तृतीय आर्य सत्य का मुख्य विषय क्या है - trteey aary saty ka mukhy vishay kya hai

बौद्ध धर्म के आर्यसत्य-चतुष्टय

तृतीय आर्य सत्य का मुख्य विषय क्या है - trteey aary saty ka mukhy vishay kya hai


बौद्ध धर्म के अनुसार आर्य सत्य चार हैं :
(1) दुःख
(2) दुःख-समुदाय
(3) दुःख-निरोध
(4) दुःखनिरोध-गामिनी

पहला आर्य सत्य दुःख है। जन्म दुःख है, जरा दुःख है, व्याधि दुःख है, मृत्यु दुःख है, अप्रिय का मिलना दुःख है, प्रिय का बिछुड़ना दुःख है, इच्छित वस्तु का न मिलना दुःख है। यह दुःख नामक आर्य सत्य परिज्ञेय है। संक्षेप में रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान, यह पंचोपादान स्कंध (समुदाय) ही दुःख हैं।

दुःख समुदय नाम का दूसरा आर्य सत्य तृष्णा है, जो पुनुर्मवादि दुःख का मूल कारण है। यह तृष्णा राग के साथ उत्पन्न हुई है। सांसारिक उपभोगों की तृष्णा, स्वर्गलोक में जाने की तृष्णा और आत्महत्या करके संसार से लुप्त हो जाने की तृष्णा, इन तीन तृष्णाओं से मनुष्य अनेक तरह का पापाचरण करता है और दुःख भोगता है। यह दुःख समुदाय का आर्य सत्य त्याज्य है।

तीसरा आर्य सत्य दुःखनिरोध है। यह प्रतिसर्गमुक्त और अनालय है। तृष्णा का निरोध करने से निर्वाण की प्राप्ति होती है, देहदंड या कामोपभोग से मोक्षलाभ होने का नहीं। यह दुःखनिरोध नाम का आर्य सत्य साक्षात्करणीय कर्तव्य है।

चौथा आर्य सत्य दुःख निरोधगामिनी प्रतिपद् है। यह दुःख निरोधगामिनी प्रतिपद् नामक आर्य सत्य भावना करने योग्य है। इसी आर्य सत्य को अष्टांगिक मार्ग कहते हैं। वे अष्टांग ये हैं :-

1. सम्यक्‌ दृष्टि, 2. सम्यक्‌ संकल्प, 3. सम्यक्‌ वचन, 4. सम्यक्‌ कर्मांत, 5. सम्यक्‌ आजीव, 6. सम्यक्‌ व्यायाम, 7. सम्यक्‌ स्मृति, 8. सम्यक्‌ समाधि। दुःख का निरोध इसी अष्टांगिक मार्ग पर चलने से होता है।

इस 'आर्यसत्य' से मेरे अंतर में चक्षु, ज्ञान, प्रज्ञा, विद्या और आलोक की उत्पत्ति हुई। जबसे मुझे इन चारों आर्य सत्यों का यथार्थ सुविशुद्ध ज्ञानदर्शन हुआ मैंने देवलोक में, पमारलोक में, श्रवण जगत और ब्राह्मणीय प्रजा में, देवों और मनुष्यों में यह प्रकट किया कि मुझे अनुत्तर सम्यक्‌ सम्बोधि प्राप्त हुई और मैं अभिसंबुद्ध हुआ, मेरा चित्त निर्विकार और विमुक्त हो गया और अब मेरा अंतिम जन्म है।

परिव्राजक को इन दो अंतों (अतिसीमा) का सेवन नहीं करना चाहिए। वे दोनों अंत कौन हैं? पहला अंत है काम-वासनाओं में काम-सुख के लिए लिप्त होना। यह अंत अत्यंतहीन, ग्राम्य, निकृष्टजनों के योग्य, अनार्य्य और अनर्थकारी है। दूसरा अंत है शरीर को दंड देकर दुःख उठाना। यह भी अनार्यसेवित और अनर्थयुक्त है।

इन दोनों अंतों को त्याग कर मध्यमा प्रतिपदा का मार्ग (अष्टांगिक मार्ग) ग्रहण करना चाहिए। यह मध्यमा प्रतिपदा चक्षुदायिनी और ज्ञानप्रदायिनी है। इससे उपशम, अभिज्ञान, संबोधन और निर्वाण प्राप्त होता है।




