दूध जैसी वस्तु के लिए पूर्ति की लोच क्या होती है - doodh jaisee vastu ke lie poorti kee loch kya hotee hai

अर्थशास्त्र के सन्दर्भ में, लोच (elasticity) शब्द का उपयोग किसी आर्थिक चर को बदलने पर किसी दूसरे चर में हुए परिवर्तन की मात्रा बताने के लिये किया जाता है। यदि एक चर के परिवर्तन से दूसरा चर अधिक परिवर्तित होता है तो कहते हैं कि लोच अधिक है। उदाहरण के लिये, यदि किसी उत्पाद के मूल्य में कमी की जाय तो उसकी बिक्री कितनी बढ़ेगी, इसके लिये 'लोच' शब्द का प्रयोग किया जाता है। कीमत बढ़ने पर गिफीन वस्तु की मांग बढ़ती हैं व कम होनें पर कुछ घटती हैं । जैसें - यदि शुद्ध घी की कीमत बढ़ जाएं व आय परिवर्तित ना हों तो उपभोक्ता वनस्पति की ओर प्रतिस्थापन कर देता हैं व तत्पश्चात यदि आय में वृद्धि होती हैं तो वह वनस्पति घी में कुछ कमी कर के कुछ मात्रा शुद्ध घी की लेता हैं अत: तब वनस्पति घी एक तरह से गिफीन वस्तु होती हैं ।

किसी वस्तु की कीमत में होने वाले परिवर्तन के फलस्वरूप उस वस्तु की माँगी गई मात्रा में होने वाले परिवर्तन की माप को ही माँग की लोच कहा जाता है।


अर्थशास्त्र में माँग का नियम एक महत्त्वपूर्ण नियम है जो किसी वस्तु की कीमत में होने वाले परिवर्तन के परिणामस्वरूप उस वस्तु की माँग में होने वाले परिवर्तन की दिशा को बताता है। यह एक गुणात्मक कथन (क्वालिटेटिव स्टेटमेण्ट) है। इससे यह तो ज्ञात हो जाता है कि वस्तु की कीमत में कमी होने पर उस वस्तु की माँग बढ़ेगी अथवा कीमत में वृद्धि होने पर उस वस्तु की माँग कम होगी।

परन्तु नियम यह बताने में असमर्थ है माँग में कितना परिवर्तन होगा। 

किसी वस्तु की कीमत में होने वाले परिवर्तन के परिणामस्वरूप माँग में होने वाले आनुपातिक परिवर्तन की जानकारी जिस धारणा से होती है उसे माँग की लोच (Elasticity of demand) कहा जाता है। अतः यह कहना उचित होगा कि माँग की लोच एक परिमाणात्मक कथन (क्वाण्टिटेटिव स्टेटमेण्ट) है।

किसी वस्तु की कीमत में होने वाले परिवर्तन के फलस्वरूप उस वस्तु की माँगी गई मात्रा में होने वाले परिवर्तन की माप को ही माँग की लोच कहा जाता है

आधुनिक अर्थशास्त्री बोल्डिंग एवं श्रीमती जॉन रोबिन्सन ने माँग की मूल्य लोच को गणितीय में प्रकट किया है। श्रीमती जॉन रोबिन्सन के अनुसार, माँग की लोच किसी मूल्य या उत्पादन पर मूल्य में अल्प परिवर्तन के फलस्वरूप क्रय की गई मात्रा के आनुपातिक परिवर्तन को मूल्य के आनुपातिक परिवर्तन से भाग देने पर प्राप्त होती है। इसे निम्न सूत्र के रूप में व्यक्त किया जा सकता है-

माँग की लोच = माँग की मात्रा में आनुपातिक परिवर्तन / मूल्य में आनुपातिक परितर्वनEd=ΔQd/QdΔP/P{\displaystyle E_{d}={\frac {\Delta Q_{d}/Q_{d}}{\Delta P/P}}}

जहाँ Ed{\displaystyle E_{d}}

दूध जैसी वस्तु के लिए पूर्ति की लोच क्या होती है - doodh jaisee vastu ke lie poorti kee loch kya hotee hai
लोच, Qd{\displaystyle Q_{d}}
दूध जैसी वस्तु के लिए पूर्ति की लोच क्या होती है - doodh jaisee vastu ke lie poorti kee loch kya hotee hai
माँग की मात्रा, तथा P{\displaystyle P}
दूध जैसी वस्तु के लिए पूर्ति की लोच क्या होती है - doodh jaisee vastu ke lie poorti kee loch kya hotee hai
मूल्य है।

अतः यह कहना उचित होगा कि 'माँग का मूल्य लोच' किसी वस्तु के मूल्य में परिवर्तन के फलस्वरूप उसकी माँगी गई मात्रा में परिवर्तन की दर होती है।

उदाहरण

एक साबुन का मूल्य पहले १० रूपये था और इसकी बिक्री १ लाख प्रतिदिन थी। जब इसका मूल्य बढ़ाकर ११ रूपये कर दिया गया तब इसकी बिक्री घटकर ९५ हजार प्रतिदिन हो गयी। तो,

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MP Board Class 12th Economics Important Questions Unit 3 उत्पादक व्यवहार एवं पूर्ति

उत्पादक व्यवहार एवं पूर्ति Important Questions

उत्पादक व्यवहार एवं पूर्ति वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
सही विकल्प चुनकर लिखिए –

प्रश्न (a)
उत्पादन के साधन होते हैं –
(a) दो
(b) तीन
(c) चार
(d) पाँच
उत्तर:
(d) पाँच

प्रश्न (b)
स्थिर लागत को कहते हैं –
(a) परिवर्तनशील लागत
(b) प्रमुख लागत
(c) पूरक लागत
(d) अल्पकालीन लागत।
उत्तर:
(c) पूरक लागत

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प्रश्न (c)
पूर्ति में उसी कीमत पर गिरावट आ जाती है जब –
(a) पूर्ति में कमी हो जाय
(b) जब पूर्ति में संकुचन हो जाय
(c) पूर्ति में वृद्धि हो जाय
(d) पूर्ति में विस्तार हो जाय।
उत्तर:
(a) पूर्ति में कमी हो जाय

प्रश्न (d)
उत्पादन का सक्रिय साधन है –
(a) पूँजी
(b) श्रम
(c) भूमि
(d) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(b) श्रम

प्रश्न (e)
अल्पकाल में उत्पादन प्रक्रिया में निम्नलिखित में कौन से साधन होते हैं –
(a) स्थिर साधन
(b) परिवर्तनशील साधन
(c) (a) और (b) दोनों
(d) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(c) (a) और (b) दोनों

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प्रश्न 2.
रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए –

  1. अल्पकालीन उत्पादन फलन ……………………………… कहा जाता है।
  2. पैमाने के प्रतिफलों का संबंध …………………………… काल अवधि से है।
  3. उत्पादन की प्रति इकाई लागत को ……………………………. कहते हैं।
  4. उत्पादन की एक इकाई की बिक्री में वृद्धि होने से आय में होने वाली वृद्धि को ……………………… कहते हैं।
  5. एक उत्पादक तब संतुलन में होता है, जब उसका ………………………………. होता है।
  6. पूर्ति का नियम, कीमत एवं वस्तु की पूर्ति के बीच ………………………………. संबंध बताता है।
  7. दूध जैसी वस्तु के लिए पूर्ति लोच ……………………………….. होती है।

