इसे सुनेंरोकेंसमाजशास्त्रीय अध्ययन में गतिशीलता से तात्पर्य एक सामाजिक व्यवस्था में एक स्थिति से दूसरे स्थिति को पा लेने से है जिसके फलस्वरूप इस स्तरीकृत सामाजिक व्यवस्था में गतिशील व्यक्ति का स्थान उँचा उठता है व नीचे चला जाता है। एक स्थान से उपर उठकर दूसरे स्थान को प्राप्त कर लेना, जो उससे उँचा है, निस्संदेह गतिशीलता है। उदग्र सामाजिक गतिशीलता के
कितने प्रकार होते है? इसे सुनेंरोकेंऊर्ध्वगामी व अधोगामी सामाजिक गतिशीलता के उदाहरण राजनीतिक, आर्थिक एवं व्यावसायिक क्षेत्र में स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं । ऊर्ध्वगामी उदग्र सामूहिक सामाजिक गतिशीलता का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण भारतीय जाति-व्यवस्था में देखा जा सकता है । कई बार मध्यम वर्ग की जातियाँ जाति व्यवस्था में ऊँचा उठने का प्रयास करती है । गतिशीलता का अर्थ क्या है? इसे सुनेंरोकेंगतिशीलता (motility) जीवविज्ञान में ऊर्जा का प्रयोग करके स्वयं को
जगह-से-जगह हिला पाने की क्षमता को गतिशीलता कहते हैं। ज़्यादातर जानवर गतिशील होते हैं हालांकि यह शब्द एककोशिकीय और सरल बहुकोशिकीय जीवों के लिए भी प्रयोग होता है। इसे सुनेंरोकेंसमाजशास्त्र मानव समाज का अध्ययन है। समाजशास्त्र, पद्धति और विषय वस्तु, दोनों के मामले में एक विस्तृत विषय है। परम्परागत रूप से इसकी केन्द्रियता सामाजिक स्तर-विन्यास (या “वर्ग”), सामाजिक संबंध, सामाजिक संपर्क, धर्म, संस्कृति और विचलन पर रही है, तथा इसके दृष्टिकोण में गुणात्मक और
मात्रात्मक शोध तकनीक, दोनों का समावेश है। सामाजिक गतिशीलता क्या है इसके विशेषताओं को समझाइए? इसे सुनेंरोकेंसामाजिक गतिशीलता से मोटेतौर पर हमारा आशय व्यक्ति अथवा समूह की प्रस्थिति मे परिवर्तन से होता है। प्रस्थिति का एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु मे जाना क्षैतिज अथवा ऊर्ध्वाधर हो सकता है, जो किसी क्षेत्र विशेष जैसे, शिक्षा, व्यवसाय, आय, सामाजिक शक्ति एवं सामाजिक वर्ग या इनमे से कुछ अथवा सभी क्षेत्रों मे हो सकता है शीर्षात्मक और क्षैतिज गतिशीलता क्या
है? इसे सुनेंरोकेंसमतल गतिशीलता और शीर्षात्मक गतिशीलता इसके विपरीत शीर्षात्मक गतिशीलता से उनका तात्पर्य किसी व्यक्ति अथवा समूह के एक पद से दूसरे पद पर पहुँचने से है। इसे सुनेंरोकेंसमतल गतिशीलता और शीर्षात्मक गतिशीलता हेरोल्ड एल० हौजकिंसन ने सामाजिक गतिशीलता के दो भेद किए हैं- एक समतल गतिशीलता (Horizontal Mobility) और दूसरी शीर्षात्मक गतिशीलता (Vertical Mobility)। व्यक्ति अथवा समूह के केवल स्थान में परिवर्तन होने को उसने समतल
गतिशीलता की संज्ञा दी है। समाजशास्त्र का अध्ययन क्यों आवश्यक है? इसे सुनेंरोकेंसमाजशास्त्र अपनी विषय-वस्तु में कार्य-कारण सम्बन्धों की खोज करता है अर्थात् इसका उद्देश्य विभिन्न सामाजिक घटनाओं के बारे में आँकड़े एकत्र करना ही नहीं है अपितु उनके कार्य-कारण सम्बन्धों एवं परिणामों का पता लगाना भी है। सामाजिक गतिशीलता पर निबंध! Here is an essay ‘Social Mobility’ in Hindi language. Essay Contents:
i. बोगार्डस- ”सामाजिक पद में कोई भी परिवर्तन सामाजिक गतिशीलता है ।” ii. फिचर- ”सामाजिक गतिशीलता व्यक्ति, समूह या श्रेणी के एक सामाजिक पद या स्तृत से दूसरे में गति करने को कहते हैं ।” iii. हार्टन तथा हण्ट- ”सामाजिक गतिशीलता का तात्पर्य उच्च या निम्न सामाजिक प्रस्थितियों में गमन करना है ।” iv. सोरोकिन- ”सामाजिक गतिशीलता से हमारा तात्पर्य सामाजिक समूहों तथा स्तरों के झुण्ड में एक सामाजिक पद से दूसरे सामाजिक पद में परिवर्तन होना है ।” v. फेयरचाइल्ड- ”इन्होंने लोगों के एक सामाजिक समूह से दूसरे सामाजिक समूह में गमन को ही सामाजिक गतिशीलता कहा है ।” vi. एस. एम. दुबे- ”सामाजिक गतिशीलता एक बहुत ही विस्तृत शब्द है जिसके अन्तर्गत या तो व्यक्ति या सम्पूर्ण समूह की आर्थिक, राजनीतिक या व्यावसायिक प्रस्थिति में ऊपर या नीचे की ओर परिवर्तन को सम्मिलित किया जाता है ।” vii. प्रो. पीटर- “समाज के सदस्यों के सामाजिक जीवन में होने वाली स्थिति, पद, पेशा या/और निवास-स्थान सम्बन्धी परिवर्तनों को सामाजिक गतिशीलता कहते हैं ।” इन परिभाषाओं से निम्नलिखित स्पष्ट होता है कि: (i) सामाजिक गतिशीलता का सम्बन्ध व्यक्ति या समूह के पद या प्रस्थिति से है । (ii) सामाजिक गतिशीलता में व्यक्ति या समूह की सामाजिक प्रस्थिति में परिवर्तन होता है । (iii) यह परिवर्तन एक समूह या समाज की संरचना के अन्तर्गत ही होता है । (iv) सामाजिक गतिशीलता की कोई निश्चित दिशा नहीं है, यह ऊपर व नीचे की ओर तथा समानान्तर भी हो सकती है । उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि जब किसी व्यक्ति या समूह की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन होता है तो उसे सामाजिक गतिशीलता कहते हैं ।
