सुदामा जी के गांव का नाम क्या है? - sudaama jee ke gaanv ka naam kya hai?

पोरबंदर। पूरे भारत में केवल दो ही स्थान हैं, जहां कृष्ण-सुदामा मंदिर है। मित्रता को समर्पित इन मंदिरों में से एक गुजरात के पोरबंदर में और दूसरा मध्यप्रदेश के उज्जैन के पास नारायणधाम में है। दोनों ही स्थानों को अब इस तरह से विकसित किया जा रहा है कि लोग यहां आकर दोस्ती के सच्चे अर्थ को समझें। सुदामा मंदिर का कायापलट…

पोरबंदर में देश का एकमात्र सुदामा मंदिर है। इस कारण पोरबंदर को एक अलग ही पहचान मिली है। अब इस मंदिर का कायापलट 65 लाख रुपए की लागत से किया जा रहा है। हाल ही में इस मंदिर में कृष्ण-सुदामा की प्रतिमा का अनावरण जिला कलेक्टर ने किया। पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए मंदिर के आंगन में नीली चादर बिछाई गई है। अब इस मंदिर में पांव रखते ही पर्यटकों को एक आनंद की अनुभूति होती है। मंदिर के चारों तरफ झिलमिलाती रोशनी की चुस्त व्यवस्था की गई है। वॉल फाउंटेन का भी निर्माण किया गया है। बच्चों के लिए झूले आदि की भी व्यवस्था की गई है।

5 फीट की प्रतिमा पर साढ़े तीन लाख का खर्च

सुदामा मंदिर में आते ही पर्यटकों को कृष्ण-सुदामा की मित्रता के वे क्षण याद आएं, इसलिए मंदिर के आंगन में साढ़े तीन लाख रुपए खर्च कर कृष्ण-सुदामा की 5 फीट ऊंची प्रतिमा स्थापित की गई है। मंदिर परिसर में कृष्ण-सुदामा के आकर्षक चित्र भी लगाए गए हैं।

कृष्ण-सुदामा की दोस्ती का समर्पित है नारायणधाम का मंदिर

भारत में ऐसे न जाने कितने कृष्ण मंदिर हैं जहां कि अपनी अलग विशेषता है। ऐसा ही एक मंदिर मध्य प्रदेश के उज्जैन से कुछ दूरी पर स्थित है। इस मंदिर को नारायण धाम के रूप में जाना जाता है। यह मंदिर कृष्ण और उनके बाल सखा सुदामा की दोस्ती को समर्पित है। मंदिर में स्थापित भगवान श्रीकृष्ण व सुदामा की प्रतिमा

ये है मंदिर का महत्व

भगवान श्रीकृष्ण शिक्षा ग्रहण करने उज्जैन स्थित गुरु सांदीपनि के आश्रम में आए थे, ये बात तो सभी जानते हैं। यहां उनकी मित्रता सुदामा नाम के गरीब ब्राह्मण से हुई थी। श्रीमद्भागवत के अनुसार एक दिन गुरु माता ने श्रीकृष्ण व सुदामा को लकडियां लाने के लिए भेजा। आश्रम लौटते समय तेज बारिश शुरू हो गई और श्रीकृष्ण-सुदामा ने एक स्थान पर रुक कर विश्राम किया। मान्यता है कि नारायण धाम वही स्थान है जहां श्रीकृष्ण व सुदामा बारिश से बचने के लिए रुके थे। इस मंदिर में दोनों ओर स्थित हरे-भरे पेड़ों के बारे में लोग कहते हैं कि ये पेड़ उन्हीं लकड़ियों के गट्ठर से फले-फूले हैं जो श्रीकृष्ण व सुदामा ने एकत्रित की थी।

सुदामा संग विराजे है कृष्ण

नारायण धाम मंदिर उज्जैन जिले की महिदपुर तहसील सेे करीब 9 किलोमीटर दूर स्थित है। यह भारतवर्ष में एक मात्र मंदिर है, जहां भगवान श्रीकृष्ण अपने मित्र सुदामा के साथ मूर्ति रूप में विराजित हैं। श्रीकृष्ण व सुदामा की मित्रता का प्रमाण नारायण धाम मंदिर में स्थित पेड़ों के रूप में आज भी देखा जा सकता है। मंदिर प्रबंध समिति व प्रशासन के सहयोग से अब इस मंदिर को मित्र स्थल के रूप में नई पहचान दी जा रही है।

द्वापर युग में जहां भगवान श्रीकृष्ण धन-समृद्धि से सुख भोग रहे थे, तो वहीं उनका एक मित्र भी था। जो बहुत गरीब था। श्रीकृष्ण के इस मित्र का नाम था 'सुदामा'। सुदामा से श्रीकृष्ण की मित्रता सांदीपनी ऋषि के आश्रम, उज्जैन में हुई थी। यह वह समय था जब कृष्ण और उनके बड़े भाई बलराम यहां शिक्षा ग्रहण करने के लिए आए थे।