उत्तर:

  1. परिवर्तनशील अनुपात के नियम
  2. दीर्घ
  3. औसत लागत
  4. सीमांत लागत
  5. लाभ
  6. धनात्मक
  7. शून्य।

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प्रश्न 3.
सत्य/असत्य बताइए –

  1. रिकार्डो का लगान सिद्धान्त उत्पत्ति ह्रास नियम पर आधारित है।
  2. अविभाज्यता के कारण पैमाने के घटते प्रतिफल की अवस्था लागू होती है।
  3. स्थिर लागत को पूरक लागत भी कहते हैं।
  4. पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में एक फर्म का MC वक्र, MR वक्र को जब ऊपर से काटता है तो उस ‘ समय उसको अधिकतम लाभ की प्राप्ति होती है।
  5. पूर्ति तथा कीमत में विपरीत संबंध होता है।
  6. शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तुओं की पूर्ति बेलोच होती है।
  7. उत्पत्ति के चार नियम प्रतिपादित किये गये हैं।

उत्तर:

  1. सत्य
  2. असत्य
  3. सत्य
  4. असत्य
  5. असत्य
  6. सत्य
  7. असत्य।

प्रश्न 4.
सही जोड़ी बनाइए –

दूध जैसी वस्तु के लिए पूर्ति की लोच क्या होती है - doodh jaisee vastu ke lie poorti kee loch kya hotee hai

उत्तर:

  1. (b)
  2. (c)
  3. (a)
  4. (e)
  5. (d).

प्रश्न 5.
एक शब्द/वाक्य में उत्तर दीजिए –

  1. हस्तांतरण आय किस लागत को कहा जाता है?
  2. स्थिर लागत और परिवर्तनशील लागत का योग किसके बराबर होता है?
  3. कीमत में थोड़ी – सी गिरावट होने पर वस्तु की पूर्ति शून्य हो जाती है तो इसे किसकी पूर्ति की लोच कहा जाता है?
  4. उत्पादन की एक अतिरिक्त इकाई बेचने से कुल आगम में जो वृद्धि होती है, उसे कहते हैं?
  5. एक फर्म साम्य की दशा में कौन-सा लाभ प्राप्त करती है?

उत्तर:

  1. अवसर लागत को
  2. कुल लागत के
  3. पूर्णत: लोचदार
  4. सीमांत आगम
  5. अधिकतम।

उत्पादक व्यवहार एवं पूर्ति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
स्थिर लागत एवं परिवर्तनशील लागत में अन्तर स्पष्ट कीजिए?
उत्तर:
स्थिर लागत एवं परिवर्तनशील लागत में अन्तर –

स्थिर लागत –

  1. “परिवर्तनशील लागत स्थिर लागतों का सम्बन्ध उत्पादन के स्थिर।
  2. कुल स्थिर लागतों पर उत्पादन की मात्रा का। परिवर्तनशील लागतें उत्पादन की मात्रा से कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
  3. स्थिर लागतें उत्पादन बन्द कर देने पर भी शून्य परिवर्तनशील लागतें उत्पादन बन्द कर देने पर नहीं होती हैं।
  4. स्थिर लागतों की हानि उठाकर भी अन्य काल| एक उत्पादक तभी उत्पादन जारी रखेगा, जब में एक उत्पादक, उत्पादन जारी रख सकता है।

परिवर्तनशील लागतों –

  1. परिवर्तनशील साधनों से होता है।
  2. परिवर्तनशील लागतें उत्पादन की मात्रा से कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
  3. परिवर्तनशील लागतें उत्पादन बन्द कर देने पर नहीं होती हैं।
  4. एक उत्पादक तभी उत्पादन जारी रखेगा, जब में एक उत्पादक, उत्पादन जारी रख सकता है। उसे कम-से-कम परिवर्तनशील लागतों के बराबर कीमत अवश्य मिले।

प्रश्न 2.
लागत वक्रों की आकृति ‘U’ के समान होने के प्रमुख कारण लिखिए?
उत्तर:
लागत वक्रों की आकृति ‘U’ आकार की होने का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण फर्म को प्राप्त होने वाली आंतरिक बचते हैं। आंतरिक बचतों को निम्नांकित चार भागों में बाँटा जा सकता है –

1. तकनीकी बचतें:
उत्पादन की तकनीक में सुधार पर बचतें प्राप्त होती हैं, उन्हें तकनीकी बचतें कहते हैं। आधुनिक मशीनों एवं बड़े आकार की मशीनों का प्रयोग करने के कारण उत्पादन अधिक मात्रा में होता है, तब प्रति इकाई लागत कम आती है।

2. श्रम संबंधी बचतें:
श्रम संबंधी बचतें श्रम विभाजन एवं विशिष्टीकरण का परिणाम होती हैं। जब उत्पादन बड़े पैमाने पर किया जाता है तो श्रम विभाजन एवं विशिष्टीकरण भी उतना ही अधिक संभव होता है। परिणामस्वरूप श्रमिकों की कार्य कुशलता में वृद्धि होती है जिससे प्रति इकाई उत्पादन लागत कम हो जाती है।

3. विपणन की बचतें:
कोई भी फर्म जब अपने उत्पादन की मात्रा को बढ़ाती है, तो विक्रय लागतें उस अनुपात में नहीं बढ़ती हैं, जिससे प्रति इकाई लागत में कमी आ जाती है।

4. प्रबंधकीय बचतें:
उत्पादन की मात्रा को बढ़ाने पर प्रबंध पर होने वाले व्ययों में कमी आती है, जिसे प्रबंधकीय बचतें कहते हैं। एक कुशल प्रबंधक अधिक मात्रा में उत्पादन का प्रबंध उसी कुशलता के साथ कर सकता है, जितना कि थोड़े उत्पादन का, तो फर्म की प्रति इकाई उत्पादन लागत कम हो जाती

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प्रश्न 3.
औसत आय और सीमान्त आय में संबंध बताइए?
उत्तर:
औसत आय और सीमान्त आय वक्र में निम्न संबंध होते हैं –

  1. जब तक औसत आय वक्र ऊपर से नीचे की ओर गिरता है, तब तक सीमान्त आय वक्र भी अनिवार्य रूप से औसत आय से कम होगी।
  2. जब औसत आय वक्र तथा सीमान्त आय वक्र दोनों गिरते हुए होते हैं, तब यदि औसत आय वक्र के किसी बिन्दुं से OY अक्ष पर लम्ब डाला जाये तो सीमान्त आय वक्र सदैव उस लम्ब केन्द्र से गुजरेगा।
  3. जब औसत आय वक्र मूलबिन्दु की ओर नतोदर होता है तब औसत आय वक्र में किसी बिन्दु से AY अक्ष पर डाले गये लम्ब को सीमान्त आय वक्र आधे से कम दूरी पर काटता है।
  4. जब औसत आय वक्र मूलबिन्दु की ओर उन्नतोदर होता है तब औसत आय वक्र के किसी बिन्दु के OY अक्ष पर डाले गये लम्ब को सीमान्त आय वक्र आधे से अधिक दूरी पर काटता है।

