आईडेंटिटी को हिंदी में क्या कहते हैं? - aaeedentitee ko hindee mein kya kahate hain?

आईडेंटिटी को हिंदी में क्या कहते हैं? - aaeedentitee ko hindee mein kya kahate hain?

- संजीत कुमार गुप्ता

सहायक प्राध्यापक, पूर्णियाँ विश्वविद्यालय, पूर्णियाँ


संसार में प्रत्येक व्यक्ति की अपनी निजी विशेषताएँ होती है। भाषा उनमें से एक है। हम जानते है कि प्रत्येक व्यक्ति की भाषा दूसरे से अलग होती है। एक ही भाषा का प्रयोग करने वाले लोगों में उच्चारण, शब्द चयन एवं शैली के स्तर पर भेद पाए जाते हैं। इसी प्रकार किसी वर्ग विशेष, समाज विशेष एवं राष्ट्र विशेष के लोगों की भाषा भी दूसरे से भिन्न होती है। अतः कह सकते हैं कि किसी वर्ग, समाज एवं राष्ट्र आदि की अस्मिता उसकी भाषा में भी प्रतिबिंबित होती है। भारत के संदर्भ में सामाजिक अस्मिता का भाषा से गहरे संबंध का पता इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहाँ राज्यों का गठन भाषा को आधार बनाकर किया गया है। भारत में विभिन्न राज्यों का गठन भाषा के आधार पर हुआ है। इसके बावजूद भी यहाँ भाषाओं के आधार पर बनी अस्मिता विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक प्रयोजनों के कारण सोपानिक ढंग से स्तरीकृत है। अतः एक राज्य का व्यक्ति केवल एक भाषा का ही प्रयोग नहीं करता। स्थानीय, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में वह बोली, भाषा तथा अंतर्राष्ट्रीय भाषा का प्रयोग करता है। इन सभी प्रयोजनों में अनुवाद की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।

अस्मिता से तात्पर्य है- पहचान तथा भाषायी अस्मिता से तात्पर्य है- भाषा बोलने वालों की अपनी पहचान। ‘अस्मिता’ शब्द के संदर्भ में डॉ. नामवर सिंह का कथन है - “हिंदी में ‘अस्मिता’ शब्द पहले नहीं था। 1947 से पहले की किताबों में मुझे तो नहीं मिला और संस्कृत में भी अस्मिता का यह अर्थ नहीं है।’अहंकार’ के अर्थ में आता है, जिसे दोष माना जाता है। हिंदी में ‘आईडेंटिटी’ का अनुवाद ‘अस्मिता’ किया गया और हिंदी में जहाँ तक मेरी जानकारी है, पहली बार अज्ञेय ने ‘आईडेंटिटी’ के लिए अनुवाद ‘अस्मिता’ शब्द का प्रयोग हिंदी में कियाहै।”

संसार में प्रत्येक व्यक्ति की अपनी निजी विशेषताएँ होती है। भाषा उनमें से एक है। हम जानते है कि प्रत्येक व्यक्ति की भाषा दूसरे से अलग होती है। एक ही भाषा का प्रयोग करने वाले लोगों में उच्चारण, शब्द चयन एवं शैली के स्तर पर भेद पाए जाते हैं। हिंदी में ही कविता के संदर्भ में जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पंत, महादेवी वर्मा, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, तथा ‘अज्ञेय’ आदि की भाषा एक-दूसरे से भिन्न है। इसी प्रकार किसी वर्ग विशेष, समाज विशेष एवं राष्ट्र विशेष के लोगों की भाषा भी दूसरे से भिन्न होती है। अतः कह सकते हैं कि किसी वर्ग, समाज एवं राष्ट्र आदि की अस्मिता उसकी भाषा में भी प्रतिबिंबित होती है।

