मूल शांति के उपाय- ज्येष्ठा के अन्तिम दो चरण तथा मूल के प्रथम दो चरण अभुक्त मूल कहलाते हैं। इन नक्षत्र में जन्म लेने वाले जातक के लिये नीचे लिखे मंत्रों का २८००० जप करवाने चाहिये,और २८वें दिन जब वही नक्षत्र आये तो मूल शान्ति का प्रयोजन करना चाहिये,जिस मन्त्र का जाप किया जावे उसका दशांश हवन करवाना चाहिये,और २८ ब्राह्मणों को भोजन करवाना चाहिये,बिना मूल शांति करवाये मूल नक्षत्रों का प्रभाव दूर नही होता है। Show मंत्र- मूल नक्षत्र का बडा मंत्र यह है। ऊँ मातवे पुत्र पृथ्वी पुरीत्यमग्नि पूवेतो नावं मासवातां विश्वे र्देवेर ऋतुभिरू सं विद्वान प्रजापति विश्वकर्मा विमन्चतु॥ इसके बाद छोटा मंत्र इस प्रकार से है। ऊँ एष ते निऋते। भागस्तं जुषुस्व। ज्येष्ठा नक्षत्र का मंत्र इस प्रकार से है। ऊँ सं इषहस्तरू सनिषांगिर्भिर्क्वशीस सृष्टा सयुयऽइन्द्रोगणेन। सं सृष्टजित्सोमया शुद्धर्युध धन्वाप्रतिहिताभिरस्ता। आश्लेषा मंत्र- ऊँ नमोऽर्स्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथ्वीमनु। ये अन्तरिक्षे ये दिवि तेभ्यरू सर्पेभ्यो नमरू॥ मूल शांति की सामग्री- घड़ा एक,करवा चार,सरवा एक,पांच रंग,नारियल एक,11 सुपारी,पान के पत्ते 11,दूर्वा,कुशा,बतासे 500 ग्राम ,इन्द्र जौ, भोजपत्र, धूप, कपूर, आटा चावल, गमछे 2, दो मी लाल कपड़ा , मेवा 250 ग्राम, पेड़ा 250 ग्राम, बूरा 250 ग्राम,माला दो, 27 खेडों की लकडी, 27 वृक्षों के अलग अलग पत्ते,27 कुंओ का पानी,गंगाजल, समुद्र फेन,आम के पत्ते,पंच रत्न,पंच गव्य वन्दनवार,बांस की टोकरी,101 छेद वाला कच्चा घडा,1घंटी 2 टोकरी छायादान के लिये,1 मूल की मूर्ति स्वनिर्मित, 27 किलो सतनजा, सप्तमृतिका, 3 सुवर्ण प्रतिमा, गोले 5, ब्राहमणों हेतु वस्त्र, पीला कपड़ा सवा मी, सफेद कपड़ा सवा मी, फल फूल मिठाई आदि । हवन सामग्री- चावल एक भाग,घी दो भाग बूरा दो भाग, जौ तीन भाग, तिल चार भाग,इसके अतिरिक्त मेवा अष्टगंध इन्द्र जौ,भोजपत्र मधु कपूर आदि। जितने जप किए जाँए उतनी मात्रा में हवन सामग्री बनानी चाहिए। पूजन जितना अच्छा होगा उसका प्रभाव भी उतना ही अच्छा होगा।पूजा सामग्री यथाशक्ति लानी चाहिए। यह त्रिआयामी, त्रिगुणात्मक सृष्टि है। नक्षत्र २७ हैं। इन्हें तीन समान वर्गों में बाँटें, तो यह वर्ग बनते हैं। इन तीनों वर्गों की सन्धि वाले नक्षत्रों को मूल संज्ञक नक्षत्र माना गया है। वे हैं २७वाँ रेवती एवं प्रथम अश्विनी ९वाँ श्लेषा एवं १०वाँमघा तथा १८वाँ ज्येष्ठा एवं १९वाँ मूल। यह तीन नक्षत्र युग्म ऐसे हैं, जहाँ दो संलग्न नक्षत्र अलग- अलग राशियों में हैं; किन्तु किसी का कोई चरण दूसरी राशि में नहीं जाता। इसलिए इन्हें नक्षत्र चक्र के ‘मूल’ अर्थात् प्रधान नक्षत्र माना गया है। ऐसे महत्त्वपूर्ण नक्षत्रों को अशुभ मानने की परम्परा न जाने कहाँ सं चल पड़ी? वस्तुतः तथ्य यह है कि नक्षत्रों का सम्बन्ध मानवी प्रवृत्तियों से है। नक्षत्र चक्र के तीन मूल बिन्दुओं पर स्थित नक्षत्रों में मानव की ‘मूल’ वृत्तियों को तीव्रता से उछालने की चिशेष क्षमता है। मूल वृत्तियों में शुभ- अशुभ दोनों ही प्रकार की वृत्तियों होती हैं। अस्तु, विचारकों ने सोचा कि हीनवृत्तियाँ विकास पाकर परेशानी का कारण भी बन सकती हैं। उन्हें निरस्त करने वाले, कुछ उपचार पहले ही किए जाएँ तो अच्छा