स्वदेशी आंदोलन क्या है और वर्तमान समय में स्वदेशी आंदोलन की प्रासंगिकता क्या है? - svadeshee aandolan kya hai aur vartamaan samay mein svadeshee aandolan kee praasangikata kya hai?

स्वदेशी आंदोलन क्या है और वर्तमान समय में स्वदेशी आंदोलन की प्रासंगिकता क्या है? - svadeshee aandolan kya hai aur vartamaan samay mein svadeshee aandolan kee praasangikata kya hai?

१९३० के दशक का पोस्टर जिसमें गाँधीजी को जेल के अन्दर चरखा कातते हुए दिखाया गया है, और लिखा है- चरखा और स्वदेशी पर ध्यान दो।

भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का एक महत्वपूर्ण आन्दोलन, सफल रणनीति व दर्शन का था। 'स्वदेशी' का अर्थ है - 'अपने देश का'। इस रणनीति के लक्ष्य ब्रिटेन में बने माल का बहिष्कार करना तथा भारत में बने माल का अधिकाधिक प्रयोग करके साम्राज्यवादी ब्रिटेन को आर्थिक हानि पहुँचाना व भारत के लोगों के लिये रोजगार सृजन करना था। यह ब्रितानी शासन को उखाड़ फेंकने और भारत की समग्र आर्थिक व्यवस्था के विकास के लिए अपनाया गया साधन था।

वर्ष 1905 के बंग-भंग विरोधी जनजागरण से स्वदेशी आन्दोलन को बहुत बल मिला। यह 1911 तक चला और गान्धी जी के भारत में पदार्पण के पूर्व सभी सफल आन्दोलनों में से एक था। अरविन्द घोष, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय स्वदेशी आन्दोलन के मुख्य उद्घोषक थे।[1] आगे चलकर यही स्वदेशी आन्दोलन महात्मा गांधी के स्वतन्त्रता आन्दोलन का भी केन्द्र-बिन्दु बन गया। उन्होने इसे "स्वराज की आत्मा" कहा है।

भारत में स्वदेशी आन्दोलन का इतिहास[संपादित करें]

स्वदेशी आन्दोलन विशेषकर उस आन्दोलन को कहते हैं जो बंग-भंग के विरोध में न केवल बंगाल अपितु पूरे ब्रिटिश भारत में चला। इसका मुख्य उद्देश्य अपने देश की वस्तु अपनाना और दूसरे देश की वस्तु का बहिष्कार करना था। यद्यपि स्वदेशी का यह विचार बंग-भंग से बहुत पुराना है। भारत में स्वदेशी का पहले-पहल नारा बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने "वंगदर्शन" के 1279 की भाद्र संख्या यानी 1872 ई. में ही विज्ञानसभा का प्रस्ताव रखते हुए दिया था। उन्होंने कहा था-"जो विज्ञान स्वदेशी होने पर हमारा दास होता, वह विदेशी होने के कारण हमारा प्रभु बन बैठा है, हम लोग दिन ब दिन साधनहीन होते जा रहे हैं। अतिथिशाला में आजीवन रहनेवाले अतिथि की तरह हम लोग प्रभु के आश्रम में पड़े हैं, यह भारतभूमि भारतीयों के लिए भी एक विराट अतिथिशाला बन गई है।"

इसके बाद भोलानाथ चन्द्र ने 1874 में शम्भुचन्द्र मुखोपाध्याय द्वारा प्रवर्तित "मुखर्जीज़ मैग्जीन" में स्वदेशी का नारा दिया था। उन्होंने लिखा था-

किसी प्रकार का शारीरिक बलप्रयोग न करके राजानुगत्य अस्वीकार न करते हुए तथा किसी नए कानून के लिए प्रार्थना न करते हुए भी हम अपनी पूर्वसम्पदा लौटा सकते हैं। जहाँ स्थिति चरम में पहुँच जाए, वहाँ एकमात्र नहीं तो सबसे अधिक कारगर अस्त्र नैतिक शत्रुता होगी। इस अस्त्र को अपनाना कोई अपराध नहीं है। आइए हम सब लोग यह संकल्प करें कि विदेशी वस्तु नहीं खरीदेंगे। हमें हर समय यह स्मरण रखना चाहिए कि भारत की उन्नति भारतीयों के द्वारा ही सम्भव है।

जुलाई, सन १९०३ की सरस्वती पत्रिका में 'स्वदेशी वस्त्र का स्वीकार' शीर्षक से एक कविता छपी। रचनाकार का नाम नहीं था किन्तु वर्ष भर के अंकों की सूची से ज्ञात होता है कि वह पत्रिका के सम्पादक महावीर प्रसाद द्विवेदी की रचना थी। कविता का कुछ अंश उद्दृत है-

