सिविल सेवा की स्थापना कब हुई थी? - sivil seva kee sthaapana kab huee thee?

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  • प्रश्न :

    भारत में सिविल सेवाओं के ऐतिहासिक विकास का कालक्रमानुसार वर्णन करते हुए भारतीय लोकतंत्र में सिविल सेवाओं की भूमिका स्पष्ट करें।

    28 Jul, 2017 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    उत्तर :

    राज्य द्वारा निर्मित विधियों को कार्यरूप में कार्यान्वित करने की ज़िम्मेदारी लोक सेवाओं/सिविल सेवाओं पर होती है अतः सिविल सेवाएँ प्रत्येक राज्य का आवश्यक अंग रही हैं।

    सिविल सेवाओं का विकासक्रम

    • प्राचीन भारत में यद्यपि आधुनिक अर्थ एवं आयाम वाली सिविल सेवा के स्पष्ट उदाहरण नहीं मिलते फिर भी तत्कालीन परिस्थितियों के अनुरूप सिविल सेवाओं का गठन किया गया था। मौर्य प्रशासन में सिविल सेवाओं का संकेत मिलता है, जिसमें ‘अध्यक्ष’, ‘राजुक’, ‘पण्याध्यक्ष’, ‘सीताध्यक्ष’ जैसे सिविल सेवा अधिकारी महत्त्वपूर्ण भूमिका में थे। मुगल काल के दौरान अकबर ने एक भूमि राजस्व प्रणाली प्रारंभ की जिसके कार्यान्वयन के लिये नए पदों का सृजन किया गया। 
    • भारत में सिविल सेवा के वर्तमान ढाँचे की शुरुआत लार्ड कार्नवालिस द्वारा की गई। कार्नवालिस ने इन सेवाओं को पेशेवर सेवाओं में परिवर्तित कर ब्रिटिश साम्राज्य की नीतियों को कार्यान्वित करने का उपकरण बनाया। 1857 में मैकाले समिति की सिफारिशों के आधार पर सिविल सेवाओं में चयन के लिये प्रतियोगी परीक्षा को लागू किया गया। 
    • स्वतंत्रता के बाद भारतीय सिविल सेवाओं को भारतीय लोकतांत्रिक एवं कल्याणकारी राज्य के आदर्शों को लागू करने का साधन बनाया गया। इन सेवाओं ने ‘स्टील फ्रेम’ की तरह कार्य करते हुए भारतीय एकता, अखंडता और संप्रभुता को अक्षुण्ण बनाने का कार्य किया।
    • वर्तमान में भारतीय सेवाओं की प्रकृति विनियामक के स्थान पर समन्वयक की हो गई है। सुशासन की बढ़ती मांगों, सिटिज़न चार्टर, सूचना का अधिकार, अधिकारों के प्रति जागरूकता, सेवा प्रदाता राज्य की अवधारणा आदि स्थितियों ने सिविल सेवाओं की तटस्थता, निष्पक्षता, वस्तुनिष्ठता और दक्षता में वृद्धि कर उसे समाजिक-आर्थिक न्याय की दिशा में उन्मुख किया है।

    भारतीय लोकतंत्र में सिविल सेवाओं की भूमिका

    • सिविल सेवा का सर्वप्रमुख कार्य राजनीतिक कार्यपालिका द्वारा निर्मित नीतियों को कार्यान्वित करना है।
    • सिविल सेवक राजनीतिक कार्यपालिका को नीति-निर्माण में परामर्श और तकनीकी सहायता प्रदान कर महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
    • राजनीतिक कार्यपालिका अथवा मंत्रियों द्वारा अपने कई अधिकारों का सिविल सेवकों को प्रत्यायोजन (delegation) कर दिया जाता है। अतः इन पर सिविल सेवक नियम और विनियम तैयार करते हैं।

    इस प्रकार, सिविल सेवक भारत में सामाजिक समानता व आर्थिक विकास जैसे कल्याणकारी लक्ष्यों तथा नीति निदेशक तत्त्वों में उल्लिखित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये मुख्य उपकरण सिद्ध हुए हैं जिससे भारत एक सशक्त एवं मज़बूत लोकतंत्र के रूप में उभरा है।

    लार्ड कार्नवालिस (गवर्नर-जनरल, 1786-93) पहला गवर्नर-जनरल था, जिसने भारत में इन सेवाओं को प्रारंभ किया तथा उन्हें संगठित किया। उसने भ्रष्टाचार को रोकने के लिये निम्न कदम उठाये-

