इनमें से कौन बॉम्बे प्लान में शामिल नहीं थे? - inamen se kaun bombe plaan mein shaamil nahin the?

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 3 Politics of Planned Development (नियोजित विकास की राजनीति)

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 3 Politics of Planned Development (नियोजित विकास की राजनीति)

UP Board Class 12 Civics Chapter 3 Text Book Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 3 पाठ्यपुस्तक से अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1.
‘बॉम्बे प्लान’ के बारे में निम्नलिखित में कौन-सा बयान सही नहीं है-
(क) यह भारत के आर्थिक भविष्य का एक ब्लू-प्रिण्ट था।
(ख) इसमें उद्योगों के ऊपर राज्य के स्वामित्व का समर्थन किया गया था।
(ग) इसकी रचना कुछ अग्रणी उद्योगपतियों ने की थी।
(घ) इसमें नियोजन के विचार का पुरजोर समर्थन किया गया था।
उत्तर:
(ख) इसमें उद्योगों के ऊपर राज्य के स्वामित्व का समर्थन किया गया था।

प्रश्न 2.
भारत ने शुरुआती दौर में विकास की जो नीति अपनाई उसमें निम्नलिखित में से कौन-सा विचार शामिल नहीं था
(क) नियोजन
(ख) उदारीकरण
(ग) सहकारी खेती
(घ) आत्मनिर्भरता।
उत्तर:
(ख) उदारीकरण।

प्रश्न 3.
भारत में नियोजित अर्थव्यवस्था चलाने का विचार ग्रहण किया गया था-
(i) बॉम्बे प्लान से
(ii) सोवियत खेमे के देशों के अनुभवों से
(iii) समाज के बारे में गांधीवादी विचार से
(iv) किसान संगठनों की माँगों से।
(क) सिर्फ (ii) और (iv)
(ख) सिर्फ (i) और (ii)
(ख) सिर्फ (iv) और (iii)
(घ) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(घ) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित का मेल करें-

इनमें से कौन बॉम्बे प्लान में शामिल नहीं थे? - inamen se kaun bombe plaan mein shaamil nahin the?


उत्तर:
इनमें से कौन बॉम्बे प्लान में शामिल नहीं थे? - inamen se kaun bombe plaan mein shaamil nahin the?

प्रश्न 5.
आजादी के समय विकास के सवाल पर प्रमुख मतभेद क्या थे? क्या इन मतभेदों को सुलझा लिया गया?
उत्तर:
आजादी के समय विकास के सवाल पर प्रमुख मतभेद निम्नांकित थे-

(1) विकास का अर्थ समाज के प्रत्येक वर्ग हेतु अलग-अलग होता है। कुछ अर्थशास्त्री तथा रक्षा व पर्यावरण विशेषज्ञों का मत था कि पश्चिमी देशों की तरह पूँजीवाद व उदारवाद को महत्त्व दिया जाए जबकि अन्य लोग विकास के सोवियत मॉडल का समर्थन कर रहे थे। पूँजीवादी मॉडल औद्योगीकरण का समर्थक था जबकि साम्यवादी मॉडल कृषिगत विकास एवं ग्रामीण क्षेत्र को गरीबी को दूर करने पर बल देता था।

(2) विकास के क्षेत्र में आर्थिक समृद्धि हो तथा सामाजिक न्याय भी मिले इसे सुनिश्चित करने के लिए सरकार कौन-सी भूमिका निभाए? इस सवाल पर मतभेद थे।

(3) कुछ लोग औद्योगीकरण को विकास का सही रास्ता मानते थे जबकि कुछ अन्य लोग यह मानते थे कि कृषि का विकास करके ग्रामीण क्षेत्र की गरीबी दूर करना ही विकास का प्रमुख मानदण्ड होना चाहिए।

(4) कुछ अर्थशास्त्री केन्द्रीय नियोजन के पक्ष में थे जबकि कुछ अन्य विकेन्द्रित नियोजन को विकास के लिए आवश्यक मानते थे।

(5) कुछ राज्य सरकारों ने केन्द्रीकृत नियोजन के विपरीत अपना अलग ही विकास मॉडल अपनाया; जैसे-केरल राज्य में ‘केरल मॉडल’ के अन्तर्गत शिक्षा, स्वास्थ्य, भूमि सुधार, कारगर खाद्य वितरण तथा गरीबी उन्मूलन पर बल दिया गया।

इस तरह भारत ने साम्यवादी मॉडल व पूँजीवादी मॉडल को न अपनाकर इनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण बातों को लेकर अपने देश में इन्हें मिले-जुले रूप में लागू किया। भारत ने इस समस्या का हल आपसी बातचीत एवं सहमति से बीच का रास्ता अपनाते हुए मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाकर किया। इस प्रकार भारत ने विकास से सम्बन्धित अधिकांश मतभेदों को सुलझा दिया लेकिन कुछ मतभेद आज भी प्रासंगिक हैं; जैसे— भारत जैसी अर्थव्यवस्था में कृषि और उद्योग के बीच किस क्षेत्र में ज्यादा संसाधन लगाए जाने चाहिए। इसके अतिरिक्त अर्थव्यवस्था में निजी क्षेत्र व सार्वजनिक क्षेत्र को कितनी मात्रा में हिस्सेदारी दी जाए, इस पर भी मतभेद हैं।

