महात्मा गाँधी के अनुसार स्वराज्य क्या है? - mahaatma gaandhee ke anusaar svaraajy kya hai?

स्वराज शब्द का अर्थ है स्व+राज अर्थात् स्वयं का राज होना, स्वशासन करना या स्वतंत्रता का होना। 20वीं शताब्दी में अनेक राजनीतिक अवधारणाओं और चिंतन शैलियों की शुरुआत हुई। इनमें महात्मा गांधी के चिंतन ने एक अहम् निर्णायक भूमिका निभाई, तो समय के साथ ही स्वराज शब्द की अवधारणा भी बदलती रही है। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के विभिन्न चरणों से गुजरते हुए महात्मा गांधी ने इस अवधारणा को एक नई परिभाषा का रूप दिया था। गांधी ने अपने अथक प्रयासों द्वारा भारतीय जनमानस के उदाहरण के रूप में इसे प्रतिष्ठित करने की भरपूर कोशिश की। 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना और स्वामी दयानंद सरस्वती और स्वामी विवेकानंद के नेतृत्व में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ने आत्म-पुष्टि और पहचान की भावना को पैदा किया, जिसने हीनता की भावना को हिला दिया। इस संदर्भ में राष्ट्रवादी आंदोलन ने स्वदेशी और स्वराज दो महत्वपूर्ण मुहावरों को आत्मसात किया, जो कि एक दूसरे के पूरक थे। तिलक का यह प्रसिद्ध कथन कि ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’, ने इस भावना को और अधिक बढ़ा दिया। विदेशी शासन से मुक्त करवाने और उसके स्थान पर स्वराज की स्थापना करने में महात्मा गांधी के जो प्रारंभिक विचार थे वही मुख्य रूप से उनकी पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ में निहित हैं। यह पुस्तक महात्मा गांधी ने इंग्लैंड से दक्षिण अफ्रीका लौटते समय एक समुद्री जहाज पर सन् 1909 के दौरान लिखी थी।

1905 के बंगाल विभाजन ने इसे आत्म-दृढ़ता के साथ सोचने तक और एक नई जागरूकता पैदा करने के प्रयास के साथ इसे और भी अधिक समृद्ध बना दिया। स्वदेशी समाज नामक रवींद्रनाथ टैगोर के निबंध में इस नई जागरूकता और भारत की उभरती हुई नई पहचान को दर्शाया गया है जहां शिक्षित और अशिक्षित तथा शहरों और गांवों के बीच की खाई को औपनिवेशिक आकाओं के संरक्षण में नहीं, बल्कि हमारे अपने प्रयासों से मिटाए जाने की बात कही गई। गांधी के व्यवहार और सिद्धांत में, आवश्यक सुधारों के साथ परंपरा की निरंतरता के आधार पर एक सिद्धांत के निर्माण और व्यक्ति की व्यापक जैविक अवधारणा के साथ इसे एकीकृत करने का प्रयास किया गया। स्वतंत्रता या स्वराज, गांधी के लिए एक समावेशी अवधारणा है। वह हिंद स्वराज में इस बात पर बल देते हैं कि “असली घर आत्म नियंत्रण है”। महात्मा गांधी मुख्य रूप से प्लेटो (Plato), अरस्तु (Aristotle) जॉन रस्किन (Ruskin Bond-Unto the last), हेनरी डेविड थोरो ( Henry David Thoreau),  लियो टॉलस्टॉय (Leo Tolstoy),  ज्यूसेपे मेत्सिनी( Giuseppe Mazzini), गोपाल कृष्ण गोखले, नरसी मेहता से प्रभावित थे। इसके अतिरिक्त, गांधी वेद, उपनिषद्, गीता, जैन दर्शन से भी बहुत अधिक प्रभावित थे।

स्वराज का अर्थ

साधारण शब्दों में कहा जा सकता है कि स्वराज का अर्थ है स्वशासन व स्वायत्तता का होना, किंतु गांधी के परिप्रेक्ष्य में स्वराज एक समग्र और व्यापक अर्थ धारण किए हुए है। स्वराज एक पवित्र और वैदिक शब्द है जिसका अर्थ है आत्म शासन का होना। अंग्रेजी का शब्द ‘इंडिपेंडेंस’ अक्सर सभी प्रकार के नियमों से मुक्त होकर निरंकुश स्वतंत्रता का अर्थ देता है लेकिन वह अर्थ वास्तव में स्वराज नहीं होता है। गांधी का मानना था कि भारत से केवल अंग्रेज़ों को और उनके राज्य को हटाने से भारत को अपनी सच्ची सभ्यता का स्वराज नहीं मिलेगा बल्कि हमें अपनी आत्मा को बचाना चाहिए और यही सच्चा स्वराज है जिससे हम अपने ऊपर शासन करना सीखते हैं।