सोरोकिन ने सामाजिक गतिशीलता के चार प्रमुख प्रकारों का उल्लेख किया है: 1. क्षैतिज या समरैखिक सामाजिक गतिशीलता, 2. उदग्र या रैखिक गतिशीलता । 3. अन्त: तथा अन्तर पीढ़ी गतिशीलाता । 4. मुक्त (खुली) एवं बंद गतिशीलता । 1. क्षैतिज या समरैखिक सामाजिक गतिशीलता: इसकी परिभाषायें निम्नलिखित हैं: (i) गोल्ड एवं कॉब- ”बिना सामाजिक वर्ग पद में परिवर्तन किये प्रस्थिति एवं भूमिकाओं के विशेष रूप से व्यावसायिक क्षेत्र में परिवर्तन को क्षैतिज गतिशीलता कहते हैं ।” (ii) फिचर- “क्षैतिज गतिशीलता का अर्थ एक ही सामाजिक पर के एक ही प्रकार के सामाजिक समूह या स्थिति से दूसरे में आगे या पीछे गमन करना है ।” (iii) बर्ट्राण्ड- ”सामाजिक संस्तरण को बिना परिवर्तित किये एक सामाजिक पद से दूसरे में गमन करना क्षैतिज सामाजिक गतिशीलता के रूप में जाना जाता है ।” (iv) सोरोकिन- “क्षैतिज सामाजिक गतिशीलता का अर्थ एक व्यक्ति या सामाजिक वस्तु का एक ही पर में स्थित एक समूह से दूसरे समूह में स्थानान्तरण है ।” उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि क्षैतिज सामाजिक गतिशीलता में एक व्यक्ति समान सामाजिक स्तर के समूहों या पदों में गमन करता है, उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति का एक गाँव छेड़कर दूसरे गाँव में चले जाना, श्रमिक का एक फैक्ट्री छोड़कर दूसरी फैक्ट्री में काम करना, एक प्रोफेसर का एक विश्वविद्यालय से दूसरे विश्वविद्यालय में एवं एक इन्जीनियर का एक मिल से दूसरे मिल में उसी वेतन और पद पर काम करना इत्यादि । क्षैतिज सामाजिक गतिशीलता में गमन करने वाले व्यक्ति या सामाजिक समूह की स्थिति में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं होता है । सोरोकिन ने क्षैतिज या समरैखिक सामाजिक गतिशीलता के निम्नांकित प्रकारों का उल्लेख किया है: (i) प्रजातीय, लैंगिक तथा आयु-समूहों में क्षैतिज गतिशीलता: प्रजाति, लिंग एवं आयु के आधार पर सामाजिक गतिशीलता का विचार कठिन प्रतीत होता है क्योंकि ये शारीरिक वंशानुगत विशेषताएँ हैं, इसलिए इनमें परिवर्तन सम्भव नहीं है । किन्तु प्रजाति, लिंग और आयु-समूह जब सामाजिक समूहों के रूप में संगीक हो जाते है तो इनके सन्दर्भ में सामाजिक गतिशीलता पर विचार किया जा सकता है । (ii) क्षेत्रीय समूहों में गतिशीलता: एक क्षेत्र या समुदाय को छोड़कर दूसरे में निरन्तर आना-जाना, गाँव छोड़कर नगरों में जाकर बसना क्षेत्रीय गतिशीलता है । नगरीकरण एवं औद्योगीकरण के कारण वर्तमान में यह गतिशीलता खूब बढ़ रही है । (iii) अन्तःपारिवारिक एवं अन्तःनातेदारी गतिशीलता: विवाह या तलाक के बाद स्त्री का एवं गोद लेने पर लड़के का एक परिवार एवं नातेदारी समूह में प्रवेश इस प्रकार की गतिशीलता के उदाहरण हैं । (iv) अन्तःव्यवसायी तथा बाह्य व्यवसायी गतिशीलता: एक ही प्रकार के एक व्यवसाय को त्यागकर दूसरे को ग्रहण करना अन्तःव्यवसायी गतिशीलता है । जब एक मजदूर एक कपड़े की मिल को छोड़कर दूसरे कपड़े की मिल में काम करने चला जाता है तो यह अन्तःव्यवसायी गतिशीलता है । एक व्यवसाय को छोड़कर दूसरे भिन्न प्रकार के व्यवसाय में काम करना बाह्य व्यवसायी गतिशीलता कहलाती है । उदाहरण के लिए, यदि कृषि मजदूर खेती करना छेड़कर कारखाने में मजदूरी करने लगें तो यह गतिशीलता इसी श्रेणी के अन्तर्गत आयेगी । भारत जैसे जाति-प्रधान समाज में जहाँ प्रत्येक जाति का एक परम्परागत व्यवसाय होता है, वर्ग व्यवस्था पर आधारित समाजों की तुलना में इस प्रकार की गतिशीलता कम पायी जाती है । (v) अन्त:राज्यीय गतिशीलता: इस प्रकार की गतिशीलता में व्यक्ति एक राज्य को छेड़कर दूसरे राज्य में जाकर निवास करने लगता है और वहाँ की नागरिकता ग्रहण कर लेता है । (vi) अन्तःधार्मिक गतिशीलता: इस प्रकार की गतिशीलता उन समाजों में पायी जाती है जहाँ धार्मिक स्वतन्त्रता प्रान्त होती है । इसमें व्यक्ति एक धर्म को त्यागकर दूसरे धर्म को ग्रहण कर लेता है । भारत में जनजातियों के लोगों द्वारा ईसाई धर्म को ग्रहण करना इसका उदाहरण है । (vii) अन्तर्दलीय गतिशीलता: किसी भी एक राजनीतिक दल की सदस्यता त्यागकर दूसरे राजनीतिक दल की सदस्यता प्राप्त करना अंतर्दलीय गतिशीलता कहलाती है । (viii) अन्तर्राष्ट्रीय गतिशीलता: एक भाषा एवं संस्कृति वाले समूह या व्यक्ति द्वारा दूसरी भाषा या संस्कृति वाले राष्ट्र की सदस्यता ग्रहण करना अन्तर्राष्ट्रीय गतिशीलता का उदाहरण है । 