प्रश्न 6.
पहली पंचवर्षीय योजना का किस चीज पर सबसे ज्यादा जोर था? दूसरी पंचवर्षीय योजना पहली से किन अर्थों में अलग थी?
उत्तर:
पहली पंचवर्षीय योजना में देश में लोगों को गरीबी के जाल से निकालने का प्रयास किया गया और इस योजना में ज्यादा जोर कृषि क्षेत्र पर दिया गया। इसी योजना में बाँध और सिंचाई के क्षेत्र में निवेश किया गया। विभाजन के कारण कृषि क्षेत्र को गहरी मार लगी थी और इस क्षेत्र पर तुरन्त ध्यान देना आवश्यक था। भाखड़ा-नांगल जैसी विशाल परियोजनाओं के लिए बड़ी धनराशि आवंटित की गई। इस योजना में माना गया था कि देश में भूमि के वितरण का जो ढर्रा मौजूद है उससे कृषि के विकास को सबसे बड़ी बाधा पहुँचती है। इस योजना में भूमि सुधार पर जोर दिया गया और इसे देश के विकास की बुनियादी चीज माना गया।

दोनों योजनाओं में अन्तर-

  1. पहली पंचवर्षीय योजना एवं दूसरी पंचवर्षीय योजना में प्रमुख अन्तर यह था कि जहाँ पहली पंचवर्षीय योजना में कृषि क्षेत्र पर अधिक बल दिया गया, वहीं दूसरी पंचवर्षीय योजना में भारी उद्योगों के विकास पर अधिक जोर दिया गया।
  2. पहली पंचवर्षीय योजना का मूलमन्त्र था—धीरज, जबकि दूसरी पंचवर्षीय योजना तेज संरचनात्मक परिवर्तन पर बल देती थी।

प्रश्न 7.
हरित क्रान्ति क्या थी? हरित क्रान्ति के दो सकारात्मक और दो नकारात्मक परिणामों का उल्लेख करें।
उत्तर:
हरित क्रान्ति का अर्थ— “हरित क्रान्ति से अभिप्राय कृषिगत उत्पादन की तकनीक को सुधारने तथा कृषि उत्पादन में तीव्र वृद्धि करने से है।”
हरित क्रान्ति के तत्त्व हरित क्रान्ति के तीन तत्त्व थे-

  1. कृषि का निरन्तर विस्तार,
  2. दोहरी फसल का उद्देश्य,
  3. अच्छे बीजों का प्रयोग।

इस तरह हरित क्रान्ति का अर्थ है-सिंचित और असिंचित कृषि क्षेत्रों में अधिक उपज देने वाली किस्मों को आधुनिक कृषि पद्धति से उगाकर उत्पादन बढ़ाना।

हरित क्रान्ति के दो सकारात्मक परिणाम

  1. हरित क्रान्ति में धनी किसानों और बड़े भू-स्वामियों को सबसे ज्यादा लाभ हुआ। हरित क्रान्ति से खेतिहर पैदावार में सामान्य किस्म का इजाफा हुआ (ज्यादातर गेहूँ की पैदावार बढ़ी) और देश में खाद्यान्न की उपलब्धता में वृद्धि हुई।
  2. हरित क्रान्ति के कारण कृषि में मँझोले दर्जे के किसानों यानी मध्यम श्रेणी के भू-स्वामित्व वाले किसानों को लाभ हुआ। इन्हें बदलावों से फायदा हुआ था और देश के अनेक हिस्सों में यह प्रभावशाली बनकर उभरे।

हरित क्रान्ति के नकारात्मक परिणाम

  1. इस क्रान्ति से गरीब किसानों और भू-स्वामियों के बीच का अन्तर मुखर हो उठा। इससे देश के विभिन्न हिस्सों में वामपन्थी संगठनों के लिए गरीब किसानों को लामबन्द करने के लिहाज से अनुकूल परिस्थितियाँ बन गईं।
  2. इससे समाज के विभिन्न वर्गों और देश के अलग-अलग इलाकों के बीच ध्रुवीकरण तेज हुआ जबकि बाकी इलाके खेती के मामले में पिछड़े रहे।

प्रश्न 8.
दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान औद्योगिक विकास बनाम कृषि विकास का विवाद चला था। इस विवाद में क्या-क्या तर्क दिए गए थे?
उत्तर:
दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान यह विवाद उत्पन्न हुआ कि किस क्षेत्र के विकास पर अधिक जोर दिया जाए, कृषि क्षेत्र के विकास पर या औद्योगिक विकास पर। इस विवाद के सम्बन्ध में विभिन्न तर्क दिए गए-

(1) कृषि क्षेत्र का विकास करने वाले विद्वानों का यह तर्क था कि इससे देश आत्मनिर्भर बनेगा तथा किसानों की दशा में सुधार होगा, जबकि औद्योगिक विकास का समर्थन करने वालों का यह तर्क था कि औद्योगिक विकास से देश में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे तथा देश में बुनियादी सुविधाएँ बढ़ेगी।

(2) अनेक लोगों का मानना था कि दूसरी पंचवर्षीय योजना में कृषि के विकास की रणनीति का अभाव था और इस योजना के दौरान उद्योगों पर जोर देने के कारण खेती और ग्रामीण इलाकों को चोट पहुंचेगी।

(3) कई अन्य लोगों का सोचना था कि औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर को तेज किए बगैर गरीबी के मकड़जाल से मुक्ति नहीं मिल सकती। इन लोगों का तर्क था कि भारतीय अर्थव्यवस्था के नियोजन में खाद्यान्न के उत्पादन को बढ़ाने तथा भूमि-सुधार और ग्रामीण निर्धनों के बीच संसाधनों के बँटवारे के लिए अनेक कानून बनाए गए, लेकिन औद्योगिक विकास की दिशा में कोई विशेष प्रयास नहीं किए गए।

(4) जे० सी० कुमारप्पा जैसे गांधीवादी अर्थशास्त्रियों ने एक वैकल्पिक योजना का खाका प्रस्तुत किया जिससे ग्रामीण औद्योगीकरण पर ज्यादा जोर दिया गया। इसी प्रकार चौधरी चरणसिंह ने भारतीय अर्थव्यवस्था के नियोजन में कृषि को केन्द्र में रखने की बात बड़े सुविचारित और दमदार ढंग से उठायी।

