Show जूट, पटसन और इसी प्रकार के पौधों के रेशे हैं। इसके रेशे बोरे, दरी, तम्बू, तिरपाल, टाट, रस्सियाँ, निम्नकोटि के कपड़े तथा कागज बनाने के काम आता है। 'जूट' शब्द संस्कृत के 'जटा' या 'जूट' से निकला समझा जाता है। यूरोप में 18वीं शताब्दी में पहले-पहल इस शब्द का प्रयोग मिलता है, यद्यपि वहाँ इस द्रव्य का आयात 18वीं शताब्दी के पूर्व से "पाट" के नाम से होता आ रहा था। जूट के रेशे साधारणतया छह से लेकर दस फुट तक लंबे होते हैं, पर विशेष अवस्थाओं में 14 से लेकर 15 फुट तक लंबे पाए गए हैं। तुरंत का निकाला रेशा अधिक मजबूत, अधिक चमकदार, अधिक कोमल और अधिक सफेद होता है। खुला रखने से इन गुणों का ह्रास होता है। जूट के रेशे का विरंजन कुछ सीमा तक हो सकता है, पर विरंजन से बिल्कुल सफेद रेशा नहीं प्राप्त होता। रेशा आर्द्रताग्राही होता है। छह से लेकर 23 प्रति शत तक नमी रेशे में रह सकती है। जूट की पैदावार, फसल की किस्म, भूमि की उर्वरता, अंतरालन, काटने का समय आदि, अनेक बातों पर निर्भर करते हैं। कैप्सुलैरिस की पैदावार प्रति एकड़ 10-15 मन और ओलिटोरियस की 15-20 मन प्रति एकड़ होती है। अच्छी जोताई से प्रति एकड़ 30 मन तक पैदावार हो सकती है। जूट के रेशे से बोरे, हेसियन तथा पैंकिंग के कपड़े बनते हैं। कालीन, दरियाँ, परदे, घरों की सजावट के सामान, अस्तर और रस्सियाँ भी बनती हैं। डंठल जलाने के काम आता है और उससे बारूद के कोयले भी बनाए जा सकते हैं। डंठल का कोयला बारूद के लिये अच्छा होता है। डंठल से लुगदी भी प्राप्त होती है, जो कागज बनाने के काम आ सकती है। विश्व में जूट का उत्पादन[संपादित करें]
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संस्थाएँ[संपादित करें]
जूट के पौधे से क्या होता है?जूट एक द्विबीजपत्री, रेशेदार पौधा है। इसका तना पतला और बेलनाकार होता है। जूट, पटसन और इसी प्रकार के पौधों के रेशे हैं। इसके रेशे बोरे, दरी, तम्बू, तिरपाल, टाट, रस्सियाँ, निम्नकोटि के कपड़े तथा कागज बनाने के काम आता है।
भारत में जूट की खेती कब की जाती है?इसकी बुआई के लिए अगस्त-सितम्बर का मौसम सही होता है। लेकिन खेत की स्थिति तथा बीज की किस्म के आधार पर मार्च-अप्रैल में भी इसकी बुआई की जाती है। जूट का तना पतला और बेलनाकार होता है। जूट के बीज से फसल उगाई जाती है।
जूट कहाँ से प्राप्त होता है?विश्व में जूट का उत्पादन. जूट कैसे होती है?जूट भारत की एक महत्वपूर्ण रेशेयुक्त फसल है । जूट की फसल (jute ki fasal) के पौधे के छिलके से रेशा प्राप्त किया जाता है, जिसमें लगभग 10 से 30 दिन तक का समय लगता है । जल की उपलब्धता एवं जीवाणुओं की सक्रियता बढ़ाकर इसे जल्दी पूर्ण कराया जाता है इसके लिए लगभग 30 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान की आवश्यकता होती है ।
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