तोड़ती पत्थर कविता हिन्दी काव्य जगत के मूर्धन्य कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की सन् 1935 ई. में लिखी गई एक प्रगतिवादी कविता है। यद्यपि निराला जी छायावाद के प्रतिनिधि कवि थे तथापि उन्होंने छायावाद की रोमानियत से बाहर निकल कर यथार्थ को देखा और युगानुरुप प्रगतिवादी रचनाएं करनी प्रारम्भ कर दी।
निर्धन, दुःखी, शोषित मजदूर प्रगतिवादी काव्य के मेरुदंड है। शोषित और सर्वहारा वर्ग का यथार्थ चित्रण ही प्रगतिवादी काव्य की मूल प्रवृत्ति रही है। वह तोड़ती पत्थर निराला जी की यह कविता पूँजीवादी अर्थव्यवस्था पर एक करारी चोट है।कवि ने व्यंग्य किया है कि कहीं बड़ी बड़ी हवेलियां खाली पड़ी है और किसी को छाया भी नसीब नहीं।इस तरह कीविरोधी स्थितियों पर इसकविता में बड़ातीखा व्यंग्य किया गया है जो सभी को झकझोर कर रख देता हैं।और
इस सामाजिक असमान व्यवस्था के प्रति जनसाधारण के मन में घृणा उत्पन्न करने पर विवश कर देता हैं। इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट
सूरदास के काव्य में निहित भक्ति का स्वरूप (स्रोतः इन्टरनेट) हिन्दी साहित्याकाश में सगुणोपासक कृष्ण भक्त कवियों की परम्परा में सूरदास का स्थान अनन्य है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में- ‘‘जिस प्रकार रामचरित का गान करने वाले कवियों में गोस्वामी तुलसीदास जी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है, उसी प्रकार कृष्ण चरित गाने वाले भक्त कवियों में महात्मा सूरदास का। वास्तव में ये हिन्दी काव्य गगन के सूर्य और चन्द्र हैं। जो तन्मयता इन दोनों भक्त शिरोमणि कवियों की वाणी में पायी जाती है वह अन्य कवियों में कहाँ? हिन्दी काव्य इन्हीं के प्रभाव से अमर हुआ, इन्हीं की सरसता से उसका स्रोत सूखने न पाया। सूर की स्तुति में एक संस्कृत श्लोक के भाव को लेकर यह दोहा कहा गया है कि- ‘‘उत्तम पद कवि गंग के, कविता को बलवीर। केशव अर्थ गंभीर को, सूर तीन गुन धीर ।।’’ इसी प्रकार सूरदास की प्रशस्ति में किसी कवि ने यह भी कहा है कि- ‘‘किधौं सूर को सर लग्यो, किधौं सूर को पीर। किधौं सूर को पद लग्यों, बेध्यो सकल सरीर ।।’’ सूरदास बल्लभाचार्य के शि प्रयोगवाद और अज्ञेयहिन्दी साहित्य में प्रयोग वाद का प्रारम्भ सन् 1943 ई. में अज्ञेय द्वारा सम्पादित तार सप्तक के प्रकाशन के साथ माना जाता है। वास्तव में इसका प्रारंभ छायावाद में निराला जी के काव्य में ही हो चुका था। उनकी अनेक कविताओं में प्रयोगवाद का प्रारंभिक रूप देखने को मिल जाता है। परन्तु इसका प्रतिष्ठित रूप अज्ञेय के तार सप्तक से ही माना जाता है।यह मूलतः अस्तित्ववाद से प्रेरित है जिसके प्रवर्तक सारेन कीकगार्द है। प्रयोगवाद की अवधि 1943 ई. से 1953 ई. तक मानी जाती है।तार सप्तक के सात कवि थे - मुक्तिबोध , नेमिचन्द्र जैन , भारत भूषण अग्रवाल , प्रभाकर माचवे , गिरिजा कुमार माथुर , रामविलास शर्मा और अज्ञेय । प्रयोगवाद नाम अज्ञेय के तार सप्तक का ही दिया हुआ है। तारसप्तक में अज्ञेय जी का एक वक्तव्य है - " प्रयोग सभी काल के कवियों ने किएं हैं । किन्तु कवि क्रमशः अनुभव करता आया है कि जिन क्षेत्रों में प्रयोग हुए हैं, आगे बढ़कर अब उन्हीं क्षेत्रों का अन्वेषण करना चाहिए जिन्हें अभी तक छुआ नहीं गया था जिनको अभेद्य मान लिया गया है। " वस्तुत: ऊपरी तौर पर देखा जाए तो सभ वह तोड़ती पत्थर कविता में किसका चित्र है?तोड़ती पत्थर कविता भी इसी तरह की कविता है। इसमेें निराला जी ने इलाहाबाद के पथ पर भरी दोपहरी में पत्थर तोड़ने वाली मजदूरनी का यथार्थ चित्रण किया है। यह चित्रण अत्यंत मर्मस्पर्शी है। मजदूरनी चिलचिलाती धूप में बैठी अपने हथौड़े से पत्थर पर प्रहार कर रही है।
वह तोड़ती पत्थर में कवि ने मुख्यतः किसका वर्णन किया है?कवि इलाहाबाद के किसी रास्ते पर उस महिला को पत्थर तोड़ते हुए देखते है। वह एक ऐसे पेड़ के नीचे बैठी है, जहा छाया नहीं मिल रही आस पास भी कोई छायादार जगह नहीं हैं। इस प्रकार कवि शोषित समाज की विषमता का वर्णन करते है। ओर बताते है की मजदूर वर्ग अपना काम पूरी लग्न के साथ करते है।
वह तोड़ती पत्थर कविता में निराला क्या संदेश दे रहे हैं स्पष्ट कीजिए?'वह तोड़ती पत्थर' कविता में भी श्रमिक नारी के जीवन और उसके प्रति समाज की हृदयहीनता का अंकन किया गया है । निराला का अपना जीवन भी कष्ट भोगते हुए बीता । उसमें सुख-आनंद की लहरें कुछ ही दिनों के लिए आईं, जिनकी स्मृति के सहारे ही उन्होंने शेष जीवन बिताया। 'मौन' कविता में कवि अपने प्रिय के साथ कुछ समय चुपचाप बिताना चाहता है ।
तोड़ती पत्थर इस कविता में मैं तोड़ती पत्थर इस पंक्ति का क्या अर्थ है?भाव यह है कि वह अपने कार्य को पूरी लगन के साथ कर रही थी। उसके हाथ में भारी हथौड़ा था, जिसके प्रहार से वह पत्थर तोड़ रही थी। उसके सामने वृक्षों की पंक्तियाँ थीं और चहारदीवारी से घिरे हुए ऊँचे भवन थे। मजदूरिन की अभावग्रस्त स्थिति को प्रकाशित किया गया है।
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