बच्चों के जीवन अनुभवों पर शोध करना एक चुनौतीपूर्ण काम है चर्चा कीजिए - bachchon ke jeevan anubhavon par shodh karana ek chunauteepoorn kaam hai charcha keejie

हमें स्ट्रीट चिल्ड्रेन के बारे में शोध की आवश्यकता क्यों है

सीएससी में, हम मानते हैं कि सड़क पर रहने वाले बच्चों के विचारों और आवाजों को किसी भी कानून, नीतियों या निर्णयों में शामिल किया जाना चाहिए जो उनके जीवन पर प्रभाव डालेंगे। यदि नीति निर्माताओं को सड़क पर रहने वाले बच्चों के बारे में कोई जानकारी नहीं है तो ऐसी भागीदारी संभव नहीं है।

एक समस्या यह है कि कोई नहीं जानता, यहां तक कि मोटे तौर पर, दुनिया में कितने स्ट्रीट चिल्ड्रेन हैं। पुराने और अविश्वसनीय अनुमानों को अक्सर संदर्भित किया जाता है, लेकिन अक्सर विश्वसनीय शोध में इनका कोई आधार नहीं होता है।

दुनिया के सबसे हाशिए पर रहने वाले जनसंख्या समूहों में से एक के रूप में, सड़क पर रहने वाले बच्चों को डेटा से लगभग पूरी तरह से बाहर रखा जाता है जिसका उपयोग नीति निर्माताओं, दाताओं और चिकित्सकों द्वारा निर्णय लेने और हस्तक्षेप की योजना बनाने के लिए किया जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि वे विकास कार्यक्रमों से पीछे छूट जाते हैं।

 
शिक्षक अगर प्रत्येक बच्चे के प्रयासों को बारीकी से देखे और लिखे तो वह शिक्षक के रूप में ज्यादा प्रभावी बन सकता है

मेरे 8-9 महीने के पढ़ाने के अनुभव के दौरान एक अभ्यास ने मेरी बहुत मदद कीवह था दिनभर के काम की समीक्षा व ले दिन की पूर्व तैयारी। दरअसल जहां मैं पढ़ा रही थी वहां कोई भी ऐसा नहीं था जिसके साथ मैं अपने अनुभव बांट सकें या चर्चा कर सकें। ऐसे में मैंने अपने अनुभवों को लिखना शुरू किया। यह मेरे लिए एक अमूल्य अनुभव रहा - सलिए नहीं कि मैंने कुछ लिखा था, पर इसलिए कि मुझे गहराई से सोचने का मौका मिला कि मैंने दिनभर में कक्षा में क्या किया। इसके बाद ही मैं आगे के 2-3 दिन के बारे में ठीक से सोच पाती थी।

जब मैंने लिखना शुरू किया तो रोज़ की कक्षा के बारे में कुछ इस तरह के सवालों के जवाब लिखती - मैंने क्या किया या करने की कोशिश की और बच्चों के साथ इसका क्या अंजाम हुआ? यानी कक्षा में कुल मिलाकर क्या और कैसे हुआ।पर जल्दी ही मुझे लगने लगा कि इन सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण भी कुछ था। आखिर मेरा काम तो बच्चों को सीखने में मदद करना था! तो फिर मेरे लिए बच्चों के सीखने के प्रयासों, उन्होंने क्या सीखा और कितना सीखा, इसकी समीक्षा करना ज्यादा आवश्यक होना चाहिए। तबसे मैंने इस बात की समीक्षा शुरू की कि हर बच्चे ने क्या किया और कैसे किया। जब मैंने कक्षा प्रक्रिया को इस नज़रिए से देखना शुरू किया तो मुझे सीखते हुए बच्चों का ध्यान से अवलोकन करने की ज़रूरत महसूस होने लगी। जैसे-जैसे मैं यह अवलोकन करती वैसे-वैसे मेरे लिए और ज्यादा अवलोकन करने की ज़रूरत भी बढ़ती जाती। बच्चों को इस प्रकार ध्यान से देखने से मुझे कई सूत्र, सुझाएवं संकेत मिले - बच्चों को क्या सीखना है, उन्हें दया सिखाना है और उसे सिखाने का सबसे अच्छा तरीका व माहौल क्या है।

इस अनुभव के आधार पर बाद में शिक्षकों के साथ हुमुलाकातों व संवादों में, मैंने उनके सामने भी बच्चों के बारे में रपट लिखने का प्रस्ताव रखा। एक बार मैंने दो शिक्षकों को अपने काम की समीक्षा इसी प्रकार करने को कहामैं इससे पहले तीन महीने से इन शिक्षकों व बच्चों के साथ लगभग लगातार सम्पर्क में थी।