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गौतम बुद्ध के चार आर्य सत्य (Buddha Ke Char Arya Satya) : विद्यादूत में दर्शनशास्त्र केटेगरी के अंतर्गत इस लेख में हम गौतम बुद्ध के चार आर्य सत्य पर चर्चा करेंगें | गौतम बुद्ध के चार आर्य सत्य (चत्वारि आर्यसत्यानि) क्या है ? गौतम बुद्ध ने बोधि-प्राप्ति के पश्चात् अपनी अमूल्य शिक्षाओं के सारांश को ‘चार आर्य सत्य’ के रूप में व्यक्त लिया | बुद्ध निरर्थक दार्शनिक वादविवादों से दूर रहे | उनकी शिक्षाएं सैद्धांतिक से अधिक व्यावहारिक है | क्योकि बुद्ध सैद्धांतिक चिन्तन पर जोर न देकर व्यावहारिक चिन्तन को ही जरूरी और मूल्यवान मानते थें | यही कारण है कि उन्होंने निर्वाण-प्राप्ति के बाद भी मानव-कल्याण के लिए स्वयं को सांसारिक समस्याओं में लगाया |

महात्मा बुद्ध अनावश्यक दार्शनिक प्रश्नों में नही उलझते थें | वें दार्शनिक प्रश्न पूछे जाने पर मौन हो जाते थें | बुद्ध के मौन का अर्थ यह नही था कि वें इन प्रश्नों के उत्तर के विषय में अनभिज्ञ थें | बल्कि वें दार्शनिक प्रश्नों या वाद-विवादों के विषय में इसलिए मौन हो जाते थें, क्योकि उनसे लोगों के दुःखों को खत्म करने से कोई सहायता नही मिलती | उनका मानना था कि इन प्रश्नों में उलझना व्यावहारिक दृष्टि से अनुपयोगी है |

आत्मा और जगत् से सम्बन्धित जिन प्रश्नों पर बुद्ध मौन हो जाया करते थें, उन्हें पाली साहित्य में ‘अव्याकतानि’ (Indeterminable questions) कहा जाता है |

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वास्तव मे महात्मा बुद्ध कोई दार्शनिक नही थे, बल्कि एक अत्यन्त व्यावहारिक समाज सुधारक थे | ज्ञान प्राप्ति के बाद महात्मा बुद्ध ने सर्वप्रथम अपना उपदेश उन पाँच ब्राह्मण सन्यासियों को सारनाथ (ऋषिपत्तन) में दिया था, जिन्होंने उनके कठोर साधना से विरत हो जाने पर उनका साथ छोड़ दिया था | उनका यह पहला उपदेश धर्मचक्रप्रवर्त्तन कहलाता है, जो चार आर्यसत्य भी कहलाता है | महात्मा बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं के सारांश को ‘चार आर्य सत्य’ (Four Noble Truths of Buddhism) के रूप में व्यक्त किया |

गौतम बुद्ध ने सारनाथ में दिए गये सर्वप्रथम उपदेश में कहा था कि “हे भिक्षुओं, दो कोटियां है जिनसे धर्मनिष्ठ व्यक्ति को दूर रहना चाहिए | वे क्या है ? प्रथम सुख का जीवन है, जो कामनाओं की पूर्ति एवं विषयभोग ने लिप्त रहता है | यह जीवन अधम, निन्द्य, परमार्थ से दूर करने वाला, अनुचित व मिथ्या है | द्वितीय तपस्या का जीवन है | यह भी विषादमय, अनुचित व मिथ्या है | हे भिक्षुओं, अर्हत् इन दोनों ही कोटियों से दूर होता है तथा उसने इन दोनों के बीच का मार्ग खोज लिया है | यह मध्यम मार्ग चक्षुओं को प्रकाश देता है, चित्त को प्रकाश देता है, शांति की तरह ले जाता है, ज्ञान की तरफ ले जाता है, बोधि की तरफ ले जाता है, निर्वाण की तरफ ले जाता है |”

Arya Satya in Buddhism : महात्मा बुद्ध की समस्त शिक्षाएं प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से चार आर्य-सत्यों (Buddha Ke Char Arya Satya) से प्रभावित है | महात्मा बुद्ध कहते है कि “जो चार आर्य सत्य है, उनकी सही जानकारी न होने से मै संसार में एक जन्म से दूसरे में घूमता रहा हूँ | अब मै उन्हें जान गया हूँ, जन्म लेने का क्रम रूक गया है | दुःख का मूल नष्ट हो गया है, अब फिर जन्म नही होगा |”

बुद्ध के चार आर्य सत्य – The Four Noble Truths in Hindi

बौद्ध दर्शन चार आर्य-सत्यों में ही निहित है | ये चार आर्य-सत्य, जोकि बौद्ध धर्म के सार है,  इसप्रकार है –

(1) दुःख अर्थात् संसार दुःखमय है | (There is suffering)