प्रश्न 9.
“अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका पर जोर देकर भारतीय नीति-निर्माताओं ने गलती की। अगर शुरुआत से ही निजी क्षेत्र को खुली छूट दी जाती तो भारत का विकास कहीं ज्यादा बेहतर तरीके से होता।” इस विचार के पक्ष या विपक्ष में अपने तर्क दीजिए।
उत्तर:
अर्थव्यवस्था के मिश्रित या मिले-जुले मॉडल की आलोचना दक्षिणपन्थी तथा वामपन्थी दोनों खेमों में हुई। आलोचकों का मत था कि योजनाकारों ने निजी क्षेत्र को पर्याप्त जगह नहीं दी है। विशाल सार्वजनिक क्षेत्र ने ताकतवर निजी स्वार्थों को खड़ा किया है तथा इन स्वार्थपूर्ण हितों ने निवेश के लिए लाइसेंस व परमिट की प्रणाली खड़ी करके निजी पूँजी का मार्ग अवरुद्ध किया है। निजी क्षेत्र के पक्ष में तर्क इस प्रकार हैं-
पक्ष में तर्क-

(1) अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका पर जोर भारत की आर्थिक नीति बनाने वाले विशेषज्ञों ने भारी गलती कर दी थी। सन् 1990 से ही भारत ने नई आर्थिक नीति को अपना लिया है तथा वह बहुत तेजी से उदारीकरण व वैश्वीकरण की ओर बढ़ रहा है। देश के कई बड़े नेता जो दुनिया में जाने-माने अर्थशास्त्री भी हैं, ये भी निजी क्षेत्र, उदारीकरण तथा सरकारी हिस्सेदारी को यथाशीघ्र सभी व्यवसायों, उद्योगों आदि में समाप्त करना चाहते हैं।
(2) विश्व की दो बड़ी संस्थाओं अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष तथा विश्व बैंक से भारत को ऋण और अधिकसे-अधिक निवेश तभी मिल सकते हैं जब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों तथा विदेशी निवेशकों का स्वागत सत्कार हो और उद्योगों के विकास हेतु आन्तरिक सुविधाओं का बड़े पैमाने पर सुधार हो। इसके लिए सरकार पूँजी नहीं जुटा सकती है। यह कार्य अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएँ तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ और बड़े-बड़े पूंजीपति कर सकते हैं जो बड़े-बड़े जोखिम उठाने हेतु तैयार हैं।
(3) अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतियोगिता में भारत तभी ठहर सकता है जब निजी क्षेत्र में छूट दे दी जाए।
(4) निजी क्षेत्र का मुख्य उद्देश्य लाभ कमाना होता है। अत: इसके सभी निर्णय लाभ की मात्रा पर आधारित
होते हैं।
(5) अर्जित सम्पत्ति पर व्यक्ति का स्वयं का अधिकार होता है। वह इसका प्रयोग करने हेतु स्वतन्त्र होता है।
(6) राज्य का हस्तक्षेप न्यूनतम रहता है। सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु वह आर्थिक क्रियाओं में हस्तक्षेप करता है।
(7) प्रत्येक आर्थिक क्षेत्र में व्यक्ति को स्वतन्त्रता होती है।
(8) कीमत यन्त्र, स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करता है। व्यवसाय के क्षेत्र जैसे उत्पादन, उपभोग, वितरण में कीमत यन्त्र ही मार्ग निर्देशित करता है।
(9) इस क्षेत्र हेतु उत्पादन तथा मूल्य निर्धारण में प्रतिस्पर्धा पायी जाती है। माँग और पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियाँ ही उत्पादन की मात्रा एवं मूल्य निर्धारित करती हैं।

विपक्ष में तर्क-

(1) सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र की भागीदारी का समर्थन करने वाले वामपन्थी विचारधारा के समर्थकों का मत है कि भारत को सुदृढ़ कृषि तथा औद्योगिक क्षेत्र में आधार सरकारी वर्चस्व और मिश्रित नीतियों से मिला है। यदि ऐसा नहीं होता तो भारत पिछड़ा ही रह जाता।

(2) भारत में विकसित देशों की तुलना में जनसंख्या अधिक है। यहाँ गरीबी है, बेरोजगारी है। यदि पश्चिमी देशों की होड़ में भारत में सरकारी हिस्से को अर्थव्यवस्था हेतु कम कर दिया जाएगा तो गरीबी फैलेगी तथा बेरोजगारी बढ़ेगी, धन और पूँजी कुछ ही कम्पनियों के हाथों में केन्द्रित हो जाएँगे जिससे आर्थिक विषमता और अधिक बढ़ जाएगी।

(3) हम जानते हैं कि भारत एक कृषिप्रधान देश है। वह संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देशों का कृषि उत्पादन में मुकाबला नहीं कर सकता। कुछ देश स्वार्थ के लिए पेटेण्ट प्रणाली को कृषि में लागू करना चाहते हैं तथा जो सहायता राशि भारत सरकार अपने किसानों को देती है वह उसे अपने दबाव द्वारा पूरी तरह खत्म करना चाहते हैं। जबकि भारत सरकार देश के किसानों को हर प्रकार से आर्थिक सहायता देकर अन्य विकासशील देशों को कृषि सहित अर्थव्यवस्था के प्रत्येक क्षेत्र में मात देना चाहती है।
(नोट-विद्यार्थी अपने उत्तर के पक्ष या विपक्ष में से एक पर अपने विचार लिख सकते हैं।)

