अंधेर नगरी पाठ का मूल उद्देश्य क्या है आपने इस पाठ से क्या शिक्षा ग्रहण की? - andher nagaree paath ka mool uddeshy kya hai aapane is paath se kya shiksha grahan kee?

अंधेर नगरी नाटक से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें कभी भी लोभ नहीं करना चाहिए क्योंकि लोभ का परिणाम संकट में फँसना है। जिस प्रकार अंधेर नगरी नाटक में प्रत्येक वस्तु टके सेर मिलती है। टके सेर मिलने के कारण महन्त का शिष्य गोवर्धनदास अच्छी-अच्छी चीजें खाने को मिलेगा यह सोंचकर लोभवश वहाँ रुक जाता है और मुसीबत में फंस जाता है।

इसी तरह अंधेर नगरी नाटक से हमें यह भी शिक्षा मिलती है कि जिस राज्य में न्याय व्यवस्था या शासन व्यवस्था उचित (अनुकुल) न हों, वहाँ निवास नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसे स्थान या राज्य में रहने पर कभी-भी संकट आ सकती है। 

जिस तरह अंधेर नगरी नाटक में राजा विवेकहीन होने के कारण उचित न्याय नहीं कर पाता है और महंत के शिष्य गोवर्धन को निर्दोष होने पर भी फांसी पर लटकाने का आदेश दे देता है।

प्रासंगिकता 'अंधेर नगरी' समसामयिक संदर्भो का जीवन्त नाटक है। कुछ रचनाएँ अपनी प्रासंगिकता हमेशा सिद्ध करती रहती हैं और कभी भी पुरानी या बासी नहीं पड़तीं बल्कि बदलते हुए परिवेश बदलती परिस्थितियों में उनके नये-नये अर्थ प्रतिबिम्बत होते रहते हैं। 

इस अर्थ में 'अन्धेर नगरी' का संबंध न एक देश से है, न ब्रिटिश शासन मात्र से, न एक काल सीमा से । चाहे स्वतंत्र भारत के बदलते शासन की परम्परा का लम्बा इतिहास हो, चाहे विश्व के किसी भी कोने का 'अंधेर नगरी' हर काल, हर स्थान का यथार्थ है। 

अंधेर नगरी पाठ का मूल उद्देश्य क्या है आपने इस पाठ से क्या शिक्षा ग्रहण की? - andher nagaree paath ka mool uddeshy kya hai aapane is paath se kya shiksha grahan kee?

स्वातंत्र्योत्तर भारतीय परिवेश में यह नाटक जितना अधिक समसामयिक संदर्भो, सामाजिक चेतना, राजनैतिक व्यंग्य से जुड़ता गया, उससे भी अधिक सम्पूर्ण विश्व में बढ़ती मानव विरोधी परिस्थितियों और मूल्यों के संघर्ष से, सामाजिक और राजनैतिक चेतना से। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है कि 'किसी जाति का साहित्य जब बराबर उसे विचारों और व्यापारों के साथ लगा हुआ चलता है, तभी जीवित रह सकता हैं। 

यह भारतेन्दु का ही व्यक्तित्व था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पाबंदी और ब्रिटिश सरकार की निरंकुश सत्ता के इतने कठोर रूख के जनता के कष्टों को सीधे उन्हीं की भाषा में कहा। उसका यह बेधड़कपन ही उसे आज और अधिक प्रतिष्ठित करता है। उसे आवश्यक मानता है। 

सारे कुचक्रों, दमन के बीच 'अंधेर नगरी' एक उन्मुख हँसी और स्वतंत्र स्वर है, जो हमेशा ताजगी पैदा करता है। भारतेन्दु ने समग्र राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण के साथ यह नाटक रचा है। राजनीति को उन्होंने उपेक्षा से नहीं देखा, उसे सम्पूर्ण वैचारिकता से तोला, समझा तथा किसी भी देश की आर्थिक-सांस्कृतिक चेतना के लिए राजनीति की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार किया। 

भारतेन्दु के पास इतना स्पष्ट राजनीतिक दृष्टिकोण है और इतनी स्पष्ट सांस्कृतिक दृष्टि कि वह 'अंधेर नगरी' में हास्य और हास्य में गम्भीर बावजूद उन्होंने अंधेर नगरी नाटक की व्यंग्य की रचना कर पाते हैं।

'अंधेर नगरी' की समकालीन प्रासंगिकता कहीं कोई पृथक् विषय, विचार या तत्व नहीं है, उसे हम उसके कथानक कथा-पात्रों की परिकल्पना, संवादों की बुनावट सभी में व्यक्त होता हुआ देखते हैं और रंगमंचीय प्रयोगों में भी उसकी प्रासंगिकता पर ही बार-बार विचार हुआ है। 

इस नाटक के रोचक, लचीले, गठित नाट्यशिल्प की चर्चा करते हुए नेमिचन्द्र जैन ने लिखा है कि “कथानक का ऐसा नाटकीय ढाँचा बनाया गया है, जिसमें यथार्थपरकता और शैलीबद्धता का बड़ा आकर्षक मिश्रण है। हर निर्देशक अपनी कल्पनाशीलता से नया आस्वाद पैदा कर सकता है।'' 

