एक फूल की चाह कविता के कवि का नाम क्या है class 9? - ek phool kee chaah kavita ke kavi ka naam kya hai chlass 9?

एक फूल की चाह Class 9, Sparsh book Chapter 10 Summary, Explanation and Question Answers

एक फूल की चाह कविता के कवि का नाम क्या है class 9? - ek phool kee chaah kavita ke kavi ka naam kya hai chlass 9?

एक फूल की चाह  Class 9 Hindi summary  from Sparsh Lesson 10 with a detailed explanation of the Poem ‘Ek Phool ki Chah’ along with meanings of difficult words.

Given here is the complete explanation of the poem, along with a summary and all the exercises, Questions, and Answers given at the back of the lesson.

Class 9 Sparsh Chapter 10 ‘Ek Phool ki Chah’

एक फूल की चाह कक्षा 9 स्पर्श भाग 1 पाठ 10

यहाँ हम हिंदी कक्षा 9 ”स्पर्श – भाग 1” के काव्य खण्ड पाठ 10 “एक फूल की चाह” के पाठ प्रवेश, पाठ सार, पाठ व्याख्या, कठिन शब्दों के अर्थ, अतिरिक्त प्रश्न और NCERT पुस्तक के अनुसार प्रश्नों के उत्तर इन सभी बारे में जानेंगे –

  • एक फूल की चाह पाठ प्रवेश
  • See Video Explanation Part 1 of Chapter 10 Ek Phool ki Chah Class
  • See Video Explanation Part 2 of Chapter 10 Ek Phool ki Chah Class
  • एक फूल की चाह पाठ सार
  • एक फूल की चाह पाठ व्याख्या
  • एक फूल की चाह प्रश्न अभ्यास

By Shiksha Sambra

कवि परिचय

कवि – सियारामशरण गुप्त
जन्म – 1895

एक फूल की चाह पाठ प्रवेश

‘एक फूल की चाह’ गुप्त जी की एक लंबी और प्रसिद्ध कविता है। प्रस्तुत पाठ उसी कविता का एक छोटा सा भाग है। यह पूरी कविता छुआछूत की समस्या पर केंद्रित है। मरने के नज़दीक पहुँची एक ‘अछूत’ कन्या के मन में यह इच्छा जाग उठी कि काश! देवी के चरणों में अर्पित किया हुआ एक फूल लाकर कोई उसे दे देता। उस कन्या के पिता ने बेटी की इस इच्छा को पूरा करने का बीड़ा उठाया। वह देवी के मंदिर में जा पहुँचा। देवी की आराधना भी की, पर उसके बाद वह देवी के भक्तों की नज़र में खटकने लगा। मानव-मात्र को एकसमान मानने की नसीहत देने वाली देवी के सवर्ण भक्तों ने उस विवश, लाचार, आकांक्षी मगर ‘अछूत’ पिता के साथ कैसा सलूक किया, क्या वह अपनी बेटी को फूल लाकर दे सका? यह हम इस कविता के माध्यम से जानेंगे।

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Ek Phool Ki Chah Class 9 Video Explanation Part 1

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एक फूल की चाह पाठ सार Summary