प्रश्न 10.
निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें
आजादी के बाद के आरम्भिक वर्षों में कांग्रेस पार्टी के भीतर दो परस्पर विरोधी प्रवृत्तियाँ पनपी। एक तरफ राष्ट्रीय पार्टी कार्यकारिणी ने राज्य के स्वामित्व का समाजवादी सिद्धान्त अपनाया, उत्पादकता को बढ़ाने के साथ-साथ आर्थिक संसाधनों के संकेन्द्रण को रोकने के लिए अर्थव्यवस्था के महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों का नियन्त्रण और नियमन किया। दूसरी तरफ कांग्रेस की राष्ट्रीय सरकार ने निजी निवेश के लिए उदार आर्थिक नीतियाँ अपनाईं और उसके बढ़ावे के लिए विशेष कदम उठाए। इसे उत्पादन में अधिकतम वृद्धि की अकेली कसौटी पर जायज ठहराया गया। – फ्रैंकिन फ्रैंकल
(क) यहाँ लेखक किस अन्तर्विरोध की चर्चा कर रहा है? ऐसे अन्तर्विरोध के राजनीतिक परिणाम क्या होंगे?
(ख) अगर लेखक की बात सही है तो फिर बताएँ कि कांग्रेस इस नीति पर क्यों चल रही थी? क्या इसका सम्बन्ध विपक्षी दलों की प्रकृति से था?
(ग) क्या कांग्रेस पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व और प्रान्तीय नेताओं के बीच कोई अन्तर्विरोध था?
उत्तर:
(क) उपर्युक्त अवतरण में लेखक कांग्रेस पार्टी के अन्तर्विरोध की चर्चा कर रहा है जो क्रमश: वामपन्थी विचारधारा से और दूसरा खेमा दक्षिणपन्थी विचारधारा से प्रभावित था। अर्थात् जहाँ कांग्रेस पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी समाजवादी सिद्धान्तों में विश्वास रखती थी, वहीं राष्ट्रीय कांग्रेस की राष्ट्रीय सरकार निजी निवेश को बढ़ावा दे रही थी। इस प्रकार के अन्तर्विरोध से देश में राजनीतिक अस्थिरता फैलने की आशंका रहती है।

(ख) कांग्रेस इस नीति पर इसलिए चल रही थी क्योंकि कांग्रेस में सभी विचारधाराओं के लोग शामिल थे तथा सभी लोगों के विचारों को ध्यान में रखकर ही कांग्रेस पार्टी इस प्रकार का कार्य करती रही थी। इसके अलावा कांग्रेस पार्टी ने इस प्रकार की नीति इसलिए भी अपनाई ताकि विपक्षी दलों के पास आलोचना का कोई मुद्दा न रहे।

(ग) कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व एवं प्रान्तीय नेताओं में कुछ हद तक अन्तर्विरोध पाया गया था। जहाँ केन्द्रीय नेतृत्व राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों को महत्त्व देता था, वहीं प्रान्तीय नेता प्रान्तीय एवं स्थानीय मुद्दों को महत्त्व देते थे। परिणामस्वरूप कांग्रेस के प्रभावशाली क्षेत्रीय नेताओं ने आगे चलकर अपने अलग-अलग राजनीतिक दल बनाए; जैसे–चौधरी चरणसिंह ने ‘क्रान्ति दल’ या ‘भारतीय लोकदल’ बनाया तो उड़ीसा में बीजू पटनायक ने ‘उत्कल कांग्रेस’ का गठन किया।

UP Board Class 12 Civics Chapter 3 InText Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 3 पाठान्तर्गत प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
“मैं सोचता था कि यह तो बड़ा सीधा-सादा फॉर्मूला है। सारे फैसलों के साथ मोटी रकम जुड़ी होती है और इसी कारण राजनेता ये फैसले करते हैं।”
उत्तर:
प्रायः देखा गया है कि राजनीतिक फैसलों या निर्णयों के पीछे राजनेताओं के राजनीतिक एवं आर्थिक हित जुड़े हुए होते हैं और इन्हीं को ध्यान में रखते हुए ये लोग निर्णय लेते हैं लेकिन यह सच नहीं है। सारे फैसलों के साथ मोटी रकम नहीं जुड़ी होती। अनेक फैसले जो जनहित में लिए जाते हैं इनसे मोटी रकम का कोई सरोकार नहीं होता। राजनेता जनहित में भी फैसला करते हैं।

प्रश्न 2:
क्या आप यह कह रहे हैं कि आधुनिक’ बनने के लिए ‘पश्चिमी’ होना जरूरी नहीं है? क्या यह सम्भव है?
उत्तर:
आधुनिक बनने के लिए पश्चिमी होना जरूरी नहीं है। प्रायः आधुनिकीकरण का सम्बन्ध पाश्चात्यीकरण से माना जाता है लेकिन यह सही नहीं है, क्योंकि आधुनिक होने का अर्थ मूल्यों एवं विचारों में समस्त परिवर्तन से लगाया जाता है और यह परिवर्तन समाज को आगे की ओर ले जाने वाले होने चाहिए। आधुनिकीकरण में परिवर्तन केवल विवेक पर ही नहीं बल्कि सामाजिक मूल्यों पर भी आधारित होते हैं। इसमें वस्तुत: समाज के मूल्य साध्य और लक्ष्य भी निर्धारित करते हैं कि कौन-सा परिवर्तन अच्छा है और कौन-सा बुरा है; कौन-सा परिवर्तन आगे की ओर ले जाने वाला है और कौन-सा अधोगति में पहुँचाने वाला है।

पाश्चात्यीकरण भौतिकवाद है। अनेक बार इसके भौतिकवाद में उपयोगितावाद का अभाव होने से यह मात्र आडम्बरी, दिखावटी और शुष्क बनकर रह जाता है। इसमें परिवर्तन होते हैं परन्तु उनमें मूल्यों या साध्यों का सर्वथा अभाव रहता है। पाश्चात्यीकरण मूल्य मुक्तता पर बल देता है, इसका न कोई क्रम होता है और न कोई दिशा। इस प्रकार आधुनिक बनने के लिए पश्चिमी होना जरूरी नहीं है।

