राम, तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है। Show श्री मैथिलीशरण गुप्त ने इन पंक्तियों से अपना महाकाव्य साकेत आरम्भ किया। तुलसी कृत राम का स्वरूप विराट है। कल रामनवमी थी और इन दिनों दूरदर्शन पर रामायण आप हम सब देख रहें हैं। आज का पाठ आरम्भ करें उससे पहले राम की वंदना का यह गीत जो तुलसी दास जी की बेहद लोकप्रिय रचना है – श्री राम चंद्र कृपालु भजमन हरण भाव भय दारुणम्। नवकंज लोचन कंज मुखकर, कंज पद कन्जारुणम्।। तुलसी दास जी का परिचय NCERT के इस वीडियो से जानें तुलसीदास कृत रचनाओं में बारह (12) ग्रंथ प्रमाणिक माने गए है जिसमें – (1) रामलाल नहछू (2) वैराग्य संदीपनी (3) रामाज्ञा प्रश्नावली (4) गीतावली (5) कवितावली (6) बरवै रामायण (7) कृष्ण गीतावली (8) विनय पत्रिका (9) पार्वती मंगल (10) जानकी मंगल (11) दोहावली (12) रामचरितमानस जिसमें हनुमान बाहुल भी सम्मिलित है, लेकिन इन ग्रंथों में एक ग्रंथ रामचरितमानस है जो सात खंड यानी कांडों में विभाजित है । यह रामकथा का एक अनुपम महाकाव्य है और केवल रामचरितमानस ही ऐसा महाकाव्य है जिसमें सात सर्ग है अन्यथा महाकाव्य में आठ सर्ग होने अनिवार्य है। भरत-राम का प्रेमपुलकि सरीर सभाँ भए ठाढ़े। नीरज नयन नेह जल बाढ़े॥ शरीर से पुलकित होकर वे सभा में खड़े हो गए। कमल के समान नेत्रों में प्रेमाश्रुओं की बाढ़ आ गई। (वे बोले-) मेरा कहना तो मुनिनाथ ने ही निबाह दिया (जो कुछ मैं कह सकता था वह उन्होंने ही कह दिया)। इससे अधिक मैं क्या कहूँ?॥ मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ॥ अपने स्वामी का स्वभाव मैं जानता हूँ। वे अपराधी पर भी कभी क्रोध नहीं करते। मुझ पर तो उनकी विशेष कृपा और स्नेह है। मैंने खेल में भी कभी उनकी रीस (अप्रसन्नता) नहीं देखी॥ सिसुपन तें परिहरेउँ न संगू। कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू॥ बचपन में ही मैंने उनका साथ नहीं छोड़ा और उन्होंने भी मेरे मन को कभी नहीं तोड़ा (मेरे मन के प्रतिकूल कोई काम नहीं किया)। मैंने प्रभु की कृपा की रीति को हृदय में भलीभाँति देखा है (अनुभव किया है)। मेरे हारने पर भी खेल में प्रभु मुझे जिता देते रहे हैं॥ महूँ सनेह
सकोच बस, सनमुख कही न बैन। मैंने भी प्रेम और संकोचवश कभी सामने मुँह नहीं खोला। प्रेम के प्यासे मेरे नेत्र आज तक प्रभु के दर्शन से तृप्त नहीं हुए॥ बिधि न सकेऊ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा॥ परन्तु विधाता मेरा दुलार न सह सका। उसने नीच माता के बहाने (मेरे और स्वामी के बीच) अंतर डाल दिया। यह भी कहना आज मुझे शोभा नहीं देता, क्योंकि अपनी समझ से कौन साधु और पवित्र हुआ है? (जिसको दूसरे साधु और पवित्र मानें, वही साधु है)॥1॥ मातु मंदि मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली॥ माता नीच है और मैं सदाचारी और साधु हूँ, ऐसा हृदय में लाना ही करोड़ों दुराचारों के समान है। क्या कोदों की बाली उत्तम धान फल सकती है? क्या काली घोंघी मोती उत्पन्न कर सकती है?॥2॥ सपनेहूँ दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उदधि