2. उदग्र या रैखिक सामाजिक गतिशीलता: इसकी परिभाषायें निम्नलिखित है: (i) गोल्ड एवं कॉब लिखते हैं- “यदि किसी प्रस्थिति एवं भूमिका में ऐसा परिवर्तन जिसमें सामाजिक वर्ग में भी परिवर्तन सम्मिलित हो तो उसे उदग्र या रैखिक गतिशीलता कहते हैं जिसके उपवर्ग में ऊपर एवं नीचे की ओर गतिशीलता सम्मिलित है ।” (ii) बर्ट्राण्ड- “एक सामाजिक स्तर से दूसरे में ऊपर या नीचे की ओर गमन की उदग्र सामाजिक गतिशीलता कहते हैं ।” (iii) फिचर- “उदग्र गतिशीलता को लोगों का एक सामाजिक प्रस्थिति से दूसरी एवं एक सामाजिक वर्ग से दूसरे में गमन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है ।” (iv) सोरोकिन- ये भी एक व्यक्ति या सामाजिक वस्तु के एक स्तृत से दूसरे में स्थानान्तरण को उदग्र सामाजिक गतिशीलता कहते हैं । उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि उदग्र या रैखिक सामाजिक गतिशीलता में व्यक्ति या समूह एक सामाजिक स्तर से दूसरे सामाजिक स्तर में चले जाते है । यह सामाजिक स्तर पहले वाले से ऊँचा या नीचा हो सकता है । सोरोकिन ने गतिशीलता की दिशा के आधार पर उदग्र या रैखिक सामाजिक गतिशीलता को भी दो उप-भागों में बाँटा है- (i) ऊर्ध्वगामी, (ii) अधोगामी । इसे वह क्रमशः सामाजिक उत्थान तथा सामाजिक पतन भी कहते हैं । ऊर्ध्वगामी व अधोगामी सामाजिक गतिशीलता के उदाहरण राजनीतिक, आर्थिक एवं व्यावसायिक क्षेत्र में स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं । ऊर्ध्वगामी उदग्र सामाजिक गतिशीलता: ऊर्ध्वगामी उदग्र सामूहिक सामाजिक गतिशीलता का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण भारतीय जाति-व्यवस्था में देखा जा सकता है । कई बार मध्यम वर्ग की जातियाँ जाति व्यवस्था में ऊँचा उठने का प्रयास करती है । श्रीनिवास ने संस्कृतीकरण की प्रक्रिया द्वारा जातियों की ऊर्ध्वगामी गतिशीलता को व्यक्त किया है । फिचर ने ऊर्ध्वगामी गतिशीलता के लिए निम्नांकित कारकों को उत्तरदायी माना है: (a) अप्रवास: अप्रवास के कारण बाहर से आने वाले व्यक्ति स्थानीय लोगों को ऊपर की ओर धकेल देते हैं । ग्रामीण लोग जब शहरों में व्यवसाय की खोज में आते हैं तो वहाँ निम्न स्थिति एवं व्यवसायों को ग्रहण कर लेते हैं । इसी प्रकार से शरणार्थी और बाहर से आने वाले लोग भी मूल निवासियों की तुलना में निम्न स्थिति को ग्रहण करने को तैयार हो जाते हैं इस प्रकार अप्रवास स्थानीय लोगों में ऊर्ध्वगामी गतिशीलता उत्पन्न करता है । (b) उच्च वर्ग में कम प्रजनन क्षमता: सभी समाजों में उच्च वर्ग के लोगों की संख्या कम होती है तथा उनमें प्रजनन क्षमता भी कम होती है, इसलिए उसकी पूर्ति के लिए उनमें निम्न वर्ग के व्यक्ति समय-समय पर सम्मिलित होते रहते हैं । इससे उनकी सामाजिक स्थिति ऊँची उठ जाती है । (c) संघर्ष: जब समाज में अपनी ही योग्यता एवं प्रयत्नों से बने व्यक्तियों एवं प्रतिस्पर्द्धा को महत्व दिया है तब भी ऊर्ध्वगामी गतिशीलता बढती है । (d) अवसर की उपलब्धि: जब समाज में शिक्षा प्राप्त करने तथा व्यवसाय एवं कार्यों में योग्यता बढ़ने के अवसर उपलब्ध होते है तब भी लोग अपने गुणों, योग्यता और क्षमता वृद्धि करके ऊँचा उतने का प्रयास करते हैं । (e) समानता और विषमता के प्रतिमान: यदि किसी समाज धर्म, प्रजाति आदि के आधार पर भेदभाव किया जाता है या आयु और लिंग के आधार पर असमानता पायी जाती है तब उसमें ऊर्ध्वगामी गतिशीलता की सम्भावना कम होती है लेकिन जब किसी समाज में निम्न वर्ग में वृद्धि होती है तो ऊर्ध्वगामी गतिशीलता की सम्भावना अधिक होती है क्योंकि यह वर्ग ऊँचा उठने के लिए संघर्ष एवं प्रतिस्पर्धा में भाग लेता है । सोरोकिन ने उदग्र गतिशीलता के निम्नांकित सामान्य सिद्धान्तों का उल्लेख किया है: (I) शायद ही कोई ऐसा समाज है जो पूर्णतया बन्द हो और जिसमें आर्थिक, राजनीतिक और व्यावसायिक उदग्र गतिशीलता विद्यमान न हो । सामान्य रूप से जनजातीय समाजों एवं जाति पर आधारित समाजों को बन्द समाजों की श्रेणी के अन्तर्गत रखा जाता है । इसमें व्यक्ति अपनी योग्यता और गुणों में वृद्धि करके सामाजिक स्थिति को ऊँचा नहीं उठा सकता किन्तु वास्तव में वर्तमान में संस्कृतीकरण के द्वारा निम्न जातियों ने अपनी सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाया है । (II) ऐसा कोई भी समाज कभी नहीं रहा है जिसमें उदग्र सामाजिक गतिशीलता बिल्कुल अबाध या बे-रोकटोक हो और एक संस्तरण से दूसरे संस्तरण में जाने पर कोई प्रतिबन्ध न हो । लगभग सभी समाजों में उच्चता और निम्नता का एक क्रम देखने को मिलता है, साथ ही, वहाँ कुछ ऐसे नियम भी पाये जाते है जो निम्न वर्ग के लोगों को ऊँचा उठाने पर प्रतिबन्ध लगाते हैं क्योंकि इससे समाज में व्यवस्था और सन्तुलन बना रहता है । (III) उदग्र सामाजिक गतिशीलता की तीव्रता, मात्रा एवं व्यापकता प्रत्येक समाज में अलग-अलग होती है । चूंकि प्रत्येक समाज की अपनी आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं, अतः उदग्र गतिशीलता की दर भी भिन्न-भिन्न होती है । जाति-व्यवस्था की अपेक्षा वर्ग-व्यवस्था में और गाँवों की अपेक्षा नगरों में उदग्र गतिशीलता अधिक पायी जाती है । (IV) एक ही समाज में विभिन्न समयों में आर्थिक, राजनीतिक