प्रस्तुत पाठ गुप्त जी की कविता ‘एक फूल की चाह’ का एक छोटा सा भाग हैयह पूरी कविता छुआछूत की समस्या पर केंद्रित है। कवि कहता है कि एक बडे़ स्तर पर फैलने वाली बीमारी बहुत भयानक रूप से फैली हुई थी। उस महामारी ने लोगों के मन में भयानक डर बैठा दिया था। इस कविता का मुख्य पात्र अपनी बेटी जिसका नाम सुखिया था, उसको बार-बार बाहर जाने से रोकता था। लेकिन सुखिया उसकी एक न मानती थी और खेलने के लिए बाहर चली जाती थी। जब भी वह अपनी बेटी को बाहर जाते हुए देखता था तो उसका हृदय डर के मारे काँप उठता था। वह यही सोचता रहता था कि किसी तरह उसकी बेटी उस महामारी के प्रकोप से बच जाए। एक दिन सुखिया के पिता ने पाया कि सुखिया का शरीर बुखार से तप रहा था। उस बच्ची ने अपने पिता से कहा कि वह तो बस देवी माँ के प्रसाद का एक फूल चाहती है ताकि वह ठीक हो जाए। सुखिया के शरीर का अंग-अंग कमजोर हो चूका था। सुखिया का पिता सुखिया की चिंता में इतना डूबा रहता था कि उसे किसी बात का होश ही नहीं रहता था। जो बच्ची कभी भी एक जगह शांति से नहीं बैठती थी, वही आज इस तरह न टूटने वाली शांति धारण किए चुपचाप पड़ी हुई थी। कवि मंदिर का वर्णन करता हुआ कहता है कि पहाड़ की चोटी के ऊपर एक विशाल मंदिर था। उसके विशाल आँगन में कमल के फूल सूर्य की किरणों में इस तरह शोभा दे रहे थे जिस तरह सूर्य की किरणों में सोने के घड़े चमकते हैं। मंदिर का पूरा आँगन धूप और दीपकों की खुशबू से महक रहा था। मंदिर के अंदर और बाहर माहौल ऐसा लग रहा था जैसे वहाँ कोई उत्सव हो। जब सुखिया का पिता मंदिर गया तो वहाँ मंदिर में भक्तों के झुंड मधुर आवाज़ में एक सुर में भक्ति के साथ देवी माँ की आराधना कर रहे थे। सुखिया के पिता के मुँह से भी देवी माँ की स्तुति निकल गई। पुजारी ने सुखिया के पिता के हाथों से दीप और फूल लिए और देवी की प्रतिमा को अर्पित कर दिया। फिर जब पुजारी ने उसे दोनों हाथों से प्रसाद भरकर दिया तो एक पल को वह ठिठक सा गया। क्योंकि सुखिया का पिता छोटी जाति का था और छोटी जाति के लोगों को मंदिर में आने नहीं दिया जाता था। सुखिया का पिता अपनी कल्पना में ही अपनी बेटी को देवी माँ का प्रसाद दे रहा था। सुखिया का पिता प्रसाद ले कर मंदिर के द्वार तक भी नहीं पहुँच पाया था कि अचानक किसी ने पीछे से आवाज लगाई, “अरे यह अछूत मंदिर के भीतर कैसे आ गया? इसे पकड़ो कही यह भाग न जाए।’ वे कह रहे थे कि सुखिया के पिता ने मंदिर में घुसकर बड़ा भारी अनर्थ कर दिया है और लम्बे समय से बनी मंदिर की पवित्रता को अशुद्ध कर दिया है। इस पर सुखिया के पिता ने कहा कि जब माता ने ही सभी मनुष्यों को बनाया है तो उसके मंदिर में आने से मंदिर अशुद्ध कैसे हो सकता है। यदि वे लोग उसकी अशुद्धता को माता की महिमा से भी ऊँचा मानते हैं तो वे माता के ही सामने माता को नीचा दिखा रहे हैं। लेकिन उसकी बातों का किसी पर कोई असर नहीं हुआ। लोगों ने उसे घेर लिया और उसपर घूँसों और लातों की बरसात करके उसे नीचे गिरा दिया। लोग उसे न्यायलय ले गये। वहाँ उसे सात दिन जेल की सजा सुनाई गई। जेल के वे सात दिन सुखिया के पिता को ऐसे लगे थे जैसे कई सदियाँ बीत गईं हों। उसकी आँखें बिना रुके बरसने के बाद भी बिलकुल नहीं सूखी थीं। जब सुखिया का पिता जेल से छूटा तो उसके पैर उसके घर की ओर नहीं उठ रहे थे। सुखिया के पिता को घर पहुँचने पर जब सुखिया कहीं नहीं मिली तब उसे सुखिया की मौत का पता चला। वह अपनी बच्ची को देखने के लिए सीधा दौड़ता हुआ शमशान पहुँचा जहाँ उसके रिश्तेदारों ने पहले ही उसकी बच्ची का अंतिम संस्कार कर दिया था। अपनी बेटी की बुझी हुई चिता देखकर उसका कलेजा जल उठा। उसकी सुंदर फूल सी कोमल बच्ची अब राख के ढ़ेर में बदल चुकी थी।

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Ek Phool Ki Chah Class 9 Video Explanation Part2

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एक फूल की चाह पाठ व्याख्या Explanation

उद्वेलित कर अश्रु राशियाँ,
हृदय चिताएँ धधकाकर,
महा महामारी प्रचंड हो
फैल रही थी इधर उधर।
क्षीण कंठ मृतवत्साओं का
करुण रुदन दुर्दांत नितांत,
भरे हुए था निज कृश रव में
हाहाकार अपार अशांत।

