संत सुजान से क्या तात्पर्य है? - sant sujaan se kya taatpary hai?

संत सुजान सिंह जी इंटरनेशनल स्कूल की स्थापना 5 अप्रैल 1999 के शुभ दिन पर की गई थी। इसकी स्थापना संत गुरुमुख सिंह जी ने एक नेक कार्य के लिए की थी और अपने पूजनीय पिता की स्मृति को बनाए रखने के लिए, एक प्रतिष्ठित संत के रूप में जाना जाता था, जिन्हें सन्त सुजान सिंह जी महरजत्ता संस्थान के रूप में जाना जाता है, जो मममा जी (श्रीमती प्रभजोत कौर) से बहुत प्यार और स्नेह करते हैं। जहां हम गतिशील योजना के आधार पर भविष्य के लिए कल की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए गतिशील भविष्य के आधार पर एक € ightbright भविष्य का लक्ष्य रखते हैं। € ™ हम प्रतिभा और सभी प्रकार की योग्यता की तलाश करते हैं और उत्कृष्टता के मानकों के लिए उन्हें बढ़ावा देते हैं। यह हमारे बच्चों के बौद्धिक और निर्माण की क्षमता का दोहन करने का हमारा निरंतर और अटूट प्रयास है। कई क्षेत्रों में फैले नैतिकता, चरित्र, अनुशासन, शैक्षणिक और वैज्ञानिक ज्ञान के संदर्भ में एक युवा बच्चे के विकास के लिए अच्छी शिक्षा अत्यंत आवश्यक है, बौद्धिक संकाय को बढ़ाने के लिए एक समर्पण और एक प्रोत्साहन और कैरियर के लिए एक पेशेवर योग्यता का निर्माण करना। वह रेखा जो प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वाद और अंतर्निहित वृत्ति के अनुसार एक विकासशील व्यक्तित्व की भावनाओं और तंत्रिकाओं में सन्निहित होता है। इस उद्देश्य और मिशन को ध्यान में रखते हुए, हमारा स्कूल बच्चे को कठिन और कठिन कार्य के लिए तैयार करता है। इस तरह भविष्य का रास्ता आसान हो जाता है और लक्ष्य प्राप्त होते हैं।

दोहे का हिंदी मीनिंग: यदि किसी व्यक्ति (नुगरे व्यक्ति को जो ईश्वर को नहीं मानता है ) सच्चा गुरु मिल जाए तो वह चारों खानी से व्यक्ति को छुड़ा सकता है। अच्छे और ज्ञानी गुरु की संगत से बुरा व्यक्ति भी नेक राह पर चलकर सुजान बन सकता है। क्योंकि गुरु उसे 'राम नाम' नाम का मन्त्र देता है जिससे वह चारों खानी (समस्त दुखों और संकटों ) से मुक्ति मिल जाती है। गुरु की पहचान के विषय में कबीर साहेब ने विस्तृत रूप से वर्णन किया है।

गुरु सो ज्ञान जु लीजिये, सीस दीजये दान।
बहुतक भोंदू बहि गये, सखि जीव अभिमान॥  

Guru So Gyaan Ju Leejiye, Sees Deejaye Daan.
Bahutak Bhondoo Bahi Gaye, Sakhi Jeev Abhimaan.

दोहे का हिंदी मीनिंग:  यदि गुरु से ज्ञान की प्राप्ति हो रही हो तो शीश का दान करके भी ज्ञान की प्राप्ति की जानी चाहिए। बहुत से भोंदू (मुर्ख व्यक्ति ) अपने अभिमान (तन, धन और रुतबे का ) के कारन से इस संसार से बह गए हैं (संसार से चले गए हैं ) लेकिन उन्हें ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुयी है। 

गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय।
कहैं कबीर सो संत हैं, आवागमन नसाय ॥

Guru Kee Aagya Aavai, Guru Kee Aagya Jaay.
Kahain Kabeer So Sant Hain, Aavaagaman Nasaay .

दोहे का हिंदी मीनिंग:  जीवन के सभी कार्य गुरु की आज्ञा के अनुसार ही करने चाहिए, गुरु की आज्ञा हो तो आये और गुरु की आज्ञा हो तो जाए। गुरु की आज्ञा का अनुसरण करने पर वह जीव को आवागमन के फेर (जन्म और मरण ) से मुक्त कर सकता है। 

गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त॥  

Guru Paaras Ko Antaro, Jaanat Hain Sab Sant.
Vah Loha Kanchan Kare, Ye Kari Laye Mahant.