प्रश्न 3.
अरे! मैं तो भूमि सुधारों को मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने की तकनीक समझता था।
उत्तर:
भूमि सुधार का तात्पर्य मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने की तकनीक तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसके अन्तर्गत अनेक तत्त्वों को सम्मिलित किया जाता है-

  1. जमींदारी एवं जागीरदारी व्यवस्था को समाप्त करना।
  2. जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक-साथ करके कृषिगत कार्य को अधिक सुविधाजनक बनाना।
  3. बेकार एवं बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने हेतु व्यवस्था करना।
  4. भू-जल के निकास की उचित व्यवस्था करना।
  5. कृषिगत भू-जोतों की उचित व्यवस्था करना।
  6. सिंचाई के साधनों का विकास व सस्ती दरों पर किसानों को सिंचाई के साधन उपलब्ध कराना।
  7. अच्छे खाद व उन्नत बीजों की व्यवस्था करना।
  8. किसानों की समस्याओं के समाधान हेतु स्थायी सहायता केन्द्रों की व्यवस्था करना।
  9. किसानों द्वारा उत्पन्न खाद्यान्नों की उचित कीमत दिलाने का प्रयास करना।
  10. राज्य सरकारों व केन्द्र सरकार द्वारा किसानों को समय-समय पर विभिन्न प्रकार के ऋण व विशेष अनुदानों की व्यवस्था करना आदि।

इस प्रकार भूमि सुधार का क्षेत्र केवल मिट्टी की गुणवत्ता की जाँच करने तक ही सीमित नहीं बल्कि इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है।

UP Board Class 12 Civics Chapter 3 Other Important Questions

UP Board Class 12 Civics Chapter 3 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
हरित क्रान्ति क्या है? हरित क्रान्ति के सकारात्मक एवं नकारात्मक पहलू बताइए। अथवा हरित क्रान्ति किसे कहते हैं? इसकी सफलता के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
हरित क्रान्ति का अर्थ हरित क्रान्ति से अभिप्राय कृषि उत्पादन में होने वाली उस भारी वृद्धि से है जो कृषि की नई नीति अपनाने के कारण हुई है।
जे० जी० हाटर के शब्दों में, “हरित क्रान्ति शब्द 1968 में होने वाले उन आश्चर्यजनक परिवर्तनों के लिए प्रयोग में लाया जाता है जो भारत के खाद्यान्न उत्पादन में हुए थे तथा अब भी जारी हैं।”

भारत में सन् 1967-68 में नई कृषि नीति अपनाने से कृषि उत्पादन में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई थी जिसका भारतीय अर्थव्यवस्था पर दीर्घकालीन प्रभाव पड़ा। हरित क्रान्ति की पद्धति के मुख्य रूप से तीन तत्त्व थे

  • कृषि का निरन्तर विस्तार करना।
  • दोहरी फसलों का उत्पादन करना।
  • अधिक उत्पादन हेतु अच्छे बीजों का प्रयोग किया जाए।

हरित क्रान्ति के सकारात्मक प्रभाव
अथवा
हरित क्रान्ति की सफलता के विभिन्न पक्ष भारत में हरित क्रान्ति के सकारात्मक परिणाम सामने आए, जो इस प्रकार हैं-

1. उत्पादन में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई—हरित क्रान्ति का सबसे अधिक प्रभाव कृषिगत उत्पादन की मात्रा पर पड़ा। इससे भारत में रिकॉर्ड पैदावार हुई। सन् 1978-79 में भारत में लगभग 131 मिलियन टन गेहूँ का उत्पादन हुआ तथा जो देश गेहूँ का आयात करता था, वह अब गेहूँ को निर्यात करने की स्थिति में आ गया।

2. औद्योगिक विकास को बढ़ावा-हरित क्रान्ति के कारण भारत में न केवल कृषि क्षेत्र को फायदा हुआ बल्कि इसने औद्योगिक विकास को भी बढ़ावा दिया। हरित क्रान्ति में अच्छे बीजों, अधिक पानी, खाद तथा कृत्रिम यन्त्रों की आवश्यकता थी, जिसके लिए उद्योग लगाए गए। इससे लोगों को रोजगार भी प्राप्त हुआ।

3. बुनियादी ढाँचे का विकास–हरित क्रान्ति की एक सफलता यह रही कि इसके परिणामस्वरूप भारत में बुनियादी ढाँचे में उत्साहजनक विकास देखने को मिला।

4. राजनीतिक स्तर में बढ़ोतरी-भारत में हरित क्रान्ति का एक सकारात्मक प्रभाव यह पड़ा कि भारत की अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर और अधिक मजबूत छवि बन गई। हरित क्रान्ति के परिणामस्वरूप भारत खाद्यान्न क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो गया, जिससे भारत को अमेरिका पर खाद्यान्न के लिए निर्भर नहीं रहना पड़ा और इसका प्रभाव सन् 1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध में देखा गया।

5. विदेशों में भारतीय किसानों की माँग बढ़ी-भारत की हरित क्रान्ति से कई देश इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने भारतीय किसानों को अपने देश में बसाने के लिए प्रोत्साहित किया। कनाडा जैसे देश ने भारत सरकार से किसानों की माँग की जिसके कारण पंजाब व हरियाणा से कई किसान कनाडा में जाकर बस गए।

6. जल विद्युत शक्ति को बढ़ावा-बाँधों द्वारा संचित किए गए पानी का जलविद्युत शक्ति के उत्पादन में प्रयोग किया।

