मोदी सरकार जातिगत जनगणना क्यों नहीं कराना चाहती?
2 अगस्त 2021 अपडेटेड 3 अगस्त 2021 इमेज स्रोत, Twitter/Tejasvi Yadav कहते हैं कुछ तस्वीरें बोलती हैं. ऊपर की ये तस्वीर भी एक बोलती तस्वीर है. बिहार की राजनीति में पिछले कुछ वर्षों में ऐसी तस्वीर देखने को नहीं मिली, जहाँ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव दोनों किसी एक मुद्दे पर एकमत हो. ये मुद्दा है जातिगत जनगणना का है. दोनों नेता आपसी मतभेद को भुलाकर केंद्र सरकार से जातिगत जनगणना कराने के लिए गुहार लगाते नज़र आए. दोनों ने जातिगत जनगणना कराने के पक्ष में अपने-अपने तर्क भी दिए. लेकिन केंद्र सरकार जातिगत जनगणना के लिए पहले ही मना कर चुकी है. केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने पिछले ही महीने 20 जुलाई 2021 को लोकसभा में दिए जवाब में कहा कि फ़िलहाल केंद्र सरकार ने अनुसूचित जाति और जनजाति के अलावा किसी और जाति की गिनती का कोई आदेश नहीं दिया है. पिछली बार की तरह ही इस बार भी एससी और एसटी को ही जनगणना में शामिल किया गया है. लेकिन जो मोदी सरकार मंत्रिमंडल विस्तार के बाद ख़ुद को ओबीसी मंत्रियों की सरकार कहते नहीं थक रही थी, जो सरकार नीट परीक्षा के ऑल इंडिया कोटे में ओबीसी आरक्षण देने पर ख़ुद अपनी पीठ थपथपाती रही है, आख़िर वही मोदी सरकार जातिगत जनगणना से क्यों डर रही है? ये सवाल विपक्ष लगातार सत्ता पक्ष से पूछ रहा है. उनका साथ एनडीए के कुछ सहयोगी दल भी दे रहे हैं. जातिगत जनगणना की ज़रूरत क्यों है?इसका जवाब जानने से पहले ये जान लेना ज़रूरी है कि साल 1931 तक भारत में जातिगत जनगणना होती थी. साल 1941 में जनगणना के समय जाति आधारित डेटा जुटाया ज़रूर गया था, लेकिन प्रकाशित नहीं किया गया. साल 1951 से 2011 तक की जनगणना में हर बार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का डेटा दिया गया, लेकिन ओबीसी और दूसरी जातियों का नहीं. इसी बीच साल 1990 में केंद्र की तत्कालीन विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग, जिसे आमतौर पर मंडल आयोग के रूप में जाना जाता है, की एक सिफ़ारिश को लागू किया था. ये सिफारिश अन्य पिछड़ा वर्ग के उम्मीदवारों को सरकारी नौकरियों में सभी स्तर पर 27 प्रतिशत आरक्षण देने की थी. इस फ़ैसले ने भारत, खासकर उत्तर भारत की राजनीति को बदल कर रख दिया. जानकारों का मानना है कि भारत में ओबीसी आबादी कितनी प्रतिशत है, इसका कोई ठोस प्रमाण फ़िलहाल नहीं है. मंडल कमीशन के आँकड़ों के आधार पर कहा जाता है कि भारत में ओबीसी आबादी 52 प्रतिशत है. हालाँकि मंडल कमीशन ने साल 1931 की जनगणना को ही आधार माना था. इसके अलावा अलग-अलग राजनीतिक पार्टियाँ अपने चुनावी सर्वे और अनुमान के आधार पर इस आँकड़े को कभी थोड़ा कम कभी थोड़ा ज़्यादा करके आँकती आई है. लेकिन केंद्र सरकार जाति के आधार पर कई नीतियाँ तैयार करती है. ताज़ा उदाहरण नीट परीक्षा का ही है, जिसके ऑल इंडिया कोटे में ओबीसी के लिए आरक्षण लागू करने की बात मोदी सरकार ने कही है. सेंटर फ़ॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के प्रोफ़ेसर और राजनीतिक विश्लेषक संजय कुमार का मानना है, "जनगणना में आदिवासी और दलितों के बारे में पूछा जाता है, बस ग़ैर दलित और ग़ैर आदिवासियों की जाति नहीं पूछी जाती है. इस वजह से आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन के हिसाब से जिन लोगों के लिए सरकार नीतियाँ बनाती है, उससे पहले सरकार को ये पता होना चाहिए कि आख़िर उनकी जनसंख्या कितनी है. जातिगत जनगणना के अभाव में ये पता लगाना मुश्किल है कि सरकार की नीति और योजनाओं का लाभ सही जाति तक ठीक से पहुँच भी रहा है या नहीं." वो आगे कहते हैं, "अनुसूचित जाति, भारत की जनसंख्या में 15 प्रतिशत है और अनुसूचित जनजाति 7.5 फ़ीसदी हैं. इसी आधार पर उनको सरकारी