सभी व्यक्तियों को अपने जीवन में स्वशासन की ओर कदम बढ़ाना चाहिए तभी भारत एक राष्ट्र के रूप में स्वशासन की ओर बढ़ पाएगा। इस स्वतंत्रता की शुरुआत सबसे निचले स्तर यानी कि ग्रामीण स्तर से होती है। प्रत्येक गांव को अपना पोषण और अपनी गतिविधियों का प्रबंधन करने में स्वयं सक्षम होना चाहिए ताकि किसी भी आक्रमण या परेशानी का सामना करने के लिए वह सदैव तैयार रह सके। इसके लिए सर्वाधिक उचित शासन स्वराज ही होगा जिसमें शासन न केवल श्रेणीबद्ध होगा बल्कि उसमें राजनीतिक विकेंद्रीकरण और सामुदायिक निर्माण भी होगा। स्वराज को अपनाने का अर्थ है कि एक ऐसी शासन प्रणाली को अपनाना जहां पर राज्य की भूमिका हीन हो जाती है।

गांधीवादी स्वराज का विचार एवं सार

महात्मा गांधी का स्वराज से अभिप्राय स्वशासन की संपूर्ण स्वतंत्रता से है। गांधी ने वेदों से ‘स्वराज’ शब्द लिया है। स्वराज का एक अर्थ आत्म-शासन और आत्म-नियंत्रण है और यह अंग्रेजी के उपयोग से अलग है, जिसका अर्थ है बिना किसी प्रतिबंध के स्वतंत्रता। सन् 1924 में यंग इंडिया में गांधीजी ने लिखा था कि “मुझे भारत को केवल अंग्रेजों की पराधीनता से मुक्त कराने में ही दिलचस्पी नहीं है। मैं भारत को सभी प्रकार की पराधीनताओं से मुक्त कराने के लिए कटिबद्ध हूँ। मुझे एक शासक के स्थान पर दूसरे शासक को लाने की जरा भी इच्छा नहीं है।” गाँधी की मान्यता थी कि “सच्चा स्वराज जनता को सत्ता का नियमन तथा नियंत्रण करने की अपनी क्षमता का विकास करने की शिक्षा देने से आएगा।“ उनका मानना था कि विदेशी शासन समाप्त होने के बाद लोगों को आत्मा एवं विवेक के अनुसार अपनी इच्छानुसार शासन व्यवस्था को स्थापित करने की अधिक स्वतंत्रता हो।

एंथनी जे० पारेल के अनुसार, “स्वराज का अर्थ दूसरों पर नहीं बल्कि स्वयं के ऊपर शासन करना होता है, जिसने अपनी इंद्रियों पर काबू पा लिया तो समझो उसने सब कुछ ही प्राप्त कर लिया। यदि एक दूसरे के प्रति अविश्वास न हो तो स्वराज हमारी हथेली में है।”

गांधी का मानना है कि स्वराज को अगर हम स्वनियंत्रण के रूप में देखें तो इसका अर्थ आंतरिक स्वतंत्रता होगा।

गांधी ने हिंदी स्वराज में इस अवधारणा को दो रूपों में प्रस्तुत किया है-

  • स्वराज स्वशासन (Self-Rule) के रूप में तथा
  • स्वराज स्वनियंत्रण (Self-Control) के रूप में
  • स्वराज एक स्वशासन (Self-Rule) के रूप में:

