महादेवी वर्मा (1907-1987)सन् 1907 की होली के दिन उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद में जन्मी महादेवी वर्मा की प्रारंभिक शिक्षा इंदौर में हुई। विवाह के बाद पढ़ाई कुछ अंतराल से फिर शुरू की। Show वे मीडिल में पूरे प्रांत में प्रथम आईं और छात्रवृत्ति भी पाईं। यह सिलसिला कई कक्षाओं तक चला। बौद्ध भिक्षुणी बनना चाहा, लेकिन महात्मा गांधी के आह्वान पर सामाजिक कार्यों में जुट गईं। उच्च शिक्षा के लिए विदेश न जाकर नारी शिक्षा प्रसार में जुट गईं। स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया। महादेवी ने छायावाद के चार प्रमुख रचनाकारों में औरों से भिन्न अपना एक विशिष्ट स्थान बनाया। इनका समस्त काव्य वेदनामय है। इन्होंने साहित्य के बेजोड़ गद्य रचनाओं से भी समृद्ध किया है। 11 सितंबर, 1987 को उनका देवावसान हुआ। उन्हें साहित्य अकादमी एवं ज्ञानपीठ पुरस्कार सहित प्राय: सभी प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। भारत सरकार ने सन् 1956 में उन्हें पद्मभूषण अलंकार से अलंकृत किया था। केवल आठ वर्ष की उम्र में बारहमासा जैसी बेजोड़ कविता लिखने वाली महादेवी की प्रमुख काव्य कृतियाँ है - नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यागीत, दीपशिखा, प्रथम आयाम, अग्निरेखा, यामा और गद्य रचनाएँ हैं-अतीत के चलचित्र, श्रृंखला की कड़ियाँ, स्मृति की रेखाएँ, पथ के साथी, मेरा परिवार और चिंतन के क्षण । महादेवी की रुचि चित्रकला में भी रही। उनके बनाए चित्र उनकी कई कृतियों में प्रयुक्त किए गए हैं। हिन्दी गद्य साहित्य में संस्मरण एवं रेखाचित्र को बुलदियों तक पहुँचाने का श्रेय महादेवी जी को है। उनकी रचनाओं में समाज के शोषित, उपेक्षित व पीड़ित लोगों के प्रति ही नहीं, बल्कि मानवेतर प्राणियों के लिए भी उतना ही प्रेम, करुणा व सहिष्णुता दृष्टिगत होती है। 'नीलकंठ' नामक प्रस्तुत रेखाचित्र में महादेवी वर्मा ने अपने पालतू मोर के मीठे-कड़वे अनुभवों का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। इस पाठ के माध्यम से लेखिका के जीव-जंतुओं के प्रति अथाह प्रेम और सहानुभूति का परिचय मिलता है। नीलकंठ सहित उसके सभी साथियों के रूप, स्वभाव, व्यवहार और चेष्टाओं का लेखिका ने जितनी गहनता और सूक्ष्मता से निरीक्षण तथा वर्णन किया है, उससे यह रेखाचित्र अत्यंत जीवंत बन गया है। Class 10 Assamese Notes/Solutions
नीलकंठउस दिन एक अतिथि को स्टेशन पहुँचाकर मैं लौट रही थी कि चिडियों और खरगोशों की दुकान का ध्यान आ गया और मैंने ड्राइवर को उसी ओर चलने का आदेश दिया। बड़े मियाँ चिड़ियावाले की दुकान के निकट पहुँचते ही उन्होंने सड़क पर आकर ड्राइवर को रुकने का संकेत दिया। मेरे कोई प्रश्न करने के पहले ही उन्होंने कहना आरंभ किया, सलाम गुरु जी! पिछली बार आने पर आपने मोर के बच्चों के लिए पूछा था। शंकरगढ़ से एक चिड़ीमार दो मोर के बच्चे पकड़ लाया है, एक मोर है, एक मोरनी। आप पाल