शब्दार्थ –
उद्वेलित – भाव-विह्नल
अश्रु-राशियाँ – आँसुओं की झड़ी
महामारी – बडे़ स्तर पर फैलने वाली बीमारी
प्रचंड – तीव्र
क्षीण – दबी आवाज़, कमज़ोर
मृतवत्सा – जिस माँ की संतान मर गई हो
रुदन – रोना
दुर्दांत – जिसे दबाना या वश में करना कठिन हो
नितांत – बिलकुल, अलग, अत्यंत
कृश – पतला, कमज़ोर

व्याख्या – कवि कहता है कि एक बडे़ स्तर पर फैलने वाली बीमारी बहुत भयानक रूप से फैली हुई थी, जिसने लोगों की भावनाओं को ठेस पहुँचाते हुए आँखों से आँसुओं की नदियाँ बहा दी थी। कहने का तात्पर्य यह है कि उस महामारी ने लोगों के मन में भयानक डर बैठा दिया था। कवि कहता है कि उस महामारी के कारण जिन औरतों ने अपनी संतानों को खो दिया था, उनके कमजोर पड़ते गले से लगातार दिल को दहला देने वाला ऐसा दर्द निकल रहा था जिसे दबाना बहुत कठिन था। उस कमजोर पड़ चुके दर्द भरे रोने में भी अत्यधिक अशांति फैलाने वाला हाहाकार छिपा हुआ था।

बहुत रोकता था सुखिया को,
‘न जा खेलने को बाहर’,
नहीं खेलना रुकता उसका
नहीं ठहरती वह पल भर।
मेरा हृदय काँप उठता था,
बाहर गई निहार उसे;
यही मनाता था कि बचा लूँ
किसी भाँति इस बार उसे।

शब्दार्थ –
निहार – देखना

व्याख्या – कवि कहता है कि इस कविता का मुख्य पात्र अपनी बेटी जिसका नाम सुखिया था, उसको बार-बार बाहर जाने से रोकता था। लेकिन सुखिया उसकी एक न मानती थी और खेलने के लिए बाहर चली जाती थी। वह कहता है कि सुखिया का न तो खेलना रुकता था और न ही वह घर के अंदर टिकती थी। जब भी वह अपनी बेटी को बाहर जाते हुए देखता था तो उसका हृदय डर के मारे काँप उठता था। वह यही सोचता रहता था कि किसी तरह उसकी बेटी उस महामारी के प्रकोप से बच जाए। वह किसी तरह इस महामारी की चपेट में न आए।

भीतर जो डर रहा छिपाए,
हाय! वही बाहर आया।
एक दिवस सुखिया के तनु को
ताप तप्त मैंने पाया।
ज्वर में विह्वल हो बोली वह,
क्या जानूँ किस डर से डर,
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही दो लाकर।

शब्दार्थ –
तनु – शरीर
ताप-तप्त – ज्वर से पीड़ित

व्याख्या – कवि कहता है कि सुखिया के पिता को जिस बात का डर था वही हुआ। एक दिन सुखिया के पिता ने पाया कि सुखिया का शरीर बुखार से तप रहा था। कवि कहता है कि उस बच्ची ने बुखार के दर्द में भी अपने पिता से कहा कि उसे किसी का डर नहीं है। उसने अपने पिता से कहा कि वह तो बस देवी माँ के प्रसाद का एक फूल चाहती है ताकि वह ठीक हो जाए।

क्रमश: कंठ क्षीण हो आया,
शिथिल हुए अवयव सारे,
बैठा था नव नव उपाय की
चिंता में मैं मनमारे।
जान सका न प्रभात सजग से
हुई अलस कब दोपहरी,
स्वर्ण घनों में कब रवि डूबा,
कब आई संध्या गहरी।

शब्दार्थ –
शिथिल – कमजोर, ढीला
अवयव – अंग
स्वर्ण घन – सुनहरे बादल

व्याख्या – कवि कहता है कि सुखिया का गला इतना कमजोर हो गया था कि उसमें से आवाज़ भी नहीं आ रही थी। उसके शरीर का अंग-अंग कमजोर हो चूका था। उसका पिता किसी चमत्कार की आशा में नए-नए तरीके अपना रहा था परन्तु उसका मन हमेशा चिंता में ही डूबा रहता था। चिंता में डूबे सुखिया के पिता को न तो यह पता चलता था कि कब सुबह हो गई और कब आलस से भरी दोपहर ढल गई। कब सुनहरे बादलों में सूरज डूबा और कब शाम हो गई। कहने का तात्पर्य यह है कि सुखिया का पिता सुखिया की चिंता में इतना डूबा रहता था कि उसे किसी बात का होश ही नहीं रहता था।