    • वेतन में वृद्धि।
    • निजी व्यापार पर पूर्ण प्रतिबंध।
    • अधिकारियों द्वारा रिश्वत एवं उपहार इत्यादि लेने पर पूर्ण प्रतिबंध।
    • वरिष्ठता (seniority) के अधर पर तरक्की (Promotion) दिए जाने को प्रोत्साहन।

    वर्ष 1800 में, वैलेजली (गवर्नर-जनरल, 1798-1805) ने प्रशासन के नये अधिकारियों को प्रशिक्षण देने हेतु फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना की। वर्ष 1806 में कोर्ट आफ डायरेक्टर्स ने वैलेजली के इस कालेज की मान्यता रद्द कर दी तथा इसके स्थान पर इंग्लैण्ड के हैलीबरी (Haileybury) में नव-नियुक्त अधिकारियों के प्रशिक्षण हेतु ईस्ट इंडिया कॉलेज की स्थापना की गयी। यहां भारत में नियुक्ति से पूर्व इन नवनियुक्त प्रशासनिक सेवकों को दो वर्ष का प्रशिक्षण लेना पडता था।

    भारतीय सिविल सेवा अधिनियम 1861 -

    इस अधिनियम द्वारा कुछ पद अनुबद्ध सिविल सेवकों के लिये आरक्षित कर दिये गये किंतु यह व्यवस्था की गयी कि प्रशासनिक सेवाओं में भर्ती के लिये अंग्रेजी माध्यम से एक प्रवेश परीक्षा इंग्लैण्ड में आयोजित की जायेगी, जिसमें ग्रीक एवं लैटिन इत्यादि भाषाओं के विषय होगे। प्रारंभ में इस परीक्षा के लिये आयु 23 वर्ष थी।

    तदुपरांत यह 23 वर्ष से, 22 वर्ष (1860 में), फिर 21 वर्ष (1866 में) और  अंत में घटाकर 19 वर्ष (1878) में कर दी गयी। 1878-79 में, लार्ड लिटन ने वैधानिक सिविल सेवा (Statutory Civil Service) की योजना प्रस्तुत की। इस योजना के अनुसार, प्रशासन के 1/6 अनुबद्ध पद उच्च कुल के भारतीयों से भरे जाने थे। इन पदों के लिये प्रांतीय सरकारें सिफारिश करती तथा वायसराय एवं भारत-सचिव की अनुमति के पश्चात उम्मीदवारों की नियुक्ति कर दी जाती।

    इनकी पदवी और वेतन संश्रावित सेवा से कम होता था। लेकिन यह वैधानिक सिविल सेवा असफल हो गयी तथा 8 वर्ष पश्चात इसे समाप्त कर दिया गया था। 1853 में अंग्रेजी संसद ने भारतीय सिविल सेवा में भर्ती होने हेतु एक प्रतियोगी परीक्षा आरम्भ की थी. इस परीक्षा में भारतीयों को भी बैठने की अनुमति थी, पर अनेक अवरोधों के चलते भारतीय लोगों के लिए यह परीक्षा देना कठिन था. इसके निम्नलिखित कारण थे –

    • एक तो परीक्षा भारत में नहीं, लन्दन जाकर देना पड़ता था.
    • पाठ्यक्रम भी कुछ ऐसा था जो भारतीयों के समझ के परे था. पाठ्यक्रम में यूनानी, लैटिन और अंग्रेजी भाषाओं के ज्ञान पर बल दिया जाता था.
    • परीक्षा देने के लिए अधिकतम आयु-सीमा कम थी.
    • सिविल सेवा अधिनियम, 1861 के अनुसार हर वर्ष लन्दन में सिविल सेवा परीक्षा आयोजित की जानी थी.
    • इसमें निर्धारित किया गया था कोई भी व्यक्ति, चाहे भारतीय हो या यूरोपीय किसी भी कार्यालय के लिए नियुक्त किया जा सकता है बशर्ते वह भारत मेंन्यूनतम 7 साल तक रहा हो.
    • अभ्यर्थी को उस जिले की स्थानीय भाषा में परीक्षा उत्तीर्ण करनी होती थी जहाँ पर वह कार्यरत होता था.
    • 1863 में, सत्येंद्र नाथ टैगोर ने इंडियन सिविल सर्विस में सफलता पाने वाले प्रथम भारतीय होने का गौरव प्राप्त किया।

    भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की मांग 1885 में अपनी स्थापना के पश्चात कांग्रेस ने मांग की कि-

    • इन सेवाओं में प्रवेश के लिये आयु में वृद्धि की जाये। तथा
    • इन परीक्षाओं का आयोजन क्रमशः ब्रिटेन एवं भारत दोनों स्थानों में किया जाये।