दोहे का हिंदी मीनिंग:  गुरु और पारस पत्थर में बहुत ही अंतर् होता है। जैसे पारस पत्थर अपने संपर्क में आने  वाले पत्थर को सोने में बदल देता है, वैसे गुरु अपने संपर्क में आने वाले शिष्य को अपने समान कर लेता है। यह दोनों में मूल अंतर् होता है। अतः गुरु तो पारस पत्थर से भी श्रेष्ठ होता है।

नुगरा के अंग :
टेक न कीजै बाबरे, टेक माहि है हानि।
टेक छाङि मानक मिले, सदगुरू वचन प्रमान॥

टेक करै सो बाबरा, टेकै होवै हानि।
जा टेकै साहिब मिले, सोई टेक परमान॥

साकट संग न बैठिये, अपनो अंग लगाय।
तत्व सरीरां झङि पङै, पाप रहै लपटाय॥

साकट संग न बैठिये, करन कुबेर समान।
ताके संग न चालिये, पङिहै नरक निदान॥

साकट ब्राह्मन मति मिलो, वैस्नव मिलु चंडाल।
अंग भरै भरि बैठिये, मानो मिले दयाल॥

साकट सन का जेवरा, मीजै सो करराय।
दो अच्छर गुरू बाहिरा, बांधा जमपुर जाय॥

साकट से सूकर भला, सूचौ राखै गांव।
बूङौ साकट बापुरा, वाइस भरमी नांव॥

साकट हमरै कोऊ नहि, सबही वैस्नव झारि।
संशय ते साकट भया, कहैं कबीर विचारि॥

साकट ब्राह्मन सेवरा, चौथा जोगी जान।
इनको संग न कीजिये, होय भक्ति में हान॥

साकट संग न जाइये, दे मांगा मोहि दान।
प्रीत संगाती ना मिलै, छाङै नहि अभिमान॥

साकट नारी छांङिये, गनिका कीजै नारि।
दासी ह्वै हरि जनन की, कुल नही आवै गारि॥

साकट ते संत होत है, जो गुरू मिले सुजान।
राम नाम निज मंत्र है, छुङवै चारों खान॥

कबीर साकट की सभा, तू मति बैठे जाय।
एक गुवाडै कदि बङै, रोज गदहरा गाय॥

मैं तोही सों कब कह्या, साकट के घर जाव।
बहती नदिया डूब मरूं, साकट संग न खाव॥

संगति सोई बिगुर्चई, जो है साकट साथ।
कंचन कटोरा छांङि कै, सनहक लीन्ही हाथ॥

सूता साधु जगाइये, करै ब्रह्म को जाप।
ये तीनों न जगाइये, साकट सिंह अरु सांप॥

आँखौं देखा घी भला, ना मुख मेला तेल।
साधु सों झगङा भला, ना साकट सों मेल॥

घर में साकट इस्तरी, आप कहावै दास।
ओ तो होयगी सूकरी, वह रखवाला पास॥

खसम कहावै वैस्नव, घर में साकट जोय।
एक घरा में दो मता, भक्ति कहाँ ते होय॥

एक अनूपम हम किया, साकट सों बेवहार।
निंदा साटि उजागरो, कीयो सौदा सार॥


साकट ते संत होत है जो गुरु मिले सुजान हिंदी मीनिंग Saakat Te Sant Hot Hain Hindi Meaning कबीर दोहे व्याख्या हिंदी में


कबीर साहेब इन इस दोहे में स्वंय / आत्मा का परिचय देते हुए स्पष्ट किया है की मैं कौन हूँ,

