वृद्धि एवं विकास में शिक्षा की क्या भूमिका है? - vrddhi evan vikaas mein shiksha kee kya bhoomika hai?

किसी भी प्राणी के जीवन का आरम्भ जन्म के बाद नहीं, अपितु जन्म से पूर्व गर्भाधान (Conception) के समय ही हो जाता है। शिशु जन्म तो इसके विकास क्रम में घटित होने वाला एक स्वाभाविक परिवर्तन है जिसके द्वारा शिशु आन्तरिक वातावरण से निकलकर बाह्य वातावरण के सम्पर्क में आता है। शिशु के अभिवृद्धि और विकास की प्रक्रिया माता के गर्भ से ही प्रारंभ हो जाती है तथा जीवन की अनेक अवस्थाओं- शैशव, बाल्य, किशोर, प्रौढ़ावस्था तक निरन्तर चलती रहती है। इन अवस्थाओं में शारीरिक विकास, मानसिक विकास, संवेगात्मक विकास, भावात्मक विकास, बौद्धिक विकास, नैतिक विकास, आर्थिक विकास, राजनैतिक विकास, धार्मिक विकास, आध्यात्मिक विकास तथा सामाजिक विकास की प्रक्रिया बराबर चलती रहती है। जीवन की इन अवस्थाओं में नये-नये गुणों का आविर्भाव और पुरानी विशेषताओं का लोप या परिवर्तन होता रहता है।

हरलॉक का कहना है ‘विकास के फल स्वरूप व्यक्ति में नई-नई विशेषताएं तथा योग्यता प्रकट होती रहती है।’ शिक्षा द्वारा बालक का सर्वांगीण विकास किया जाता है अतः शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और संवेगात्मक विकास का अध्ययन विभिन्न अवस्थाओं में करना आवश्यक और महत्वपूर्ण होता है।

शैक्षिक कार्यक्रम बनाते समय बालक की आयु तथा विकास की अवस्था को ध्यान में रखना होता है। शिक्षा मनोविज्ञान बालक के विकास की सभी अवस्थाओं और उन अवस्थाओं में होने वाले शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक तथा नैतिक परिवर्तनों का ज्ञान कराता है।

  • अभिवृद्धि और विकास का अर्थ (Meaning of Growth and Development)
    • अभिवृद्धि (Growth)
    • विकास (Development)
  • अभिवृद्धि एवं विकास में अन्तर (Difference between Growth and Development)
  • विकास में होने वाले परिवर्तन (Types of Changes in Development)
    • आकार में परिवर्तन
    • अनुपात में परिवर्तन
    • पुरानी आकृतियों का लोप
    • नई आकृतियों की प्राप्ति
  • अभिवृद्धि और विकास के शैक्षिक महत्व (Educational Implication of Growth and Development)

“कोई भी माता-पिता या अध्यापक यह जानता है कि बालक एक गतिशील प्राणी होता है, लगातार किसी दो क्षण भी वह एक समान ही नहीं रहता है। प्रत्येक दिन परिवर्तन हुआ करते हैं, चाहे अच्छे के लिए हो अथवा बुरे के लिए, ये परिवर्तन शारीरिक परिपक्वता और अनुभव की वृद्धि की ओर प्रगति के रूप में होते हैं। अनवरत् परिवर्तन होना ही जीवित रहना है।” इस कथन से स्पष्ट है कि जीवन में परिवर्तन आवश्यक है और परिवर्तन होने से अभिवृद्धि होती है, विकास होता है और फलस्वरूप मानव के जीवन में प्रगति होती है। शिक्षा मनोविज्ञान शैक्षिक परिस्थितियों में मनुष्य के व्यवहार का अध्ययन करता है। इसका उद्देश्य बालक के व्यवहार में वांछनीय परिवर्तन और परिमार्जन करना होता है। इसलिए शिक्षक को वृद्धि और विकास को विभिन्न अवस्थाओं में जानना आवश्यक है। लोग वृद्धि और विकास को एक ही समझ लेते हैं जबकि ऐसा है नहीं। इन दोनों का अर्थ अलग-अलग है।