लें। मोर के पंजों से दवा बनती है, सो ऐसे ही लोग खरीदने आए थे। आखिर मेरे सीने में भी तो इनसान का दिल है। मारने के लिए ऐसी मासूम चिड़ियों को कैसे दूँ! टालने के लिए मैंने कह दिया, "गुरुजी ने मँगवाए हैं। वैसे, यह कमबख्त रोजगार ही खराब है। बस, पकड़ो-पकड़ो, मारो-मारो।" बड़े मियाँ के भाषण की तूफान मेल के लिए कोई निश्चित स्टेशन नहीं है। सुननेवाला थककर जहाँ रोक दे वहीं स्टेशन मान लिया जाता है। इस तथ्य से परिचित होने के कारण ही मैंने बीच में उन्हें रोककर पूछा, "मोर के बच्चे हैं कहाँ ?" बड़े मियाँ के हाथ के संकेत का अनुसरण करते हुए मेरी दृष्टि एक तार के छोटे-से पिंजड़ी तक पहुँची, जिसमें तीतरों के समान दो बच्चे बैठे थे। पिंजड़े इतना संकीर्ण था कि वे पक्षी-शावक जाली के गोल फ्रेम में किसी जड़े चित्र जैसे लग रहे थे। मेरे निरीक्षण के साथ-साथ बड़े मियाँ की भाषण-मेल चली जा रही थी, "ईमान कसम, गुरुजी-चिड़ीमार ने मुझसे इस मोर के जोड़े के नकद तीस रुपए लिए हैं। बारहा कहा, भई जरा सोच तो, अभी इनमें मोर की कोई खासियत भी है कि तू इतनी बड़ी कीमत ही माँगने चला! पर वह मुँजी क्यों सुनने लगा। आपका खयाल करके अछता-पछताकर देना ही पड़ा। अब आप जो मुनासिब समझें।" अस्तु, तीस चिड़ीमार के नाम के और पाँच बड़े मियाँ के ईमान के देकर जब मैंने वह छोटा पिंजड़ा कार में रखा तब मानो वह जाली के चौखटे का चित्र जीवित हो गया। दोनों पक्षी-शावकों के छटपटाने से लगता था मानो पिंजड़ा ही सजीव और उड़ने योग्य हो गया है। घर पहुँचने पर सब कहने लगे, "तीतर हैं, मोर कहकर ठग लिया है।" कदाचित अनेक बार ठगे जाने के कारण ही ठगे जाने की बात मेरे चिढ़ जाने की दुर्बलता बन गई है। अप्रसन्न होकर मैंने कहा, "मोर के क्या सुर्खाब के पर लगे हैं। हैं तो पक्षी ही।" चिढ़ा दिया जाने के कारण ही संभवतः उन दोनों पक्षियों के प्रति मेरे व्यवहार और यत्न में कुछ विशेषता आ गई। पहले अपने पढ़ने-लिखने के कमरे में उनका पिंजड़ा रखकर उसका दरवाजा खोला, फिर दो कटोरों में सत्तू की छोटी-छोटी गोलियाँ और पानी रखा। वे दोनों चूहेदानी जैसे पिंजड़े से निकलकर कमरे में मानो खो गए, कभी मेज के नीचे घुस गए, कभी अलमारी के पीछे। अंत में इस लुका-छिपी से थककर उन्होंने मेरे रद्दी कागजों की टोकरी को अपने नए बसेरे का गौरव प्रदान किया। दो-चार दिन वे इसी प्रकार दिन में इधर-उधर गुप्तवास करते और रात में रद्दी की टोकरी में प्रकट होते रहे। फिर आश्वस्त हो जाने पर कभी मेरी मेज पर, कभी कुरसी पर और कभी मेरे सिर पर अचानक आविर्भूत होने लगे। खिड़कियों में तो जाली लगी थी, पर दरवाजा मुझे निरंतर बंद रखना पड़ता था। खुला रहने पर चित्रा (मेरी बिल्ली) इन नवागंतुकों का पता लगा सकती थी और तब उसके शोध का क्या परिणाम होता,यह अनुमान करना कठिन नहीं है। वैसे वह चूहों पर भी आक्रमण नहीं करती, परंतु यहाँ तो दो सर्वथा अपरिचित पक्षियों की अनधिकार चेष्टा का प्रश्न था। उसके लिए दरवाजा बंद रहे और ये दोनों (उसकी दृष्टि में) ऐरे-गैरे मेरी मेज को अपना सिंहासन बना लें, यह स्थिति चित्रा जैसी अभिमानिनी मार्जारी के लिए असह्य ही कही जाएगी। जब मेरे कमरे का कायाकल्प चिडियाखाने के रूप में होने लगा, तब मैंने बड़ी कठिनाई से दोनों चिड़ियों को पकड़कर जाली के बड़े घर में पहुँचाया जो मेरे सामान्य निवास है। दोनों नवागंतुकों ने पहले से रहनेवालों में वैसा ही कुतूहल जगाया जैसा नववधू के आगमन पर परिवार में स्वाभाविक है। लक्का कबूतर नाचना छोड़कर दौड़ पड़े और उनके चारों ओर घूम-घूमकर गुटरगूं-गुटरगूं की रागिनी अलापने लगे। बड़े खरगोश सभ्य सभासदों के समान क्रम से बैठकर गंभीर भाव से उनका निरीक्षण करने लगे। ऊन की गेंद जैसे छोटे खरगोश उनके चारों ओर उछल-कूद मचाने लगे। तोते मानो भलीभाँति देखने के लिए एक आँख बंद करके उनका परीक्षण करने लगे। उस दिन मेरे चिड़ियाघर में मानो भूचाल आ गया। धीरे-धीरे दोनों मोर के बच्चे बढ़ने लगे। उनका कायाकल्प वैसा ही क्रमशः और रंगमय था, जैसा इल्ली से तितली की बनना। मोर के सिर की कलगी और सघन, ऊँची तथा चमकीली हो गई। चोंच अधिक बंकिम और पैनी हो गई, गोल आँखों में इंद्रनील की नीलाभ द्युति झलकने लगी। लंबी नील-हरित ग्रीवा की हर भंगिमा में धूपछाँही तरंगें उठने-गिरने लगीं। दक्षिण-वाम दोनों पंखों में सलेटी और सफेद आलेखन स्पष्ट होने लगे। पूँछ लंबी हुई और उसके पंखों पर चंद्रिकाओं के इंद्रधनुषी रंग उद्दीप्त हो उठे। रंग-रहित पैरों को गर्वीली गति ने एक नई गरिमा से रंजित कर दिया। उसका गरदन ऊँची कर देखना, विशेष भंगिमा के साथ उसे नीची कर दाना चुगना, पानी पीना, टेढ़ी कर शब्द सुनना आदि क्रियाओं में जो सुकुमारता और सौंदर्य था, उसका अनुभव देखकर ही किया जा सकता है। गति का चित्र नहीं आंका जा सकता। मोरनी का विकास मोर के समान चमत्कारिक तो नहीं हुआ, परंतु अपनी लंबी धूपछाँही गरदन, हवा में चंचल कलगी, पंखों की श्यामश्वेत पत्रलेखा, मंथर गति आदि से वह भी मोर की उपयुक्त सहचारिणी होने का प्रमाण देने लगी। नीलाभ ग्रीवा के कारण मोर का नाम रखा गया नीलकंठ और उसकी छाया के समान रहने के कारण मोरनी का नामकरण हुआ राधा। मुझे स्वयं ज्ञात नहीं कि कब नीलकंठ ने अपने आपको चिड़ियाघर के निवासी जीव-जंतुओं का सेनापति और संरक्षक नियुक्त कर लिया। सबेरे ही वह सब खरगोश कबूतर आदि की सेना एकत्र कर उस ओर ले जाता जहाँ दाना दिया जाता है और घूम-घूमकर मानो सबकी रखवाली करता रहता। किसी ने कुछ गड़बड़ की और वह अपने तीखे चंचु-प्रहार से उसे दंड देने दौड़ा। खरगोश के छोटे बच्चों को वह चोंच से उनके कान पकड़कर ऊपर उठा लेता था और जब तक वे आर्तक्रंदन न करने लगते उन्हें अधर में लटकाए रखता। कभी-कभी उसकी पैनी चोंच से खरगोश के बच्चों का कर्णवेध संस्कार हो जाता था, पर वे फिर कभी उसे क्रोधित होने का अवसर न देते थे। दंडविधान के समान ही उन जीव-जंतुओं के प्रति उसका प्रेम भी असाधारण था। प्रायः वह मिट्टी में पंख फैलाकर बैठ जाता और वे सब उसकी लंबी