जाती हमारी आत्मा, प्राण हमारा नाम। 

अलख हमारा इष्ट, गगन हमारा ग्राम।।

जब आत्मा चरम रूप से शुद्ध हो जाती है तब वह कबीर कहलाती है जो सभी बन्धनों से मुक्त होकर कोरा सत्य हो जाती है। कबीर को समझना हो तो कबीर को एक व्यक्ति की तरह से समझना चाहिए जो रहता तो समाज में है लेकिन समाज का कोई भी रंग उनकी कोरी आत्मा पर नहीं चढ़ पाता है। कबीर स्वंय में जीवन जीने और जीवन के उद्देश्य को पहचानने का प्रतिरूप है। कबीर का उद्देश्य किसी का विरोध करना मात्र नहीं था अपितु वे तो स्वंय में एक दर्शन थे, उन्होंने हर कुरीति, बाह्याचार, मानव के पतन के कारणों का विरोध किया और सद्ऱाह की और ईशारा किया। कबीर के विषय में आपको एक बात हैरान कर देगी। कबीर के समय सामंतवाद अपने प्रचंड रूप में था और सामंतवाद की आड़ में उनके रहनुमा मजहब के ठेकेदार अपनी दुकाने चला रहे थे। जब कोई विरोध का स्वर उत्पन्न होता तो उसे तलवार की धार और देवताओं के डर से चुप करवा दिया जाता। तब भला कबीर में इतना साहस कहाँ से आया की उन्होंने मुस्लिम शासकों के धर्म में व्याप्त आडंबरों का विरोध किया और सार्वजनिक रूप से इसकी घोषणा भी की। कबीर का यही साहस हमें आश्चर्य में डाल देता है।




जहाँ एक और कबीर ने हर आडंबर और बाह्याचार का विरोध किया वहीँ तमाम तरह के अत्याचार सहने के बावजूद कबीर की वाणी में प्रतिशोध और बदले की भावना कहीं नहीं दिखती है। कबीर साहेब ने आम आदमी को धर्म को समझने की राह दिखलाई। जहाँ धर्म वेदों के छंदों, क्लिष्ट श्लोकों, वृहद धार्मिक अनुष्ठान थे जिनसे आम जन त्रस्त था, वही कबीर ने एक सीधा सा समीकरण लोगों को समझाया की ईश्वर ना तो किसी मंदिर विशेष में है और ना ही ईश्वर किसी मस्जिद में, ना तो वो काबे तक ही सीमित है और ना ही कैलाश तक ही, वह तो हर जगह व्याप्त है। आचरण की शुद्धता और सत्य मार्ग का अनुसरण करके कोई भी जीवन के उद्देश्य को पूर्ण कर सकता है। यही कारण है की कबीर साहेब ने किसी भी पंथ की स्थापना नहीं की, यह एक दीगर विषय है की आज कुछ लोग अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए कबीर साहेब के बताये मार्ग का अनुसरण नहीं कर रहे हैं और वास्तव में उसके विपरीत कार्य कर रहे हैं जो की एक गंभीर विषय है।



कबीर साहेब के विषय में एक बात और है जो गौरतलब है उनका ख़ालिश सत्य के साथ होना, उसमे हिन्दू मुस्लिम, बड़े छोटे का कोई भेद नहीं था। जहाँ  एक और विदेशी शासकों के मुस्लिम धर्म में व्याप्त अंधविश्वास और स्वार्थ जनित रीती रिवाजों का विरोध कबीर साहेब ने किया वहीँ उन्होंने हिन्दू धर्म में व्याप्त पोंगा पंडितवाद, धार्मिक भाह्याचार, कर्मकांड, अंधविश्वास, चमत्कार, जाति प्रथा का भी मुखर विरोध किया। वस्तुतः कबीर आम जन, पीड़ित, शोषित, लोगों की जबान थे और इन लोगों ने कबीर के पथ का अनुसरण भी किया। 


उल्लेखनीय है की कबीर साहेब ने ईश्वर को लोगों तक पहुंचाया। वेदों की भारी भरकम ऋचाएं, संस्कृत की क्लिष्टता को दूर करते हुए कबीर साहेब ने लोगो को एक ही सूत्र दिया की ईश्वर किसी ग्रन्थ विशेष, स्थान विशेष तक ही सिमित नहीं है, वह हर जगह व्याप्त है। कोई भी व्यक्ति सत्य को अपनाकर ईश्वर की प्राप्ति बड़ी ही आसानी से कर सकता है।

मोको कहाँ ढूंढे रे बन्दे
मै तो तेरे पास में

ना तीरथ में ना मूरत में
ना एकांत निवास में
ना मंदिर में ना मस्जिद में
ना काबे कैलास में

ना में जप में ना में तप में
ना में बरत उपास में
ना में क्रिया करम में रहता
नहिं जोग संन्यास में