अवगाहू॥ स्वप्न में भी किसी को दोष का लेश भी नहीं है। मेरा अभाग्य ही अथाह समुद्र है। मैंने अपने पापों का परिणाम समझे बिना ही माता को कटु वचन कहकर व्यर्थ ही जलाया॥3॥ हृदयँ हेरि हारेउँ सब ओरा। एकहि भाँति भलेहिं भल मोरा॥ मैं अपने हृदय में सब ओर खोज कर हार गया (मेरी भलाई का कोई साधन नहीं सूझता)। एक ही प्रकार भले ही (निश्चय ही) मेरा भला है। वह यह है कि गुरु महाराज सर्वसमर्थ हैं और श्री सीता-रामजी मेरे स्वामी हैं। इसी से परिणाम मुझे अच्छा जान पड़ता है॥4॥ साधु सभाँ गुर प्रभु निकट, कहउँ सुथल सतिभाउ। साधुओं की सभा में गुरुजी और स्वामी के समीप इस पवित्र तीर्थ स्थान में मैं सत्य भाव से कहता हूँ। यह प्रेम है या प्रपंच (छल-कपट)? झूठ है या सच? इसे (सर्वज्ञ) मुनि वशिष्ठजी और (अन्तर्यामी) श्री रघुनाथजी जानते हैं॥261॥ भूपति
मरन प्रेम पनु राखी। जननी कुमति जगतु सबु साखी॥ प्रेम के प्रण को निबाहकर महाराज (पिताजी) का मरना और माता की कुबुद्धि, दोनों का सारा संसार साक्षी है। माताएँ व्याकुल हैं, वे देखी नहीं जातीं। अवधपुरी के नर-नारी दुःसह ताप से जल रहे हैं॥1॥ महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला॥ मैं ही इन सारे अनर्थों का मूल हूँ, यह सुन और समझकर मैंने सब दुःख सहा है। श्री रघुनाथजी लक्ष्मण और सीताजी के साथ मुनियों का सा वेष धारणकर बिना जूते पहने पाँव-प्यादे (पैदल) ही वन को चले गए, यह सुनकर, शंकरजी साक्षी हैं, इस घाव से भी मैं जीता रह गया (यह सुनते ही मेरे प्राण नहीं निकल गए)! फिर निषादराज का प्रेम देखकर भी इस वज्र से भी कठोर हृदय में छेद नहीं हुआ (यह फटा नहीं)॥ अब सबु
आँखिन्ह देखेउँ आई। जिअत जीव जड़ सबइ सहाई॥ अब यहाँ आकर सब आँखों देख लिया। यह जड़ जीव जीता रह कर सभी सहावेगा। जिनको देखकर रास्ते की साँपिनी और बीछी भी अपने भयानक विष और तीव्र क्रोध को त्याग देती हैं-॥ तेइ रघुनंदनु लखनु सिय, अनहित लागे जाहि। वे ही श्री रघुनंदन, लक्ष्मण और सीता जिसको शत्रु जान पड़े, उस कैकेयी के पुत्र मुझको छोड़कर दैव दुःसह दुःख और किसे सहावेगा?॥262॥ (श्रीरामचरितमानस के ‘अयोध्या कांड’ से) NCERT BOOK पाठ : तुलसीदासआज का कार्य-
भरत ने ऐसा क्यों कहा कि विधाता मेरा दुलार सह न सका?परन्तु विधाता मेरा दुलार न सह सका। उसने नीच माता के बहाने (मेरे और स्वामी के बीच) अंतर डाल दिया। यह भी कहना आज मुझे शोभा नहीं देता, क्योंकि अपनी समझ से कौन साधु और पवित्र हुआ है? (जिसको दूसरे साधु और पवित्र मानें, वही साधु है)॥1॥ चौपाई- मात्रिक सम छन्द का भेद है।
रामचरित मानस की रचना शैली क्या है?रामचरितमानस अवधी भाषा में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा १६वीं सदी में रचित प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ को अवधी साहित्य (हिंदी साहित्य) की एक महान कृति माना जाता है। इसे सामान्यतः 'तुलसी रामायण' या 'तुलसीकृत रामायण' भी कहा जाता है। रामचरितमानस भारतीय संस्कृति में एक विशेष स्थान रखता है।
तुलसी के राम की कौन सी विशेषता है?तुलसी के राम राजा के पुत्र है, जो श्रेष्ठ मानव है । शील, सौंदर्य और शक्ति से सम्पन्न राम तुलसी के आराध्य हैं जो मर्यादापुरुषोत्तम राम हैं । तुलसी ने अपने महाकाव्य में राम के विभिन्न रूप जैसे कि आदर्श मानव, आदर्श राजा, आदर्श पति, आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श वीर, आदर्श पिता को चित्रित किया हैं ।
भरत राम का प्रेम में पाया जाने वाला छंद कौन सा है?साधु ----------- रघुराउ में दोहा छंद है !
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