और व्यावसायिक उदग्र गतिशीलता की दर एवं व्यापकता में अनार पाया जाता है । उदाहरण के लिए, प्राचीन भारत में कठोर जाति-व्यवस्था के कारण प्रत्येक जाति की आर्थिक एवं राजनीतिक स्थिति लगभग निश्चित थी किन्तु प्रजातन्त्र की स्थापना के बाद तथा औद्योगीकरण व नगरीयकरण के कारण वर्तमान में भारत में आर्थिक और राजनीतिक गतिशीलता में वृद्धि हुई है । (V) ऐतिहासिक एवं अन्य प्रकार के उपलब्ध तथ्य यह दिखलाते हैं कि उदग्र गतिशीलता की तीव्रता तथा मात्रा में वृद्धि या कमी की कोई निश्चित और शाश्वत प्रवृत्ति नहीं देखी जा सकती । यही कारण है कि इसके सन्दर्भ में निश्चयपूर्वक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती । (VI) उदग्र सामाजिक गतिशीलता लगभग सभी समूहों में धीरे-धीरे आती है तथा इसमें एक निश्चित व्यवस्था पायी जाती है । इसको सामाजिक चुनावों तथा व्यक्तियों के वितरण द्वारा नियन्त्रण में रखा जाता है । सोरोकिन ने सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में उदग्र सामाजिक गतिशीलता के लिए निम्नलिखित स्रोतों का उल्लेख किया है: (i) सेना: सैनिक शासन, गृह युद्ध एवं अन्तर्राष्ट्रीय युद्ध आदि के समय सेना सामाजिक गतिशीलता को बढ़ावा देती है । युद्ध में साहस, शौर्य व वीरता दिखाने वाले सैनिकों एवं अधिकारियों को शीघ्र पदोन्नतियाँ प्रदान की जाती हैं, उन्हें विभिन्न पदक एवं पदवियों से सम्मानित किया जाता है । युद्ध में विजय प्राप्त करने वाले राष्ट्र में यह स्थिति विशेष रूप से देखी जा सकती है । किन्तु युद्ध में हारने वाले राष्ट्र की स्थिति गुलाम जैसी हो जाती है और विजेता राष्ट्र उन पर जुर्माना एवं कई प्रकार की शर्तें थोप देता है । सैनिक शासन में सेना के अधिकारियों को अपनी स्थिति को ऊँचा उठाने का अच्छा अवसर मिलता है । (ii) धार्मिक संस्था: जिन समाजों में धर्म का अधिक महत्व है, वहाँ धर्म सामाजिक गतिशीलता को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । (iii) स्कूल: शिक्षण एवं प्रशिक्षण के द्वारा भी लोगों को अपनी सामाजिक स्थिति ऊँची उठाने एवं उदग्र गतिशीलता का अवसर प्राप्त होता है । वर्तमान युग में तो शिक्षा और प्रशिक्षण व्यक्ति को उच्च पद दिलाने का लाइसेन्स कहा जा सकता है । (iv) राजनीतिक संस्थाएँ: सरकारी नौकरी एवं राजनीतिक दल भी उदग्र सामाजिक गतिशीलता में सहायक है । सरकारी नौकरी से विभागीय परीक्षाएँ पास करने पर तथा वरिष्ठता क्रम के अनुसार कर्मचारियों को पदोन्नतियाँ प्रदान की जाती है । राजनीतिक दल भी व्यक्ति की सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाते है । जब कोई राजनीतिक दल चुनाव हार जाता है तो उसके नेता एवं कार्यकर्त्ताओं की स्थिति में गिरावट आती है । (v) व्यावसायिक संगठन: व्यावसायिक संगठन भी उदग्र सामाजिक गतिशीलता में सहायक होते हैं । एक व्यक्ति अपनी व्यावसायिक योग्यता एवं कुशलता बढ़ाकर भी समाज में ऊँचा पद ग्रहण कर सकता है । विभिन्न प्रतिष्ठित व्यावसायिक संगठनों की सदस्यता ग्रहण करके भी व्यक्ति समाज में ऊँचा उठ सकता है । (vi) सम्पत्ति उत्पादक संगठन: समाज में ऐसे कई उत्पादन संगठन हैं जो लोगों को धन कमाने का अवसर प्रदान करते हैं । चायबागान, मिल कारखाने, खानें, फैक्ट्रियां, वस्त्र उद्योग, जूट उद्योग एवं ऐसे ही हजारों संगठन है जो समाज में सम्पत्ति अर्जन करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं । इन संगठनों की सफलता व्यक्ति को समाज में उच्च आर्थिक एवं राजीतिक स्थिति प्रदान करती है । (vii) परिवार: सामाजिक प्रस्थिति इस बात पर भी निर्भर है कि व्यक्ति ने किस परिवार में जन्म लिया है । राजघराने में जन्म लेने वाले व्यक्ति की सामाजिक स्थिति अन्य लोगों की तुलना में सामान्यतः ऊँची होती है । 3. अन्त: तथा अन्तर पीढी गतिशीलता: पीढी को आधार मानकर गतिशीलता के दो प्रकारों का उल्लेख किया जा सकता है: (i) अन्तर पीढ़ी गतिशीलता, तथा (ii) अन्त; पीढ़ी गतिशीलता । (i) अन्तर पीढ़ी गतिशीलता: पीढ़ी शब्द की कई व्याख्याएं की गई हैं । कई बार हम एक व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन काल को एक पीढ़ी कहते हैं और उसकी सन्तति को विभिन्न पीढ़ियों द्वारा सम्बोधित करते हैं । पौड़ी शब्द का प्रयोग एक आयु समूह के लोगों के लिए भी किया जाता है । अन्तर पीढ़ी गतिशीलता का तात्पर्य है एक पीढ़ी में धारण किये गये पद को त्यागकर दूसरी पीढ़ी के पदों को ग्रहण करना । यह प्राकृतिक एवं स्वाभाविक है । अनार पीढ़ी गतिशीलता का एक उदाहरण आश्रम व्यवस्था है । जिसमें एक व्यक्ति ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और सन्यास आश्रम से गुजरता है । यह गतिशीलता व्यवस्थित, सरल तथा जटिलताओं से मुक्त है । विवाह करके व्यक्ति द्वारा पति व पिता का तथा स्त्री द्वारा पत्नी व माँ का पद ग्रहण करना भी अन्तर पीढ़ी गतिशीलता ही है । (ii) अन्त: पीढ़ी गतिशीलता: यदि एक व्यक्ति एक पीढ़ी में एक पद को त्यागकर दूसरा पद ग्रहण करता है तो उसे हम अन्त: पीढ़ी गतिशीलता कहेंगे । प्रत्येक समाज में हमें अन्त: पीढ़ी और अन्तर पीढ़ी गतिशीलता देखने को मिलती है । गतिशीलता के उदग्र एवं क्षैतिज स्वरूपों की व्याख्या हम अन्त: और अन्तर पीढी गतिशीलता के सन्दर्भ में कर सकते हैं । 