प्रश्न 4.
एक उत्पादक संतुलन की स्थिति में कब होता है?
उत्तर:
एक उत्पादक संतुलन की स्थिति में तब होता है जब उत्पादक अधिकतम लाभ अर्जित कर रहा हो। एक उत्पादक अधिकतम लाभ वहाँ प्राप्त करता है जहाँ पर लाभ = TR – TC अधिकतम हो। जहाँ TR > TC होता है वहाँ पर फर्म (उत्पादक) को असामान्य लाभ प्राप्त होता है एवं जहाँ पर TR < TC होता है वहाँ पर हानि भी उत्पादक को ही होती है।

प्रश्न 5.
पूर्ति का क्या आशय है?
उत्तर:
किसी वस्तु की पूर्ति से आशय का सम्मानित एक वस्तु की विभिन्न कीमतों पर उत्पादक द्वारा बेची जाने वाली विविध मात्राओं से होता है। पूर्ति वास्तव में उस अनुसूची या तालिका को दर्शाती है जो वस्तु की उन मात्राओं को बताती है जिस पर एक उत्पादक विभिन्न कीमतों पर निश्चित समय पर विक्रय करने के लिए कार्य करता है।

प्रश्न 6.
पूर्ति अनुसूची से आपका क्या आशय है?
उत्तर:
पूर्ति अनुसूची एक तालिका है जो वस्तु की विभिन्न संचय कीमतों पर बिक्री के लिए प्रस्तुत की जाने वाली उस वस्तु की विभिन्न मात्राओं को दर्शाती है। पूर्ति अनुसूची भी दो प्रकार की हो सकती है व्यक्तिगत पूर्ति अनुसूची एवं बाजार की पूर्ति अनुसूची। व्यक्तिगत पूर्ति अनुसूची बाजार में किसी एक फर्म की पूर्ति अनुसूची होती है जबकि बाजार अनुसूची बाजार में किसी विशेष वस्तु का उत्पादन करने वाली सभी फर्मों की पूर्ति के योग को कहते हैं।

दूध जैसी वस्तु के लिए पूर्ति की लोच क्या होती है - doodh jaisee vastu ke lie poorti kee loch kya hotee hai

प्रश्न 7.
पूर्ति वक्र किसे कहते हैं?
उत्तर:
अनूसूची के रेखीय प्रस्तुतिकरण को पूर्ति वक्र कहा जाता है। किसी वस्तु की विभिन्न संभाव्य कीमतों पर बिक्री के लिए प्रस्तुत किए जाने वाले न लाभ न हानि की विभिन्न मात्राओं को दर्शाने वाला वक्र होता है। यह वक्र भी व्यक्तिगत पूर्ति वक्र एवं बाजार पूर्ति के रूप में विभाजित किया जा सकता है। व्यक्तिगत पूर्ति वक्र बाजार में एक फर्म की पूर्ति को रेखाचित्र में प्रस्तुत करता है जबकि बाजार पूर्ति वक्र किसी बाजार में सभी फर्मों की पूर्ति का योग होता है जिसे रेखाचित्र के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।

प्रश्न 8.
पूर्ति के नियम की सचित्र व्याख्या कीजिए?
उत्तर:
यदि अन्य बातें समान रहें तो वस्तु की पूर्ति की मात्रा एवं उसकी कीमत में धनात्मक संबंध होता है। वस्तु की कीमत बढ़ने से पूर्ति की मात्रा बढ़ती है एवं वस्तु की कीमत घटने से पूर्ति की मात्रा कम होती है। एक उदाहरण द्वारा इसे निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है –

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प्रश्न 9.
पूर्ति वक्र पर संचलन (Moments) एवं खिसकाव (Shifting) के कौन – से कारण हैं?
उत्तर:
जब वस्तु की कीमत में परिवर्तन होता है तो इस परिवर्तन के कारण पूर्ति वक्र पर संचलन दिखाई देता है। पूर्ति वक्र में खिसकाव तब होता है जब वस्तु की अपनी कीमत के अतिरिक्त अन्य कारकों में परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है)। पूर्ति वक्र पर संचलन को जानने के लिए हमें पूर्ति के विस्तार एवं पूर्ति के संकुचन को जानना आवश्यक है पूर्ति वक्र में खिसकाव को वस्तु की पूर्ति में वृद्धि एवं वस्तु की पूर्ति में कमी के द्वारा जाना जाता है।

जब वस्तु की अपनी कीमत बढ़ने से पूर्ति की मात्रा बढ़ती है तो पूर्ति का विस्तार कहते हैं। इसके विपरीत होने पर संकुचन कहते हैं। हड्कि वस्तु की अपनी कीमत के अतिरिक्त अन्य कारण से पूर्ति की मात्रा में वृद्धि होती है तो इसे पूर्ति में वृद्धि कहते हैं। इसके विपरीत होने पर पूर्ति में कमी होती है।

दूध जैसी वस्तु के लिए पूर्ति की लोच क्या होती है - doodh jaisee vastu ke lie poorti kee loch kya hotee hai

प्रश्न 10.
पूर्ति की कीमत लोच से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
पूर्ति की कीमत लोच का तात्पर्य एक वस्तु की कीमत में परिवर्तनों के कारण वस्तु की पूर्ति की मात्रा की अनुक्रियाशीलता का मापन करती है। दूसरे शब्दों में, पूर्ति की कीमत लोच वस्तु की पूर्ति की मात्रा में प्रतिशत परिवर्तन तथा वस्तु की कीमत में प्रतिशत परिवर्तनों का अनुपात कहलाती है। इसे निम्न समीकरण की सहायता से स्पष्ट किया जा सकता है –
E s = \(\frac { \triangle Q }{ \triangle P } \times \frac { P }{ Q } \)

प्रश्न 11.
पूर्ति की कीमत लोच को मापने की प्रतिशत विधि एवं ज्यामितीय विधि को संक्षेप में समझाइये?
उत्तर:
पूर्ति की कीमत लोच को मापने में प्रतिशत विधि एवं ज्यामितीय विधि का उपयोग किया जा सकता है परन्तु इनमें प्रतिशत विधि अधिक लोकप्रिय है।

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ज्यामितीय विधि के अंतर्गत एक सीधी रेखा वाले पूर्ति वक्र पर कीमत लोच ज्ञात करने के लिए उसे बढ़ाते जाते हैं।

  1. जब वृद्धि पर पूर्ति मूल बिन्दु पर मिलता है तो Es < 1 होता है।
  2. जब वृद्धि पर पूर्ति वक्र X अक्ष के धनात्मक भाग को काटता है तो Es < 1 होता है।
  3. जब वृद्धि पर पूर्ति वक्र X अक्ष के ऋणात्मक भाग पर काटता है तो Es > 1 होता है।

