स्त्री शिक्षा के मार्ग में चार बाधाएं क्या है - stree shiksha ke maarg mein chaar baadhaen kya hai

बीएचयू की छात्राओं के आंदोलन ने देश की लड़कियों की शिक्षा के मार्ग की रुकावटों की ओर ध्यान खींचा है। वे छात्राएं समर्थ थीं कि आंदोलन कर सकीं। देश की लाखों लड़कियां अपनी आवाज नहीं उठा पाती हैं। छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में तो उन्हें कदम-कदम पर छींटाकशी, छेड़खानी और भेदभावपूर्ण व्यवहार बर्दाश्त करना पड़ता है। आए दिन छेड़खानी के कारण लड़कियों के स्कूल छोड़ देने की खबरें आती रहती हैं। सच्चाई यह है कि लड़कियों की शिक्षा के मार्ग में दो बड़ी बाधाएं हैं: शौचालय और सुरक्षा की कमी। हाल के कई सर्वेक्षणों से साफ हुआ है कि लड़कियों द्वारा बीच में पढ़ाई छोड़ने का एक बड़ा कारण है स्कूलों में शौचालय न होना या खराब हालत में होना। इस वजह से कई लड़कियां स्कूल जाना बंद कर देती हैं, मगर इससे भी बड़ा मुदद्दा है सुरक्षा।

स्त्री शिक्षा के मार्ग में चार बाधाएं क्या है - stree shiksha ke maarg mein chaar baadhaen kya hai

गांव छोड़िए, शहरों में नगर निगम के कई स्कूलों में चहारदीवारी तक नहीं होती। वहां कोई कभी भी घुस सकता है। सोचिए, उसमें लड़कियां कैसे अपने को सुरक्षित महसूस करेंगी। लड़कियां क्या, इस वजह से लड़के भी स्कूल नहीं आते। मेरे घर के पास कपड़े इस्तरी करने वाले ने अपने दो लड़कों को स्कूल जाने से इसी कारण रोक दिया। उसका कहना था कि स्कूल के आसपास के आवारा लड़के उसके बच्चों को गाली सिखाते हैं, मारपीट करते हैं। साफ है कि शिक्षा सिर्फ नारों से नहीं दी जा सकती। जब तक पर्याप्त इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित नहीं होगा, बच्चे नहीं आएंगे। शौचालय और सुरक्षा दोनों उपलब्ध कराना सरकार का ही काम है। हालांकि सुरक्षा का प्रश्न सिर्फ कानून-व्यवस्था से जुड़ा हुआ नहीं है। इस मामले में समाज को भी आगे आना होगा। अंतत: परिवारों में ही लड़कों को सिखाना होगा कि ले लड़कियों की इज्जत करें।

शिक्षा के क्षेत्र में गैर-बराबरी खत्म करने के विषय पर बोलने के लिए एडिनबर्ग से बेहतर और कोई स्थान नहीं हो सकता, क्योंकि यह एडम स्मिथ और डेविड ह्यूम की धरती है, जिन्होंने अपने समय में सबको शिक्षा मुहैया कराने की जबर्दस्त वकालत की थी। आखिर शिक्षा तक सबकी पहुंच के बीच जो बड़ा फासला है, उसे दूर करना इतना आवश्यक क्यों है? दरअसल, अन्य कई वजहों के साथ-साथ एक बड़ा कारण तो यही है कि इससे यह दुनिया अधिक सुरक्षित और न्यायपूर्ण बन सकेगी। यदि हम दुनिया की बड़ी आबादी को शिक्षा से वंचित रखेंगे, तो हम न सिर्फ इस धरती को न्याय से दूर रख रहे होंगे, बल्कि उसे ज्यादा से ज्यादा असुरक्षित भी बनाएंगे।

बुनियादी शिक्षा के प्रसार और प्रभावी विस्तार से इंसान के भीतर के असुरक्षा भाव को काफी कम किया जा सकता है। कुछ भी न पढ़ पाना, या लिख पाना या गिन पाना या फिर संवाद न कर पाना अपने आप में सबसे बड़ी दरिद्रता है। और असुरक्षा की सबसे चरम स्थिति ही यही है, जब अभाव सुनिश्चित दिखने लगे और भाग्य के बदलने की कोई उम्मीद बाकी नहीं रह जाए। स्कूली शिक्षा इस हताशा को काफी हद तक दूर कर सकती है।