4. मुक्त (खुली) एवं बन्द गतिशीलता: सामाजिक स्तरीकरण के आधार पर गतिशीलता के दो प्रमुख स्वरूप हैं: (i) मुक्त एवं (ii) बन्द गतिशीलता । गतिशीलता के ये दोनों ही प्रमुख स्वरूप एक-दूसरे के विपरीत हैं । (i) मुक्त (खुली) गतिशीलता: इस प्रकार की गतिशीलता वाले समाजों में विभिन्न स्तर समूहों की सदस्यता का आधार जन्म या आनुवंशिकता न होकर व्यक्ति के गुण, योग्यता एवं उपलब्धियाँ होती हैं । व्यक्ति की किसी भी सार समूह की सदस्यता का निर्धारण जीवन भर के लिए नहीं होता है । वह एक स्तर एवं पद से दूसरे स्तर एवं पद में गमन कर सकता है । आज जो व्यक्ति एक स्थिति समूह का सदस्य है, वह आगे आने वाले समय में अपनी योग्यता, गुणों एवं परिश्रम के आधार पर उपलब्धियों को बढ़ाकर किसी उच्च स्तर, पद या समूह की सदस्यता ग्रहण कर सकता है । मुक्त व्यवस्था वाले समाजों में गतिशीलता को स्वीकार किया जाता है, और बढ़ावा दिया जाता है । एक व्यक्ति अपनी प्रस्थिति और पद में वृद्धि और प्रगति के लिए स्वतन्त्र होता है । इसलिए ही इसे खुली या मुक्त गतिशीलता के नाम से पुकारा जाता है । मुक्त गतिशीलता वर्ग व्यवस्था पर आधारित संस्तरण की व्यवस्था वाले समाजों में देखने को मिलती है । यूरोप के अधिकतर समाजों एवं अमेरिका में मुन्ना गतिशीलता अधिक पायी जाती है क्योंकि वहाँ सामाजिक संस्तरण वर्ग के आधार पर निर्मित है । वहाँ वर्ग की सदस्यता का निर्धारण प्रमुखत: व्यक्ति की आर्थिक स्थिति के आधार पर होता है । राजनीतिक सत्ता या शक्ति तथा सांस्कृतिक क्षेत्र में प्राप्त विशिष्ट उपलब्धियाँ भी व्यक्ति में गतिशीलता उत्पन्न करने में योग देते हैं । (ii) बन्द गतिशीलता: इस प्रकार की गतिशीलता बन्द स्तरीकरण वाली समाज व्यवस्था की विशेषता है जिन में व्यक्ति के पद एवं स्तर समूह का निर्धारण जन्म या आनुवंशिकता के आधार पर होता है जिसे वह अपने जीवनकाल में नहीं बदल सकता है । अत: एक समूह को त्यागकर दूसरे समूह की सदस्यता ग्रहण करने का प्रश्न ही नहीं उठता है । बन्द स्तरीकरण वाली व्यवस्था का उदाहरण भारत की जाति प्रथा है । इसके अन्तर्गत व्यक्ति की जाति का निर्धारण जन्म के समय ही हो जाता है । व्यक्ति आजीवन उसी जाति का सदस्य बना रहता है जिसमें उसका जन्म हुआ है । प्रत्येक जाति की समाज में स्थिति, अधिकार, दायित्व एवं कार्य निश्चित होते हैं । व्यक्ति की गतिशीलता के अवसर नगण्य होते हैं । किन्तु वर्तमान में नगरीयकरण, औद्योगीकरण पाश्चात्य सभ्यता, शिक्षा और संस्कृति, नवीन संविधान, प्रजातन्त्र एवं कानूनों के प्रभावों के कारण जातीय कठोरता कम हुई है और एक जाति के व्यक्ति दूसरी जातियों के व्यवसायों मूल्यों, व्यवहारों, प्रथाओं आदि को अपना रहे हैं । डॉ. एम. एन. श्रीनिवास का मत है कि भारत में निम्न जातियाँ ‘संस्कृतीकरण’ की प्रक्रिया द्वारा अपनी सामाजिक स्थिति ऊँची उठा रही हैं और अपने को उच्च जातियों में सम्मिलित करने के लिए प्रयत्नशील हैं ।
(क) बर्ट्राण्ड की अवधारणा: बर्ट्राण्ड ने सामाजिक गतिशीलता की दर को प्रभावित करने वाले निम्नलिखित चार कारकों का उल्लेख किया है । अवसर, संरचना जनांकिकी प्रक्रियाएँ, स्वचालित यन्त्रों का प्रभाव एवं महत्वाकांक्षा का स्तर । (1) अवसर संरचना: होजेज का मत है कि किसी भी समाज में सामाजिक गतिशीलता की मात्रा एवं दर समाज में विद्यमान अवसर-संरचना पर निर्भर करती है । कुछ समाजों में सामाजिक-वर्ग-व्यवस्था की प्रकृति ही ऐसी होती है कि वह सामाजिक गतिशीलता को रोकती है । सरल सामाजिक संरचना भी गतिशीलता में बाधक है । जाति-व्यवस्था वाले समाज में तो उदग्र सामाजिक गतिशीलता को हतोत्साहित किया जाता है । दूसरी ओर जटिल समाजों में व्यापार, शिक्षा, सेना एवं अन्य क्षेत्रों में नौकरशाही ही व्यापक व्यवस्था होने के कारण सामाजिक गतिशीलता के अवसर अधिक होते है । (2) जनांकिकी प्रक्रियाएँ: सामाजिक गतिशीलता के लिए उत्तरदायी दूसरा कारक जनसंख्यात्मक है । इसके दो तरीके हैं: (i) अप्रवास: जब किसी देश में समाज या दूसरे समाज से लोग आकर बसते हैं तो वे वहाँ के मूल निवासियों को सामाजिक संस्तरण में ऊपर की ओर ढकेलते हैं क्योंकि नवआगन्तुक समाज एवं व्यवसाय में निम्न स्थिति को स्वीकार करने के लिए तैयार हो जाते है । अमरीका, यूरोप एवं एशिया के कई देशों में ऐसा ही हुआ है । (ii) आन्तरिक गतिशीलता: ग्रामीण लोग अपनी सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाने के लिए नगरों में आकर बस जाते हैं । इसी प्रकार से नौकरी में पदोन्नति होने पर अथवा अधिक वेतन पाने के लिए भी लोग एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र एवं शहरों में चले जाते हैं । (iii) जन्म-दर में भिन्नता: कुछ समाजों में उच्च वर्ग के लोग इतनी सन्तानें पैदा नहीं करते जितनी मात्रा में उनमें स्थान रिक्त होते हैं । इससे समाज में शून्यता की स्थिति पैदा हो जाती है । अत: रिक्त स्थानों की पूर्ति के लिए निम्न वर्गों से लोग भर्ती किये जाते हैं । (3) स्वचालित यन्त्रों का प्रभाव: स्वचालित यन्त्रों के कारण बड़ी मात्रा में उत्पादन होने लगा है । एक तरफ इसने श्रमिक वर्ग में बेकारी उत्पन्न की है दूसरी ओर इसने नये श्वेत वस्त्रधारी व्यवसायों को जन्म देकर उदग्र सामाजिक गतिशीलता के द्वार खोल दिये है । ज्यों-ज्यों स्वचालित यन्त्रों का प्रयोग एवं विकास होगा, उसके साथ-साथ इस प्रकार की गतिशीलता में भी वृद्धि होगी । (4) महत्वाकांक्षा का स्तर: खुले वर्ग वाले समाजों में सामाजिक गतिशीलता इस बात पर भी निर्भर करती है कि वहाँ लोगों में महत्वाकांक्षाएं-कितनी ऊँची है और उन्हें पूरा करने के लिए वे कितना प्रयत्न करते हैं । उच्च महत्वाकांक्षाएँ होने पर व्यक्ति उन्हें प्राप्त करने के लिए कठोर प्रयत्न भी करते हैं । यही कारण है कि अमरीका में मध्यम वर्ग में सामाजिक गतिशीलता अधिक पायी जाती है क्योंकि उनकी महत्वाकांक्षाएँ उच्च हैं उनके लिए वे प्रयत्नशील भी रहते है । (ख) ब्रूत तथा सेल्जनिक ने सामाजिक गतिशीलता को प्रभावित करने वाले पाँच कारकों का उल्लेख किया है: (1) व्यावसायिक एवं आर्थिक संरचना में परिवर्तन- जब नये व्यवसाय खुलते हैं तो नये पदों का सृजन किया जाता है एवं पुराने पद समाप्त हो जाते हैं । (2) सन्तानोत्पत्ति की दर में अन्तर आना- जब कोई वर्ग सन्तानोत्पत्ति के द्वारा रिक्त पदों की पूर्ति नहीं कर सकता है तो अन्य वर्गों द्वारा उनकी पूर्ति की जाती है । (3) प्रवासी लोगों का केन्द्रीयकरण- जब लोग एक ही स्थान पर बस जाते है तो वहाँ भी गतिशीलता उत्पन्न हो जाती है । (4) शिक्षा में वृद्धि- इससे भी उदग्र गतिशीलता बढती है । (5) लोगों की महत्वाकांक्षा में वृद्धि- इससे भी सामाजिक गतिशीलता बढ़ती है ।
सोरोकिन ने सामाजिक गतिशीलता के तीन प्रभावों का उल्लेख किया है: (i) इससे समाज की प्रजातीय संचरना परिवर्तित होती है, (ii) इससे मानव व्यवहार एवं मनोविज्ञान में परिवर्तन आता है, (iii) इससे सामाजिक प्रक्रियाएँ जैसे सहयोग, सामंजस्य, प्रतिस्पर्द्धा प्रतियोगिता एवं एकीकरण तथा सामाजिक संगठन प्रभावित होता है । दुर्खीम ने ‘आत्म-हत्या’ के अध्ययन के दौरान सामाजिक गतिशीलता का उल्लेख करते हुए लिखा है कि ऊर्ध्वगामी एवं अधोगामी गतिशीलता समाज में नियमहीनता को जन्म देती है जिसके परिणामस्वरूप आत्म-हत्या की दर बढ़ जाती है । होलिंन्सहेड, ऐलिस, ऐरबी आदि ने अपने अध्ययन में पाया कि सामाजिक गतिशीलता बीमारियों एवं नसों के टूटने के लिए उत्तरदायी है । i. सामाजिक संगठनों पर प्रभाव: सामाजिक गतिशीलता का सामाजिक संगठनों पर भी प्रभाव पड़ता है । गतिशीलता वैयक्तिकता एवं प्रतियोगिता की भावना को विकसित करती है । गतिशीलता की दर बढ़ने पर प्राथमिक समूहों की दृढ़ता समाप्त होने लगती है जो कि गतिशील समाज में सामाजिक नियन्त्रण की व्यवस्था को भी प्रभावित करती है । सामाजिक गतिशीलता प्राथमिक समूहों की संरचना विशेषतः परिवार एवं मित्रता को विघटित करती है जबकि द्वैतीयक समूह पर इसका प्रभाव कम पड़ता है सामाजिक गतिशीलता प्रस्थिति प्रतिमान, राजनीतिक व्यवस्था, आय उपभोग प्रतिमान एवं मूल्य व्यवस्था को प्रभावित करती है । ii. सीमान्त मानव: वर्तमान समय में समाजशास्त्रियों ने सामाजिक गतिशीलता की समस्या को सीमान्त मानव के परिपेक्ष्य में देखने का प्रयास किया है । आज के गतिशील समाजों में जब एक व्यक्ति एक प्रस्थिति या व्यवसाय से दूसरी प्रस्थिति या व्यवसाय को अपनाता है तो उसे नये व्यवहारों एवं मूल्यों का सामना करना पड़ता है । ऐसा व्यक्ति अपने पूर्व प्रभावों एवं आदतों से पूरी तरह मुक्ति नहीं पा सकता । दूसरी ओर उसे नयी परिस्थितियों से भी अनुकूलन करना होता है । ऐसा व्यक्ति पूरी तरह से न तो पुराने समूह का और न ही नये समूह का सदस्य रह पाता है । वह इन दोनों के बीच की स्थिति में होता है; इस स्थिति को सीमान्तता एवं ऐसे व्यक्ति को ‘सीमान्त मानव’ कहा गया है । iii. सन्दर्भ समूह: गतिशीलता व्यक्ति की समूह-सदस्यता में परिवर्तन के लिए भी उत्तरदायी है । इस समस्या के दो पक्ष हैं- (i) व्यक्ति अपने प्राथमिक समूह को त्याग देता है या त्यागने की इच्छा रखता है । (ii) व्यक्ति दूसरे समूह की सदस्यता की कामना करता है । यहीं ‘सन्दर्भ समूह’ की अवधारण उत्पन्न होती है । हेमेन, स्टोफर, सचमेन, मज्जफर, शेरीफ एवं कई