प्रश्न 12.
पूर्ति की लोच को कौन – से घटक प्रभावित करते हैं?
उत्तर:
पूर्ति की लोच को निम्न घटक प्रभावित करते हैं –

  1. समयावधि
  2. वस्तु की प्रकृति
  3. प्राकृतिक अवरोध
  4. उत्पादन लागत
  5. उत्पादन की तकनीक
  6. उत्पादन की जोखिम सहन करने की शक्ति
  7. प्रयोग किए जाने वाले आगतों की प्रकृति
  8. उत्पादक की अभिरुचि एवं योग्यता।

प्रश्न 13.
औसत स्थिर लागत की विशेषताएँ बताइये।
उत्तर:
विशेषताएँ –

  1. औसत स्थिर लागत, कुल स्थिर लागत को फर्म के कुल उत्पादन मात्रा से भाग दिये जाने पर प्राप्त होती है –
  2. अल्पकाल में उत्पादन की मात्रा में परिवर्तन होने पर कुल स्थिर लागत अपरिवर्तित रहती है –
  3. उत्पादन के बढ़ने पर औसत स्थिर लागत घटती है –
  4. औसत स्थिर लागत को प्रति इकाई स्थिर लागत भी कहा जाता है।

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प्रश्न 14.
उत्पादन लागत से आप क्या समझते हैं? स्पष्ट लागतों एवं अस्पष्ट लागतों में अंतर बताइए?
अथवा
उपयुक्त उदाहरण देते हुए स्पष्ट एवं अस्पष्ट लागतों में अंतर कीजिए?
उत्तर:
वे सभी व्यय जो किसी उत्पादक या फर्म द्वारा वस्तु के उत्पादन व्यय के रूप में किए जाते हैं, उत्पादन लागत कहलाते हैं।

  1. स्पष्ट लागतें: वे सभी लागतें जिनका उत्पादक भौतिक रूप से भुगतान करता है, जैसे – मजदूरी देना, विक्रय लागत आदि।
  2. अस्पष्ट लागतें: वे लागतें जिनका उत्पादक को किसी दूसरे व्यक्ति को भुगतान नहीं करना पड़ता जैसे – स्वयं की फैक्टरी या फर्म।

प्रश्न 15.
कॉब – डगलस के उत्पादन फलन को समझाइए?
उत्तर:
कॉब – डगलस का उत्पादन फलन:
यह फलन सामान्यतः निर्माण उद्योगों पर लागू होता है, इस फलन के अनुसार उत्पादन की मात्रा केवल दो साधनों श्रम और पूँजी की मात्रा पर निर्भर करती है।
सूत्र के रूप में – q = x1α, x2β

जहाँ α तथा β दो धनात्मक संख्याएँ हैं, फर्म निर्गत की q मात्रा का उत्पादन कारक एक का x1 मात्रा तथा कारक दो की x2 मात्रा को प्रयोग में लाकर करती है।

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प्रश्न 16.
अल्पकाल एवं दीर्घकाल की संकल्पनाओं को समझाइये?
उत्तर:
अल्पकाल वह समयावधि है जिसमें उत्पादन के कुछ साधन स्थिर रहते हैं एवं कुछ परिवर्तनशील होते हैं। यही कारण है कि केवल परिवर्तनशील साधनों को बढ़ाकर उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है। दीर्घकाल वह समयावधि है जिसमें उत्पादन के साधन चाहे वे स्थिर हों या परिवर्तनशील सभी परिवर्तनशील होते हैं। इसलिए उत्पादन के सभी साधनों की मात्राओं को बढ़ाया जा सकता है। दीर्घकाल में यहाँ तक कि उत्पादन के पैमाने को भी परिवर्तित किया जा सकता है। अल्पकाल में लागतें स्थिर एवं परिवर्तनशील होती हैं परन्तु दीर्घकाल में केवल परिवर्तनशील होती हैं।

प्रश्न 17.
अल्पकालीन सीमांत लागत वक्र ‘U’ आकार का क्यों होता है?
उत्तर:
जब किसी भी फर्म की उत्पादन प्रक्रिया शुरू की जाती है तब शुरुआत में सीमांत लागत घटती है, किन्तु यह साधन की निश्चित इकाइयों के अल्पकालीन सीमांत नियोजन तक ही घटती है। इसके बाद फर्म को साधन का समता प्रतिफल प्राप्त लागत वक्र होता है। अतः सीमांत लागत स्थिर होने लगती है अंत में साधन की इकाइयों का नियोजन बढ़ाने पर ह्रासमान प्रतिफल लागू हो जाता है इस स्थिति में सीमांत। लागत वक्र ऊपर उठने लगता है।

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इस प्रकार उत्पादन प्रक्रिया के प्रारंभिक चरणों में सीमांत लागत घटती है इसके बाद स्थिर होती है तथा अंतिम चरणों में बढ़ने लगती है जिसकी वजह से सीमांत लागत वक्र अंग्रेजी के अक्षर ‘U’ जैसा होता है।

प्रश्न 18.
दीर्घकालीन सीमांत लागत तथा औसत लागत वक्र कैसे दिखते हैं?
उत्तर:
दीर्घकाल में एक फर्म उत्पादन प्रक्रिया में सभी साधनों को समायोजित कर सकती है। उत्पादन प्रक्रिया में उत्पादन का पैमाना बढ़ाने पर शुरू में पैमाने का वर्धमान प्रतिफल मिलता है। इस स्थिति में उत्पादन की समान मात्रा का उत्पादन करने पर अपेक्षाकृत कम लागत आती है। फर्म जब तक उत्पादन का वर्धमान प्रतिफल प्राप्त करती है तब तक सीमान्त औसत लागत दोनों घटती हैं। इसके बाद समता प्रतिफल प्राप्त होता है अतः समान उत्पादन के लिए समान लागत आती है जिससे औस उत्पादन व सीमान्त लागत दोनों स्थिर हो जाती हैं। अंतत: पैमाने का ह्रासमान प्रतिफल लागू होने पर सीमान्त व औसत लागत दोनों बढ़ती हैं। इसलिए सीमान्त व औसत लागत वक्रों का आकार अंग्रेजी के अक्षर U जैसा होता है।

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प्रश्न 19.
निम्नलिखित तालिका, श्रम की कुल उत्पाद अनुसूची देती है। तद्नुरूप श्रम का औसत उत्पाद तथा सीमांत उत्पाद अनुसूची निकालिए –

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उत्तर:
श्रम की औसत उत्पाद तथा सीमांत उत्पाद अनुसूची –
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प्रश्न 20.
मान लीजिए, एक फर्म का उत्पादन फलन है –
q = 5 L\(\frac{1}{2}\) K \(\frac{1}{2}\) , K = 100, L = 100
समीकरण में मान रखने पर,
q = 5(100)1/2 x (100)1/2
q = 5\(\sqrt{100}\) x \(\sqrt{100 – 25}\)100
q = 5 x 10 x 10
q = 500
अतः अधिकतम सम्भावित निर्गत 500 इकाइयाँ होंगी।