भारत के संदर्भ में सामाजिक अस्मिता का भाषा से गहरे संबंध का पता इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहाँ राज्यों का गठन भाषा को आधार बनाकर किया गया है। रामविलास शर्मा तथा रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव जैसे भाषाविद् एवं आलोचक भाषा के आधार पर ही उत्तर भारत की जनता को एक सूत्र में बाँधने की वकालत करते हुए हिंदी जाति तथा हिंदी भाषायी समाज की बात करते हैं। भाषा को अस्मिता का सवाल बनाकर ही 1960 ई. में महाराष्ट्र को दो उपखण्डों – महाराष्ट्र तथा गुजरात में विभक्त किया गया था। पंजाब से हरियाणा को अलग करने के पीछे भी भाषा एक प्रमुख कारण थी। पश्चिम बंगाल से गोरखालैंड को अलग करने के आंदोलन में भाषा एक प्रमुख घटक रहा है। राज्यों के टूटने से समाज एवं राष्ट्र का भला होता है अथवा नहीं, यह एक अलग बहस का मुद्दा है, किंतु इस बात से हम इनकार नहीं कर सकते हैं कि राज्य के बँटवारे में भाषा एक प्रमुख कारक तत्त्व होता है। अतः देश में राज्यों के पुनर्गठन के पीछे भौगोलिक, राजनीतिक तथा आर्थिक कारणों से परे भाषा को आधार बनाकर निर्णय लेना वस्तुतः भाषा से जुड़ी अस्मिता के महत्व को ही दर्शाता है। इससे यह तथ्य भी सामने आता है कि किसी समाज विशेष के सदस्यों को जोड़कर रखने में भी भाषा की प्रमुख भूमिका होती है। ठीक इसी प्रकार एक समुदाय का दूसरे समुदाय से अलगाव का एक प्रमुख कारण भी भाषा ही होती है।

भाषायी अस्मिता के आधार पर हम राजभाषा एवं राष्ट्रभाषा में भी अंतर देख सकते हैं। राजभाषा वस्तुतः प्रशासनिक प्रयोजन एवं आर्थिक विकास के लिए एक प्रकार से जनता पर थोपी गई भाषा होती है, वहीं राष्ट्रभाषा का संबंध सामाजिक अस्मिता की भाषा से है। यह किसी देश की अपनी भाषा होती है। लोगों का अपने राष्ट्रभाषा के प्रति भावात्मक रूप से जुड़ाव होता है। यह देश की एकता को एक मजबूत आधार प्रदान करता है।

भारत में विभिन्न राज्यों का गठन भाषा के आधार पर हुआ है। इसके बावजूद भी यहाँ भाषाओं के आधार पर बनी अस्मिता विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक प्रयोजनों के कारण सोपानिक ढंग से स्तरीकृत है। अतः एक राज्य का व्यक्ति केवल एक भाषा का ही प्रयोग नहीं करता। स्थानीय, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में वह बोली, भाषा तथा अंतर्राष्ट्रीय भाषा का प्रयोग करता है। रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव के अनुसार- “अगर भाषाएँ, सामाजिक अस्मिता के निर्माण के साधन और उसके बनने के सूचक के रूप में काम करती हैं, तो हमारी भाषा संबंधी सामाजिक अस्मिता भी स्तरीकृत होगी। इस संदर्भ में हम यह कह सकते हैं कि हिंदी भाषी एक स्तर पर अपनी बोलियों से जुड़ा है और दूसरे स्तर पर अपनी भाषा हिंदी से भी।” इसी प्रकार अहिंदी भाषी एक स्तर पर अपनी जनपदीय भाषा से और अखिल भारतीय संदर्भ में हिंदी और अंग्रेजी से जुड़ा है। एक बंगाली व्यक्ति स्थानीय स्तर पर बंगला का, राष्ट्रीय स्तर पर संपर्क के लिए हिंदी का तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेजी का प्रयोग करता है। अतः संभव है कि यहाँ दो स्तरों पर टकराव की स्थिति पैदा हो जाए। दक्षिण भारत के कुछ लोगों द्वारा राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को स्वीकार न करने के पीछे का कारण दो स्तरों के बीच भाषा का तनाव ही है।

 