है। इसलिए हीन, पाशविक संस्कारों को निरस्त करने वाले, श्रेष्ठ संस्कारों को उभारने में सहयोग कर सकने वाले कुछ जप- यज्ञादि उपचार किए जायें तो अच्छा है। जिन घरों में गायत्री उपासना, यज्ञ, बलिवैश्व आदि सुसंस्कार जनक क्रम सहज ही होते रहते हैं, वहाँ मूल शान्ति के निमित्त अलग से कुछ करना आवश्यक नहीं। जिन परिजनों में ऐसे कुछ नियमित क्रम नहीं हैं, उनमें मूल शान्ति के नाम पर कुछ उपचारों की लकीर पीटने मात्र से जातक की वृत्तियों पर कुछ उल्लेखनीय प्रभाव पड़ता नहीं है। इसीलिए शास्त्र मत है कि जिन परिवारों में ऋषि प्रणीत चर्चाएँ नियमित रूप से होती हों, उनमें मूलशान्ति की आवश्यकता नहीं पड़ती। मानवोचित गुणों के विकास के लिए जिन परिवारों में योजनाबद्ध प्रयास होते हों, वहाँ मूल युक्त जातक विशेष सौभाग्य के कारण बनते हैं। नोट – मूल की शान्ति के लिए सुविधानुसार जन्म के ११ वें या २७वें दिन रुद्रार्चन, शिवाभिषेक व महामृत्युञ्जय की विधि सहित जप व गायत्री महामन्त्र का जप, हवन कराने से अभुक्त मूल शान्ति होती है। गायत्री महामन्त्र के २७,००० मन्त्र जप व महामृत्युञ्जय मन्त्र के ११०० मन्त्र जप करना अनिवार्य है। गण्ड मूल के नक्षत्र व उनका फल मूलवास- मनुष्य की योनि पाठशाला के छात्र जैसा है। चराचर जगत् पाठ्यपुस्तक है। नाना योनियाँ इस पाठ्यपुस्तक के नाना अध्याय अथवा पाठ्यक्रम है, जिन्हें जीवरूपी छात्र यथा योनि पढ़ता, परीक्षा (इम्तहान )) के लिये मानव योनि में प्रवेश पाता है। मानव योनि पूरक परीक्षा के क्षण हैं। जिस प्रकार परीक्षा स्थल पर परीक्षक ही प्रश्नपत्र तथा उत्तर पुस्तिका छात्र को प्रदान करता है, उसी प्रकार आत्मा रूपी परीक्षक भी परिस्थितियों का प्रश्नपत्र तथा जीवन उत्तरपुस्तिका स्वंय जीवरूपी छात्र को प्रदान करता है। मनुष्य की योनि परीक्षा के क्षण हैं। परीक्षा का समय जन्म से मृत्युपर्यन्त है। जिस प्रकार परीक्षाफल तीन प्रकार का होता है, यथा उत्तीर्ण (पास) होना, अनुत्तीर्ण होना अथवा कुछ थोड़ी कमी के कारण उसे थोड़े समय उपरान्त पुनः परीक्षा में फिर से परीक्षा में आना। इस जीवन परीक्षा में भी जीवरूपी छात्र को इन्हीं अवस्थाओं से होकर गुजरना पड़ेगा। उत्तीर्ण होने पर अनन्त की राह है। उसे अगली कक्षा में प्रवेश मिलेगा, यदि उत्तीर्ण नहीं हो पाया और फेल हो गया तो उसे पुनः सारा पाठ्यक्रम दुहराने के लिये यथा योनियों से गुजरना होगा। इसके उपरान्त ही पुनः परीक्षा के लिये मानव योनि में प्रवेश मिलेगा। अल्प त्रुटियों की अवस्था में उसे लगभग कतिपय योनियों के उपरान्त ही पुनःपरीक्षा हेतु मनुष्य की योनि प्रदान की जायेगी। इसीलिये जब भी घर में शिशु का जन्म होता है, घर में सूतक (छूत) का वास होता है। मन्दिर,पूजा आदि बन्द कर दिये जाते हैं, बरहा मनाया जाता है इसका पृष्ठ रहस्य यही है कि जन्मने वाला शिशु हमारा ही पूर्वज है अल्प त्रुटियों से रह गया था,फिर अपने घर लौट आया। बरहा पूजन में प्रायश्चित पूजन भी करते है उसी में मूल शान्ति विधि भी पूरी कर लेते हैं। यद्यपि मूल का वास- माघ,आषाढ़,आश्विन, और भाद्रपद माह- आकाश में, कार्तिक, चैत, श्रावण और पौष माह- पृथ्वी में, फाल्गुन, ज्येष्ठ, मार्गशीर्ष और वैशाख माह- पाताल में होता है। ‘भूतले वर्तमाने तु ज्ञेयो दोषोऽन्यथा न हि।’ अर्थात् जब पृथ्वी में मूल का वास हो तभी मूलपूजन का क्रम करना चाहिये अन्यथा सामान्य यज्ञादि से भी बारह (बरहा) पूजन का क्रम पूरा कर लेना चाहिये। प्रारम्भिक कर्मकाण्ड मंगलाचरण से रक्षाविधान तक पूर्ण करें। तत्पश्चात् संकल्प करें। ॥ सङ्कल्प॥ ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य पञ्चकलशों में पञ्चद्रव्यों के सहित पूजन करें। मध्य कलश- षोडशमातृका पूजन- वास्तुपूजन- अनन्तं पुण्डरीकाक्षं, फणीशत विभूषितम्। नागपूजनम्- चौंसठयोगिनीपूजनम्- ब्रह्मापूजनम्- विष्णुपूजनम्- नवग्रहपूजनम्- चन्द्र- मङ्गल- बुध- गुरु- ॐ देवानां च ऋषीणां, च गुरुं काञ्चनसन्निभम्। शुक्र- शनि- ॐ नीलाञ्जन समाभासं, रविपुत्रं यमाग्रजम्। राहु- ॐ अर्धकायं महावीर्यं, चन्द्रादित्यविमर्दनम्। केतु- ॐ पलाशपुष्पसङ्काशं, तारकाग्रहमस्तकम्। ।। पञ्चगव्यपूजन एवं सवत्सगोपूजनम्।। ॥ नक्षत्र पूजन॥ 4 ज्येष्ठा- 6 रेवती- सप्तधान्य पूजन- ।। पञ्चकलशों से सिञ्चन।। तत्पश्चात् यज्ञ का क्रम पूर्ण करें। गायत्री मन्त्र की २४ आहुतियाँ एवंं महामृत्युञ्जय मन्त्र से ५ आहुति दें, फिर विशेष आहुतियाँ समर्पित करें। विशेष आहुति १ सूर्य गायत्री- २ चन्द गायत्री- ॐ अत्रिपुत्राय विद्महे सागरोद्भवाय धीमहि। ३ मङ्गल गायत्री- ॐ क्षितिपुत्राय विद्महे लोहिताङ्गाय धीमहि। ४ बुध गायत्री- ॐ चन्द्रपुत्राय विद्महे रोहिणीप्रियाय धीमहि। ५ गुरु गायत्री- ॐ अङ्गिरोजाताय विद्महे वाचस्पतये धीमहि। ६ शुक्र गायत्री- ॐ भृगुवंशजाताय विद्महे श्वेतवाहनाय धीमहि। ७ शनि गायत्री- ८ राहु गायत्री- ९ केतु गायत्री- ॐ अन्तर्वाताय विद्महे तत्पश्चात् यज्ञ का शेष क्रम स्विष्टकृत्, पूर्णाहुति आदि सम्पन्न करें। उपस्थित सभी परिजन अभिषेक मन्त्र के साथ जातक और उनके माता- पिता को आशीर्वाद दें। कार्यक्रम समाप्त। मूल की पूजा कैसे करते हैं?आश्लेषा, ज्येष्ठा और रेवती नक्षत्र में जन्में जातकों के लिए बुध ग्रह की अराधना करना चाहिए तथा बुधवार के दिन हरी वस्तुओं का दान करना चाहिए। गंडमूल में जन्में बच्चे के जन्म के ठीक 27वें दिन गंड मूल शांति पूजा करवाई जानी चाहिए, इसके अलावा ब्राह्मणों को दान, दक्षिणा देने और उन्हें भोजन करवाना चाहिए।
मूल शांति कितने दिन में होती है?सत्ताइस दिन बाद करवाएं मूल शांति
इसके साथ ही जब तक बच्चे की उम्र आठ साल न हो जाए उसके माता-पिता को ओम नम: शिवाय का जाप करना चाहिए। मूल नक्षत्र के कारण बच्चे के स्वास्थ्य पर संकट हो तो बच्चे की माता को पूर्णिमा का उपवास रखना चाहिए।
मूल पूजा क्या है?गंड मूल पूजा के लाभ-
शिशु के आने वाले जीवन के लिए और उसके अच्छे स्वास्थय के लिए मूल नक्षत्रों को शांत करवाना आवश्यक होता है। मूल शांति करवाने से इसके कारण लगने वाले दुष्परिणाम समाप्त होते हैं। गंड मूल पूजा करवाने से मूल नक्षत्र शुभफलदायक हो जाते हैं।
मूल में पैदा होने से क्या होता है?मूल नक्षत्र में जन्म लेने वाला बालक शुभ प्रभाव में है तो वह सामान्य बालक से कुछ अलग विचारों वाला होता है यदि उसे सामाजिक तथा पारिवारिक बंधन से मुक्त कर दिया जाए तो ऐसा बालक जिस भी क्षेत्र में जाएगा एक अलग मुकाम हासिल करेगा। ऐसे बालक तेजस्वी, यशस्वी, नित्य नव चेतन कला अन्वेषी होते है। यह इसके अच्छे प्रभाव हैं।
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