परिमल संस्था की स्थापना कब हुई? - parimal sanstha kee sthaapana kab huee?


प्रमुख स्थापनाएँ (Prmukh Sthapnayen)

फोर्ट विलियम कालेज, कलकत्ता 4 मई, 1800 ई०
कवितावर्धिनी सभा, काशी 1870 ई० (संस्थापक-भरतेन्दु हरिश्चन्द्र)
हिन्दी (भाषा) संवर्द्धिनी सभा, अलीगढ़ 1874 ई० (संस्थापक-भरतेन्दु मंडल के एक सदस्य बाबू तोताराम वर्मा)
हिन्दी उद्धारिणी प्रतिनिधि मध्य सभा, प्रयाग 1884 ई०
नागरी प्रचारिणी सभा, काशी 16 जुलाई, 1893 ई० (संस्थापक-श्याम सुंदर दास, राम नारायण मिश्र व शिव कुमार सिंह)
सरस्वती (पत्रिका), काशी (बाद में इलाहाबाद से प्रकाशन) 1900 ई० (संस्थापक-चिंतामणि घोष)
हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग 1910 ई० (प्रथम सभापति-मदन मोहन मालवीय)
दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार संस्था, मद्रास 1915 ई० (संस्थापक-महात्मा गाँधी)
अखिल भारतीय संगीत परिषद 1919 ई०
प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) 9 अप्रैल, 1936 ई० (प्रथम अधिवेशन-लखनऊ, प्रथम सभापति-प्रेमचंद)
इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन (IPTA) 25 मई, 1942 ई०
परिमल, इलाहाबाद (नये लेखकों की संस्था) 10 दिसम्बर, 1944 ई० (संस्थापक-डॉ० रघुवंश, लक्ष्मीकांत वर्मा, विजयदेव नारायण साही, धर्मवीर भारती व जगदीश गुप्त) प्रलेसं के जवाब में स्थापित संस्था)
संगीत नाटक अकादमी, नई दिल्ली 28 जनवरी, 1953 ई० (भारत सरकार द्वारा)
साहित्य अकादमी, नई दिल्ली 12 मार्च, 1954 ई० (भारत सरकार द्वारा)
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (NSD), नई दिल्ली 1959 ई०
केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा (उ० प्र०) 1962 ई० (भारत सरकार द्वारा)
जनवादी लेखक संघ (जलेस), नई दिल्ली फरवरी, 1982 ई०
जन संस्कृति मंच (जसम), नई दिल्ली 26 अक्तुम्बर, 1985) ई०
महात्मा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) 1997 ई०

Solution : परिमल. एक साहित्यिक संस्था है। इसकी शुरुआत इलाहाबाद से हुई। आरंभ में इलाहाबाद के साहित्यिक मित्र इसके सदस्य थे। वे आपस में हिन्दी कविता, कहानी, उपन्यास नाटक आदि पर साहित्यिक गोष्ठियाँ किया करते थे। धीरे-धीरे वे गोष्ठियाँ अखिल भारतीय स्तर की होती चली गई। संस्था भी आसपास के क्षेत्रों में फैलने लगी । बाद में मुंबई, जौनपुर, मथुरा, पटना तथा कटनी में भी परिमल. की स्थापना हुई। इलाहाबाद में लेखक सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, डॉ, रघुवंश, फादर कामिल बुल्के और अन्य बड़े साहित्यकार इसमें भाग लिया करते थे। डॉ. बुल्के ने .रामकथा : उत्पत्ति और विकास. के कुछ अध्याय परिमल में पढ़े थे।

परिमल की स्थापना की कहानी बहुत छोटी और सीधी-सादी हैइसको लिखने का मेरा मन कई बार हुआ, मुख्यतः इसलिए कि इस संबंध में समय-समय पर ऐसी बातें कही गई जो तथ्य से बिल्कुल परे हैं। परिमल के रजत पर्व के बाद प्रकाशित स्मारिका (१९७१) देखकर भी बहुत आश्चर्य हुआ। यदि उस समय परिमल संबंधी पुराने कागजात आज की अपेक्षा अधिक आसानी से उपलब्ध हो सकते थे, प्रयत्न किया जाता तो परिमल की स्थापना की कहानी अच्छे ढंग से दी जा सकती थी।