ना ब्रह्माण्ड आकाश में
ना में प्रकृति प्रवार गुफा में
नहिं स्वांसो की स्वांस में

खोजि होए तुरत मिल जाऊं
इक पल की तालास में
कहत कबीर सुनो भई साधो
मै तो हूँ विश्वास में


कबीर साहेब किसी वर्ग विशेष से ना तो स्नेह रखते थे और नाहीं किसी वर्ग विशेष से उनको द्वेष ही था। उन्होंने मानव जीवन में जहाँ भी कोई कमी देखी उसे लोगों के समक्ष सामान्य भाषा में रखा। उल्लेखनीय है की संस्कृत भाषा तक आम जन की कोई पकड़ नहीं थी, एक तो उन्हें धार्मिक ग्रंथों से दूर रखा जाता था और दूसरा संस्कृत भाषा की क्लिष्टता। धार्मिक ग्रन्थ संस्कृत भाषा में थे और वे एक जाति और वर्ग विशेष तक सीमित रह गए थे। कबीर साहेब ने गूढ़ रहस्यों को घरेलू आम जन की भाषा में लोगो को समझाया और लोगों को उनकी सुनते ही समझ में आ जाती थी, यही कारण है कबीर साहेब के लोकप्रिय होने का। भले ही जिन लोगों की दुकाने कबीर साहेब ने चौपट कर दी थी वे कबीर साहेब के आलोचक थे लेकिन कई मौकों पर उन्होंने भी कबीर साहेब की बातों को सुनकर उसे समझा और उनकी सराहना की। 

 कबीर साहेब ने अपने अंतिम समय के लिए 'मगहर' को क्यों चुना ? Why Kabir went to 'Magahar' in his Last Time : कबीर साहेब ताउम्र लोगों के अंधविश्वास के खंडन करते रहे और अपने अंतिम समय में भी उन्होंने 'मगहर को चुना जिसके माध्यम से वे लोगों में व्याप्त एक और अंध प्रथा का खंडन करना चाहते थे। काशी या वाराणशी को लोग बहुत ही पवित्र और मोक्षदायिनी मानते थे जबकि इसके विपरीत मगहर के विषय में प्रचलित मान्यता यह थी की यदि कोई मगहर में अपने प्राणों का त्याग करता है तो वह अगले जन्म में गधा बनेगा या फिर नरक का भागी होगा। कबीर ने इस विषय पर लोगो को समझाया की स्थान विशेष का पुनर्जन्म से कोई सीधा सबंध नहीं है। यदि व्यक्ति सद्कर्म करता है और ईश्वर की प्राप्ति हेतु सत्य अपनाता है तो भले ही वह मगहर में अपने प्राण त्यागे उसका जीवन सफल होता है। 

कबीर साहेब ने अपना जीवन जहाँ वाराणसी में बिताया वही उन्होंने इसी मिथक को तोड़ने के लिए अपने अंतिम समय के लिए मगहर को चुना जहां १५१८ में उन्होंने दैहिक जीवन को छोड़ दिया। मगहर में जहाँ कबीर साहेब ने दैहिक जीवन छोड़ा वहां पर मजार और मस्जिद दोनों स्थापित है जहाँ पर प्रति दिन कबीर विचारधारा को मानने वाले व्यक्ति आते रहते हैं। 

‘क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा
जो कासी तन तजै कबीरा, रामे कौन निहोरा’

जिस हृदय में राम का वास है उसके लिए काशी और मगहर दोनों एक ही समान हैं। यदि काशी में रहकर कोई प्राण का त्याग करें तो इसमें राम का कौनसा उपकार होगा ? भाव है की भले ही काशी हो या फिर मगहर यदि हृदय में राम का वास है तो कहीं भी प्राणों का त्याग किया जाय, राम सदा उसके साथ हैं। यहाँ राम से अभिप्राय निर्गुण ईश्वर से है।


क्या कबीर साहेब विवाहित थे : जिस प्रकार से कबीर साहेब के माता पिता के सबंध में अनेकों विचार प्रसिद्द हैं तो एक दुसरे से मुख्तलिफ हैं, वैसे ही उनके परिवार के विषय में कोई भी एक मान्य राय की सुचना उपलब्ध नहीं है। कबीर को जहाँ कुछ लोग अविवाहित मानते हैं वही कुछ लोग कबीर का भरा पूरा परिवार बताते हैं। इन्ही मान्यताओं के आधार पर ऐसा माना जाता है की कबीर साहेब की पत्नि का नाम लोई था। कबीर पंथ के विद्वान व्यक्ति कहते हैं की कबीर ब्रह्मचारी थे और वे नारी को साधना में बाधक मानते थे।
नारी कुण्ड नरक का, बिरला थंभै बाग।
कोई साधू जन ऊबरै, सब जग मूँवा लाग॥