विदेशी वस्त्र हम क्यों ले रहे हैं?वृथा धन देश का क्यों दे रहे हैं?न सूझै है अरे भारत भिखारी!गई है हाय तेरी बुद्धि मारी!हजारों लोग भूखों मर रहे हैं;पड़े वे आज या कल कर रहे हैं।इधर तू मंजु मलमल ढ़ूढता है!न इससे और बढ़कर मूढ़ता है।महा अन्याय हाहा हो रहा है;कहैं क्या नहीं जाता कुछ कहा है।मरैं असग़ार बिसेसर और काली;भरैं घर ग्राण्ट ग्राहम और राली। स्वदेशी वस्त्र की हमको बड़ाई,विदेशी लाट ने भी है सुनाई।न तिस पर भी हमे जो लाज आवै,किया क्या हाय रे जगदीश! जावै।न काशी और चन्देरी हमारी;न ढाका, नागपुर नगरी बिचारी।गयी है नष्ट हो; जो देश भाई!दया उनकी तुम्हें कुछ भी न आई।अकेला एक लुधियाना हमारा;चला सकता अभी है काम सारा। फिरैं, तिस पर, भला, जो और के द्वार;हमें, फिर, क्यों नहीं सौ बार धिक्कार?स्वदेशी वस्त्र का स्वीकार कीजै,विनय इतना हमारा मान लीजै।शपथ करके विदेशी वस्त्रा त्यागो;न जावो पास, उससे दूर भागो।अरे भाई! अरे प्यारे! सुनो बात,स्वदेशी वस्त्र से शोभित करो गात।वृथा क्यों फूंकते हो देश का दाम,करो मत और अपना नाम बदनाम!

'स्वदेशी' का विचार कांग्रेस के जन्म से पहले ही दे दिया गया था। जब 1905 ई. में बंग-भंग हुआ, तब स्वदेशी का नारा जोरों से अपनाया गया। उसी वर्ष कांग्रेस ने भी इसके पक्ष में मत प्रकट किया। देशी पूँजीपति उस समय मिलें खोल रहे थे, इसलिए स्वदेशी आन्दोलन उनके लिए बड़ा ही लाभदायक सिद्ध हुआ।

इन्हीं दिनों जापान ने रूस पर विजय प्राप्त की। उसका असर सारे पूर्वी देशों पर हुआ। भारत में बंग-भंग के विरोध में सभाएँ तो हो ही रही थीं। अब विदेशी वस्तु बहिष्कार आन्दोलन ने भी बल पकड़ा। वंदे मातरम् इस युग का महामन्त्र बना। 1906 के 14 और 15 अप्रैल को स्वदेशी आन्दोलन के गढ़ वारीसाल में बंगीय प्रादेशिक सम्मेलन होने का निश्चय हुआ। यद्यपि इस समय वारीसाल में बहुत कुछ दुर्भिक्ष की हालत थी, फिर भी जनता ने अपने नेता अश्विनी कुमार दत्त आदि को धन जन से इस सम्मेलन के लिए सहायता दी। उन दिनों सार्वजनिक रूप से "वन्दे मातरम्" का नारा लगाना गैर कानूनी बन चुका था और कई युवकों को नारा लगाने पर बेंत लगाने के अलावा अन्य सजाएँ भी मिली थीं। जिला प्रशासन ने स्वागतसमिति पर यह शर्त लगाई कि प्रतिनिधियों का स्वागत करते समय किसी हालत में "वन्दे मातरम्" का नारा नहीं लगाया जायेगा। स्वागत समिति ने इसे मान लिया। किन्तु उग्र दल ने इसे स्वीकार नहीं किया। जो लोग "वन्दे मातरम्" का नारा नहीं लगा रहे थे, वे भी उसका बैज लगाए हुए थे। ज्यों ही प्रतिनिधि सभास्थल में जाने को निकले त्यों ही उन पर पुलिस टूट पड़ी और लाठियों की वर्षा होने लगी। सुरेन्द्र नाथ बनर्जी गिरफ्तार कर लिए गए। उन पर 200 रुपया जुर्माना हुआ। वह जुर्माना देकर सभास्थल पहुँचे। सभा में पहले ही पुलिस के अत्याचारों की कहानी सुनाई गई। पहले दिन किसी तरह अधिवेशन हुआ, पर अगले दिन पुलिस कप्तान ने आकर कहा कि यदि "वन्दे मातरम्" का नारा लगाया गया तो सभा बन्द कर दी जायेगी। लोग इस पर राजी नहीं हुए, इसलिए अधिवेशन यहीं समाप्त हो गया। पर उससे जनता में और जोश बढ़ा।

स्वदेशी आंदोलन क्या है और वर्तमान समय में स्वदेशी आंदोलन की प्रासंगिकता क्या है? - svadeshee aandolan kya hai aur vartamaan samay mein svadeshee aandolan kee praasangikata kya hai?