   विश्वविद्यालय के बौद्धिक और सांस्कृतिक वातावरण में इन सबका बहुत महत्व था। इस सामाजिक और सामूहिक परिदृश्य के विपरीत व्यक्तिगत स्तर पर हिंदी लेखन समृद्ध हो रहा था। छायावाद युग समाप्तप्राय था, पर नई पीढ़ी के कवि और लेखक सशक्त स्वर में मुखर हो रहे थे। सरस्वती, विशाल भारत आदि के अतिरिक्त अभ्युदय, संगम जैसी मध्यम वर्ग पत्रिकाएँ साहित्यिक सृजनता के प्रसार में सक्रिय थी। कुछ लघु पत्रिकाएँ भी काफी महत्वपूर्ण थीं। 'परिमल' इलाहाबाद की इन्हीं साहित्यिक सांस्कृतिक परिवेश और परिस्थितियों की उपज था। शायद १९५६ की बात है। भारती, जगदीश गुप्त व विजई (साही) आए हुए थे। अज्ञेय के साथ साउथ एवेन्यू में ठहरे थे। वहाँ उनसे मिलने जाने की चर्चा मेरी डायरी में है। संक्षेप में कहूँ तो जब मैं उनके पास वहाँ गया तो कुछ देर बातचीत के बाद साही मुझे अलग बैठे अज्ञेय के पास ले गया बोला, “अज्ञेय जी, आज आपको एक ऐतिहासिक व्यक्ति से मिलवाते हैं। यह हैं 'परिमल' के संस्थापक।'' बात मित्रता के प्रवाह में अधिक कही गई थी। पर सार की बात यह अवश्य है कि परिमल हम दोनों की मित्रता से ही उभरी।

   विश्वविद्यालय हमारी टोली हिंदी-उर्दू विभाग के लम्बे बरामदे की सीढ़ियों या उसके सामने के डाकघर से लगे सुंदर लान पर इकट्ठी हुआ करती थी (अब डाकघर वाले बड़े भवन को तोड़कर कोई नया निर्माण हो गया है) या जब फुरसत अधिक होती थी और कविता पढ़ने-सुनने का मूड बनता था तो जहाँ अब हिंदी विभाग का नया भवन बना है, उसके पीछे एक पुराने कुएं के पास अड्डा जमता था। विजई (विजयदेव नारायण साही), गोपेश, धर्मवीर, जगदीश, गिरिधर आदि की इस टोली में अगले वर्ष केशव (केशचन्द्र वर्मा से मेरा परिचय परिमल की स्थापना से दो वर्ष पहले फैजाबाद में हुआ था और शीघ्र ही हमारी घनिष्ठता हो गई। मैं उनके साहित्य और संगीत से बहुत प्रभावित था। परिमल के अन्य सदस्यों से उनका परिचय बाद में हुआ) । महेन्द्र प्रताप और सर्वेश्वरदयाल सक्सेना भी जुड़ गए। कभी-कभी लक्ष्मीकान्त वर्मा भी आ बैठते थे। कुछ बात अटपटी लगेगी, पर हिंदी की उस समय की कई लोकप्रिय कविताएँ पहली बार इस कुएं के पास ही पढ़ी गईं। जगदीश गुप्त का भी कहना है कि परिमल के सदस्य पहले मित्र बने फिर साहित्यकार।