श्रीमद्भागवत पुराण में श्रीकृष्ण और सुदामा का पूरी कथा का विस्तार से उल्लेख मिलता है। इसी पुराण के अनुसार, सुदामा गरीब ब्राह्मण थे। सुदामा की पत्नी सुशीला अपने पति से कहतीं, 'आप अपने अमीर मित्र कृष्ण से कुछ धन ले आओ ताकि हम सुख पूर्वक रह सकें।' लेकिन जन्म से संतोषी स्वभाव के सुदामा किसी से कुछ नहीं मांगते थे। इस तरह वह दरिद्रता में अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे।

तो क्या दो थे सुदामा

अंततः सुदामा, श्रीकृष्ण से द्वारिका में मिले और कृष्ण ने उनके परिवार को धन- धान्य से पूर्ण कर दिया था। श्रीमद्भागवत में उल्लेख में ही उल्लेखित है कि सुदामा नाम का एक और व्यक्ति था। वह मथुरा में रहता था।

तब कृष्ण तथा बलराम पहली बार मथुरा आए थे। वह वहां के सौंदर्य को देखकर काफी मोहित हो गए। उसी समय बलराम और कृष्ण सुदामा के घर गए। सुदामा से अनेक साज-सज्जा लेकर फूलों से उन्होंने साज-सज्जा की। और सुदामा को वर दिया, 'उसकी लक्ष्मी, बल, कीर्ति का हमेशा विकास होगा।'

वहीं सुदामा नाम का जिक्र सांदीपनी आश्रम के वर्णन में भी आता है, जहां बलराम-कृष्ण ने शिक्षा हासिल की थी। लेकिन श्रीकृष्ण के वास्तविक मित्र सांदीपनी आश्रम में मिले 'सुदामा' ही थे।

उज्जैन (अवंतिका) में स्थित ऋषि सांदीपनि के आश्रम में बचपन में भगवान श्रीकृष्ण और बलराम पढ़ते थे। वहां उनके कई मित्रों में से एक सुदामा भी थे। सुदामा के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है। कहते हैं कि सुदामा जी शिक्षा और दीक्षा के बाद अपने ग्राम अस्मावतीपुर (वर्तमान पोरबन्दर) में भिक्षा मांगकर अपना जीवनयापन करते थे।

सुदामा एक गरीब ब्राह्मण थे। विवाह के बाद वे अपनी पत्नी सुशीला और बच्चों को बताते रहते थे कि मेरे मित्र द्वारिका के राजा श्रीकृष्ण है जो बहुत ही उदार और परोपकारी हैं। यह सुनकर एक दिन उनकी पत्नी ने डरते हुए उनसे कहा कि यदि आपने मित्र साक्षात लक्ष्मीपति हैं और उदार हैं तो आप क्यों नहीं उनके पास जाते हैं। वे निश्‍चित ही आपको प्रचूर धन देंगे जिससे हमारी कष्टमय गृहस्थी में थोड़ा बहुत तो सुख आ जाएगा।

सुदामा संकोचवश पहले तो बहुत मना करते रहे लेकिन पत्नी के आग्रह पर एक दिन वे कई दिनों की यात्रा करके द्वारिका पहुंच गए। द्वारिका में द्वारपाल ने उन्हें रोका। मात्र एक ही फटे हुए वस्त्र को लपेट गरीब ब्राह्मण जानकर द्वारपाल ने उसे प्रणाम कर यहां आने का आशय पूछा। जब सुदामा ने द्वारपाल को बताया कि मैं श्रीकृष्ण को मित्र हूं दो द्वारपाल को आश्चर्य हुआ। फिर भी उसने नियमानुसर सुमादाजी को वहीं ठहरने का कहा और खुद महल में गया और श्रीकृष्ण से कहा, हे प्रभु को फटेहाल दीन और दुर्बल ब्राह्मण आपसे मिलना चाहता है जो आपको अपना मित्र बताकर अपना नाम सुदामा बतलाता है।

द्वारपाल के मुख से सुदामा नाम सुनकर प्रभु सुध बुध खोकर नंगे पैर ही द्वार की ओर दौड़ पड़े। उन्होंने सुदामा को देखते ही अपने हृदय से लगा लिया और प्रभु की आंखों से आंसू निकल पड़े। वे सुदामा को आदरपूर्वक अपने महल में ले गए।