३० जुलाई १९२१ को 'द बॉम्बे क्रोनिकल' में "विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार" का विज्ञापन

लोकमान्य तिलक और गणेश श्रीकृष्ण खापर्डे भी इस सम्बन्ध में कलकत्ता पहुँचे और बंगाल में भी शिवाजी उत्सव का प्रवर्तन किया गया। रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने इसी अवसर पर 'शिवाजी' शीर्षक से प्रसिद्ध कविता लिखी। 10 जून को तीस हजार कलकत्तावासियों ने लोकमान्य तिलक का विराट जुलूस निकाला। इन्हीं दिनों बंगाल में बहुत से नये समाचार पत्र निकले, जिनमें "वन्दे मातरम्" और "युगान्तर" प्रसिद्ध हैं।

इसी आन्दोलन के दौरान विदेशी वस्त्रों की दुकानों पर पिकेटिंग शुरू हुई। अनुशीलन समितियाँ बनीं जो दबाये जाने के कारण क्रान्तिकारी समितियों में परिणत हो गयीं। अरविन्द के छोटे भाई वारींद्र कुमार घोष ने बंगाल में क्रांतिकारी दल स्थापित किया। इसी दल की ओर से खुदीराम बोस ने जज किंग्सफोर्ड के धोखे में कैनेडी परिवार को मार डाला, कन्हाईलाल ने जेल के अन्दर मुखबिर नरेन्द्र गोसाई को मारा और अन्त में वारीद्र स्वयं अलीपुर षड्यन्त्र में गिरफ्तार हुए। उनको तथा तथा उनके साथियों को लम्बी सजाएँ हुईं।

दिल्ली दरबार (1911) में बंग-भंग रद्द कर दिया गया, पर स्वदेशी आन्दोलन नहीं रुका। अपितु वह स्वतन्त्रता आन्दोलन में परिणत हो गया।

स्वतंत्रता के बाद स्वदेशी[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. क्रान्त, मदनलाल वर्मा (2006). स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास. 1 (1 संस्करण). नई दिल्ली: प्रवीण प्रकाशन. पृ॰ 84. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-7783-119-4. मूल से 14 अक्तूबर 2013 को पुरालेखित.

इन्हे भी देखें[संपादित करें]

  • भारतीय स्वतंत्रता संग्राम
  • खादी
  • स्वराज
  • सत्याग्रह
  • सर्वोदय
  • हिन्दू मेला
  • बंग-भंग
  • स्वदेशी जागरण मंच
  • राजीव दीक्षित
  • आत्मनिर्भर भारत

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

स्वदेशी आंदोलन से आप क्या समझते हैं उत्तर दीजिए?

भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का एक महत्वपूर्ण आन्दोलन, सफल रणनीति व दर्शन का था। 'स्वदेशी' का अर्थ है - 'अपने देश का'। इस रणनीति के लक्ष्य ब्रिटेन में बने माल का बहिष्कार करना तथा भारत में बने माल का अधिकाधिक प्रयोग करके साम्राज्यवादी ब्रिटेन को आर्थिक हानि पहुँचाना व भारत के लोगों के लिये रोजगार सृजन करना था।

स्वदेशी से आप क्या समझते हैं समकालीन समय में गांधी के स्वदेशी के विचार की प्रासंगिकता पर चर्चा करें?

राजनैतिक स्वदेशी अवधारणा- गांधी जी ने विदेशी सत्ता और उनकी राजव्यवस्था का विरोध समय-समय पर बड़े स्तर पर किया। उनके अनुसार सत्ता का विकेंद्रीकरण ही समाज का सही मायने में विकास कर सकता है। गांधी जी भारत के लिए एक लोककल्याणकारी स्वदेशी व्यवस्था को आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया है। जिसे “रामराज्य” के रूप में जाना जाता है।

स्वदेशी का क्या अर्थ है?

स्वदेशी का अर्थ है- 'अपने देश का' अथवा 'अपने देश में निर्मित'। वृहद अर्थ में किसी भौगोलिक क्षेत्र में जन्मी, निर्मित या कल्पित वस्तुओं, नीतियों, विचारों को स्वदेशी कहते हैं।

स्वदेशी आंदोलन की शुरुआत कब हुई?

7 अगस्त 1905स्वदेशी आन्दोलन / शुरू होने की तारीखnull