सभी ओर दिखलाई दी बस,
अंधकार की ही छाया,
छोटी सी बच्ची को ग्रसने
कितना बड़ा तिमिर आया।
ऊपर विस्तृत महाकाश में
जलते से अंगारों से,
झुलसी जाती थी आँखें
जगमग जगते तारों से।

शब्दार्थ –
ग्रसना – निगलना
तिमिर – अंधकार

व्याख्या – कवि कहता है कि चारों ओर बस अंधकार ही अंधकार दिखाई दे रहा था जिसे देखकर ऐसा लगता था जैसे कि इतना बड़ा अंधकार उस मासूम बच्ची को निगलने चला आ रहा था। कवि कहता है कि बच्ची के पिता को ऊपर विशाल आकाश में चमकते तारे ऐसे लग रहे थे जैसे जलते हुए अंगारे हों। उनकी चमक से उसकी आँखें झुलस जाती थीं। ऐसा इसलिए होता था क्योंकि बच्ची का पिता उसकी चिंता में सोना भी भूल गया था जिस कारण उसकी आँखे दर्द से झुलस रही थी।

देख रहा था जो सुस्थिर हो
नहीं बैठती थी क्षण भर,
हाय! वही चुपचाप पड़ी थी
अटल शांति सी धारण कर।
सुनना वही चाहता था मैं
उसे स्वयं ही उकसाकर
मुझको देवी के प्रसाद का

एक फूल ही दो लाकर।

शब्दार्थ –
सुस्थिर – जो कभी न रुकता हो
अटल – जिसे हिलाया न जा सके

व्याख्या – कवि कहता है कि जो बच्ची कभी भी एक जगह शांति से नहीं बैठती थी, वही आज इस तरह न टूटने वाली शांति धारण किए चुपचाप पड़ी हुई थी। कवि कहता है कि उसका पिता उसे झकझोरकर खुद ही पूछना चाहता था कि उसे देवी माँ के प्रसाद का फूल चाहिए और वह उसे उस फूल को ला कर दे।

ऊँचे शैल शिखर के ऊपर
मंदिर था विस्तीर्ण विशाल;
स्वर्ण कलश सरसिज विहसित थे
पाकर समुदित रवि कर जाल।
दीप धूप से आमोदित था
मंदिर का आँगन सारा;
गूँज रही थी भीतर बाहर
मुखरित उत्सव की धारा।

शब्दार्थ –
विस्तीर्ण – फैला हुआ
सरसिज – कमल
रविकर जाल – सूर्य-किरणों का समूह
आमोदित – आनंदपूर्ण

व्याख्या – कवि मंदिर का वर्णन करता हुआ कहता है कि पहाड़ की चोटी के ऊपर एक विशाल मंदिर था। उसके विशाल आँगन में कमल के फूल सूर्य की किरणों में इस तरह शोभा दे रहे थे जिस तरह सूर्य की किरणों में सोने के घड़े चमकते हैं। मंदिर का पूरा आँगन धूप और दीपकों की खुशबू से महक रहा था। मंदिर के अंदर और बाहर माहौल ऐसा लग रहा था जैसे वहाँ कोई उत्सव हो।

भक्त वृंद मृदु मधुर कंठ से
गाते थे सभक्ति मुद मय,
‘पतित तारिणी पाप हारिणी,
माता तेरी जय जय जय।‘
‘पतित तारिणी, तेरी जय जय’
मेरे मुख से भी निकला,
बिना बढ़े ही मैं आगे को
जाने किस बल से ढ़िकला।

शब्दार्थ –
सभक्ति – भक्ति के साथ
ढिकला – धकेला गया

व्याख्या – कवि कहता है कि जब सुखिया का पिता मंदिर गया तो वहाँ मंदिर में भक्तों के झुंड मधुर आवाज में एक सुर में भक्ति के साथ देवी माँ की आराधना कर रहे थे। वे एक सुर में गा रहे थे ‘पतित तारिणी पाप हारिणी, माता तेरी जय जय जय।‘ सुखिया के पिता के मुँह से भी देवी माँ की स्तुति निकल गई, ‘पतित तारिणी, तेरी जय जय’। फिर उसे ऐसा लगा कि किसी अनजान शक्ति ने उसे मंदिर के अंदर धकेल दिया।

