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। काकासाहेब कालेलकर ने गुजराती और हिन्दी में साहित्यरचना की। उन्होने हिन्दी की महान सेवा की। उनके द्वारा रचित जीवन–व्यवस्था नामक निबन्ध–संग्रह के लिये उन्हें सन् 1965 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वे साबरमती आश्रम के सदस्य थे और अहमदाबाद में गुजरात विद्यापीठ की स्थापना में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया। गांधी जी के निकटतम सहयोगी होने का कारण ही वे 'काका' के नाम से जाने गए। वे सर्वोदय पत्रिका के संपादक भी रहे। 1930 में पूना का यरवदा जेल में गांधी जी के साथ उन्होंने महत्वपूर्ण समय बिताया। .

20 संबंधों: देवनागरी का इतिहास, नागरी लिपि सुधार समिति, बनारसीदास चतुर्वेदी, महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा, पुणे, महाराष्ट्र राजभाषा सभा, पूना, मुहावरा, रामेश्वर दयाल दुबे, श्री हिन्दी साहित्य समिति, भरतपुर, साहित्य अकादमी पुरस्कार गुजराती, साहित्य अकादमी फ़ैलोशिप, हरनामदत्त शास्त्री, हिन्दी दिवस का इतिहास, हिंदुस्तानी प्रचार सभा, मुंबई, ज्ञानपीठ पुरस्कार, जीवन–व्यवस्था, वर्धा शिक्षा योजना, व्यौहार राजेन्द्र सिंह, गुजराती साहित्य, गुजराती साहित्यकार, आचार्य रामचंद्र वर्मा।

देवनागरी लिपि की जड़ें प्राचीन ब्राह्मी परिवार में हैं। गुजरात के कुछ शिलालेखों की लिपि, जो प्रथम शताब्दी से चौथी शताब्दी के बीच के हैं, नागरी लिपि से बहुत मेल खाती है। ७वीं शताब्दी और उसके बाद नागरी का प्रयोग लगातार देखा जा सकता है। .

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नागरी लिपि सुधार समिति की स्थापना १९३५ में काका कालेलकर की अध्यक्षता में हुई। उन्होने हिन्दी साहित्य सम्मेलन में हिन्दी, मराठी तथा गुजराती के लिए एक ही लिपि बनाने की दिशा में कुछ सुझाव दिए। .

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पण्डित बनारसीदास चतुर्वेदी (२४ दिसम्बर, १८९२ -- २ मई, १९८५) प्रसिद्ध हिन्दी लेखक एवं पत्रकार थे। वे राज्यसभा के सांसद भी रहे। उनके सम्पादकत्व में हिन्दी में कोलकाता से 'विशाल भारत' नामक हिन्दी मासिक निकला। पं॰ बनारसीदास चतुर्वेदी जैसे सुधी चिंतक ने ही साक्षात्कार की विधा को पुष्पित एवं पल्लवित करने के लिए सर्वप्रथम सार्थक कदम बढ़ाया था। उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था। वे अपने समय का अग्रगण्य संपादक थे तथा अपनी विशिष्ट और स्वतंत्र वृत्ति के लिए जाने जाते हैं। उनके जैसा शहीदों की स्मृति का पुरस्कर्ता (सामने लाने वाला) और छायावाद का विरोधी समूचे हिंदी साहित्य में कोई और नहीं हुआ। उनकी स्मृति में बनारसीदास चतुर्वेदी सम्मान दिया जाता है। कहते हैं कि वे किसी भी नई सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक या राष्ट्रीय मुहिम से जुड़ने, नए काम में हाथ डालने या नई रचना में प्रवृत्त होने से पहले स्वयं से एक ही प्रश्न पूछते थे कि उससे देश, समाज, उसकी भाषाओं और साहित्यों, विशेषकर हिंदी का कुछ भला होगा या मानव जीवन के किसी भी क्षेत्र में उच्चतर मूल्यों की प्रतिष्ठा होगी या नहीं? .