(2) दुःख-समुदय अर्थात् दुःखों का कारण भी हैं | (There is a cause suffering)

(3) दुःख-निरोध अर्थात् दुःखों का अन्त सम्भव है | (There is a cessation of suffering)

(4) दुःख-निरोध-मार्ग अर्थात् दुःखों के अन्त का एक मार्ग है | (There is a way leading to the cessation of suffering)

पहले तीन आर्य सत्य गौतम बुद्ध के उपदेश के सैद्धांतिक पक्ष को बताते है जबकि चौथा आर्य सत्य उसके व्यावहारिक पक्ष को बताते है |

बुद्ध के चार आर्य सत्य : पहला आर्य सत्य – दुःख

Pratham Arya Satya Kya Hai ? महात्मा बुद्ध ने अपने प्रथम आर्य सत्य (The First Noble Truth) में दुःख की उपस्थिति का वर्णन किया है | प्रथम आर्य-सत्य के अनुसार संसार दुःखमय है | उनके अनुसार इस सम्पूर्ण सृष्टि में सब कुछ दुःखमय है (सर्व-दुःख दुःखम्) |

सुख का न मिलना दुःख है, सुख को प्राप्त करने के प्रयास में दुःख है,  प्राप्त होने के बाद उसको बरकरार रखने में दुःख है और चूँकि प्रत्येक चीज अनित्य व नश्वर है अतः अंत में प्राप्त सुख का भी कभी-न-कभी अंत होगा और उसके बाद तो दुःख है ही |

जन्म से लेकर मृत्यु तक सारा जीवन ही दुःख है,  मृत्यु के बाद भी दुःख का अंत नही होता क्योकि उसके बाद पुनर्जन्म है और फिर मृत्यु है |

इस प्रकार यह जन्म-मृत्यु-चक्र (भव-चक्र) निरन्तर चलता रहता है और प्रत्येक व्यक्ति इसमे फँसकर दुःख भोगता रहता है | धम्मपद में गौतम बुद्ध कहते है कि जब सम्पूर्ण संसार आग से झुलस रहा है तब आनंद मानाने का अवसर कहाँ है ?

संयुक्त निकाय में महात्मा बुद्ध कहते है “संसार में दुखियों ने जितने आँसू बहाये है, उनका जल महासागर में जितना जल है,  उससे भी ज्यादा है |”

गौतम बुद्ध द्वारा संसार को दुःखमय मानने का समर्थन भारत के अधिकांश दार्शनिकों ने किया है लेकिन कई विद्वान इस बात की आलोचना करते है | दुःखों पर अत्यधिक जोर दिए जाने के कारण वें बौद्ध दर्शन को निराशावादी दर्शन (Pessimistic Philosophy) का दर्जा देते है |

लेकिन बौद्ध दर्शन पर निराशवाद का आरोप उचित नही है क्योकि यह सही है कि महात्मा बुद्ध ने दुःखों की बात की है लेकिन वो यही पर रुके नही बल्कि उन्होंने दुःखों को दूर करने के उपाए भी बताये है |

चतुर्थ आर्य-सत्य में उन्होंने दुःखों को समाप्त करने के मार्ग (अष्टांगिक मार्ग या अष्टांग मार्ग) का भी वर्णन किया है | इस प्रकार हम कह सकते है कि बौद्ध दर्शन का आरम्भ निराशवाद से होता है लेकिन वो आशावाद के रूप में समाप्त होता है |

बुद्ध के चार आर्य सत्य : दूसरा आर्य सत्य – दुःख-समुदय

Dwitiya Arya Satya Kya Hai ? अपने द्वितीय आर्य-सत्य (The Second Noble Truth) में गौतम बुद्ध ने दुःख की उत्पत्ति के कारण पर विचार प्रकट किया है |

समुदय का अर्थ है ‘उदय’ | इस प्रकार दुःख-समुदय का अर्थ है ‘दुःख उदय होता है’ | प्रत्येक वस्तु के उदय का कोई न कोई कारण अवश्य होता है | दुःख का भी कारण है |

तथागत बुद्ध ने प्रतीत्यसमुत्पाद के द्वारा दुःख के कारण को जानने का प्रयास किया है | प्रतीत्य का अर्थ है ‘किसी वस्तु के उपस्थित होने पर’ और समुत्पाद का अर्थ है ‘किसी अन्य वस्तु की उत्पत्ति’ |

इस प्रकार प्रतीत्यसमुत्पाद का अर्थ हुआ ‘एक वस्तु के उपस्थित होने पर किसी अन्य वस्तु की उत्पत्ति’ | इस प्रकार प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धांत, कार्यकारण सिद्धांत पर आधारित है |