गांधी के लिए स्वराज का अर्थ सकारात्मक स्वतंत्रता भी है। इसका तात्पर्य सहभागी लोकतंत्र से है क्योंकि नागरिक और राज्य के बीच घनिष्ठ संबंध होता है। स्वराज से तात्पर्य लोगों की सहमति से है, जो कि सबसे बड़ी संख्या में वयस्क आबादी, पुरुष या महिला, मूल जन्म या अधिवास हों, जिन्होंने राज्य की सेवाओं में शारीरिक श्रम द्वारा योगदान दिया हो। गांधी ने भारत पर ब्रिटिश कब्जे की कड़ी आलोचना की, क्योंकि इसने गरीबों का अत्यधिक उत्पीड़न किया। अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी ग्रामोद्योगों को बर्बाद करने के लिए जिम्मेदार थी। गांधी ने अपने करीबी सहयोगी कुमारप्पा की मदद से भारत के ग्रामीण जीवन को बदलने का खाका तैयार किया। ‘ग्रामवाद’, एक शब्द जिसे कुमारप्पा के सिक्के, गांधी द्वारा गांवों के पूर्ण पुनरुद्धार और स्वराज को साकार करने के लिए स्वीकार किया गया था। ग्राम स्वराज का उद्देश्य सामान्य व्यक्ति की जरूरतों को पूरा करने के लिए आवश्यक भौतिक परिस्थितियों में आत्मनिर्भरता है। गांधी आधुनिक सभ्यता का पूर्ण विनाश और सरकारों, संसदों, रेलवे व परिवहन के अन्य तेज साधनों, मशीनरी, डॉक्टरों, वकीलों और सशस्त्र बलों के बिना एक नए समाज का निर्माण चाहते थे, जिसमें लोग पूरी तरह से हिंसा का त्याग करते हैं और सत्याग्रह के माध्यम से अधिकार का विरोध कर सकें। थोरो की तरह, वह सरकार को व्यक्ति की दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों में महत्वपूर्ण नहीं मानते। गांधी राजनीतिक कार्यों को सामाजिक और नैतिक प्रगति के ढांचे के भीतर देखने की आवश्यकता पर जोर देते हैं, क्योंकि सत्ता लोगों में रहती है न कि विधानसभाओं में। अरस्तू की भावनाओं को प्रतिध्वनित करते हुए, गांधी सार्वजनिक जीवन को एक व्यक्ति के उच्चतम आध्यात्मिक गुणों को सामने लाने का क्षेत्र मानते हैं। उनका मानना था कि राजनीति सरकारी सत्ता पर कब्जा करने, धारण करने और प्रबंधन करने की कला नहीं है बल्कि न्याय के संदर्भ में सामाजिक संबंधों को बदलने की कला है।

गांधी के अनुसार, मनुष्य में अपनी नैतिक क्षमताओं को इस हद तक विकसित करने की क्षमता होती है कि शोषण को कम से कम किया जा सकता है। राज्य के अधिकार को स्वीकार करने के लिए नागरिकों का दायित्व उसके न्यायसंगत कानूनों और गैर दमनकारी नीतियों पर निर्भर करेगा। एक लोकतांत्रिक शासन के तहत एक नागरिक की जिम्मेदारी अधिक होती है क्योंकि नागरिकों को सत्ता को भ्रष्ट और हास्यास्पद बनने से बचाना होगा। प्रत्येक राज्य में सत्ता के दुरुपयोग की संभावना होती है और बेहतर नैतिक अधिकार वाले नागरिकों को अपना विवेक नहीं खोना चाहिए या राज्य सत्ता के प्रति अपना अविश्वास नहीं खोना चाहिए। गांधी सरकार के हर कार्य के लिए इसे प्रत्येक नागरिक की जिम्मेदारी बनाते हैं।

  • स्वराज एक स्व-नियंत्रण (Self-Control) के रूप में

गांधी के शब्दों स्वराज का अर्थ “जागृति के चारों ओर-सामाजिक, शैक्षिक, नैतिक, आर्थिक और राजनीतिक” (यंग इंडिया, 26 अगस्त 1926) है। सच्ची स्वतंत्रता नैतिक कानून, आंतरिक विवेक और किसी के सच्चे होने के कानून के अनुरूप होती है। यह एक व्यक्ति को अच्छे की तलाश करने और उसे प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है। स्वतंत्रता का अर्थ है आत्म-नियंत्रण, स्वयं पर विजय प्राप्त करना है जो कि केवल निडर होकर ही प्राप्त की जा सकती है। इसमें कठिन अनुशासन शामिल होता है और इसके लिए आवश्यक होता है कि व्यक्ति आत्म-शुद्धि और आत्म-प्राप्ति की अपनी प्रतिज्ञाओं का पालन करे। स्व-शासन या आत्म-नियंत्रण के रूप में स्वराज का अर्थ तीन रूपों में है:

  • स्वतंत्रता मुख्य रूप से एक व्यक्ति है, सामूहिक गुण नहीं है।
  • इसमें प्रेस, भाषण, संघ और धर्म की पारंपरिक नागरिक स्वतंत्रताएं शामिल होती हैं।
  • यह स्वतंत्रता के आंतरिक और बाहरी रूपों के बीच अंतर करता है।