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मराठीभाषी प्रदेश में राष्ट्रभाषा का प्रचार करने के हेतु गांधी जी की प्रेरणा से पूना में महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा की स्थापना हुई। आचार्य काकासाहब कालेलकर की अध्यक्षता में 22 मई 1937 को पूना में महाराष्ट्र के रचनात्मक कार्यकर्ताओं, राजनीतिक और सांस्कृतिक नेताओं आदि का सम्मेलन संपन्न हुआ जिसमें महाराष्ट्र हिंदी प्रचार समिति के नाम से एक संगठन बनाया गया। आठ साल तक यह समिति, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा से संबद्ध रही। भाषा विषयक सिद्धांत के मतभेद के कारण इस संगठन ने सम्मेलन तथा वर्धा समिति से संबंध तोड़ दिया। 12 अक्टूबर 1945 को महाराष्ट्र के प्रमुख कार्यकर्ताओं की एक बैठक हुई, जिसमें स्वतंत्र रूप से कार्य करने का निश्चय किया गया। संस्था अब "महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा" के नाम से काम करने लगी। .

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मराठी भाषी प्रदेश में राष्ट्रभाषा का प्रचार करने के हेतु गांधी जी की प्रेरणा से महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा की स्थापना हुई। आचार्य काकासाहब कालेलकर की अध्यक्षता में तादृ 22 मई 1937 को पूना में महाराष्ट्र के रचनात्मक कार्यकर्ताओं, राजनीतिक और सांस्कृतिक नेताओं आदि का सम्मेलन संपन्न हुआ जिसमें 'महाराष्ट्र हिंदी प्रचार समिति' के नाम से एक संगठन बनाया गया। आठ साल तक यह समिति राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा से संबद्ध रही। भाषा विषयक सिद्धांत के मतभेद के कारण इस संगठन ने संमेलन तथा वर्धा समिति से संबंध तोड़ दिया। 12 अक्टूबर 1945 को महाराष्ट्र के प्रमुख कार्यकर्ताओं की एक बैठक हुई, जिसमें स्वतंत्र रूप से कार्य करने का निश्चय किया गया। संस्था अब महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा के नाम से काम करने लगी। .

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मुहावरा मूलत: अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है बातचीत करना या उत्तर देना। कुछ लोग मुहावरे को ‘रोज़मर्रा’, ‘बोलचाल’, ‘तर्ज़ेकलाम’, या ‘इस्तलाह’ कहते हैं, किन्तु इनमें से कोई भी शब्द ‘मुहावरे’ का पूर्ण पर्यायवाची नहीं बन सका। संस्कृत वाङ्मय में मुहावरा का समानार्थक कोई शब्द नहीं पाया जाता। कुछ लोग इसके लिए ‘प्रयुक्तता’, ‘वाग्रीति’, ‘वाग्धारा’ अथवा ‘भाषा-सम्प्रदाय’ का प्रयोग करते हैं। वी०एस० आप्टे ने अपने ‘इंगलिश-संस्कृत कोश’ में मुहावरे के पर्यायवाची शब्दों में ‘वाक्-पद्धति', ‘वाक् रीति’, ‘वाक्-व्यवहार’ और ‘विशिष्ट स्वरूप' को लिखा है। पराड़कर जी ने ‘वाक्-सम्प्रदाय’ को मुहावरे का पर्यायवाची माना है। काका कालेलकर ने ‘वाक्-प्रचार’ को ‘मुहावरे’ के लिए ‘रूढ़ि’ शब्द का सुझाव दिया है। यूनानी भाषा में ‘मुहावरे’ को ‘ईडियोमा’, फ्रेंच में ‘इंडियाटिस्मी’ और अंग्रेजी में ‘ईडिअम’ कहते हैं। मोटे तौर पर जिस सुगठित शब्द-समूह से लक्षणाजन्य और कभी-कभी व्यंजनाजन्य कुछ विशिष्ट अर्थ निकलता है उसे मुहावरा कहते हैं। कई बार यह व्यंग्यात्मक भी होते हैं। मुहावरे भाषा को सुदृढ़, गतिशील और रुचिकर बनाते हैं। मुहावरों के प्रयोग से भाषा में अद्भुत चित्रमयता आती है। मुहावरों के बिना भाषा निस्तेज, नीरस और निष्प्राण हो जाती है। हिन्दी भाषा में बहुत अधिक प्रचलित और लोगों के मुँहचढ़े वाक्य लोकोक्ति के तौर पर जाने जाते हैं। इन वाक्यों में जनता के अनुभव का निचोड़ या सार होता है। .