7. किसानों में संगठनात्मक एकता जाग्रत हुई—अधिकांश भारतीय किसान निरक्षर हैं, उनमें संगठनात्मक एकता का अभाव था। लेकिन हरित क्रान्ति (1967-68) के बाद जब उनकी दशा सुधरने लगी तो उनमें संगठनात्मक एकता की भावना का विकास होने लगा। भारतीय किसान यूनियन किसानों की इसी संगठनात्मक भावना का प्रतीक है। आज किसान पहले से अधिक संगठित हैं। किसानों की इस संगठनात्मक एकता के पीछे हरित क्रान्ति का ही हाथ है।

8. आन्दोलनों व प्रदर्शनों को बढ़ावा मिला हरित क्रान्ति से किसानों में चेतना आई है जिससे वे अपने अधिकारों की रक्षा के लिए आन्दोलनों व प्रदर्शनों का सहारा लेने लगे हैं। भारतीय किसान यूनियन (BKU) किसानों के हितों की रक्षा करने वाला एक संगठन है। इसके माध्यम से वे अपनी माँगें प्रशासन के समक्ष रखते हैं।

इस प्रकार हरित क्रान्ति ने एक लम्बे समय से सुस्त और निष्क्रिय पड़ी ग्रामीण जनता में नव-चेतना भर दी और इस क्रान्ति ने न केवल कृषिगत क्षेत्र बल्कि अन्य क्षेत्रों जैसे उद्योग, व्यापार, विद्युत आदि को भी प्रभावित किया।

प्रश्न 2.
नियोजन का अर्थ बताइए तथा उसके महत्त्व की विवेचना कीजिए। अथवा नियोजन से आप क्या समझते हैं? नियोजन की आवश्यकता एवं उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए। अथवा नियोजन का अर्थ, आवश्यकता एवं महत्त्व की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
नियोजन का अर्थ-नियोजन का अर्थ है-उचित रीति से सोच-विचार कर कदम उठाना। अर्थात् इसका अर्थ ‘पूर्व दृष्टि’ या आगे की ओर देखने से है ताकि यह स्पष्ट पता चल जाए कि क्या काम किया जाना है।

भारतीय योजना आयोग के अनुसार, “नियोजन साधनों के संगठन की एक विधि है जिसके माध्यम से साधनों का अधिकतम लाभप्रद उपयोग निश्चित सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है।”

भारत में नियोजन की आवश्यकता-वर्तमान युग नियोजन का युग है और विश्व के लगभग सभी देश अपने विकास और उन्नति के लिए आर्थिक नियोजन से जुड़े हुए हैं। भारत ने कई कारणों से नियोजन की आवश्यकता महसूस की—

  1. देश की निर्धनता,
  2. बेरोजगारी की समस्या,
  3. औद्योगीकरण की आवश्यकता,
  4. विभाजन से उत्पन्न आर्थिक असन्तुलन तथा अन्य समस्याएँ,
  5. सामाजिक तथा आर्थिक विषमताएँ,
  6. देश का पिछड़ापन, धीमी गति से विकास, विस्फोटक जनसंख्या आदि। ये सब समस्याएँ एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं अतः इनके निवारण व देश के समुचित विकास के लिए नियोजन ही एकमात्र विकल्प है।

नियोजन के उद्देश्य

भारत में नियोजन के उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

1. पूर्ण रोजगार-भारत में बेरोजगारी एक अत्यन्त गम्भीर समस्या है। अतः इस समस्या को दूर कर लोगों को पूर्ण रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना नियोजन का प्रमुख उद्देश्य है।

2. गरीबी का उन्मूलन-निर्धनता की समस्या का निवारण दीर्घकालीन योजनाओं के माध्यम से ही किया जा सकता है। व्यक्ति की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति व जीवकोपार्जन के साधन उपलब्ध कराना नियोजन का दूसरा प्रमुख उद्देश्य है।

3. सामाजिक समानता की स्थापना करना—नियोजन आर्थिक संसाधनों के समान वितरण हेतु आवश्यक है। नियोजन के माध्यम से राज्य ऐसे कदम उठाता है जिससे धन का समान वितरण हो।

4. उपलब्ध संसाधनों का उचित प्रयोग-नियोजन के माध्यम से उपलब्ध संसाधनों का अधिकतम लाभप्रद उपयोग निश्चित सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु किया जाता है।

5. सन्तुलित क्षेत्रीय विकास-सम्पूर्ण राष्ट्र के जीवन स्तर में समानता स्थापित करने के लिए राष्ट्र के अविकसित तथा अर्द्धविकसित क्षेत्रों को राष्ट्र के अन्य उन्नत क्षेत्रों के समान करना भी नियोजन का एक प्रमुख ध्येय होता है, अर्थात् नियोजन के माध्यम से ही क्षेत्रीय असन्तुलन को दूर किया जा सकता है।

6. राष्ट्रीय आय व प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि करना-नियोजन का अन्य उद्देश्य कृषि उद्योग क्षेत्र मे वृद्धि व आयात-निर्यात में सन्तुलन स्थापित करके राष्ट्रीय आय में अधिकाधिक वृद्धि करना है। इसके अलावा लोगों के लिए आय व रोजगार के साधनों में वृद्धि करके प्रति व्यक्ति आय को बढ़ाना है।

7. सामाजिक उद्देश्य-नियोजन के सामाजिक उद्देश्यों में वर्ग रहित समाज की स्थापना का लक्ष्य शामिल है। श्रमिक व उद्योगपति दोनों को उत्पत्ति का उचित अंश मिलना चाहिए, पिछड़ी जातियों को शिक्षा में सुविधाएँ देना, सरकारी सेवाओं में प्राथमिकता प्रदान करना तथा अन्य पिछड़ी जातियों को समान स्तर पर लाना नियोजन का ध्येय है।

इस प्रकार नियोजन आधुनिक युग की नूतन प्रवृत्ति है। इसके अभाव में राष्ट्र सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक क्षेत्र में प्रगति नहीं कर सकता।