पूँछ और सघन पंखों में छुआ-छुऔअल-सा खेलते रहते थे। ऐसी ही किसी स्थिति में एक साँप जाली के भीतर पहुँच गया। सब जीव-जंतु भागकर इधर-उधर छिप गए, केवल एक शिशु खरगोश साँप की पकड़ में आ गया। निगलने के प्रयास में साँप ने उसका आधा पिछला शरीर तो मुँह में दबा रखा था, शेष आधा जो बाहर था, उससे ची-चीं का स्वर भी इतना तीव्र नहीं निकल सकता था कि किसी को स्पष्ट सुनाई दे सके। नीलकंठ दूर ऊपर झूले में सो रहा था। उसी के चौकन्ने कानों ने उस मंद स्वर की व्यथा पहचानी और वह पूँछ-पंख समेटकर सर से एक झपट्टे में नीचे आ गया। संभवतः अपनी सहज चेतना से ही उसने समझ लिया होगा कि साँप के फन पर चोंच मारने से खरगोश भी घायल हो सकता है। उसने साँप को फन के पास पंजों से दबाया और फिर चोंच से इतने प्रहार किए कि वह अधमरा हो गया। पकड़ ढीली पड़ते ही खरगोश का बच्चा मुख से निकल तो आया, परंतु निश्चेष्ट-सा वहीं पड़ा रहा। राधा ने सहायता देने की आवश्यकता नहीं समझी परंतु अपनी मंद केका से किसी असामान्य घटना की सूचना सब ओर प्रसारित कर दी। माली पहुँचा, फिर हम सब पहुँचे। नीलकंठ जब साँप के दो खंड कर चुका, तब उस शिशु खरगोश के पास गया और रात भर उसे पंखों के नीचे रखे उष्णता देता रहा। कार्तिकेय ने अपने युद्ध-वाहन के लिए मयूर को क्यों चुना होगा, यह उस पक्षी का रूप और स्वभाव देखकर समझ में आ जाता है। मयूर कलाप्रिय वीर पक्षी है, हिंसक-मात्र नहीं। इसी से उसे बाज, चील आदि की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, जिनका जीवन ही क्रूर कर्म है। नीलकंठ में उसकी जातिगत विशेषताएँ तो थी ही, उनका मानवीकरण भी हो गया था। मेघों की साँवली छाया में अपने इंद्रधनुष के गुच्छे जैसे पंखों को मंडलाकार बनाकर जब वह नाचता था, तब उस नृत्य में एक सहजात लय-ताल रहता था। आगे-पीछे, दाहिने-बाएँ क्रम से घूमकर वह किसी अलक्ष्य सम पर ठहर-ठहर जाता था। राधा नीलकंठ के समान नहीं नाच सकती थी, परंतु उसकी गति में भी एक छंद रहता था। वह नृत्यमग्न नीलकंठ की दाहिनी ओर के पंख को छूती हुई बाईं ओर निकल आती थी और बाएँ पंख को स्पर्श कर दाहिनी ओर। इस प्रकार उसकी परिक्रमा में भी एक पूरक ताल-परिचय मिलता था। नीलकंठ ने कैसे समझ लिया कि उसका नृत्य मुझे बहुत भाता है, यह तो नहीं बताया जा सकता; परंतु अचानक एक दिन वह मेरे जाली घर के पास पहुँचते ही, अपने झूले से उतरकर नीचे आ गया और पंखों का सतरंगी मंडलाकार छाता तानकर नृत्य की भंगिमा में खड़ा हो गया। तब से यह नृत्य भंगिमा नित्य का क्रम बन गई। प्राय: मेरे साथ कोई-न-कोई देशी-विदेशी अतिथि भी पहुँच जाता था और नीलकंठ की मुद्रा को अपने प्रति सम्मानपूर्वक समझकर विस्मयाभिभूत हो उठता था। कई विदेशी महिलाओं ने उसे 'परफैक्ट जेंटिलमैन' की उपाधि दे डाली। जिस नुकीली पैनी चोंच से वह भयंकर विषधर को खंड-खंड कर सकता था, उसी से मेरी हथेली पर रखे हुए भुने चने ऐसी कोमलता से हौले-हौले उठाकर खाता था कि हँसी भी आती थी । और विस्मय भी होता