बुनियादी शिक्षा जिंदगी को देखने का इंसानी नजरिया बदल सकती है। गरीब से गरीब परिवार भी अब इसकी अहमियत समझ रहे हैं और मैंने निजी तौर पर इसका अनुभव किया है। मैंने भारत में प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में हो रहे प्रयासों के कई अध्ययनों को करीब से परखा है। दरअसल 1998 में नोबेल सम्मान के साथ मिली राशि से मैंने भारत और बांग्लादेश में प्राथमिक शिक्षा व लैंगिक समानता के लिए काम करने वाली संस्था ‘प्रतिचि’ की शुरुआत की। इसके  अध्ययन में अद्भुत नतीजे देखने को मिले। हमने पाया कि गरीब से गरीब  अभिभावक भी अपने बच्चों को प्राथमिक शिक्षा देने को लालायित थे, ताकि वे उनकी तरह एक दयनीय जिंदगी की तरफ न बढ़ें।

सच्चाई यह है कि अक्सर पेश की जाने वाली दलीलों के उलट हमें कहीं यह देखने को नहीं मिला कि यदि पड़ोस के स्कूल के सुरक्षित माहौल में सस्ती व प्रभावी शिक्षा दी जा रही है, तो माता-पिता में अपने बच्चों को स्कूल भेजने को लेकर कोई हिचक हो, चाहे उनकी संतान बेटा हो या बेटी। निस्संदेह, अभिभावकों के सपनों की राह में कई बाधाएं हैं। अक्सर गरीब परिवारों की माली हालत अभिभावकों को अपने बच्चों को स्कूल भेजने से रोकती है। तब तो और, जब पढ़ाई के बदले कोई फीस देनी पड़े। अभिभावकों की इस आर्थिक अक्षमता को पूरी दुनिया से दूर करने की जरूरत है। मैं जानता हूं कि बाजार व्यवस्था के कुछ पैरोकार चाहते हैं कि स्कूल फीस तय करने का अधिकार बाजार के हवाले कर देना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं किया जा सकता, बल्कि यह सभी बच्चों को बुनियादी शिक्षा देने के सामाजिक दायित्व के विपरीत होगा।

प्राथमिक शिक्षा की राह में और भी कई तरह की बाधाएं हैं। कई बार तो इन स्कूलों में स्टाफ की भारी कमी देखने को मिलती है। विकासशील देशों के असंख्य प्राथमिक विद्यालयों में महज एक ही शिक्षक नियुक्त हैं। फिर माता-पिता स्कूल में बच्चों की हिफाजत को लेकर भी चिंतित रहते हैं, खासकर तब अधिक, जब स्कूल जाने वाली उनकी बेटी हो। शिक्षक का किन्हीं वजहों से स्कूल न पहुंच पाना उन्हें अधिक परेशान कर देता है। और हकीकत यही है कि प्राय: गरीब देशों में इस तरह की समस्या आती ही है। इसलिए अभिभावकों की इस चिंता को भी समझने की जरूरत है।

बेहद गरीब परिवार अक्सर सभी सदस्यों के श्रम योगदान पर निर्भर होते हैं और दुर्योग से इनमें बच्चों को भी गिना जाता है। स्कूली शिक्षा के अधिकार के जरिये इस स्थिति का मुकाबला किया जा सकता है। बाल श्रम जैसे दुर्भाग्यपूर्ण काम को कानून के साथ-साथ स्कूली शिक्षा को आर्थिक हितों से जोड़कर ही हतोत्साहित किया जा सकता है। शिक्षा लोगों को नौकरी दिलाने और उपयोगी रोजगार में काफी सहायक साबित हो सकती है। हमें जापान को देखना चाहिए। 1872 में जापान में द फंडामेंटल कोड ऑफ एजुकेशन इस प्रतिबद्धता के साथ लाया गया था कि यह सुनिश्चित किया जा सके कि देश में ‘कोई भी समुदाय ऐसा न रहे, जिसमें एक भी परिवार अशिक्षित हो और एक भी परिवार ऐसा न रहे, जिसका कोई सदस्य अनपढ़ रह जाए।’ इस तरह, शिक्षा के क्षेत्र में कायम खाई को मिटाने के साथ ही जापान के आर्थिक उदय की शुरुआत हुई। 1910 तक जापान लगभग पूर्ण साक्षर देश बन चुका था और आज आलम यह है कि जापान में ब्रिटेन की तुलना में कहीं अधिक किताबें प्रकाशित होती हैं, अमेरिका से तो दोगुनी पुस्तकें छपती हैं। शिक्षा के क्षेत्र में अपूर्व कामयाबी ने ही कमोबेश जापान के आर्थिक और सामाजिक अभ्युदय की दशा व दिशा तय की है।