प्रश्न 3.
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका एवं महत्त्व का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका एवं महत्त्व—भारत एक विकासशील देश है जिसमें मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया गया है। इस दृष्टि से यहाँ सार्वजनिक उद्यमों का विशेष महत्त्व है। इनकी बढ़ती हुई भूमिका को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है

1. समाजवादी समाज की स्थापना-आर्थिक असमानता को कम करके समाजवादी समाज की स्थापना के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम महत्त्वपूर्ण हैं।

2. सन्तुलित आर्थिक विकास में सहायक-भारत में क्षेत्रीय असन्तुलन पाया जाता है। यहाँ एक ओर ऐसे राज्य हैं जो आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हैं; जैसे-पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, गुजरात आदि; वहीं दूसरी ओर कुछ राज्य पिछड़े हुए हैं; जैसे—बिहार, ओडिशा, हिमाचल प्रदेश आदि। इन पिछड़े हुए क्षेत्रों के विकास तथा इनको अन्य विकसित राज्यों के समकक्ष लाने के लिए सरकारी उद्यमों की स्थापना की जाती है। ये सार्वजनिक उद्यम पिछड़े क्षेत्रों में तीव्र विकास और पिछड़े तथा सम्पन्न राज्यों के बीच खाई को पाटने में सहायक हैं।

3. सामरिक (सुरक्षा) उद्योगों के लिए महत्त्वपूर्ण-नागरिकों की सुरक्षा के लिए आवश्यक है कि सैनिकों व शस्त्रागारों में श्रेष्ठ किस्म के शस्त्र हों, अत: विश्वसनीय हथियारों के निर्माण को निजी क्षेत्र को नहीं सौंपा जा सकता। इसलिए यह आवश्यक है कि प्रतिरक्षा उद्योगों पर सार्वजनिक नियन्त्रण होना चाहिए।

4. लोक-कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण-कुछ मूलभूत जन उपयोगी सेवाएँ जैसे पानी, बिजली, परिवहन, स्वास्थ्य सुविधा और शिक्षा आदि को सार्वजनिक क्षेत्र के लिए रखा जाना चाहिए क्योंकि निजी क्षेत्र इन सेवाओं में भी लक्ष्य की तलाश करता है। सार्वजनिक क्षेत्र इन सेवाओं को न्यूनतम कीमत पर जनता को उपलब्ध करवाता है।

5. अर्थव्यवस्था पर नियन्त्रण-अर्थव्यवस्था को उतार-चढ़ाव से बचाने के लिए तथा इसको नियमित रखने के लिए सरकारी नियन्त्रण आवश्यक है।

6. विदेशी सहायता-अल्पविकसित देशों में आन्तरिक साधन कम पड़ जाते हैं। अत: आर्थिक विकास के लिए बाहरी देशों पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसी स्थिति में विदेशी सहायता सार्वजनिक क्षेत्रों को ही मिलती है। इसलिए विदेशी सहायता की प्राप्ति के लिए भी सार्वजनिक क्षेत्र महत्त्वपूर्ण हैं।

7. प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा-सार्वजनिक क्षेत्र में प्राकृतिक संसाधनों का जनहित में विवेकपूर्ण ढंग से विदोहन सम्भव होता है।

8. रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना-बेरोजगारी को दूर करने में सहायता प्रदान करता है। बड़े-बड़े उद्यमों में रोजगार के अवसर पैदा करना सार्वजनिक क्षेत्र के महत्त्व को प्रकट करता है।

9. निर्यात को प्रोत्साहन-सार्वजनिक क्षेत्र देश के निर्यात को बढ़ाने में बहुत सहायक सिद्ध हुआ है।

10. सहायक उद्योगों का विकास सार्वजनिक क्षेत्र ने सहायक उद्योगों के विकास में सहायता प्रदान की है जिससे इन उद्योगों में लगे लोगों को रोजगार प्राप्त हुआ है।

11. निजी क्षेत्र के दोषों को दूर करने में सहायक-निजी क्षेत्र व्यक्तिगत लाभ पर आधारित होते हैं। लाभ कमाने के लिए निजी क्षेत्र प्रतिस्पर्धा को उत्पन्न करते हैं। इस प्रतिस्पर्धा में अन्ततः उपभोक्ता अर्थात् सामान्यजन को नुकसान होता है। सार्वजनिक क्षेत्र जनकल्याण की दृष्टि से काम करता है। यह निजी क्षेत्र की लूट प्रवृत्ति को कम करने में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है।

इस प्रकार भारत में मिश्रित स्वरूप वाली अर्थव्यवस्था ने सार्वजनिक उद्यमों में अर्थव्यवस्था के लिए मजबूत आधार-स्तम्भ के रूप में कार्य किया है।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की प्रमुख समस्याओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की प्रमुख समस्याएँ-

  1. कार्यकुशलता का अभाव-सार्वजनिक क्षेत्र में व्यापक पैमाने पर लाल फीताशाही और अफसरशाही पायी जाती है। यही कारण है कि सार्वजनिक क्षेत्र की कार्यकुशलता निजी क्षेत्र से कम रह जाती है।
  2. अनुशासनहीनता-सार्वजनिक क्षेत्र में प्रबन्ध की कमी के कारण प्रशासन में अनुशासनहीनता और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है।
  3. प्रतिस्पर्धा का अभाव-स्वस्थ प्रतिस्पर्धा वस्तुओं की गुणवत्ता में सुधार के लिए आवश्यक है लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र में एकाधिकार के कारण वस्तुओं की कीमतें तो बढ़ा दी जाती हैं लेकिन गुणवत्ता नहीं।
  4. लाभ का अंश बहुत कम-सार्वजनिक उद्यमों के पिछले सभी आँकड़े देखने में यह तथ्य उजागर हुआ है कि रेलवे, डाक-तार व अन्य कई सार्वजनिक प्रतिष्ठान भारी घाटे में चल रहे हैं। इनकी लाभ प्रत्याशा बहुत ही निम्न रही है।