विद्वानों ने व्यक्ति पर सन्दर्भ समूहों के प्रभावों का उल्लेख किया है । सीमान्त मानव एवं सन्दर्भ समूह की अवधारणाएँ परस्पर सम्बन्धित है और आधुनिक औद्योगिक समाजों में सामाजिक गतिशीलता का परिणाम हैं । iv. मनोवैज्ञानिक प्रभाव: सामाजिक गतिशीलता व्यक्ति को उच्च प्रस्थिति प्राप्त करने एवं प्रतिस्पर्द्धा के लिए प्रेरित करती है । ये स्थितियाँ व्यक्ति में तनाव एवं निराशा उत्पन्न करती हैं । यह आवश्यक नहीं है कि प्रतिस्पर्द्धा में सदैव ही योग्य व्यक्तियों को पुरस्कृत किया जाता हो । जब अयोग्य व्यक्ति उच्च पद पा जाते हैं तो योग्य व्यक्तियों में तनाव एवं निराशा पैदा होती है । इसी प्रकार से जब समाज-व्यवस्था व्यक्ति से ऊँचा उठने की माँग करती है और वह ऐसा नहीं कर सकता तब भी व्यक्ति में निराशा एवं तनाव उत्पन्न होता है । समाज में अधिक महत्वपूर्ण पद पाने के लिए व्यक्ति अपनी अन्य भूमिका की अवहेलना करके कठोर प्रयत्न करता है जिससे उस के व्यक्तित्व में असन्तुलन पैदा होता है । अधोगामी गतिशीलता भी व्यक्ति में निराशा, तनाव एवं उदासीनता पैदा करती है और वह समाज में सामंजस्य बनाये रखने में कठिनाई महसूस करता है ।
सामाजिक गतिशीलता सामाजिक परिवर्तन की सामान्य एवं विस्तृत प्रक्रिया का ही अंग है । क्षैतिज या उदग्र सामाजिक गतिशीलता सामाजिक संरचना में परिवर्तन लाती है । इसके द्वारा परितर्वन की गति एवं मात्रा तीव्र होती है । सामाजिक परिवर्तन में समाज की संरचना, समूहों संगठनों, संस्थाओं एवं सम्बन्धों में परिवर्तन आता है जबकि सामाजिक गतिशीलता में व्यक्ति या समूह के पदों में परिवर्तन आता है । सामाजिक गतिशीलता एवं सामाजिक परिवर्तन में घनिष्ठ सम्बन्ध है । परिवर्तन एवं गतिशीलता को प्रोत्साहित एवं हतोत्साहित करने वाले कारकों में भी समानता है । सामाजिक परिर्वतन का क्षेत्र व्यापक है । उसमें सामाजिक व्यवहारों प्रथाओं, सम्बन्धों, संगठनों एवं भूमिकाओं आदि में परिवर्तन को सम्मिलित किया जाता है जबकि सामाजिक गतिशीलता में केवल व्यक्ति या समूह की स्थिति में होने वाले परिवर्तन को गिना जाता है । इन दोनों में निम्नांकित अन्तर हैं: (1) व्यापकता: सामाजिक परिवर्तन सामाजिक गतिशीलता की अपेक्षा अधिक व्यापक और विस्तृत है सामाजिक गतिशीलता में व्यक्ति या समूह की प्रस्थिति या पद में होने वाले परिवर्तन को ही सम्मिलित करते हैं जबकि सामाजिक परिवर्तन में सामाजिक ढाँचे एवं प्रकार्य में होने वाले परिवर्तनों को गिना जाता है । (2) सम्बन्ध: सामाजिक परिवर्तन एक व्यापक अवधारणा है; सामाजिक गतिशीलता उसका एक अंग है । इनके सम्बन्ध को हम सम्पूर्ण तथा अंग के रूप में प्रकट कर सकते हैं । (3) क्षेत्र: सामाजिक परिवर्तन का सम्बन्ध किसी समूह, समाज या समाज के बहुत बड़े भाग में परिवर्तन से है न कि किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत सम्बन्धों या व्यवहारों में परिवर्तन से । सामाजिक गतिशीलता में अपेक्षतया व्यक्ति पर अधिक जोर दिया जाता है । सम्पूर्ण जाति-व्यवस्था में परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन है जबकि एक व्यक्ति द्वारा एक व्यवसाय खेडकर दूसरा व्यवसाय ग्रहण करना सामाजिक गतिशीलता है । (4) कार्य-कारण: सामाजिक परिवर्तन सामाजिक गतिशीलता को सम्भव बनाता है । सामाजिक परिवर्तन गतिशीलता का कारण है और सामाजिक गतिशीलता परिवर्तन का परिणाम है । किन्तु कई बार सामाजिक गतिशीलता भी सामाजिक परिवर्तन की गति को तीव्र कर देती है । (5) गति: सामाजिक परिवर्तन की अपेक्षा सामाजिक गतिशीलता की गति धीमी होती है । जाति-व्यवस्था वाले समाजों में गतिशीलता का विरोध किया जाता है । यदि कोई व्यक्ति अपनी जाति छेड़कर उच्च जाति की सदस्यता ग्रहण करना चाहता है तो लोग उसका विरोध करते है । भारतीय समाज में सामाजिक गतिशीलता एवं सामाजिक परिवर्तन: (A) क्षैतिज गतिशीलता: भारतीय समाज में भी क्षैतिज और उदग्र दोनों ही प्रकार की गतिशीलता पायी जाती है । एक परम्परागत समाज होने के नाते उदग्र गतिशीलता के उदाहरण यहाँ कम ही दिखायी देते हैं । इसके स्थान पर क्षैतिज गतिशीलता एवं उसके विभिन्न प्रकारों जैसे क्षेत्रीय, अन्त: पारिवारिक एवं अन्त: नातेदारी, अन्त: एवं बाह्य व्यावसायिक, अन्तःप्रान्तीय, अन्तः धार्मिक, अन्तर्दलीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय गतिशीलता आदि का प्रचलन भारत में अपेक्षतया अधिक है । आजादी के बाद भारत में प्रजातन्त्र की स्थापना की गयी जिससे सामाजिक गतिशीलता में वृद्धि हुई है । शिक्षा के प्रसार, औद्योगीकरण एवं नगरीकरण ने लोगों में गतिशीलता उत्पन्न की । ग्रामीण लोग नगरीय उद्योगों में काम करने के लिए आने लगे । फलस्वरूप नगरीयकरण में वृद्धि हुई । वर्तमान में लगभग 27 प्रतिशत जनसंख्या नगरों में रह रही है । गाँवों की अपेक्षा नगरों में, सामाजिक गतिशीलता