गांधी के लिए, व्यक्ति स्वराज का स्तंभ है। वह इस बात पर ज़ोर देते हैं कि निष्क्रिय और क्षीण लोग कभी भी स्वतंत्रता प्राप्त नहीं कर पाएंगे। गांधी ने कमजोरी, कायरता और भय को मानव आत्मा के खिलाफ माना है। उन्होंने भारतीयों को निडरता की भावना सिखाई। स्व-शासन, आत्म-संयम, आत्म-अनुशासन और स्वैच्छिक आत्म-बलिदान, व्यक्तिगत स्वायत्तता व नैतिक आत्मनिर्णय की धारणाओं में निहित होना ही स्वराज का आधार है। गांधी स्वराज और स्वदेशी या आत्मनिर्भरता के बीच एक अंतरंग संबंध देखते हैं। गांधी के लिए, स्वतंत्रता मानव स्वभाव में निहित है तथा इसे आत्म-प्रयास के माध्यम से अर्जित आत्म-जागरूकता के हिस्से के रूप में देखना चाहिए और इसके विपरीत, मानव स्वतंत्रता के लिए कोई भी बाहरी खतरा किसी के नियंत्रण से बाहर की परिस्थितियों से नहीं बल्कि यह हमारी कमजोरियों को पहचानने से उत्पन्न होता है। यही कारण है कि वह आत्म-शुद्धि को स्वराज की अवधारणा का अभिन्न अंग मानते हैं, क्योंकि यह व्यक्तियों को स्वतंत्रता की अमूर्त धारणा को समाज और राजनीति की व्यावहारिक वास्तविकता में अनुवाद करने की शक्ति और क्षमता प्रदान करता है। गांधी के अनुसार, एक व्यक्ति को वास्तव में स्वतंत्रता का एहसास तभी होता है यदि वह अपने विवेक या आंतरिक आवाज को सुनता है। निडरता, स्वशासन, आत्म-संयम, आत्म-अनुशासन, त्याग और स्वैच्छिक आत्म-बलिदान बुराई के प्रतिरोध को आसान बना देगा और यही सत्याग्रह के दर्शन का मूल है।

गांधीवादी स्वराज की विशेषताएं (Features of Gandhian Swaraj)

गांधी ने स्वराज की जो विशेषताएं उजागर की, वे निम्नलिखित रूपों में देखे जा सकते हैं:

  • आर्थिक आयाम (Economic Dimension)

गांधी का सपना वर्ग विहीन आर्थिक व्यवस्था का था जो कार्ल मार्क्स के विचारों से बिल्कुल भिन्न है। गांधी का मानना था कि कोई भी परिवर्तन हिंसा या क्रांति द्वारा नहीं बल्कि अहिंसा व प्रेम के मार्ग द्वारा लाया जा सकता है इसलिए इस संदर्भ में उनके विचार मार्क्स के विचारों से भिन्न थे। गांधी का कहना था कि जिस किसी वस्तु का प्रयोग हम स्वयं के निजी जीवन में करते हैं, उन वस्तुओं को हमें स्वयं के पूरा करने का प्रयास करना चाहिए, वह चाहे खेती या पशुपालन या फिर चरखा चलाना हो, केवल इसके पश्चात् ही कोई भी व्यक्ति मजदूरों की असल लगने वाली मेहनत को सही मायनों में समझ सकेगा। उनका कहना था कि यदि इस प्रकार से हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के काम व मेहनत को समझ जाएगा तो वह न तो किसी को ब्राह्मण समझेगा और न ही किसी को क्षुद्र।

गांधी जातीय व्यवस्था के विरोधी नहीं थे लेकिन वह मानते थे कि जातीय व्यवस्था अनुचित नहीं है बल्कि इसके अंदर फैले भेदभाव ने समाज में असमानता को उत्पन्न कर दिया है जिसे हटाना अत्यंत आवश्यक है। गांधी न्याय की वितरण प्रणाली का आधार सर्वोदय एवं अंत्योदय जैसे सिद्धांतों को मानते हैं।

  • राजनीतिक आयाम (Political Dimension)