था। फलों के वृक्षों से अधिक उसे पुष्पित और पल्लवित वृक्ष भाते थे। वसंत में जब आम के वृक्ष सुनहली मंजरियों से लद जाते थे, अशोक नए लाल पल्लवों से ढंक जाता था, तब जालीघर में वह इतना अस्थिर हो उठता कि उसे बाहर छोड़ देना पड़ता। नीलकंठ और राधा की सबसे प्रिय ऋतु तो वर्षा ही थी। मेघों के उमड़ आने से पहले ही वे हवा में उसकी सजल आहट पा लेते थे और तब उनकी मंद केका की गूंज-अनुगूंज तीव्र से तीव्रतर होती हुई मानो बूंदों के उतरने के लिए सोपान-पंक्ति बनने लगती थी। मेघ के गर्जन के ताल पर ही उसके तन्मय नृत्य का आरंभ होता। और फिर मेघ जितना अधिक गरजता, बिजली जितनी अधिक चमकती, बँदों की रिम-झिमाहट जितनी तीव्र होती जाती, नीलकंठ के नृत्य का वेग उतना ही अधिक बढ़ता जाता और उसकी केका का स्वर उतना ही मंद्र से मंद्रतर होता जाता । वर्षा के थम जाने पर वह दाहिने पंजे पर दाहिना पंख और बाएँ पर बायाँ पंख फैलाकर सुखाता। कभी-कभी वे दोनों एक-दूसरे के पंखों से टपकनेवाली बूंदों को चोंच से पी-पी कर पंखों का गीलापन दूर करते रहते। इस आनंदोत्सव की रागिनी में बेमेल स्वर कैसे बज उठा, यह भी एक करुण कथा है। एक दिन मुझे किसी कार्य से नखासकोने से निकलना पड़ा और बड़े मियाँ ने पहले के समान कार को रोक लिया। इस बार किसी पिंजड़े की ओर नहींदेखूंगी, यह संकल्प करके मैंने बड़े मियाँ की विरल दाढ़ी और सफेद डोरे से कान में बँधी ऐनक को ही अपने ध्यान का केंद्र बनाया। पर बड़े मियाँ के पैरों के पास जो मोरनी पड़ी थी उसे अनदेखा करना कठिन था। मोरनी राधा के समान ही थी। उसके मूंज से बँधे दोनों पंजों की उँगलियाँ टूटकर इस प्रकार एकत्र हो गई थीं कि वह खड़ी ही नहीं हो सकती थी। बड़े मियाँ की भाषण-मेल फिर दौड़ने लगी-"देखिए गुरुजी, कमबख्त चिडीमार ने बेचारी का क्या हाल किया है। ऐसे कभी चिड़िया पकड़ी जाती है ! आप न आई होती तो मैं उसी के सिर इसे पटक देता। पर आपसे भी यह अधमरी मोरनी ले जाने को कैसे कहूँ !" सारांश यह कि सात रुपए देकर मैं उसे अगली सीट पर रखवाकर घर ले आई और एक बार फिर मेरे पढ़ने-लिखने का कमरा अस्पताल बना और पंजों की मरहमपट्टी और देखभाल करने पर वह महीने भर में अच्छी हो गई। उँगलियाँ वैसी ही टेढ़ी-मेढ़ी रहीं, परंतु वह लूंठ जैसे पंजों पर डगमगाती हुई चलने लगी। तब उसे जालीघर में पहुँचाया गया और नाम रखा गया कुब्जा। नाम के अनुरूप वह स्वभाव से भी कुब्जा ही प्रमाणित हुई। अब तक नीलकंठ और राधा साथ रहते थे। अब कुब्जा उन्हें साथ देखते ही मारने दौड़ती। चोंच से मार-मारकर उसने राधा की कलगी नोच डाली, पंख नोच डाले। कठिनाई यह थी कि नीलकंठ उससे दूर भागता था और वह उसके साथ रहना चाहती थी। न किसी जीव-जंतु से उसकी मित्रता थी, न वह किसी को नीलकंठ के समीप आने देना चाहती थी। उसी बीच राधा ने दो अंडे दिए, जिनको वह पंखों में छिपाए बैठी रहती थी। पता चलते ही कुब्जा ने चोंच मार-मार कर राधा को ढकेल दिया और फिर अंडे फोड़कर दूंठ जैसे पैरों से सब ओर छितरा