प्रसिद्ध निर्देशक ब. व. कारन्त ने 'अंधेर नगरी' को सदाबहार नाटक और हिन्दी नाटक के इतिहास में संदर्भ रचना मानते हुए कहा है कि “यह नाटक न केवल पूरे इतिहास के विकास को प्रतिबिम्बत करता है अपितु रंगमंच की अन्य विधाओं, शैलियों आदि को, समस्त आंगिक-वाचिक कार्य व्यापार को नयी शक्ति देता है।'' रंगमंचीय दृष्टि से भी यह नाटक अपनी प्रासंगिकता को दर्ज कराता है।

अधर नगरी में न्याय की पूरी प्रक्रिया शासनसत्ता की संवेदनहीनता और मानवीय विडम्बना को दिखाती है क्योंकि वही मनुष्य को अन्ध व्यवस्था में फँसाती है, जहाँ शोषक, शोषित, अपराधी, निरपराधी में कोई अन्तर नहीं । लो पर आधारित व्यवस्था आज पहले से कहीं ज्यादा मजबूत हुई है। इसने जहाँ एक ओर नौकरशाही को और ताकतवर बनाया है, वहीं आम आदमी की मुश्किलों में बढ़ोत्तरी की है।

अंधेर नगरी में राज्य व्यवस्था का जो चित्र प्रस्तुत किया गया है, वह आज भी उतना ही सच नजर आ रहा है, जितना भारतेन्दु के समय में । राजतंत्र की हिलती हुई बुनियादों और जागती हुई जन चेतना, कृषक और मजदूर मन हम ग्रेख्त, गोर्की, टालस्टाय की रचनाओं में पाते हैं- 

हबीब तनवीर के 'आगरा बाजार' में भी पाते हैं। वहाँ भी बाजार है लेकिन भारतेन्दु ने जिस युग में जिस तरह नाटक रचा वह आज भी अकेला और प्रासंगिक है। उसमें निहित यथार्थ लगभग उसी रूप में आज भी मौजूद है। मनुष्य की पहचान आज पहले के किसी भी समय से ज्यादा पैसे से नापी जाती है। 

मनुष्य की बौद्धिकता और कौशल का, ईमानदारी और कर्मठता का कोई मूल्य नजर नहीं आता। सत्ता वर्ग अपने हित के लिए धर्म और जाति के नाम पर लोगों में फुट और द्वेष फैलाता है। 

आम आदमी आज भी टैक्स के बोझ तले दबा जा रहा है और पुलिस के अत्याचार और राजनीतिज्ञों और नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार से वह अस्त है। इसीलिए इसे हम 'कभी न समाप्त' होने वाला सर्जनात्मक गतिशील यथार्थ और असमाप्त नाटक कह सकते हैं।

निष्कर्ष - हम कह सकते हैं कि अंधेर नगरी समसामयिक संदर्भो का जीवन्त नाटक है। इसका सम्बन्ध ब्रिटिश शासक वर्ग से ही नहीं है। नाटक में व्यक्त यथार्थ और उसमें निहित बिडम्बना वर्तमान जनविरोधी पूँजी आश्रित सत्ताओं की भी है। नाटक में व्यक्त यथार्थ सीमित नहीं है, वह व्यापक चेतना और गतिशील यथार्थ का वाहक है।

अंधेर नगरी पाठ का मूल उद्देश्य क्या?

अंधेर नगरी पाठ का मूल उद्देश्य यह है कि किसी भी व्यक्ति को लालच नहीं करनी चाहिए, क्योंकि अगर कोई भी आदमी ज्यादा लालची होता है तो वह अपने लिए बेहतर क्या है और क्या नहीं है सोचने में असमर्थ हो जाता है ,जैसे कि इस पाठ में गंगाधर और राजा के मामले में हुआ.

अंधेर नगरी नाटक से हमें क्या शिक्षा मिलती है?

अंधेर नगरी नाटक से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें कभी भी लोभ नहीं करना चाहिए क्योंकि लोभ का परिणाम संकट में फँसना है। जिस प्रकार अंधेर नगरी नाटक में प्रत्येक वस्तु टके सेर मिलती है।

अंधेर नगरी की क्या विशेषता है?

प्रश्न 1 'अंधेर नगरी' नाटक की तात्विक समीक्षा कीजिए । बिल्कुल भी नहीं सोच पाता कि इसके कारण अन्त में फाँसी का फंदा स्वयं राजा के अपने ही गले में पड़ जाएगा । अन्धेर नगरी का अन्धा न्याय पाठकों में जिज्ञासा की सृष्टि ही नहीं करता बल्कि निरन्तर उसे बढ़ाता जाता है।

अंधेर नगरी में नाटककार का क्या संदेश है विस्तारपूर्वक समीक्षा?

यह उनका लोकप्रिय कार्य प्रधान प्रहसन है। इस प्रहसन का मूल प्रतिपाद्य 'लोभ' और 'भोग' से संबद्ध है किन्तु ठीक से देखने पर प्रमाणित यह होता है कि इसके मूल में अंग्रेजी राज और सामन्ती विचारधारा का प्रतिवाद है,इनके प्रति उदग्र आक्रोश है। लोभ पाप का मूल है,लोभ मिटावत मान। लोभ कभी नहि कीजिए, यामै नरक निदान।।