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रामेश्वर दयाल दुबे (२१ जून १९०८ - २४ जनवरी २०११) गांधीवादी चिन्तक, विचारक, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति से आजीवन जुड़े हुए हिन्दी-सेवा के लिए समर्पित, समृद्ध बाल साहित्यकार थे। .

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श्री हिन्दी साहित्य समिति, भरतपुर की स्थापना सन १९१२ में हुई थी। प्रथम अध्यक्ष ओंकार सिंह परमार व प्रथम मंत्री अधिकारी जगन्नाथ दास विद्यारत्न निर्वाचित हुए। .

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साहित्य अकादमी पुरस्कार एक साहित्यिक सम्मान है जो कुल २४ भाषाओं में प्रदान किया जाता हैं और गुजराती भाषा इन में से एक भाषा हैं। .

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साहित्य अकादमी फ़ैलोशिप भारत की साहित्य अकादमी द्वारा प्रदान किया जानेवाला सर्वोच्च सम्मान है। .

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हरनामदत्त शास्त्री (१८४३-१९१५) संस्कृत व्याकरण के विद्वान थे। इनका जन्म जगाधरी (वर्तमान हरियाणा में) में हुआ था। इनके पिता का नाम मुरारिदत्त था। वाराणसी में शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात आप पाणिनि व्याकरण शास्त्र के प्रख्यात भाष्याचार्य हुए। आप चूरु (राजस्थान) में स्थापित हरनामदत्त शास्त्री संस्कृत पाठशाला के प्रधान शिक्षक थे। भाष्याचार्य के वाराणसी निविष्ट शिष्य वर्ग में गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी, विद्यावाचस्पति बालचन्द्रजी, पंडित रामानन्दजी, पंडित जयदेवजी मिश्र तथा पंडित विलासरायजी के नाम उल्लेखनीय हैं। संस्कृत महाकाव्य, हरनामाम्रितम् विद्यावाचस्पति विद्याधर शास्त्री द्वारा लिखित एक काव्य जीवनी है। .

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हिन्दी दिवस का इतिहास और इसे दिवस के रूप में मनाने का कारण बहुत पुराना है। वर्ष 1918 में महात्मा गांधी ने इसे जनमानस की भाषा कहा था और इसे देश की राष्ट्रभाषा भी बनाने को कहा था। लेकिन आजादी के बाद ऐसा कुछ नहीं हो सका। सत्ता में आसीन लोगों और जाति-भाषा के नाम पर राजनीति करने वालों ने कभी हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनने नहीं दिया। .

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हिन्दुस्तानी प्रचार सभा, मुम्बई की स्थापना महात्मा गांधी ने सन् १९४२ में की थी। यह संस्था विगत वर्षों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में लगी हुई है। संस्था हिन्दी की परीक्षा संचालित करती है जिसमें अब तक लगभग ाढ़े तीन लाख परीक्षार्थी भाग ले चुके हैं। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई, काका कालेलकर एवं अन्य कई गणमान्य व्यक्तियों ने इसमें अपना योगदान दिया है। संस्था ने मुम्बई के सात केन्द्रों पर सरल हिन्दी के पाठ्यक्रम आरम्भ किये हैं। यह संस्था महात्मा गांधी स्मृति अनुसंधान केन्द्र तथा महात्मा गांधी स्मृति पुस्तकालय का भी संचालन करती है। www.hindustanipracharsabha.com.