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प्रश्न 21.
लागत फलन की संकल्पनाओं को संक्षिप्त में समझाइए?
उत्तर:
लागत फलन:
लागत तथा निर्गत के बीच में तकनीकी संबंध को लागत फलन कहते हैं, लागत दो प्रकार की होती है –

(अ) अल्पकालीन लागत तथा
(ब) दीर्घकालीन लागत।

(अ) अल्पकालीन लागत:
अल्पकाल में केवल परिवर्ती साधनों को परिवर्तित किया जा सकता है, स्थिर साधनों को नहीं।

अल्पकाल में लागत की विभिन्न संकल्पनाएँ निम्नलिखित हैं –

  1. कुल स्थिर लागत – जिन लागतों में उत्पादन की मात्रा में परिवर्तन होने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
  2. कुल परिवर्ती लागत – जो लागतें उत्पादन की मात्रा में परिवर्तन के साथ – साथ परिवर्तित होती हैं।
  3. कुल लागत – किसी वस्तु के उत्पादन की कुल मात्रा पर किया जाने वाला कुल व्यय।
  4. औसत स्थिर लागत – कुल स्थिर लागत में कुल उत्पादित इकाइयों का भाग देकर औसत स्थिर लागत प्राप्त की जाती है।
  5. औसत परिवर्ती लागत –  कुल परिवर्ती लागत में उत्पादित मात्रा की कुल इकाइयों से भाग देकर प्राप्त होने वाली लागत।
  6. अल्पकालीन औसत लागत –  अल्पकालीन औसत लागत की गणना कुल लागत में उत्पादन मात्रा का भाग देकर अथवा औसत स्थिर लागत एवं औसत परिवर्तनशील लागत का योग करके की जा सकती है।
  7. अल्पकालीन सीमान्त लागत – उत्पादन की मात्रा में एक इकाई की वृद्धि होने से कुल लागत में जो परिवर्तन आता है, उसे अल्पकालीन सीमान्त लागत कहते हैं।

सूत्र –

दूध जैसी वस्तु के लिए पूर्ति की लोच क्या होती है - doodh jaisee vastu ke lie poorti kee loch kya hotee hai

(ब) दीर्घकालीन लागत:
दीर्घकालीन लागत में सभी लागत परिवर्तनशील होते हैं। दीर्घकालीन लागत की संकल्पनाएँ निम्नलिखित हैं

  1. दीर्घकालीन कुल लागत – कुल उत्पादन पर किये गये समस्त व्ययों के योग को दीर्घकालीन कुल लागत कहते हैं।
  2. दीर्घकालीन औसत लागत – दीर्घकालीन कुल लागत में उत्पादन की मात्रा का भाग देकर दीर्घकालीन औसत लागत ज्ञात की जाती है।

सूत्र के रूप में –

दूध जैसी वस्तु के लिए पूर्ति की लोच क्या होती है - doodh jaisee vastu ke lie poorti kee loch kya hotee hai

प्रश्न 22.
फर्म के संतुलन की मान्यताएँ लिखिए?
उत्तर:
फर्म के संतुलन की मान्यताएँ निम्नांकित हैं –

  1. फर्म के सिद्धांत में यह मान लिया जाता है कि उत्पादक का व्यवहार विवेकपूर्ण होता है। प्रत्येक उत्पादक अधिक से अधिक मौद्रिक लाभ अर्जित करने का प्रयत्न करते हैं।
  2. उद्यमकर्ता प्रत्येक उपज को उत्पादन की एक दी हुई तकनीकी दशाओं में कम से कम लागत पर पैदा करने का प्रयत्न करता है।
  3. एक फर्म द्वारा एक वस्तु का उत्पादन किया जाता है।
  4. प्रत्येक उत्पत्ति के साधन की कीमत दी हुई होती है तथा निश्चित होती है।

उत्पादक व्यवहार एवं पूर्ति दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
औसत स्थिर लागत, औसत परिवर्तनशील लागत और औसत कुल लागत को भलीभाँति समझाइए?
उत्तर:
अल्पकालीन औसत लागते तीन प्रकार की होती हैं

(अ) औसत स्थिर लागत:
(ब) औसत परिवर्तनशील लागत एवं
(स) औसत कुल लागत।

(अ) औसत स्थिर लागत:
औसत स्थिर लागत, कुल स्थिर लागत को फर्म के कुल उत्पादन मात्रा से भाग दिये जाने पर प्राप्त होती है। इसे प्रति इकाई लागत भी कहा जाता है। अर्थात्,

दूध जैसी वस्तु के लिए पूर्ति की लोच क्या होती है - doodh jaisee vastu ke lie poorti kee loch kya hotee hai

अल्पकाल में उत्पादन की मात्रा घटे या बढ़े, कुल स्थिर लागत अपरिवर्तित रहती है। कुल स्थिर लागत में कोई परिवर्तन नहीं होता है, किन्तु उत्पादन के बढ़ने के साथ-साथ औसत स्थिर लागत घटती चली जाती है। इसका प्रमुख कारण यह है कि उत्पादन की मात्रा बढ़ने से कुल स्थिर लागत, उत्पादन की अधिकाधिक इकाइयों में बँटने लगती है। अत: औसत स्थिर लागत क्रमशः घटने लगती है।

(ब) औसत परिवर्तनशील लागत:
कुल परिवर्तनशील लागत को फर्म के कुल उत्पादन की इकाइयों से भाग दिये जाने पर जो भजनफल प्राप्त होता है, उसे ही औसत परिवर्तनशील लागत कहते हैं। इसे प्रति इकाई परिवर्तनशील लागत भी कहते हैं । अर्थात्,

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कुल परिवर्तनशील लागत उत्पादन की मात्रा कुल परिवर्तनशील लागत, उत्पादन की मात्रा में वृद्धि किये जाने से हमेशा बढ़ती जाती है। चूंकि अल्पकाल में उत्पादन के क्षेत्र में परिवर्तनशील अनुपातों का नियम’ लागू होता हैं, इसलिए औसत परिवर्तनशील लागत वक्र प्रारम्भिक अवस्था में गिरता है, क्योंकि उत्पादन वृद्धि नियम या लागत ह्रास नियम लागू होता है, किन्तु एक बिन्दु के पश्चात् उत्पत्ति ह्रास नियम या लागत वृद्धि नियम लागू होने के कारण यह तीव्र गति से ऊपर की ओर बढ़ने लगता है।

(स) औसत कुल लागत:
औसत कुल लागत से अभिप्राय, उत्पादन की कुल प्रति इकाई लागत से है। जब उत्पादन की कुल लागत को उत्पादित इकाइयों की संख्या से भाग दिया जाता है, तो औसत कुल लागत प्राप्त होती है। अर्थात

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चूँकि कुल लागत, परिवर्तनशील लागत एवं स्थिर लागत का योग होती है, अतः औसत कुल लागत, औसत परिवर्तनशील लागत और औसत स्थिर लागत के योग के बराबर होती है।