    लोक सेवाओं पर एचिसन कमेटी, 1886 (Aitchison Committee on Public Services, 1886) इस कमेटी का गठन डफरिन ने 1886 में किया। इस समिति ने निम्न सिफारिशें की-

    • इन सेवाओं में अनुबद्ध (Covenanted) एवं अ-अनुबद्ध (uncovenanted) शब्दों को समाप्त किया जाये।
    • सिविल सेवाओं में आयु सीमा को बढ़ाकर 23 वर्ष कर दिया जाये। 1893 में, इंग्लैण्ड के हाऊस आफ कामन्स में यह प्रस्ताव पारित किया गया की इन सेवाओं के लिए प्रवेश परीक्षाओं का आयोजन अब क्रमशः इंग्लैंड एवं भारत दोनों स्थानों में किया जायेगा। किंतु इस प्रस्ताव को कभी कार्यान्वित नहीं किया गया। भारत सचिव किम्बरले ने कहा कि “सिविल सेवाओं में पर्याप्त संख्या में यूरोपीयों का होना आवश्यक है। यह एक ऐसा मुद्दा है, जिसे त्यागा नहीं जा सकता”।
    • सिविल सेवाओं को तीन भागों में वर्गीकृत किया जाये-
      1. सिविल सेवाः इसके लिये प्रवेश परीक्षायें इंग्लैण्ड में आयोजित की जायें।
      2. प्रांतीय सिविल सेवाः इसके लिये प्रवेश परीक्षायें भारत में आयोजित की जाये।
      3. अधीनस्थ सिविल सेवाः इसके लिये भी प्रवेश परीक्षायें भारत में आयोजित की जाये।

    मोंट-फोर्ड सुधार मोंटेगू-चेम्सफोर्ड सुधार या अधिक संक्षेप में मोंट-फोर्ड सुधार के रूप में जाना जाते, भारत में ब्रिटिश सरकार द्वार धीरे-धीरे भारत को स्वराज्य संस्थान का दर्ज़ा देने के लिए पेश किये गए सुधार थे। सुधारों का नाम प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारत के राज्य सचिव एडविन सेमुअल मोंटेगू, 1916 और 1921 के बीच भारत के वायसराय रहे लॉर्ड चेम्सफोर्ड के नाम पर पड़ा। इसे भारत सरकार अधिनियम का आधार 1919 की आधार पर बनाया गया था। इन सुधारों में-

    • इस अधिनियम के द्वारा केंद्र प्रांतों के बीच शक्तियों के दायित्व को स्पष्ट रूप से बांट दिए गए।
    • प्रतिरक्षा, विदेशी मामले, रेलवे, मुद्रा, वाणिज्य,संचार, अखिल भारतीय सेवाएं केंद्र सरकार को सौंप दिया।
    • प्रांत विषयों को दो श्रेणियां में बांट दिया। पहला रक्षित और दूसरा हस्तांतरित। भूमि राजस्व न्याय, पुलिस, जेल, इत्यादि को रक्षित श्रेणी में रखा गया।
    • कृषि, उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि को स्थानांतरित क्षेत्र में रखा गया। रक्षित श्रेणी के कारण प्रांतों में दोहरे शासन की व्यवस्था आरंभ हुई।
    • इस नीति की घोषणा की गयी कि-“यदि भारत में उत्तरदायी सरकार की स्थापना होती है तो लोक सेवाओं में ज्यादा से ज्यादा भारतीय नियुक्त हो सकेंगे, जो भारतीयों के हित में होगा”।
    • इसने भी सिविल सेवा की प्रवेश परीक्षा का आयोजन क्रमशः इंग्लैण्ड एवं भारत में कराने की सिफारिश की।
    • इसने प्रशासनिक सेवा के एक-तिहाई पदों को केवल भारतीयों से भरे जाने की सिफारिश की तथा इसे प्रतिवर्ष 1.5 प्रतिशत की दर से बढ़ाने का सुझाव दिया।

    ली आयोग द्वारा की गई शिफ़ारिशें-

    • भारत सचिव को ही- भारतीय सिविल सेवा, सिंचाई विभाग के इंजीनियरों, तथा भारतीय वन सेवा इत्यादि में नियुक्तियों की प्रक्रिया जारी रखनी चाहिये।
    • स्थानांतरित क्षेत्रों यथा- शिक्षा एवं लोक स्वास्थ्य सेवाओं में नियुक्तियों का दायित्व प्रांतीय सरकारों को दे दिया जाये।
    • इंडियन सिविल सर्विसेज में भारतीयों एवं यूरोपियों की भागेदारी 50:50 के अनुपात में हो तथा भारतीयों को 15 वर्ष में यह अनुपात प्राप्त करने की व्यवस्था की जाये।
    • अतिशीघ्र एक लोक सेवा आयोग का गठन किया जाये (1919 के भारत सरकार अधिनियम में भी इसकी सिफारिश की गयी थी)।

