नैतिकता व्यक्ति के स्वभाव के अनुकूल आचरण है व्यक्ति के निम्न स्वभाव के अंतर्गत वह स्वार्थी, पाशविक एवं वासनात्मक आचरण करता है। दूसरों के सुख-सुविधा हेतु त्याग एवं परोपकार व्यक्ति के उच्च स्वभाव की प्रवृत्तियाँ हैं। जब व्यक्ति अपनी स्वार्थमय प्रवृत्तियाँ से ऊपर उठकर परमार्थ या दूसरों के लिये भी उसी प्रकार के आचरण करता है जैसा कि वह दूसरों से अपने लिए अपेक्षा करता है तो ऐसे आचरण को नैतिक आचरण कहा जाता है।
मनोविश्लेषक मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में नैतिक विकास : ‘‘मनोविश्लेषण एवं मनोविज्ञान के प्रवर्तक सिग्मण्ड फॉयड नैतिकता को कृत्रिम वस्तु मानते हैं। उनके अनुसार, नैतिकता का आधार न तो मनुष्य की मूल प्रवृत्तियाँ हैं और न कोई दूसरा जन्मजात तत्व।’’ इसका आधार समाज में प्रचलित सामाजिक भावनाएँ एवं मान्यतायें ही है। ये भावनाऐं तथा मान्यताएँ मनुष्य के प्राकृतिक स्वभाव पर नियंत्रण करती है तथा उसका दमन करती हैं। मनोविज्ञान के अनुसार माता-पिता तथा परिवारजनों द्वारा दिये जाने वाले उचित या अनुचित
विचारों के अनुरूप बालकों के नैतिक मन का निर्माण होता है। माता-पिता की मान्यताओं एवं नैतिक धारणाओं को बालक अवचेतन मन से आत्मसात् करते हैं। इसमें तादात्मीकरण कर माता-पिता से समन्वय स्थापित करते हैं यदि माता-पिता बालकों के नैतिक प्रशिक्षण में पर्याप्त दृढ़ता एवं अनियमितता रखते हैं एवं स्नेहयय व्यवहार करते हैं तो बालकों का अंत:करण शक्तिशाली होता है तथा उनका नैतिक विकास अच्छा होता है। जीन पियाजे ने प्रत्येक स्तर पर नैतिक विकास हेतु उस
अवस्था के अनुरूप ज्ञानात्मक कौशलों को आवश्यक बताया उनके अनुसार नैतिक तर्क के लिए उच्चस्तरीय तार्किक विवेक या ज्ञानात्मक विकास आवश्यक है किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि व्यक्ति में उच्च ज्ञानात्मक विकास के साथ उच्च नैतिक तर्क की क्षमता भी हो। पियाजे के अनुसार, बालक जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है उसका नैतिक विकास अपने मन में बनाये स्थायी नियमों से हटकर समाज के परिवर्तनशील नियमों की ओर होता जाता है जो समाज में रहने वाले प्राणियों के हित से संबंधित रहते हैं। जीन पियाजे ने बालकों के द्वारा खेल में छिपे नियमों को समझने के तरीकों का अवलोकन किया तथा उसी को नैतिक नियमों को समझने का आधार पाया। उनका विश्वास है कि नैतिक विकास बालक तथा उसके सामाजिक वातावरण के बीच होने वाली क्रिया प्रतिक्रिया का परिणाम है। पियाजे के अनुसार, बालक खेल के नियमों का आदर करते हैं। अधिकांशत: नियम आपसी सहमति के आधार पर निर्मित होते हैं तथा उनमें नैतिक विकास का आधार है। जीन पियाजे के अनुसार, छोटा बालक प्रतिकारात्मक न्याय के नैतिक विचार से नियंत्रित होता है। खराब आदमी को सजा मिलनी ही चाहिए, वह यह विचार नहीं कर पाता कि उसने कोई कानून क्यों तोड़ा दूसरी ओर एक किशोर अपने नैतिक निर्णय औचित्य के आधार पर लेता है एवं दण्ड व्यक्ति के अपराध के संबंध में उत्तरदायित्व पर निर्भर होता है। जीन पियाजे के नैतिक विकास की अवस्थाएंजीन पियाजे की नैतिक विकास की अवस्थाओं को निम्न प्रकार से बतलाया गया है :