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पुरस्कार-प्रतीकः वाग्देवी की कांस्य प्रतिमा ज्ञानपीठ पुरस्कार भारतीय ज्ञानपीठ न्यास द्वारा भारतीय साहित्य के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च पुरस्कार है। भारत का कोई भी नागरिक जो आठवीं अनुसूची में बताई गई २२ भाषाओं में से किसी भाषा में लिखता हो इस पुरस्कार के योग्य है। पुरस्कार में ग्यारह लाख रुपये की धनराशि, प्रशस्तिपत्र और वाग्देवी की कांस्य प्रतिमा दी जाती है। १९६५ में १ लाख रुपये की पुरस्कार राशि से प्रारंभ हुए इस पुरस्कार को २००५ में ७ लाख रुपए कर दिया गया जो वर्तमान में ग्यारह लाख रुपये हो चुका है। २००५ के लिए चुने गये हिन्दी साहित्यकार कुंवर नारायण पहले व्यक्ति थे जिन्हें ७ लाख रुपए का ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ। प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार १९६५ में मलयालम लेखक जी शंकर कुरुप को प्रदान किया गया था। उस समय पुरस्कार की धनराशि १ लाख रुपए थी। १९८२ तक यह पुरस्कार लेखक की एकल कृति के लिये दिया जाता था। लेकिन इसके बाद से यह लेखक के भारतीय साहित्य में संपूर्ण योगदान के लिये दिया जाने लगा। अब तक हिन्दी तथा कन्नड़ भाषा के लेखक सबसे अधिक सात बार यह पुरस्कार पा चुके हैं। यह पुरस्कार बांग्ला को ५ बार, मलयालम को ४ बार, उड़िया, उर्दू और गुजराती को तीन-तीन बार, असमिया, मराठी, तेलुगू, पंजाबी और तमिल को दो-दो बार मिल चुका है। .

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जीवन–व्यवस्था गुजराती भाषा के विख्यात साहित्यकार काकासाहेब कालेलकर द्वारा रचित एक निबंध–संग्रह है जिसके लिये उन्हें सन् 1965 में गुजराती भाषा के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। .