मेरे दीप फूल लेकर वे
अंबा को अर्पित करके
दिया पुजारी ने प्रसाद जब
आगे को अंजलि भरके,
भूल गया उसका लेना झट,
परम लाभ सा पाकर मैं।
सोचा, बेटी को माँ के ये,
पुण्य पुष्प दूँ जाकर मैं।

शब्दार्थ –
अंजलि – दोनों हाथों से

व्याख्या – कवि कहता है कि पुजारी ने सुखिया के पिता के हाथों से दीप और फूल लिए और देवी की प्रतिमा को अर्पित कर दिया। फिर जब पुजारी ने उसे दोनों हाथों से प्रसाद भरकर दिया तो एक पल को वह ठिठक सा गया। क्योंकि सुखिया का पिता छोटी जाति का था और छोटी जाति के लोगों को मंदिर में आने नहीं दिया जाता था। सुखिया का पिता अपनी कल्पना में ही अपनी बेटी को देवी माँ का प्रसाद दे रहा था।

सिंह पौर तक भी आँगन से
नहीं पहुँचने मैं पाया,
सहसा यह सुन पड़ा कि – “कैसे
यह अछूत भीतर आया?
पकड़ो देखो भाग न जावे,
बना धूर्त यह है कैसा;
साफ स्वच्छ परिधान किए है,
भले मानुषों के जैसा।

शब्दार्थ –
सिंह पौर – मंदिर का मुख्य द्वार
परिधान – वस्त्र

व्याख्या – कवि कहता है कि अभी सुखिया का पिता प्रसाद ले कर मंदिर के द्वार तक भी नहीं पहुँच पाया था कि अचानक किसी ने पीछे से आवाज लगाई, “अरे ,यह अछूत मंदिर के भीतर कैसे आ गया? इसे पकड़ो कही यह भाग न जाए। ‘ किसी ने कहा कि इस चालाक नीच को तो देखो, कैसे साफ़ कपड़े पहने है, ताकि कोई इसे पहचान न सके। कवि यहाँ यह दर्शाना चाहता है कि निम्न जाति वालों का मंदिर में जाना अच्छा नहीं माना जाता था।

पापी ने मंदिर में घुसकर
किया अनर्थ बड़ा भारी;
कलुषित कर दी है मंदिर की
चिरकालिक शुचिता सारी।“
ऐं, क्या मेरा कलुष बड़ा है
देवी की गरिमा से भी;
किसी बात में हूँ मैं आगे
माता की महिमा के भी?

शब्दार्थ –
कलुषित – अशुद्ध
चिरकालिक – लम्बे समय से
शुचिता – पवित्रता

व्याख्या – कवि कहता है कि किसी ने कहा कि मंदिर में आए हुए सभी भक्त सुखिया के पिता को पापी कह रहे थे। वे कह रहे थे कि सुखिया के पिता ने मंदिर में घुसकर बड़ा भारी अनर्थ कर दिया है और लम्बे समय से बनी मंदिर की पवित्रता को अशुद्ध कर दिया है। इस पर सुखिया के पिता ने कहा कि ऐसा कैसे हो सकता था कि माता की महिमा के आगे उसकी अशुद्धता अधिक भारी हो। सुखिया के पिता के कहने का तात्पर्य यह था कि जब माता ने ही सभी मनुष्यों को बनाया है तो उसके मंदिर में आने से मंदिर अशुद्ध कैसे हो सकता है।

माँ के भक्त हुए तुम कैसे,
करके यह विचार खोटा?
माँ के सम्मुख ही माँ का तुम
गौरव करते हो छोटा।
कुछ न सुना भक्तों ने, झट से
मुझे घेरकर पकड़ लिया;
मार मारकर मुक्के घूँसे
धम्म से नीचे गिरा दिया।