इस सिद्धांत को ‘द्वादश-निदान’ (the twelve sources) भी कहते है | इस सिद्धांत में दुःख का कारण पता लगाने हेतु बारह कड़ियों (निदान) की विवेचना की गयी है, जिसमे अविद्या को समस्त दुःखों (जरामरण) का मूल कारण माना गया है |

प्रतीत्यसमुत्पाद को विस्तार से जानने के लिए यह लेख जरुर देखें – प्रतीत्यसमुत्पाद क्या है : Pratityasamutpada in Buddhism

ये द्वादश निदान इस प्रकार है –

  1. अविद्या,
  2. संस्कार (कर्म),
  3. विज्ञान (चेतना),
  4. नामरूप,
  5. षडायतन (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ व मन और उनके विषय),
  6. स्पर्श (इंद्रियों और विषयों का सम्पर्क),
  7. वेदना (इन्द्रियानुभव),
  8. तृष्णा (इच्छा),
  9. उपादान (अस्तित्व का मोह),
  10. भव (अस्तित्व),
  11. जाति (पुनर्जन्म),
  12. जरामरण (दुःख) |

ये सभी कड़ियाँ (निदान) एक दूसरे से जुडकर चक्र की भांति घूमती रहती है | मृत्यु के बाद भी ये चक्र रुकता नही है और पुनः नये जन्म से शुरू हो जाता है | इसलिए इसे जन्ममरणचक्र भी कहते है |

बुद्ध के चार आर्य सत्य : तीसरा आर्य सत्य – दुःख-निरोध

Tisara Arya Satya Kya Hai ? महात्मा बुद्ध ने अपने तृतीय आर्य-सत्य (The Third Noble Truth) में निर्वाण के स्वरुप की व्याख्या की है | महात्मा बुद्ध ने दुःख-निरोध को ही निर्वाण (मोक्ष) कहा है | दुःख-निरोध वह अवस्था है जिसमे दुःखों का अंत होता है | चूकिं दुःखों का मूल कारण अविद्या है, अतः अविद्या को दूर करके दुःखों का भी अंत किया जा सकता है |

निर्वाण का अर्थ जीवन का अन्त नही है, बल्कि निर्वाण (दुःख-निरोध) की प्राप्ति इस जीवन में भी सम्भव है | महात्मा बुद्ध के अनुसार प्रत्येक मानव को अपना निर्वाण स्वयं ही प्राप्त करना है | महात्मा बुद्ध की भांति मानव इस जीवन में भी अपने दुःखों का निरोध कर निर्वाण की प्राप्ति कर सकता है |

मानव का शरीर उसके पूर्वजन्म के कर्मो का फल होता है, जब तक ये कर्म समाप्त नही होते, शरीर भी समाप्त नही होता है इसलिए निर्वाण-प्राप्ति के बाद भी शरीर विद्यमान रहता है |

चौथा आर्य सत्य – दुःख-निरोध-मार्ग (दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपद्)

Bauddha Darshan Ke Chaturth Arya Satya Kya Hai ? अपने चतुर्थ आर्य-सत्य (The Fourth Noble Truth) में तथागत ने दुःख-निरोध की अवस्था को प्राप्त करने हेतु एक विशेष मार्ग की चर्चा की है | दुःख-निरोध-मार्ग वह मार्ग है जिस पर चलकर कोई भी मानव निर्वाण को प्राप्त कर सकता है |

यह नैतिक व आध्यात्मिक साधना का मार्ग है, जिसे अष्टांगिक मार्ग या अष्टांग मार्ग (the eightfold noble path) कहा गया है | इसे मध्यम-मार्ग (मध्यम-प्रतिपद्) भी कहते है, जो अत्यन्त भोगविलास और अत्यन्त कठोर तपस्या के मध्य का मार्ग है |

मध्यम-मार्ग दो अतियों – इन्द्रियविलास और अनावश्यक कठोर तप के बीच का रास्ता है | भगवान बुद्ध कहते है “हे भिक्षुओं ! परिव्राजक (संन्यासी) को दो अन्तों का सेवन नही करना चाहिए | वे दोनों अन्त कौन है ? पहला तो काम (विषय) में सुख के लिए लिप्त रहना | यह अन्त अत्यधिक दीन, अनर्थसंगत है | दूसरा शरीर को क्लेश देकर दुःख उठाना है | यह भी अनर्थसंगत है | हे भिक्षुओं ! तथागत (मैं) को इन दोनों अन्तों का त्याग कर मध्यमा-प्रतिपदा (मध्यम-मार्ग) को जाना है |”