साकट ते संत होत है जो गुरु मिले सुजान हिंदी मीनिंग Saakat Te Sant Hot Hain Hindi Meaning कबीर दोहे व्याख्या हिंदी में

पहलो कुरूप, कुजाति,
कुलक्खिनी साहुरै येइयै दूरी।
अबकी सरूप, सुजाति, सुलक्खिनी सहजै उदर धरी।
भई सरी मुई मेरी पहिली वरी। जुग-जुग जीवो मेरी उनकी घरी।
मेरी बहुरिया कै धनिया नाऊ।

कबीर साहेब के पुत्र का नाम कमाल माना जाता है। 

बूडा़ वंश कबीर का, उपजा पूत कमाल।
हरि का सुमिरन छाँड़ि कै, भरि लै आया माल।।

कबीर के विचार जो बदल सकते हैं आपका जीवन / Kabir Thoughts Can Change Your Life :

  • पुरुषार्थ से धन अर्जन करो। किसी के ऊपर आश्रित ना बनो। माँगना मौत के सामान है।  
  • गुरु का स्थान इस्वर से भी महान है क्यों की गुरु ही साधक को सत्य की राह दिखाता है और सद्मार्ग की और अग्रसर होता है। गुरु किसे बनाना चाहिए इस विषय को गंभीरता से लेते हुए गुरु का चयन करना चाहिए। दस बीस लोगों का झुण्ड बनाकर कोई गुरु नहीं बन सकता है।  
  • समय रहते ईश्वर का सुमिरन करना चाहिए। एक रोज यहाँ संसार छोड़कर सभी को जाना है। व्यक्ति में दया, धर्म जरुरत मंदों की मदद करने जैसे मानवीय गुण होने चाहिए। निर्धन को मदद करनी चाहिए। 
  • सुख रहते हुए अगर प्रभु को याद कर लिया जाय तो दुःख नहीं होगा।तृष्णा और माया के फाँस को समझकर इन्हे त्यागकर सदा जीवन बिताना चाहिए।  
  • जो पैदा हुआ है वो एक रोज मृत्यु को प्राप्त होगा। सिर्फ चार दिन की चांदनी है। पलाश के वृक्ष में जब फूल लगते हैं तो बहुत आकर्षक और मनोरम प्रतीत होता है। कुछ ही समय बाद फूल झड़ जाते हैं और वह ठूंठ की तरह खड़ा रहता है। काया की क्षीण होने से पहले प्रभु को याद करना जीवन का उद्देश्य है। राजा हो या रंक यम किसी को रियायत नहीं देता है।  
  • जैसे घर में छांया के लिए वृक्ष होना चाहिए उसी भांति निंदक को दोस्त बनाना चाहिए। निंदक हमारी कमियों को गिनाता है जिससे सुधार करने में सहायता मिलती है। जो मित्र हां में हां भरे वो मित्र नहीं शत्रु होता है। 
  • अति हर विषय में वर्जित है। ना ज्यादा बोलना चाहिए और ना ज्यादा चुप। संतुलित व्यवहार उत्तम है। 
  • कोशिश करने वालों की कभी पराजय नहीं होती। एक बार कोशिश करके निराश नहीं होना चाहिए सतत प्रयाश करने चाहिए। जो गोताखोर गहरे पानी में गोता लगाता है वह कुछ न कुछ प्राप्त अवश्य करता है। 
  • धैर्य व्यक्ति का आभूषण है। धैर्य से ही सभी कार्य संपन्न होते हैं। जल्दबाजी में लिए गए निर्णय सदा घातक होते हैं। जैसे माली सब्र रखता है और पौधों को सींचता रहता है और ऋतू आने पर स्वतः ही फूल लग जाते हैं। उसकी जल्दबाजी से फूल नहीं आएंगे इसलिए हर कार्य में धैर्य रखना चाहिए। 
  • उपयोगी विचारों का चयन करके जीवन में उतार लेने चाहिए। निरर्थक और सारहीन विचारों का त्याग कर देना चाहिए, जैसे सूप उपयोगी दानों को छांट कर अलग कर देता है और थोथा उड़ा देता है उसी प्रकार से महत्वहीन विचारों को छोड़कर उपयोगी विचारों का चयन कर लेना चाहिए।  