अभिवृद्धि (Growth)

सामान्यतः बोलचाल की भाषा में वृद्धि और विकास शब्द का प्रयोग एक ही अभिप्राय के लिये किया जाता है जबकि वास्तव में ये दोनों शब्द अपना अलग-अलग अर्थ व महत्व रखते हैं। ‘अभि’ का अर्थ है ‘चारों ओर‘ जिसे अंग्रेजी में ‘all-round‘ कहा जाता है। ‘वृद्धि‘ का अर्थ है ‘बढ़ना’ या ‘फैलना’। इसका तात्पर्य हुआ मानव के आन्तरिक और बाह्य सभी अंगों का बढ़ना जिससे कि उसके आकार, रूप आचरण, व्यक्तित्व आदि में परिवर्तन आते हैं। अंग्रेजी का शब्द ‘Growth‘ उस प्राकृतिक प्रक्रिया की ओर संकेत करता है जो प्राणी को परिपक्वता की ओर बढ़ाता है। अस्तु ”अभिवृद्धि परिपक्वता की ओर बढ़ने की प्रक्रिया का परिणाम है।” मनोविज्ञान की दृष्टि से भी हमें इस पर थोड़ा विचार करने की आवश्यकता है। मनोवैज्ञानिकों ने अभिवृद्धि का अर्थ उन ‘प्राकृतिक परिवर्तनों से लिया है, जो शारीरिक और मानसिक संरचनाओं, विशिष्टताओं या क्रियाओं की परिपक्वता की ओर समयानुसार होता है।’

एक उदाहरण से स्पष्ट हो जायेगा। नवजात शिशु की लम्बाई औसतन 56 सेमी के लगभग होती है, परन्तु दो-तीन माह के बाद उसकी लम्बाई में अभिवृद्धि हो जाती है। इसी प्रकार उसके भार में भी समय बीतने पर अभिवृद्धि होती है और यह क्रम आगे भी चलता रहता है जैसे-जैसे जीवन आगे बढ़ता है। इसके फलस्वरूप उसके अंगों में परिपक्वता या पुष्टता अथवा दृढ़ता भी आती है।

इसी प्रकार से मानव के अनुभवों की भी अभिवृद्धि होती है जैसे-जैसे वह आयु में आगे बढ़ता है। उसकी मानसिक क्रियाओं (सोचने, समझने, कल्पना करने, स्मरण करने आदि) में भी अनुभव अधिक होने से अभिवृद्धि होती है। प्रौढ़ होने पर वह मानसिक तौर पर अधिक परिपक्व भी होता है। अतएव अभिवृद्धि एक प्रक्रिया और परिपक्वता उसका परिणाम होती है। जो प्राकृतिक रूप से होती है। यह अच्छाई और बुराई दोनों ओर हुआ करती है और इससे मानव की विशिष्टताएँ प्रभावित होती हैं।

विकास (Development)

विकास एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है जो जन्म से लेकर जीवनपर्यन्त तक अविराम गति से चलती रहती है। विकास शब्द का तात्पर्य है ‘बढ़ना’। परन्तु यह बढ़ना प्राकृतिक न होकर कुछ साधनों की सहायता से होता है। मानव का शारीरिक, मानसिक, सांवेगिक तथा सामाजिक विकास निरन्तर होता रहता है जिसके फलस्वरूप स्किनर ने विकास को निरन्तर एवं क्रमिक प्रक्रिया कहा है। इस प्रकार विकास एक व्यापक शब्द है। इसके अन्तर्गत गर्भाधान से लेकर वृद्धावस्था तक होने वाले सम्पूर्ण शारीरिक व मानसिक परिवर्तनों का क्रम समाहित रहता है। अतः प्राणी के भीतर विभिन्न प्रकार के शारीरिक व मानसिक क्रमिक परिवर्तनों की उत्पत्ति ही ‘विकास’ है। विकास की प्रक्रिया में होने वाले सभी परिवर्तन समान नहीं होते हैं। जीवन की प्रारम्भिक अवस्था में होने वाले परिवर्तन रचनात्मक और उत्तरार्द्ध में होने वाले परिवर्तन विनाशात्मक (Destructive) होते हैं। रचनात्मक परिवर्तन प्राणी में परिपक्वता (Maturity) लाते हैं और विनाशात्मक परिवर्तन उसे वृद्धावस्था की ओर ले जाते हैं।