निश्चित रूप से किसी देश की पहचान का प्रमुख साधन उसकी राष्ट्रभाषा से है व वहाँ की संस्कृति उससे जानी जाती है। निश्चित रूप से हिंदी भारत की सबसे बड़ी भाषा है व 78% लोग हिंदी बोलने समझने की स्थिति मे हैं, स्वाधीनता आंदोलन में हिंदी की सबसे बड़ी भूमिका रही है। गांधी, टिळक, गोखले, सुभाषचंद्र बोस व दक्षिण के राजगोपालाचारी स्वयं हिंदी की भूमिका से अवगत थे व हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने को प्रयासरत रहे थे।

 

स्वतंत्रता से पूर्व हमारे जननायकों ने संगठित होने के लिए एक भाषा को चुना था वह थी हिंदी। उन्हें हिंदी का महत्व अच्छे से पता था भारत उस समय तक राष्ट्र नहीं था पंरतु हिंदी की स्थिति राष्ट्रभाषा वाली ही थी। गांधी जी भी मानते थे कि बिना राष्ट्रभाषा के राष्ट्र गूंगा है। गांधीजी की इस संकल्पना के सभी समर्थक थे लेकिन जब संविधान सभा की बैठक शुरू हुई तो कुछ राज्य के लोगों द्वारा राजनीतिक मुद्दा बना दिया गया, कई राष्ट्रीय प्रतीक तो बने परंतु हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं बनी। वहाँ प्रश्न उठा कि हिंदी को अगर राष्ट्रभाषा माने तो अन्य भाषाओं को क्या गैर राष्ट्र की भाषा मानेंगे? प्रश्नकारों के अनुसार अन्य प्रांतीय भाषाओं की तरह हिंदी भी प्रांतीय भाषा थी। ऐसे में हिंदी भाषी राज्यों की भाषा राष्ट्रभाषा तो हिंदी बन जाती लेकिन अहिंदी भाषी राज्यों की राष्ट्रभाषा को लेकर यह विवाद उत्पन्न हुआ। इसे शांत करने के लिए राजभाषा का दर्जा हिंदी को दिया गया, अंग्रेजी में इसे “ऑफिशयल लैंग्वेज” कहा गया जिसका अनुवाद ‘राजभाषा’ हुआ, साथ ही कहा गया कि संविधान में मान्यता प्राप्त भाषाएँ राष्ट्रभाषाएँ हैं।

स्वतंत्रता के इतने दिन बाद भी आज हिन्दी की जो स्थिति है उसके लिए अंग्रेज या अंग्रेजी पूरी तरह जिम्मेदार नहीं है। अगर इसके लिए कोई सर्वाधिक जिम्मेदार है तो वह है अंग्रेजियत। अंग्रेजियत एक संस्कृति है, एक संस्कार है जो भारतीय जनमानस में बड़े आकर्षण के साथ आधुनिकता और विज्ञान के नाम पर घर करती जा रही है। यह हमारे जातीय संस्कार और गौरव बोध का हनन कर हमें अस्मिता शून्य बनाता जा रहा है। आज हम हिन्दी की अस्मिता का जो प्रश्न लेकर खड़े हैं उसका उत्तर तो हमें पूर्व से ही ज्ञात है।

परतंत्र भारत में हिन्दी की जो स्थिति थी उसे दयनीय नहीं कहा जा सकता। विदेशी व्यापारियों के सामने भारत में माध्यम का प्रश्न आरंभ से था और अंग्रेज, फ्रेंच, डच, पुर्तगाली आदि सभी ने अपनी सूझ-बूझ से इसे हल किया था।