दिए। इस कलह-कोलाहल से और उससे भी अधिक राधा की दूरी से बेचारे नीलकंठ की प्रसन्नता का अंत हो गया। कई बार वह जाली के घर से निकल भागा। एक बार कई दिन भूखाप्यासा आम की शाखाओं में छिपा बैठा रहा, जहाँ से बहुत पुचकार कर मैंने उतारा। एक बार मेरी खिड़की के शेड पर छिपा रहा। मेरे दाना देने जाने पर वह सदा की भाँति पंखों को मंडलाकार बनाकर खड़ा हो जाता था, पर उसकी चाल में थकावट और आँखों में एक शून्यता रहती थी। अपनी अनुभवहीनता के कारण ही मैं आशा करती रही कि थोड़े दिन बाद सब में मेल हो जाएगा। अंत में तीन-चार मास के उपरांत एक दिन सवेरे जाकर देखा कि नीलकंठ पूँछ-पंख फैलाए धरती पर उसी प्रकार बैठा हुआ है, जैसे खरगोश के बच्चों को पंखों में छिपाकर बैठता था। मेरे पुकारने पर भी उसके न उठने पर संदेह हुआ। वास्तव में नीलकंठ मर गया था। क्यों' का उत्तर तो अब तक नहीं मिल सका है। न उसे कोई बीमारी हुई, न उसके रंग-बिरंगे फूलों के स्तबक जैसे शरीर पर किसी चोट का चिह्न मिला। मैं अपने शाल में लपेटकर उसे संगम ले गई। जब गंगा की बीच धार में उसे प्रवाहित किया गया, तब उसके पंखों की चंद्रिकाओं से बिंबित-प्रतिबिंबित होकर गंगा का चौड़ा पाट एक विशाल मयूर के समान तरंगित हो उठा। नीलकंठ के न रहने पर राधा तो निश्चेष्टसी कई दिन कोने में बैठी रही। वह कई बार भागकर लौट आया था, अत: वह प्रतीक्षा के भाव से द्वार पर दृष्टि लगाए रहती थी। पर कुब्जा ने कोलाहल के साथ खोज-ढूँढ़ आरंभ की। खोज के क्रम में वह प्रायः जाली का दरवाजा खुलते ही बाहर निकल आती थी और आम, अशोक, कचनार आदि की शाखाओं में नीलकंठ को ढूँढती रहती थी। एक दिन वह आम से उतरी ही थी कि कजली (अल्सेशियन कुत्ती) सामने पड़ गई। स्वभाव के अनुसार उसने कजली पर भी चोंच से प्रहार किया। परिणामतः कजली के दो दाँत उसकी गरदन पर लग गए। इस बार उसका कलह कोलाहल और द्वेष-प्रेम भरा जीवन बचाया न जा सका। परंतु इन तीन पक्षियों ने मुझे पक्षी-प्रकृति की विभिन्नता का जो परिचय दिया है, वह मेरे लिए विशेष महत्व रखता है। राधा अब प्रतीक्षा में ही दुकेली है। आषाढ़ में जब आकाश मेघाच्छन्न हो जाता है तब वह कभी ऊँचे झूले पर और कभी अशोक की डाल पर अपनी केका को तीव्रतर करके नीलकंठ को बुलाती रहती है। अभ्यासमालाबोध एवं विचार 1. सही विकल्प का चयन करो: (क) नीलकंठ पाठ में महादेवी वर्मा की कौन-सी विशेषता परिलक्षित हई है? (अ) जीव-जंतुओं के प्रति प्रेम (आ) मनुष्यों के प्रति सहानुभूति (इ) पक्षियों के प्रति प्रेम (ई) राष्ट्रीय पशुओं के प्रति प्रेम (ख) महादेवी जी ने मोर-मोरनी के जोडे के लिए कितनी कीमत चुकाई? (अ) पाँच रुपए (आ) सात रुपए (इ) तीस रुपए (ई) पैंतीस रुपए (ग) विदेशी महिलाओं ने नीलकंठ को क्या उपाधि दी थी? (अ) परफैक्ट जेंटिलमैन (आ) किंग ऑफ द जंगल (इ) ब्यूटीफूल बर्ड (ई) स्वीट एंड हैंडसम परसन (घ) महादेवी वर्मा ने अपनी पालतू बिल्ली का नाम क्या रखा था? (अ) चित्रा (आ) राधा (इ) कुब्जा (ई) कजली (ङ) नीलकंठ और