अधिक पायी जाती है क्योंकि नगरों में शिक्षा, आर्थिक सफलता और व्यावसायिक उन्नति के अवसर अधिक पाये जाते हैं तथा व्यवसाय पर जाति का प्रभाव भी कम है । गांवों में प्रदत्त प्रस्थिति का अधिक महत्व है जो गतिशीलता में बाधा उत्पन्न करती है । दूसरी ओर नगरों में अर्जित प्रस्थिति का महत्व अधिक है । वहाँ व्यक्ति का मूल्यांकन उसकी जाति, परिवार, गोत्र आदि से न करके उसकी शिक्षा, योग्यता और गुणों के आधार पर किया जाता है । व्यक्तियों में उच्च महत्वाकांक्षाएं पायी जाती है और उन्हें पाने के लिए वे प्रयत्नशील भी रहते है । नगरों में घटित होने वाले सामाजिक परिवर्तन की शक्तियाँ भी सामाजिक गतिशीलता उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी हैं । नगर के लोगों में सामाजिक संस्तरण की सीढ़ियों को लाँघकर ऊँचा उठने की तीव्र इच्छा होती है जिससे कि वे अधिक धन एवं प्रतिष्ठ प्राप्त कर सकें । (B) रैखिक गतिशीलता: भारत में उदग्र एवं रैखिक गतिशीलता अपेक्षतया कम पायी जाती है । जाति-व्यवस्था के प्रचलन के कारण हमारे समाज में इस प्रकार की गतिशीलता के अवसर नहीं पाये जाते । फिर भी समय-समय पर मध्य सार की जातियों ने जाति संस्तरण में ऊँचा उठने का प्रयत्न किया है । उनके अनुसार इस प्रक्रिया को डॉ॰ एम. एन. श्रीनिवास ने ‘संस्कृतीकरण’ की संज्ञा दी है । “संस्कृतीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कोई निम्न जाति या जनजाति या और दूसरा समूह अपने से ऊँचे विशेषकर द्विज जाति के संस्कारों विश्वासों विचारों तथा रहन-सहन के ढंग को अपना लेता है ।” जो जाति संस्कृतीकरण करती है, वह अपने आस-पास की दूसरी जातियों की तुलना में ऊँची उठ जाती है । संस्कृतीकरण करने वाली जाति की स्थिति में परिवर्तन आ जाता है । संस्कृतीकरण के कई प्रारूप हैं । कई बार ब्राह्मणों की जीवन-विधि को अपनाया जाता है तो कहीं पर क्षत्रिय, वैश्य या प्रभुजाति को आदर्श मानकर उनकी जीवन-विधि को अपनाया गया है । संस्कृतीकरण करने वाली जाति माँस-मदिरा का त्याग कर देती है, जनेऊ पहनने लगती है, विधवा पुनर्विवाह निषेध का पालन करती है, बाल-विवाह करना प्रारम्भ कर देती है, मन्दिर जाना, हरि-कथा में भाग लेना और विवाह सम्पन्न कराने के लिए ब्राह्मणों को आमन्त्रित करती है उच्च जातियों के देवी-देवता जैसे राम, कृष्ण, हनुमान, सत्यनारायण, सीता, राधा, पार्वती आदि की पूजा करने लगती है । वह एक या दो पीढ़ी पूर्व से अपना सम्बन्ध किसी उच्च जाति से जोड़ती है और इस प्रकार भी कहानियाँ गड़ती है जिनमें वह अपनी उत्पत्ति किसी उच्च जाति के पूर्वज से बताती है । इस प्रकार संस्कृतीकरण की प्रक्रिया द्वारा एक निम्न जाति जातीय संरचना में ऊपर उठने का प्रयत्न करती है । श्रीनिवास ने दक्षिण में कुर्ग में तथा पश्चिमी भारत के भीलों एवं मध्य भारत के गोंड एवं उराँव लोगों में सामाजिक गतिशीलता के रूप में संस्कृतीकरण की प्रक्रिया की चर्चा की है । विभिन्न समाजशास्त्रियों ने भारत के अन्य भागों में भी इस प्रक्रिया के घटित होने का उल्लेख किया है । सामाजिक गतिशीलता की प्रमुख विशेषताएं क्या है?सामाजिक गतिशीलता की विशेषताएं लिखिए
आयु बढ़ने के साथ-साथ व शिशु कुछ परिस्थिति अर्जित ही करता है। सामाजिक गतिशीलता का संबंधित समूह की परिस्थिति या पद से रहता है। 2. सामाजिक पद में परिवर्तन- सामाजिक गतिशीलता की एक प्रमुख विशेषताएं होती है कि व्यक्ति समूह के पूर्व की पद में निश्चित रूप से बदलाव आता है।
सामाजिक गतिशीलता क्या है सामाजिक गतिशीलता के प्रकार बताइये?व्यक्तियों, परिवारों या अन्य श्रेणी के लोगों का समाज के एक वर्ग (strata) से दूसरे वर्ग में गति सामाजिक गतिशीलता (Social mobility) कहलाती है। इस गति के परिणामस्वरूप उस समाज में उस व्यक्ति या परिवार की दूसरों के सापेक्ष सामाजिक स्थिति (स्टैटस) बदल जाता है।
सामाजिक गतिशीलता क्या है इसे करने की चर्चा कीजिये?अर्थात् एक स्थिति से उसी सामाजिक वर्ग या स्थिति के साथ दूसरी सामाजिक स्थिति में जाना। इस पार्श्विक गतिशीलता को समस्तरीय गतिशीलता के रूप में जाना जाता है। सामाजिक गतिशीलता को प्रायः व्यावसायिक स्तरों के संदर्भ में आमदनी तथा उपभोग के नमूनों के आधार पर व्यक्तियों का समूहों का ऊपर या नीचे की तरफ गतिशील होना माना जाता है।
सामाजिक गतिशीलता की प्रमुख विशेषताएँ क्या है सामाजिक गतिशीलता में वृद्धि के कारकों का वर्णन कीजिए?सामाजिक परिवर्तन की अपेक्षा सामाजिक गतिशीलता की गति धीमी होती है । जाति-व्यवस्था वाले समाजों में गतिशीलता का विरोध किया जाता है । यदि कोई व्यक्ति अपनी जाति छेड़कर उच्च जाति की सदस्यता ग्रहण करना चाहता है तो लोग उसका विरोध करते है । भारतीय समाज में भी क्षैतिज और उदग्र दोनों ही प्रकार की गतिशीलता पायी जाती है ।
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