प्रसिद्ध भाषा शास्त्री सुनीति कुमार चटर्जी ने अपनी पुस्तक में एक डच यात्री जॉन केटेलर का उल्लेख किया है जो सन् 1685 में सूरत में व्यापार करने के लिए आया था। भाषा माध्यम की समस्या उसके सामने भी थी। वह स्वयं डच भाषी था किन्तु सूरत के आस-पास व्यापारी वर्ग में जो भाषा बोली जाती थी वह हिन्दी गुजराती का मिश्रित रूप था और उसका व्याकरण हिन्दी परक था। अतः जॉन केटेलर ने डच भाषा में हिन्दी का प्रथम व्याकरण लिखा। सन् 1719 में मद्रास आए ईसाई प्रचारक बैंजामिन शुल्गे ने ‘ग्रेमेटिका हिन्दोस्तानिक’ नाम से देवनागरी अक्षरों में हिन्दी व्याकरण की रचना की। उसी समय हेरासिम लेवेडेफ नामक ईसाई पादरी ने भाषा पंडितों की सहायता हिन्दुस्तान की बोलियों का व्याकरण अंग्रेजी में लिखा।

यह सब बताने का अभिप्राय यह है कि गुजरात और मद्रास जैसे अहिन्दी प्रदेशों में विदेशी विद्वानों ने भाषा ज्ञान के लिए एवं माध्यम भाषा के लिए जिन उनमें अनुवाद एक महत्वपूर्ण साधन था। यहाँ अनुवाद किसी दबाव, लालच, शासकीय प्रबन्ध या प्रेरणा से न हो कर आवश्यकतानुसार स्वयं हो रहा था।

भाषा की प्रगति तब मानी जाती है जब एक ओर वह अधिक प्रौढ होती चलती है तो दूसरी ओर उसका प्रसार होता जाता है। पहली स्थिति उसके अर्थ गर्भत्व को संकेतित करती है और दूसरी उसकी व्यापक स्वीकृति को। पहली स्थिति में उसका अंतरंग विकसित होता है और दूसरी स्थिति में बहिरंग प्रोत्साहित होता है। दोनों के संयोग से भाषा समृद्ध और विशेष प्रभावशालिनी बनती है।

जब हम हिन्दी के विकासशील होने की बात कहते हैं तो उसका अभिप्राय भी यही है कि एक ओर उसका
अन्तरंग विकसित हुआ है तो दूसरी ओर उसे व्यापक स्वीकृति भी मिली है और इन सब में अनुवाद की भूमिका भी अत्यंत सराहनीय हो जाती है।

यों सामान्यतः यह अपेक्षा किसी भी भाषा से की जा सकती है किन्तु हिन्दी से इसकी विशेष अपेक्षा इसलिए है क्यों कि संविधान के अनुसार वह संघ की राजभाषा है और विभिन्न प्रदेशों के बीच सम्पर्क भाषा की भूमिका का निर्वाह उसे करना है। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि, हिन्दी किन दिशाओं में और कितनी विकसित है और उसके विकास की क्या अपेक्षाएँ हैं। हिन्दी उन अपेक्षाओं को कहाँ तक पूरा कर पा रही है, या फिर कौन से साधक या बाधक तत्व हैं और उनसे कैसे निपटा जाए?

भाषा के जिस द्विपक्षीय विकास की बात यहाँ मैं कह रहा हूँ, उसे क्रमशः गुणात्मक विकास एवं संख्यात्मक विकास कहा जा सकता है। हिन्दी के पक्ष में संख्यात्मकता का बड़ा बल रहा है और आज भी है। किन्तु एकमात्र उसी को आधार बना कर नहीं रहा जा सकता। गुणात्मक विकास ही उसके संख्यात्मक विकास का कारण रहा है। अतः आज भी हमें उसके गुणात्मक विकास की ओर अधिक सक्रिय और सजग रहने की आवश्यकता है। गुणात्मक विकास की भी दो दिशाएँ हैं:
1. ललित साहित्य सृजन’
2. ज्ञानात्मक साहित्य की रचना और उसकी अभिव्यक्ति का विकास।