जब दोनों शिक्षकों ने 25 बच्चों पर अपनी रिपोर्ट पढ़ी तो उसे सुनने व समझने में हम सब को पूरा एक दिन लग गया। उन रिपोर्टों में जो सामने आया उससे मैं अत्यंत अभिभूत हो गई। जैसे-जैसे समीक्षा आगे बढ़ी, हर बच्चे का व्यक्तित्व ज्यादा स्पष्ट रूप से सामने आया और यह व्यक्तित्व बड़े प्यार से खींचा गया प्रतीत होता था। मैंने उस एक दिन में बच्चों के बारे में इतना कुछ जाना और सीखा जितना उससे पहले बच्चों के साथ अपने 4-5 सीधे सम्पर्को के दौरान नहीं जाना था। मेरे मन में उन शिक्षकों के प्रति इज्ज़त भी बहुत बढ़ गई

इस से मेरी यह प्रबल राय बनी है:

(क) हमें शिक्षक की हैसियत से ऐसी रिपोर्ट लिखनी चाहिए जो हमारे काम के लिए उपयोगी हो व उसमें मदद करे। रिपोर्ट औरों के सामने यह सिद्ध करने के लिए न हो कि हम अपना काम ठीक से कर रहे हैं।

(ख) हमारी रिपोर्ट के केन्द्र में बच्चे, प्रत्येक बच्चे का व्यक्तित्व होना चाहिए। न कि यह बात कि हमने क्या किया और क्या नहीं किया। रिपोर्ट व्यक्तित्व-विहीन, बच्चों के झुण्ड के बारे में भी नहीं होनी चाहिए। बच्चों के बारे में सोचते समय यदि हम उन्हें एक झुण्ड की तरह देखें और समझें तो


बच्चों के बारे में सोचते समय यदि हम उन्हें एक झुण्ड की तरह देखें और समझे तो हम वे आवश्यक बातें नहीं पहचान सकते जिनको हमें सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का आधार बनाना चाहिए।


हम वे आवश्यक बातें नहीं पहचान सकते जिनको हमें सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का आधार बनाना चाहिए।

(ग) हम शिक्षकों को बहुत से ऐसे मौकों की ज़रूरत होती है जिनमें हम बच्चों के बारे में अपने अनुभव बांट सकें। हम उस सब के बारे में बातचीत कर सकें जो हम महसूस करते हैं, खासकर तब जब बच्चे सीख रहे होते हैं और हम सीखने में उनकी मदद कर रहे होते हैं। बच्चों के बारे में अनुभव बांटना बच्चों की ठोस एवं गम्भीर समझ बनाने के लिए, अपने आपको शिक्षक के रूप में बेहतर ढंग से समझने के लिए व सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को भी ज्यादा समझने के लिए बहुत आवश्यक है।

औरों के अनुभव सुनकर, अपने अनुभव औरों के सामने रखकर, और अनुभवों की समानता देखकर कुछ ठोस निष्कर्षों पर भी पहुंचना संभव होता है। यह भी समझ बनती है कि सिखाने की प्रक्रिया एक निरन्तर प्रयोग है, जो कभी तो सफल हो जाता है और कभी नहीं। और प्रयोग का सफल हो जाना भी उतना ही सही है जितना उसका विफल रहना। क्योंकि दोनों परिस्थितियों में बहुत कुछ सीखा जा सकता है।

इसी तरह सीखते-सीखते हम बेहतर और ज्यादा बेहतर होते जा सकते हैं। यदि हम अपने अनुभव नियमित रूप से साथ बैठकर न बांट सके तो हम ऐसे अनुभवों को लिख और पढ़कर तो बांट ही सकते हैं। अनुभवों को बांटने के लिए लिखना, व्यवस्थित करना व एक दूसरे को नियमित रूप से भेज पाना; आमने-सामने हुई बातचीत जितना अच्छा तो नहीं है और मुश्किल भी है। पर इसे करना बहुत जरूरी है।

बच्चों के बारे में इस तरह के रिपोर्ट लेखन से बच्चा क्या सीखने की कोशिश कर रहा था, किस तरह से कोशिश कर रहा था, आदि प्रश्नों के बारे में मैं सोच पाऔर इससे मैंने एक अमूल्य बात सीखी। ऐसी बात जिससे मैं अभी तक ओत-प्रोत हूं। जब मैंने शिक्षक की तरह काम करना शुरू किया तब मैं सिर्फ अपने बारे में सजग थी कि मैंने कक्षा में क्या किया, कक्षा के बाहर क्या किया, तैयारी कैसे की। पर अब मैं ज्यादा और ज्यादा सचेहोती जा रही हूं - बच्चे की अहम् भूमिका के बारे में। आखिर सीखने वाला तो बच्चा ही है और उसकी भूमिका सबसे अहम् है।

उषा राव
(कर्नाटक के कुछ गांवों में चले एक शैक्षणिक प्रयोग की कार्यकर्ता।)