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महात्मा गांधी की भारत को जो देन है उसमें बुनियादी शिक्षा अत्यंत महत्वपूर्ण एवं बहुमूल्य है। इसे वर्धा योजना, नयी तालीम, 'बुनियादी तालीम' तथा 'बेसिक शिक्षा' के नामों से भी जाना जाता है। गांधीजी ने २३ अक्टूबर १९३७ को 'नयी तालीम' की योजना बनायी जिसे राष्ट्रव्यापी व्यावहारिक रूप दिया जाना था। उनके शैक्षिक विचार शिक्षाशास्त्रियों के तत्कालीन विचारों से मेल नहीं खाते, इसलिये प्रारम्भ में उनके विचारों का विरोध हुआ। गांधीजी ने कहा था कि नयी तालीम का विचार भारत के लिए उनका अन्तिम एवं सर्वश्रेष्ठ योगदान है। गांधीजी के जीनव-पर्यन्त चले सत्य के अन्वेषण एवं राष्ट्र के निर्माण हेतु सक्रिय प्रयोगों के माध्यम से लम्बे समय तक विचारों के गहन मंथन के परिणामस्वरूप नयी तालीम का दर्शन एवं प्रक्रिया का प्रादुर्भाव हुआ जो केवल भारतवर्ष ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण मानव समाज को एक नयी दिशा देने में सक्षम था। परन्तु दुर्भाग्यवश इस सर्वोत्तम कल्याणकारी शिक्षा-प्रणाली का राष्ट्रीय स्तर पर भी समुचित प्रयोग नहीं हो पाया जिसके फलस्वरूप आजतक यह देश गांधीजी के सपनों के अनुरूप सार्थक और सही स्वराज प्राप्त करने में असमर्थ रहा। बल्कि इसके विपरीत आज तो आलम यह है कि शैक्षणिक, सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से भारत पुनः पाश्चात्य साम्राज्यवाद के अधीन निरन्तर सरकता चला जा रहा है। आज भारत की अधिकांश शिक्षा-व्यवस्था राज्याश्रित अथवा पूंजीपतियों पर आश्रित है। अधिकांश राज्याश्रित शिक्षण-संस्थाएँ संसाधन एवं अनुशासन के अभाव में निष्क्रिय हैं। इसलिए गुणवत्ता से युक्त शिक्षा देने में असमर्थ हैं। इसी प्रकार पूजीपतियों पर आश्रित सभी शिक्षण-संस्थाएं व्यावसायिक रूप में सक्रिय हैं, जो गरीबों की पहुंच से बाहर हैं। उनमें सिर्फ सम्पन्न लोगों के बच्चे ही पढ़ सकते हैं। भारत की स्वाधीनता के ६० से अधिक वर्ष बीतने के पश्चात् भी ऐसे बच्चों की संख्या काफी अधिक है, जिन्होंने विद्यालय के द्वार तक नहीं देखे हैं। जो विद्यालय जाने का सामर्थ्य रखते हैं, उन्हें लॉर्ड मैकाले की परम्परा से चली आ रही अंग्रेजी शिक्षा के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त नहीं होता। कुल मिलाकर उनमें भारतीय मौलिक शिक्षा को ग्रहण करनेवाले शायद ही कोई मिले। यह बात नहीं कि भारतीय शिक्षा देनेवालों का अभाव है। परन्तु इसलिए कि सभी अभिभावकों में यह इच्छाशक्ति एवं साहस नहीं है कि अपने बच्चों को सरकारों अथवा पूंजीपतियों द्वारा निर्धारित अंग्रेजी शिक्षा को त्यागकर भारतीय शिक्षा दिलावें। जब तक जनसाधारण की इस कायरतापूर्ण मानसिकता में परिवर्तन न किया जायेगा, तबतक नयी तालीम सहित कोई भी भारतीय शिक्षण-प्रणाली इस देश में पनप नहीं सकती। .

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व्यौहार राजेन्द्र सिंह व्यौहार राजेन्द्र सिंह (14 सितम्बर 1900 - 02 मार्च 1988 जबलपुर) हिन्दी साहित्यकार थे जिन्होने हिन्दी को भारत की राजभाषा बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया। संस्कृत, बांग्ला, मराठी, गुजराती, मलयालम, उर्दू, अंग्रेज़ी आदि पर उनका अच्छा अधिकार था। व्यौहार राजेन्द्र सिंह ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए संर्घष किया। उनके 50 वें जन्मदिन के दिन ही, अर्थात 14 सितम्बर 1949 को, हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया। व्यौहार राजेन्द्र सिंह का जन्म जबलपुर में हुआ था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करवाने के लिए काका कालेलकर, मैथिलीशरण गुप्त, हजारीप्रसाद द्विवेदी, महादेवी वर्मा, सेठ गोविन्ददास आदि साहित्यकारों को साथ लेकर राजेन्द्र सिंह जी ने काफी प्रयास किए। इसके चलते उन्होंने दक्षिण भारत की कई यात्राएं भी कीं। व्यौहार राजेन्द्र सिंह हिंदी साहित्य सम्मलेन के अध्यक्ष रहे। उन्होंने अमेरिका में आयोजित विश्व सर्वधर्म सम्मलेन में भारत का प्रतिनिधित्व किया जहां उन्होंने सर्वधर्म सभा में हिन्दी में ही भाषण दिया जिसकी जमकर तारीफ हुई। व्यौहार राजेन्द्र सिंह जी प्रादेशिक चित्रगुप्त महासभा के प्रांतीय अध्यक्ष तथा अखिल भारतीय कायस्थ महासभा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी रहे। जबलपुर के साठिया कुआं क्षेत्र में स्थित उनकी बखरी (विशाल निवास स्थान) में महात्मा गाँधी जबलपुर यात्रा के समय ठहरे थे। उसका नामकरण 'गांधी मंदिर' कर दिया था। उनके निवास पर दुर्लभ पांडुलिपियों, पुस्तकों और पत्रों आदि का अनमोल संग्रह था। अपपनी सादगी, अपनत्व व्यवहार के कारण उन्हें 'कक्का जू' का स्नेहपूर्ण संबोधन प्राप्त था। उनका निधन स्थानीय शासकीय विक्टोरिया जिला अस्पताल (अब सेठ गोविन्ददास जिला चिकित्सालय) में सामान्य जन की तरह हुआ। रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर में म. गाँधी पीठ की स्थापन हेतु उन्होंने अथक प्रयास किये थे। तत्कालीन साहित्यिक, राजनैतिक, सामाजिक जीवन में उनका अवदान तथा अपने समकालिक महत्वपूर्ण व्यक्तियों से उनके सम्बन्ध अपनी मिसाल आप थे। .