महल में ले जाकर उन्हें सुंदर से आस पर बिठाया और रुक्मिणी संग उनके पैर धोये। कहते हैं कि प्रभु को उनके चरण धोने के जल की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। उनकी दीनता और दुर्बलता देखकर उनकी आंखों से आंसुओं की धार बहने लगी।

स्नान, भोजन आदि के बाद सुदामा को पलंग पर बिठाकर श्रीकृष्ण उनकी चरणसेवा करने लगे और गुरुकुल में बिताए दिनों की बातें करने लगे। बातों ही बातों में यह प्रसंग भी आया कि किस तरह दोनों मित्र वन में समिधा लेने गए थे और रास्ते में मूसलधार वर्षा होने लगी तो दोनों मित्रों एक वृक्ष पर चढ़कर बैठ गए। सुदामा के पास एक पोटली में दोनों के खाने के लिए गुरुमाता के दिए कुछ चने थे। किंतु वृक्ष पर सुदामा अकेले ही चने खाने लगे। चने खाने की आवाज सुनकर श्रीकृष्ण ने पूता कि क्या खा रहे हैं सखा? सुदामा ने यह सोचकर झूठ बोल दिया कि कुछ चने कृष्ण को भी देने पड़ेंगे। उन्होंने कहा, कुछ खा नहीं रहा हूं। यह तो ठंड के मारे मेरे दांत कड़कड़ा रहे हैं।

इस प्रसंग के दौरान ही श्रीकृष्ण ने पूछा, भाभी ने मेरे लिए कुछ तो भेजा होगा? सुदामा संकोचवश एक पोटली छिपा रहे थे। भगवान मन में हंसते हैं कि उस दिन चने छिपाए थे और आज तन्दुल छिपा रहा है। फिर भगवान ने सोचा कि जो मुझे कुछ नहीं देता मैं भी उससे कुछ नहीं देता लेकिन मेरा भक्त है तो अब इससे छीनना ही पड़ेगा। तब उन्होंने तन्दुल की पोटली छीन ली और सुदामा के प्रारब्ध कर्मों को क्षीण करने के हेतु तन्दुल को बेहद चाव से खाया था।

फिर सुदामा ने अपने परिवार आदि के बारे में तो बताया लेकिन अपनी दरिद्रा के बारे में कुछ नहीं बताया। अंत में प्रभु ने सुदामा को सुंदर शय्या पर सुलाया। फिर दूसरे दिन भरपेट भोजन कराने के बाद सुदामा को विदाई दी। किंतु विदाई के दौरान उन्हें कुछ भी नहीं दिया। रास्तेभर सुदामा सोचते रहे कि हो सकता है कि उन्हें इसी कारण से धन नहीं दिया गया होगा कि कहीं उनमें अहंकार न आ जाए। यह विचार करते करते सुदाम अपने मन को समझाते हुए जब घर पहुंचे तो देखा, उनकी कुटिया के स्थान पर एक भव्य महल खड़ा है और उनकी पत्नी स्वर्णाभूषणों से लदी हुई तथा सेविकाओं से घिरी हुई हैं। यह दृश्य देखकर सुदामा की आंखों से आंसू निकल आया और वे सदा के लिए श्री कृष्ण की कृपा से अभिभूत होकर उनकी भक्ति में लग गए। जय श्रीकृष्णा।

सुदामा कौन से गांव के रहने वाले थे?

सुदामा पोरबंदर के रहने वाले थे। कहानी में उन्होंने सुदामापुरी से बेयत द्वारका की यात्रा की। सुदामा और कृष्ण ने उज्जयिनी के सान्दीपनि आश्रम में एक साथ अध्ययन किया था।

सुदामा की नगरी का नाम क्या है?

मुख्य द्वारिका में सुदामा जी निवास करते थे और भेंट द्वारिका जहां प्रभु श्री कृष्ण अपनी पटरानियों सहित निवास करते थे। इस जगह को गुजरात में बेट द्वारिका के नाम से जान जाता है।

सुदामा नगरी कहाँ पर है?

पूरे भारत में केवल दो ही स्थान हैं, जहां कृष्ण-सुदामा मंदिर है। मित्रता को समर्पित इन मंदिरों में से एक गुजरात के पोरबंदर में और दूसरा मध्यप्रदेश के उज्जैन के पास नारायणधाम में है। दोनों ही स्थानों को अब इस तरह से विकसित किया जा रहा है कि लोग यहां आकर दोस्ती के सच्चे अर्थ को समझें। सुदामा मंदिर का कायापलट…

सुदामा का जन्म कब और कहां हुआ?

सुदामा का जन्म राक्षसराज दम्भ के यहां शंखचूण के रूप में हुआ तथा विराजा का जन्म धर्मध्वज के यहां तुलसी के रूप में हुआ.