शब्दार्थ –
खोटा – बुरा, घटिया
सम्मुख – सामने
व्याख्या –
कवि कहता है कि सुखिया के पिता ने भक्तों से कहा कि उसके मंदिर में आने से मंदिर अशुद्ध हो गया है इस तरह का घटिया विचार यदि तुम सब के मन में है तो तुम माता के भक्त कैसे हो सकते हो। यदि वे लोग उसकी अशुद्धता को माता की महिमा से भी ऊँचा मानते हैं तो वे माता के ही सामने माता को नीचा दिखा रहे हैं। लेकिन उसकी बातों का किसी पर कोई असर नहीं हुआ। लोगों ने उसे घेर लिया और उसपर घूँसों और लातों की बरसात करके उसे नीचे गिरा दिया।

मेरे हाथों से प्रसाद भी
बिखर गया हा! सबका सब,
हाय! अभागी बेटी तुझ तक
कैसे पहुँच सके यह अब।
न्यायालय ले गए मुझे वे,
सात दिवस का दंड विधान
मुझको हुआ; हुआ था मुझसे
देवी का महान अपमान!

शब्दार्थ –
अभागी – जिसका बुरा भाग्य हो
न्यायालय – न्याय करने का स्थान

व्याख्या – कवि कहता है कि जब भक्तों ने सुखिया के पिता की पिटाई की तो उसके हाथों से सारे का सारा प्रसाद बिखर गया। वह दुखी हो गया और सोचने लगा कि उसकी बेटी का भाग्य कितना बुरा है क्योंकि अब उसकी बेटी तक प्रसाद नहीं पहुँचने वाला था। लोग उसे न्यायलय ले गये। वहाँ उसे सात दिन जेल की सजा सुनाई गई। अब सुखिया के पिता को लगने लगा कि अवश्य ही उससे देवी का अपमान हो गया है। तभी उसे सजा मिली है।

मैंने स्वीकृत किया दंड वह
शीश झुकाकर चुप ही रह;
उस असीम अभियोग, दोष का
क्या उत्तर देता, क्या कह?
सात रोज ही रहा जेल में
या कि वहाँ सदियाँ बीतीं,
अविश्रांत बरसा के भी
आँखें तनिक नहीं रीतीं।

शब्दार्थ –
स्वीकृत – स्वीकार कर
अविश्रांत – बिना विश्राम के

व्याख्या – कवि कहता है कि सुखिया के पिता ने सिर झुकाकर चुपचाप उस दंड को स्वीकार कर लिया। उसके पास अपनी सफाई में कहने को कुछ नहीं था। इसलिए वह नहीं जानता था कि क्या कहना चाहिए। जेल के वे सात दिन सुखिया के पिता को ऐसे लगे थे जैसे कई सदियाँ बीत गईं हों। उसकी आँखें बिना रुके बरसने के बाद भी बिलकुल नहीं सूखी थीं।

दंड भोगकर जब मैं छूटा,
पैर न उठते थे घर को
पीछे ठेल रहा था कोई
भय जर्जर तनु पंजर को।
पहले की सी लेने मुझको
नहीं दौड़कर आई वह;
उलझी हुई खेल में ही हा!
अबकी दी न दिखाई वह।

शब्दार्थ –
ठेल – धकेलना
जर्जर – थका

व्याख्या – कवि कहता है कि जब सुखिया का पिता जेल से छूटा तो उसके पैर उसके घर की ओर नहीं उठ रहे थे। उसे ऐसा लग रहा था जैसे डर से भरे हुए उसके शरीर को कोई धकेल कर उसके घर की ओर ले जा रहा था। जब वह घर पहुँचा तो हमेशा की तरह उसकी बेटी दौड़कर उससे मिलने नहीं आई। न ही वह उसे कहीं खेल में उलझी हुई दिखाई दी।

उसे देखने मरघट को ही
गया दौड़ता हुआ वहाँ,
मेरे परिचित बंधु प्रथम ही
फूँक चुके थे उसे जहाँ।
बुझी पड़ी थी चिता वहाँ पर
छाती धधक उठी मेरी,
हाय! फूल सी कोमल बच्ची
हुई राख की थी ढ़ेरी।

शब्दार्थ –
मरघट – शमशान
बंधु – रिश्तेदार

व्याख्या – कवि कहता है कि सुखिया के पिता को घर पहुँचने पर जब सुखिया कहीं नहीं मिली तब उसे सुखिया की मौत का पता चला। वह अपनी बच्ची को देखने के लिए सीधा दौड़ता हुआ शमशान पहुँचा जहाँ उसके रिश्तेदारों ने पहले ही उसकी बच्ची का अंतिम संस्कार कर दिया था। अपनी बेटी की बुझी हुई चिता देखकर उसका कलेजा जल उठा। उसकी सुंदर फूल सी कोमल बच्ची अब राख के ढ़ेर में बदल चुकी थी।