राजनीतिक तौर पर स्वराज एक स्वशासन है न कि अच्छी सरकार क्योंकि यह अच्छी सरकार स्वशासन का स्थान नहीं ले सकती। वास्तव में इसका अर्थ तो राजनीतिक स्वतंत्रता से कई अधिक है। राजनीतिक स्वशासन व्यक्तिगत स्वशासन से बेहतर नहीं है। आदर्श रूप में कोई भी सरकार व्यावहारिक आधार पर न्यूनतम सीमित संवैधानिक समझौता नहीं करती है। उन्होंने पश्चिमी उदार लोकतंत्र को सतही (superficial) या नाममात्र (Nominal) के लोकतंत्र के रूप में खारिज किया। स्वराज ने वास्तविक रूप में सहभागी लोकतंत्र को निरूपित किया तथा निजी और सार्वजनिक जीवन में व्यक्तिगत स्वतंत्रता के द्वंद को दूर करने का प्रयास किया। गांधीजी मुख्य रूप से सीमित राजनीतिक दायित्व की बात करते हैं। वे कहते हैं कि सरकार को नागरिकों की सहमति के आधार पर ही कोई भी कार्य करना चाहिए न कि उन पर अपनी इच्छाओं और मनमानी को थोपना चाहिए। नागरिकों को अन्यायपूर्ण नियम व कानूनों के विरुद्ध सविनय अवज्ञा का अधिकार भी प्राप्त हो। उनका मानना था कि सत्याग्रह एक प्रकार से राजनीतिक प्रतिक्रियाओं की प्रक्रिया के रूप में होता है। लोगों के पास यह अधिकार हो कि वे अपने अधिकारों के दुरुपयोग की जांच भी कर सकें।

  • सामाजिक आयाम (Social Dimension)–

गांधी ने पाश्चात्य यूरोपीय सभ्यता, संस्कृति तथा विचारधारा को करीब से देखा व समझा। एक ओर जहां उन्होंने पश्चिमी सभ्यता की प्रशंसा की, वहीं दूसरी ओर उनकी कमियों की आलोचना भी की।

गांधी के स्वराज में सत्ता का बंटवारा परंपरागत पिरामिड की तरह न होकर गोलाकार समुद्री वृत-सा होता है। जिसमें सत्ता व्यक्ति से शुरू होकर ग्राम पंचायत, ब्लॉक पंचायत, तहसील पंचायत, जिला परिषद, प्रांतीय सरकार, केंद्र सरकार तथा विश्व सरकार जैसे कभी न समाप्त होने वाले गोलाकार दायरे में फैलती जाती है। इस प्रकार से सत्ता का विकेंद्रीकरण उनके स्वराज की अवधारणा का एक अनोखा आकर्षण भी है।

Mahatma Gandhi and Swaraj

गांधी के आदर्श समाज में…

  • किसी भी प्रकार से कुलीन व्यक्तियों, शिक्षित व्यक्तियों, धनी व्यक्ति का एकाधिकार और वर्चस्व न हो तथा साथ ही जाति, वर्ग, धर्म, लिंग के आधार पर भी कोई भेदभाव न हो।
  • किसी भी प्रकार का केंद्रीयकरण, संचयीकरण, हिंसा, शोषण न होता हो।
  • जहां पर हर कोई अपनी इच्छानुसार अपने धर्म (नैतिक कर्तव्यों) का पालन कर सके तथा वह स्वयं को दूसरों और समुदाय के लिए समय आने पर बलिदान करने के लिए तैयार रहे।
  • स्वराज सभी के लिए है विशेषकर गरीबों व मेहनतकश जनता के लिए।

आलोचना

  1. गांधी की आधुनिक सभ्यता की आलोचना को इस तथ्य के आलोक में समझना होगा कि वह आंशिक रूप से एक अंदरूनी और आंशिक रूप से इसके बाहर थी। गांधी ने आधुनिक उदारवाद की नागरिक स्वतंत्रता और प्रबोधन के बाद की आधुनिकता की वैज्ञानिक भावना को महत्व दिया। वह भारतीय सभ्यता से कुछ वैचारिक श्रेणियों और नैतिक मानदंडों यानी सत्य और अहिंसा को पश्चिमी अमानवीयता के परिवर्तन के लिए प्राप्त करने में भी सक्षम थे।
  2. पश्चिमी आधुनिकता के प्रति गांधी का प्रारंभिक दृष्टिकोण इतना नकारात्मक था कि आधुनिक जीवन के कुछ पहलुओं के लिए गांधी को दोष देना पूरी तरह से अनुचित नहीं था। हालाँकि, अपने बाद के वर्षों में, गांधी ने आधुनिकता की अपनी आलोचना को नरम कर दिया।
  3. सत्याग्रह की अव्यावहारिकता गांधी के सिद्धांत और सत्याग्रह के अभ्यास के संबंध में कई आलोचकों का कहना है कि ये अहिंसा और आत्म-पीड़ा हिंसक उत्पीड़न के खिलाफ अव्यावहारिक तरीके हैं। लोकमान्य तिलक ने तर्क दिया कि गांधी की राजनीति और नैतिकता को एकीकृत करने की परियोजना इस सांसारिक चिंताओं के लिए अनुपयुक्त है।
  4. गांधी का स्वराज मुख्यतः प्लेटो के राज्य के विचार की भांति ही यूटोपियन (एक प्रकार का आदर्श समाज, जो इतना आदर्श है कि उसका साकार होना लगभग असंभव हो) था। कई आलोचकों के अनुसार गांधी ने स्वराज में राजनीति व धर्म का मिश्रण किया है।
  5. गांधी के स्वराज में ‘ट्रस्टीशिप’ के विचार को साकार करना लगभग असंभव है।
  6. आधुनिकता की उनकी आलोचना- औद्योगीकरण, मशीन, वकील, डॉक्टर, रेलवे, आदि अतार्किक और परंपरावादी लगते हैं। कुछ आलोचकों का तो यहाँ तक कहना है कि उनके ”चरखा” और ”खादी” अव्यावहारिक थे।