नौकरियों, स्कूल, कॉलेज़ में आरक्षण इसी अनुपात में मिलता है." "लेकिन जनसंख्या में ओबीसी की हिस्सेदारी कितनी है, इसका कोई ठोस आकलन नहीं है. सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के मुताबिक़ कुल मिला कर 50 फ़ीसदी से ज़्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता, इस वजह से 50 फ़ीसदी में से अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षण को निकाल कर बाक़ी का आरक्षण ओबीसी के खाते में डाल दिया. लेकिन इसके अलावा ओबीसी आरक्षण का कोई आधार नहीं है." यही वजह है कि कुछ विपक्षी पार्टियाँ जातिगत जनगणना के पक्ष में खुल कर बोल रही है. कोरोना महामारी की वजह से जनगणना का काम भी ठीक से शुरू नहीं हो पाया है. इमेज स्रोत, Twitter/Akhilesh Yadav कब-कब किस पार्टी ने उठाई माँग?आज भले ही बीजेपी संसद में इस तरह के जातिगत जनगणना पर अपनी राय कुछ और रख रही हो, लेकिन 10 साल पहले जब बीजेपी विपक्ष में थी, तब उसके नेता ख़ुद इसकी माँग करते थे. बीजेपी के नेता, गोपीनाथ मुंडे ने संसद में 2011 की जनगणना से ठीक पहले 2010 में संसद में कहा था, "अगर इस बार भी जनगणना में हम ओबीसी की जनगणना नहीं करेंगे, तो ओबीसी को सामाजिक न्याय देने के लिए और 10 साल लग जाएँगे. हम उन पर अन्याय करेंगे." इतना ही नहीं, पिछली सरकार में जब राजनाथ सिंह गृह मंत्री थे, उस वक़्त 2021 की जनगणना की तैयारियों का जायजा लेते समय 2018 में एक प्रेस विज्ञप्ति में सरकार ने माना था कि ओबीसी पर डेटा नई जनगणना में एकत्रित की जाएगी. लेकिन अब सरकार अपने पिछले वादे से संसद में ही मुकर गई है. दूसरी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस की बात करें, तो 2011 में SECC यानी सोशियो इकोनॉमिक कास्ट सेंसस आधारित डेटा जुटाया था. चार हजार करोड़ से ज़्यादा रुपए ख़र्च किए गए और ग्रामीण विकास मंत्रालय और शहरी विकास मंत्रालय को इसकी ज़िम्मेदारी सौंपी गई. साल 2016 में जाति को छोड़ कर SECC के सभी आँकड़े प्रकाशित हुए. लेकिन जातिगत आँकड़े प्रकाशित नहीं हुए. जाति का डेटा सामाजिक कल्याण मंत्रालय को सौंप दिया गया, जिसके बाद एक एक्सपर्ट ग्रुप बना, लेकिन उसके बाद आँकड़ों का क्या हुआ, इसकी जानकारी सार्वजनिक नहीं की गई है. माना जाता है कि SECC 2011 में जाति आधारित डेटा जुटाने का फ़ैसला तब की यूपीए सरकार ने राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू यादव और समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव के दवाब में ही लिया था. सीएसडीएस के प्रोफ़ेसर और राजनीतिक विश्लेषक संजय कुमार कहते हैं कि देश की ज़्यादातर क्षेत्रीय पार्टियाँ जातिगत जनगणना के समर्थन में है, ऐसा इसलिए क्योंकि उनका जनाधार ही ओबीसी पर आधारित है. इसका समर्थन करने से सामाजिक न्याय का उनका जो प्लेटफ़ॉर्म है, उस पर पार्टियों को मज़बूती दिखती है. लेकिन राष्ट्रीय पार्टियाँ सत्ता में रहने पर कुछ और विपक्ष में रहने पर कुछ और ही कहती हैं. जातिगत जनगणना से क्यों डरती है सरकार?ऐसे में सवाल उठता है कि सत्ता में आते ही पार्टियाँ इस तरह की जनगणना के ख़िलाफ़ क्यों हो जाती है? संजय कुमार कहते हैं, मान लीजिए जातिगत जनगणना होती है तो अब तक की जानकारी में जो आँकड़े हैं, वो ऊपर नीचे होने की पूरी संभावना है. मान लीजिए ओबीसी की आबादी 52 प्रतिशत से घट कर 40 फ़ीसदी रह जाती है, तो हो सकता है कि राजनीतिक पार्टियों के ओबीसी नेता एकजुट हो कर कहें कि ये आँकड़े सही नहीं है. और मान लीजिए इनका प्रतिशत बढ़ कर 60 हो गया, तो कहा जा सकता है कि और आरक्षण चाहिए. सरकारें शायद इस बात से डरती है. चूँकि आदिवासियों और दलितों के आकलन में फ़ेरबदल होगा नहीं, क्योंकि वो हर जनगणना में गिने जाते ही हैं, ऐसे में जातिगत जनगणना में प्रतिशत में बढ़ने घटने की गुंज़ाइश अपर कास्ट और ओबीसी के लिए ही है. प्रोफ़ेसर संजय कुमार ये भी कहते हैं कि जिस तरह से हाल के दिनों में मोदी सरकार ओबीसी पर मुखर हुई है, केंद्र सरकार आने वाले दिनों में जातिगत जनगणना पर पहल कर भी सकती है. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के जीबी पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट के निदेशक प्रोफ़ेसर बद्रीनारायण कहते हैं, "अंग्रेज़ों की ओर से जनगणना लागू करने के पहले, जाति व्यवस्था लचीली और गतिशील थी. लेकिन अंग्रेज़ जब जातिगत जनगणना लेकर आए, तो सब कुछ रिकॉर्ड में दर्ज हो गया, इसके बाद से जाति व्यवस्था जटिल हो गई." "जनगणना अपने आप में बहुत ही जटिल कार्य है. जनगणना में कोई भी चीज़ जब दर्ज हो जाती है, तो उससे एक राजनीति भी जन्म लेती है, विकास के नए आयाम भी उससे निर्धारित होते हैं. इस वजह से कोई भी सरकार उस पर बहुत सोच समझ कर ही काम करती है. एक तरह से देखें तो जनगणना से ही जातिगत राजनीति की शुरुआत होती है. उसके बाद ही लोग जाति से ख़ुद को जोड़ कर देखने लगे, जाति के आधार पर पार्टियाँ और एसोसिएशन बनने लगे." लेकिन 1931 के बाद से जातिगत जनगणना नहीं हुई बावजूद इसके भी तो जाति के नाम पर राजनीति अब भी हो रही है. तो फिर जाति के आधार पर जनगणना होने से क्या बदल जाएगा? इस सवाल के जवाब में प्रोफ़ेसर बद्रीनारायण कहते हैं, "अभी जो राजनीति होती है, उसका ठोस आधार नहीं है, उसे चुनौती दी जा सकती है, लेकिन एक बार जनगणना में वो दर्ज हो जाएगा, तो सब कुछ ठोस रूप ले लेगा. कहा जाता है, 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी'. अगर संख्या एक बार पता चल जाए और उस हिसाब से हिस्सेदारी दी जाने लगे, तो कम संख्या वालों का क्या होगा? उनके बारे में कौन सोचेगा? इस तरह के कई सवाल भी खड़े होंगे. ओबीसी और दलितों में ही बहुत सारी छोटी जातियाँ हैं, उनका कौन ध्यान रखेगा? बड़ी संख्या वाली जातियाँ आकर माँगेंगी कि 27 प्रतिशत के अंदर हमें 5 फ़ीसदी आरक्षण दे दो, तो बाक़ियों का क्या होगा? ये जातिगत जनगणना का एक नकारात्मक पहलू है. लेकिन एक सकारात्मक पहलू ये भी है कि इससे लोगों के लिए नीतियाँ और योजनाएँ तैयार करने में मदद मिलती है." एक दूसरा डर भी है. ओबीसी की लिस्ट केंद्र की अलग है और कुछ राज्यों में अलग लिस्ट है. कुछ जातियाँ ऐसी हैं जिनकी राज्यों में गिनती ओबीसी में होती है, लेकिन केंद्र की लिस्ट में उनकी गिनती ओबीसी में नहीं होती. बिहार में बनिया ओबीसी हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश में वो अपर कास्ट में आते हैं. वैसे ही जाटों का हाल है. हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों पर भी ओबीसी लिस्ट अलग है. ऐसे में जातिगत जनगणना हुई तो आगे और बवाल बढ़ सकता है. केंद्र की सरकारों को एक डर इसका भी है. भारत में 10 वर्षीय जनगणना विधिवत रूप से कब आरंभ हुई?1881 इस्वी में प्रथम नियमित दस वर्षीय जनगणना लॉर्ड रिपन के काल में शुरू हुई थी। तब से लेकर अब तक प्रत्येक 10 वर्ष के अंतराल पर जनगणना की जाती है।
भारत में प्रथम 10 साल जनगणना कब हुई?1872 में यह ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड मेयो के अधीन पहली बार कराई गयी थी। उसके बाद यह हर 10 वर्ष बाद कराई गयी। हालाकि भारत की पहली संपूर्ण जनगणना 1881 में हुई। 1949 के बाद से यह भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अधीन भारत के महारजिस्ट्रार एवं जनगणना आयुक्त द्वारा कराई जाती है।
विश्व की पहली जनगणना कब हुई थी?खास  पहली बार जनगणना 6000 साल पूर्व बेबीलोन में कराई गई थी। इसमें इंसान, मवेशियों की गिनती हुई।
भारत में जनगणना कितने वर्षों बाद कराई जाती है?देश में हर दस साल बाद जनगणना का काम 1872 से किया जा रहा है। जनगणना 2021 देश की 16 वीं और आजादी के बाद की 8 वीं जनगणना होगी।
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