प्रश्न 2.
कुल, औसत एवं सीमान्त आय को एक काल्पनिक तालिका तथा रेखाचित्र की सहायता से समझाइए?
उत्तर:
कुल आय, औसत आय तथा सीमान्त आय को निम्नलिखित तालिका की सहायता से स्पष्ट किया जा सकता है
तालिका – कुल आय, औसत आय तथा सीमान्त आय कुल आय औसत आय –

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उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि अतिरिक्त इकाई बेचने के लिए कीमत में कटौती की जा रही है। जब फर्म, वस्तु की इकाई बेचती है, तो औसत आय, कुल आय और सीमान्त आय सभी ₹ 10 हैं, किन्तु जब वह वस्तु की दो इकाइयाँ बेचती है, तो वस्तु की कीमत में कटौती कर ₹ 9 प्रति इकाई कर देती है, इससे उसकी कुल आय ₹ 18 हो गयी है, जबकि सीमान्त आय 18 – 10 = ₹ 8 है। जब वस्तु की 3 इकाइयाँ बेची जाती हैं, तो कीमत में पुनः कटौती की जाती है। प्रति इकाई कीमत ₹ 8 किये जाने पर कुल आय 8 x 3 = ₹ 24 हो गयी है, जबकि सीमान्त आय 24 – 18 = ₹ 6 हो गयी है।

उपर्युक्त तालिका को निम्न रेखाचित्र की सहायता से भी स्पष्ट किया जा सकता है प्रस्तुत रेखाचित्र में Ox – आधार रेखा पर बेची जाने वाली इकाइयाँ तथा OY – लम्ब रेखा पर आगम को दिखाया गया है।

1. चित्र में TR कुल आय वक्र, AR औसत आय वक्र एवं सीमांत आय वक्र एवं MR सीमान्त आय वक्र है।

2. जब कुल आय वक्र TR,A बिन्दु तक बढ़ता जाता है तो सीमान्त आय MR धनात्मक होती है। चित्र से स्पष्ट है 15 कि MR रेखा C बिन्दु तक धनात्मक है।

3. जब कुल आय वक्र TR, A में B बिन्दु तक घटने आय वक्र – लगती है, तो सीमान्त आय वक्र MR ऋणात्मक हो जाता है। MR वक्र C बिन्दु के पश्चात् ऋणात्मक हो गया है।

4. जब औसत आय वक्र AR गिरने लगता है, तो सीमान्त आय वक्र MR भी गिरने लगता है किन्तु MR वक्र में गिरावट की दर AR में गिरावट की दर से अधिक है। चित्र से स्पष्ट है कि MR वक्र AR वक्र से नीचे है।

5. जब उत्पादन की मात्रा OC हो जाती है, तो इसके उत्पादन बढ़ने पर सीमान्त आय वक्र ऋणात्मक हो जाता है।

6. औसत आय वक्र AR बायें से दायें नीचे की ओर गिरता हुआ वक्र है। इसका अभिप्राय यह है कि वस्तु की अतिरिक्त इकाइयाँ बेचने के लिए मूल्यों में कटौती करनी पड़ती है। मूल्यों में यह कटौती सभी इकाइयों में की जाती है इसलिए AR औसत आय वक्र नीचे की ओर गिरता हुआ है।

7. सीमान्त आय वक्र MR भी बायें से दायें की ओर गिरता हुआ वक्र है, किन्तु सीमान्त आय वक्र में गिरावट की दर अधिक है। इसका कारण यह है कि अतिरिक्त इकाई बेचने के लिए वस्तु के मूल्य में कटौती करनी पड़ती है।

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प्रश्न 3.
पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में अल्पकाल में किसी वस्तु का मूल्य कैसे निर्धारित होता है? उदाहरण तथा रेखाचित्र द्वारा समझाइए?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता में फर्म का साम्य:
पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में प्रत्येक फर्म का व्यवहार पूरी तरह विवेकपूर्ण होता है, ऐसा हम मान सकते हैं। ये फर्मे अपने हित में अधिकाधिक लाभ अर्जित करने का प्रयास करती हैं। आधुनिक अर्थशास्त्री किसी वस्तु के मूल्य तथा उत्पादन निर्धारण को फर्म के साम्य के शब्दों में व्यक्त करते हैं:

एक फर्म साम्य की स्थिति में तब होगी जबकि उसके कुल उत्पादन में कोई परिवर्तन नहीं होता। एक फर्म अपने उत्पादन में परिवर्तन तब नहीं करेगी जब उसे अधिकतम लाभ प्राप्त हो रहा हो। अत: “एक फर्म का साम्य तथा एक फर्म द्वारा उत्पादित वस्तु की मात्रा और कीमत निर्धारण दोनों एक ही बात है।”

अल्पकाल में फर्म का साम्य:
अल्पकाल में समय की कमी होती है जिससे पूर्ति की मात्रा को घटायाबढ़ाया नहीं जा सकता, परन्तु माँग में होने वाले परिवर्तनों को रोका भी नहीं जा सकता। अत: अल्पकाल में एक फर्म को लाभ, सामान्य लाभ व हानि हो सकती है।

1. लाभ की स्थिति:
जब वस्तु की माँग अधिक होती है और पूर्ति को अल्पकाल में उसके अनुसार नहीं बढ़ाया जा सकता तो उस समय विशेष पर फर्म को लाभ मिलता है जैसा कि चित्र से स्पष्ट है।

चित्र में E बिन्दु पर MR = MC के है इसलिए E PM बिन्दु अधिकतम लाभ का बिन्दु है। यह फर्म के साम्य की E स्थिति को बताता है अतः
कुल उत्पादन = 0Q
कीमत (AR) = EQ या OP
प्रति इकाई लागत (AC) = RQ
प्रति इकाई लाभ = EQ – RQ = ER
कुल लाभ = प्रति इकाई लाभ x उत्पादन.
= ER x OQ = ER X PE,
(: 0Q = PE) = MPER

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2. सामान्य लाभ की स्थिति:
अर्थशास्त्र में सामान्य लाभ उस स्थिति में होता है जब वस्तु की माँग और MC AC पूर्ति आपस में बराबर होती है अर्थात् फर्म द्वारा प्राप्त की गयी कीमत AR से वस्तु की औसत लागत AC पूरी हो जाये (AR = AC) तो वह सामान्य लाभ की स्थिति होगी। जैसा AR = MR कि चित्र से स्पष्ट है। चित्र में E बिन्दु अधिकतम लाभ का बिन्दु है। इस बिन्दु पर OQ कुल उत्पादन है, वस्तु की प्रति इकाई कीमत EQया OP है तथा प्रति इकाई लागत भी EQ है, अतः स्पष्ट है कि फर्म को केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त हो रहा है।

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3. हानि की स्थिति:
उत्पादन में कभी – कभी अल्पकाल में ऐसी स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है जबकि फर्म को हानि का सामना करना पड़े, अर्थात् उसकी औसत आय (AR) की तुलना में औसत लागत (AC) अधिक हो। इस स्थिति को चित्र की सहायता से समझा जा सकता है। चित्र में MC, MR को नीचे से काटती है। E बिन्दु साम्य PM बिन्दु है। इस बिन्दु पर OQ कुल उत्पादन है, वस्तु की प्रति ल इकाई कीमत EQ या OP है, प्रति इकाई लागत RQ तथा। प्रति इकाई हानि (RQ – EQ) = RE है। कुल = RE x MR.