हरलॉक (Harlock) ने मानव विकास को अधिक स्पष्ट रूप से परिभाषित करते हुए कहा है-“विकास अभिवृद्धि तक सीमित नहीं है, अपितु इसमें परिवर्तनों का वह प्रगतिशील क्रम निहित है जो परिपक्वता के लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है। विकास के परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएँ और नवीन योग्यताएँ प्रकट होती हैं।”

“Development is not limited to growing larger instead; it consists of Progressive series of changes towards the goal of maturity. Development results in new characteristics and new abilities on the part of the individual.  –Harlock

जेम्स ड्रेवर (James Drever) ने विकास को परिभाषित करते हुये कहा है कि “विकास वह दशा है जो प्रगतिशील परिवर्तन के रूप में प्राणी में सतत् रूप से व्यक्त होती है। यह प्रगतिशील परिवर्तन किसी भी प्राणी में भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक होता है। यह विकास तन्त्र को सामान्य रूप से नियंत्रित करता है। यह प्रगति का मानदण्ड है और इसका आरम्भ शून्य से होता है।”

इस प्रकार जेम्स ड्रेवर की परिभाषा के अनुसार विकास का अर्थ लम्बाई व भार में वृद्धि से नहीं है अपितु विकास परिपक्वता की ओर बढ़ने का एक निश्चित व प्रगतिशील क्रम है। प्रगति का अर्थ भी दिशा बोधयुक्त होता है जो सदैव व्यक्ति को आगे की ओर ले जाता है।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है-‘मानव विकास एक निरन्तर एवं क्रमिक विकास की प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति की मात्रात्मक वृद्धि होती है और नवीन विशेषताएँ एवं योग्यताएँ प्रकट होती हैं तथा उत्तरोत्तर उसके व्यवहार में परिवर्तन होता रहता है।” कभी-कभी बिना अभिवृद्धि (Growth) का भी विकास संभव होता है। एक छोटे कद के व्यक्ति (बौने) की शारीरिक लम्बाई में वृद्धि नहीं होती परन्तु उसके शारीरिक अवयवों की कार्यक्षमता में वृद्धि होती रहती है। कार्यक्षमता में होने वाली वृद्धि ही विकास कहलाती है।

अभिवृद्धि एवं विकास में अन्तर (Difference between Growth and Development)

यद्यपि वृद्धि और विकास में अन्तर न करके दोनों को विकास के ही अर्थ में देखा जाता है फिर भी दोनों में कुछ मुख्य अन्तर देखे जा सकते हैं-

  1. अभिवृद्धि विशेष आयु तक चलने वाली प्रक्रिया है लेकिन विकास मृत्यु पर्यन्त यानी पूरे जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया है।
  2. अभिवृद्धि का सम्बन्ध शारीरिक अंगों से होता है जबकि विकास का सम्बन्ध शारीरिक अंगों के साथ-साथ उसके गुणों से होता है।
  3. अभिवृद्धि परिमाणात्मक परिवर्तन की अभिव्यक्ति है और विकास गुणात्मक तथा परिमाणात्मक पक्षों की अभिव्यक्ति है।
  4. अभिवृद्धि विकास का एक चरण है तथा विकास में वृद्धि भी सम्मिलित होती है।
  5. वृद्धि में होने वाले परिवर्तनों को नापा और देखा जा सकता है जबकि विकास में होने वाले परिवर्तन अनुभव किये जा सकते हैं इनको नापा नहीं जा सकता।
  6. वृद्धि में केवल शारीरिक परिवर्तन प्रकट होते हैं लेकिन विकास सम्पूर्ण पक्षों के परिवर्तनों को संयुक्त रूप से परिवर्तित करता है।
  7. अभिवृद्धि के घटक मूर्त होते हैं जबकि विकास के घटक अमूर्त होते हैं।
  8. अभिवृद्धि एक पक्षीय होती है जबकि विकास की बहुपक्षीय होती है।
  9. अभिवृद्धि की प्रक्रिया साधारण होती है जबकि विकास की प्रक्रिया जटिल होती है।
  10. अभिवृद्धि संकीर्ण अवधारणा है जबकि विकास व्यापक प्रक्रिया है।