अंतिम बार गोद में बेटी,
तुझको ले न सका मैं हा!
एक फूल माँ का प्रसाद भी
तुझको दे न सका मैं हा।

व्याख्या – कवि कहता है कि सुखिया का पिता सुखिया के लिए दुःख मनाता हुआ रोने लगा। उसे अफसोस हो रहा था कि वह अपनी बेटी को अंतिम बार गोदी में न ले सका। उसे इस बात का भी बहुत दुःख हो रहा था कि उसकी बेटी ने उससे केवल माता के मंदिर का एक फूल लाने को कहा था वह अपनी बेटी को वह देवी का प्रसाद भी न दे सका।

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एक फूल की चाह प्रश्न उत्तर (Question Answers)

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए
(क) कविता की उन पंक्तियों को लिखिए, जिनसे निम्नलिखित अर्थ का बोध होता है –
(i) सुखिया के बाहर जाने पर पिता का हृदय काँप उठता था।

उत्तर – मेरा हृदय काँप उठता था,
बाहर गई निहार उसे;
यही मनाता था कि बचा लूँ
किसी भाँति इस बार उसे।

(ii) पर्वत की चोटी पर स्थित मंदिर की अनुपम शोभा।

उत्तर -ऊँचे शैल शिखर के ऊपर
मंदिर था विस्तीर्ण विशाल;
स्वर्ण कलश सरसिज विहसित थे
पाकर समुदित रवि कर जाल।

(iii) पुजारी से प्रसाद/पूफल पाने पर सुखिया के पिता की मनःस्थिति।

उत्तर – भूल गया उसका लेना झट,
परम लाभ सा पाकर मैं।
सोचा, बेटी को माँ के ये,
पुण्य पुष्प दूँ जाकर मैं।

(iv) पिता की वेदना और उसका पश्चाताप।

उत्तर – अंतिम बार गोद में बेटी,
तुझको ले न सका मैं हा!
एक फूल माँ का प्रसाद भी
तुझको दे न सका मैं हा।

(ख) बीमार बच्ची ने क्या इच्छा प्रकट की?

उत्तर – बीमार बच्ची ने अपने पिता के सामने इच्छा प्रकट की कि उसे देवी माँ के प्रसाद का फूल चाहिए।

(ग) सुखिया के पिता पर कौन सा आरोप लगाकर उसे दंडित किया गया?

उत्तर – सुखिया के पिता पर मंदिर को अशुद्ध करने का आरोप लगाया गया। वह अछूत जाति का था इसलिए उसे मंदिर में प्रवेश का अधिकार नहीं था। दंड स्वरूप सुखिया के पिता को सात दिन जेल में रहने की सजा दी गई।

(घ) जेल से छूटने के बाद सुखिया के पिता ने बच्ची को किस रूप में पाया?

उत्तर – जेल से छूटने के बाद सुखिया के पिता को उसकी बच्ची कहीं नहीं दिखी तो उसके रिश्तेदारों से उसे पता चला कि उसकी बच्ची मर चुकी है और उसका अंतिम संस्कार किया जा चूका है। परन्तु जब वह शमशान पहुँचा तो उसे उसकी बच्ची राख के ढ़ेर के रूप में मिली।

(ड़) इस कविता का केंद्रीय भाव अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर – इस कविता में छुआछूत की प्रथा के बारे में बताया गया है। इस कविता का मुख्य पात्र एक अछूत है। उसकी बेटी एक महामारी की चपेट में आ जाती है। बेटी को ठीक करने के लिए वह मंदिर जाता है ताकि देवी माँ के प्रसाद का फूल ले आये। मंदिर में भक्त लोग उसकी जमकर धुनाई करते हैं। क्योंकि वह अछूत हो कर भी मंदिर में आया थस। फिर उसे दंड के रूप में सात दिन की जेल हो जाती है क्योंकि एक अछूत होने के नाते वह मंदिर को अशुद्ध करने का दोषी पाया जाता है। जब वह जेल से छूटता है तो पाता है कि उसकी बेटी स्वर्ग सिधार चुकी है और उसका अंतिम संस्कार भी हो चुका है। एक सामाजिक कुरीति के कारण एक व्यक्ति को इतना भी अधिकार नहीं मिलता है कि वह अपनी बीमार बच्ची की एक छोटी सी इच्छा पूरी कर सके। बदले में उसे जो मिलता है वह है प्रताड़ना और घोर दुख।