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प्रश्न 4.
औसत लागत और सीमान्त लागत में संबंध को एक काल्पनिक तालिका एवं रेखाचित्र की सहायता से स्पष्ट कीजिए?
अथवा
औसत लागत तथा सीमांत लागत में क्या संबंध है? रेखाचित्र की सहायता से समझाइये?
उत्तर:
औसत लागत और सीमान्त लागत के संबंध को निम्नलिखित तालिका एवं रेखाचित्र की सहायता से स्पष्ट किया जा सकता है –
तालिका – कुल, औसत व सीमान्त लागत –

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प्रस्तुत रेखाचित्र में OX – आधार रेखा पर उत्पादन की मात्रा तथा OY – लम्ब रेखा पर लागत को दिखाया गया है। AC औसत लागत वक्र एवं MC सीमान्त लागत वक्र है। दोनों का स्वरूप अंग्रेजी अक्षर ‘U’ के समान है, क्योंकि उत्पादन के क्षेत्र में परिवर्तनशील अनुपातों। का नियम लागू होता है। Pबिन्दु औसत लागत वक्र का न्यूनतम बिन्दु। है। सीमान्त लागत वक्र MC, औसत लागत वक्र AC को इसी न्यूनतम बिन्दु P पर नीचे से काटता है एवं कटाव बिन्दु के ऊपर तेजी से बढ़ने। लगता है। P बिन्दु के पूर्व जब औसत लागत वक्र AC ऊपर से नीचे उत्पादन की मात्रा की ओर गिर रहा है। चित्र से स्पष्ट है कि सीमान्त लागत वक्र MC औसत लागत वक्र AC से नीचे है। P बिन्दु के पश्चात् जब औसत लागत वक्र AC की ओर बढ़ने लगता है, तो सीमान्त लागत वक्र MC भी बढ़ने लगता है, किन्तु सीमान्त लागत वक्र में वृद्धि की दर अधिक है।

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प्रश्न 5.
उत्पादन लागत से आप क्या समझते हैं? कुल लागत, स्थिर लागत तथा परिवर्तनशील लागत का अर्थ समझाइए?
उत्तर:
“अर्थशास्त्र में उत्पादन लागत का अर्थ उन सभी भुगतानों से है जो उत्पादन दर व्यय किये गये हैं। भले ही इसके उत्पादक द्वारा प्रदान की गई पूँजी, भूमि, श्रम आदि सेवाओं का पुरस्कार भी शामिल हो। साहसी का सामान्य लाभ भी इसमें सम्मिलित होता है। उत्पादन लागत में न केवल वित्तीय व्यय, बल्कि समय, सेवा तथा शक्ति के रूप में किये गये व्यय को भी सम्मिलित किया जाता है।

कुल लागत:
किसी फर्म को उत्पादन की एक निश्चित मात्रा उत्पादित करने के लिए जो कुल व्यय करना पड़ता है, उसे फर्म की कुल लागत कहा जाता है। उत्पादन में वृद्धि के साथ – साथ कुल लागतों में वृद्धि होती जाती है। कुल लागतों में सामान्यतः दो प्रकार की लागतें सम्मिलित की जाती हैं –

  1. स्थिर या पूरक लागत तथा
  2. परिवर्तनशील या प्रमुख लागत

अर्थात्
कुल लागत = स्थिर लागत + परिवर्तनशील लागत।

1. स्थिर या पूरक लागत:
स्थिर लागत से तात्पर्य, उत्पत्ति के स्थिर साधनों पर किये जाने वाले व्यय से होता है। उत्पत्ति के स्थिर साधन ऐसे साधनों को कहा जाता है जिन्हें अल्पकाल में घटाया या बढ़ाया नहीं जा सकता, वे उत्पत्ति के स्थिर साधन कहलाते हैं। ऐसे साधनों पर किया जाने वाला व्यय उत्पादन के सभी स्तरों पर समान रहता है। यदि किसी समय पर उत्पादने शून्य हो जाये, तो भी स्थिर लागत बनी रहेगी। यही कारण है कि स्थिर लागतों को पूरक लागतें, ऊपरी लागते, सामान्य लागतें एवं अप्रत्यक्ष लागतें भी कहते हैं।

स्थिर लागतों के अन्तर्गत निम्नलिखित लागतों को सम्मिलित किया जाता है –

  1. फर्म की बिल्डिंग का किराया
  2. स्थिर पूँजी एवं दीर्घकालीन ऋण पर ब्याज
  3. बीमा शुल्क
  4. मशीनों का घिसावट व्यय
  5. प्रशासनिक ब्याज, जैसे – प्रबन्धकों एवं कार्यालयों के कर्मचारियों के वेतन
  6. विद्युत् व्यय
  7. व्यावसायिक कर, लाइसेंस फीस
  8. फर्म के स्वामी के अवसर लागतों एवं सामान्य लाभ को भी सम्मिलित किया जाता है।

2. परिवर्तनशील या प्रमुख लागत:
परिवर्तनशील लागतों से अभिप्राय, ऐसे व्ययों से है, जो उत्पत्ति के परिवर्तनशील साधनों पर किये जाते हैं। उत्पत्ति के परिवर्तनशील साधन ऐसे साधनों को कहा जाता है, जिन्हें उत्पादन में परिवर्तन होने पर परिवर्तन करना पड़ता है। इस प्रकार, परिवर्तनशील लागतों से तात्पर्य, ऐसी लागतों से है, जिनमें उत्पादन में परिवर्तन होने पर परिवर्तन हो जाता है। परिवर्तनशील लागत को प्रमुख लागत एवं प्रत्यक्ष लागत भी कहा जाता है।

अल्पकालीन परिवर्तनशील लागतों में निम्न लागतें सम्मिलित की जाती हैं –

  1. कच्चे माल का मूल्य
  2. श्रमिकों की मजदूरी
  3. ईंधन एवं विद्युत् शक्ति की लागते
  4. परिवहन लागत
  5. उत्पादन कर एवं बिक्री कर इत्यादि।

इस प्रकार स्पष्ट है कि कुल लागत, स्थिर लागत एवं कुल परिवर्तनशील लागत का योग होता है।