  • समय रहते प्रभु की शरण में चले जाना चाहिए। काया के क्षीण होने पर यम दरवाजे पर दस्तक देने लग जाता है। उस समय उस दास की फरियाद कौन सुनेगा। विडम्बना है की बाल्य काल खेलने में, जवानी दम्भ में और फिर परिवार के फाँस में फसकर व्यक्ति सत्य के मार्ग से विमुख हो जाता है और इस संसार को अपना स्थायी घर समझने लग जाता है। बुढ़ापे में प्रभु जी याद आते है लेकिन उसकी फरियाद नहीं सुनी जाती और वह फिर से जन्म मरण के भंवर में गिर जाता है। 
  • जीवन की महत्ता अमूल्य है, इसे कौड़ियों के भाव से खर्च नहीं करना चाहिए। यह जीवन प्रभु भक्ति के लिए दिया गया है। विषय विकार और तृष्णा इसे कौड़ी में बदल कर रख देते हैं। इसके महत्त्व को समझ कर प्रभु के चरणों में ध्यान लगाना चाहिए।जीवन अमूल्य मोती के समान है इसे कौड़ी में मत बदलो। 
  • व्यक्ति को उसी स्थान पर रहना चाहिए जहाँ पर उसके विचारों को समझ कर उसकी क़द्र हो। मुर्ख व्यक्तियों के बीच समझदार उपहास का पात्र बनता है। जैसे धोभी का उस स्थान पर कोई कार्य नहीं है जहां लोगो के पास कपडे ही ना हों। इसलिए सामान विचारधारा के लोगों के बीच ही व्यक्ति को रहना चाहिए और अपने विचार रखने चाहिए अन्यथा वह मखौल का पात्र बनकर रह जाता है।  
  • जीवन में धीरज का अत्यंत महत्त्व होता है। जल्दबाजी से कोई निर्णय नहीं निकलता है। जीवन का कोई भी क्षेत्र हो धीरज वो आभूषण है जो मनुष्य को सुशोभित करता है। जैसे कबीरदास जी ने कहा है वो हर आयाम में लागू होता है। माली पौधों को ना जाने कितनी बार सींचता है, ऐसा नहीं है की पानी डालते ही उसमे फूल लग जाते हैं। फूल लगने का एक निश्चित समय होता है, निश्चित समय के आने पर ही पौधों में फूल लगते हैं। आशय स्पष्ट है की हमें हर क्षेत्र में धीरज धारण करना चाहिए और अपने प्रयत्न करते रहने चाहिए। अनुकूल समय के आने पर फल स्वतः ही प्राप्त हो जाता है। 
  • जीवन कोई भी आयाम हो या फिर भक्ति ही क्यों ना हो, बगैर कठोर मेहनत के किसी क्षेत्र में सफलता प्राप्त नहीं होती है। जैसे सतही रूप से व्यक्ति कोशिश करता है, किनारे पर डूबने के डर से बैठा रहता है, निराश हो जाता है, वो कुछ भी करने से डरता है। जो इस डर को दूर करके गहरे पानी में गोता लगाता है, वह अवश्य ही मोती प्राप्त कर पाता है। यहाँ कबीर का साफ़ उद्देश्य है की कठोर मेहनत से मनवांछित परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं।

कबीर के गुरु कौन थे Who Was Kabir's Guru : मान्यता है की कबीर साहेब के गुरु का नाम रामानंद जी थे। "काशी में परगट भये , रामानंद चेताये " हालाँकि कबीर साहेब के जानकारों की एक अलाहिदा राय है की कबीर साहेब स्वंय परमब्रह्म थे और उनका कोई गुरु नहीं था। कबीर साहेब का जन्म कहाँ हुआ : When was Kabir Born : महान संत और आध्यात्मिक कबीर दास का जन्म वर्ष 1440 में और मृत्यु वर्ष 1518 में हुई थी। इस्लाम के अनुसार ‘कबीर’ का अर्थ महान होता है। 

क्या कबीर साकार ईश्वर को मानते थे What are the ideas of Kabir on God : कबीर साहेब परम सत्ता को एक ही मानते थे उनके अनुसार लोगों ने उसका अपनी सुविधा के अनुसार नामकरण मात्र किया है जबकि वह एक ही है और सर्वत्र विद्यमान हैं। 