निष्कर्ष

स्वराज के तीन स्तंभों के निर्माण में स्वराज के निहित अर्थ का यह विस्तार महात्मा गांधी के संपूर्ण राजनीतिक दर्शन और कार्य का सार है। स्वराज की अवधारणा को जीवन और अर्थ देने के लिए, गांधी के रचनात्मक कार्यक्रम का सूत्रीकरण सर्वोच्च महत्वपूर्ण है। यह प्रत्येक भारतीय के आत्म-विकास के लिए आवश्यक न्यूनतम संसाधनों और पर्यावरण को सुनिश्चित करने तथा स्वराज के लक्ष्य तक पहुँचने के साधन के रूप में उनके सिद्धांत की आवश्यक सुधारात्मक प्रकृति को चित्रित करता है।

गांधी का व्यवहारवाद भविष्य में उनका विश्वास और अपनी दृष्टि को एक जीवंत सत्य बनाने की दृढ़ता, उनके बहुआयामी व्यक्तित्व की विशेषताएं हैं। गांधी वास्तव में नई सभ्यता के अग्रदूत थे और पतन की ओर जा रही मानवता के उद्धारक थे। वे आज भी हमारे लिए एक प्रकाश स्तंभ और प्रेरणा स्रोत के समान हैं। विशेषकर ऐसे परिवेश में जहां पर पूरा विश्व भयंकर हथियारों और युद्धों की होड़ में लगा हुआ है ऐसे में जहां पलक झपकते ही पूरी मानवता पर खत्म होने का संकट मौजूद है वहां गांधीवादी विचारों का होना भी स्वाभाविक है।

गांधी के अनुसार स्वराज्य क्या है?

गांधी का मत था स्वराज का अर्थ है जनप्रतिनिधियों द्वारा संचालित ऐसी व्यवस्था जो जन-आवश्यकताओं तथा जन-आकांक्षाओं के अनुरूप हो।'' वस्तुत: गांधीजी का स्वराज का विचार ब्रिटेन के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, नौकरशाही, कानूनी, सैनिक एवं शैक्षणिक संस्थाओं का बहिष्कार करने का आन्दोलन था।

पूर्ण स्वराज का मतलब क्या होता है?

स्वराज एक पवित्र शब्द है, जिसका अर्थ है स्वशासन. इसका अर्थ सब प्रकार के संयमों से मुक्ति नहीं है, जैसा प्राय: स्वाधीनता का अर्थ लगाया जाता है. पूर्ण स्वराज यानी अपने सर्वाधिक दीनहीन देशवासियों की स्वतंत्रता.

महात्मा गांधी का हिन्द स्वराज तत्वत क्या है?

हिन्द स्वराज का सार (1) आपके मन का राज्य स्वराज है। (2) आपकी कुंजी सत्याग्रह, आत्मबल या करूणा बल है। (3) उस बल को आजमाने के लिए स्वदेशी को पूरी तरह अपनाने की जरूरत है। (4) हम जो करना चाहते हैं वह अंग्रेजों को सजा देने के लिए नहीं करें, बल्कि इसलिए करें कि ऐसा करना हमारा कर्तव्य है।

पहली बार स्वराज शब्द का प्रयोग कब किया गया?

स्वराज शब्द का पहली बार इस्तेमाल दादाभाई नौरोजी ने 1906 में कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में किया था।