विकास में होने वाले परिवर्तन (Types of Changes in Development)

बालक के विकास में परिवर्तन शरीर और मन दोनों में होता है। इन परिवर्तनों को हरलॉक ने चार भागों में बाँटा है:-

आकार में परिवर्तन

यह परिवर्तन शारीरिक वृद्धि तथा मानसिक विकास में देखा जा सकता है, जैसे-जैसे बालक बड़ा होता है उसके भार, ऊँचाई, मोटाई में अन्तर आता रहता है। उसके आन्तरिक अवयव जैसे दिल, फेफड़ा, आँतें, पेट आदि भी बढ़ते रहते हैं, ये अंग शरीर की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं।

मानसिक विकास के अन्तर्गत शब्दभण्डार, तर्क, स्मरण, कल्पना शक्ति में प्रतिवर्ष विकास दिखाई देता है। इसे बुद्धि-परीक्षणों द्वारा मापा जा सकता है। इस प्रकार शारीरिक विकास के साथ-साथ बौद्धिक प्रक्रियाओं में परिवर्तन देखे जा सकते हैं।

अनुपात में परिवर्तन

बालक के सभी अंग एक साथ समान रूप से नहीं बढ़ते। नवजात शिशु का सिर अन्य अंगों के अनुपात में बड़ा होता है किन्तु जैसे-जैसे बढ़ता है उसका सिर सारे शरीर के अनुपात में अपेक्षाकृत कम बढ़ता है। मानसिक विकास में अनुपात में अन्तर दिखाई देता है। प्रारम्भिक बाल्यावस्था में बालकों की कल्पना में यथार्थता कम होती हैं प्रारम्भ में उनकी रुचि अपनी ओर ही अधिक होती है। आयु बढ़ने के साथ उनकी रुचि का क्षेत्र भी विस्तृत होता जाता है।

पुरानी आकृतियों का लोप

विकास में पुरानी आकृतियों का लोप हो जाता है। शारीरिक विकास के अन्तर्गत बचपन में जैसे-जैसे बालक बढ़ता है सीने में स्थित थाइमस ग्रन्थि तथा मस्तिष्क के पास स्थित पीनियल ग्रन्थि धीरे-धीरे गायब हो जाती है। बचपन में बालों तथा दांतों का लोप स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। इसी प्रकार मानसिक गुणों में भाषा विकास से बलबलाना तथा अन्य ध्वनियां जैसे चीखना आदि धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है। बचपन का घिसकना भी धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं।

नई आकृतियों की प्राप्ति

पुरानी आकृतियों के गायब होने के साथ नई शारीरिक और मानसिक आकृतियों की प्राप्ति दिखाई देती है। जो परिपक्वन तथा सीखने की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप होती है। शारीरिक विकास में स्थायी दांतों का निकलता तथा किशोरावस्था में होने वाले परिवर्तन हैं मानसिक विकास के अन्तर्गत जिज्ञासा विशेष रूप से यौन सम्बन्धी ज्ञान, नैतिकता, धार्मिक विश्वास, भाषा के विभिन्न रूप आदि दिखाई देते हैं।