राम-रहीम एक है, नाम धराया दोय। 

कहै कबीर दो नाम सुनि, भरम परौ मति कोय।। 

वह किसी स्थान विशेष का मोहताज नहीं है, वह सर्वत्र विद्यमान है और वह घर पर भी है उसे ढूंढने के लिए किसी भी यात्रा की जरूरत हैं है। जो भी सत्य है वह ईश्वर ही है। 

कबीर साहेब ने तात्कालिक मूर्तिपूजा का घोर खंडन करते हुए ईशर को निराकार घोषित किया।

कबीर साहेब ने मानव देह कब छोड़ी Where did Sant Kabir die? : कबीर साहेब ने जीवन भर लोगो को शिक्षाएं दी जो आज भी प्रसंगिक हैं और उन्होंने अपनी मृत्य को भी लोगो के समक्ष एक शिक्षा के रूप में रखा। उस समय मान्यता थी की यदि कोई काशी में मरता है तो स्वर्ग और मगहर में यदि कोई मरता है तो वह गधा बनता है, इसी रूढ़ि को तोड़ने के लिए कबीर साहेब ने मगहर को चुना। क्या कबीर सूफी संत थे Was Kabir a Sufi saint? : कबीर के विचार स्वतंत्र थे, निष्पक्ष थे और आडंबरों से परे थे, यही बात कबीर साहेब को अन्य पंथ और मान्यताओं से अलग करती है। कबीर साहेब सूफी संत नहीं थे लेकिन यह एक दीगर विषय है की बाबा बुल्ले शाह के विचार कबीर साहेब से बहुत मिलते जुलते हैं, मसलन-

मक्का गयां गल मुकदी नाहीं, भावें सो सो जुम्मे पढ़ आएं
गंगा गयां गल मुकदी नाहीं, भावें सो सो गोते खाएं
गया गयां गल मुकदी नाहीं, भावें सो सो पंड पढ़ आएं
बुल्ले शाह गल त्यों मुकदी, जद "मैं" नु दिलों गवाएँ
चल वे बुल्लेया चल ओथे चलिये जिथे सारे अन्ने,
न कोई साड्डी जात पिछाने ते न कोई सान्नु मन्ने
पढ़ पढ़ आलम फाज़ल होयां, कदीं अपने आप नु पढ़याऍ ना
जा जा वडदा मंदर मसीते, कदी मन अपने विच वडयाऍ ना
एवैएन रोज़ शैतान नाल लड़दान हे, कदी नफस अपने नाल लड़याऍ ना
बुल्ले शाह अस्मानी उड़याँ फडदा हे, जेडा घर बैठा ओन्नु फडयाऍ ना
मस्जिद ढा दे मंदिर ढा दे, ढा दे जो कुछ दिसदा
एक बन्दे दा दिल न ढाइन, क्यूंकि रब दिलां विच रेहेंदा
बुल्ले नालों चूल्हा चंगा, जिस ते अन्न पकाई दा
रल फकीरा मजलिस करदे, भोरा भोरा खाई दा
रब रब करदे बुड्ढे हो गए, मुल्ला पंडित सारे
रब दा खोज खरा न लब्बा, सजदे कर कर हारे
रब ते तेरे अन्दर वसदा, विच कुरान इशारे
बुल्ले शाह रब ओनु मिलदा, जेडा अपने नफस नु मारे
सर ते टोपी ते नीयत खोटी, लेना की टोपी सर धर के
चिल्ले कीता पर रब न मिलया, लेना की चिल्लेयाँ विच वड के
 तस्बीह फिरि पर दिल न फिरेया, लेना की तस्बीह हथ फेर के
 बुल्लेया झाग बिना दूध नई जमदा, ते भांवे लाल होवे कढ कढ के
पढ़ पढ़ इल्म किताबां नु, तू नाम रखा लया क़ाज़ी
हथ विच फर के तलवारां, तू नाम रखा लया ग़ाज़ी
मक्के मदीने टी फिर आयां, तू नाम रखा लया हाजी
ओ बुल्लेया! तू कुछ न कित्तां, जे तू रब न किता राज़ी
जे रब मिलदा नहातेयां धोतयां, ते रब मिलदा ददुआन मछलियाँ
 जे रब मिलदा जंगल बेले, ते मिलदा गायां वछियाँ
जे रब मिलदा विच मसीतीं, ते मिलदा चम्चडकियाँ
ओ बुल्ले शाह रब ओन्नु मिलदा, तय नीयत जिंना दीयां सचियां
रातीं जागां ते शेख सदा वें , पर रात नु जागां कुत्ते, ते तो उत्ते
रातीं भोंकों बस न करदे, फेर जा लारा विच सुत्ते, ते तो उत्ते
यार दा बुहा मूल न छडदे, पावें मारो सो सो जूते, ते तो उत्ते
बुल्ले शाह उठ यार मन ले , नईं ते बाज़ी ले गए कुत्ते, ते तो उत्ते