    भारतीय पुलिस का इतिहास:

    ववर्तमान पुलिस शासन की रूपरेखा का जन्मदाता लार्ड कार्नवालिस था। वर्तमान काल में हमारे देश में अपराधनिरोध संबंधी कार्य की इकाई, जिसका दायित्व पुलिस पर है, थाना अथवा पुलिस स्टेशन है। थाने में नियुक्त अधिकारी एवं कर्मचारियों द्वारा इन दायित्वों का पालन होता है। सन् 1861 के पुलिस ऐक्ट के आधार पर पुलिस शासन प्रत्येक प्रदेश में स्थापित है।

    इसके अंतर्गत प्रदेश में महानिरीक्षक की अध्यक्षता में और उपमहानिरीक्षकों के निरीक्षण में जनपदीय पुलिस शासन स्थापित है। प्रत्येक जनपद में सुपरिटेंडेंट पुलिस के संचालन में पुलिस कार्य करती है। सन् 1861 के ऐक्ट के अनुसार जिलाधीश को जनपद के अपराध संबंधी शासन का प्रमुख और उस रूप में जनपदीय पुलिस के कार्यों का निर्देशक माना गया है।

    लार्ड विलियम बैंटिक, गवर्नर-जनरल 1828-35 लार्ड विलियम बैंटिक द्वारा पुलिस अधीक (S.P) के कार्यालय को समाप्त कर दिया गया। अब यह व्यवस्था की गयी कि जिले का कलेक्टर या दंडाधिकारी (मजिस्ट्रेट) पुलिस विभाग का प्रमुख तथा प्रत्येक संभाग (Division) का आयुक्त, (commissioner) पुलिस अधीक्षक के पद का दायित्व भी निभायेगा। 

    इस व्यवस्था के कारण अनेक दुष्प्रभाव उत्पन्न हो गए। जैसे पुलिस बल का संगठन दुर्बल हो गया तथा जिला दंडाधिकारी कार्य के बोझ से दब गये। जिसके बाद सबसे पहले  प्रेसीडेंसी नगरों में जिला दंडाधिकारियों एवं कलेक्टरों के कार्यों को अलग-अलग  किया गया।

    यह भी पढ़ें: यूपीएससी पद – सिविल सेवा के प्रकार (UPSC Posts – Types of Civil Services)

    भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 

    इस अधिनियम में पुलिस बल को गठित करने, पुलिस बल द्वारा अपराधों को रोकने की शक्ति, तथा पुलिस बल के सदस्यों द्वारा कर्तव्य के उल्लंघन के किए उनको दिये जाने वाले द्ण्ड के सम्बन्ध में प्रावधान किया गया हैं। 1860 में पुलिस आयोग की सिफारिशों से भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 बना। इस आयोग ने निम्न सिफारिशें कीं-

    • नागरिक पुलिस वाहिनी की व्यवस्था- यह गांवों की वर्तमान चौकसी व्यवस्था को संचालित करेगा (गांवों में चौकीदार यह कार्य करता था) तथा इसका अन्य पुलिस वाहनियों से प्रत्यक्ष संबंध होगा।
    • प्रांतों में पुलिस महानिदेशक (Inspector-General) पूरे प्रांत के पुलिस विभाग का प्रमुख होगा। उप-महानिदेशक (Deputy-Inspector General) रेंज के एवं पुलिस अधीक्षक (S.P) जिले के पुलिस प्रमुख होंगे।

    पुलिस विभाग को सुसंगठित रूप प्रदान करने से विभिन्न आपराधिक गतिविधियों यथा-डकैती, चोरी, हत्या, ठगी इत्यादि में धीरे-धीरे कमी आने लगी लेकिन विभिन्न अपराधों की जांच-पड़ताल करने में साधारण जनता से पुलिस का व्यवहार अशोभनीय होता था। सरकार ने राष्ट्रीय आंदोलन के दमन में भी पुलिस का भरपूर दुरुपयोग किया।