कोहलबर्ग का नैतिक विकास का सिद्धांतकोहलबर्ग ने प्याजे के नैतिक विकास के सिद्धांत को व्यापक बनाया है। कोहलबर्ग ने नैतिक विकास के सामाजिक परिप्रेक्ष्य पर बल दिया है। कोहलबर्ग का विश्वास है कि नैतिक विकास का ज्ञानात्मक विकास के साथ घनिष्ठ संबंध है एवं सीधे जैविक एवं स्नायु संरचना की अपेक्षा यह व्यक्ति के ज्ञानात्मक विकास तथा सामाजिक अनुभवों के बीच क्रिया प्रतिक्रिया का परिणाम हैं। कोहलबर्ग के नैतिक विकास की अवस्थायें कोहलबर्ग के अनुसार नैतिक विकास के तीन स्तर हैं, जिन्हें इस प्रकार से बतलाया गया है : (1) पूर्व-परम्परागत स्तर - लगभग नौ वर्ष की अवस्था के बालकों में तथा अपराधी व्यक्तियों में इस प्रकार की नैतिकता होती है। इस अवस्था में बालक सांस्कृतिक नियमों के प्रति अनुक्रिया करते हैं। इस स्तर के अंतर्गत निम्नलिखित दो अवस्थायें आती हैं :
(2) परम्परागत स्तर - अवस्था में बालक परिवार वालों तथा अपने साथियों की आशंका की पूर्ति करने लगते हैं। अधिकतर किशोर तथा प्रौढ़ परम्परागत नैतिक व्यवहार करते हैं। इसके अंतर्गत निम्न अवस्थायें आती हैं :
(3) उत्तर परम्परागत स्तर - नैतिक विकास की यह सर्वोच्च स्थिति है वहाँ किशोर बालक-बालिका जीवन के नैतिक सिद्धांतों का निर्माण करते हैं इस स्थिति में समाज के नियमों एवं आशाओं की समझ पैदा होती है किन्तु, सामाजिक नियमों का पालन नैतिक आत्मसातीकरण पर निर्भर है। इस स्तर पर पहुँचने पर व्यक्ति का व्यवहार बाह्म प्रेरकों की अपेक्षा आंतरिक प्रेरणा से अभिप्रेरित होता है। इस स्तर के अंतर्गत दो अवस्थायें आती हैं :
पियाजे एवं कोहलबर्ग के नैतिक विकास के सिद्धांत का शैक्षिक महत्वकोहलबर्ग के अनुसार, नैतिक विकास की छ: अवस्थाओं में से व्यक्ति विशेष या संस्कृति विशेष किसी एक अवस्था तक पहुँचकर उसी पर स्थिर हो जाता है किशोरावस्था में नैतिक शिक्षा के अभाव में सम्भव है कि किशोर विकास की अपरिपक्व अवस्था में आ जाये। नैतिक परिपक्वता स्वकेंद्रित होने से सामाजिक मान्यता की अवस्था तथा नैतिक स्वतंत्रता की ओर विकास है, इसके लिए व्यक्तिगत प्रयत्न एवं सामाजिक सहयोग दोनों की आवश्यकता है। छात्रों के नैतिक विकास के लिए निम्नलिखित कौशलों का विकास शिक्षा द्वारा किया जा सकता है :
सन्दर्भ -
जीन पियाजे का नैतिक विकास का सिद्धांत क्या है?पियाजे के अनुसार, बालक खेल के नियमों का आदर करते हैं। अधिकांशत: नियम आपसी सहमति के आधार पर निर्मित होते हैं तथा उनमें नैतिक विकास का आधार है। जीन पियाजे के अनुसार, छोटा बालक प्रतिकारात्मक न्याय के नैतिक विचार से नियंत्रित होता है।
जीन पियाजे ने नैतिक विकास की कितनी अवस्थाएं बताई है?पियाजे ने नैतिक विकास का सिद्धांत प्रतिपादित किया था पियाजे के अनुसार नैतिक निर्णय के विकास में एक निश्चित क्रम में उतार की परम पाया जाता है। पियाजे के अनुसार नैतिक अवस्थाएं दो प्रकार की होती हैं।
जीन पियाजे ने कौन कौन से सिद्धांत दिए हैं?जीन प्याजे ने व्यापक स्तर पर संज्ञानात्मक विकास का अध्ययन किया। पियाजे के अनुसार, बालक द्वारा अर्जित ज्ञान के भण्डार का स्वरूप विकास की प्रत्येक अवस्था में बदलता हैं और परिमार्जित होता रहता है। पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धान्त को विकासात्मक सिद्धान्त भी कहा जाता है।
कोहलबर्ग के अनुसार नैतिक विकास के कितने स्तर हैं?लारेन्स कोलबर्ग (1927 – 1987) के नैतिक विकास के छः चरण हैं जिन्हें आसानी से पहचाना जा सकता है। इन छः चरणों में से प्रत्येक चरण नैतिक दुविधाएँ सुलझाने में अपने पूर्व चरण से अधिक परिपूर्ण कोलबर्ग ने नैतिक विकाश के सिद्धान्त को अबस्था का सिद्धान्त भी कहा है।
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