राधा की सबसे प्रिय ऋत थी (अ) ग्रीष्म ऋत (आ) वर्षा ऋतु (इ) शीत ऋतु (ई) वसंत ऋतु 2. अति संक्षिप्त उत्तर दो (लगभग 25 शब्दों में): (क) मोर-मोरनी के जोड़े को लेकर घर पहुँचने पर सब लोग महादेवी जी से क्या कहने लगे? (ख) महादेवी जी के अनुसार नीलकंठ को कैसा वृक्ष अधिक भाता था? (ग) नीलकंठ को राधा और कुब्जा में किसे अधिक प्यार था और क्यों? (घ) मृत्यु के बाद नीलकंठ का संस्कार महादेवी जी ने कैसे किया? 3. संक्षेप में उत्तर दो (लगभग 50 शब्दों में): (क) बड़े मियाँ ने मोर के बच्चे दूसरों को न देकर महादेवी जी को ही क्यों देना चाहता था? (ख) महादेवी जी ने मोर और मोरनी के क्या नाम रखे और क्यों? (ग) लेखिका के अनुसार कार्तिकेय ने मयूर को अपना वाहन क्यों चुना होगा? मयूर की विशेषताओं के आधार पर उत्तर दो। (घ) नीलकंठ के रूप-रंग का वर्णन अपने शब्दों में करो। इस दृष्टि से राधा कहाँ तक भिन्न थी? (ङ) बारिश में भीगकर नृत्य करने के बाद नीलकंठ और राधा पंखों को कैसे सूखाते? (च)नीलकंठ और राधा के नृत्य का वर्णन अपने शब्दों में करो। (छ) वसंत ऋतु में नीलकंठ के लिए जालीघर में बंद रहना असहनीय हो जाता था, क्यों? (ज) जाली के बड़े घर में रहनेवाले वाले जीव-जंतुओं के आचरण का वर्णन करो। (झ) नीलकंठ ने खरगोश के बच्चे को साँप के चंगुल से किस तरह बचाया? (ञ) लेखिका को नीलकंठ की कौन-कौन सी चेष्ठाएँ बहुत भाती थीं ? 4. सम्यक् उत्तर दो (लगभग 100 शब्दों में): (क) नीलकंठ के स्वभाव की विशेषताएँ अपने शब्दों में वर्ण करो। (ख) कुब्जा और राधा के आचरण में क्या अंतर परिलक्षित होते हैं ? क्यों? (ग) मयूर कलाप्रिय वीर पक्षी है, हिंसक मात्र नहीं-इस कथन का आशय समझाकर लिखो। भाषा एवं व्याकरण ज्ञान : 1. निम्नलिखित शब्दों के संधि-विच्छेद करो: नवांगतुक, मंडलाकार, निश्चेष्ट, आनंदोत्सव, विस्मयाभिभूत, आविर्भूत, मेघाच्छन्न, उद्दीप्त 2. निम्नलिखित समस्तपदों का विग्रह करते हुए समास का नाम भी बताओ : पक्षी-शावक, करुण-कथा, लय-ताल, धूप-छाँह, श्याम-श्वेत, चंचु-प्रहार, नीलकंठ, आर्तक्रंदन, युद्धवाहन 3. निम्नलिखित शब्दों से मूल शब्द और प्रत्यय अलग करो: स्वाभाविक, दुर्बलता, रिमझिमाहट, पुष्पित, चमत्कारिक, क्रोधित, मानवीकरण, विदेशी, सुनहला, परिणामतः 4. निम्नलिखित वाक्यों को ध्यानपूर्वक पढ़ो : (क) पूँछ लंबी हुई और उसके पँखों पर चंद्रिकाओं के इंद्रधनुषी रंग उद्दीप्त हो उठे। (ख) केवल एक शिशु खरगोश साँप की पकड़ में आ गया। (ग) कई विदेशी महिलाओं ने उसे 'परफैक्ट जेंटिलमैन' की उपाधि दे डाली। (घ) बड़े मियाँ ने पहले के समान कार को रोक दिया। उपर्युक्त चारों वाक्यों में रेखांकित क्रियाएँ संयुक्त क्रियाएँ है। इनमें 'हो, आ, दे रोक' ये मुख्य क्रियाएँ हैं और उठे, गया, डाली, लिया ये रंजक क्रियाएँ हैं। ये रंजक क्रियाएँ क्रमशः आकस्मिकता, पूर्णता और अनायसता का अर्थ देती हैं। उठना, जाना, डालना, लेना क्रियाओं से बनने वाली संयुक्त क्रियाओं से चार वाक्य बनाओ। 