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प्रश्न 6.
फर्म के संतुलन का क्या अर्थ है? फर्म के संतुलन की विशेषताओं को स्पष्ट कीजिये?
उत्तर:
फर्म के साम्य या संतुलन से आशय-फर्म के संतुलन से आशय उस अवस्था से है जिसमें परिवर्तन की अनुपस्थिति दृष्टिगोचर होती है। फर्म के साम्य के आधार पर किसी फर्म के द्वारा वस्तु के मूल्य निर्धारण एवं उत्पादन की मात्रा का निर्धारण किया जाता है साम्यावस्था में उत्पादन की मात्रा में कमी या वृद्धि से फर्म का कोई सारोकार नहीं होता है। यही कारण है कि फर्म को इस अवस्था में अधिकतम लाभ प्राप्त होता है। अतएव वह बिंदु जिस पर फर्म को अधिकतम मौद्रिक लाभ प्राप्त हो उसे फर्म का संतुलन कहते हैं। जहाँ TRTC अधिकतम हो।

फर्म के संतुलन की विशेषताएँ – फर्म के संतुलन की अवस्था की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

1. वस्तु की कीमत या उत्पादन की मात्रा में कोई परिवर्तन नहीं:
संतुलन की स्थिति में फर्म अपनी कीमत या वस्तु के उत्पादन की मात्रा में किसी भी प्रकार की कोई परिवर्तन नहीं करती है अर्थात् परिवर्तन की अनुपस्थिति रहती है।

2. अधिकतम लाभ प्राप्त करना:
एक फर्म अपने संतुलन की स्थिति में अधिकतम लाभ प्राप्त करती है। अत: वह किसी भी प्रकार का जोखिम नहीं उठाना चाहती है।

3. फर्म की उत्पादन लागत न्यूनतम होना:
फर्म के संतुलन की स्थिति में फर्म न्यूनतम लागत पर उत्पादन को संभव बनाती है। उत्पादन लागत न्यूनतम हो जाने से लाभ बढ़ जाता है।

4. कुल लागत एवं कुल आगम तथा सीमांत विश्लेषण रीति का प्रयोग:
फर्म की साम्यावस्था कुल लागत एवं कुल आगम तथा सीमांत विश्लेषण रीति का प्रयोग करके प्राप्त की जा सकती है। एक फर्म के साम्य में उत्पादित वस्तु की मात्रा एवं कीमत निर्धारण में कोई अन्तर नहीं है।

प्रश्न 7.
उत्पादन फलन को परिभाषित कीजिए।पैमाने के वर्धमान, स्थिर तथा ह्रासमान प्रतिफल को समझाइए?
उत्तर:
उत्पादन फलन – यह उत्पादन के आगतों तथा अंतिम उत्पाद के बीच तकनीकी संबंध को बताता है।
q= f(x1x2)
यहाँ = उत्पादन की मात्रा, x1 व x2, कारक 1 व 2
पैमाने के प्रतिफल:
दीर्घकाल में उत्पादन के साधनों के समानुपात में बदलने से उत्पादन पर जो प्रभाव पड़ता है, वह पैमाने के प्रतिफल कहलाते हैं। यह दीर्घकाल से संबंधित है तथा सभी आगत परिवर्तनीय होते हैं।
पैमाने के प्रतिफल के तीन निम्नलिखित प्रकार हैं –

पैमाने के बढ़ते प्रतिफल की अवस्था:
जब सभी आगतों को एक ही अनुपात में बढ़ाने के फलस्वरूप उत्पादन में, आगतों में वृद्धि की अपेक्षा, अधिक अनुपात में वृद्धि होती है, तो। इस स्थिति को पैमाने के बढ़ते प्रतिफल की अवस्था कहा जाता है, जैसेमाना कि आगतों में 10% की वृद्धि करने पर उत्पादन में 12% की वृद्धि हो, ” तो यह पैमाने के बढ़ते प्रतिफल कहलाएँगे।

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पैमाने के स्थिर प्रतिफल की अवस्था:
जब सभी आगतों में एक निश्चित अनुपात में वृद्धि करने के फलस्वरूप उत्पादन में भी उसी अनुपात में वृद्धि होती है, जिस अनुपात में आगतों में वृद्धि की गई थी। तो इसे पैमाने के स्थिर प्रतिफल की अवस्था कहते, उपरोक्त चित्रानुसार OP पैमाने की रेखा है। साधन X व Y की पहली इकाइयों पर उत्पादन 100 इकाइयों का था, जबकि दोनों इकाइयों की मात्रा 300 बढ़ाकर 2 – 2 करने पर उत्पादन 200 तथा 3 – 3 करने पर उत्पादन 300 इकाइयाँ । X – 200 हो जाती हैं। अत: AB = BC, यहाँ यह स्पष्ट है कि उत्पादक को पैमाने के। स्थिर प्रतिफल प्राप्त हो रहे हैं।

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पैमाने के घटते प्रतिफल की अवस्था:
जब सभी आगतों में एक निश्चित अनुपात में वृद्धि के परिणामस्वरूप उत्पादन में वृद्धि, आगतों में की गई आनुपातिक वृद्धि की। अपेक्षा कम होती है, तो इस स्थिति को पैमाने के घटते हुए प्रतिफल की अवस्था कहा जाता है, जैसे – माना कि आगतों में 10% की वृद्धि की जाती है। इसके परिणामस्वरूप उत्पादन में 8% की वृद्धि होती है, तो इसे पैमाने के घटते प्रतिफल की अवस्था कहा जायेगा। उपरोक्त चित्रानुसार, x + y उत्पादन के साधन मिलकर पहले 100 इकाइयाँ उत्पादित करते हैं। फिर 2x + 2y मिलकर 180 इकाइयाँ उत्पादित करते हैं तथा 3x + 3y मिलकर 240 इकाइयाँ।

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अतः इस प्रकार उत्पत्ति के साधनों की मात्रा दुगुनी तथा तिगुनी होने पर भी उत्पादन दुगुना या तिगुना न होकर कम बढ़ता है। अत: E बिन्दु तक पैमाने के घटते हुए प्रतिफल की प्राप्ति हो रही है, क्योंकि DE > CD > BC > AB है।

दूध जैसी वस्तु के लिए पूर्ति की लोच क्या है?

Answer: जब वृद्धि पर पूर्ति मूल बिन्दु पर मिलता है तो Es < 1 होता है।

पूर्ति की लोच कितने प्रकार के होते हैं?

लोचदार पूर्ति (Elastic supply).
अधिक लोचदार पूर्ति (Highly elastic supply).
पूर्णतया लोचदार पूर्ति (Perfectly elastic supply).
बेलोचदार पूर्ति (Inelastic supply).
पूर्णतया बेलोचदार पूर्ति (Perfectly inelastic supply) •.

वस्तु की पूर्ति की कीमत लोच क्या है?

आपूर्ति की कीमत लोच वस्तु की कीमत के परिवर्तन और आपूर्ति की मात्रा में होने वाले अनुक्रियाशीलता की माप है अर्थात् किसी वस्तु की कीमत में प्रतिशत परिवर्तन के कारण आपूर्ति में होने वाले प्रतिशत परिवर्तन की माप को वस्तु की आपूर्ति की कीमत लोच कहते हैं ।

पूर्ति की लोच का क्या तात्पर्य है?

पूर्ति की लोच से तात्पर्य किसी वस्तु की कीमत के अनुपात में उसकी मांगी गई मात्रा में हुआ परिवर्तन पूर्ति की लोच कहलाता है।