अष्टांगिक मार्ग क्या है (The Eightfold Noble Path)

तथागत बुद्ध ने अपने तृतीय आर्य सत्य में निर्वाण (Nirvana) के बारे में बताया है | लेकिन प्रश्न उठता है कि निर्वाण की प्राप्ति कैसे सम्भव है ? इसका उत्तर गौतम बुद्ध ने अपने चतुर्थ आर्य सत्य में दिया है |

अपने चौथे आर्य सत्य में उन्होंने बताया कि निर्वाण प्राप्ति में मार्ग में आठ सीढ़ियाँ हैं जिसपर चढ़कर निर्वाण तक पहुचा जा सकता है |

अष्टांग मार्ग (The Eightfold Noble Path) या अष्टांगिक मार्ग (Ashtangik Marg) इस प्रकार है –

  1. सम्यक् दृष्टि  – Right Views
  2. सम्यक् संकल्प – Right Resolve
  3. सम्यक् वाक् – Right Speech
  4. सम्यक् कर्मान्त – Right Actions 
  5. सम्यक् आजीव – Right Livelihood
  6. सम्यक् व्यायाम – Right Efforts
  7. सम्यक् स्मृति – Right Mindfulness
  8. सम्यक् समाधि – Right Concentration

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बुद्ध के चार आर्य सत्य : निष्कर्ष (4 Arya Satya of Buddha in Hindi)

अब आप अच्छी तरह जान गये होंगें कि आर्य सत्य क्या है | महात्मा बुद्ध ने अपने चार आर्यसत्य में बताया कि संसार में सर्वत्र दुःख ही दुःख है | लेकिन जिस प्रकार प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति का कोई न कोई कारण अवश्य होता है और अगर उस कारण का विनाश हो जाये तो वस्तु का भी विनाश हो जायेगा |

कारण की समाप्ति हो जाने पर कार्य का अस्तित्व भी समाप्त हो जकता है | इसी प्रकार दुःखों के मूल कारण अविद्या का विनाश कर देने पर दुखों का भी अंत हो जाता है | दुःख-निरोध ही निर्वाण कहलाता है | दुःखों के मूल कारण अविद्या के विनाश का उपाय अष्टांगिक मार्ग है |

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सम्बन्धित प्रश्न –

  1. बौद्ध धर्म के 4 आर्य सत्य क्या है ?
  2. बौद्ध दर्शन के अनुसार दुःख का मूल कारण क्या है ?
  3. 4 महान सत्य किस धर्म से सम्बन्धित है ?
  4. बौद्ध दर्शन के चार आर्य सत्य की व्याख्या करें |
  5. चार महान सत्य किस धर्म से सम्बन्धित है ?
  6. त्रिरत्न और अष्टांगिक मार्ग क्या है ?
  7. बौद्ध दर्शन के अनुसार चार आर्य सत्य का वर्णन करें |

तृतीय आर्य सत्य क्या है?

तीसरा आर्य सत्य – दुःख-निरोध दुःख-निरोध वह अवस्था है जिसमे दुःखों का अंत होता है । चूकिं दुःखों का मूल कारण अविद्या है, अतः अविद्या को दूर करके दुःखों का भी अंत किया जा सकता है। निर्वाण का अर्थ जीवन का अन्त नही है, बल्कि निर्वाण (दुःख-निरोध) की प्राप्ति इस जीवन में भी सम्भव है।

त्रिरत्न से आप क्या समझते हैं?

त्रिरत्न (तीन रत्न) बौद्ध धर्म के सबसे महत्त्वपूर्ण अंग हैं। इन त्रिरत्नों पर ही बौद्ध धर्म आधारित हैं। त्रिरत्न :- बुद्ध, धम्म और संघ.

बुद्ध के अनुसार आर्य सत्य कितने हैं?

चार महान सत्यबौद्ध शिक्षाओं में से एक हैं। व्यापक रूप से ये सत्य पीड़ितों की प्रकृति, उत्पत्ति और समाप्ति की ओर ले जाने वाले मार्ग से जुड़े हैं। इन चार आर्य सत्यों को गौतम बुद्ध ने अपने ज्ञान के अनुभव के दौरान महसूस किया है।

चार आर्य सत्य का सिद्धांत किसका है?

ईसा से कितने वर्ष पूर्व गौतम को निर्वाण प्राप्त हुआ था- 483 ई. पू. वह स्थान जहाँ बुद्ध ने अपने जीवन काल में सर्वाधिक उपदेश दिया - श्रावस्ती । दुःख, दुःख का कारण, दुःख निरोध एवं दुःख निरोध मार्ग को बुद्ध ने कहा है- चार आर्य सत्य