कबीर साहेब ने किस भाषा में लिखा है In which language Kabir Das wrote : गौरतलब है की कबीर साहेब ने स्वंय कुछ भी नहीं लिखा है। जो भी लिखित है वह उनके समर्थक /अनुयायिओं के द्वारा कबीर साहेब की वाणी को सुन कर लिखा गया है। “मसि कागद छूऔं नहीं, कलम गहौं नहि हाथ चारों जुग कै महातम कबिरा मुखहिं जनाई बात” कबीर साहेब ने जो देखा वही कहा और यही कारण है की उनके अनुयायिओं के द्वारा विभिन्न भाषा / अपने क्षेत्र, अंचल की भाषा को काम में लिया गया जिसके कारन से हिंदी पंजाबी, राजस्थानी और गुजराती के शब्द हमें उनकी लेखनी में मिलते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल इस इस मिलीजुली भाषा को सधुकड़ि भाषा का नाम दिया है। 

कबीर की जाति क्या थी? What is the Cast of Kabir, What is the Religion of Kabir Hindu or Muslim: वैसे तो यह सवाल ही अनुचित है की कबीर के जाति क्या थी क्योंकि कबीर ने सदा ही जातिवाद का विरोध किया। यह सवाल जहन में उठता है क्योंकि हम जानना चाहते हैं ! संत की कोई जाति नहीं होती और ना ही उसका कोई धर्म ! कबीर की जाति और धर्म जानने की उत्सुकता का कारन है की वस्तुतः हम मान लेते हैं की दलित साहित्य चिंतन और लेखन करने वाला दलित ही होना चाहिए। कबीर साहेब ने बरसों से चली आ रही सामजिक और जातिगत मान्यताओं को खारिज करते हुए मानव को मानव होने का गौरव दिलाया और घोषित किया की 

एक बूंद एकै मल मूत्र, एक चम् एक गूदा।
एक जोति थैं सब उत्पन्ना, कौन बाम्हन कौन सूदा।। 

जातिगत और जन्म के आधार पर कबीर साहेब ने किसी की श्रेष्ठता मानने से इंकार किया। बहरहाल, क्या कबीर दलित थे ? मान्य चिंतकों और साहित्य की जानकारी रखने वाले विद्वानों के अनुसार कबीर साहेब दलित नहीं थे क्यों की समकालिक सामाजिक परिस्थितियों में दलितों को 'अछूत' माना जाता था। कबीर साहेब के विषय में ऐसा कोई प्रमाण नहीं है। मान्यताओं के आधार पर कबीर साहेब जुलाहे (मुस्लिम जुलाहे ) से सबंध रखते थे और मुस्लिम समाज में अश्प्रश्य, छूआछूत जैसे कोई भी अवधारणा नहीं रही है, हाँ, गरीब और अमीर कुल का होना एक दीगर विषय हो सकता है। 

जाँति  न  पूछो  साधा  की  पूछ  लीजिए  ज्ञान।
मोल  करो  तलवार  का  पड़ा  रहने  दो  म्यान।

इसके विपरीत आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी कबीर साहेब का जन्म ब्राह्मण जाती में होना बताते हैं और कबीर साहेब को 'नाथपंथी होना' बताते हैं। डॉक्टर धर्मवीर भारती जी के अनुसार कबीर साहेब मुस्लिम जुलाहे तो थे ही और अछूत भी थे जो कुछ समझ से परे की बात लगती है। कबीर साहेब दलित थे या नहीं यह विवाद का विषय हो सकता है लेकिन कबीर साहेब की दलित चेतना सभी को एक स्वर में मान्य है।

 

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