अभिवृद्धि और विकास के शैक्षिक महत्व (Educational Implication of Growth and Development)

शिक्षा के क्षेत्र में वृद्धि व विकास के निम्नलिखित महत्व होते हैं-

  1. बालकों की क्षमता के अनुसार शिक्षा प्रदान करने में सहायक-अभिवृद्धि व विकास की मात्रा व गति प्रत्येक बालक में अलग-अलग होती है जिसका पता लगाकर बालकों को उसी प्रकार से पढ़ाया एवं सिखाया जाता है।
  2. भावी जीवन के लिए तैयार करना-अभिवृद्धि व विकास के आधार पर बालक के भविष्य के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है। उसी प्रकार बालकों को आगे अग्रसर किया जाता है और उनको भावी जीवन के लिए तैयार किया जाता है।
  3. वंशानुक्रम एवं वातावरण के अनुसार शिक्षा प्रदान करने में सहायक- अभिवृद्धि व विकास दोनों बालकों के लिये आवश्यक होते हैं। इनमें से किसी की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती व यह दोनों वातावरण व वंशानुक्रम पर निर्भर करती है जो बालकों को शिक्षा प्रदान करने में सहायक होती है।
  4. विभिन्न पहलुओं के अनुसार शिक्षा प्रदान करने में सहायक- अभिवृद्धि व विकास का ज्ञान होने पर अध्यापक को बालक को शिक्षा प्रदान करने में सहायता मिलती है, क्योंकि इससे बालक को मानसिक, शारीरिक विकास का पता करके उन्हें उसी के अनुसार ज्ञान प्रदान किया जाता है।
  5. व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुसार शिक्षा प्रदान करने में सहायक- अभिवृद्धि व विकास के द्वारा बालक की व्यक्तिगत विभिन्नताओं का पता चलता है, क्योंकि प्रत्येक बालक एक-दूसरे से भिन्न होता है। इस भिन्नता का पता लगाकर ही बालक को शिक्षित किया जाता है।

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एक शिक्षक के लिए वृद्धि और विकास का ज्ञान क्यों आवश्यक है?

एक शिक्षक के लिए वृद्धि और विकास के सिद्धांतों के बारे में जानना महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि : यह ज्ञान बच्चों को पृथक करने में शिक्षक की सहायता करेगा। शिक्षक एक अच्छा प्रभाव बनाने में सक्षम हो सकेंगे। यह ज्ञान शिक्षक को अधिगम के उचित अवसर प्रदान करने में मदद करेगा।

वृद्धि एवं विकास का क्या महत्व है?

वृद्धि में होने वाले बदलाव सिर्फ शारीरिक व रचनात्मक ही होते हैं। वृद्धि केवल परिपक्व अवस्था तक ही सीमित होती है जबकि विकास जीवन पर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है। विकासविकास एक सार्वभौमिक प्रक्रिया मानी जाती है जो जन्म से लेकर जीवन पर्यंत तक अविराम गति से निरंतर चलती रहती है।

वृद्धि और विकास से आप क्या समझते हैं?

वृद्धि करने या होने का अर्थ संख्या या आकार में बढ़ना है, जबकि विकास का अर्थ किसी की क्षमता व ज़रूरतों को पूरा करने की ललक को बढ़ाने के साथ ही उनकी आवश्यकताओं को विधिक बनाना भी है, जो की मात्र उनसे संबंधित ना होकर सभी के लिए हो.

वृद्धि और विकास का मुख्य सिद्धांत क्या है?

इन्हीं को वृद्धि एवं विकास के सिद्धान्त कहा जाता है । इस सिद्धान्त के अनुसार , विकास की प्रक्रिया अविराम गति से निरन्तर चलती रहती है , पर यह गति कभी तीव्र और कभी मन्द होती है , उदाहरणार्थ - प्रथम तीन वर्षों में बालक के विकास की प्रक्रिया बहुत तीव्र रहती है और उसके बाद मन्द पड़ जाती है ।