आज जिस संदर्भ में हिन्दी पर विचार किया जा रहा है वह ललित साहित्य की प्रौढता को लेकर नहीं है।
राष्ट्र के समक्ष जो चुनौती है वह व्यावहारिक धरातल पर भाषिक सम्पर्क और उसके माध्यम से पारस्परिक सहयोग की भूमिका तैयार करने की है। नयी तकनीक, नये आविष्कार और विज्ञान की अनन्त उपलब्धियों और संभावनाओं को हमें अपनी भाषा के माध्यम से उजागर करना है। इस दिशा में भी यद्यपि प्रयत्न हो रहे हैं पर जितने और जिस गति से हो रहे हैं वे पर्याप्त नहीं हैं। इस दिशा में भौतिक चिन्तन एवं लेखन के साथ हमें अन्तर्राष्ट्रीय जगत से सम्पर्क बनाए रखना होगा। आज का युग अंतरावलम्बन का युग है। विकसित देशों में भी अपनी समृद्ध भाषा में लिखे गए साहित्य के अतिरिक्त दूसरे देश की भाषाओं में लिखे गए साहित्य से लाभ अनुवाद उठाया जाता है। आज हम इंटरनेट के जरिए किसी भी देश के पुस्तकालय में प्रवेश पा सकते हैं। हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ भी इंटरनेट द्वारा विश्व भर में आसानी से पढ़ी जा रही हैं।

किसी भाषा की शक्ति और सम्पन्नता केवल इस बात पर निर्भर नहीं होती कि वह अपने शब्द कोष में कितने शब्द संभाले हुए है बल्कि यह देखना भी जरूरी है कि उसमें नवीन शब्दों के निर्माण की कितनी क्षमता और शब्दों को आत्मसात करने की कितनी उदारता है। हिन्दी में ये दोनों ही विशेषताएँ विद्यमान हैं। मध्यकालीन कवियों ने अरबी-फारसी के न जाने कितने शब्दों को न केवल अपनी भाषा में खपा लिया बल्कि उन्हें हिन्दी की प्रवृत्ति के अनुसार ढाल भी लिया था। यह क्रम चलता रहना चाहिए था।

अंत में मैं यही कहूँगा कि हिन्दी की मौजूदा स्थिति निराशाजनक कदापि नहीं है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि भाषागत राजनीति में न उलझ कर हिन्दी को अपने हित के लिए दृढता से अनुवाद जैसे उपकरण का अनुसरण करना होगा जिससे वह और अधिक समृद्ध और सशक्त होती जाए और उसकी सर्वग्राह्यता बनी रहे।

संदर्भ –

  • मुकुंद द्विवेदी (संपादक) - भारतीय भाषाएँ एवं राष्ट्रीय अस्मिता, हिंदी अकादमी, दिल्ली, प्रथम संस्करण
  • Peter Trudgill - Sociolinguistics: An Introduction to Language and Society, Penguin book Ltd., England Reprinted 1985.
  • Ronald Wardhaugh - An Introduction to Sociolinguistics, Wileyblackwell Publication, United Kingdom, sixth editions 2010
  • रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव - हिंदी भाषा का समाजशास्त्र, राधाकृष्ण प्रकाशन, दरियागंज, दिल्ली, प्रथम संस्करण।
  • डॉ. रवीन्द्र श्रीवास्तव - भाषाई अस्मिता और हिंदी, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, दिल्ली, प्रथम संस्करण।
  • एन. ई. विश्वनाथ अय्यर - अनुवाद: भाषाएँ समस्याएँ, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली।

आईडेंटिटी मतलब क्या होता है?

[सं-स्त्री.] - 1. किसी वस्तु या व्यक्ति की पहचान 2. अभिज्ञान।

आईडेंटिटी कार्ड को हिंदी में क्या कहते हैं?

[सं-पु.] - पहचान-पत्र; किसी संस्थान या कार्यालय आदि की सदस्यता अथवा वाहक को प्रमाणित करने वाला पत्र; अभिज्ञान-पत्र।

थ्रोट का मतलब क्या होता है?

ENT(ईएनटी) ka full form: Ear Nose Throat (इयर नोज थ्रोट) ENT(ईएनटी) का मतलब या फुल फॉर्म Ear Nose Throat(इयर नोज थ्रोट) कान नाक गला होता है। 1 अस्पतालों में अलग ईएनटी(ENT) विभाग की क्या आवश्यकता है? हम ENT(Ear nose throat) को कान नाक गला के नाम से भी जानते हैं।