    पहली बैठक १० दिसंबर, १९४४ को नए कटरे में हरीमोहन श्रीवास्तव के घर (वह उस वर्ष बेली रोड पर आकर रहने लगे थे) हुई। गिरिधर गोपाल से मेरी और विजईकी बात हो चुकी थी। संविधान की रूप रेखा भी हमने तैयार कर ली थी। बैठक में कुल आठ लोगों ने भाग लिया और उसकी अध्यक्षता की डा. राकेश गुप्त ने। भाग लेने वालों में थे डा. राकेश गुप्त, हरीमोहन श्रीवास्तव, महेश चंद्र चतुर्वेदी, इंद्रनारायण टंडन, विजई, गिरिधर गोपाल और मैं। जहाँ तक मुझे याद है, आठवे सज्जन थे रामचंद्र ५ वर्मा। (महेश चतुर्वेदी १० दिसंबर की बैठक के बाद सदस्य नहीं उटीं रहे)। उस समय बैठक में संस्था के नाम पर कोई निर्णय नहीं लिया गया लेकिन हरीमोहन श्रीवास्तव । उसके संयोजक बनाए गए और उन्होंने मुझे सहायक संयोजक नियुक्त किया। संस्था में किसी अन्य पद की व्यवस्था नहीं की गई थी। यद्यपि गोपेश, जगदीश गुप्त, भारती, केशव, महेन्द्र प्रताप पहली बैठक में नहीं थे, उनसे बातचीत हो चुकी थी। केवल महेन्द्र प्रताप ने शुरू में कुछ ना-नुकुर की थी पर मार्च की बैठक तक वे सब व कुछ अन्य मित्र सदस्य हो चुके थे।

    जुलाई में ग्रीष्मावकाश के बाद विश्वविद्यालय खुलने पर हरीमोहन श्रीवास्तव व इंद्रनारायण टंडन दिल्ली नहीं आए। मुझे संयोजक निर्वाचित किया गया और मैंने गिरिधर गोपाल को सहायक संयोजक मनोनित किया। अगले दो वर्षों में हरीमोहन दास टंडन, प्रकाशचंद्र गुप्त, लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय, गंगा प्रसाद पाण्डेय, चंद्रभूषण धर द्विवेदी, रघुवंश, कामिल बुल्के और श्रीपाल सिंह 'क्षेम', इंद्र सांधी समय-समय पर सदस्य बने। जुलाई १९४६ के बाद सर्वेश्वर दयाल भी नए कटरे में रामचंद्र वर्मा के साथ रहने लगेउन्हें भी परिमल का सदस्य बना लिया गया और गिरिधर के अलावा मैं परिमल के कार्य में उनकी सहायता भी लेने लगा। भाग-दौड़ का काम वही करते थे। नए सदस्य बनाने में साहित्य और लेखन में रुचि के अतिरिक्त मैत्री भाव का भी बहुत ध्यान रखा जाता था। यदि यह कहा जाए की परिमल कुछ मित्रों की अल्हड़ मस्त साहित्यिक अभिरुचि का ठोस रूप था कुछ गलत नहीं होगा। लेकिन साहित्य में अभिरुचि की कसौटी केवल हिंदी का विद्यार्थी होना नहीं थाचंद्रभूषणधर द्विवेदी व इंद्र सांधी अंग्रेजी के विद्यार्थी थे, आगे चलकर हमने गणित विभाग के एक अध्यापक डा. उदयनारायण सिंह (बाद में विश्वविद्यालय के उप कुलपति भी हुए) को सदस्य बनाया। इन मित्रों ने परिमल की गोष्ठियों में साहित्यिक विषयों पर विचार विनिमय के लिए आलेख प्रस्तुत किए।

   अब यह ठीक याद नहीं कि 'परिमल' नाम किसने सुझाया था। लेकिन नाम निश्चित हो जाने पर उसका प्रतीक चिह्न जगदीश गुप्त ने तैयार किया था। 'परिमल' की पहली गोष्ठी जिसमें साहित्यिक कार्यक्रम हुआ, जहाँ तक मुझे याद हैचंद्रगप्त' नाटक के मंचन के बाद विश्वविद्यालयों की परीक्षाओं से पहले मार्च १९४५ में हुई थी जिसमें बच्चन जी ने भी भाग लिया था। इस गोष्ठी में सदस्यों और अतिथियों ने कविता पाठ किया था। १० दिसंबर की बैठक किया के बाद मुख्यतः अनौपचारिक बातचीत में संविधान को अंतिम रूप दिया गया। याद हैकि एक पीली जिल्द के रजिस्टर में, जिसमें ‘परिमल' का सब हिसाब किताब रखा जाता था, शुरू के पृष्ठों में संविधान लिखा गया था। हर गोष्ठी में संयोजक द्वारा लिखी हुई पिछली गोष्ठी की कार्यवाही पढ़ी जाती थी और सदस्यों की सहमति पर उस दिन का अध्यक्ष उसके अनुमोदन और पुष्टि के लिए हस्ताक्षर करता था। जो संविधान १९४४ में बना था उसकी रुपरेखा इस प्रकार थी- संस्थान के सदस्यों की संख्या २१ से अधिक नहीं होगी, उनके अतिरिक्त तीन सम्मानित सदस्य होगे- श्री सुमित्रानंदन पंत, डा. रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल' और डा. हरिवंशराय बच्चन (उनकी सहमति ले ली गई थी)। संस्था का कोई अध्यक्ष नहीं होगा, गोष्ठी के लिए परिमल' के ही किसी सदस्य को चुना जाएगा। केवल दो पदाधिकारी होंगे, एक निर्वाचित संयोजक और दूसरा उसके द्वारा मनोनित सहायक संयोजक। बैठक की अध्यक्षता ‘परिमल' का सदस्य करेगा, नए सदस्य गोपनीय ढंग से बहुमत द्वारा निर्वाचित होंगे। अवश्य कह दें कि परिमल की गतिविधियों को संचालित करने के लिए जिन मित्रों में निरंतर बातचीत होती रहती थी, उनमें धर्मवीर भारती, गिरिधर गोपाल, जगदीश गुप्त व केशव प्रमुख थे।