प्रश्न 2.
मिश्रित अर्थव्यवस्था के मॉडल के दोषों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
मिश्रित अर्थव्यवस्था के मॉडल के दोष-भारत में अपनाए गए विकास के मिश्रित अर्थव्यवस्था के मॉडल के दोषों का दक्षिणपन्थी और वामपन्थी दोनों खेमों ने उल्लेख किया है-

  1. योजनाकारों ने निजी क्षेत्र को पर्याप्त जगह नहीं दी है और न ही निजी क्षेत्र की वृद्धि के लिए कोई उपाय किया गया है।
  2. विशाल सार्वजनिक क्षेत्र ने ताकतवर निहित स्वार्थों को खड़ा किया है और इन हितों ने निवेश के लिए लाइसेन्स तथा परमिट की प्रणाली खड़ी करके निजी पूँजी की राह में रोड़े अटकाए हैं।
  3. सरकार ने अपने नियन्त्रण में जरूरत से ज्यादा चीजें रखीं। इससे भ्रष्टाचार और अकुशलता बढ़ी है।
  4. सरकार ने केवल उन्हीं क्षेत्रों में हस्तक्षेप किया जहाँ निजी क्षेत्र जाने को तैयार नहीं थे। इस तरह सरकार ने निजी क्षेत्र को मुनाफा कमाने में मदद की।

प्रश्न 3.
योजना आयोग का गठन किन कारणों से किया गया था? क्या वह अपने गठन के उद्देश्य में सफल रहा?
उत्तर:
योजना आयोग का गठन-भारत में योजना आयोग का गठन 15 मार्च, 1950 को किया गया। इसका गठन निम्नलिखित उद्देश्यों को पूरा करने के लिए किया गया था-

  1. पूर्ण रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना,
  2. गरीबी का उन्मूलन करना,
  3. सामाजिक समानता की स्थापना करना,
  4. उपलब्ध संसाधनों का उचित प्रयोग करना,
  5. सन्तुलित क्षेत्रीय विकास करना, तथा
  6. राष्ट्रीय आय और प्रति व्यक्ति आय बढ़ाना। लेकिन योजना आयोग अपने गठन के उद्देश्यों में पूर्णतः सफल नहीं हुआ है। वह अपने उद्देश्यों में आंशिक रूप से ही सफल हुआ है। बेरोजगारी की समस्या अभी भी बनी हुई है। देश में गरीबी विद्यमान है; गरीब और गरीब हुआ है तथा अमीर और अमीर बना है। अत: सामाजिक असमानता कम होने के स्थान पर बढ़ी है। देश में क्षेत्रीय विकास सन्तुलित न होकर असन्तुलित हुआ है।

प्रश्न 4.
हरित क्रान्ति के विषय में कौन-कौन सी आशंकाएँ थीं? क्या यह आशंकाएँ सच निकलीं?
उत्तर:
सामान्यत: हरित क्रान्ति के विषय में दो भ्रान्तियाँ थीं-

(1) हरित क्रान्ति से अमीरों तथा गरीबों में विषमता बढ़ जाएगी क्योंकि बड़े जमींदार ही इच्छित अनुदानों का क्रय कर सकेंगे और उन्हें ही हरित क्रान्ति का लाभ मिलेगा तथा वे और अधिक धनी हो जाएँगे। निर्धनों को हरित क्रान्ति से कोई लाभ प्राप्त नहीं होगा।

(2) उन्नत बीज वाली फसलों पर जीव-जन्तु आक्रमण करेंगे। दोनों भ्रान्तियाँ सच नहीं हुई हैं क्योंकि सरकार ने छोटे किसानों को निम्न ब्याज दर पर ऋणों की व्यवस्था की और रासायनिक खादों पर आर्थिक सहायता दी ताकि वे उन्नत बीज तथा रासायनिक खाद सरलता से खरीद सकें और उनका उपयोग कर सकें। जीव-जन्तुओं के आक्रमणों को भारत सरकार द्वारा स्थापित अनुसन्धान संस्थाओं की सेवाओं से कम कर दिया गया।

बॉम्बे प्लान में कौन कौन शामिल थे?

वर्ष 1944 में मुंबई के 8 उद्योगपतियों द्वारा बॉम्बे प्लान योजना प्रस्तुत किया गया निम्नलिखित में से किसकी देख-रेख में यह योजना प्रस्तुत की गई?.
एम. विश्वेश्वरैया.
श्रीमन नारायण अग्रवाल.
के.सी. नियोगी.
श्रीमान आर्देशिर दलाल.

बॉम्बे प्लान के बारे में निम्नलिखित में कौन सा बयान सही नही है?

यह भारत के आर्थिक भविष्य का एक ब्लू-प्रिंट था। इसमें उद्योगों के ऊपर राज्य के स्वामित्व का समर्थन किया गया था। इसकी रचना कुछ अग्रणी उद्योगपतियों ने की थी।

बॉम्बे प्लान क्या थी?

इसका उद्देश्य भारत में मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देना और सरकारी हस्तक्षेप और विनियमन को कम करना था। 2. इस योजना के तहत सामाजिक कल्याण और सामाजिक विषमताओं को कम करने के लिए वृहत पैमाने वाले साधनों को बढ़ावा दिया गया।

बॉम्बे प्लान कब हुआ था?

Q. बॉम्बे प्लान कब प्रस्तुत किया गया? Notes: 1944 में मुम्बई के 8 उद्योगपतियों ने 15 वर्षीय पूंजीवादी योजना पेश की ,जिसे बॉम्बे प्लान कहा गया।