    अंग्रेजों ने अखिल भारतीय स्तर पर पुलिस व्यवस्था की स्थापना नहीं की। 1861 के पुलिस अधिनियम में केवल प्रांतीय स्तर पर ही पुलिस विभाग के गठन से संबंधित दिशा-निर्देश थे। 1902 में, पुलिस आयोग ने केंद्र में केंद्रीय जांच ब्यूरो (central intelligence bureau, CBI) एवं प्रान्तों में सी. आई. दी. (criminal investigation department) की स्थापना की सिफारिश की।

    1853 का चार्टर एक्ट

    इस एक्ट के द्वारा नियुक्तियों के मामले में डायरेक्टरों का संरक्षण समाप्त हो गया तथा सभी नियुक्तियां एक प्रतियोगी परीक्षा के द्वारा की जाने लगीं जिसमें किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं रखा गया। कंपनी के उच्च पदों में नियुक्ति के लिये प्रारंभ से ही भारतीयों के लिये द्वार पूर्णतया बंद थे। कार्नवालिस का विचार था कि “हिन्दुस्तान का प्रत्येक नागरिक भ्रष्ट है।”

    1793 के चार्टर एक्ट द्वारा 500 पाउंड वार्षिक आय वाले सभी पद, कंपनी के अनुबद्ध अधिकारियों (Covenanted Servents) के लिये आरक्षित कर दिये गये थे। कंपनी के प्रशासनिक पदों से भारतीयों को पृथक रखने के निम्न कारण थे-

    • अंग्रेजों का यह विश्वास कि ब्रिटिश हितों को पूरा करने के लिये अंग्रेजों को ही प्रशासन का दायित्व संभालना चाहिये।
    • अंग्रेजों की यह धारणा कि भारतीय, ब्रिटिश हितों के प्रति अयोग्य, अविश्वसनीय एवं असंवेदनशील हैं।
    • यह धारणा कि जब इन पदों के लिये यूरोपीय ही पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं तथा उनके बीच ही इन पदों को प्राप्त करने हेतु कड़ी प्रतिस्पर्धा है, तब ये पद भारतीयों को क्यों दिये जायें।

    यद्यपि 1833 के चार्टर एक्ट द्वारा कंपनी के पदों हेतु भारतीयों के लिये भी प्रवेश के द्वार खोल दिये गये किंतु वास्तव में कभी भी इस प्रावधान का पालन नहीं किया गया। 1857 के पश्चात, 1858 में साम्राज्ञी विक्टोरिया की घोषणा में यह आश्वासन दिया गया कि सरकार सिविल सेवाओं में नियुक्ति के लिये रंग के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करेगी तथा सभी भारतीय स्वतंत्रतापूर्वक अपनी योग्यतानुसार प्रशासनिक पदों को प्राप्त करने में सक्षम होगे।

    किंतु इस घोषणा के पश्चात भी सभी उच्च प्रशासनिक पद केवल अंग्रेजों के लिये ही सुरक्षित रहे। भारतीयों को फुसलाने एवं समानता के सिद्धांत का दिखावा करने के लिए डिप्टी मैजिस्ट्रेट तथा डिप्टी कलेक्टर के पद सृजित कर दिये गये, जिससे भारतीयों को लगा कि वे इन पदों को प्राप्त कर सकते हैं किंतु स्थिति ज्यों की त्यों बनी रही।

    भारत में सिविल सेवा की शुरुआत कब हुआ था?

    भारत में सिविल सेवा के वर्तमान ढाँचे की शुरुआत लार्ड कार्नवालिस द्वारा की गई। कार्नवालिस ने इन सेवाओं को पेशेवर सेवाओं में परिवर्तित कर ब्रिटिश साम्राज्य की नीतियों को कार्यान्वित करने का उपकरण बनाया। 1857 में मैकाले समिति की सिफारिशों के आधार पर सिविल सेवाओं में चयन के लिये प्रतियोगी परीक्षा को लागू किया गया।

    भारत में सिविल सेवक का पिता कौन है?

    उनके प्रयासों के लिए, चार्ल्स कॉर्नवालिस को 'भारत में सिविल सेवा के जनक' के रूप में जाना जाता है।

    भारतीय सिविल सेवा में सर्वप्रथम किसका चयन हुआ था?

    इंडियन सिविल सर्विस के लिए चुने जाने वाले पहले भारतीय सत्येंद्रनाथ टैगोर हैं। 1832 में भारतीयों के लिए मुंसिफ और सदर अमीन पद बनाए गए और इसी पद पर भारतीयों को नियुक्त किया जाना शुरू किया गया। इससे पहले ब्रिटिश राज में पहले केवल अंग्रेजों का ही चयन होता था