    वास्तव में परिमल एक अंतरंग मंच था जहाँ कुछ मित्र सृजनात्मक कृतियों का पठन-पाठन ही नहीं करते थे परसाहित्य के स्वरूप को समझने के लिए विभिन्न विषयों पर आलेखों के माध्यम या किसी अन्य रूप में गहन संवाद करते थे। जाने-माने साहित्यकारों को सुनना और उनसे बात करना भी अंग था। पता चला की सेठ गोविंददास इलाहाबाद आए हुए है, कम समय ठहरेंगे। आनन-फानन में उनसे मिलने के लिए सुबह नौ-दस बजे के लगभग परिमल की गोष्ठी आयोजित कर दी गई। इसी प्रकार जब नरेन्द्र शर्मा और अज्ञेय एक-दो दिन के लिए इलाहाबाद आए तो उनके लिए भी गोष्ठियों का आयोजन हुआ। वैसे प्रायः हर कार्यक्रम में किसी न किसी विशिष्ठ साहित्यकार को आमंत्रित किया जाता था। ऐसे अतिथियों के जो नाम मुझे याद हैं, वो हैं- डा. अमरनाथ झा, डा. रामप्रसाद त्रिपाठी, श्री क्षेत्रेश चटोपाध्याय श्री रमा प्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी', पंडित नरेन्द्र शर्मा आदि। एक बार अमृत राय भी आए थे।

   डा. अमरनाथ झा उस समय विश्वविद्यालय के उप कुलपति थे। हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति भी रह चुके थे और साहित्य से उन्हें विशेष अनुराग था। विश्वविद्यालय और उसके बाहर की साहित्यिक गतिविधियों की पूरी जानकारी रखते थे। बहुत समय तक परिमल की गोष्ठी में उन्हें कभी आमंत्रित नहीं किया गया। परिमल के कई सदस्य जो अपनी कविता कहानियों के लिए काफी ख्याति प्राप्त कर चुके थे, कभी उनसे मिले भी नहीं थे पर वे (डा. झा) उनके बारे में सब कुछ जानते थे। मुझे आश्चर्य बहुत हुआ जब उन्होंने एक दिन मुझसे परिमल के बारे में बातचीत छेड़ी। इस बातचीत के बाद हमें लगा कि उन्हें परिमल की एक गोष्ठी में आमंत्रित करना चाहिए। यह गोष्ठी सन् १९४६ के अन्त या सन् १९४७ के आरम्भ में हुई। इसमें धर्मवीर भारती ने अपनी कहानी ‘पूजा' पढ़ी।