5. निम्नलिखित वाक्यों में उदाहरणों के अनुसार यथास्थान उपयुक्त विराम चिह्न लगाओ: उदाहरण : 1. उन्होंने कहना आरंभ किया सलाम गुरुजी =) उन्होंने कहना आरंभ किया, "सलाम गुरुजी!" 2. आम अशोक कचनार आदि की शाखाओं में नीलकंठ को ढूँढ़ती रहती थी। -> आम, अशोक, कचनार आदि की शाखाओं में नीलकंठ को ढूँढती रहती थी। (क) उन्हें रोककर पूछा मोर के बच्चे हैं कहाँ (ख) सब जीव-जंतु भागकर इधर-उधर छिप गए (ग) चोंच से मार-मारकर उसने राधा की कलगी नोच डाली पंख नोच डाले (घ) न उसे कोई बीमारी हुई न उसके शरीर पर किसी चोट का चिह्न मिला (ङ) मयूर को बाज़ चील आदि की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता जिनका जीवन ही क्रूर कर्म है। योग्यता-विस्तार 1. रेखाचित्र क्या है ? रेखाचित्र की विशेषताएँ क्या-क्या हैं ? उनकी जानकारी प्राप्त करो। 2. अपने परिवार, मित्रों अथवा अपने आस-पड़ोस द्वारा पालित किसी पश या पक्षी के रूप रंग, स्वभाव, व्यवहार तथा क्रियाकलापों का अवलोकन करो और उसके आधार पर उसका शब्द चित्र खींचो। 3. जीव जंतु के विषय में लिखे गए अन्य लेखकों की साहित्यिक रचनाएँ खोजकर पढ़ो और ऐसी ही रचनाएँ खुद भी लिखने की कोशिश करो। शब्दार्थ और टिप्पणी अनुसरण = पीछे-पीछे चलना । संकीर्ण = सकरा, छोटा आविर्भूत = प्रकट नवांगतुक = नया - नया आया मार्जारी = मादा बिल्ली इल्ली = तितली के बच्चो का अंडे से निकलने के बाद का का रूप बंकिम = टेढ़ा इंद्रनील = नीलकंटोमनी ड्यूटी = चमक दिप्त होना = चमकना चंचु-प्रहार = चोंच से चोट करना आर्तक्रन्दन = दर्द भरी आवाज़ मे रोना अधर = बिच मे कर्णवेध = कान छेदना निश्चेष्ट = बिना प्रयास के Conclusion: Assam seba board Class 10 hindi Textbook-आलोक Lesson 3 नीलकंठ for online readers. महादेवी जी ने मोर और मोरनी के क्या नाम रखे और क्यो?(ख) महादेवी जी ने मोर और मोरनी के क्या नाम रखे और क्यों ? उत्तर : नीलाभ ग्रीवा के कारण मोर का नाम रखा गया नीलकंठ और उसकी छाया के समान रहने के कारण मोरनी का नामकरण हुआ राधा।
क नीलकंठ कौन था?उत्तर: नीली गर्दन के कारण मोर का नाम नीलकंठ रखा गया। मोरनी उस मोर की संगिनी थी जैसे राधा कृष्ण की संगिनी थीं। इसलिए मोरनी का नाम राधा रखा गया।
क नीलकंठ की राधा कौन है?मोर का गर्दन नीले रंग का था जिसके कारण महादेवी ने उसे नीलकंठ का नाम दिया। दूसरी और मोरनी हमेशा मोर के साथ छाया बनके घूमती रहती। दोनों को देखकर ऐसा प्रतीत होता था मानो कृष्ण के संग राधा घूम रही हो। इसी कारण महादेवी ने मोरनी का नाम राधा रख दिया।
नीलकंठ पाठ से आपने क्या सीखा अपने शब्दों में लिखिए?नीलकंठ स्वभाव में स्नेही, निडर, और साहसी था। अपने स्वभाव के कारण वह लेखिका का प्रिय बन गया था इस रेखाचित्र में मनुष्य और पक्षियों के आपसी प्रेम का बहुत ही सुंदर ढंग से वर्णन किया गया है। लेखिका उन पक्षियों को अपने घर के अहाते में बने मिनी चिड़ियाघर में रख देती हैं। समय बीतने के बाद दोनों चूजे बड़े हो जाते हैं।
|