निम्नलिखित पंक्तियों का आश्य स्पष्ट करते हुए उनका अर्थ सौंदर्य बताइए

(क) अविश्रांत बरसा करके भी आँखें तनिक नहीं रीतीं

उत्तर – उसकी आँखों से लगातार आँसू बरसने के बावजूद अभी भी आँखे सूखी हो गई थीं। यह पंक्ति शोक की चरम सीमा को दर्शाती है। कहा जाता है कि कोई कभी कभी इतना रो लेता है कि उसकी अश्रुधारा तक सूख जाती है।

(ख) बुझी पड़ी थी चिता वहाँ पर छाती धधक उठी मेरी

उत्तर – उधर चिता बुझ चुकी थी, इधर सुखिया के पिता की छाती जल रही थी। यहाँ एक पिता का दुःख दर्शाया गया है जो अंतिम बार भी अपनी बेटी को न देख सका।

(ग) हाय! वही चुपचाप पड़ी थी अटल शांति सी धारण कर

उत्तर – जो बच्ची कभी भी एक जगह स्थिर नहीं बैठती थी, आज वही चुपचाप पत्थर की भाँति पड़ी हुई थी। यहाँ बच्चीको महामारी से ग्रस्त दर्शाया गया है।

(घ) पापी ने मंदिर में घुसकर किया अनर्थ बड़ा भारी

उत्तर – सुखिया के पिता को मंदिर में देखकर एक भक्त कहता है कि इस पापी ने मंदिर में प्रवेश करके बहुत बड़ा अनर्थ कर दिया, मंदिर को अपवित्र कर दिया। क्योंकि वह अछूत था और अछूत को मंदिर में आने का कोई अधिकार नहीं दिया गया था।

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Check out – Class 9 Hindi Sparsh and Sanchayan Book Chapter-wise Explanation

Chapter 1 – Dukh Ka Adhikar Chapter 2 – Everest Meri Shikhar Yatra Chapter 3 – Tum Kab Jaoge Atithi
Chapter 4 – Vaigyanik Chetna ke Vahak Chapter 5 – Dharm ki Aad Chapter 6 – Shukra Tare Ke Saman
Chapter 7 – Pad Chapter 8 – Dohe Chapter 9 – Aadmi Nama
Chapter 10 – Ek Phool ki Chah Chapter 11 – Geet Ageet Chapter 12 – Agnipath
Chapter 13 – Naye ILake Mein Khushboo Rachte Hain Haath Chapter 14 –
Gillu
Chapter 15 – Smriti
Chapter 16 – Kallu Kumhar Ki Unakoti Chapter 17 –
Mera Chota Sa Niji Pustakalaya
Chapter 18 – Hamid Khan
Chapter 20 – Diye Jal Uthe

एक फूल की चाह कविता के कवि का क्या नाम है?

एक फूल की चाह / सियाराम शरण गुप्त

एक फूल की चाह कविता के कवि कौन है class 9?

NCERT Solutions for Class 9 Hindi Sparsh ek phool ki chah Questions and Answers. कवि परिचय: इस कविता के कवि है सियारामशरण गुप्ता। सियारामशरण गुप्त का जन्म झाँसी के निकट चिरगाँव में सन् 1895 में हुआ था।

एक फूल की चाह कविता का संदेश क्या है स्पष्ट कीजिए?

इस कविता में कवि ने संदेश दिया है कि हमें जाति-पात तथा धार्मिक भेदभाव के स्थान पर मनुष्यता को महत्व देना चाहिए। उसके अनुसार सभी मनुष्य भाई-भाई हैं कोई बढ़ा और कोई छोटा नहीं है।

एक फूल की चाह कविता से क्या प्रेरणा मिलती है class 9?

इस कविता से यह प्रेरणा मिलती है कि सभी प्राणियों को एक समान मानना चाहिए। जन्म का आधार मानकर किसी को अछूत कहना निंदनीय अपराध है। जब सुखिया का पिता जेल से छूटा तो वह श्मशान में गया। उसने देखा कि वहाँ उसकी बेटी की जगह राख की ढेरी पड़ी थी।