   उन दिनों महादेवी जी किसी सभा गोष्ठी आदि में नहीं जाती थीं। अपने महाविद्यालय के अध्यापक डा. गंगा प्रसाद पाण्डेय से उन्हें परिमल की गतिविधियों की पूरी जानकारी मिलती रहती थी। एक बार उन्होंने रसूलाबाद में अपने साहित्यकार संसद भवन में परिमल की गोष्ठी आयोजित करने के लिए निमंत्रित किया। वह परिमल की एक बहुत सफल गोष्ठी थी। यह नहीं कि परिमल में आधुनिक साहित्य ही चर्चा का मुख्य विषय होडा. राकेश गुप्त का लेख साहित्य के भाव और रस पक्ष से संबधित था, कामिल बुल्के ने ‘रामकथा में सीता' पर लेख पढ़ा था। मै परिमल का सदस्य १९४८ तक रहा। शायद उस वर्ष के अंत मैंने परिमल छोड़ा। उस समय डा. अमरनाथ झा को एक बार फिर मुख्य अतिथि के रूप में निमंत्रित करने की बात थी। परिमल छोड़ने के बाद भी उसके सदस्यों से मेरे संबध पूर्ववत् ही बने रहे। उसके बाद मैंने परिमल की एक गोष्ठी में भाग लिया। सितम्बर-अक्टूबर १९५७ की बात है, मैं कुछ दिन की छुट्टी ले इलाहाबाद आया हुआ था। वाचस्पति पाठक के घर गोष्ठी आयोजित थीभारती के निमंत्रण पर मैं उसमें सम्मिलित हुआ।

    परिमल प्रकाशन के क्षेत्र में भी कार्यरत हो, इस पर कभी ढंग से विचार नहीं किया गया। केवल यही सोचा गया था कि परिमल के कार्यक्रमों को समयसमय पर प्रकाशित किया जाएगा। इसका आरंभ भी हुआजब मैं संयोजक था तो परिमल के सभी कहानीकार सदस्यों की कहानियों का एक संग्रह ‘हरसिंगार' प्रकाशित किया गया। हाँ, १९४६ व १९४७ की वार्षिक रिपोर्ट मैंने तैयार की थी और वार्षिक गोष्ठियों (१० दिसंबर को) में पढ़ी गई थी। वह नंदन प्रेस, कटरा में छपी थी। लेकिन परिमल इलाहाबाद के बाहर भी अपने कार्य का विस्तार करे, यह बात शुरू से ही हम लोगों के मन में थीइस क्षेत्र में कुछ प्रयास भी किए गए थे। परिमल के जो सदस्य इलाहाबाद छोड़ कर बाहर चले जाते थे, उनसे हमेशा हमारा यही आग्रह होता था कि वहाँ भी परिमल की स्थापना करें। कुछ अन्य मित्रों ने और नगरों में भी ऐसे प्रयास किए गए पर मुझे इसकी पूरी जानकारी नहीं है। लेकिन हर जगह थोड़े समय में ही परिमल का कार्य बंद हो गया।


परिमल संस्था के संस्थापक कौन थे?

इसकी रचना सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने की थी। यह पहली बार ई॰ सन् १९२९ में प्रकाशित हुआ।

परिमल संस्था क्या है?

एक साहित्यिक संस्था है। इसकी शुरुआत इलाहाबाद से हुई। आरंभ में इलाहाबाद के साहित्यिक मित्र इसके सदस्य थे। वे आपस में हिन्दी कविता, कहानी, उपन्यास नाटक आदि पर साहित्यिक गोष्ठियाँ किया करते थे।

अखिल भारतीय संगीत परिषद की स्थापना कब हुई?

इसकी स्थापना २७ अक्टूबर १९६६ को दिल्ली में हुई थी। उसी वर्ष इसका राष्ट्रीय अधिवेशन प्रसिद्ध साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ था। सरदार जीतसिंह 'जीत' को इसके संगठन का दायित्व दिया गया था। वर्तमान में इसके अध्यक्ष त्रिभुवन नाथ शुक्ल हैं।

परिमल क्या है लेखक को परिमल के दिन क्यों याद आते?

(ख) 'परिमल' एक साहित्यिक संस्था थी जिसका गठन लेखक, फ़ादर और उनके साथियों ने मिलकर किया था। लेखक को 'परिमल' के दिन इसलिए याद आते थे, क्योंकि उसमें सभी एक पारिवारिक रिश्ते कि तरह बँधे थे और उसमें जेष्ठ फ़ादर बुल्के ही थे, जो उस संस्था के सभी के साथ निर्लिप्त भाव से सम्मिलित होकर सबका पथ प्रदर्शन करते थे।