बुनियादी शिक्षा सामान्य स्वास्थ्य समस्याओं के साथ-साथ आपात स्थितियों से निपटने में भी कारगर साबित हो सकती है। हम स्वास्थ्य संबंधी विशेष शिक्षा के महत्व को आसानी से समझ सकते हैं, लेकिन सामान्य शिक्षित व्यक्ति भी महामारी की स्थिति में सामाजिक जागरूकता पैदा करने में अहम साबित होता है। कई अध्ययनों ने इस बात की तस्दीक की है कि स्वास्थ्य शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय संस्थाओं की बनिस्बत सामान्य स्कूली शिक्षा का स्वास्थ्य पर कहीं अधिक प्रभाव देखने को मिलता है। फिर इस बात के पक्के सुबूत भी हमारे पास उपलब्ध हैं कि महिलाओं के शिक्षित होने और साक्षरता दर में वृद्धि ने शिशु मृत्यु दर पर सुखद असर डाला है।

बहरहाल, कॉमनवेल्थ संस्था का जन्म भाईचारा, एक-दूसरे पर भरोसा, आजादी व शांति की कामना जैसे श्रेष्ठ मानवीय सरोकारों के लिए हुआ है। इस समूह के देशों में भाईचारे व भरोसे की बहाली तथा आजादी व शांति के प्रति प्रतिबद्धता में प्राथमिक शिक्षा महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। इसके लिए हमें एक तरफ अपने सभी बच्चों को शिक्षा के अवसर मुहैया कराने होंगे, तो दूसरी तरफ विभिन्न पृष्ठभूमि से आए बच्चों को इस बात के लिए प्रेरित करना होगा कि वे अपने बारे में सोचें। बुनियादी शिक्षा बच्चों के कौशल को निखारने की व्यवस्था मात्र नहीं है, यह दुनिया के वैविध्य व समृद्धि को पहचानना भी है। आजादी व भाईचारे के महत्व को समझने और सराहने के लिए भी शिक्षा आवश्यक है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
कॉमनवेल्थ शिक्षा सम्मेलन में दिए गए ऐतिहासिक भाषण के संपादित अंश।

भारत में महिला शिक्षा की समस्याएं क्या क्या है?

गरीबी अशिक्षा रूढ़िवादिता, बालिकाओं के प्रति संकुचित एवं नकारात्मक दृष्टिकोण, नीरस पाठ्यक्रम, विद्यालय वातावरण, महिला शिक्षक का न होना, दोष पूर्ण परीक्षा प्रणाली परामर्श एवं निर्देशन का अभाव आदि बालिकाओं की शिक्षा में अपव्यय एवं अवरोधन के मुख्य कारण है।

भारत में शिक्षा की प्रमुख बाधाएं कौन कौन सी हैं?

समस्या.
मुख्य समस्या शासन की गुणवत्ता (Abysmal Quality of Governance) में कमी मानी गई है।.
शिक्षा प्रणाली "समावेशी" नहीं है।.
शिक्षक प्रबंधन, शिक्षक की शिक्षा और प्रशिक्षण, स्कूल प्रशासन और प्रबंधन के स्तर पर कमी।.
पाठ्यक्रमों में व्यावहारिकता की कमी।.
स्कूल स्तर के आँकड़ों की अविश्वसनीयता।.

भारत में बालिका शिक्षा की मुख्य समस्या क्या है?

3. पृथक बालिका विद्यालयों का अभाव देश में पृथक बालिका विद्यालयों की बहुत कमी है। देश के दो तिहाई से अधिक गांव ऐसे है जहां प्राथमिक शिक्षा के लिये भी कोई बालिका विद्यालय नहीं है । रूढ़िवादी परिवार की बालिकायें कन्या शालाओं के अभाव में शिक्षा लेने से वंचित रह जाती है।

स्त्री शिक्षा का अर्थ क्या है?

स्त्री शिक्षा स्त्री और शिक्षा को अनिवार्य रूप से जोड़ने वाली अवधारणा है। इसका एक रूप शिक्षा में स्त्रियों को पुरुषों की ही तरह शामिल करने से सम्बन्धित है। दूसरे रूप में यह स्त्रियों के लिए बनाई गई विशेष शिक्षा पद्धति को सन्दर्भित करता है।