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गुजराती भाषा आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में से एक है और इसका विकास शौरसेनी प्राकृत के परवर्ती रूप 'नागर अपभ्रंश' से हुआ है। गुजराती भाषा का क्षेत्र गुजरात, सौराष्ट्र और कच्छ के अतिरिक्त महाराष्ट्र का सीमावर्ती प्रदेश तथा राजस्थान का दक्षिण पश्चिमी भाग भी है। सौराष्ट्री तथा कच्छी इसकी अन्य प्रमुख बोलियाँ हैं। हेमचंद्र सूरि ने अपने ग्रंथों में जिस अपभ्रंश का संकेत किया है, उसका परवर्ती रूप 'गुर्जर अपभ्रंश' के नाम से प्रसिद्ध है और इसमें अनेक साहित्यिक कृतियाँ मिलती हैं। इस अपभ्रंश का क्षेत्र मूलत: गुजरात और पश्चिमी राजस्थान था और इस दृष्टि से पश्चिमी राजस्थानी अथवा मारवाड़ी, गुजराती भाषा से घनिष्ठतया संबद्ध है। गुजराती साहित्य में दो युग माने जाते हैं-.

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गुजराती भाषा के प्रथम व्याकरण ग्रंथ की रचना जैन मुनि हेमचंद्राचार्य ने की थी। गुजराती भाषा के प्रथम कवि नरसिंह महेता हैं तथा प्रथम लेखक नर्मद हैं। .

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आचार्य रामचंद्र वर्मा (1890-1969 ई.) हिन्दी के साहित्यकार एवं कोशकार रहे हैं। हिन्दी शब्दसागर के सम्पादकमण्डल के प्रमुख सदस्य थे। आपने आचार्य किशोरीदास वाजपेयी के साथ मिलकर 'अच्छी हिन्दी' का आन्दोलन चलाया। आपके समय में हिन्दी का मानकीकरण हुआ। .

काका कालेकर के पिता का नाम क्या है?

काका कालेलकर(English – Kaka Kalelkar) भारत के प्रसिद्ध गांधीवादी स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षाविद, पत्रकार और लेखक थे। ... संक्षिप्त विवरण.

काका कालेलकर का पूरा नाम क्या था?

काका कालेलकर (1885 - 21 अगस्त 1981) के नाम से विख्यात दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर भारत के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री, पत्रकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे।

काका कालेलकर का जन्म कब हुआ था?

1 दिसंबर 1885काका कालेलकर / जन्म तारीखnull

काका कालेलकर की मातृ भाषा क्या थी?

काका कालेलकर का जन्‍म सन् 1885 ई. में महाराष्‍ ट्र के सतारा जिले में हुआ था। ये बड़े प्रतिभासम्‍पन्न थे। मराइी इनकी मातृभाषा थी, पर इन्‍होंने संसकृत, अंग्रेजी, हिन्‍दी, गुजराती, ओर बँँगला भाषाओं का भी गम्‍भीर अध्‍ययन कर लिया था।